Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रेष्ठि-देवचन्द लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः १०३ ।
भगवच्छय्यंभवश्रुतकेवलिनिटं श्रीमत्सुमतिसाधुसूरिणा भवविरहाङ्कितबृहट्टीकोद्धृतवृत्त्युपेतं
श्रीदशवैकालिकम्।
सम्पादको-आगमोद्धारक-श्रीआनन्दसागरसूरीश्वराणां अन्तेवासिनौ-श्रीकञ्चनविजय-क्षेमङ्करसागरौ ।
प्रकाशकः-सुरतस्थ-श्रेष्ठि-देवचन्द-लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारकोशस्य
अवैतनिक कार्यवाहका-मोतीचंद मगनभाई चोकसी। वीरात् ३४८० । विक्रमसंवत् २०१० ।
शाके १८७६ ।
खिस्तान्द १९५४ । प्रथमसंस्करणम् ] निष्क्रय रूप्यकं त्रयम्
[प्रतयः ५०० OCO CO CO CO CO CO CO COCOSQIQIQIQOIDIQOK OCOICOIODO
र
For Private & Personel Use Only
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु०
श्री
दशवै०
॥ २ ॥
Jain Education Interna
इदं पुस्तकं भावनगर्यां श्रेष्ठि- देवचन्द - लालभाई - जैनपुस्तकोद्वारसंस्थाया अवैतनिक कार्यवाहक - मोतीचंद मगनभाई चोकसी इत्यनेन महोदयमुद्रणालये, दाणापीठमुद्रणमन्दिरे शा. गुलाबचंद लल्लुभाई द्वारा मुद्रापितम् ।
अस्य पुनर्मुद्रणाद्याः सर्वेऽधिकाश एतद्भाण्डागार कार्यवाहकैरायत्तीकृताः । All Rights reserved by the Trustees of the Fund.
Printed By Gulabchand Lallubhai S'ha at the "Mahodaya Printing Press " Dana Peetha, Bhāvnagar ( Saurashtra )
Published for Sheth Devchand Lalbhai Jain Pustakoddhār Fund, at Sheth Devchand Lälbhāi Jain Boarding House For ( Sri Ratna Sāgar Jain Boarding), Badekhān chakla, Gopi-purā, Surat, by the Hon: Managing Trustee, Motichand Maganbhai Chokasi.
॥ २ ॥
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
Sheth Devchand Lalbhai Jaina Pustakodhāra Fund Series: No 108 Shree Das Vaikalik Sutra
Ву S'ri Sayyambhausuri
Commentry by Shree Bhawvirhank Suri
Abridged by
Shree Sumati Sadhu Suri Vikrama Samvat 2010 ]
Price Rs. 3-0-0
[ Christian Era 1954
1
For Private & Personel Use Only
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु श्री
दशव०
The Board of Trustees:
સંસ્થાનું ટ્રસ્ટીમંડળ| Nemchand Guläbchand Devchand Zaveri
૧ શ્રી નેમચંદ ગુલાબચંદ દેવચંદ ઝવેરી 2 Talakchand Motichand
તલકચંદ મેતીચંદ 3 Bābubhai Premchand
બાબુભાઈ પ્રેમચંદ 4 Amichand Zaverchand
, अभीय अवश्य 5 Keshrichand Hirachand
, કેશરીચંદ હીરાચંદ 6 Motichand Maganbhāi Chokasi
भाती भगनमा सी. Hon., Managing Trustee. |
ઍન. મેનેજીંગ ટ્રસ્ટી
विषयसूची विषयः पृष्ठाः | विषयः पृष्ठाहः | विषयः
पृष्ठाः प्रकाशकीय-वक्तव्यः
५-९ | परि०१ श्रीदशवकालिकगतसूत्रगाथा- |परि०५ विशिष्टनाम्नामसम्पादीकय-निवेदनम् नामकारादिक्रमः २२३-२३६
कारादि २४०-२४१ अध्ययनानुक्रमः परि०२ 'अभ्यः' इत्यादि २३७
परि०६ दर्शितातिदिष्ट्रोदा.
हरणानि परि०३ साक्षिग्रन्थानाम
રજર विषयानुक्रमः शुद्धिपत्रकम्
कारादि २३७-२३८ | परि०७ लघुवृत्त्यन्तंगता परि०४ साक्षिपाठानाम
____ व्याकरणसिद्धिः २४२ लघुवृत्त्युपेतं दशकालिकम् १-२२२ ।
कारादि २३९-२४० । परि०८ लघुल्यतर्गवा न्समा २५३
१०
४॥
Jan Education Inteman
For Private
Personal Use Only
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रेष्ठी देवचन्द लालभाई जह्वेरी
SEOSEENEOSENE
जन्म १९०९ वैक्रमाब्दे
निर्याणम् १९६२ वैक्रमाब्दे a कार्तिक शुक्लैकादश्यां (देवदीपावली-सोमवासरे) पौषकृष्ण तृतीयायाम(मकरसंक्रान्ति मंदवासरे)|m सूर्यपूरे.
मोहमयीनगर्याम्. The Late Sheth Devchand Lalbhai Javeri. Born 22nd Nov. 1852 A.D. Surat, Died 13th January 1906 A.D. Bombay
T
Mini
Education International
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
For Private & Personel Use Only
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु
श्री
दशवै.
णमो सिजंभवस्स श्रेष्ठि-देवचन्द लालभाई-जैनपुस्तकोद्वारे ग्रन्थाङ्कः १०३ । श्रीसुमति(साधु )सूरिविरचित लघुवृत्तिसहित
दशवैकालिकसूत्रना अंगे प्रकाशकीय-वक्तव्य
श्रमण भगवान महावीर महाराजना पंचम गणधर श्रीसुधर्मास्वामीनी पाटे चरम केवली श्रीजम्बूस्वामी थया, तेमना पट्टधर श्रीप्रभवस्वामी थया अने तेमने पोतानी पाटे श्रीशय्यं भवसूरिने स्थाप्या. तेओश्रीए पोताना पुत्र मनकने दीक्षा आपी अने तेनु छ महिनानुं आयुष्य जोतां तेना उद्धार माटे श्रीदशवकालिकनी रचना करी. ते आ श्रीदशवकालिक उपर नियुक्ति वगेरे छे. अने तेनी उपर भवविरहाक्ति आचार्य भगवान् श्रीहरिभद्रसूरीश्वर महाराजे शिष्यबोधिनी नामनी टीका रची हती. ते टीका उपरथी एकला ज श्रीदशवकालिकमूळ उपरनी वृत्तिनो श्रीसुमतिसाधुसूरिए उद्धार कर्यो. ए वात लघुटीकाना अन्त्यपत्रमा जणावी छे. एटले आ ग्रन्थ श्रीसुमतिसाधुसूरिनी रचेली लघुवृत्ति सहितनो श्रीदशवकालिकसूत्रनो छे.
Jain Education Interna
For Private Personel Use Only
lww.jainelibrary.org
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु
दशवै०
ग्रन्धक ए आ ग्रन्थनुं भवविरहावित श्रीहरिभद्रसूरीश्वरमहाराजनी वृत्तिने अनुसरवापणुं जणाब्युं छे, पण तेओश्रीए आ ग्रन्थ क्यारे रच्यो तेनो स्पष्ट उल्लेख नथी, परंतु आ ग्रन्थना छेडे बे पुष्पिकाओ आपी छे ते उपरथी एक बात चोकस बाय छे के-आ प्रन्य सं. १५१६ पहेलां थयेलो छे. वळी "जैन साहित्यनो इतिहास" पृ. २५२ मां जणाव्या प्रमाणे-संवत् ११८८ मां पत्तनमा वाचक शि० सुमतिसूरिनी रचेली श्रीदशवैकालिकटीका ताडपत्र पर लखाइ.
प. पू. बहुश्रुत, आगममंदिरोनां संस्थापक, आगमवाचनाना दाता, अनेक ग्रन्थना प्रणेता, आगमोद्धारक गुरुदेव श्रीआनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजे आ संस्थानो प्रादुर्भाव कर्यो हतो अने तेथी आ संस्थाए-श्रेष्टि देवचन्द लालभाई जैनपुस्तकोद्धार फंडे अनुक्रमे आगमो विगेरेना १०२ अन्थो आज सुधी बहार पाड्या छे, तेवी रीते आ पन्थ १०३ नंबरमा बहार पाडे छे.
प.पू. आगमोद्धारक गुरुदेव श्रीनी इच्छा अवचूरि वगेरे लघु टीकाओ आवालोपयोगी बहार पाडवानी हती, तेथी आ संस्थाए ते कार्य पण आरंभ्यु अने तेवा ग्रन्थोमां आ ग्रन्थनी प्रेसकॉपी प. पू. गुरुदेवश्रीनी सेवा करनार पू. गुणसागरजी महाराज पासेथी मेळवी अने संपादन करवाने माटे मुनि श्रीकंचनविजयजी तथा मुनि श्रीक्षेमकरसागरजी महाराजने विनंति करी अने तेओश्रीए अमारी विनंतिने ध्यानमा लई गुरुदेवश्रीना पट्टधर श्रुतस्थविर, विद्याव्यासंगी, आचार्यमहाराज श्रीमाणिक्यसागरसूरीश्वरजी पासे एक वखतर्नु प्रूफ जोवडाववापूर्वक आ ग्रन्थy संपादन कयुं छे. अने आ प्रन्थने शणगारवा माटे लघु अने बृहत् विषयानुक्रम अने सूत्रादि अकाराविक्रम वगेरे आठ परिशिष्टो आप्यां छे. आ श्रीदशवकालिकसूत्र संबंधां संपादकीय निवेदन घणु मननीय छे छतां तेना साहित्य अंगे कंईक विवरण अत्रे आपवामां आवे छे.
Jain Education Intema
ForPrivate sPersonal use Only
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु
IMA
श्री
दशबैक
श्रीकालिकसत्रनी गणना (त्रीजा) मूल सूत्रमा थाय छे. श्रीदशकालिकसूत्रना को श्रीशय्यंभवसरि (सधर्मास्वामीना शिष्य जंबूस्वामीना शिष्य प्रभवस्वामीना शिष्य ) छे.
श्रीदर्शवकालिकसूत्र प्राकृतमा श्लो. ७०० प्रमाण छे. तेमने पोताना पुत्र मनकना ढूंका आयुष्यने जाणीने तेना माटे आ सूत्र | बनाव्यं. तेमा साधना आचारना विषयोनो संग्रह छे. आ सूत्रमा दश अध्ययन छे. तेमां पण चार अध्ययनो तो जरुर साधए । भणवां ज जोइए. श्रीदशवकालिकसूत्रना अंते ' रतिवाक्या' अने ' विविक्तचयों' नामनी बे चूलिका छे. ते महाविदेह क्षेत्रमा विचरता सीमंधरस्वामीए आपेली छे, जे साधु मुनिमहाराजाओने संयममा स्थिर करे छे. 'श्रीदशवकालिक सूत्र' उपर भद्रवाह स्वामीनी नियुक्ति गा. ४४५ श्लोक ५५० प्रमाण छे. वळी भाष्य पण छे.
श्रीदशकालिकसूत्र उपर ७००० श्लोकप्रमाण चूर्णि छे. श्रीऋषमदेवजी केशरीमलजीनी पेढी-रतलाम तरफथी प्रकाशित थयेली छे. तेना कर्ता जिनदासगणिमहत्तर छे. आचार्य श्रीआनन्दसागरसूरीश्वरजी संशोधित छे. श्रीदशवैकालिकसूत्र बृहदवत्ति आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिजीए ७५५०, ६८५० (श्लोकसंख्या भिन्न जाणवामां आवी छे.) श्लोकप्रमाण टीका रची छे ते मल, नियुक्ति ने भाष्य उपरनी छे. ते समप्र बृहबृत्ति साथे आ ज फंड तरफथी प्रकाशित थयेली छे. ते आचार्य श्रीआनन्दसागरसरिजी संशोधित छे. श्रीदशवकालिकसूत्र उपर श्रीतिलकाचार्ये संवत् १३४६ मा ७००० श्लोकप्रमाण वृत्ति रची छे. ते पाटण वगेरे स्थळे छे. वृत्ति अप्रसिद्ध छे. सं. १६९१ मा उपाध्याय श्रीसमयसुंदरजीए 'शब्दार्थवृत्ति' नामनी टीका रची छे. श्रीजिनयशासरि - ग्रंथमालामां छपाई छे. शोकप्रमाण ३०३३ प्रमाणनी छे. श्रीदशकालिकासूत्र उपर 'लघुवृत्ति' २६०० (३६००) श्लोकप्रमाणनी
For Private Personal Use Only
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु०
श्री.
दशवै०
|| 6 ||
Jain Education Intera
' सुमतिसूरि 'ए रची छे, जे आ प्रकाशित करी रह्या छीए. वली एक लघुवृत्ति अंचलगच्छीय विनयहंसगणीए संवत् १५७२ मां २१०६ लोकप्रमाण रची छे. ते अप्रसिद्ध छे अने ते खंभातमां ताडपत्रीय उपर श्रीशांतिनाथजी ज्ञानभंडारमां छे.
श्रीदशवेकालिकसूत्र उपर त्रण अवचूरिओ छे तेमां पहेली शांतिदेवकृत छे ते पाटणना ज्ञानभंडारमां छे, वली बीजी १८०० लोकप्रमाणनी छे ते पाटण, खंभात अने पूनाना ज्ञानभंडारोमां छे. त्रीजी १५०० लोकप्रमाणनी छे ते लींबडीना ज्ञानभंडारमां छे. कर्तानी माहिती मळी नथी. त्रणे अप्रसिद्ध छे. श्रीदशवैकालिक दीपिका श्रीमाणिक्यशेखरसूरिकृत मोटी छे, जे अमदावादना ज्ञानभंडारमां छे ने अप्रसिद्ध छे.
श्रीशकालिक सूत्र नो टब्बो (बालावबोध ) गु. अनुवाद, हिन्दी अनुवाद तथा जर्मन इंग्लीश अनुवाद पण छे. आ सूत्रनुं मूल तथा नियुक्ति श्रीवर्धमान जैनागममंदिरमां पालिताणामां शिलारूढ थयेल के अने सुरतमां श्रीवर्धमान जैनताम्रपत्रागम मंदिर मां एकलं मूल ताम्रपत्रारूढ करवामां आव्युं छे.
विनंती - संशोधक मुनिवर्योने आगम पंचांगीना अप्रगट प्रथोनुं संशोधन करवा फंड तरफथी विनंती करींए छीए अने जेओश्री पासे अप्रगट आगम पंचांगीना ग्रंथोनी प्रेसकॉपीओ अथवा प्रतो होय तो तेना नामो जणाववा विनवीए छीए. जेथी फंड तरफथी प्रकाशित करवा योग्य प्रबंध करीए.
आ मन्थना प्रकाशनमां जेवा जेवा रूपे जेओ जेओश्रीए अमने सहाय करी छे ते बदल अमो ट्रस्टीओ आ फंड तरफथी
॥ ८ ॥
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु
श्रीदशवै०
तेओश्रीनो आभार मानीए छीए. अने विद्वानोने ए प्रार्थना करीए छीए के अमारा प्रकाशनमा अमने योग्य संपादन वगेरेनी मदद करे. तेमज आ अन्थना अभिलाषीओ अमारा प्रकाशित करेला पन्थनो उपयोग करे. वि. सं. २०१० भादरवा शुद १
लि. भवदीय (महावीर जन्म वांचन महिमादिन)
मोतीचंद मगनभाई चोकसी वगेरे ___ ता. २९ ओगष्ट १९५४,
संस्थाना ट्रस्टीओ
ता.क.-आ ग्रंथ घणा समयथी प्रेसमा चालु हतो अने प्रसिद्ध थाय ते दरम्यान उपरोक्त फंडना एक मुरब्बी ट्रस्टी । शेठ साकेरचंद खुशालचंद झवेरी स्वर्गवास पाम्या छे तेनी दीलगीरी साये नोंध लेवामां आवे छे अने तेमनी खाली पडेली जग्याए श्रीकेशरीचंद हीराचंदने नीमवामां आव्या छे. जे मुजब दृस्टी मंडळनां नामोमां फेरफार करवामां आव्यो छे (पा. ४).
