________________ 218 श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अशेषोऽनुगतश्चार्थः संमतौ हि प्रकाशितः / यथाम्बुपयसोर्भेदो न यावदन्त्यवैशिष्टयम् // 10 // भावार्थः—यह संपूर्ण जीव पुद्गलका अनुगत संबन्ध संमतिमें प्रकाशित है, क्योंकि जैसे दुग्ध और जलका अन्त्य विशेष विना भेद नहीं हो सकता, वैसेही इनका भी भेद नहीं हो सकता // 10 // व्याख्या / हीति निश्चितम / अयमभिप्रायः अनुगतात्यन्तसंबन्धः सर्वोऽप्यर्थः संमती प्रकाशितः / यथा स्वनुगतत्वे दृष्टान्तमाह / अम्बुपयसोः क्षीरनीरयो दो विभजना पृथक्त्वमिति तावन्नास्ति यावदन्त्यवैशिष्टयमम्त्यविशेषपर्यन्तं यावत् / अन्त्यविशेषे शूद्धपुद्गला जीवलक्षणेन पृथक क्रियन्ते / यथा औदारिकादिवर्गणांनिष्पन्नाच्छरीरादेनिघनासंख्येयप्रदेश आत्मा मिन्न इति / अत्र गाथा “अणुण्णाणुगयाणं इमवतं वनिविभयणमजुत्तं / जह दुद्धपाणियाणं जावंत विसेस पज्जाया / 1 / " इत्थं कथयतां यदि मूर्तता पुद्गलद्रव्यविभाजकान्त्यविशेषोऽस्ति तदा तस्या उपचार आत्मद्रव्येण कथं भवेत् / अथ च यद्यत्र विशेषो. नास्ति तदान्योन्यानुगमनेनामूर्त्तताया उपचारः पुद्गलद्रव्येण कथं न भवेदित्याशङ्का केषांचिद्भवति / तां शङ्का निराचिकीर्षुः प्रतिपादयन्नाह // 10 // व्याख्यार्थः-अभिप्राय यह है कि निश्चयरूपसे अनुगत अर्थात् अत्यन्त संबन्धरूप सब अर्थ संमतिमें प्रकाशित किया गया है। अब यथा इत्यादि उत्तरार्द्धसे अनुगततामें दृष्टान्त कहते हैं / जैसे मिले हुए जल और दूधका विभाग ( भेद ) जबतक अंतिम विशेष नहीं होता तबतक नहीं होता है, इसी प्रकार अन्तके विशेष में ही शुद्ध पुद्गल जीवलक्षणसे पृथक् किये जाते हैं। भाव यह है कि जैसे जलका तथा दूधका विभाग अंतिम दाह क्रियारूप विशेष अथवा पदार्थविज्ञान विशेषसे होता है, ऐसेही जीवकी मुक्तिदशारूप विशेषमें पुद्गलका जीवसे विभाग होता है / जैसे कि औदारिक आदि वर्गणाओंसे सिद्ध शरीर आदिसे ज्ञानघन असंख्यात प्रदेशोंका धारक आत्मा भिन्न है / इस विषयमें अन्यत्र गाथा कही है कि "जैसे दूध और पानीका अन्त्यविशेष पर्याय तक भेद नहीं होता उसी प्रकार परस्पर अनुगत पदार्थोंका भेद नहीं होता है, यह कहना अयुक्त है।" इस प्रकार कहनेवालोंके यदि मूर्तपना पुद्गगल द्रव्यको जुदा करनेवाला अन्तका विशेष है तो उसका उपचार आत्मद्रव्यके साथ कैसे होवे / और यदि अन्त्य विशेष नहीं है तो जीव पुद्गलका परस्पर अनुगम होनेसे जैसे मूर्तताका उपचार आत्मद्रव्य के साथ होता है ऐसे ही अमूर्त्तताका उपचार पुद्गल द्रव्यके साथ क्यों न होगा ? ऐसी आशंका किन्हींकी होती है, इसलिये उस शंकाको दूर करनेके लिये कहते हैं // 10 // मूर्तियंत्रानभिभूता नास्ति तत्राप्यमूर्तता / यत्राभिभूतामूत्तित्वं मूर्त्यनन्त्यं हि तेषु च // 11 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org