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श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् जायतेऽतो विस्तारतया श्रुत्वा च पुनः समभ्यस्य वाचा उद्घोषणद्वारा कण्ठे कृत्वा मनसि निदिध्यास्य भो भव्यलोकाः सम्यक्त्विप्राणिनः ? अहंक्रमाम्भोजयुगं श्रीजिनचरणमजनस्थैर्य भजन्तु । श्रुत्वा स्मृत्वा च श्रीप्रभुस्मृतिरेव साधीयसी तस्कृत्वा तत्करणं श्रेयोनिबन्धनमिति । तथा भोजेति सङ्केतेन सन्दर्भकतु मनिदर्शनमिति । अत्राध्याये सम्यक्त्वदायि सर्वभेदाख्यानमिति प्रयोजनं चेति ॥२१॥
इति श्रीकृतिभोजसागरविनिर्मितायां द्रव्यानुयोगतर्कणाव्याख्यायां दशमोऽध्यायः ।
व्याख्यार्थः-इस पूर्वकथित रीतिसे संक्षेपसे द्रव्यके सूत्रमें कहे हुए छह ६ संख्याके धारक जीव, धर्म, अधर्म आकाश, काल और पुद्गल इन भेदोंको अर्थात् यहांपर जीव आदि छहोंके साथ जुदा २ द्रव्यशब्द लगानेसे षड्य ता सिद्ध होती है; इस कारण द्रव्यके छ हों ही भेदोंको स्याद्वादियोंसे उपदिष्ट ऐसे आगमोंसे अर्थात् जैनशास्त्रोंसे विस्तारपूर्वक अनेक युक्तियों द्वारा श्रवण करके “कणके विषयमें प्राप्त जो करना है; सो श्रवण है; उसमें विस्तारसे सुने हुए पदार्थांका ही ज्ञान होता है; इसलिये विस्तारसे श्रवण करके" और वचनसे घोषणद्वारा कण्ठ करके और मनमें धारण करके भो भव्य जीवो ? अर्थात् सिद्ध होने योग्य प्राणिवगों ? श्री जिनेन्द्रके चरणोंकी सेवामें स्थिरताको धारण करो। इस द्रव्योंके स्वरूपको सुनकर तथा स्मरण करके श्रीजिनेन्द्रकी भक्ति ही साधने योग्य है; इसलिये द्रव्यके स्वरूपका सुनना और धारण करना कल्याणका कारण है । यहांपर भोज इस संकेतसे टीकाकारने अपना नाम भी दिखाया है । और इस अध्यायमें सम्यक्त्वको पुष्ट (दृढ) करने के लिये सब द्रव्योंके भेदोंका कथन करना है; सो ही प्रयोजन है ॥२१॥
इति श्री पं० ठाकुरप्रसादशास्त्रिविरचित माषाटीकासमलतायां
द्रव्यानयोगतर्कणांयां दशमोऽध्यायः ॥
अर्थकादशाध्याये गुणभेदान् व्याचिख्यासुराह । अब इस एकादश अध्यायमें गुणके भेदोंके वर्णनकी इच्छासे यह सूत्र कहते हैं ।
श्रीनाभेयजिनं नत्वा गुणदेष्टगुरुं तथा
गुणभेदानहं वक्ष्ये क्रमप्राप्तान्यथामति ॥१॥ भावार्थः-मैं श्रीनाभिराजके पुत्र श्रीऋषभदेवजी तीर्थंकरको तथा वाणीके गुणोंके उपदेशक गुरुजीको नमस्कार करके अब क्रमप्राप्त गुणोंके भेदोंको इस एकादशवें अध्यायमें निजमतिके अनुसार कहूँगा ॥१॥
__ व्याख्या । नाभेरपत्यं नाभेयः श्रीयुक्तो नाभेयः स चासो जिनश्च श्रीनाभेयजिनस्त श्रीनाभेयजिनं श्रीऋषभनाथं नत्वा नमस्कृत्य तथा तेनैव प्रकारेण गुणदेष्ट गुरु गुणा वीणीगुणास्तान् दिशतीति गुणदेष्टा स चासौ गुरुश्च गुणदेष्ट गुरुस्तं नत्वा नमस्कृत्येति । निर्विघ्नसमाप्तिकामाय मङ्गलमिति । अहं गुणभेदान् क्रमप्राप्तान् द्रव्यव्यावर्णनानन्तरं
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