॥
९
in Education Interie
For Private & Personal use only
Halww.jainelibrary.org
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु०
श्री
दशवे०
॥ १० ॥
Jain Education Intera
णमो सिरिदसकालियसुत्तकारगस्स मणगपियरस्स श्रीसुमतिसाधुरिविरचित लघुवृत्तिसहितश्रीदशवैकालिकसूत्रना अंगे सम्पादकीय - निवेदन
“सिभवं गणहरं जिणपडिमादंसणेण पडिबुद्धं । मणगपिअरं दसकालिअस्स निज्जूहगं वन्दे || " श्रीदेवगुरुप्रतापे संपादित करेल श्रीदशवैकालिकसूत्र विद्वज्जनोना करकमलमां सादर उपस्थित करतां प्रन्थ, वृत्ति अने संपादन संबंधी कईक जणावाय के.
जेम समुद्र तरवा माटे पार ऊतरवाना मार्गना जाणवापणुं अने पार उतरवाना प्रयत्ननी-गतिनी जरूर छे, तेम आ जैनशासन भवसमुद्रथी पार ऊतारवा माटे संलग्न वे मार्गनुं सहकारीपणुं स्वीकारे छे. ते बे मार्ग ज्ञान अने क्रिया. अर्थात् एकलुं ज्ञान पण नका माने छे अने एकली क्रिया पण नकामी माने छे. ज्ञानीनी निश्राए क्रिया करनारो अगर क्रियावाळो ज्ञानी एम बन्ने माने छे. पटलं ज नहि पण ज्ञान करतां किया उपर सापेक्ष रीते वधु भार मूके छे. क्रिया वगरना ज्ञाननी कंईज कीमत आंकी नथी. अर्थात् विरतिनी जरूरियात मानी छे. आधी ज गृहस्थपणामां केवली थयेलाने पण देवता वेष अंगीकार कर्या पछी वंदन करे छे. आ
॥ १० ॥
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
कारणथी लिंगनी महत्ता नक्की थाथ छे.
परंतु विरतिने मेळववा, टकाववा अने यथोत्तर सफल बनाववा ज्ञाननी पण जरूर छे, केमके संयम-जयणाना पालन माटे बोधनी जरूर, ते बोध आगमोद्वारा मेळववानो अने ते मेळववा मनुष्यपणुं आदि जोइए. तेवो मनुष्य भव पण प्राप्त थया छतां आर्य क्षेत्र आदि मळवू जोहए. अने ते पण मळी गया छतां दीर्घ आयुष्य जोइए. जो ते न होय तो मळेला साधनो ने अनुकूल संयोगोमां पण ते साधी शकतो नथी. आधी दीर्घ आयुष्य पण जोइए. जो दीर्ध आयुष्य न होय तो अ॒ थाय? ते वात आ सुत्रना रचनाना प्रसंगमांथी समजवा मळे छे. एटलुंज नहि पण ते हेतुथीज आ सूत्रनी रचना करवानी जरूर पडी.
भगवान् प्रभवस्वामीए पोतानी पाटे अर्थात् शासन चलाववाने माटे योग्यने माटे उपयोग मूक्यो. कोई तेवो न मळवाथी ते उपयोग अन्ते सजगृहीमां यज्ञ करता शय्यंभव भट्ट उपर जईने ठयों. एथी 'अहो कष्टं आदि साधुद्वारा यज्ञमां बोलावायु. शय्यंभवे तलवास्वास गुरुने पूछयु. मुरुए सत्त्व तो यशस्थंभ नीचे बताव्यु. स्यां श्रीशांतिनाथजीनी प्रतिभा देखी, बोध पामी, आचार्यश्री. प्रभवस्वामी पासे दीक्षा लीधी. त्यारे रुदन करती तेमनी पत्नीने लोको पूछे छे के छे कंइ ? तेना जवाबमां 'ममा कंईक' को. तेज गर्भमा पूर्णकाले जन्मेला पुत्रने 'मनक' नामथी बोलावायो. छोकरानी रमतमा 'नबापो' शब्दथी बाप पासे गयेलो ते बाप शय्यंभवसूरिने बाहिरभूमिए मळ्यो. पछी दीक्षा आपी. तेने आ भवना संबंधथी भवसमुद्रथी पार उतारवा आयुष्य मारे उपयोग मूक्यो. त्या तो सागर ने गागरनु आंतसं जोयु: अस्प ज आयुष्य (छ महिनाने आयुष्य)! शुं करयुं भवसागर तरवा शाखसागर जोइए. त्यांवो मायुष्यनी गागर छेकर बाथी शाखासागरहुं मंथन करी गागरमा माय वेषी सागरसरणी गागर दयाकालिकोनी
॥
Jain Education in tamatione
For Private & Personel Use Only
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री.
UGH
सुमति
साधु
दशः
॥१२॥
रचना करी-मनकना हित माटे. अर्थात् हे प्रभु! भवसमुद्रथी तारनार तारां आगमो छे. ते कारणथी आनी रचना थई एम नियुक्तिमा (६०नि० गा०१५)जणाव्युं छे. मनक मुनि तेने भण्या अने छ महिने काळ पण करी गया (नि० गा० ३७१),
आंसु आव्यां. श्रमण भगवंतोए पूछ्यु-आ शुं? बधी वात जणावी (नि० गा० ३७१). अमने का होत तो वैयावच्च करत. महानुभावो ! ते तरत शी रीते ? माटे नथी कडं.
गागर आयुष्यवालाना काळ कर्या बाद, ज्यारे गागरने सागरमा मेळववा मांडी त्यारे श्रमण भगवंतोए विनति करी. आथी ते गागर रहेवा दीधी (नि. गा० ३७१). ते आ श्रीदशकालिक शासनना छेडा सुधी रहेवानुं छे. पीस्ताळीश बागममा मूळ चार गणाव्यां तेमां आनो पण एक नंबर आवे छे.'
शास्त्र-आ शास्त्रमा दश अध्ययनो छे अने तेनी उपर बे चूलिकाओ पण छे. अस्वाध्यायनो काल छोडीने भणवार्नु होवाथी अने नि० गा० १५ ना आधारे विकाले आ सूत्रनी स्थापना अने दश अध्ययनना प्रमाण उपरथी दशवकालिक-दशकालिक कहेवाय छे.
आ श्रीदशवकालिकना अंगे नीचे प्रमाणे साहित्य उपलब्ध छेदशवकालिक मूल शय्यंभवसूरि श्लोक ७०० दशवकालिक चूर्णि
श्लोक ७००० नियुक्ति भद्रबाहुस्वामी , ४४०
वृत्ति हरिभद्रसूरि
७००० १ जुओ श्रीभागमपुरुष अने मुनिराज श्रीअभयसागरजीनी रचेली श्रीआगमपुरुष रहस्यनी पुस्तिका.
१
॥१२॥
Jain Education Interne
For Private & Personel Use Only
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोक ३५०० ।
सुमतिसाधु
दशवकालिक लघुवृत्ति सुमतिसूरि
, अवचूरि शान्तदेव , अवचरि
दशवकालिक शब्दार्थवृत्ति समयसुंदर श्लोक ३०३३
नियुक्त्यवचुरि , वृत्तिदीपिका माणिक्यशेखर
दशवै.
॥१३॥
आनी उपर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि छे अने टीकाओ तो धणी छे. तेमा नियुक्ति, भाष्य अने मूळ सहितनी व्याख्यावाळी टीका भवविरहसूरिनी छे. तेनुं अने चूर्णितुं संपादन आगमोद्धारकश्रीए करेलुं छे. दशकालिक मूळ उपर नानी टीकाओ, अवचूरि अने टबाओ वगेरे तो घणाए छे.
लघुटीका-बंदनप्रतिक्रमणावचूरि 'ना उपोद्घातमा अमे ए वात जणावी छे के-अवचूरिकार महाराज मूळने मुख्य करीने व्याख्या करता होय छे. एटले मूळ उपरनी जे व्याख्या छे तेने आधारे व्याख्या होय छे. तेवी रीते आ लघुवृत्तिमां पण वृत्तिकार महाराजे पृ. २२० मा कयु छे के
"दशकालिकानुयोगात्, सूत्रव्याख्या पृथक्कृता । हरिभद्राचार्यकृतान्मोहाद्भक्त्याऽथवा मया ॥३॥
श्रीमद्बोधक शिष्येण, श्रीमत्सुमतिसूरिणा | विद्वद्भिस्तत्र नोद्वेगो, मयि कार्यों मनागपि ॥४॥" आ बे श्लोकवडे पोतानुं श्रीहरिभद्रसूरिनी वृत्तिने अनुसरवापणुं जणाव्यु छे. तेमज पृ. १ मां"जयति विजितान्यतेजाः सुरासुराधीशसेवितः श्रीमान् । विमलस्त्रासविरहित स्त्रिलोकचिन्तामणिर्वीरः ॥ १ ॥
॥१३॥
Jain Education Internal
For Private Personel Use Only
Maw.jainelibrary.org
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
- -
सुमति
-
साधु
श्री. दशबैक ॥१४॥
एम कहुं छे अने पृ. २२० मा कयुं छे के
" महत्तराया याकिन्या, धर्मपुत्रेण चिन्तिता । आचार्यहरिभद्रेण, टीकेयं शिष्यबोधिनी ॥१॥
दशवकालिके टीकां विधाय यत् पुण्यमर्जितं तेन । मात्सर्यदुःखविरहाद् गुणानुरागी भवतु लोकः॥२॥" आ त्रण गाथाओ श्रीहरिभद्रसूरि महाराजनी वृत्तिमाथी लीवेली छे एम जणाय छे, कारण के याकिनीमहत्तरामुनूए पोतानी टीकानी शरुआत करता जणावेल एक तथा पूर्ण करता जणावेला ते बे श्लोको छे. अर्थात् अवचूरिकार महाराजे श्रीमान् हरिभद्रसूरिनी वृत्तिमांथी नियुक्ति अने भाष्यनी वृत्तिने छोडीने तेमज केटलोक चर्चा करायेलो विषय छोडीने वाकीनी बधी वृत्ति ते रूपे ज लीधी देखाय छे. तेमां पाठभेदरूपे के पाठान्तररूपे कई खास विशेष देखातुं नथी. नामो-टीकाकार महाराजे ते ते पृष्ठोमा अध्ययनोनो नामो नीचे प्रमाणे जणाव्यां छे
___अध्ययनोनां नामोनाम
नाम द्रुमपुष्पिका
| १९, २१, २२, ५०,५१, जीवनिकामिका ४, १२ भामण्यपूर्विका १२, १११ क्षुल्लिकाचारकथा
५१, ८२, ९७, पिण्डेपणा
-
|१०८, १८१, १८८
"} पद्जीवनिकायिका
॥१४॥
For Private
Personel Use Only
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
नाम
साधु
श्री
दशः
॥१५॥
नाम ९७,११८ महाचारकथा
१५७, १८७ विनयसमाधिः ११८, १३७ वाक्यशुद्धि:
सभिक्षुः १३७, १५७ आचारप्रणिधिः
२०९
विविक्तचर्या विषय-मोक्ष जवाने माटे संयमनी जरूर अने संयम काया वगर रही शकतो नथी, तेथी काया टकाववा माटे आहारनी जरूर पडे ते वात जणावतां धर्ममा स्थिर रहेलानी देवता प्रशंसा करे छे एम जणावी अहिंसा, संयम ने तपरूप धर्मने जणावी, तेमाथी संयमने मुख्य राखीने व्याख्या करी छे. अने संयमने माटे कायानो निर्वाह करवा भ्रमरनी उपमा आपी. आगल चालतां साधुपणुं के, होय ते जणावी, साधुपणाना निर्वाह माटे गोचरी, भक्ष्याभक्ष्य अने हेयोपादेय वगेरेनो सामान्य आचार जणाव्यो. संयम लीधेलो छजीवनिकायने न जाणतो होय तो संयम टकी शकतुं नथी. तेथी छ जीवनिकाय जाणवी जोईए, एम जणावी कायाना निर्वाह माटे पिंड(आहार) केवा प्रकारनो लेवो ते जणाव्यु. आगळ सामान्यथी आचार जणाव्यो हतो तेथी हवे विशेषरूपे आचार जणावी, बोलवानो वहेवार केवो करवो ते जणाव्यु, आवी रीते आगल आचारमा तैयार थयेलाए आचार पालवो जोईए एम उपदेश आप्यो, आचारमा तैयार थयेलो विनयवाळो होय तेथी विनय जणावी, भिक्षुक केवा प्रकारनो होय ते जणावी · श्रीदशवकालिक 'ना दशे अध्ययनोनी पूर्णाहुति करी छे. वळी
सीदाता साधुने स्थिर करयो भने विविक्तवर्या एटले छूटो छूटो आचार जणाववारूप बे चूलाओ जणावी छे.
For Private & Personel Use Only
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु
श्रीदशवै० ॥१६॥
आ 'श्रीदशवैकालिक 'मां वश अध्ययनो छे. पांचमा अध्ययनमां बे उद्देशा अने नवमा अध्ययनमा चार उद्देशा छे. दश अध्ययनो पछी वे चूला छे. आ 'दशकालिक 'मां सूत्रो २२, गाथाओ ५१५ अने प्रक्षिप्त १ गाथा छे.
प. पू. तारक गुरुदेवश्रीनी ए इच्छा हती के-विद्वजनोने माटे तो पांडित्यभया ग्रन्थो घणा छपाया छे, तेथी मंदमतिवाळाना बोध माटे अवचूरि जेवा अन्थो छपाय तो सारं. ए हेतुए अनेक अवचूरिओनी कोपी पोते शोधीने तैयार करी हती अने बीजाओने पण सलाह आपी हती. ए भावना अनुसार दे. ला. जै. पु. फंडे ते कार्य पण शरू कयुं छे अने पू. गुणसागरजी महाराज पासे थी ते प्रेसकोपीओ मेळवी, अने एनुं संपादन करवा माटे ते संस्थाए अमोने विनंति करी ते मुजब आ ग्रन्थ अमोए संपादित कयों छे.
आ लघुपत्तिमा मूळ अने तेनी वृत्ति एम अपायुं छे. प्रस्तुत ग्रन्थमा अ. १नी त्रीजी गाथानी वृत्तिनो केटलोक भाग प्रेसकोपीमा लेखकदोषथी रही जवा पामेल जे बहुश्रुत गीतार्थपुरंदर आगमोद्धारकश्रीजीना मूळ हस्ताक्षरोमां (ब्लोक बनावीने) आपवामां आवेल छे. जे सुज्ञ पाठकजनोने आल्हाददायी निवडशे. शरूआतमा अध्ययनोनो अनुक्रम, अने विषयानुक्रम पण आपवामां आव्या छे. तेमज शुद्धिपत्रक पण अपायुं छे. वृत्ति संपूर्ण थया पछी परिशिष्टो आपवामां आवेलां छे. ते आ प्रमाणे-(१) सूत्र अने गायानो अकारादि, (२) अन्य वगेरे, (३) साक्षिग्रन्थोनां नामो, (४) साक्षिपाठोनां प्रतीको, (५) विशिष्ट नामो, (६) देखाडेलां अने भलामण करेलां उदाहरणोनां नामो, (७) व्याकरणना निर्देशो अने (८) न्यायो. एम आठ परिशिष्टो आपी ग्रन्थ पूर्ण कर्यों छे. गोल काउसमा मूकेलं अमारुं छे. चोखंडा काउंसमा मूकेलुं प्रतमा छे तेवु ने तेवु छे. ३६९ मी गाथानी बृहत् अने
Jain Education Inter!
