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द्रव्यानुयोगतर्कणा
[१४३ कल्पना महागौरवाय स्यात्" इत्थं जानन्नपि लाघवप्रियो नैयायिको नाशोत्पत्तिकस्यैकान्तभेदवासनां कथं दत्ते। तथा च तन्मतम् -“कल्पनागौरवं यत्र तं पक्षं न सहामहे । कल्पनालाघवं यत्र तं पक्षं तु सहामहे १ ॥८॥
व्याख्यार्थः-इस प्रकार शोकादि कार्यत्रयके भेदसे उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्य लक्षण सिद्ध कियेगये, इसीसे ( लक्षणत्रययुक्त होनेसे ) सुवर्णघटके नाशका तथा सुवर्णके मुकुटकी उत्पत्तिका कारण केवल स्वयं घट द्रव्य ही है। क्योंकि-सुवर्णघटके नाशसे अभिन्नरूप सुवर्णमुकुट की उत्पत्तिके विषयमें सुवर्णघटके अवयवोंके विभागआदि हेतु ही हैं। इसी कारणसे महापटके नाशसे अभिन्न खण्डपट ( बड़े शानसे छोटे टुकड़े टुकड़े होने )की उत्पत्तिके विषयमें भी एक दो आदि तन्तुओंके संयोगका नाश ही कारण है; और खंडपटकी उत्पत्तिके विषयमें महापटका नाश कारण है; यह कल्पना तो अति गौरवकेलिये होगी इस प्रकार जानताहुआ भी लाघवप्रिय नैयायिक एकको आदि लेकर जितने तन्तुओंके संयोगके नाशके वह खंडपट उत्पन्न है; उन सब तंतुवोंके नाश और उत्पत्तिके सर्वथा भेदवासना कैसे देता है। क्योंकि उस नैयायिक मतका यह वचन है कि “जिस पक्षमें कल्पनाका गौरव है; उसको हम नहीं सहन करते (मानते ) और जिस पक्षमें कल्पनाका लाघव है; उसको सहन करते हैं ॥८॥
पुनस्तदेव कथयन्नाह । पुनः उसी विषयका प्रतिपादन करते हैं।
पयोव्रतो न दध्यद्यान्न व दुग्धं दधिवतः ।
अगोरसवतो नोभे तेन स्याल्लक्षणत्रयम् ॥६॥ भावार्थ:-केवल दुग्धको खानेवाला दही नहीं खा सकता और दहीमात्रको खानेवाला दूध नहीं पीता तथा जो गोरसमात्रका त्यागी है; वह दुग्ध तथा दही इन दोनोंको नहीं खाता है; इस रीतिसे भी उत्पत्तिआदि त्रिविधलक्षणयुक्त वस्तु सिद्ध होता है ॥८॥
व्याख्या । पयोव्रतो दुग्धास्वादी दुग्धमेव व्रतनीयं भोक्तव्यमिति प्रतिज्ञापरः स पयोव्रत उच्यते । तत: पयोव्रतो दधि नाद्याधि न भुङ्क्त, दधिव्रतः पुनढुंग्छ नाद्यात, तस्य दधिमक्षण एवं प्रतिज्ञारूपो धर्म एवास्ति । वस्तुतस्तु "दुग्धपरिणाम्येव दध्यस्ति" इत्थं यद्यभेदकता कथ्यते तदा तु पयोव्रतस्य दध्यदनेऽपि व्रतमङ्गो न जातः पुनश्च दुग्धं दधि न भवति परिणामिद्रव्यत्त्वाद्भिन्नद्रव्यमेव । अभेदविवक्षया दुग्धमास्वादयतः दधिव्रतमङ्गो न जायते, दधि भुञानस्य दुग्धव्रतभङ्गोऽपि नैव संपद्यत इति । अथ गौरवसत्वेन द्वयोरप्यभेदोऽस्ति । अत्र दधित्वेनोत्पत्तिः दुग्धत्वेन नाशो गोरसत्वेन ध्रुवत्वं च प्रत्यक्षम् । एतदृष्टान्तेन सर्वजगतिमावानां लक्षणत्रययुक्तत्वं कथनीयम् । उक्त च "क्योवतो न दव्यत्ति न पयोऽत्ति
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