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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा मृत्तिका तथाकारा स्थिता । एतदूर्ध्वतासामान्यं कथ्यते । यदि च पिंडकुसूलादिपर्यायेषु अनुगतमेकं मृद्रव्यं न कथ्यते तदा घटादिपर्यायेषु अनुगतं घटादिद्रव्यमपि न कथ्यते । तथा च सर्वं विशेषरूपं भवति । क्षणिकवादिबौद्धमतमायाति । अथवा सर्वद्रव्येषु एकमेव द्रव्यमागच्छतीति । ततः घटादिद्रव्ये अथ च तदंतर्वतिसामान्यमृदादिद्रव्ये चानुभवानुमारेण परापरोवंतासामान्यमवश्यमंगीकर्तव्यम् । घटादिद्रव्याणि स्तोकपर्यायव्यापीनि पुनर्मुदादि द्रव्याणि बहुपर्यायव्यापीनि संति । इत्थं नरनारकादिद्रव्याणां विशेषो ज्ञातव्यः । एतत्सर्वमपि नैगमनयमतम् । तथा शुद्धसंग्रहनयमते तु सदद्व तवादेन एकमेव द्रव्यमापद्यत इति ज्ञेयम् ।।४।। व्याख्यार्थ-पहिले और अगले विशेषोंके उदयका जो कारण सो पूर्वापर गुणोदय अर्थात् पूर्व और उत्तर पर्यायोंमें त्रिकाल अनुयायी पदार्थका अंश है उसको ऊर्ध्वता नामक प्रथम सामान्य कहते हैं । दृष्टान्त यह है कि जैसे-मृत्तिकाका पिंड, कुसूल इत्यादि आकृतियों में अनुगत अर्थात् पूर्वोत्तर साधारण परिणामरूप द्रव्यरूप जो मृत्तिका है वह उसही आकारमें स्थित है । इसहीको ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं। और यदि पिंड कुसूल आदि यावत् पायोंमें अनुगत एक मृत्तिकारूप द्रव्य न कहैं तो घट आदि पायोंमें अनुगत घट आदि द्रव्य भी नहीं कह सकते; और इस प्रकारसे सब विशेषरूप होनेसे क्षणिकवादी बौद्धका मत आकर प्राप्त होता है । अथवा संपूर्ण द्रव्यों में एकही द्रव्य आता है, इस लिये घट आदि द्रव्यमें और उसके अन्तर्गत सामान्य मृत्तिका आदि द्रव्यमें भी अनुभवके अनुसार पूर्वापरदशासाधारण ऊवता सामान्य अवश्य अङ्गीकर्तव्य है। इनमें घटआदि द्रव्य तो अल्पपर्याय व्यापी हैं और मृत्तिका आदि द्रव्य बहुत पर्याय व्यापी हैं । इसी प्रकार नर तथा नारक आदि द्रव्योंका भी विशेष समझना चाहिये । यह सब द्रव्य गुण तथा पर्यायका भेद और अभेद तथा ऊर्ध्वता सामान्यकी व्यवस्थादि नैगमनयमतके अनुसार वर्णन किया गया है, और शुद्धसंग्रहनयमतके अनुसार तो सद् अद्वैतवादसे एक ही द्रव्य प्राप्त होता है, ऐसा जानना चाहिये ॥४॥ पूर्वापरसाधारणं परिणाम द्रव्यमूर्खता कटककंकणाद्यनुगामिनां न वदतीति तत्स्वरूपमुक्त्वाण तिर्यक्मामान्यलक्षणमाह । पूर्वापरपर्सायोंमें साधारण परिणामरूप द्रव्य ऊर्ध्वता सामान्य है, वह कुंडल, कटक (कड़े) कंकण आदि पर्यायोंमें अनुगामीपनेको नहीं कहता है, अतः ऊर्ध्वतासामान्यका स्वरूप कहकर अब तिर्यक्सामान्यका लक्षण कहते हैं ॥ तुल्या परिणतिभिन्नव्यक्तिषु यत्तदुच्यते । तिर्यक्सामान्यमित्येव घटत्वं तु घटेष्विव ॥५॥ भावार्थ-भिन्न भिन्न प्रदेशों में स्थित जो अनेक व्यक्ति हैं उन सबमें सदृश परिणामरूप जो द्रव्यशक्ति है उसको तिर्यक् सामान्य कहते हैं, जैसे कि घटोंमें घटत्व ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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