For Private & Personel Use Only
J
oilinww.jainelibrary.org
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु
INI
दशवै.
॥१७॥
लघुवृत्तिमा व्याख्या करी नथी. पृ. ५. पर चोथा अध्ययनमा एक प्रक्षिप्त गाथा छे.
आ सूत्रना आठमा अध्ययननी १९ मी गाथानी वृत्तिमा 'उपाश्रय 'नो उल्लेख छे. तथा अ० ५ उ.१ गा. १८, २१ अने आठमा अध्ययननी २३ मी गाथानी वृत्तिमा 'धर्मलाभ ' शब्दनो उल्लेख छे.'
आ वृत्तिकारे पोतार्नु नाम पृ. २२० मा जणावतां सुबोधकना शिष्य सुमतिसूरि एबुं कर्तुं छे, पण कोई कारणसर सुमतिसाधु एवं तेमना माटे रूढ थयुं होय एम देखाय छे..
प्रन्थकार महाराज आ लघुटीका करता पोतार्नु डहापण नथी करता पण पूर्वपुरुषोना फरमावेलानु अनुकरण करे छे, एम पृ. २२०-२२१मा जणावे छे. कर्त्तानो संवत् मळतो होय तेम लागतुं नथी, परंतु बे पुष्पिकाओ पृ. २२१मां आपेली छे. तेमां एक सं. १५१६ नी अने एक सं. १६६२ नी छे. तेथी एम तो कहेवाय ज के १५१६ पहेलां आ संकलना करी छे. १५१६नी प्रत ' श्रीजैन आनंद पुस्तकालय' सुरतमा अत्यारे विद्यमान छे. ते प्रत एकली ज वृत्तिवाळी छे. तेमा मूळ नथी.
अमाकं आ संपादन कार्य प. पू. तारक देवसूरतपागच्छसमाचारीसंरक्षक आगमोद्धारक आचार्यदेव श्रीआनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजना अनन्यपट्टधर, विद्याव्यासंगी, श्रुतस्थविर, शान्तमूर्ति आचार्य माहाराज श्रीमाणिक्यसागरसूरीश्वरजीनी अमीदृष्टिना आधारे थयुं छे. अने एक वखत प्रूफ जोइ आपवानी पण उदारता करी छे.
अमे अमोने मळेली साधन-सामग्री अने अमारी बुद्धि प्रमाणे आ ग्रन्थ- संपादन कयुं छे, छतां कोई जग्याए तेवी क्षति 1. कहारयणकोसमा देवरव्यना अधिकारमा ये माईनी कथामां पृ. १०५ना पांचमी पंक्तिमा पण 'धम्मलाम' शब्द छे.
Jain Education Inter
For Private & Personel Use Only
'
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु श्री
रहेवा पामी होय तो ते विद्वजनो सुधारशे अने अमने जणावशे एम इच्छीए छीए.
वा अन्य संयमीओ संयमना मार्गमा आराधना माटे उपयोगी करशे. एज अभ्यर्थना.
दशवै०
वीर सं. २४८० वि. सं. २०१०
ज्येष्ठ शुक्लाष्टमी हिंगनघाट (मध्यप्रदेश)
आगमोद्धारक उपसंपदाप्राप्त शिष्याणु कञ्चनविजय
तथा आगमोद्धारक प्रप्रशिष्यपादारविन्दम्रमर क्षेमकरसागर
॥१८॥
For Private & Personel Use Only
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु०
श्री
दशवै०
॥ १९ ॥
Jain Education Intera
श्रीसुमतिसाधुसूत्रितवृत्त्युपेतं श्रीदशवैकालिकसूत्रम्
अध्ययनानि १०, चूलिके २, उद्देशकाः ६, सूत्राणि २१, गाथाः ५१५, प्रक्षिप्तगाथा १, पृष्ठानि २४४ ।
अध्ययनानुक्रमः
अध्ययनम् उद्देशक:
०
२
8
०
०
०
१
२
o
नाम
दुमपुफिया (द्रुमपुष्पिका ) समणपुब्विया ( श्रामण्यपूर्विका ) खुड़ियायारकहा (क्षुल्लकाचारकथा ) छज्जीवणिया ( षड्जीवनिकायिका )
पिण्डेसना ( पिण्डेषणा )
99
धम्मत्थकामध्झयणं ( महाचारकथा )
गाथा
१-५=५
६-१६=११ १७-३१=१५
३२- ५९=२८ प्र. १ ६०-१५९= १०० १६०-२०९=५० २१०-२७७=६८
सूत्रम्
०
०
०
१-१५
आपृष्ठम्
४
११
१८
५१
८२
९६
११७
अध्ययना
नुक्रमः
॥ १९ ॥
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्ययनम् उद्देशक
सूत्रम्
आपृष्ठम्
मुमतिसाधु बी
नाम सवकसुद्धी (वाक्यधुद्धिः) आयारपणिही (आचारप्रणिधिः) विनयसमाही ( विनयसमाधिः)
अध्ययनानुक्रमः
दशव०
१६५
॥२०॥
गाथा. २७८-३३४-५७. ३३५-३९८६४ ३९९-४१५%D१७, ४१६-१३८%D२३ ४३९-४५३%१५ ४५४-४६१५ ४६१-४८१=२१ १८२-४९९%१८ ५००-५१५-१६
१८०
. . 0000
१६-२०
१०० चला.१
१८७ १९६
समिक्ख ( समिक्षा) रइवका ( रविवाक्या) विविचचरिया (विविक्तचर्या).
२०९ २२०
२०.
Jain Education inte
!
For Private & Personel Use Only
I
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुमतिसाधु
विषयाकु
दश्व०
५., ५-८.
गाथाङ्क: विषयः
अ०.१ द्रुमपुष्पिका, मजलं, शास्त्रोफ्नमश्च १ धर्मस्वरूपम्।
२ मधुकरोपमा ३-४ मधुकरोपनयः
५ साधुतानिर्देशः
५-२
श्रीदशवैकालिकलधुवृत्तेविषयानुक्रमः पृष्ठं पंक्तिः | गाथाङ्क: विषयः
पृष्ठं, पंक्तिः | ७, अल्यागिनिर्वचनम् ८ त्यागिनिर्वचनम्
५.१०-१२ ९ मनस्संयमाभ्यन्तरोपायः २१०-११ वणिक्कथा
६११-१४
। ७ १-११ ३ १-८
१० मनस्संयमबाझोपाय
अगवान नागदृष्टाम्तेन मनोनिग्रहोपदेशः ८ ९-१४
रथनेमिकथोपक्रम ११ १२-१५ रथनेमि प्रति राजीमयः हिवशिक्षा । ९. ७-१४.
1१०, १-१३ १-१३] १६ भोगविनिवृत्तिनिर्देश
११ ३-९ १. नियतानियतश्रुतविभागः
अ०२ श्रामण्यपूर्विका द्वितीयाश्ययनोपक्रम
संकल्मसंयमन्महात्यम्: ६ मममणव्याख्या
Jain Education Interial
For Private & Personel Use Only
T
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुमति
साधु
श्री
गाथाङ्कः विषयः
अ० ३ क्षुल्लकाचारकथा
तृतीयाध्ययनोपक्रमः १७ । संयमिनामनाचरितकथनोपक्रमः १८-२५ अनाचरितत्रिपश्चाशतीनामोल्लेखः
दशः
२२॥
२६ साधूनामनाचरितपरिहारोपदेशः २७ साधुस्वरूपम्
ބު ބުބުބް
पंक्तिः | गाथाङ्कः विषयः
पृष्ठं पंक्तिःविषयानु'सुयं मे०' पदव्याख्या (२०१०-१२
क्रमः
१२१ १-४ १२ ६-१२
एकान्तक्षणिकवादापोहः २१ ४-६ गुणवच्छिष्यप्रशंसा धर्मदेशकाईतानिर्वचनम् . २१ ९-११
गणधरास्मागमसिद्धिः, अनादिसिद्धमत. १२-१३ निरासश्च
२१ १२-१४ गुरुकुलवासमहत्त्वा
२२ १-२ ९-१२ विनयप्रशंसा
२२ ३-५ | सू० १ षड्जीवनिकायकथनोपक्रमः (२२ ६-१४
२३ १-५ षड्जीवनिकायस्वरूपं तभेदप्रभेदाच २३ ६ तः
१२७ १२ पर्यन्तम् ॥२२॥
२८ साधुचर्या
२९ साधूनां ध्येयम् ३०-३१ बाचारपरिपालनफलम्
अ० ४ षड्जीवनिकायिका चतुर्थाध्ययनोपक्रमः
Educantem
For Private
Personal Use Only
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाघु०
पृष्ठ
गाथाङ्कः विषयः
जीवनिकायशस्त्रनिर्वचनम् सू० २ षड्जीवनिकायवधविरतिस्वरूपम्
श्री
दशव०
॥२३॥
सू०
३ प्रथममहाव्रतस्वरूपम्
س
सू० ४ द्वितीयमहाव्रतस्वरूपम् सू० ५ तृतीयमहाव्रतस्वरूपम् सू० ६ चतुर्थमहाव्रतस्वरूपम् सू० ७ पञ्चममहाव्रतस्वरूपम् सू०८-९ षष्ठव्रतस्वरूपम्
महाव्रतवर्णनोपसंहार: सू०१० पृथ्वीकाययतना
पृष्ठं पंक्तिः | गाथाङ्कः विषयः
पृष्ठं पंक्तिःविषयानु१२४ १०-१४ | सू० ११ अप्काययतना
३८ २-१२ क्रमः १२५ १-३ सू०१२ तेजस्काययतना
३९ ७-१२ २८ १-१४ १२९ १-४ | सू० १३ वायुकाययतना
९-१२ २९ ११-१३
सू०१४ वनस्पतिकाययतना | सू०१५ त्रसकाययतना
२-९ ३२ ३-७ ३३ २-४ ३२-४० अयतनापरिहारोपदेशः
1४५ १-८ ३४ १०-१३
४१-४४ संयमस्य ज्ञानमूलकत्वोपदेशः ३५ १-६४६-५६ जीवाजीवपरिज्ञानस्य यथोचरं यावत्
मोक्षाच्यफळप्रापकत्वनिर्देशः ४८ १-१४ 1३७ १-२ |
(४९१-७ ॥२३॥
سه
Jain Education Inteman
For Private & Personel Use Only
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुमति
विषयानु क्रमः
साधु
श्री
५-१३
दशः
॥२४॥
गाथाङ्कः विषयः पृष्ठं पतिः | गाथाङ्का विषयः
पृष्ठं पंचिः ५७-५९ श्रामण्यफलप्रास्यप्राप्तिहेतुवर्णनं उप
२१७-२१९ प्रथमस्थानहिंसास्वरूपम् १०० १-१०. संहारश्च
२२.०-२२१ द्वितीयस्थानमृषावादस्वरूपम् १०१ १-८ अ०५पिण्डैषणा, उ०१-२
२२२-२२३ तृतीयस्थानादचादाचस्वरूपम् १०१ १-८ अध्ययनोपक्रमः
५१ ९
२२४-२२५ चतुर्थस्थानाब्रह्मस्वरूपम् ६०-६१ गोचरचर्याविधेसपक्रमः (५१ १२-१३ | २२६-२३० पंचमस्थानपरिग्रहस्वरूपम् (१०३ ३-१४
११०१ १-८ ६२-२०९ समप्रेऽध्ययने गोचरचर्याविधिः
२३१-२३४ षष्ठस्थानरात्रिभोजनस्वरूपम् (१०१ १३ अ०६ महाचारकथा षष्ठाध्ययनोपक्रमः
२३५-२४० पृथ्वीकायापकायारम्भवर्णनम् १०६ ६-१३ २१०-२१४ साध्वाचारकथनोपक्रमः
(९७ ९-१३ | २४१-२४४ तेजस्कायारम्भवर्णनम् 1९८
१०७ ५-१३ १-११ साध्वाचारस्वरूपे स्थामाष्टादशक-(९८१४ २४५-२४८ वायुकायारम्भवर्णनम्
१०८ ५-१२ स्वरूपम्
1९९ १-११ | २४९-२५४ वनस्पतिकायारम्भवर्णनम् १०९ ६-१३
॥२४॥
Jain Education Intemalla
For Private & Personel Use Only
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु०
श्री
दशवै०
॥ २५ ॥
गाथाङ्कः
विषयः
२५५-२५८] अकल्पस्वरूपम्
२५९-२६० गृहिभाजनत्यागोपदेशः
२६२-२६४ पर्यत्यागोपदेशः
२६५-२६८ गृहिगृहनिषद्यात्या गोपदेशः
२६९ - २७२ स्नानवर्जनोपदेश:
पृष्ठं
११० ५-१३
१११ १-४
पंतिः | गाथाङ्कः
११-१- ८-१३ १११२ १-३ (११२ ७-१३ ११३
१
११३ ८-१३ ११४ १-५
(११४ १०-१३ (११५. १ -०.
११५ ११-१३ १-८
१- १.१
२७३ - २७५ शरीरविभूषात्या गोपदेशः
। ११६.
