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________________ १३४ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशाखमालायाम् र्थात् नयके विस्तारको किया तात्पर्य यह कि-देवसेनजोने अपनी बुद्धिसे सर्वज्ञमतके विरुद्ध असंभावितको रचकर लोकमें ग्रन्थका गौरव दिखाया है ।। २६ ॥ इत्थं नयानां बहभङ्गजालैरेकं पदार्थं च त्रिधा परोक्ष्य । अर्हत्क्रमाम्भोजयुगोपयोगि चेतः कुरुष्वात्मसुखं लभस्व ॥ २७ ॥ भावार्थ:-हे भव्य ! इस प्रकार नैगम संग्रहआदि नयोंके अनेक भेद समूहोंके द्वारा एक पदार्थको द्रव्य, गुण पर्यायरूप निश्चय करके श्रीजिनेन्द्र के चरणकमलयुगल में लीन चित्तको कर और आत्मसुख प्राप्त हो ॥ २७॥ व्याख्या । इत्थं अमुना प्रकारेण श्रीजिनदेवमापितसूत्रप्रक्रमेण नयानां नैगमादीनां सप्तानां तथापि पञ्चानां बहुभङ्गजालेः बहवोऽनेके मङ्गा भेदास्तेषां जाल: समूहै: एक कमपि स्वेपित पदार्थ जीवासिदार्य त्रिधा द्रव्यगुणपर्यायरूपं परीक्ष्य निचित्य अहंक्रमाम्भोजयुगोपयोगि अहंतां वीतरागाणां क्रमाश्चरणास्त एवाम्भोजानि कमलानि तेषू उपयोगि लीनं एतादृशं चेत: चित्तं कुरुष्व मोमव्य ! त्वमित्यध्याहारादित्यवन्यः पुनर्मो भव्यप्राणिन् ? त्वमात्मसुखमात्मनो जीवस्य सुखं निराबाधानुभवं लमस्व प्राप्नुहि । नयज्ञानाजोवादीपरीक्ष्य कर्मभ्य आत्मानं वियोज्यानन्तसूखमाग्मवेत्यर्थः ।। २७॥ इति श्रीकृतिमोजसागरनिर्मितायां द्रव्यानुयोगतर्कणायामष्टमोऽध्यायः ॥८॥ व्याख्यार्थः-इस प्रकार श्रीजिनदेवभाषित सूत्रोंके क्रमसे नैगमआदि सप्त नय अथवा पंच नयोंके भेद समूहोंसे इच्छानुसार किसी भी एक जोवआदिक पदार्थको द्रव्य, गुण तथा पर्यायरूप निश्चित करके श्रीधोतरागों के चरण कमलों में आसत ऐसे चित्तको कर "हेभव्य ? तू यह अध्याहारसे लगा लेना चाहिये" और हेभव्य जोव ? तू जीवका जो बाधारहित अनुभस्वरूप सुख है, उसको प्राप्त हो। तात्पर्य यह है, कि-भोभत्य ? नयोंके ज्ञानसे जीवआदि पदार्थका निश्चय कर कर्मोंसे आत्माको भिन्न कर अनंत सुखका भागी हो ।। २७ ॥ इति श्रीआचार्योपाधिधारिद्विवेदिपण्डितठाकुरप्रसादविरचितमाषाटीकासमलङ्कृत द्रव्यानुयोगतर्कणायामष्टमोऽध्यायः ॥८॥ अथ नवमाध्याये द्रव्यगुणपर्यायाणामेकं स्वरूपं कथयन्नाह । अब नवम अध्याय में द्रव्य, गुग तथा पर्यायोंकी एकरूपता कहतेहुये यह सूत्र कहते हैं। लक्षणेत्रिभिरेकोऽर्थः सहितः कथ्यते जिनः । यथार्थाथमन्विच्छन्प्राप्नोति सकलेप्सितम् ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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