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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १६३ निरूपित किये हैं। उनको बुद्धिसे भली भांति विचारके श्रीअर्हन देवके चरणकमलोंका आश्रय ग्रहण करो ॥ २९ ॥ व्याख्या। अर्थाः षट पदार्थाः धर्माधर्माकाशपुद्गलकालजीवा: समर्थाः शाश्वतपरिणाममाजः शक्तियुक्ताः समये सिद्धान्ते निरुक्ताः कथिता आप्तयथार्थतत्त्ववेदिभिस्तीर्थकृद्धिः । ते कीदृशा इत्थं पूर्वोक्तवर्णनरूपेण विधालक्षणवन्तो लक्षणत्रयविराजमानाः। भावार्थस्त्वयम --सिद्धान्ते सर्वेऽर्थाः विविधप्रकारेण त्रिलक्षणा: कथ्यन्ते । लक्षणत्रयं तूत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं तच्छीलं तत्स्वभावं च माषितमिति । भव्या भवाय अरे भव्यास्तान् अर्थान् षडपि लक्षणत्रयभावनया सम्यग्बुद्धया परिभाव्य पर्यालोच्याहत्क्रमाम्भोजयुगं जिनचरणपङ्कजद्वयं श्रयन्तामाद्रियन्तामिति । तज्ज्ञाने सति तच्चरणमुक्त्युत्पत्तिफलं लक्ष्यीकृतम् । मोजेति श्लेषेण ग्रन्थकत्त नाम सङ्केतश्चेति । यथा च ये पुरुषास्त्रिलक्षणभावनया विस्ताररुचिविशेषेण सम्यक्त्वमवगाह्मान्तरङ्गसुखानुभवाभिलाषपरा भवन्तु । पुनस्तथैव सम्यक्त्वपूर्वकमुक्तिप्राप्तिः सुलभेति ध्येयम् ॥ २६॥ इति श्रीकृतिमोजसागरविनिर्मितायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां सप्तनयमितषड्व्याणां त्रिलक्षणवर्णनास्यो नवमोऽध्यायः परिकल्पितः ॥६॥ व्याख्यार्थः-धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव यह षट् पदार्थ जो कि निरन्तर परिणामके भागी तथा शक्तियुक्त हैं; उनको यथार्थ तत्त्वोंके वेत्ता ( जाननेवाले) तीर्थंकरोंने सिद्धान्तमें पूर्वोक्त उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यस्वरूप तीन लक्षणोंसे विराजमान वर्णन किये हैं। भावार्थ यह कि-जैनसिद्धांतमें संपूर्ण पदार्थ अनेक प्रकारसे त्रिविध लक्षणसहित कहे जाते हैं; और लक्षणत्रय यह है; जैसे उत्पाद, व्यय और धौव्य अर्थात् संपूर्ण पदार्थ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप शील अथवा स्वभावके धारक हैं; ऐसा कहा गया है। इस हेतुसे हे भवके योग्य जीवो ! उन षट् पदार्थोंको लक्षणत्रयकी भावनासे सम्यक् प्रकार बुद्धिद्वारा जानकर अर्थात् पूर्णरीतिसे विचार करके श्रीअर्हत् भगवान्के चरण कमलयुगलका सेवन करो अर्थात् आदर करो । तात्पर्य यह कि-षट् पदार्थोंका ज्ञान होनेपर श्री जिनदेवके चरणोंमें भक्तिका उत्पन्न होना यही मुख्य फल है । और श्लोकमें जो "क्रमांभोज" यह पद है; उसमें श्लेषसे "भोज" इस प्रकार ग्रंथकर्ताके नामका भी संकेत है और जो भव्य जीव हैं; वह इस प्रकार पदार्थमें विलक्षणताके विचारसे उत्पन्न हुई जो विस्ताररुचि उससे सम्यक्त्वका अवगाहन करके अंतरंगसुख(मोक्षसुख )के अनुभवकी अभिलाषामें तत्पर होवें और उनको इसी प्रकारसे पहले सम्यक्त्व होकर तत्पश्चात् मुक्तिकी प्राप्ति सुगम होगी ऐसा विचार करना चाहिये ॥ २९ ॥ इति श्रीआचार्योपाधिधारक पं० ठाकुरप्रसादविरचितमाषाटीकासमलङ्कृतायां द्रव्यानुयोगतर्कणाव्याख्यायां नवमोऽध्यायः ॥९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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