२७६-२७७ आचारपरिपालना फलवर्णनम् ११७
विषय:
अ० ७ वाक्यशुद्धिः सप्तमाध्ययनोपक्रमः
२८२-२८४ मृषाभाषास्वरूपम् २८५-२८७ वर्ज्यभाषास्वरूपम् २८८ - २९७ वाग्विधिनिषेधौ
२९८-३०२ हेयोपादेयवचनानि
२७८-२८१ भाषाभेदाः, हेयोपादेयविभागः ११८
S
१११९
१२०
१२१ ३-७ १२२ ६-१३ [ १२३
१-१४
३०३ - ३१२ वचनप्रकारा:
पृष्ठं : पंति:
१३६
११८ १-४
९-१३
१-११
२-१२
(१२४ ६-१३ ११२५ १-१०
(१२६ ८-१२ १२७ १-१४ ( १२८
१-१२
विषयामु
क्रमः
।। २५।।
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साघु०
श्री
दश०
॥ २६ ॥
Jain Education Internat
गाथाङ्कः
विषयः
३१३ - ३१४ भाषाप्रकाराः
३१५ - ३१७ सावद्यभाषा
३१८-३१९ वचनविधिः
३२० - ३२३ सावधानवयभाषाविचारः
३२४-३२६ वचनप्रकारः
३२७-३३१ अवधारण्यादिरूपाया भाषापद्धतेः स्वरूपम्
३३२-३३४ भाषाविवेकः उपसंहारश्च
पंति' | गाथाङ्क'
पृष्ठं
१२९ १-७
१२९११-१३ ११३० १-७ ३३५
१३० ११-१३
. १३१
8-6
१३
१३१ ११३२ १-१३ १३३ ३-८
१३४ ४-१३ ११३५ १-३
१३५११-१२ १३६
१-९
विषयः
अ० ८ आचारप्रणिधिः अष्टमाध्ययनोपक्रमः आचारप्रणिधिकथनप्रतिज्ञा
३३६-३४६ षट्काययतना
३४७ - ३५० सूक्ष्माष्टकयतना
३५१-३६२ विविधाचारमर्यादा
३६३ - ३७४ महत्त्वोपदेशः
३७५-३८४ गुर्वादिविनयस्य भाषायाः श्रुताभ्यासविषेश्चोपदेशः
पृष्ठ पंक्ति:
१५७ ९
१३७
१-४
१३७
( १३८
१४०
(१४१
[ १४२
१४३
। १४५
१४७
। १४९
(१५० १५२
६-८
१-८ त
१-१०
२-१४
१-२
४ तः
१-१२
१ त १-३
३ त
१-२
विषयानु
क्रमः
॥ २६ ॥
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
विषयानु
क्रमः
साधु श्री
दशः
॥२७॥
गाथाः विषयः पृष्ठं पंक्तिः | गाथाङ्कः विषयः
पृष्ठं पंक्तिः ३८५-३९४ अकरणीयनिषेधः, ब्रह्मचर्य
अ०९,उ०२ १७३ रक्षोपदेशः, विषयतृष्णावारणम् १५५ १-३
४१६-११७ विनयमहिमा
(१६५ १३ ३९५-३९८ निष्क्रमणश्रद्धारक्षोपदेशः, (१५५ १२ तः
1१६६ १-७ आचारफलकथनम् ११५७१
४१८-४१९ अविनीतदोषाः अ०९ विनयसमाधिः, उ०१ १६५
1१६७१-४ नवमाध्ययनोपक्रमः १५७ ३-६ | ४२०-४२१ विनीताविनीवदृष्टान्तः १६७ -१३ ३९९ विनयभावस्य दुरन्तता
(१५७ ९-१३ / १२२-४२४ दृष्टान्तोपनयेन विनीता1१५८ १-४
विनीतशिष्ययोः लाभहानि| ४००-४०८ गुर्वाशातनाया विविधोपमा- १५९ ११वः
प्रदर्शनम्
१६८ ४-११ भिर्विरसतानिरूपणम् . १६२ १-४ | १२५-४२६ देवोपमया विनयाविनयफलम् १६९ २-७ ४०९-११५ गुरुविनयोपदेशः
(१६३ ८तः ४२७-१३१ लौकिकविनयनिदर्शनेन लोको-1१७० १-१४ ११६५ --
चरविनयफलस्वरूपम् 1१७१ १
॥२७॥
For Private & Personel Use Only
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साघु०
श्री
दशवै०
॥ २८ ॥
Jain Education Intern
गाथाङ्कः
विषयः
४३२-४३५ विनयप्रकारः
४३६-४३८ विनीताविनीतयोः फलमुपसंहारध
अ० ९ उ० ३
४३९-४४५ आचार्यविनयस्य महिमा, सुभगाचारविधिश्च
४४६-४५३ सुभगाचारमर्यादा
अ० ९ उ० ४
सू. १६, स्वमाधिस्थानकथनोपक्रमः, गा. ४५४ समाधिस्थानभेदाच
पृष्ठं
(१७१
११७२
१७३
१८०
१७५
१७७
१७८
(१८०
१८७
| १८१ ११८२
पंक्तिः | गाथाङ्कः
६-१३ सू. १७५ सा. ४५५
१-८
२-१२
३ १-२
८ तः
१-९
४-१३
१
विषयः विनयसमाधिभेदाः
सू. १८, } श्रुतसमाधिभेदाः गा. ४५६८
सू. १९, तपः समाधिभेदाः
गा. ४५७/
ך
सू. २०, | आचार समाधिभेदा: मा. ४५८- अध्ययनोपसंहारश्च
४६०
अ० १०, समिक्षुः दशमाध्ययनोपक्रमः
४६१-४८१ समग्रेऽध्ययने संयममादा
वर्णनम्
पृष्ठं पंक्ति:
१८२ १८३ १८३ १८४ १
५-१३ १-२ ७- १३
१८४ १८५
also
६-१३ १
१८६ १-१४
१९६
१८७
२-४
(१८७
विषयालु
क्रमः
॥ २५ ॥
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु
भी
दशवै.
१-११
॥२९॥
गाथाङ्क: विषयः पृष्ठं पंक्तिः | माथाङ्कः विषयः
पृष्ठं पंक्तिःविषयानुप्रथमचूला, रतिवाक्या २०९ ५१०-५०३. अनुश्रोतःप्रति श्रोतसो. २१० ९तः क्रमः प्रथमचूलिकोपक्रमः १९६ ११-१२
ईयोपादेयता.
२१२ सू. २१
संयमशिथिलमनसः रोधाय (१९७ ११तः ५९४-५०८ साध्वाचारमर्यादा स्थानाष्टादशकस्वरूपम् १२०२ १-८
१२१५ ४८२-४८९ स्थानाष्टादशकविवेचनम्, (२०३ १-१३
५०९-५१५ कामासञ्जमसूत्रानुगामितानुभ्रष्टशीलताफलनिर्देशः २०४ १-१०
प्रेक्षाऽऽचारपरिपालनफलादि-(२१७ ४९०-४९५ स्थानाष्टादशकविवेचन, २०५ ८तः
निर्देशः संयमरत्यरत्योः स्वरूपं फलब २०७१-८
हारिभद्रीयवृत्तिप्रशस्तिः २२० ५-६ | ४९६-१९९ स्थानाष्टादशकवर्णनं, २०८ ६-१२
लघुटीकाप्रशस्ति: मनःस्थिरीकरणोपायः १२०९१-९
प्रत्यन्वरप्रशस्तिः द्वितीयचूला-विविक्तचर्या २२०
(२२२१-४ द्वितीयचूलिकोपक्रमः २०९ ११-१२
॥२९॥
Jain Education Interna
For Private & Personel Use Only
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुमति
शुद्धिपत्रकम्
साधु
श्री.
रसव
॥३०॥
शुद्धिपत्रकम् पृष्ठाङ्कः पछिः अशुद्धिः शुद्धिः
| पृष्ठाङ्कः पतिः अशुद्धिः १२ श्रुत शुभ०
८. १० सिद्धगति 171 २० १ ०मक्स्वाया
०मक्खाया
४ दृष्टोऽसो .८ एतदेवो पन्यस्यति एतदेवोपन्यस्यति | ९९ ३ श्रणुत। १० प्रतिप्रति
प्रतिपनि
१०७ ९ षटी ___८ ०मीत्ये ०मीत्येतद्
१२३ ७ गौत्रेण २ सेऽभिखू से भिक्खू
१४० १२ ०कखणो ४ पूर्ववत् ॥ व्याख्यातं पूर्ववत् ॥
१५१ ४ दोप्रसङ्गा. ६ अधुना
व्याख्यातं षड्जीवनिकाया- १६१ ९ वा भुजङ्गो
ध्ययनम् । अधुना १७१ १ ०वर्त्तयत् ६० ८ ० इति
०प्तचित्त इति
१७२ १२ वित्ती ६१ ९ चलइत्ता
चालइत्ता
१७३ १२ सिद्धा. ६२ ८ वशिष्टो
वशिष्ठो०
१७६ ११ पुनवा ६ .स्सुज्जोगरे स्स उज्जोअगरे १९३ १० ततः
शुद्धिः सिद्धिगति दृष्टोऽसौ शृणुत
थें षष्ठी गोत्रण विभक्खणो दोषप्रसङ्गा० वा-भुजङ्गो वर्तयेत् ०वची सिद्ध्या तु वाक्
सवे
Tal॥३०॥
Jain Education Intemall
For Private & Personel Use Only
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु दशवै. अ०१
॥ अहम् ॥ श्रेष्ठि देवचन्द्रलालमाई-जैन-पुस्तकोद्धार-ग्रन्थाके
भगवच्छय्यंभवश्रुतकेवलिनियूढं श्रीमत्सुमतिसाघुसूरिणा भवविरहाङ्कितबृहट्टीकोद्धृतवृत्त्युपेतं
• अस्य शाखस्य प्रणेता
श्रीदशवेकालिकम्।
ऐं नमः ।। जयति विजितान्यतेजाः सुरासुराधीशसेवितः श्रीमान् । विमलखासविरहितखिलोकचिंतामणिवीरः ॥१॥ इहार्थतस्त( तोह )त्प्रणीतस्य सूत्रतो गणधरोपनिबद्धपूर्वगतोद्धतस्य शारीरमानसातिकटुकदुःखसन्तानविनाशहेतोः दश. वैकालिकाभिधानस्य शास्त्रस्यातिसूक्ष्ममहार्थगोचरस्य व्याख्या प्रस्तूयते, तत्र प्रस्तुतार्थप्रतिपादनार्थमेव धर्मस्य नमस्कार. द्वारेणाशेषविघ्नविनायकोपशांतये भगवान् शय्यंभवाचार्यों मावमंगलमाहधम्मो मंगलमुक्किएं, अहिंसा संजमो तवो। देवावि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥१॥ जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं । न य पुप्फ किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ॥ २॥
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मस्य स्वरूपादि
श्री
TH एमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो। विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणे रया ॥ ३ ॥ सुमति
वयं च वित्तिं लब्भामो, न य कोइ उवहम्मइ । अहागडेसु रीयंते, पुप्फेसु भमरा जहा ॥४॥ साधु दशवै० N महुगारसमा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया । नाणापिंडरया दंता, तेण वुच्चंति साहुणो॥ ५॥ अ०१
त्ति बेमि । पढमं दुमपुफियज्झयणं समत्तं ॥१॥ 'धम्मोमंगल'मित्यादि,मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलं, 'उत्कृष्टं प्रधानं, न हिंसा अहिंसा-प्राणातिपातविरतिरित्यर्थः, दुर्गतिप्रसृतान् जीवान् धारयतीति धर्मः, स मङ्गलं, 'संयम:' आश्रबद्वारोपरमः, तापयत्यनेकभवोपात्तमष्टप्रकार कम्मति 'तपः अनशनादि, 'देवावि तं नमसंति'ति (देवा अपि तं नमस्यन्ति ) यस्य किं ?-धर्मे 'सदा सर्वकालं 'मन' अन्तःकरणमिति ॥ १॥'जहा दुमस्से ति 'यथा'-येन प्रकारेण द्रमस्य पुष्पेषु भ्रमर:-चतुरिन्द्रियः, किं ?-आपिबति, कं, रसं मकरंदमिति 'न च' नैव पुष्पं 'क्लामयति' पीडयति, 'सच' भ्रमरः 'प्रीणाति तर्पयत्यात्मानमिति ॥२॥ 'एमए' इत्यादि, 'एवं' अनेनैव प्रकारेण एते ये परिभ्रमन्तो दृश्यन्ते, श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः, ते च तापसादयो भवंत्यत आह-'मुक्ताः '
Jain Education Intern
For Private
Personal Use Only
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
सुमतिसाधु० दशव० अ०१
सामान्यनारेण प्रमेय साधूनानये लोकमरतीय सन्द्रिपरिमाण सति-नियले माधया नीति लायनः किं साभयान जाना माहार
माहारदानाति गमते, विसंगमा ३६ अमरान पुण्मेषु दाanimaany मा दानहगाने राजानना
ग्रहण
विधि: भक्तग्रहणात तदपि पारक,नाधाकमादि, राषUTIJहन गवेषणादित्रयपशिः तेषु स्थाने पता:-मन्नाकाचदा
दाणभत्तेसणे रया' इत्युक्तं, यत एव चैवमत एवं लोको भत्याकष्टमानसस्तेभ्यः प्रयच्छत्याधाकर्मादि, तस्य ग्रहणे सच्चोपरोधः, अग्रहणे च स्ववृत्त्यलाम इति, अत्रोच्यते-'वयं च वित्ति'मिति वयं च वृत्ति 'लप्स्याम:'-प्राप्स्यामस्तथा यथा न कश्चिदुपहन्यते, तथाहि-एते साधवः सर्वकालमेव 'यथाकृतेषु' आत्मार्थमभिनिर्वर्तितेषु आहारादिषु 'रीयंते' गच्छन्ति-वर्तन्ते इति, 'पुष्पेषु भ्रमरा यथा' इति ॥ ४ ॥ यतश्चैवमतो-'मधुकरसमा' इति मधुकरसमा-भ्रमरतुल्याः , | बुध्यन्ते स्म 'बुद्धा'-अवगततत्वाः, एवंभूता 'ये भवन्ति भ्रमन्ति वा 'अनिश्रिताः' कुलादिष्वप्रतिबद्धा इत्यर्थः, ___ आगमोद्धारकहस्ताक्षराणां प्रतीकम-सबाह्याभ्यन्तरेण अन्धेन ये लोके-अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाणे सन्ति-विद्यन्ते, साधयन्तीति साघवः, किं साथयन्ति ?-ज्ञानादीनीति गभ्यते, विहंगमा इत्र-भमरा इव पुष्पेषु, दानभक्तैषणासु रताः, दानग्रहणाद् दतं गृहन्ति, नादत्तं, भक्तग्रहणात् तदपि प्रासुकं, नाधाकर्मादि, एषणाग्रहणेन गवेषणादित्रयपरिप्रहः, तेषु स्थानेषु रता:-सकाः इति ॥ ३॥ कश्चिदाह
॥ ३ ॥
For Private & Personel Use Only
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
धामण्या
श्रीसुमतिसाधु दशवै० अ०२
भावकारणम्
'नानापिंडरता' नाना-अनेकप्रकाराभिग्रहविशेषात् प्रतिगृहमल्पाल्पग्रहणाच पिण्ड:-आहारादिपिण्डः, नाना चासो पिण्डश्च अन्तप्रान्तादिर्वा तस्मिन् रताः-अनुद्वेगवन्तः, 'दांता' इन्द्रियदमेन दान्ता इति पदेऽसौ वाक्यशेषो द्रष्टव्यः, ईर्यादिसमिताच, ततश्चार्थोऽयं यथा भ्रमरोपमया एषणासमिती यतन्ते, तथा ईर्यादिष्वपि त्रसस्थावरभूतहितं यतन्ते, साभाविकं-पारमार्थिक, ते च साधव इति, पाठान्तरं वा, 'तेनोच्यन्ते साधव' इति येन कारणेन मधुकरसमाना उक्तन्यायेनभमरतुल्याः ॥५॥ इतिः परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति न स्वमनीषिकया, किन्तु तीर्थकरगणधरोपदेशेनेति ।।
द्रुमपुष्पिकाध्ययनं समाप्तम् १॥
-> )- व्याख्यातं द्रमपुष्पिकाध्ययनम् , अधुना श्रामण्यपूर्विकाख्यमारम्यते, अस्यैवममिसम्बन्धः इहानन्तराध्ययने धर्मप्रशंसोक्ता, सा चेहैव जिनशासन इति, इह तु तदभ्युपगमे सति मा भूदभिनवप्रवजितस्याधृतेः संमोह इत्यतो धृतिमता भवितव्यमित्येतदुच्यते, अनेन सम्बन्धेनायातमिदमत्राध्ययनम्कहन्नु कुजा सामन्नं, जो कामे न निवारए। पए पए विसीयंतो, संकप्पस्स वसं गओ ॥६॥ _ 'कहण्णु' इति कथं नु कुर्यात् श्रामण्यं-श्रमणभावं यः कामान् न निवारयति, 'कथं' केन प्रकारेण, नुः क्षेपे, यथा कथं नु स राजा ? यो न रक्षति प्रजां, कथं नु स वैयाकरणो योऽपशब्दं प्रयुक्त, एवं कथं नु कुर्यात् श्रामण्य-श्रमण| भावं यः कामान् न निवारयति', कारणमाह-'पदे पदे विषीदन् सङ्कल्पस्य वशङ्गतः कामानिवारणेन्द्रियाद्यपराध
Jain Education Inter
For Private Personal Use Only
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
त्यागिस्वरूपम्
सुमति
साधु दशव० अ०२
पदापेक्षया पदे पदे विषीदनात् सङ्कल्पस्य वशं गतत्वाद् , अप्रशस्ताध्यवसाय: सङ्घल्प इति सूत्रसमासार्थ इति ॥६॥ न केवलमयमधिकृतस्त्रोक्त एव श्रामण्याकरणाद् अश्रमणः, किन्त्वाजीविकादिभयप्रवजितः सक्लिष्टचित्तो द्रव्यक्रियां कुर्वन्नप्यश्रमण एव-अयोग्य एव, कथं ?, यत आह सूत्रकारःवस्थगंधमलंकार, इत्थीओ सयणाणि य । अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइत्ति वुच्चइ ॥ ७॥ ____ 'वत्थगंधमलंकारं' इति वस्खगन्धमलङ्काराणि, तत्र वस्त्राणि-चीनांशुकादीनि, गन्धाः-कोष्ठपुटादयः, अलङ्काराःकटकादयः, अनुस्वारोऽलाक्षणिकः, स्त्रियोऽनेकप्रकाराः, शयनानि-पर्यादीनि, चशब्दादासनादिपरिग्रहः, एतानि वस्त्रादीनि किं ? अच्छन्दा:-अस्ववशा ये केचन 'न भुञ्जते' न सेवन्त, किंबहुवचनोद्देशेऽप्येकवचननिर्देशः १, विचित्रत्वात् सूत्रगते. विपर्ययश्च भवत्येवेतिकृत्वा आह-नासो त्यागीत्युच्यते, सुबन्धुवत् (दश० चू० पृ० ८१ ) नासौ श्रमण इति ॥ ७॥ यथा चोच्यते तथाऽभिधातुकाम आहजे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठिकुव्वइ । साहीणे चयई भोए, से हु चाइत्ति वुच्चई ॥ ८॥
जे य कंते पिए' इति-य एव कान्तान्-कमनीयान् शोभनानित्यर्थः, प्रियान्-इष्टान् , भोगान्-शब्दादिविषयान् , लब्धान्-प्राप्तान , उपनतानितियावत् , 'विपिढिकुम्बईत्ति विविधं-अनेक प्रकारैः श्रुतभावनादिभिः पृष्ठतः करोति, परित्यजतीत्यर्थः, स च न बन्धेन बद्धः प्रोषितो वा, किन्तु स्वाधीन-अपरायत्तः, स्वाधीनानेव परित्यजति भोगान् पुनस्त्याग
For Private Personal use only
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री.
