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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ २३ भावार्थ-द्रव्य तथा पर्यायको माननर सिद्धान्तमें द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक भेदसे दो ही नय कहे गये हैं । यदि गुण भी तृतीय द्रव्य होता तो तीसरा नय भी कहते ।।१२।। व्याख्या । यदि गुणस्तृतीयः पदार्थों द्रव्यपर्यायाद्भिन्नोन्यः पदार्थो भावो भवेत्, तहि तृतीयो नयोऽपि लभ्यते । सूत्र तु दव्याथिकपर्यायाथिक इति नयद्वयमेव कथितम् । नयान्तरं यद्यमविष्यत्तदाद्रक्ष्यत् । अतो नयद्वयादपरो नय एव न । उक्त च सम्मती दोऊ णया भगवया दव्वट्ठियपज्जवट्ठियाणियया। जइ पुण गुणोवि हुतो गुणट्ठियणयोवि जुजंतो ॥१॥ जं च पुण भगवया ते सुत्तेसु मुत्तेसु गोयमाईणं । पज्जवसण्णा णियया बागरिया तेण पज्जाया ॥२॥ रूपादीनां गुणसंज्ञा सूत्र न भाषिता, परन्तु "वण्णपज्जवा गंधपज्जवा इत्यादिपाठः पर्यायशब्देन पठितस्तथापि गुणो न कथ्यते । अन्यच्च । एगगुणकालएइत्यादिस्थानेष्वपि गुणशब्दो यश्च दृश्यते सोपि गणितशास्त्रसिद्धपर्यायविशेषः संख्यावाचको ज्ञेयः । परन्तु गुणास्तिकनयविषयवाचको न । उक्त च । सम्मतिग्रन्थमध्ये जपति अस्थिसमए एगं गुणो दशगुणो अणंतगुणो। रूवाईपरिणामा भन्नइ तम्हा गुणविसेसा ॥ १ ॥ गुणसहमंतरेणावि तणुपज्जवविसेससंखाण ।। सिज्झइ ण वरं संखा णसत्थधम्मो एव गुणोत्ति ॥२॥ जह दससु दंसगुणमि य एगंमि दसतणं समत्ते च । अहियं वि गुणसद्दे तहेव एयंमि दवढें ॥३॥ एवं गुणः पर्यायात् परमार्थदृशा मिन्नो नास्ति । तस्माद् द्रव्यमिव शक्तिरूपता कथं स्यादित्यभिप्रायः ।१२। व्याख्यार्थः-यदि गुण तीसरा पदार्थ अर्थात् द्रव्य और पर्यायसे भिन्न पदार्थ होता तो तीसरा नय भी प्राप्त होता, अर्थात् सूत्रमें तो द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो नय ही कहे गये हैं, यदि तीसरा होता तो दीख पड़ता। इससे यह सिद्ध हुआ कि इन कथित दो नयोंसे अन्य कोई नय ही नहीं है । संमतिग्रन्थमें ऊपर कहा भी है । गाथार्थ--श्री भगवान्ने द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक ये दो ही नय कहे हैं, फिर यदि द्रव्यपर्यायसे भिन्न गुण भी होता तो गुणार्थिक नय भी कहना योग्य था ॥ १ ॥ और भगवान्ने जो गोतमादिकको सूत्र कहे हैं उनमें पज्जव संज्ञा कही है इसलिये गुण पर्याय ही कहलाते हैं ॥२॥ रूपादिककी सूत्रमें गुणसंज्ञा नहीं कही गई है परन्तु 'वग्णपज्जवा, गन्ध पज्जवा' इत्यादि पाठ पर्यायशब्दसे ही कहा है अर्थात् वर्णपर्याय, गुणपर्याय ऐसा ही कहा गया है। और गुण शब्द वहांपर नहीं कहा ॥ और भी 'एग गुणकाल ए' एक गुणकालमें इत्यादि स्था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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