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________________ २४ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम नोंमें जो गुण शब्द दीख पड़ता है, वह गुण शब्द भी गणितशास्त्रमें सिद्ध पर्यायविशेषका ही नाम है, इसलिये उसको संख्याका वाचक ही समझना चाहिये और गुणास्तिक नयके विषय का वाचक नहीं । संमतिग्रंथमें कहा भी है : गाथार्थ-आर्थिक समय में ऐसा कहते हैं कि एक गुण, दश गुण, तथा अनन्तगुण रूपादि परिणाम कहे गये हैं, इस कारण गुणशब्द संख्याविशेषवाचक है ॥ १ ॥ और गुणशब्दके विना भी संख्याओंके विषयमें तनुपय्यायविशेष ऐसा प्रयोग किया है, इस हेतुसे एक गुण यह समूहका धर्म संख्यापरक है न कि शक्तिपरक ।। २ ॥ जैसे दशसंख्याओंमें दशगुण है; ऐसे ही एकमें एक गुण; शतमें शतगुण है । इसी प्रकार समस्त संख्याओंमें गुण शब्दका प्रयोग है, ऐसे एक गुण द्रव्यस्थ गुण नहीं है ॥३॥ ___ इस रीतिसे परमार्थ दृष्टिसे पायसे भिन्न कोई पदार्थ नहीं है, इस कारण से द्रव्य के सदृश शक्तिरूपता गुण की कैसे होसकती है ? ।।१२।। अथ केचन पर्यायस्य दलं गुण इति वदन्ति । गुणं शक्तिरूपमेव मन्वानश्च विवदन्ते, तान् दूषयन्नाह । अब वादीगण गुणको पर्यायका कारण मानते हैं, और गुणको स्वतत्त्वशक्तिरूप मानते हुए परस्पर विरुद्ध विवाद करते हैं, उनको दूषण देते हुए यह सूत्र कहते है । पर्यायस्य दलं यहि गुणो द्रव्येण किन्तदा । गुणपर्याय एवेयं गुणपरिणामकल्पना ॥१३॥ भावार्थ-और यदि पर्याय का कारण (उदादान कारण) गुण हो तो पुनः द्रव्यका क्या प्रयोजन है ? । और गुणपाय यह जो कथन है सो तो गुणकी ही परिणामरूप कल्पना है, न कि अन्य कुछ ।। १३ ।। व्याख्या । यहि गुणः पर्यायस्य दलं उपादान कारणं मवति । तदा द्रव्येण किमिति कि प्रयोजनं द्रव्यप्रयोजनं गुणेनैव सिद्धमित्यर्थात् गुणपर्यायावेव पायौं उपदिशतां तृतीयासम्भवान् इति नियमः । पुनरत्र कश्चित्कथयिष्यति । द्रव्यपर्याय १ गुणपर्याय २ रूपे कार्ये भिन्ते स्तस्ततश्च द्रव्य १ गुणरूप २ कारणे अपि मिन्ने स्तः । इति कल्पनया वादी अरत्यः । कयं-कार्ये कारगोपचारात् कार्यमध्ये कारणशब्दप्रवेशो जायते । तथा कारणभेदे कार्यभेदः सिद्धयति । अथ च कार्यभेदसिद्धौ कारणभेदसिद्धि • रित्यन्योन्याश्रयोनाम दूषणमुत्पद्यते । तस्मात् गुणपर्यायस्तु गुणपरिणामस्यैव पटान्तरभेदकल्पनारूप: । तत एव केवलं सम्भावना, परन्तु परमार्थतो न हि । अथ च द्रव्यादि नामवयमपि भेदोपचारेणैव ज्ञेयन ।१३॥ व्याख्यार्थ–यदि गुण पर्यायका उपादान कारण हो तो द्रव्यसे क्या प्रयोजन ? अर्थात् द्रव्यका प्रयोजन गुणसे ही चल जायगा तब अन्य पदार्थ मानने की क्या आवश्यकता है ? और द्रव्यका कार्य गुणसे हो गया तो गुण, तथा पर्याय, इन्हीं दोनों पदार्थोंका उपदेश करना चाहिये, क्योंकि तृतीयका असंभव है, ऐसा नियम होना चाहिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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