सुमति
मनोनिग्रहविधिः
साधु
दशवै० अ०२
ग्रहणं प्रतिसमयं त्यागपरिणामवृद्धिसंसूचनार्थ, भोगग्रहणं तु सम्पूर्ण भोगग्रहणाथं त्यक्तोपनतभोगसंसूचनार्थ वा, ततश्च ईदृशः, हुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् स एव त्यागीत्युच्यते, भरतादिवद्, इति ॥८॥
समाइ पेहाइ परिवयंतो, सिया मणो निस्सरई बहिद्धा ।।
न सा महं नो वि अहंपि तीसे, इच्चेव ताओ विणइज रागं ॥ ९ ॥ 'समाइ पेहाइ' इति, तस्यैवं त्यागिनः सम-आत्मपरतुल्यतया प्रेक्षते अनयेति प्रेक्षा-दृष्टिस्तया प्रेक्षया-दृष्ट्या परि-समन्तात् व्रजतो-गुरूपदेशादिना संयमयोगेषु वर्तमानस्येत्यर्थः, स्यात्-कदाचिदचिन्त्यत्वात् कर्मगतेर्मनो निःसरति बहिर्धा भुक्तभोगिनः पूर्वक्रीडितस्मरणादिना अभुक्तभोगिनश्च कुतूहलादिना मन:-अन्तःकरणं निस्सरति-निगच्छति बहिर्धा-संयमयोगादहिरित्यर्थः, तदा प्रशस्ताध्यवसायेनासौ अशुभसङ्कल्पः परिस्थगनीयः, केनालम्बनेनेति ? यस्यां रागः सम्पन्नस्तां प्रति चिन्तनीयं 'न सा मम, नाप्यहं तस्याः' पृथकर्मफलभुजो हि प्राणिन इति, एवं ततस्तस्याः सकाशाद् व्यपनयेत राग, तत्वदर्शिनो हि स निवर्तत एवेति ॥ अत्रोदाहरणं (१०१)
यथैको वणिकपुत्रः सञ्जातपरमवैराग्यो विचिन्त्य संसारासारतां नवे वयसि वर्तमानो विहाय यौवनश्रिया समलतां स्त्रियं प्रव्रज्यामग्रहीत् । स च कैश्विद्वासरैः समतिक्रान्तः विधिना विहितसूत्रप्रणिधान इदं सूत्रमुद्घोषयामास-"न सा महं नोऽवि अहंपि तीसे" तेन च पठता समचिन्ति-यथा सा मम अहमपि तस्याः, यतोऽसावत्यन्तं ममानुरक्ता, ततः कथमहं तां प्राणात्ययेऽपि परित्यजामीति सम्प्रचार्य चेतसि गुरूणां किंवदतीमात्मीयामनिवेद्य गृहीतपात्राद्युपकरण एच गतस्तं ग्राम
ला॥६॥
For Private & Personel Use Only
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
सुमति
साधु० दशव ०
अ० २
॥ ७ ॥
Jain Education Intern
यत्रासावास्ते, प्राप्तस्य तं ग्रामं जलानयनाय बहिर्ग्रामवाप्यामत्रान्तरे तस्यासौ प्रियतमा समायाता, त्रिलोकितोऽसौ तया, तत्र दृष्टमात्रः प्रत्यभिज्ञातः, न च तेन सा प्रत्यभिज्ञाता, कृते च वन्दने परिपृष्टाऽसौ यथा-भद्रे ! जानासि त्वममुकस्य वणिजः सुतां सा च तस्मिन् प्रव्रजिते समाकर्णितधर्मा सज्जातपरमवैराग्या संयोगानां दुःखबहुलतां परिकल्पयन्ती प्रव्रजितुकामा परिचिन्तितवती - यादृशान्यस्य चिह्नानि समवलोक्यन्ते तादृशो विषयोन्मुखमस्य चेतः समभिलक्ष्यते, ततश्च विषयासक्तयोरावयोरवश्यं भविष्यति दुर्गतिपातः, तदयमात्मा च ततो मया परिरक्षणीय इति सम्प्रधार्य तं प्रति जगाद -मो साधो ! सा मातापितृभिरन्यस्मै दत्ता, तत् श्रुत्वाऽसौ समचिन्तयत्, यथा-सत्यमहं भगवद्भिः साधुभिः पाठितो- "न सा महं नोऽवि अपि तीसे, " इति परिभावयन् परमसंवेगं गतः, तां जगाद - भद्रे ! तस्याः कारणेन जन्मान्तरकोटिभिरपि दुरापं भगवता - माचार्याणां पादपद्मं विहाय विषयाभिलाषी समागतोऽहं तत्पार्श्वे, दुष्टं चेष्टितमत इतः स्थानादेव ब्रजाम्यहं गुरूणामन्तिके, ततः सा तं प्रत्यवादीत्-मुने ! शोभनमुक्तवानसि यतः असारा विषयाभिलाषाः, करिकलभ श्रवणमित्र चश्चलमायुः, प्रतिक्षणध्वंसी देहः, अकृतधर्माणां ध्रुवो नरकपात इत्यादि तमनुशिष्य, कथयित्वा चात्मानं सञ्जातवैराग्यं तं प्रेषयामास गुरूणामन्तिके, स्थिरीभूतच कृतवान् प्रव्रज्यां, एवमात्मा सन्धारणीयो यथा तेनेति ॥ ९ ॥ एवं तावदान्तरो मनोनिग्रहविधिरुक्तो, न चायं बाह्यमन्तरेण कर्तुं शक्यते, अतस्तद्विधानार्थमाह
आयवयाहि चय सोगमलं, कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । छिंदाहि दोसं विणएज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ॥ १० ॥
मनोनिग्रहविधिः
॥ ७ ॥
|
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री. सुमति
अगन्धना नागा:
साधु दशवै. अ०२
'आयावयाही ति संयमगेहान्मनसोऽनिर्गमार्थमातापय-आतापनां कुरु, एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणमिति न्यायात यथानुरूपमूनोदरतादेरपि विधिः, अनेनात्मसमुत्थदोषपरिहारमाह-तथा त्यज सौकुमार्य-परित्यज सुकुमारत्वं, अनेन तूमयसमुत्थदोपपरिहारमाह, तथाहि-सौकुमार्यात् कामेच्छा प्रवर्तते योषितां च प्रार्थनीयो भवति, एवमुभयासेवनेन कामान् क्रम-उलंघय, यतस्तैः क्रान्तैः क्रान्तमेव दुःखं भवतीति शेषः, खुशब्दोऽवधारणे, कामनिवन्धनत्वाद् दुःखस्य, अधुना अनन्तरं कामक्रमणविधिमाह-छिद्धि द्वेष-व्यपनय रागं सम्यगज्ञानवलेन विपाकालोचनादिना, एवं कृते फलमाह-एवंअनेन प्रकारेण वर्तमानः किं-'सुखमस्यास्तीति सुखी भविष्यसि, क, संपराये-संसारे यावदपवर्ग न प्राप्स्यसि तावत् सुखी भविष्यसि, संपराये-परीषहोपसर्गमाम इत्यन्यः ।। १० ।। किंच-संयमगेहान्मनस एवानिर्गमार्थमिदं चिन्तयेत्पक्खंदे जलियं जोइं, धूमकेउं दुरासयं । नेच्छंति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे ॥ ११ ॥
पक्वंदे 'त्यादि, प्रस्कन्दन्ति-अध्यवस्यन्ति ज्वलितं-ज्वालामालाकुलं, न मुर्मरादिरूपं, के ? ज्योतिष-अग्निं धूमकेतु-धूमध्वज नोल्कादिरूपं, दुराशयं-दुःखेनासाद्यते-अभिभूयत इति दुरासदस्त, दुरभिमवमित्यर्थः, चशब्दलोपात , 'न चेच्छन्ति वान्तं भोक्तुं' परित्यक्तमत्तुं, विषमिति गम्यते, के ?, नागा इति गम्यते, एवं किंविशिष्टाः १, कुले जाता:-समुत्पन्ना अगन्धने, नामानां हि भेदद्वयं-गन्धना अगन्धनाच, तत्र गन्धना नाम डसिए मंतेहिं आयड्डिया तं विसं वणमुहाओ आवियन्ति, अगन्धणा उण अवि मरणमज्झवसन्ति न य वंतमावियंति, उपसंहारस्त्वेवं भावनीयः-यदि तावत् तिर्यश्चोऽप्यभिमानमात्राद् अपि जीवितं परित्यजन्ति, न च वान्तं भुञ्जते, तत्कथमहं जिनवचनाभिज्ञो विपाकदारुणान्
For Private & Personel Use Only
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
सुमति
साधु० दशवै ०
अ० २
॥९॥
विषयान् वान्तानपि मोक्ष्य इति । अस्मिन्नेवार्थे द्वितीयमुदाहरणं (४० २ ) -
जया किल अरिट्ठनेमी पव्वइओ, तया रहनेमी तस्स जेडभाऊओ रायमई उवयर, जइ नाम एसा ममं इच्छिजा, सावि भयवई निव्त्रिन्नकामभोगा, नायं च तीए-जहा एसो मज्झं अज्झोववन्नो, अम्नया य तीए महुघयसंजुत्ता पेजा पीया, रहनेमी आगओ, मयणफलं मुहे काऊण तीए वंतं, भणियं च एवं पेषं पियाहि, तेण भणियं कहं वतं पिजह ? तीए भणियं - जड़ न पिजड़ तओ अपि अट्टिनेमिसामिणा वंता कहं पिबिउमिच्छसि १, तथा ह्यधिकृतार्थ संवाद्ये वाहधिरत्थु ते जसोकामी, जो तं जीवियकारणा । वंतं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ॥ १२ ॥
'घिरत्थु ' इत्यादि, तत्र राजीमती किलैवमुक्तवती - 'विगस्तु' धिक्शब्दः कुत्सायां अस्तु भवतु ते तत्र पौरुषस्येति गम्यते, हे यशःकामिन-कीर्त्यभिलाषिन् !, सासूयं क्षत्रियामन्त्रणं, अथवा अकारप्रश्लेषादयशःकामिन्!, धिगस्तु भवतु तव, यस्त्वं 'जीवितकारणात्' असंयमजी वितहेतोर्वान्तमिच्छस्यापातुं परित्यक्तां भगवताऽभिलषसि भोक्तुमिति, अतः अतिक्रान्तमर्यादस्य 'श्रेयस्ते मरणं भवेत् ' शोभनतरं तव मरणं, न पुनरिदं अकार्यासेवनमिति । ततो धम्मो से कहिओ, सम्बुद्धो, पवइओ य, रायमईवि तं बोहिऊण पद्मइया, अन्नया कयाह सो रहनेमी बारवईए भिक्खं हिंडिऊण सामिसगासमा - गच्छंतो वासवद्दलपण अब्भाहओ एगं गुहं पविट्ठो, रायमई वि सामिणो वंदणयाए गया, वंदित्ता पडस्सय मा गच्छंती ए अंतरा वरिसिएण तिता अयाणंती तमेव गुहमणुपविट्ठा, वत्थाणि य पविसारियाणि, ताहे तीए अंगपचंगाणि दिट्ठाणि, सो रहनेमी ती अज्झोवन्नो, दिट्ठो य णाए, इंगियागारकुसलाए णाओ असोहणो भावो एयस्स, ततो सा तमिदमवोचत्
रथनेमि प्रति
राजीमती
वचनम्
॥ ९ ॥
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
अहं च भोगरायस्स, तं चऽसि अंधगवण्हिणो । मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर ॥१३॥ राजीमतीसुमति
___'अहं चेति अहं च भोगराज्ञः-उग्रसेनस्य दुहितेतिगम्यते, त्वं च असि-भवसि अंधकवृष्णेः -समुद्रविजयस्य, 1 वचनम् साधु सुत इति गम्यते, अतो मा एकैकप्रधानकुले आवां गन्धनौ भूव, जह न सप्पतुल्लाई होमोति भणियं होइ, अतः संयम दसवै.
