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श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भावार्थ-जैसे द्रव्यत्व सामान्य पृथिवीत्वआदिकी अपेक्षासे पर है; और द्रव्य, गुण, तथा कर्मके ऊपर रहनेवाली सत्ता जातिकी अपेक्षासे ऊपर भी है; ऐसे परापर सामान्यकी भांति चेतनत्वआदि गुणोंके सामान्यगुणता तथा विशेषगुणता ये दोनों हैं । 'एत एव विशेषेण' इत्यादि पूर्वार्द्धका अर्थ तो स्पष्ट ही है, इसलिये व्याख्या नहीं की ॥ १० ।।
विशेषेण गुणाः सन्ति बहुस्वभावकाश्रयाः ।
अर्थेन ते कथं गुण्याः स्थूलव्यवहृतिस्त्वियम् ॥११॥ भावार्थ:-अनेक स्वभावयुक्त पदार्थों में रहनेवाले विशेषगुण अनन्त हैं । उन सबकी पदार्थके साथ कैसे गुणना हो सकती है; इसलिये पुद्गलके विशेषगुण हैं; इत्यादि जो पूर्व कथन किया है; सो स्थूल व्यवहारसे जानना चाहिये ।। ११ ॥
व्याख्या । ज्ञानदर्शनसुखवीर्या एत आत्मनो विशेषगुणाः, सरसगन्धवर्णा एने पुद्गलस्य विशेषगुणाः, इत्येतद्यत्कथितं तदियं स्थूलव्यवहृतिः स्थूलव्यवहारः । यतश्चाष्टी मिद्धगुणाः, एकत्रिशसिद्धगुणाः, एकगुणकालकादयः, पुद्गला अनन्ता, इत्यादिविचारणया विशेषगुणानामानन्स्योत्पत्तिः । मा च छद्मस्थज्ञानगोचरा नास्ति । अतोऽर्थेन ते कथं गुण्यास्तस्माद्धर्मास्तिकायादीनां गतिस्थित्यवगाहनावर्तनाहेतुत्वोपयोगग्रहणाख्याः षडेवास्तित्वादयः । सामान्यगुणास्तु विवक्षया अपरिमिता इत्येवं न्याय्यम् । षण्णां लक्षणवतां लक्षणानि षडेवेति हि को न श्रद्दधाति । गाथा 'नाणं च दंपणं चे चरितं च तवो तहा । वोरियं उव ओगोय एवं जीवस्म लक्खणं । १ । सद्दधकार उज्जोया पमा छायातहेव य । वण्णरसगंधफासा पुग्गलाणं तु लक्खणं ।२।' इत्यादि तु स्वभावविमावलक्षणयोरन्योरयेनान्तरीयकत्वप्रतिपादनायेत्यादि पण्डितैविचारणीयम् ॥ ११ ॥
___ व्याख्यार्थः-ज्ञान, दर्शन, सुख तथा वीर्य ये आत्माके विशेषगुण हैं; तथा स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये पुद्गलके विशेषगुण हैं; इस प्रकार जो कथन किया गया है; सो स्थूल व्यवहारसे है; ऐसा समझना चाहिये। क्योंकि-सिद्धों के आठ गुण हैं, पुनः प्रकारान्तरसे सिद्धोंके ३१ इकतीस गुण हैं, कालआदि एक गुणके धारक हैं, पुद्गल अनन्त हैं; इसलिये उनके गुण भी अनन्त हैं; इत्यादि विचारके करनेसे विशेषगुणोंके अनन्तताकी उत्पत्ति होती है; और वह छद्मस्थ ज्ञानके गोचर नहीं है । इस कारणसे पदार्थके साथ उन सब विशेषगुणोंकी गणना कैसे हो सकती है; अर्थात् अल्पज्ञानावस्थामें उन सब विशेषगुणोंका जानना तथा उनकी गणना करना दोनों ही असंभव हैं इस कारणसे धर्मास्तिकायआदिके गति, स्थिति, अवगाहन, वर्त्तनाहेतुता, उपयोग तथा ग्रहणरूप षट् प्रकारके ही गुण समझने चाहिये । और अस्तित्वआदि सामान्यगुण तो विवक्षासे अपरिमित ( अपरिमाण ) हैं; यही न्याय है; क्योंकि-षट् लक्षणवालोंके अर्थात् द्रव्योंके लक्षण भी ६ ही हैं; इस विषयमें कौन नहीं श्रद्धान करेगा और "ज्ञान, दर्शन, चारित्र,
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