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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा . [ १८१ व्याख्यार्थः-यदि कालको प्रदेशरहित निरूपण करके उस कल्पित कालके अणु कहते हो तब यह सब उपचारसे पर्याय वचनमें योजित किया जाता है । इसका स्पष्टीकरण करते हैं, कि-यदि आप यह कहो कि-सूत्रमें काल प्रदेशरहित कहा गया है, उसके अनुसार हम कालाणु कहते हैं, तब तो संपूर्ण जीव अजीव पर्यायरूप ही काल है ऐसा कहा हुआ है, उसमें विरोध नहीं है । कालद्रव्य कैसे कहा जाता है ? इस शंकाका समाधान यह है, कि-उसीके अनुसार कालको भी द्रव्य कहा गया है । और लोकाकाश प्रदेशोंके प्रमाण काल है, ऐसे जो वचन हैं, वह भी सब उपचारसे युक्त करने योग्य हैं। मुख्यवृत्तिसे अर्थात् मुख्य शक्तिसे तो वह पर्यायरूप काल है, सो ही सूत्रसंमत है । अत एव "कालश्वेत्येके” ( काल भी द्रव्य है, ऐसा एक आचार्य कहते हैं ) इस सूत्रमें “एके” इस पदसे यही सूचित किया है, कि-काल सर्वसंमत द्रव्य नहीं है । इससे भी प्रदेशका अभाव सूत्रके अनुसार मानकर जो कालके अणुपनेका कथन करते हो तब भी यह सब उपचारसे पर्याय वचनआदिके साथ नियुज्यमान ( युक्त हुआ ) ही चारुता (रमणीयता) को प्राप्त होता है । यदि "परमाणुमयरूप जो विभाग है, सो अवयव है, और इससे भिन्न अर्थात् जो परमाणुरूप विभाग नहीं है, वह प्रदेश है" इस वचनसे आकाशादिक अपरिमाणज होनेसे सप्रदेश हैं, सावयव नहीं ऐसा कहो तो भी "दोषोंकी अधिकताके वशसे फैलते हुये अंधकारके समूहमें जो तुमने हमारे आगे अवयव और प्रदेशमें भेद है" इस कथनस्वरूप दीपक जाज्वल्यमान किया उस दीपकका हमने परमाणुताको प्रकट में लाकर दुःखसे निवारण करने योग्य व्यभिचार दोषरूपी सर्पको आगे रखके बुझा डाला अर्थात् परमाणुताकी सिद्धिसे यह भेद न ठहरेगा ? पहले तो आकाशआदिके विभाग भी परमाणुरूप ही हैं, क्योंकिकाजलके चूर्णसे पूर्ण पिटारीके समान निरन्तर पुद्गलोंसे भरे हुए जगत्में वह कोई भी आकाशका प्रदेश नहीं है, जो परमाणुवोंसे खूब न भरा हुआ हो इस कारण यह जो तुमने हेतु दिया है, वह व्यभिचारी कैसे नहीं ? अर्थात् है, ही ॥१८॥ अथोपचारप्रकारमेव दर्शयन्नाह । अब उपचारका प्रकार ही दिखाते हुए यह सूत्र कहते हैं। पर्यायेण च द्रव्यस्य ा पचारो यथोदितः । अप्रदेशत्वयोगेन तथाणूनां विगोचरः ॥१९॥ भावार्थः-जैसे पर्यायरूपसे कालद्रव्यकी पर्यायरूपता उपचारसे कही है, ऐसे ही अप्रदेशत्वके योगसे कालको अगुताके विषय में उपचार ही शरण है ॥ १२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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