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________________ २] .. श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् के उदरमें वर्तमान कुवादसे उत्पन्न छायाका समूह दूर होता है, और द्रव्यादि पदार्थोंका यथार्थ स्वरूप भी प्रकाशित होता है, ऐसे सबके स्वामी, रत्नत्रयरूप शरीरके धारक (सम्यग्ज्ञान, दर्शन तथा चारित्रमय ) श्रीजिनेन्द्र जयवन्त हैं ।। २ ॥ श्रीमहावीरस्वामीसे आदि लेकर संपूर्ण तीर्थंकरोंकी पंक्तिरूप आकाशके सूर्य, श्री (लक्ष्मी )से सेवित तथा गाम्भीर्य, "दया दाक्षिण्य" आदि गुणोंकी पंक्तियोंसे अति शोभायमान रत्नोंके समूहके रत्नाकर तथा शास्त्र, देव और पुरोहितके प्रतिनिधि ( स्थानापन्न) श्रीमत्तपागच्छके नायक श्रीदयाविजय नामक गणधरजीको मैं नमस्कार करता हूं ॥३॥ और श्रीविनीतसागरजी तथा श्रीभावसागरजी नामक विद्यागुरुको नमस्कार करके उन्हीं महाऽनुभावकी कृपासे इस द्रव्याऽनुयोगतर्कणा नामक प्रबन्धकी मैं कुछ व्याख्या करता हूं ॥ ४ ॥ समीचीन (उत्तम ) भावोंसे संयुक्त, श्रीमान सुविनीत गुरुजीको परमरमणीय भक्तिभावसे प्रणाम करके सूत्रोंकी वृत्तिका में विस्तार करता हूं ॥ ५ ॥ चिकोषितग्रन्थस्य निर्विघ्नपरिसमाप्त्यर्थमिष्टदेवतानमस्कारादिरूपं मङ्गलं ग्रन्थादो आचरन् अनुबन्धचतुष्टयं दर्शयन्नेव चिकीर्षितं प्रतिजानीते । रचनेको अभीष्ट ग्रन्थकी निर्विघ्न समाप्तिकी इच्छासे अपने इष्ट देवका नमस्काररूप मङ्गलाचरण करते हुए तथा ग्रन्थके अनुबन्धचतुष्टयको दर्शाते हुए ग्रन्थकार निज चिकीर्षित (करनेको इष्ट) विषयकी प्रतिज्ञा करते हैं। श्रीयुगादिजिनं नत्वा कृत्वा श्रीगुरुवन्दनम् । आत्मोपकृतये कुर्वे द्रव्यानुयोगतर्कणाम् ॥१॥ भावार्थः-युगके आदिमें आविर्भूत श्रीआदिजिन भगवान् (श्रीआदिनाथ ऋषभदेवजी) को नमस्कार करके, तथा श्रीगुरुदेवको वन्दना करके, आत्माके उपकारके अर्थ, अर्थात् जीव अजीव आदि द्रव्योंको जानकर संसारसागरसे जीवके उद्धारके लिये मैं इस द्रव्यानुयोगतर्कणा नामक ग्रन्थको रचता हूं ॥१॥ व्याख्या । तत्र प्रवममिष्टदेवतानमस्करणेन सप्रयोजनाभिधेयो दर्शितः । आद्यपदद्वयेन मङ्गलाचरणं नमस्कारकरणं च ।। आत्माथिन इहाधिकारिणः । २ । तेषामर्थबोधो भविष्यतीति उपकाररूपं प्रयोजनम् । ३। द्रव्याणामनुयोगोऽत्राधिकारः । ४ । अथ द्रव्यानुयोग इति कः शब्दार्थः । अनुयोगो हि सूत्रार्थयोख्यिानं तस्य चत्वारो भेदास्तत्र प्रथमवरणानुयोग आचारवचनमाचाराङ्गादिसूत्राणि । द्वितीयो गणितानुयोगः संख्याशास्त्रं चन्द्रप्रज्ञप्त्यादिसूत्राणि । तृतीयो धर्मकथानुयोग आख्यायिकावरनं ज्ञाताधर्मकथांगादिसूत्राणि । ३ । चतुर्थो द्रव्यानुयोगः षड्द्रव्यविचारः सूत्रकृताङ्गादिसूत्राणि सम्मतितत्त्वार्थप्रमुखप्रकरणानि च महाशास्त्राणि । ततोऽन्त्यभेदविचारणामहं कुर्वे । व्याख्यार्थः-प्रथम सूत्र में अभीष्ट परमदेव जिन भगवानको नमस्कार करने से प्रयोजनसहित निजग्रन्थमें अभिवेय अर्थात् कयन करने के योग्य पदार्थ दर्शाया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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