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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १३३ अत्र प्रपञ्चितस्य संक्षेपमाह । अब जो पूर्वोक्त प्रपंच है; उसको संक्षेपसे कहते हैं । इत्याधनेकविषयांश्च नयान्विहाय संक्षिप्य तांश्च वचसाप्यधिकान्विधाय । बालावबोधनकृते किल देवसेन स्तत्प्रपञ्चनमचीकरदाप्तशून्यम् ॥ २६ ॥ भावार्थः-इत्यादि अनेक विषयोंको धारण करनेवाले निश्चय व्यवहारआदि नयोंको त्यागकर और फिर उनको ही उपचारसे संक्षिप्तकर और सूत्रवाक्यसे भी अधिक नयोको अपनी बुद्धिसे करके मंदबुद्धियोंको वंचने( ठगने )केलिये देवसेनजीने आप्तशून्य इस प्रपंचको किया है ॥२६॥ व्याख्या । इत्याद्यनेकविषयान् अनेके भूयांसो विषया गोचरा अर्था वा एषान्तेऽनेकविषयास्ताननेकविषयान् नयान् न्यायान् निश्चयव्यवहारात्मकान् विहाय त्यक्त्वा च पुनस्तानेव नयान् संक्षिप्य संक्षेप कृत्वा उपचारपदेन संकोचयित्वा अपि पुनर्वचसा वचनान्तरेण अधिकान् अतिरेकान् विधाय रचयित्वा सूत्र सप्त नया आदेशान्तरेण पञ्च नयास्तत्र च 'नब नया' इत्याधिक्यं कृत्वा बालावबोधनकृते बालानां मन्दमतिनामवबोधनं प्रतारणं "अवबोधनं प्रतारणे वंचने शिक्षणे चेत्यनेकार्थात्" मंदमतिवञ्चनकृते प्रतारणार्थाय किल इत्यसत्ये "सत्येऽलीके भावनायां निश्चे यऽपि किस स्मृतमिति" देवसेनो नयचक्रग्रन्थनिर्मायको दिगम्बरमताग्रणीः एतत् प्रागुक्त प्रपञ्चनं नयविस्तारणं अचीकरत् चकार। कोहगचीकरत आप्तशून्यं आप्तोवीतरागस्तस्य वाक्यं सिद्धान्तस्तेन शून्यं वजितम्, आप्तशून्यमिति मध्यमपदलोपी समासः आप्तवाक्येन शून्यमाप्तशून्यं स्वमत्या असंभावितं विरचय्य लोके ग्रन्थगौरवो दर्शित इति ॥ २६ ॥ व्याख्यार्थः-इत्यादि बहुतसे गोचर अथवा अर्थोके धारक निश्चय और व्यवहार स्वरूप नयोंको छोड़कर और फिर उन्ही नयोंका संक्षेप करके अर्थात् उपचारपदसे संकोच करके पुनः वचनान्तरसे अधिक नयोंकी रचना करके अर्थात् सूत्रमें सप्त नय हैं; और मतांतरसे पांच नय हैं; वहांपर अर्थात् सात तथा पाँच नयोंके स्थानमें "नय नव हैं" ऐसी अधिकता करके मंदबुद्धियोंको वंचनेकेलिये अवबोधन शब्द प्रतारण वंचन तथा शिक्षणआदि अनेकार्थका वाची है; इसलिये सूत्रमें जो अवबोधन शब्द है; उसका यहाँ घंचनरूप अर्थ लियागया है" इसलिये उन मंदबुद्धियोंको धोखा देनेके अर्थ मिथ्या ही "सूत्रमें जो किल शब्द है; वह सत्य, झूठ, संभावना और निश्चय इन चार अर्थों में वर्त्तता है; इस कारण यहाँ झूठरूप अर्थका ग्रहण कियागया है" दिगम्बरमतके अग्रेसर नय चक्रग्रन्थके बनानेवाले देवसेनजीने श्रीवीतरागके सिद्धान्तसे रहित इस पूर्वोक्त प्रपंचन अ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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