निभृतश्चर-सर्वदुःखनिवारणं क्रियाकलापमव्याक्षिप्तः कुर्विति ॥ १३ ॥ किं चअ०२
जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारीओ। वायाविद्धव्व हडो, आट्टिअप्पा भविस्ससि ॥१४॥ ॥१०॥ 'जह त'मिति, यदि त्वं करिष्यसि भावं-अभिप्रायं प्रार्थनमित्यर्थः, क?-या या द्रक्ष्यसि नारी:-स्त्रियः, तासु
एताः शोभनाः शोभनतराः सेवामि-कामयामीत्येवंभूतं भावं यदि करिष्यसि, ततो वायुनाऽऽविद्ध इव हतो-वातप्रेरित | इवाबद्धमूलो वनस्पतिविशेषोऽस्थितात्मा भविष्यसि, सकलदुःखक्षयनिबन्धनेषु संयमगुणेष्वबद्धमूलत्वात् संसारसागरे प्रमादपवनप्रेरित इतश्चेतश्च पर्यटिष्यसितीसे सो वयणं सोचा, संजयाइ सुभासियं। अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ ॥ १५ ॥
'तीसे सो वयण 'मिति तस्या-राजीमत्या असौ-रथनेमिर्वचनमनन्तरोदितं श्रुत्वा-आकर्ण्य किंविशिष्टायामस्तस्याः ? संयतायाः-प्रवजिताया इत्यर्थः, किंविशिष्टं वचनं ?-सुभाषितं-संवेगनिबन्धनं, अंकुशेन यथा नागो
हस्ती एवं धर्मे सम्प्रतिपादितो-धर्मे स्थापित इत्यर्थः ।
Jain Education Internance
For Private & Personel Use Only
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
पुरुषोत्तमः
IC एवं करंति संबुद्धा, पंडिया पविअक्खणा । विणिअहंति भोगेसु, जहा से पुरिसुत्तमो ॥ १६ ॥ सुमति
त्ति बेमि । सामन्नपुत्वियं नामज्झयणं समत्तं २॥ साधु । 'एवं करती'ति एवं कुर्वते संबुद्धा:-बुद्धिमन्तो बुद्धाः, सम्यग्दर्शनसाहचर्येण दर्शनकीमावेन वा बुद्धाः संबुद्धादशव० विदितविषयस्वभावाः, सम्यग्दृष्टय इत्यर्थः, त एव विशेष्यन्ते पण्डिताः प्रविचक्षणाः, तत्र पण्डिताः प्रविवक्षया अ०३ सूत्रपण्डिताः सम्यग्ज्ञानवन्तः प्रविचक्षणाश्चरणपरिणामवन्तः, अन्ये तु व्याचक्षते संबुद्धाः सामान्येन बुद्धिमन्तः, पण्डिता
वान्तभोगासेवनदोषलाः, प्रविचक्षणा-अवधभीरवः, किं कुर्वन्ति ?-विनिवर्तन्ते भोगेभ्यो विविध-अनेकैः प्रकारैरनादिभवाम्यासवलेन कदय॑माना अपि मोहोदयेन निवर्तन्ते भोगेभ्यो-विषयेभ्यो, यथा क इत्यत्राह-यथा असौ पुरुषोत्तमो रथनेमिः। आह-कथं तस्य पुरुषोत्तमत्वं ? यो हि प्रबजितोऽपि विषयाभिलाषीति ?, उच्यते, तथाऽभिलाषेऽप्यप्रवृत्तेः, | कापुरुषस्त्वभिलाषानुरूपं चेष्टत एवेति । अपरस्त्वाह-दशवैकालिकं नियतश्रुतमेव, यत उक्तं-" नायज्झयणाहरणा इसिभासियमो पइन्नगसुया य । एए होंति अनियया निययं पुण सेसमुस्सणं ॥१॥" तत् कथममिनवोत्पन्नमिदमुदाहरणं युज्यत इति ?, उच्यते, एवंभूतार्थस्यैव नियतश्रुतभावाद् उस्सन्नग्रहणाच्चादोषः, प्रायो नियतं, न तु सर्वथा नियतमेवेत्यर्थः। ब्रवीमीति न स्वमनीषिकया, किन्तु तीर्थकरगणधरोपदेशेनेति ॥
दशवकालिकश्रुतस्कंधे द्वितीयमध्ययनं टिप्पितमिति ।
॥११॥
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
सुमति
साघु० दशवै०
अ० ३
॥ १२ ॥
Jain Education Intern
व्याख्यातं श्रामण्यपूर्विकाख्यमध्ययनं इदानीं क्षुल्लिकाचारकथाख्यातमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तराध्ययने धर्माम्युपगमे सति मा भूदभिनवप्रव्रजितस्याधृतेः संमोह इत्यतो धृतिमता भवितव्यमित्युक्तं, इह तु सा धृतिराचारे कार्या, न त्वनाचारे, अयमेवात्मसंयमोपाय इत्येतदुच्यते, उक्तं च- " तस्यात्मा संयतो यो हि, सदाचारे रतः सदा । स एव धृतिमान् धर्मस्तस्यैव हि जिनोदितः ॥ १ ॥ " इत्यनेन सम्बन्धेनायातमिति -
संजमे सुट्ठिअप्पाणं, विप्पमुक्काण ताइणं । तेसिमेयमणाइन्नं, निग्गंथाण महेसिणं ॥ १७ ॥
संयमे-उक्तस्वरूपे शोभनेन प्रकारेणागमनीत्या स्थित आत्मा येषां ते तथा तेषां त एव विशेष्यन्ते विविधैः अनेकैः प्रकारैः प्रकर्षेण - भावसारं मुक्तास्तेषां त एवं विशेष्यन्ते - रक्षन्ति आत्मानं परं उभयं चेति त्रातारः, आत्मानं प्रत्येकबुद्धाः, परं तीर्थकराः स्वतीर्णत्वात्, उभयं स्थविरा इति, तेषामिदं वक्ष्यमाणलक्षणमनाचरितं अकल्प्यं केषामित्याह-निर्बंधानांसाधूनामिति, अभिधानमेतत् महान्तश्च ते ऋषयश्च महर्षयो यतय इत्यर्थः तेषां इह च पूर्वपूर्वभाव एवोत्तरोत्तरभावों नियमतो हेतुहेतुमद्भावेन वेदितव्यो, यत एव संयमे सुस्थितात्मानोऽत एव विप्रमुक्ताः, संयमसुस्थितात्मत्वनिबन्धनत्वाद्विमुक्तः, एवं शेषेष्वपि भावनीयं, अन्ये तु पश्चानुपूर्व्या हेतुहेतुमद्भावं वर्णयन्ति यत एव महर्षयः, अत एव निर्ग्रन्थाः, एवं शेषेष्वपि भावनीयमिति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ साम्प्रतं यदनाचरितं तदाहउद्देसियं कीयगडं, नियागमभिहडाणि य । राइभन्ते सिणाणे य, गंधमले अ वीयणे ॥ १८ ॥ 'उद्देसिय' मिति उद्देश नं - साध्वाद्याश्रित्य दानारम्भस्येत्युद्देशः, उद्देशे भवमौदेशिकं १, क्रयणं क्रीतं, साध्वादिनि
साधूनामना
चरितम्
॥ १२ ॥
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री.
सुमतिसाधु दशवै० अ०३
साधू नामनाचरितानि
देर्माल्यस्य, वीज प्रतात ६, तथा गन्धमालयन च देशसर्वभेदमिन्न, दख्यापनार्थ ,
मित्तमिति गम्यसे, तेन कृतं-निवर्तितं क्रीतकृतं २, नियागमित्यामन्त्रितस्य पिण्डस्य ग्रहणं नित्यं न लनामन्त्रितस्य ३, अमिहडाणीति स्वग्रामादेः साधुनिमित्तमभिमुखमानीतमभ्याहतं, बहुवचनं स्वग्रामपरखामनिशीथादिभेदख्यापनार्थ, रात्रिभक्तं-रात्रिभोजनं दिवसगृहीतदिवसभुक्तादिचतुर्भङ्गालक्षणं ५, स्नानं च-देशसर्वभेदभिन्न, देशस्नानमधिष्ठानशौचातिरेकेणाक्षिपक्ष्मप्रक्षालनमपि, सर्वस्नानं तु प्रतीतं ६, तथा गन्धमाल्यवीजनं च गन्धग्रहणात् कोष्ठपुटादिपरिग्रहः, माल्यग्रहणाच्च ग्रथितवेष्टिमादेर्माल्यस्य, वीजनं तालवृन्तादिना धर्मे ७-८-९ इदमनाचरितं, दोषाचौदेशिकादिष्वारम्भ. प्रवर्त्तनादयः स्वधिया वाच्या इति ॥ १८॥ इदं चानाचरितमितिसन्निही गिहिमत्तेय, रायपिंडे किमिच्छए । संवाहणा दंतपहोअणा य, संपुच्छणा देहपलोअणाय ॥१९॥
'सन्निहीं पत्रं, सनिधीयते अनेन आत्मा दुर्गताविति सन्निधिः-घृतगुडादीनां सञ्चयक्रिया १०, गृहमानं चगृहस्थमाजनं च ११, तथा राजपिण्डो-नृपाहारः, कः किमिच्छतीत्येवं यो दीयते स किमिच्छका, राजपिण्डोऽन्यो | वा सामान्येन १२, तथा सम्बाधनं-अस्थिमांसत्वगोमसुखतया चतुर्विध मईनं १३, दन्तप्रधावनं च-अंगुल्यादिना दन्तक्षालनं १४, तथा सम्प्रश्नः-सावद्यो गृहस्थविषयो रादार्थ कीदृशो वाऽहमित्यादिरूपः १५, देहप्रलोकनं चआदर्शादौ अनाचरितं १६, दोषाश्च सनिधिप्रभृतिषु परिग्रहप्राणातिपातादयः स्वधियव वाच्या इति ॥ १९ ॥ किंचअट्ठावए अ नालीए, छत्तस्स य धारणटाए । तेगिच्छं पाहणा पाए, समारंभं च जोइणो ॥ २०॥ _ 'अट्ठावर' इति, अष्टापदं घेत्यष्टापदं-बूतं, अर्थपदं वा-गृहस्थमधिकृत्य निमिचादिविषयमनाचरितं १७, तथा
॥१॥
Jain Education Intemente
For Private & Personel Use Only
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
सुमति
साधूनामनाचरितानि
साधु
दशः
ब०३
॥१४॥
'नालिका चेति बूतविशेषलक्षणा यत्र मा भूकलयाऽन्यथा पाशकपातनमिति नालिकया पात्यन्त इति, इयं चानाचरिता १८, अष्टापदेन सामान्यतो छूतग्रहणे सत्यप्यभिनिवेशनिबन्धनत्वेन नालिकायाः प्राधान्यख्यापनार्थ नालिकाग्रहणं, अष्टापदयूतविशेषपक्षे चोभयोरिति । छत्रस्य च-लोकप्रसिद्धस्य धारणमात्मानं परं वा प्रत्यनायेति, आगाढग्लानाद्यालंबन मुस्वाऽनाचरितं, प्राकृतशैल्या चात्रानुस्वारलोपोऽकारनकारलोपौ च द्रष्टव्यौ, तथाश्रुतिप्रामाण्यादिति १९ । 'तेगिच्छं 'ति चिकित्साया भावश्चैकित्स्य-व्याधिप्रतिक्रियारूपमनाचरितं २०, उपानही पादयोरनाचरिते, पादयोरिति साभिप्रायक न त्वापत्कल्पपरिहारार्थे उपग्रहधारणेन २१, तथा समारंभणं समारंभव, ज्योतिषः-अग्नेग्नाचरितमिति २२, दोषास्त्वष्टापदादीनां प्रसिद्धा एव क्षुण्णा एवेति ॥ २०॥ किंचसिज्झायरपिंडं च, आसंदीपलियंकए । गिहतरनिसिज्जा य, गायस्सुबट्टणाणि य ॥२१॥ _ 'सिजायर 'इत्यादि, शय्यातरपिंडश्वानाचरितः, शय्या-वसतिस्तया तरति संसारमिति शय्यातरः-साधुवसतिदाता तम्पिडः २३, आसन्दकपर्यकावनाचरितौ एतौ च लोकप्रसिद्धावेव २४-२५, तथा गृहान्तरनिषद्यानाचरिता गृहमेव गृहान्तरं गृहयोर्वा अपान्तरालं तत्रोपवेशनं, चशब्दात् पाटकादिपरिग्रहः २६, तथा गात्रस्य-कायस्योद्वर्तनानि चानाचरितानि, उद्वर्तनानि-पङ्कापनयनलक्षणानि, चशब्दात्तदन्यसंस्कारपरिग्रह इति २७ ॥ २१ ॥ तथागिहिणो वेयावडियं, जाय आजीववत्तिया । तत्तानिठवुडभोइत, आउरस्सरणाणि य ॥२३॥
गिहिणोत्ति गृहिणो-गृहस्वस्य वैयावृत्यमिति व्यावृत्तभावो वैयावृत्य, गृहस्थं प्रत्यन्नादिसंपादनमित्यर्थः, एतदना
॥१४॥
For Private & Personel Use Only
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसुमति
साधू नामनाचरितानि
साधु दशवै०
॥१५॥
चरितमिति २८, तथा चाजीववृत्तिता-जातिकुलगणकर्मशिल्पानामाजीवनं आजीवस्तेन वृत्तिस्तद्भाव आजीववृत्तिता, जात्याद्याजीवनेनान्नयाचनेत्यर्थः, इयं चानाचरिता २९, तथा तप्तानिवृत्तभोजित्वं-तप्तं च तदनिवृत्तं तप्तानिवृत्तअत्रिदंडोत्तं चेति विग्रहः, उदकमिति विशेषणान्यथानुपपच्या गम्यते, तद्भोजित्वं मिश्रसचिचोदकमोजित्वमित्यर्थः, इदं चानाचरितं ३०, आतुरस्मरणानि च-क्षुधाद्यातुराणां पूर्वोपभुक्तस्मरणानि चानाचरितानि आतुरशरणानि वा दोषातुराश्रयदानानीति ३१ ।। २२ । किश्चमूलए सिंगबेरे य, उच्छुखंडे अनिव्वुडे। कंदे मूले अ सञ्चित्ते, फले बीए य आमए ॥ २३ ॥ ___ मूलएत्ति मूलको-लोकप्रतीतः, शृङ्गबेरं च आर्द्रकं च तथा इक्षुखण्डं च लोकप्रतीतं, अनिर्धतग्रहणं सर्वत्राभिसम्बध्यते, अनिर्वृतं-अपरिणतमनाचरितमिति, इक्षुखण्डं चापरिणतं द्विपर्वान्तं यद्वर्तते ३२-३३-३४, तथा कन्दो-वज्रकन्दादिः ३५, मूलं च-सट्टामूलादि सचित्तमनाचरितं ३६, फलं-पुष्यादि ३७, बीज-तिलादि ३८, आमक-सचित्तमनाचरितमिति ॥ २३ ॥ किसोवच्चले सिंधवे लोणे, रोमालोणे य आमए। सामुद्दे पंसुखारे य, कालालोणे अ आमए ॥२४॥
'सोवच्चले 'ति, सोवर्चलं ३९, सैन्धवं ४०, लवणं ४१, रुमालवणं च ४२, आमकं, आमकमिति सचित्त. मनाचरितं, सामुद्र-समुद्रलवणमेव ४३, पांशुक्षार-ऊपरलवणं ४४, कृष्णलवणं च सैन्धवलवणपर्वतेकदेशजं ४५, आमकमनाचरितमिति ॥ २४॥ किञ्च
॥१५॥
Jain Education Inten
For Private & Personel Use Only
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
साथमा
समति
स्वरूपम्।
साधु दशवै
॥१६॥
धूवणे त्ति वमणे य, वत्थीकम्म विरेअणे । अंजणे दंतवणे य, गायाब्भंगविभूसणे ॥२५॥ _ 'धूवणे 'त्ति धूपनमिति-आत्मवस्त्रयोरनाचरितमिति, प्राकृतशैल्याऽनागतव्याधिनिवृत्तये धूमपानमिति अन्ये व्याचक्षते ४६, वमनं च मदनफलादिना ४७, वस्तिकर्म पुटकेनाधिष्ठाने स्नेहदान ४८, विरेचनं दन्त्यादिना ४९, तथा अंजनं-रसाञ्जनादि ५०, दंतकाष्ठं च प्रतीतं ५१, गात्राभ्यङ्गस्तैलादिना ५२, विभूषणं गात्राणामेवेति ५३ । ॥ २५॥ क्रियास्त्रमाहसव्वमेयमणाइन्नं, निग्गंथाण महेसिणं । संजममि य जुत्ताणं, लहुभूयविहारिणं ॥ २६ ॥
'सव्वमेयंति' सर्वमेतद्-औदेशिकादि यदनन्तरमुक्तमिदमनाचरितं, केषामित्याह-निर्ग्रन्धानां महर्षीणां साधूनामित्यर्थः, त एव विशेष्यन्ते-संयमे, चशब्दात्तपसि च, युक्तानां-अभियुक्तानां, लघुभूतविहारिणां लघुभूतो-वायुस्ततश्च | वायुभूतोऽप्रतिबद्धतया बिहारो येषां ते लघुभूतविहारिणस्तेषां, निगमनक्रियापदमेतदिति ॥ २६ ॥ किमिति अनाचरितं !, यतस्ते एवम्भूता भवन्तीत्याह
पंचासवपरिन्नाया, तिगुत्ता छसु संजया । पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उज्जुदंसिणो ॥ २७॥ - 'पंचासवेत्यादि पंचाश्रवा-हिंसादयः परिज्ञाता द्विविधया परिक्षया-ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिक्षया च परि-सम
