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द्रव्यानुयोगतर्कणा
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पुद्गलस्य रूपरसस्पर्शादिपर्यायाः । धर्मस्य व्यंजनार्थपर्यायो। अधर्मस्य व्यंजनार्थपर्यायौ । कालस्य व्यंजनार्थपर्यायौ । आकाशस्य व्यंजनार्थपर्यायौ । एवं द्रव्याणां संख्याकृतो भेदः । लक्षणादिकृतो भेदः ।
तस्विविधाः । उपचारेण नवविधाः । एकैकस्य विध्यात । तथापि लक्षणादत्पादव्ययध्रौव्ययुक्ताः । इत्थं षडपि जैनप्रमाणप्राप्तानि द्रव्याणि इमे । इति द्रव्यगुणपर्यायाः प्रत्येक परस्परं मिन्ना अभिन्नास्त्रिविधास्त्रिलक्षणयुताः संतीति व्याख्येयम ॥२॥
व्याख्यार्थ-द्रव्यके सहभावी अर्थात् द्रव्यके साथही साथ होनेवाला, तथा यावद्रव्यभावी अर्थात् उस द्रव्यमात्रमें रहनेवाला जो धर्म है उसीको गुण कहते हैं। जैसे जीव द्रव्यका 'उपयोग नाम गुण है, पुद्गल द्रव्यका ग्रहण गुण है, धर्मास्तिकाय (धर्मद्रव्य ) का गतिहेतता गण है. अधर्मास्तिकाय ( अधर्मद्रव्य ) का स्थितिकी कारणतारूप गुण है, और ऐसे ही कालद्रव्यका वर्तनात् लक्षण गुण है। जिस समय जो दव्य उत्पन्न होता है उसी समानकालमें उस द्रव्यके गुणभी उत्पन्न होते हैं, इस हेतुसे द्रव्य तथा उसके गुणोंका पौर्वापर्यभाव, अर्थात् पूर्व कालमें द्रव्य है पश्चात् उस द्रव्यके गुण हैं यह वार्ता नहीं है । दक्षिण तथा वाम भागके पशुके श्रृगोंके सदृश द्रव्य तथा गुण ये दोनों समान सामग्रीसे जन्य होनेसे एकही कालमें हैं । अनादि अनन्त द्रव्य गुणोंकी उत्पत्ति संसारके व्यवहारसे एकही कालमें देखी गई है, जैसे कृष्णघट । अब क्रमभावी, अथवा अयावद्रव्यभावी अर्थात् उस संपूर्ण द्रव्यमात्रमें जो न रहै किन्तु किसी दशामें रहे उसको पर्याय कहते हैं । जैसे जीव द्रव्यके नरकआदि पर्याय; पुद्गलद्रव्यके रूप रस स्पर्शादि पर्याय, धर्मद्रव्यके व्यंजन तथा अर्थपर्याय, अधर्मद्रव्यके भी व्यंजन तथा अर्थपर्याय, कालद्रव्यके व्यंजन तथा अर्थपर्याय, और आकाशद्रव्यके भी व्यंजन तथा अर्थपर्याय हैं । इसी प्रकार द्रव्योंके संख्याकृत भेद, लक्षणादिकृत भेद, प्रदेश विभागकृत भेद हैं, इसरीतिसे तीन प्रकारके हैं, और उपचारसे नवविध हैं, क्योंकि एक एक के तीन तीन भेद हैं, तथापि लक्षणसे संपूर्ण द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त हैं । इस प्रकार जीव १, पुद्गल २, धर्म ३, अधर्म ४, आकाश ५ तथा काल ६, ये छहों द्रव्य जैनप्रमाणसे प्राप्त (सिद्ध) हैं,
और ये द्रव्य, गुण, पर्याय परस्पर भिन्न भी हैं और अभिन्न भी, तथा त्रिविध हैं और त्रिलक्षण, अर्थात् उत्पत्ति, व्यय और ध्रौव्ययुक्त हैं । ऐसा सूत्रका व्याख्यान करना चाहिये ॥२॥
अथ द्रव्येण सह गुणपर्याययोर्भेदं दर्शयन्नाह ।
अब इसके अनन्तर द्रव्यके साथ गुण और पर्यायका भेद दर्शातेहुये अग्रिम सूत्र कहते हैं।
(१) परन्तु एकही देशमें जीव तया ज्ञानादिको उपलब्धि होनेसे जीवाव्य अभिन्न भी है। चतुर्विध दर्शन तथा अष्टविध ज्ञानको उपयोग कहते हैं ।
(२) प्रत्येक पदार्थकी गतिमें सहकारिकारणता धर्म द्रव्यको है। (३) अमुक पदार्थ इसने समय में है, इस प्रकार सब पदार्यों के वर्ताने के लक्षणरूप काल है।
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