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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशानमालायाम् व्याख्या। षडेव द्रव्याणीति संख्यापूरणार्थ यथा पर्यायेण पर्यायरूपेण द्रव्यस्य कालद्रव्यस्य एतावता पर्यायल्पकाल द्रव्यविषये हि निश्चतं द्रव्यस्योपचारो यथा उदितः द्रव्यत्वोपचारकल्पना विहिता भगवत्यादिसूत्रविषये कृता तथैव सूत्रे कालद्रव्यस्थाप्यप्रदेशत्वयोगेन कालाणूनां विगोचरो विषयता ज्ञेया । एतावता सुशे कालस्यात्र प्रदेशता सूत्रिता तयैव कालाणुतापि सूत्रितास्ति तद्योजनया लोकाकाश प्रदेशस्थपुद्गलाणून विषय एव योगशास्त्रान्तरश्लोकेषु कालाणूनामुपचारो विहितः । मुख्य काल इत्यस्य चानादिकालीनाप्रदेशत्व. व्यवहारनियामकोपचारविषय इत्यर्थ अत एव मनुष्यक्षेत्रमात्रवृत्तिकालद्रव्यं ये वर्णयन्ति तेषामपि मनुष्यक्षेत्रावच्छिन्नाकाशादी कालद्रव्योपचार एव शरणमिति दिङ्मात्रमेतत् ॥ १६ ॥
व्याख्यार्थः-जिनसिद्धान्तमें षट् (६) ही द्रव्य हैं; इस संख्याकी पूर्ति के लिये जैसे पर्यायरूपसे कालद्रव्यका अर्थात् पर्यायरूप कालद्रव्यके विषयमें द्रव्यत्वके उपचारकी कल्पना भगवतीआदि सूत्रमें की गई है; उसी प्रकार सूत्रमें कालद्रव्यके जो अप्रदेशताका योग है; उससे कालाणुके विषयमें भी उपचार जानना । तात्पर्य यह कि-सूत्र में कालको प्रदेशरहित कहा है; उसी प्रकार कालाणुता भी सूत्रित की है; उसकी योजनासे लोकाकाशके प्रदेशमें स्थित पुद्गल परमाणुवोंके विषयमें ही योगशास्त्रान्तर श्लोकोमें कालागुवाका उपचार किया गया है। और "लोकाकाशप्रदेशस्था" इत्यादि श्लोकोंमें जो कालके विषयमें "मुख्यः कालः स उच्यते” इस प्रकार मुख्य कालरूपसे व्यवहार किया है; इसका यह अभिप्राय है; कि-अनादि कालसे अप्रदेशत्व व्यवहारका नियामक उपचारको विषयतासे वह काल मुख्य है। इसी कारणसे जो मनुष्य क्षेत्रमात्रवृत्ति अर्थात् मनुष्य क्षेत्रमात्रमें रहनेवाला कालद्रव्य है; ऐसा जो कहते हैं; उनको भी मनुष्यक्षेत्रावच्छिन्न जो आकाशादि हैं; उनमें कालद्रव्यका उपचार ही शरण है । यह दिग्दर्शनमात्र हमने कथन किया है ॥१९॥
अथ पुद्गलजीवयोः संक्षेपेण स्वरूपमाह। अब पुद्गल तथा जीवद्रव्यका स्वरूप संक्षेपसे कहते हैं ।
वर्णादिकगुण दो ज्ञायते पुद्गलस्य च ।
निसर्गचेतनायुक्तो जीवोरूपी ह्यवेदकः ॥२०॥ भावार्थः-वर्ण गंध तथा रसादि गुणोंसे पुद्गलद्रव्यका धर्मास्तिकाय आदिसे भेद जाना जाता है । और स्वाभाविक चेतनाका धारक, रूपरहित तथा वेदरहित जीव पदार्थ है ॥२०॥
व्याख्या । वर्णगन्धरसस्पर्णादिकगुणः पुद्गलद्रव्यस्याग्येभ्यो धर्मादिद्रव्येभ्यो भेदो ज्ञायते । वर्णाः पञ्च शुक्लपीतहरितरक्तकृष्णभेदात्, गन्धो द्वौ सुरम्यसुरभी चेति, रसाः षट् तिक्तकटककषायाम्लभधुरलवणभेदात, स्पर्शा अष्टी शीतोष्णे, खरमृदू, लमहती स्निग्धपुरुष चेति । सर्वमप्येतत्पुद्गलभेदाद्भिद्यते । च: पुनरर्थे निसर्गा सहजा या चेतना तया युक्तो
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