तात् शाता यैस्ते पंचाश्रवपरिज्ञाताः, यतश्चैवम्भूता अत एच त्रिगुप्ता भनोवाकायगुप्तिभिः गुप्ता, पसु संयता:-पट्
॥१६॥
Jan Education International
For Private
Personal Use Only
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधना दुस्सहाः क्रिया:
साधु दशवै. अ०३
जीवनिकायेषु पृश्चिम्यादिषु सामस्त्येन यता, पंच निग्रहणा इति निगृहन्तीति निग्रहणाः पंचानां निग्रहणाः, पंचानामिन्द्रियाणां, धीरा-बुद्धिमन्तः, स्थिरा वा, निर्ग्रन्थाः-साधवः, ऋजुदर्शिनः इति अजुः-मोक्षं प्रति ऋजुत्वात् संयमस्तं पश्यन्त्युपादेयतयेति ऋजुदर्शिनः-संयमप्रतिबद्धा इति ॥ २७॥ ते च ऋजुदर्शिनः कालमधिकृत्य यथाशक्त्या एतत् कुर्वन्तिआयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु अवाउडा । वासासु पडिसंलीणा, संजया सुसमाहिया ॥ २८ ॥
'आयावयन्ति' आतापयन्तीत्यु स्थानादिना आतापनां कुर्वन्ति ग्रीष्मेष्विति-उष्णकालेषु, हेमन्तेषु-शीतकालेषु अप्रावृता इति-प्रावरणरहितास्तिष्ठन्ति, तथा वर्षासु-वर्षाकालेषु प्रतिसंलीना इत्येकाश्रयस्था भवन्ति, संयता:-साधवः सुसमाहिता-ज्ञानदर्शनादिषु यत्नपराः, ग्रीष्मादिषु बहुवचनं प्रतिवर्षकरणज्ञापनार्थमिति ॥ २८ ॥ किश्चपरीसहरिऊदंता, धूअमोहा जिइंदिया । सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा, पक्कमंति महेसिणो ॥ २९ ॥
परीसहे "ति मार्गाच्यवननिर्जराथं परिषोढव्याः परीपहाः (तचा.अ.९,८)-क्षुत्पिपासादयः, त एव रिपवस्तुल्यधर्मत्वात् परीषहरिपवः, ते दान्ता-उपशमं नीता यैस्ते परीषहरिपुदान्ताः, धूतमोहा-विक्षिप्तमोहा इत्यर्थः मोहः-अज्ञानं, जितेन्द्रियाः-शन्दादिषु रागद्वेषरहिता इत्यर्थः, एवम्भूताः सर्वदुःखप्रक्षयार्थ-शारीरमानसाशेषदुःखप्रक्षयनिमित्तं प्रक्रामन्ति-प्रवर्तन्ते महर्षयः-साधव इति ॥ २९ ॥ इदानीमेतेषां फलमाहदुक्कराई करित्ताणं, दुस्सहाई सहेतु अ । केइत्थ देवलोएसु, केइ सिझंति नीरया ॥३०॥
al॥१७॥
Jain Education Intemalhall
For Private Personel Use Only
T
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
सुमति
साधु०
दशवै०
ब० ३
॥ १८ ॥
•
करा 'इति एवं दुष्कराणि कृत्वा औदेशिकादित्यागादीनि तथा दुस्सहानि सहित्वा आतापनादीनि, केचनात्र देवलोकेषु सौधर्मादिषु गच्छन्तीति वाक्यशेषः, तथा केचन सिद्ध्यन्ति तेनैव भवेन सिद्धिं प्राप्नुवन्ति, वर्तमान निर्देशः सूत्रस्य त्रिकालविषयत्वज्ञापनार्थः, नीरजस्का इत्यष्टविध कर्म्मविप्रमुक्ताः, न त्वेकेन्द्रिया इव कर्म्मयुक्ता एवेति ॥ ३० ॥ ये चैवंविधानुष्ठानतो देवलोकेषु गच्छन्ति तेऽपि ततघुता आर्यदेशेषु सुकुले जन्मावाप्य शीघ्रं सिद्ध्यन्त्येवेत्यत आहखवित्ता पुनकम्माई, संजमेण तवेण य। सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता, ताइणो परिनिव्वुड ॥ ३१ ॥ तिमि | खुड्डियायारकहज्झयणं तइयं ३ ॥
'खवित्ते 'ति तदेवं देवलोकाच्युत्वा क्षपयित्वा पूर्वकर्माणि सावशेषाणि, केनेत्याह-संयमेन उक्तस्त्ररूपेण तपसा च एवं प्रवाहेण सिद्धिमार्ग- सम्यग्दर्शनादिलक्षणमनुप्राप्ताः सन्तस्त्रातारः आत्मादीनां परिनिर्व्वान्ति-सिद्धिं प्राप्नुवन्ति, अन्ये तु पठन्ति - परिनिव्वुडत्ति, तत्रापि प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाद्वाऽयमेव पाठो ज्यायानिति ॥ ३१ ॥ ब्रवीमीति पूर्ववदिति । तृतीयं क्षुल्लकाचाराध्ययनं समाप्तम् ३ ॥
--fee
साधूना फलम्
॥ १८ ॥
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
समतिसाधु
जीवस्य मेदारस्वरूपन
दशवै० ब०४
॥१९॥
इदानीं षड्जीवनिकायिकाख्यमारभ्यते-अस्य चायममिसम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने साधुना वृतिराचारे कार्या, न त्वनाचारे, अयमेव चात्मसंयमोपाय इत्युक्तं, इह पुनः स आचारः षड्जीवनिकायगोचरः प्राय इत्येतदुच्यते, उक्तं च-"छसु जीवनिकाएसं जे बुहे संजए सया। से चेव होइ विजेए, परमत्थेण संजए॥१॥" इत्यनेन सम्बन्धेनायातमिदमध्ययनमिति, तदाह
सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं, इह खलु छज्जीवणियानामज्झयणं, समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपन्नत्ता, सेयं मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती. कयराखलसा छज्जीवणियानामज्झयणं समणेणं भगवता महावीरेणं कासवेणं पवेडया सुयक्खाया सुपन्नत्ता सेयं मे आहजिडं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती। इमा खल सा छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपन्नत्ता, सेयं मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती, तंजहा-पुढविकाइया,आउकाइया,तेउकाइया,वाउकाइया, वणस्सइकाइया, तसकाइया, पुढवी चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता, अन्नत्थ सत्थपरिणएणं, आऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं, तेऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा
d
॥१९॥
For Private Personal Use Only
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
सुमति
मेदाः
साधु दशव० अ०४
॥२०॥
पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं, वाऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थ- वनस्पते परिणएणं, वणस्सई चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं, तंजहा
खसस्य च अग्गघीया, मूलबीया, पोरवीया खंधबीया, बीयरुहा, संमुच्छिमा तणलया, वणस्सइकाइया सबीया चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं। से जे पुण इमे अणेगे। बहवे तसा पाणा, तंजहा-अंडया, पोयया, जराउया, रसया, संसेइमा, संमुच्छिमा, उब्भिया, IN उववाइया, जेसि केसिंचि पाणाणं अभिकतं, पडिकंतं, संकुचियं, पसारियं, रुयं, भंतं, तसियं, पलाइयं, आगइगइविन्नाया जे य कीडपयंगा जाय कुंथुपिपीलिया सव्वे बेइंदिया सव्वे तेइंदिया सब्वे चउरिंदिया सव्वे पंचिंदिया सव्वे तिरिक्खजोणिया सवे नेरइया सव्वे मणुआ सवे पाणा परमाहम्मिआ। एसो खल्लु छट्ठो जीवनिकाओ तसकाउत्ति पवुच्चइ । सूत्रं १।। _ 'सुयं मे' इत्यादि, श्रुयते तदिति श्रुतं-प्रतिविशिष्टार्थप्रतिपादनफलं वाग्योगमात्रं, भगवता निसृष्टमात्मीय
श्रवणकोटरप्रविष्ट थायोपशमिकमावपरिणामाविर्भावकारणं श्रुतमित्युच्यते, श्रुतमवधृतमवगतमिति पर्यायाः, मयेत्यात्मC परामर्थः, आपुरस्थास्तीत्यायुष्मांस्तसामन्त्रणं हे आयुष्मन् !, काकमेवमाह ?-गौतमः सुधर्मस्वामी का, जंबू- IC॥२०॥
Jain Education Intem
For Private & Personel Use Only
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
सुमति
साधु
आगमरहस्यगुणवते देयम्
दशः
अ०४
॥२१॥
स्वामिनमिति, सेनेति भुवनभर्तुः परामर्शः, भगः-समग्रैश्वर्यादिः, सोऽस्यास्तीति भगवान् , तेन भगवता वर्द्धमानस्वामिनेत्यर्थः, एवमिति प्रकारवचनः शब्दः, आख्यातमिति केवलज्ञानेनोपलभ्यावेदितं, किमत आह-इह खलु षड्जीवनिकायिकानामाध्ययनमस्तीति वाक्यशेषः, इह तु लोके प्रवचने वा, खलु शब्दान्नान्यतीर्थकृत्प्रवचनेषु षडजीवनिकायिकेति पूर्ववन्नामेत्यभिधानं अध्ययनमिति पूर्ववदेव, इह च श्रुतं मयेत्यनेनात्मपरामर्शेनैकान्तक्षणभङ्गापोहमाह-तत्रेत्थंभूतार्थानुपपत्तेरिति, उक्तं च-" एगंतखणियपक्खे गहणं चिय सत्बहा न अत्थाणं । अणुसरणसासणाई कुतो य तेलोग(क)सिद्धाई॥१॥" तथा आयुष्मन्निति च प्रधानगुणनिष्पन्नेनामन्त्रणवचसा गुणवते शिष्यायागमरहस्यं देयं नागुणवते इत्याह, तदनुकंपाप्रवृत्तेरिति, उक्तं च-" आमे घडे निहितं, जहा जलं तं घड विणासेइ । इय सिद्धतरहस्स, अप्पाहारं विणासेइ ॥१॥" आयुश्च प्रधानो गुणः, सति तस्मिन्नव्यवच्छितिभावात् , 'तेन भगवता एवमाख्यात'मित्यनेन स्वमनीषिकानिरासाच्छास्त्रपारतंत्र्यप्रदर्शनेन न झसर्वज्ञेनानात्मवतान्यतस्तथाभूतान सम्यगनिश्चित्य लोके धर्मदेशना कार्यस्येतदाह विपर्ययसंभवादिति, उक्तं च-" सावजणव जाणं वयणाणं जो न जाणइ विसेसं । वुत्तुंपि तस्स न खमं किमंग पुण देसणं काउं? ॥१॥ किं एत्तो पावयरं सम्म अणहिगयधम्मसम्भावो। अन्नं कुदेसणाए, कट्ठयरागम्मि पाडेइ ॥ २॥" अथवा अन्यथा व्याख्यायते सूत्रैकदेश:-आउसंतेणंति भगवत एव विशेषणं, आयुष्मता भगवता, चिरजीविनेत्यर्थः, मंगलवचनं चैतद्, अथवा जीवता साक्षादेव, अनेन च गणवरपरंपरागमस्य जीवन विमुक्तानादिसिद्धवाश्चापोहमाहदेहायभावेन तथाविधप्रयत्नामावादिति, उक्तं च-" क्यणं न कायजोगाभावे ण य सो अणाइसिद्धस्स । गहणमि य नो
॥२१॥
Jain Education Interna
For Private Personel Use Only
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुरुसेवा
सुमति
फलम्
साधु दशवे. ब०४
॥२२॥
हेऊ सत्थं अचागमो कह गु॥१॥" अथवा आवसंतेणंति, गुरुमूलमावसता, अनेन च शिष्येण गुरुचरणसेविना सदा भाव्यमित्येतदाद, ज्ञानादिवृद्धिसद्भावाद्, उक्तं च-" नाणस्स होइ भागी, थिरतरतो दसणे चरिते य । धन्ना यावकहाए, गुरुकुलवासं न मुचंति ॥१॥" अथवा आउसंतेणं-आमृशता भगवत्पादारविन्दयुगलमुत्तमाङ्गेन, अनेन च विनयप्रतिपत्चेरीयस्त्वमाद, विनयस्य मोक्षमूलत्वात् , उक्तं च-"मूलं संसारस्स उ होंति कसाया अणंतपत्तस्स । विणओ ठाणपउत्तो दुक्खविमुक्खस्स मोक्खस्स ॥१॥" कृतं प्रसंगेन, प्रकृतमुच्यते
अत्र खलु षड्जीवनिकायिकानामाध्ययनमस्तीत्युक्त, अत्राह-षड्जीवनिकायिका केन प्रविदिता प्ररूपिता वा ? इति उच्यते, तेनैव भगवता, यत आह-समणेणमित्यादि, सा च तेन श्रमणेन-महातपस्विना भगवता-समप्रैश्वर्यादियुक्तेन महावीरेण-कषायादिशत्रुजयान्महावीरः,उक्तं च-"विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च, तस्माद्वीर इति स्मृतः॥१॥" महांश्चासौ वीरश्च महावीरस्तेन महावीरेण, अत्राह-षड्जीवनिकायिका केन प्रविदिता परूपिता वा ?, इति उच्यते, तेनैव भगवता, यत आह-समणेणमित्यादि, काश्यपेनेति काश्यपगोत्रेण प्रविदिता नान्यतः कुतश्चिदाकर्ण्य ज्ञाता, किं तर्हि ? स्वयमेव केवलालोकेन प्रकर्षेण विदिता-ज्ञातेत्यर्थः, स्वाख्यातेति सदेवमनुष्यासुरायां पर्षदि सुष्टु आख्याता-स्वाख्याता, सुप्रज्ञतेति, यथैवाख्याता तथैत्र सुष्टु सूक्ष्मपरिहारासेवनेन प्रकर्षण सम्यगासेवितेत्यर्थः अनेकार्थत्वाद्धातूनां " ज्ञपिरासेवनार्थः, " तां चैवम्भूतां षड्जीवनिकायिका श्रेयो मेऽध्येतुमिति, श्रेया-पध्य हितं, मे इति आत्मनिर्देशः, छान्दसत्वात्सामान्येनात्मनिर्देश इत्यन्ये, ततश्च श्रेय आत्मनोऽध्येतुमिति पठितुं श्रोतुं भावयितुं,
GU॥२२॥
Jan Education Intema
For Private
Personel Use Only
T
a w.iainelibrary.org
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
पृथिव्यादिक्रमहेतु
सुमतिसाधु दशवे. अ०४
॥२३॥
कुत इत्याह-अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिः, "निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां प्रायोदर्शन मिति वचनात् , " हेतौ प्रथमा" अध्ययनत्वात् , अध्यात्मानयनात् चेतसो विशुद्धयापादनादित्यर्थः, एतदेव कुत ?, इत्याह-धर्मप्रज्ञप्तेः प्रज्ञपनं प्रज्ञप्तिः धर्मस्य प्रज्ञप्तिः धर्मप्रज्ञप्तिस्ततो धर्मप्रज्ञप्तेः कारणात् चेतसो विशुख्यापादनं, चेतोविशुद्ध्यापादनाच्च श्रेय आत्मनोऽध्येतुमिति, अन्ये तु व्याचक्षते-अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिरिति, पूर्वोपन्यस्ताध्ययनस्यैवोपादेयतया अनुवादमात्रमेतदिति । शिष्यः पृच्छति-कतरा खलु इत्यादि सूत्रमुक्तार्थमेव, अनेनैतदर्शयति-विहायाभिमानं संविग्नेन शिष्येण सर्वकार्येष्वेव गुरुः प्रष्टव्य इति ।
