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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् पुद्गल द्रव्यका समवायीकारण है। जैसे मृत्तिकाके पिण्डमें घट की समवायीकारणता है; और ऐसी दशा होनेपर ही उपचार होता है; क्योंकि-परके साथ परका उपचार होता है; और स्वके साथ स्व (निज) का उपचार नहीं हो सकता है । जैसे मृत्पिण्डका घटके साथ तथा तंतुवोंका पटके साथ उपचार नहीं होता। इस रीतिसे असद्भ तव्यवहार नव ९ प्रकारसे निरूपण कियागया । अर्थात् उपचारके बलसे उपचार भी नव ९ प्रकारके ही किये गये ॥९॥
अथ तस्यैवासद्भुतव्यवहारस्य भेदत्रयं कथ्यते । अब उसी असद्भ तव्यवहारके तीन भेद कहते हैं ।
असद्भूतव्यवहार एवमेव त्रिधा भवेत् ।
तत्राद्यो निजया जात्याप्यणुर्भू रिप्रदेशयुक् ॥१०॥ भावार्थः-असद्भ तव्यवहार पूर्व कथित प्रकारसे ही तीन प्रकारका होता है, उनमें आदि भेदका उदाहरण जैसे निज जातिसे परमाणु अनेक प्रदेशोंका धारक है ॥१०॥
व्याख्या । असद्दभूतव्यवहार एवं पूर्वोक्तरीत्यैव त्रिधा त्रिप्रकारो भवेत् । तत्र त्रिषु भेदेष्वाद्यो भेदो यथा परमाणुः बहुप्रदेशी कथ्यते । कथं तहि-परमाणुस्तु निरवयवोऽतो निरवयवस्य सप्रदेशत्वं नास्ति तथापि बहप्रदेशानां सांसगिकी जातिः परमाणोरस्ति । यथा हि द्वघणुकृत्र्यणुकादिस्कन्धवत् ॥१०॥
व्याख्यार्थः-असद्भ तव्यवहार पूर्व कथित प्रकार से ही तीन प्रकारका होता है; उन तीनों भेदोंमेंसे प्रथम भेदका उदाहरण यह है; कि-जैसे परमाणु बहुप्रदेशमुक्त कहा जाता है । अब परमाणु अनेक देशभागी है; यह कथन कैसे संगत हो सकता है; क्योंकि-परमाणु तो निरवयव ( अवयवरहित ) पदार्थ है; इसलिये यद्यपि निरवयवको सप्रदेशता (प्रदेशसहितपना) ही नहीं है; तथापि बहुप्रदेशोंकी सांसर्गिकी अर्थात् संसर्गसिद्ध परमाणुके हैं; जैसे दो अणुवोंका स्कन्ध, तीन अणुवोंका स्कन्ध इत्यादि ।। १० ।।
अथ द्वितीयो भेदश्च । अब असद्भ तव्यवहारके द्वितीय भेदका भी कथन करते हैं।
विजात्यापि स ऐवान्मा यथा मूत्तिमती मतिः ।
मूर्तिमद्भिरपि द्रव्यनिष्पन्ना चोपचारतः ॥११॥ भावार्थः-विजातिसे भी वही असद्ध तव्यवहार प्रवृत्त होता है, जैसे मूर्तिमान द्रव्योंके उपचारसे मतिज्ञान मूर्तिमान सिद्ध होता है, अर्थात् “मूतिर्मूर्तिमती" ऐसा व्यवहार दृष्ट है; यह अन्य अर्थात् द्वितीय असद्भत व्यवहार है ॥ ११ ॥
व्याख्या । यथा स सवासद्भूतो विजात्या वर्तते । यथा वा मूर्तिमती मतिः । मतिर्ज्ञान
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