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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ १९५ नास्तिस्वभाव ही समीचीन है। "अब सत्ता तो अपने अस्तिस्वभावसे वस्तुविषयताको ज्ञापित करती है; अर्थात् वस्तुको जताती है; इसलिये सत्ता यह सत्य है, और असत्ता अपने असत्विषयक ज्ञानसे केवल परके मुखकी ओर ताकती है; इसलिये केवल कल्पनासे ज्ञानका विषय होनेसे अर्थात् कल्पनामात्रसे ज्ञानमें भासनेसे असत्ता असत्य ( मिथ्या ) है" ऐसा बौद्धोंका मत है ।। १४ ।। तदेव खण्डयनोह । अब इसी असत्ताको मिथ्या कहनेवाले बौद्धोंके मतका खंडन करते हुए कहते हैं । यत्सत्तावदसत्ता तु न स्फुरेद् व्यञ्जकं विना । तत्सत् शरावगन्धोऽपि विना नोरं न संभवेत् ॥ १५॥ भावार्थ:-जैसे सत्ता तत्क्षण स्फुरायमान होती है; वैसे जो असत्ता नहीं स्फुरायमान होती है; तो इसमें व्यंजकका नहीं मिलना कारण है, क्योंकि-शराबमें विद्यमान शराबका गंध भी जलके विना नहीं जाना जाता है ।। १५ ॥ व्याख्या । यत्सत्तावत् तत्क्षणमेवासत्ता तु न स्फुरेत्, तत्त, व्यञ्जकं विना व्यं जास्यामिलनवशतः । परन्तु शून्यत्वेन, अथ च तुच्छत्येन नह्यास्त । तत्र दृष्टान्तमाह । तदिति उदाहरणंसन् विद्यमानः शरावे वर्तमानः शरावगन्धोऽपि नीरं विना नीरस्पर्शनमन्तरेण न संभवेत् न ज्ञायते । एतावता गन्यापेक्षा असत्या नास्ति किन्तु केषांचिद्वस्तूनां गुणाः स्वमावेनानुभूयन्ते, केषांचिच्च प्रतिनियतव्यञ्जकव्यङ्गया एव सन्तीत्येतद्वस्तुवैचित्रमस्ति । परन्तस्यैव कस्यचिद्वर्मस्य न्यूनत्वकथने बहुव्यवहारविलुप्ति यते । उक्त च श्रीमद्यशोविजयोपाध्याय षारहस्यप्रकरणे "ते हुंति परावेक्खा वंजयमुहदंसिणोऽवि जयतुच्छा । विठुमिणं वेचित्तं सरावकप्पूरगंधाणं" ॥ १५ ॥ व्याख्यार्थ:-जो सत्ताकी भांति असत्ता उसी क्षण स्फुरित (प्रकट ) नहीं होती है सो व्यंजकके बिना अर्थात् व्यंजकके न मिलनेसे तत्काल स्फुरित नहीं होती। परन्तु असत्ता शून्य है अथवा तुच्छ है, इसवास्ते स्फुरित नहीं होती यह बात नहीं है। इस विषयमें दृष्टान्त कहते हैं । सूत्रमें तत् शब्द जो है सो उदाहरणका प्रदर्शन करता है इस लिये उदाहरण यह है कि शराब अर्थात् सरवा ( मृत्तिकाका बना हुआ कोरा पात्र ) जो है उसमें विद्यमान जो उस शराबका गंध है वह भी जलके स्पशविना नहीं जाना जाता । इससे तात्पर्य यह है कि शराबमें विद्यमान गंध असत्य नहीं है किन्तु सत्य ही है। परन्तु वह जो जलस्पर्शके विना नहीं जाना जाता है इसमें वस्तुकी विचित्रताही कारण है। कितनेही पदार्थोके गुण स्वभावसेही अनुभूत होते हैं और कितनेही पदार्थोके गुण प्रतिनियत जो व्यंजक हैं उनसेही जाने जाते हैं यह वस्तुस्वभावकी विचित्रता है। परन्तु वस्तु में तनक्षण वह धर्म स्फुरित न हो तो उसकी न्यूनता (कमी) कह देनेसे बहुतसे . व्यवहारोंको लोप हो जाता है । और इस विषयमें श्रीयशोविजयजी उपाध्यायने "भाषा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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