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द्रव्यानुयोगतर्कणा
[ १८३ निसर्गचेतनायुक्तः सर्वेभ्योऽचेतनेम्यो मिनो जीवो व्यवहारनयेन रूपवेदसहितोऽपि नियनयेन रूपरहितो रूपात्यन्तामावयुक्तः, वेदरहितो वेदात्यन्तामाववान्, सत्तामात्र निर्गुणो निर्विकारो जीव: । उक्त च-अरसमस्वमगंधं अवण्णं चेयणागुणमसद्द । जावअलिंगग्गहणं जीवमणिदिसंठाणं ।११ इत्युक्तेः जीवविशेषणानि शियानि ॥२०॥
व्याख्यार्थः-वर्ण, गंध, रस तथा स्पर्शआदि गुणोंसे युक्त होनेसे पुद्गलद्रन्यका अन्य धर्मास्तिकायआदि द्रव्योंसे भेद जाना जाता है। शुक्ल (सफेद) पीत (पीला) हरित (हरा) रक्त (लाल) तथा कृष्ण (काला) इन भेदोंसे वर्ण (रूप) पांच हैं । सुगंध, दुर्गन्ध, भेदसे गंध दो प्रकारका है । तिक्त, ( तीखा ) कटुक (कड़वा ) कषाय (कसापला) आम्ल (खट्टा) मधुर (मीठा) और लवण (खारा) इन भेदोंसे रस छह (६) प्रकारका है । शीत (ठंडा) उष्ण (गरम) खर (कठोर) मृदु (कोमल) लघु ( हलका ) महत् ( भारी ) स्निग्ध चिकना परुष (रूखा) इन भेदोंसे स्पर्श आठ प्रकारका है । यह सब पुद्गलके भेदसे भेदको प्राप्त होते हैं । सूत्रमें जो “च" शब्द है; सो पुनः के अर्थ में है, अतः और निसर्ग अर्थात् स्वभावसे उत्पन्न जो चेतना उस करिके युक्त होनेसे सब अचेतन द्रव्योंसे जीव भिन्न है । और व्यवहारनयसे रूप तथा वेदका धारक है; तो भी निश्चयनयसे जीव रूपरहित अर्थात् रूपके अत्यंत अभावसे युक्त और वेदरहित अर्थात् वेदके अत्यंताभावसे संयुक्त है; क्योंकि यह जीव सत्तामात्र, निर्गुण तथा विकाररहित है। ऐसा अन्यत्र कहा भी है । "रूपरहित, रसरहित, गंधरहित, वर्णरहित, चेतनायुक्त, शब्दरहित लिंगग्रहणसे रहित और अनिर्दिष्ट संस्थान ऐसा जीव जानना" इत्यादि कथनसे यह रूपरहित आदि सब जीवके विशेषण हैं; ऐसा जानो ॥२०॥
अथाध्यायपरिसमाप्तिकाम आह । अब अध्यायको समाप्त करनेकी इच्छासे अग्रिम काव्य कहते हैं ।
एवं समासेन षडेव भेदान्द्रव्यस्य विस्तारतयागमेभ्यः ।
श्रुत्वा समभ्यस्य च भव्यलोका अर्हत्क्रमाम्भोजयुगं श्रयन्तु ॥२१॥ भावार्थ:-हे भव्य जीवो ? इस प्रकार संक्षेपसे द्रव्यके छह ६ ही भेद हैं; उनको विस्तारसे शात्रोंसे श्रवण करके तथा पूर्णरूपसे अभ्यस्त करके श्रीजिनदेवके चरणकमलोंके । युगलका सेवन करो ॥२१॥
___ व्याख्या । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण समासेन संक्षेपेण च षडेव षट् संख्यावते जीवधर्माधकाशकालपुद्गलभेदान्द्रश्यस्य पदार्थस्य षण्णामपि द्रव्यशब्दः पृथग्युक्तः सन् पदव्यत्वमापादयति । अतो द्रव्यस्य षडेव भेदान्सूत्रोक्तान त्वा विस्तारतया विस्तारयुक्त्या आगमेभ्यः स्याद्वादिसमुपदिष्टेम्य आकण्यं श्रवणविषयीकरणं श्रवणं तत्र विस्तारेणैव श्रुतानामवगमो
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