________________
११८ ]
श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ७०० भेद और जिस मतमें पांच नय माने हैं; उसमें ५०० पांचसौ भेदोंकी कल्पना है। यही विषय आवश्यकनामक ग्रन्थमें भी कहा है। उसकी गाथाका भाव यह है “एक २ नय सौ सौ भेदसहित है; इस प्रकार सा नय सातसौ हो जाते हैं; और अन्य मतके अनुसार भी पांच नय पाँच सौ हो जाते हैं ॥१॥” इस प्रकारकी शास्त्रीयपरिभाषाको त्यागकर द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक नाम दो नयोंको जिनका कि-इन्ही सप्त या पंच भेदोंमें अन्तर्भाव है; उनको उन सात या पांच में से दूर करके देवसेनजीने नव नय कहे हैं; सो इस प्रकार देवसेनजी क्या प्रपंच करते हैं ॥ १०॥
पुनश्चर्चा कथयन्नाह। और भी इस विषयमें विशेष चर्चा (विवाद) कहते हुए इस सूत्रको कहते हैं ।
यदि पर्यायद्रव्यार्थनयौ भिन्नौ विलोकितौ ।
पितापिताभ्यां तु स्युनकादश तत्कथम् ॥११॥ भावार्थः-यदि द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिकनय सा भेदोंसे भिन्न ( जुदे ) देखे गये हैं; तो अर्पित तथा अनर्षित इन दोनों भेदांसे एकादश ११ ( ग्यारह )नय क्यों नहीं मानते ।। ११॥
व्याख्या। यदि पर्यायार्थद्रव्यार्थनयो भिन्नौ विलोकिती पृथक् दृष्टी तत्तस्मान्नव नया इति कथितम् । तत्तस्मादपितानपिताम्यां सहैकादश नया इति कथं न स्युरपि तु स्युः । भावार्थस्त्वयं नैगमसङग्रहव्यवहार-- भेदाद्यो द्रव्यार्थिकस्त्रिधा, पर्यायायिकश्चतुर्धा-ऋजुसूत्रं, शब्दः, सपभिरूड, एवं भूमश्चति । अपितानति मे सावपि सामान्यविशेषपर्यायो तो च द्रव्यपर्याययोश्चेति । तथा हि सामान्यं द्विप्रकारमूर्द्धतासामान्यं तिर्यक्सामान्य च। तत्रोर्ध्वतासामान्यं द्रव्यमेव, तिर्यक्सामान्यं तु प्रति भक्तिपदश गारगतिलक्षणं व्यञ्जनार्याय एव स्थूलाः कालान्तरस्थायिनः शब्दानां सङ्केतविषया व्यञ्जनपर्याया इति प्रावनिकप्रसिद्धः । विशेषोऽपि वैसादृश्यविवर्त्तलक्षणः पर्याय एवान्तर्भवतीति नैताभ्यामधि कनयावकाशः ॥ ११ ॥
व्याख्यार्थः यदि द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक नय भिन्नारसे अर्थात् पृथक्तासे देखे गये हैं; और उसी कारणसे नव ९ नयका तुमने कथन किया है। तो अर्पित और अनर्पित भेदोंको साथ मिलाके एकादश ११ नय क्यों नहीं होवेंगे किन्तु अवश्य होवेंगे॥भावार्थ यह है; कि-नैगम, संग्रह, तथा व्यवहार इन भेदोंसे प्रथम जो द्रव्यार्थिक नय है; वह तीन प्रकारका है; और ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत इन भेदोंसे पर्यायार्थिक चार ४ प्रकारका है। और अर्पित तथा अनर्पितरूप जो दो भेद हैं; यह भी सामान्य और विशेषके पर्याय हैं; और द्रव्य तथा पर्यायमें रहते हैं। सो ही कहते हैं; कि-सामान्य दो प्रकारका है; एक ऊर्ध्वतासामान्य और दूसरा तिर्यक्सामान्य, इनमेंसे ऊर्वतासामान्य तो द्रव्यरूप ही है; क्योंकि-वह सब पर्यायोंमें साधारणरूपसे रहता है; और तिर्यक्सामान्य प्रति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org .