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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ २५ अब इस विषय में यदि कोई ऐसा कहै कि द्रव्यपय तथा गुणपर्याय ये दोनों कार्य भिन्न भिन्न रूपके हैं, इसलिये द्रव्य तथा गुण ये कारण भी भिन्न भिन्न रूपके होना चाहिये । इस प्रकार कल्पनावादी भी मिथ्या हैं। क्योंकि काय्र्यमें ही उपचारसे कारण की कल्पना होती है इसलिये कार्य में कारण शब्दका प्रवेश होता है । ओर भी प्रथम कारणका भेद सिद्ध होने पर कार्यका भेद सिद्ध होता है, और ऐसे ही कार्यका भेद सिद्ध हो जावे तब कारणका भेद सिद्ध हो सकता है; इस प्रकार कारणके भेद सिद्ध होने में कार्य्यभेद सिद्ध करण होगा तथा कार्यके भेद सिद्ध होनेमें कारणका भेद सिद्ध होना कारण होगा, इस रीति से तुम्हारे मत में अन्योन्याश्रय नामका दूषण भी आता है । इसलिये गुणपर्य्याय यह जो कथन है सो तो गुणकी ही परिणामरूपसे कल्पना है, क्योंकि कल्पनामात्र से ही पर्यायसे गुणके भेदका संभव है, और परमार्थदृष्टि से तो गुणका भेद है ही नहीं, किन्तु परमार्थमें द्रव्य गुण तथा पर्याय ये तीनों नाम भी भेदके उपचार से ही कल्पित किये हैं; ऐसा जानना चाहिये || १३ || एकानेकस्वरूपेण भेदा एवं परस्परम् । आधाराधेयभावेन कल्पनां च विभावय ।। १४ ।। भावार्थ:- इस पूर्वोक्त प्रकारसे द्रव्य एक ही है, गुण पर्याय अनेक हैं, इस रीति से परस्पर अर्थात् एक दूसरेकी अपेक्षासे भेदको कल्पना मात्र जानो, और इसी पूर्वोक्त रीतिसे आधाराधेयभावकी कल्पना भी निश्चय करो ॥ १४ ॥ व्याख्या । एवममुना प्रकारेण द्रव्यमेकं गुणपर्याया अनेके, इत्थं भावना कार्या । परस्परमन्योन्यं भेदभावकल्पना कर्तव्येत्यर्थः । च पुनः अनयैव दिशा आधाराधेयमावेन कल्पनां विभावय । आधा राधेयत्रमुखभावानामपि स्थभावेन भेदान् विचार्य मनसि ज्ञेयम् । यतः परस्परावृत्तिधर्माण: परस्परभेदान् ज्ञापयन्तीति भावः ।। १४ ।। व्याख्यार्थः - इस पूर्वोक्त रीति से कल्पना मात्रसे गुण, पय्र्यायकी सिद्धि होनेसे यह सिद्ध हुआ कि द्रव्य एक है कल्पना अथवा विवक्षासे गुण पर्याय अनेक हैं । इस प्रकार द्रव्य, गुण तथा पर्याय के परस्पर कल्पित स्वरूपसे भेदकी भावना करनी चाहिये । और इसी रीतिसे आधार, आधेय आदि भावसे भी कल्पना को जानो अर्थात् कल्पित स्वभाव के ही भेदसे आधार, आधेय इत्यादि भावोंके भी स्थायीभावसे भेदोंको विचार कर मनमें निश्चय करो, क्योंकि परस्पर आवृत्तिशील धर्म, अर्थात् एक पदार्थ से दूसरे में आनेवाले धर्म ही परस्परके भेद को ज्ञापित करते हैं, यह तात्पर्य है ॥ १४ ॥ अथ आधारावेयभावयोर्हष्टान्तेन उपदिशन्नाह । अब आधार आधेय भावके विषय में दृष्टान्तद्वारा उपदेश देतेहुए यह सूत्र कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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