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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम व्याख्यार्थ-यदि सर्वथा असत् पदार्थका ज्ञान हो तो इस समय मैंने अतीत घटको जाना इस आकारकी प्रतीति कैसे होती है ? क्योंकि उस समयमें अतीत घट को मैंने इस समय जाना इस प्रकार जो बोध होता है उसमें द्रव्यसे विद्यमान अतीत घटके विषयमें वर्तमान ज्ञेयके आकाररूप पर्यायसे इस समयभूत घटको जाना ऐसा ज्ञानका भान है । अथवा नैगमनयकी अपेक्षासे भूतपदार्थ के विषय में वतमान पदार्थका आरोप किया जाता है । इस कारण यह सिद्ध हुआ कि असत् पदार्थका ज्ञान सर्वथा नहीं होता है, क्योंकि इस काल में घटको मैंने जाना ऐसे जो घटको भूत पदार्थरूपता थी वह अतीतार्थता वर्त्तमान द्रव्यका पर्याय होनेसे वर्तमानता होती है ।। १२ ।। फिर भदभावना कहत है ।
चेद्धर्मेणासता धर्मो कालेऽप्यसति रोचते ।
तदा सदा शशशृङ्ग किन्न ज्ञापयसि द्रुतम् ॥१३॥ भावार्थ:- यदि अतीत कालमें भूत घटरूप धर्मी अविद्यमान आकारसे भासता है ऐसा तुमको रुचता है तो तुम सदा निःशङ्क ( शङ्कारहित ) होकर खरगोशके सींगको भी क्यों नहीं जानते ॥१३।।।
व्याख्या । धर्मी अतीतो घटोऽसता धर्मेणाविद्यमानाकारेण अमति काले अतीते काले घटामावकालेऽपि सदिति भासते । अथवा धर्मी अतीतो घटः असता धर्मग शेकारेण असति काले भासते । इत्थं यदि तव चेतसि रोचते तत्सर्वमतीतानागतवर्तमानकाले निर्भयमदृष्टशङ्कारहितं यथा भवति तथा शशशृङ्गमपि कथं न ज्ञापयसि । एतदेव ज्ञापयतुमिष्टमेवेति ॥ १३ ॥
___ व्याख्यार्थः-धर्मी अर्थात् भूतकालका घट असत् धर्म अर्थात् अविद्यमान आकार रूपसे असत् काल अर्थात् घटाभावकालमें ( विद्यमानरूपसे ) भासता है । अथवा धर्मी भूतघट असत् धर्म अर्थात् अविद्यमान ज्ञेय आकारसे अविद्यमान कालमें भासता है ऐसा पक्ष यदि तुम्हारे चित्तमें रुचता है तो तुम निर्भय अर्थात् नहीं देखनेमें आते हुए पदार्थको हम कैसे जानते हैं। इस प्रकारकी शंकारहित जैसे हो तैसे सदा अर्थात् भूत भविष्यत् वर्तमानकालमें अविद्यमान खरगोशके सौंगको भी क्यों नहीं जनाते हो ? क्योंकि जब तुनने मृत्तिकासे असत् घटकी उत्पत्ति तथा भूतकालके असत् घटका भान मान लिया ह तो असत् शशशृङ्गको भी सिद्ध करके जनादेना तुम्हारे इष्ट ही है ॥ १३ ॥
ततोऽसतो हि नो बोधो नैव जन्म च जायते ।
- कार्यकारणयोरैक्यं द्रव्यादीनामपि श्रय ॥१४॥ भावार्थ:- इस पूर्वोक्त हेतुसे अविद्यमान पदार्थका ज्ञान नहीं होता है और न उत्पत्ति ही होती है, इस कारण तुम कार्य कारणकी तथा द्रव्य, गुण, पर्यायकी एकताको भी स्वीकार करा ॥१४॥
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