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________________ 222 ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् क्योंकि गुण सहभावी हैं, इसलिये उनमें उपचार नहीं होता है / तात्पर्य यह कि कोई स्वभाव गुण पर्यायोंसे भिन्न नहीं है इसलिये जो अनुपचरित भाव है वही गुण और जो उपचरित भाव है वही पर्याय कहा जाता है। और इसी कारणसे केवल द्रव्यके आश्रय जो रहें वे गुण हैं; और द्रव्य, गुण दोनोंके आश्रय जो रहें वे पर्याय हैं / इस विषयमें उत्तराध्ययनसूत्रमें गाथा द्वारा कहा है कि "गुणोंका आश्रय द्रव्य है अतएव द्रव्याश्रितत्व गुणोंका लक्षण है; और दोनोंके आश्रय रहना, यह पर्यायोंका लक्षण है " // 17 / / एवं स्वभावोपगता गुणास्तु भेदेन सम्यक्कथिताश्च योग्याः। अर्हत्नमाम्भोजसमाश्रितानां भव्यात्मनां ज्ञानगुणार्थमत्र / भावार्थः-इस प्रकार इस अध्यायमें श्रीजिनेन्द्र के चरणकमलोंके आश्रित भव्य जीवोंको ज्ञानगुणकी प्राप्तिके लिये हमने शास्त्रोक्त योग्य स्वभावसे प्राप्त गुण अच्छी रीतिसे भेद करके कहे हैं // 18 // इति द्रव्यानुयोगतकणायां त्रयोदशोऽध्यायः / व्याख्या / यदि च स्वद्रव्यादिग्राहकेणास्तिस्वभावः, परद्रव्यादिग्राहकेण नास्तिस्वभावः, इत्यादि स्वभावोपगता गुणाः स्वभावसहिता इत्युपगम्यते / तदोभयोरपि द्रव्याथिकविषयत्वात्सप्तमङ्गयामाद्यद्वितीययोर्मयोद्रव्याथिकपर्यायाथिकाश्रयेण प्रक्रिया भज्येतेत्याद्यत्र बहु विचारणीयम / एवमनया रीत्या स्वभावाः स्वभावयुक्ता गुणाश्च भेदेन प्रकारकथनेन सम्यकशास्त्रोक्तरीत्या कथिताः प्रकाशिताः / श्रीमद्वाचकमुख्ययशोविजयपाठकमतल्लिकारचितप्राकृतपाठदृष्टा लिखिता इत्यर्थः / किमर्थमत्र कस्म कार्याय कथिता इति प्रयोजनपदं ज्ञानगुणार्थं केषामहंतां वीतरागाणां क्रमाश्चरणास्तएवाम्मोजानि कमलानि तत्र समाश्रितानां शरणीभूतानां भव्यात्मनां भव्यलोकानां ज्ञानगुणार्थं मया कथिता इत्यर्थः // 18 // इति श्रीकृतिभोजसागरनिर्मितायां द्रव्यानुयोगतर्कणान्याख्यायां त्रयोदशोऽध्यायः / व्याख्यार्थः-यदि अपने द्रव्य क्षेत्र आदिका ग्राहक होनेसे अस्तिस्वभाव और परकीय द्रव्यक्षेत्रादिका ग्राहक होनेसे नास्तिस्वभाव है; इत्यादि स्वभावसे उपगत गुण हैं ऐसा स्वीकार करते हो तब तो दोनोंके द्रव्यार्थिक नयका ही विषयपना होनेसे सप्तभंगीमें प्रथमभंग (स्यादस्त्येव) कथंचित् है ही और द्वितीयभंग (स्यान्नास्त्येव) कथंचित् है ही नहीं' इन दोनों भंगोंमें द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिकके आश्रय जो प्रक्रिया है उसका भंग होगा; इत्यादि बहुत कुछ वहांपर विचारणीय है / इस पूर्वोक्त रीतिसे स्वभाव तथा स्वभावसहित गुण प्रकारोंके कथनद्वारा शास्त्रोक्त रीतिसे प्रकाशित किये हैं अर्थात् श्रीमान् वाचक मुख्य यशोविजयजी उपाध्यायद्वारा विरचित प्राकृतपाठ में देखे हुए लिखे हैं / किस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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