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________________ ३२ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम व्याख्यार्थ-स्कंध (अवयवी) तथा देश ( अवयव ) का यथार्थमें भेद होनेसे स्कंधके विषयमें द्विगुणरूपता होगी अर्थात् स्कंधमें दूना' बोझ प्राप्त होगा, यहांपर सूत्रमें स्कंधशब्दसे अवयवीरूप अर्थका ग्रहण है। और देशशब्दसे अवयवका इन दोनों अवयवी तथा अवयवोंकी भेदकल्पनासे अवयवीमें दूना बोझ होनेसे वह अवयवी अवयवोंकी अपेक्षा दूना बोझल होजावेगा, क्योंकि सौ तंतु ( सूत ) से बुने हुए वस्त्रमें उतना ही भार युक्त है, जितना कि उन सो तन्तुओंमें है। क्योंकि तंतु और पटके अभेद है, और यदि तंतु और पटके भेद विचारे, तो पट अन्य है तंतु अन्य हैं। इसप्रकार इन दोनोंका भेद होते हुए अवयवी पट में दूना भारीपन भी होना उचित है। अब यहाँ पर यदि कोई नवीन नैयायिक ऐसा कहता है, कि अवयवके भारसे अवयवीका भार बहुत हलका है, तो इस हेतुसे उसके मतमें दो प्रदेशयुक्त अवयवीमें कहीं भी अवयवकी अपेक्षासे अधिक भारीपन न होना चाहिये, क्योंकि दो प्रदेश आदियुक्त स्कंधमें एक प्रदेश आदिकी अपेक्षासे अवयवी धर्मपना है, और एक प्रदेशवाले परमाणुमें दृष्टगुरुत्वकी अपेक्षा अधिक गुरुत्व माननेसे परमाणुमें रूपादिकी अधिकता भी मानी जायगी। और द्विप्रदेशादि स्कंधमें न मानी जायगी। और जब जिसका संबंध अभेदसे मानते हैं तो प्रदेश (अवयव) का जो भार है वह स्कंध (अवयवी) के भी भारपनेसे परिणत होता ही है। जैसे-तंतुका रूप पटरूपतासे परिणमनको प्राप्त होता है, अर्थात् जो तंतुका रूप है वह ही पटका रूप होता है; तब इसप्रकारसे गुरुता अथवा प्रदेश-वृद्धिका जो दोष कहा हुआ है सो भी नहीं लग सकता है । यह सूत्रका तात्पर्य है ॥४॥ अब जो द्रव्यादिकोंके अभेद मानते हैं उनको उपालंभ देते हुए कहते हैं चेद्भिन्नद्रव्यपर्यायमेकरूपं गृहादिकम् । भाषसे न कथं द्रव्यं गुणपर्यायवत्तदा ॥५॥ भावार्थ:-यदि भिन्न द्रव्यों के पर्याय गृहादिकको एक रूप कहते हो तो द्रव्य गुणपर्यायोंवाला है ऐसा क्यों नहीं कहते ? ।।५।। व्याख्यार्थः-यदि भिन्न २ द्रव्योंके पर्याय रूप अर्थात् पाषाण, काष्ट, जल आदि जो भिन्न २ बहुतसे द्रव्य हैं, उनके पर्यायभूत गृह ( घर ) आदिको “यह घर एक रूप है" इसप्रकारकी बुद्धिसे एक ही कहता है, तो द्रव्यको गुणपर्यायवाला क्यों नहीं कहता है ? अर्थात् एक द्रव्यमें गुण तथा पर्यायका अभेद होय; ऐसा विवेक क्यों नहीं कहता है ? क्योंकि जो आत्मा द्रव्य है वह ही आत्माका ज्ञान आदि गुण है, और १ तात्पर्य यह है कि अवयव मिलके अवयवी बनता है तो वह अवयवोंसे भिन्न है, इससे अपनी तथा अवयवोंकी गुरुता (भारीपन) मिलाकर दूना होगया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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