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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [२१ . व्यक्तयो भूयस्यो बहुप्रकाराः सन्तीति । अत्र कश्चिद्दिगम्बरानुसारी शक्तिरूपो गुण इति कथयन्नाह । यतो द्रव्यपर्यायकारण द्रव्यम् । गुणपर्यायकारणं गुण: । द्रव्यपर्याययो व्यस्यान्यथामावः । यथा नरनारकादयो यथा वा द्वयणुकत्रयणुकादयः । पुनगुणपर्याययोगुणस्यान्यथाभावः । यथा मतिश्र तादिविशेषः । अथवा मवस्थसिद्धादिविशेषः । एतौ द्रव्यगुणौ स्वस्वजात्या शाश्वती पर्यायेणचाशाश्वती इत्थं संगिरन्ते । परमार्थतस्तु आगमयुक्तया एतत्सर्वं मृषा असत्कल्पनमित्यवधार्य प्रमाणामावात् । १० । व्याख्यार्थः-द्रव्योंके अपने २ स्वभावसे सहभावी अर्थात् द्रव्यके साथ ही होनेवाले गुणोंके व्यक्ति तथा द्रव्योंके निज २ स्वभावसे क्रमभावी पर्यायोंके व्यक्ति अनेक प्रकारके हैं। यहां कोई दिगम्बरमतके अनुयायी शक्तिरूप ही गुण है. ऐसा कहते हुए कहते हैं कि द्रव्यपर्यायका कारण तो द्रव्य है, और गुणपर्यायका कारण गुण है, तथा द्रव्य और पर्यायमें भी द्रव्यका अन्यथा भाव है, जैसे जीवद्रव्यके नर तथा नारकादि विशेष, पुद्गल द्रव्यके द्वयणुक, व्यणुक आदि विशेष, और गुणपर्यायों में गुणका अन्यथाभाव अर्थात् गुणकी रूपान्तरसे स्थितिरूप ही है। जैसे ज्ञानगुणके मतिश्रुत आदि विशेष, अथवा भवस्थ सिद्ध आदिक विशेष । फिर यह दव्य गण निज निज स्वभावसे तो नित्य हैं, और पर्यायरूपसे अनित्य हैं, ऐसा दिगम्बर जैनी कहते हैं । परन्तु यथार्थमें शास्त्रीय युक्तिसे यह सब मिथ्या है अर्थात् यह कल्पना उनकी असप है । क्योंकि इस कल्पनामें कोई प्रमाण नहीं है ॥१०॥ अथ गुणपर्याययोरक्यं प्रदर्शयन्नाह ।। अब गुण तथा पर्यायकी एकता दर्शाते हुए यह सूत्र कहते हैं। पर्यायान्न गुणो भिन्नः सम्मतिग्रन्थसम्मतः । यस्य भेदो विवक्षातः स कथं कथ्यते पृथक् ॥११॥ भावार्थः-संमतिग्रन्थको यह सम्मत है कि पर्यायसे गुण भिन्न नहीं है, क्योंकि जिसका भेद वक्ताकी इच्छा अथवा किसी अपेक्षाके आधीन है वह पदार्थ भिन्न कैसे कहा जा सकता है ? ॥ ११ ॥ व्याख्या-पर्यायाद्गुणो भिन्न: पृथक् न किंतु पर्याय एव गुण इत्यर्थः । कीदृशो गुणः ? सम्मतिग्रन्थसम्मतः । सम्मति ग्रन्थे श्रीमसिद्धसेनैराचार्यैयक्तवाचा समुचारितस्तथा च तद्ग्रन्थः । परिगमणं पज्जाओ अगेगकरणे गुणत्ति तुल्लठ्ठा । तहवि न गुणत्ति भण्णइ पजवणयदेसणं जम्मा । १। इति यथा क्रममावित्वं पर्यायलक्षणम् , तथैवानेककरणमपि पर्यायस्य लक्षणान्तरमेवास्ति । द्रव्य तु एकमेवास्ते ज्ञानदर्शनादिभेदकार्यपि पर्याय एव परं गुणो न कथ्यते । यस्मात् द्रव्यपर्याययोर्भगवतो देशना वर्तते । परन्तु गुणपाययोर्देशना न विद्यते । अयं गाथार्थः । एवं सति गुण: पर्यायाद्भिन्नो त तहि द्रव्यम् १ गुणः २ पर्याय ३ श्चति नामवयं पृथक कथं सङ्कलितम् ? इत्थं के वन व्याचक्षते तानाह । यस्थ गुगन्य विवक्षाकृतो भेदो, विवक्षा हि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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