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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशासमालायाम् ऐसा कहकर जो अधिक मयोंकी योजना करते हो सो अच्छी नहीं है। तथा द्रव्यार्थिक
और पर्यायार्थिक जो क्रमसे प्रथम तीन और अन्तके चार नयोंके स्तोकमें अन्तर्भूत हैं; इनको उनसे जुदे करना है; सो भी पिष्टपेषण ही है ॥ १२ ॥
____ अथ नयमसके द्रव्यपर्यायो यथान्तर्भवतस्तद्दर्शयति ।।
___ अब जिस प्रकारसे सात नयोंमें द्रव्य तथा पर्यायका अर्थात् द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंका अन्तर्भाव होता है; उस प्रकारको दर्शाते हैं।
पर्यायाथिकनामानो नयाः स्युरन्तिमास्त्रयः ।
'द्रव्याथिकनयास्तद्वच्चत्वारः प्रथमे पुनः ॥ १३ ॥ भावार्थ:-अन्तके तीन नय पर्यायार्थिक नाम के धारक हैं। और इसी प्रकार पहिले चार ४ नय द्रव्यार्थिक नय हैं ॥ १३ ॥
व्याख्या । अन्तिमात्रयः शब्दसमभिरुढ वंभूताख्यास्त्रयः पर्यायाथिकाः कथ्यन्ते । तथा प्रथमे चत्वारो नेगमसङ्ग्रहव्यवहार सूत्राख्या द्रव्यार्थिकनया इति ॥ १३ ॥
व्याख्यार्थः-अन्तके तीन अर्थात् शब्द, समभिरूढ और एवंभूत यह तीन नय पर्यायार्थिक कहे जाते हैं। तथा आदिके नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्रनामक यह चार द्रव्यार्थिक नय हैं ।। १३ ।।
अथ य आचार्या नयावतारं कुर्वन्ति तेषां नामान्याह । अब जो आचार्या नयोंका अवतार करते हैं; उनके नामोंको कहते हैं।
इत्याह च महाभाष्ये क्षमाश्रमणपुङ्गवः।
जिनभद्रगणिः सर्वसिद्धान्तमतपारगः ॥ १४ ॥ भावार्थः-अन्तके तीन नय पर्यायार्थिक हैं; तथा आदिके चार ४ नय द्रव्यार्थिक हैं; इस पूर्वोक्त कथनको महाभाष्यमें क्षमाश्रमणपुङ्गव तथा सब सिद्धान्तमतके पारंगत 'श्रीजिनभद्रगणि कहते हैं ॥ १४ ॥
व्याख्या । तत्र महाभाष्ये विशेषावश्यके क्षमाश्रमणपुङ्गवः क्षमाश्रमणप्रधानः श्रीजिनभद्रगणिराचार्य इत्याह । इतीति किं पूर्ववद्य आद्याश्चत्वारो नया द्रव्यार्थिका, अन्तिमात्रयो नयाः पर्यायाथिका इत्याह ॥१४॥
व्याख्यार्थः-उस महाभाष्यमें अर्थात् विशेषावश्यकनामग्रंथमें क्षमाश्रमणपुङ्गव अर्थात् क्षमागुणधारी मुनियोंमें श्रेष्ठ तथा संपूर्णसिद्धान्तमतके पारंगत अर्थात सब सिद्धान्तोंके वेत्ता श्रीजिनभद्रनामक गणि 'आचार्य' आदिके चार ४ नय तो द्रव्यार्थिक हैं; तथा अन्तके तीन नय पर्यायार्थिक हैं; यह जो पूर्वश्लोकमें कहा है; ऐसा ही कहते हैं ॥ १४ ॥
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