________________
द्रव्यानुयोगतर्कणा
[१६७
म्तरं जलं यथा मीनस्य मत्स्यस्य गतिपरिणामि अस्ति अपेक्षाकारणात् । गमनागमनादिक्रियापरिणतस्य मत्स्यस्य जलं अपेक्षाकारणमस्ति तथैव धर्मद्रव्यमपि ज्ञेयम । निष्कर्षस्त्वयम स्थले झषक्रियाव्याकुलतया चेष्टा हेविच्छाभावादेव न भवति । न तु जलामावादिति गत्यपेक्षाकारणे मानाभाव इति चेन्न । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां लोकसिद्धव्यवहारादेव तद्धे तुत्वसिद्धरण्यथान्त्यकारणेनेतराखिलकारणासिद्धिप्रसंगादिति दिक् ॥४॥
व्याख्यार्थः-जीव तथा पुद्गलके गति अर्थात गमनमें परिणामी धर्मास्तिकाय द्रव्य होता है; क्योंकि-वह धर्म द्रव्य लोकमें अर्थात् चतुर्दश (चोदह १४) रज्जुप्रमाण जो आकाशखंड है; उसमें यह धर्मद्रव्य अपेक्षा कारण है; और गमनरूप अथवा गमनकरानेरूप व्यापारसे रहित अधिकरणस्वरूप उदासीन कारण है। इस विषयमें दृष्टान्त कहते हैं। जैसे जल मीन (मत्स्य) की गतिमें सदा परिणामी है क्योंकी-वह जल अपेक्षा कारण है । अर्थात् गमन तथा आगमनआदि क्रियामें परिणत मत्स्यके जल अपेक्षाकारण है । उसी प्रकार गमनमें परिणत जीव पुद्गलके धर्मद्रव्य भी अपेक्षा है; ऐसा जानना चाहिये । भावार्थ तो यह है; कि-वह मीन स्थलमें अपनी गमनक्रियामें व्याकुलित होता है; और उसव्याकुलतासे जो गमनकी चेष्टाकी कारणभूत इच्छा है; वह इच्छा ही नहीं होती इसीसे वह मीन स्थलमें गमन नहीं करता है। वहाँ कोई शंका करता है; कि-मीनस्थलमें जो गमन नहीं करता है; सो जलके अभावसे नहीं करता है; और तुम जो जलको गतिमें अपेक्षा कारण मानते हो इसमें कोई प्रमाण नहीं है ? उसका समाधान यह है; कि-यह ठीक नहीं क्योंकि-अन्वय और व्यतिरेकसे जो लोकमें प्रसिद्ध व्यवहार है; उसीसे उस जलमें गमनकी कारणता सिद्ध होती है; अर्थात् जिसके होनेपर कार्य हो और न होनेपर न हो यही अन्वयव्यतिरेक है; और जिसमें अन्वयव्यतिरेक घट जाय वही लोकमें कारण माना जाता है; इस प्रसिद्ध व्यवहारसे जल भी मीनकी गतिमें कारण है; क्योंकि-जलके होनेपर मीन गमन करता है; और जलके अभावमें नहीं इसलिये जल गमनमें कारण है । यदि ऐसा न मानोगे तो अन्तके कारणसे अन्य सब कारणोंकी असिद्धिका प्रसंग होगा । यह संक्षेपसे धर्मद्रव्यका लक्षण हुआ ॥४॥
अथाधर्मास्तिकायस्य लक्षणं कथयन्त्रह। अब अधर्मास्तिकायका लक्षण कहते हैं।
स्थितिहेतुरधर्मः स्यात्परिणामी तयोः स्थितेः ।
सर्वसाधारणो धर्मो गत्यादि व्ययो योः ॥५॥ भावार्थ:-जीव तथा पुद्गलकी स्थितिका परिणामी और स्थितिका हेतु अधर्मद्रव्य है; और यह गति तथा स्थितिरूप अखिल साधारण धर्म इन धर्म अधर्मरूप दो ही द्रव्योंमें है ॥५॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org