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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ ११९ व्यक्ति ( घट पटआदि व्यक्ति) सदृश परिणाम लक्षण व्यंजन पर्यायमें ही रहता है; क्यों कि-स्थूलरूपसे कालान्तरमें ठहरनेवाले और शब्दोंके संकेत गोचर व्यंजन पर्याय हैं; ऐसी प्रावनिकोंकी प्रसिद्धि है । और वैसादृश्यरूप विवर्त लक्षणसहित विशेष है; सो भी पर्यायमें ही अन्तर्गत होता है; इसलिये सामान्य विशेषसे अधिक नयका अवकाश नहीं है ॥ ११ ॥ संग्रहे व्यवहारे च यदीमौ युङ क्थ केवलम् । तदाद्यन्तनयस्तोके किं न युङ क्थ हि तावपि ॥ १२॥ भावार्थः-यदि संग्रह तथा व्यवहारनयमें अर्पित तथा अनर्पित युक्त होते हैं; अर्थात् अन्तर्भूत होते हैं; तो द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक यह दोनों आदिके तीन नय और अन्तके चार नय समूहमें क्यों नहीं योजित करते ? ॥ १२ ॥ व्याख्या । अथ सङग्रहे च पुनर्व्यवहारे यदीमावर्पितानर्पितौ युथ ताद्यन्तनयस्तोके तावपि किं न युक्थ इति । यद्यवं कथयथ अर्पितानपितसिद्ध रित्यादिसूत्रवर्पिता विशेषा अनर्पिताः सामान्या तत्रापिता व्यवहारादिविशेषनयेष्वन्तर्भवन्तिः अनर्पिताः सङग्र हेऽन्तर्भवन्ति तदा आद्य षु प्रथमेष्वन्त्येषु पाश्चात्येषु नयस्तोकेष्विमो द्रव्यपर्यायो कथं न युञ्जीत सप्तनयसम्बन्धसिद्ध रिति विचारणीयम् । सिद्धान्ते श्रीजिनवाणी सप्तनयावतारिका एवास्ति न न्यूनाधिका। यतः सेंकितं नए सत्तमूलनया पण्णत्ता तं जहाणेगमे, संगहे, ववहारे, उज्जुसुए, मद्दे, समभिरूढे, एवंभूए । इत्यादिसूत्रपाठोऽपि ज्ञेयोऽतस्तत्सूत्रमार्ग त्यक्त्वा "नया नव" इत्यधिकयोजना न साधीयसी । अथान्तर्भूतानां पृथक्करणमपि पिष्टपेषणमेवेति ॥ १२ ॥ व्याख्यार्थः-यदि इस अर्पित और अनर्पितको संग्रह तथा व्यवहारनयमें संमिलित करते हो तो उस द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक नयको भी क्रमसे आदिके तीन नयस्तोकमें और अन्तके चार नय समुदायमें क्यों नहीं संमिलित करते। यदि आप ऐसा कहें कि" अर्पितानर्पितसिद्धेः” इत्यादि सूत्रोंमें अर्पित विशेषरूप हैं; और जो अनर्पित हैं; वह, सामान्य हैं। इसलिये इन दोनोंमेंसे अर्पित तो व्यवहारआदि विशेषनयोंमें अंतर्भूत होते हैं, और अनर्पित सङग्रहनयमें अन्तर्गत ( शामिल ) होते हैं; तो आदिके तीन और अन्तके चार नयोंके जो समुदाय हैं; उनमें इन द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिकको क्यों नहीं युक्त (शामिल ) करते हो ? क्योंकि-सात नयोंका जो संबन्ध है; उसकी सिद्धि होती है; ऐसा विचार करना चाहिये। अर्थात् सिद्धान्त( शास्त्र )में श्रीजिनवाणी सात नयोंका ही अचतार करती है; सातसे न्यून (कम) अथवा अधिक नयोंका अवतार नहीं करती उसकी भी सिद्धि होजायगी क्योंकि-"सिद्धान्त में सात मूलनय कहे गये हैं; वह जैसे नैगम १ संग्रह २ व्यवहार ३ ऋजुसूत्र ४ शब्द ५ समभिरूढ ६ और एवंभूत । इत्यादिरूपसे सूत्रका पाठ भी जानना चाहिये। इसलिये उस सूत्रके मार्गको त्यागकर “ नय नव हैं" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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