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________________ ) १३२ ] श्रीमद्रराजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् प्रकार यह पूर्वोक्त अभ्यन्तरत्वआदि निश्वयनयके ही विषय हैं । और जिस रीतिसे लोकोत्तर अर्थ प्राप्त होता है; उसी प्रकार से निश्चयनयके भेद होते हैं; और इस हेतुसे लोकोत्तर अर्थकी भावना प्राप्त होती है। ऐसा जानना चाहिये ॥ २४ ॥ अथ व्यवहारविषयं दर्शयति । अब व्यहारनयके विषयको दर्शाते हैं । यो हि भेदो भवेद्वयक्तेर्यश्व वोत्कटपर्यवः । कार्यकारणयोरैक्यमिति व्यवहृतेविधाः ॥ २५ ॥ भावार्थ:- जो व्यक्तिका भेद होता है; जो उत्कट पर्याय है; तथा जो कार्य और arrest एकता है; सो सब व्यवहारके भेद हैं ।। २५ ।। | हि निश्चितं यो भेदो व्यक्त मंवेत् स च व्यवहारभेदो ज्ञेयः । यथा अनेकानि द्रव्याणि, अनेके जीवाः, इत्यादि प्रकारेण व्यवहारनयार्थः । तथा च पुनरेव निश्चयनय उत्कटपर्यंवः उद्धतपर्यायः सोऽपि व्यवहारनयस्य भेद: । अत एव “निछयणण्णं पंचवण्णे ममरे वयहारणएण कालवणे" इत्यादिसिद्धान्ते प्रसिद्ध उत्कटपर्यायोऽपि व्यवहारः । तथा च कार्यकारणयोनिमित्ती निमित्तश्च एतयोरथैक्यं यद्भवति तदेवापि व्यवहारविषयम् । यथा हि आयुर्धृतमित्यादि, यथा व गिरिर्दह्यते, यथा वा कुण्डिका स्रवति, मञ्चाः क्रोशन्ति कुन्ताः प्रविशन्ति, गङ्गायां घोष इत्यादिव्यवहारभाषा अनेकरूपा वर्त्तते । सा च सर्वापि व्यवहारनयविषयिणी ज्ञेया । इति कि यो व्यक्तोर्भेदः, यः पुनरुत्कटपर्यंवः यदपि कार्यकारणयोरैक्यम इत्यादि व्यवहृतेर्व्यवहारस्य विद्याः प्रकारा इत्यर्थः ॥ २५ ॥ व्याख्यार्थः - जो व्यक्तिका भेद होता है; उसको निश्चयरूपसे व्यवहारका भेद जानना चाहिये, जैसे अनेक द्रव्य हैं, अनेक जीव हैं, इत्यादि रीतिसे व्यवहारनयका अर्थ है; और फिर जो निश्चयनयमें उद्धत पर्याय है; सो भी व्यवहारनयका भेद है । इसी हेतुसे ऐसा कहा भी है; कि - निश्चयनयसे भ्रमर ( भंवरा ) पंचवर्ण अर्थात् पांच रंगका है, और व्यवहारनयसे केवल कृष्णवर्ण ( काले रंगका ) ही है, इत्यादि रीति से सिद्धान्त में प्रसिद्ध जो उत्कट पर्याय है, वह भी व्यवहारनयका भेद है। और फिर कार्य कारण अर्थात् निमिती और निमित्तकी जो एकता है, वह भी व्यवहारनयका विषय है, जैसे आयु घृत है, यहां घृतरूप जो आयुका कारण है, उसमें आयुरूपता मानी है, अथवा जैसे पर्वत जलता है, 'कुंडी करती है ' ' मंच (मांचे) शब्द करते हैं' ' भाले घुसते हैं ' ' गंगा में घोष (अहीरोंका ग्राम) है' इत्यादि जो अनेकरूप व्यवहारभाषा ( व्यवहार में कहनेकी परिपाटी ) है; वह व्यवहारयके विषयको धारण करनेवाली ही जानना चाहिये । तालर्य यह है, कि जो व्यक्तिका भेद है, और जो उत्कट पर्याय है, तथा जो कार्य कारणकी एकता है, इत्यादि यह सब व्यवहारनयके भेद हैं ।। २५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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