आचार्य आह-इमा खल्वित्यादिसूत्रमुक्तार्थमेव, अनेनाप्येतदर्शयति गुणवते शिष्याय गुरुणाऽप्युपदेशो दातव्य एवेति । तंजहा-पुढविकाइया इत्यादि, अत्र तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, पृथिवी-काठिन्यलक्षणा प्रतीता सैव काय:शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः पृथिवीकाया एव पृथिवीकायिकाः, स्वार्थि के कप्रत्ययः । आपो-द्रवाः प्रतीतास्ता एव काय:शरीरं येषां ते अप्काया अप्काया एव अप्कायिकाः, तेजः-उष्णलक्षणं प्रतीतं तदेव काय:-शरीरं येषां ते तेजस्कायाः तेजस्काया एव तेजस्कायिकाः, वायुश्चलनधर्मा प्रतीत एव स एव काय:-शरीरं येषां ते वायुकाया वायुकाया एव वायुकायिकाः, वनस्पतिः-लतादिरूपः प्रतीतः स एव कायः-शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः वनस्पतिकाया एव वनस्पतिकायिकाः, | एवं त्रसनशीलाखसा प्रतीतात एव काया:-शरीराणि येषां ते त्रसकायात्रसकाया एवं त्रसकायिकाः, इह च सर्वभूताधारत्वात् पृथिव्याः प्रथमं पृथिवीकायिकानामभिधानं, तदनन्तरं तत्प्रतिष्ठितत्वादप्कायिकानां, तदनन्तरमप्रतिपक्षत्वाचेजस्कायिकानां, तदनन्तरं तेजस उपष्टम्मकत्वाद् वायुकायिकानां, तदनन्तरं वायोः शाखाप्रचलनादिगम्पत्वाद् वनसति
॥२३॥
Join Education International
For Private
Personel Use Only
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसुमति
साधु०
दश० अ० ४
|| 28 ||
19
कायिकानां तदनन्तरं च वनस्पते सोपग्राहकत्वात् श्रसकायिकानामिति । विप्रतिपत्तिनिरासार्थं पुनराह पुढवी चित्तमनमखाया पृथिवी - उक्तलक्षणा चित्तं - जीवलक्षणं तदस्या अस्तीति चित्तवती - सजीवेत्यर्थः, पाठान्तरं वा 'पुढवी चित्तमत्तमक्खाया, ' अत्र मात्रशब्दः स्तोकत्राची यथा “ सर्वपत्रिभागमात्र " मिति, ततश्चित्तमात्रा- स्तोकचित्तेत्यर्थः, तथा च प्रबलमोहोदयात् सर्वजघन्यं चैतन्य मे केन्द्रियाणां तदधिकं द्वीन्द्रियादीनामिति, आख्याता - सर्वज्ञेन कथिता, इयं जीवा - अनेके जीवा यस्यां सा अनेकजीवा, न पुनरेकजीवा, यथा वैदिकानां "पृथिवी देवते" त्येवमादिवचनप्रामाव्यादिति । अनेकजीवापि कैश्विदेकभूतात्मापेक्षयेप्यत एव यथाहुरेके-" एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ १ ॥ अत आह- पुढो सत्ता - पृथक् सच्चा:- प्राणिनो ( आत्मानो) यस्यां सा पृथक्सत्त्वा, अंगुलासंख्येय भागमात्रावगाहनया पारमार्थिकानेकजीव समाश्रितेति भावः आह-यद्येवं जीवपिंडरूपा पृथ्वी ततस्तस्यानुच्चारादिकरणेन नियमतस्तदतिपातादहिंसकत्वानुपपत्तिरित्यसंभवी साधुधर्म्म इत्याह- अन्यत्र शस्त्रपरिण ताया:--शस्त्रपरिणतां पृथिवीं विहायान्या चित्तवत्याख्यातेत्यर्थः अथ किं पृथिव्याः शस्त्रं १, - " दवं सत्यग्गिविसंने हंबिलवारलोणमाईयं । भावो उ दुप्पउचो वाया काओ अविरई य ॥ १ ॥ किंची सकायसत्थं, किंची परकाय तदुभयं किंची । एयं तु दवसत्यं भावे अस्संजमो सत्थं ॥ २ ॥" धावनवल्गनोत्खननादिः एतानि स्वपरव्यापादकत्वात्कर्मबन्धनिबन्धनत्वात् शस्त्रमिति, तच्च किंचित् स्वकायशखं यथा कृष्णा मृनीलादिमृदः शस्त्रं, एवं गन्धरसस्पर्श भेदेऽपि शत्रयोजना कार्या, तथा किंचित् परकायेऽपि परकायशस्त्रं यथा पृथ्वी अन्तेजः प्रभृतीना मध्तेजःप्रभृतयो वा पृथिव्याः, तदुभयं किंचिदिति किंचित्तदुमयशखं
पृथिवीस्वरूपम्
॥ २४ ॥
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसुमति
साधु०
दशवै०
अ० ४
॥ २५ ॥
Jain Education Interna
भवति, यथा कृष्णा मृद् उदकस्य पाण्डुमृदश्च परस्परं स्पर्शगन्धादिभिः यदा कृष्णमृदा कलुषितमुदकं भवति तदाऽसौ कृष्णमृदुदकस्य पाण्डुमृदश्च शस्त्रं भवति, एवं च परिणतायां पृथिव्यामुच्चारादिकरणेऽपि नास्ति तदतिपात इत्यहिंसकत्वोपपत्तेः सम्भवी साधुधर्म्म इति । एवमापश्चित्तवत्य आख्याताः, तेजश्चित्तवदाख्यातं वायुश्चित्तवानाख्यातः, वनस्पतिचित्तवानाख्यातः, इत्याद्यपि द्रष्टव्यम् । इदानीं वनस्पतिजीवविशेषप्रतिपादनायाह-' तंजहा अग्गवीया' इत्यादि, तद् यथा उपन्यासार्थः, अग्रं बीजं येषां ते अग्रबीजा:- कोरण्टकादयः, एवं मूलं बीजं येषां ते मूल बीजाः - उत्पलकन्दादयः, पर्व बीजं येषां ते पर्वबीजाः - इक्ष्वादयः, स्कन्धो बीजं येषां ते स्कन्धबीजाः-शल्लक्यादयः, बीजाद् रोहन्तीति बीजरुहाः - शाल्यादयः, संमूर्च्छन्तीति संमूर्छिमाः- प्रसिद्ध बीजाभावेन पृथिवीवर्षादिसमुद्भवास्ते तथाविधास्तृणादयः, न चैते न संभवन्ति, दग्धभूमावपि संभवात्, तथा तृणलतावनस्पतिकायिका इति, अत्र तृणलताग्रहणं स्वगतानेकमेदसंदर्शनार्थं, वनस्पतिकायिकग्रहणं सूक्ष्मवादराद्यनेकवनस्पतिभेदसङ्ग्रहार्थं, एतेन पृथिव्यादीनामपि स्वगता भेदाः पृथिवीशर्करादयः, तथाऽवश्यायमिहिकादयः, अङ्गारज्वालादयः, झञ्झामण्डलिकादयो भेदाः सूचिता इति, सबीजाश्चित्तवन्तः 'आख्याताः' - कथिता इति । एते ह्यनन्तरोदिता वनस्पतिविशेषाः सबीजाः - स्वस्वनिबन्धनाश्चित्तवन्तः - आत्मवन्त आख्याताः - कथिताः । एते चानेकजीवा इत्यादि ध्रुवगण्डिका पूर्ववत् ॥ इदानीं त्रसाधिकार एतदेवाह -' से जे पुण इमे ' सेशब्दोऽथशब्दार्थः, असावप्युपन्यासार्थः, " अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेष्वि "ति वचनात्, अथ ये पुनरमी - बालादीनामपि प्रसिद्धा अनेके - द्वीन्द्रियादिभेदेन बहव एकैकस्यां जातौ त्रसाः प्राणिनः, त्रस्यन्तीति श्रसाः, प्राणा-उच्छ्वासादय
३
वनस्पति
भेदाः सू० १
11 24 11
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसुमति
साधु०
दश० अ० ४
॥ २६ ॥
Jain Education Intern
एषां विद्यन्त इति प्राणिनः, तद्यथा - अण्डजा इत्यादि, एष खलु षष्ठो जीवनिकायस्त्र सकायः प्रोच्यत इति योगः, तत्राण्डा आता अण्डजाः - पक्षिगृहिकोलिका (किला) दयः, पोता एव जायन्ते पोतजाः, ते च हस्तिवल्गुलीच र्म जलौकाप्रभृतयः, जरायुवेष्टिता जायन्त इति जरायुजाः - गोमहिष्यजाविकमनुष्यादयः, रसाज्जाता रसजा:- तक्रारनालदघितीमनादिषु पायुकृम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा भवन्ति, संस्वेदाजता इति संस्वेदजा:- मत्कुणयुकादयः, संमूर्च्छनाञ्जाताः संमूर्च्छनजाः - शलभपिपीलिका मक्षिका शालू (का) दयः, उद्भेदाजन्म येषां ते उद्भेदजाः पतङ्गखञ्जरीटपारिपुत्रादयः, उपपाताजाताः उपपाते भवा उपपातजाः, उपपातेन वा भवा औपपातिका - देवा नारकाच, एतेषामेव लक्षणमाह-येषां केषाञ्चित् सामान्येनैव प्राणिनां - जीवानामभिक्रान्तं भवतीति वाक्यशेषः, अभिक्रमणमभिक्रान्तं, प्रज्ञापकं प्रत्यभिमुखं क्रमणमित्यर्थः एवं प्रतिक्रमणं प्रतिक्रान्तं प्रज्ञापकात् प्रतीपं क्रमणमिति भावः, सङ्कुचनं सङ्कुचितं - गात्रसङ्कोचकरणं, प्रसारणं प्रसारितं - गात्रवि ततकरणं, रवणं रुतं - शब्दकरणं, भ्रमणं भ्रान्तमितश्चेतश्च गमनं त्रसनं त्रस्तं - दुःखोद्वेजनं, पलायनं पलायितं कुतश्चिन्नाशनं, तथा आगते:- कुतश्चिजातस्य गतेश्व- कुतश्चित् क्वचिदेव, विन्नाया इति ज्ञातारः । आह - अभिक्रान्तप्रतिक्रान्ताभ्यां नागतिगत्योः कचिद्भेद इति किमर्थं भेदेनाभिधानं १, उच्यते, विज्ञानविशेषख्यापनार्थ, एतदुक्तं भवति य एवं जानन्ति यथा मभिक्रमामः प्रतिक्रमामो वा त एव त्रसाः, न तु वृतिं प्रत्यभिक्रमणवन्तोऽपि वल्लयादय इति । आह-एवमपि द्वींद्रियादीनामत्रसत्वप्रसंगः, अभिक्रमण प्रतिक्रमण भावेऽप्येवंविधज्ञानाभावात् ?, नैतदेवं, हेतुसंज्ञयाऽवगतेर्बुद्धिपूर्वकमेव छायात उष्णमुष्णाद्वा छायां प्रति तेषां अभिक्रमणादिभावात् न चैवं वल्लयादीनामभिक्रमणादि, ओघसंज्ञया प्रवृत्तेरिति । अघि
सान
लक्षणम् सू० १
॥ २६ ॥
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
समेदाः सू०१
सुमति
साधु दशवै०
॥२७॥
कृतत्रसभेदानाह-जे य इत्यादि, ये च कीटपतङ्गा इत्यत्र कीटा:-कृमयः, "एकग्रहणे तजातीयग्रहण"मिति द्वीन्द्रियाः-शंखा- दयोऽपि गृह्यन्ते, पतङ्गाः-शलभाः, अत्रापि पूर्ववञ्चतुरिन्द्रिया भ्रमरादयोऽपि गृह्यन्त इति, तथा याश्च कुन्थुपिपीलिका इत्यनेन त्रीन्द्रियाः सर्वे एव गृह्यन्ते, अत एवाह-सर्वे द्वीन्द्रियाः-कृम्यादयः सर्वे त्रीन्द्रिया:-कुन्थ्वादयः, सर्वे चतुरिन्द्रियाः-पतङ्गादयः, आह-ये च कीटपतङ्गा इत्यादावुदेशव्यत्ययः किमर्थं ?, उच्यते, " विचित्रा सूत्रगतिरतन्त्रः क्रम" इति ज्ञापनार्थ, सर्वे पञ्चेन्द्रियाः सामान्यतो, विशेषतः पुनः सर्वे तिर्यग्योनयो-गवादयः, सर्वे नारका-रत्नप्रभानारकादिभेदभिन्नाः, सर्वे मनुजाः-कर्मभूमिजादयः, सर्वे देवा-भवनवास्यादयः, सर्वशब्दश्चात्र परिशेषभेदानां त्रसत्वख्यापनार्थः, सर्व एव एते त्रसाः, न त्वेकेन्द्रिया इव प्रसाः स्थावराश्चेति, उक्तं च-"पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः, तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः" ( तत्त्वा० अ० २, सू. १३-१४ ) इति, सर्वे प्राणिनः परमधर्माण इति, सर्वे एते प्राणिनोद्वीन्द्रियादयः पृथिव्यादयश्च परमधर्माण इति, अत्र परम-सुखं तद्धर्माणः सुखधर्माणः, सुखाभिलाषिण इत्यर्थः, यतश्चैवमतो दुःखोत्पादपरिजिहीर्षया एतेषां पण्णां जीवनिकायानां नैव स्वयं दण्डं समारभेतेतियोगः । षष्ठं जीवनिकाय निगमयन्नाह-एष खलु अनन्तरोदितः कीटादिः, 'षष्ठोजीवनिकायः' पृथिव्यादिपञ्चकायापेक्षया षष्ठत्वमस्य, त्रसकाय इति प्रोच्यते-प्रकर्षणोच्यते सर्वैरेव तीर्थकरगणधरैरिति । १।।
इच्चेसिं छण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंडं समारंभिज्जा, नेवन्नहि दंड समारंभाविज्जा, दंडं समारंभंतेऽवि अन्ने न समणुजाणेज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न
॥२७॥
Jain Education Inter
For Private & Personel Use Only
VIE
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
पड्जीव
सुमति
हिंसा
साधु दशवै० अ०४
प्रत्याख्यानम् सू०२
॥२८॥
करेमि न कारवेमि करंताप अन्नं न समाजाणामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि
अप्पाणं वोसिरामि । सू०२। ___'एतेषां षण्णां जीवनिकायाना'मिति, “ सुपांसुपो भवन्ती "ति सप्तम्यर्थे षष्ठी, एतेषु षट्मु जीवनिकायेषु अनन्तरोदितस्वरूपेषु नैव 'स्वयं' आत्मना 'दण्डं' सट्टनपरितापनादिलक्षणं, समारभेत-प्रवर्तयेत् , तथा नैवान्यैः प्रेष्यादिभिर्दण्डमुक्तलक्षणं समारंभयेत्-कारयेदित्यर्थः, दण्डं समारभमाणानप्यन्यान् प्राणिनो न समनुजानीयात्-नानुमोदयेदिति विधायक भगवद्वचनं, यतश्चैवमतो यावज्जीवमित्यादि यावद्व्युत्सृजामीत्येवमिदं सम्यक प्रतिपद्यतेत्यैदम्पर्य, पदार्थस्तु जीवनं जीवो, यावजीव-आप्राणोपरमादित्यर्थः, किमित्याह-त्रिविधं त्रिविधेनेति तिस्रो विधा:-विधानानि कृतादिरूपाणि यस्येति त्रिविधो, दण्ड इति गम्यते, तं त्रिविधेन करणे नेति, एतदेवो पन्यस्यति, मनसा वचसा कायेन, एतेषां स्वरूपं प्रसिद्धमेव, अस्य च करणस्य कर्म उक्तलक्षणो दण्डः, तं वस्तुतो निराकार्यतया सूत्रेणैवो. पन्यस्यन्नाह, तत्वतः न करोमि स्वयं, न कारयाम्यन्यैः, कुर्वन्तमपि अन्यं न समनुजानामीति, तस्य भदन्त ! प्रतिक्रमामि इति तस्येत्यधिकृतो दण्डः, योऽसौ त्रिकालविषयो दण्डस्तस्य संबन्धिनमतीतमवयव प्रतिक्रमामि, न वर्तमानमनागतं वा, अतीतस्यैव प्रतिक्रमणात् , प्रत्युत्पन्नस्य संवरणाद् अनागतस्य प्रत्याख्यानादिति, भदन्तेति गुरोरामन्त्रणं, भदन्त ! भवान्त ! भयान्त ! इति साधारणा श्रुतिः, एतच्च गुरुसाक्षिक्येव व्रतप्रतिपत्तिः साध्वीति ज्ञापनार्थ, प्रतिक्रमामीति भूताद्दण्डान्निवाऽहमित्युक्तं भवति, तसाच निवृत्तिर्यत्तदनुमतेविरमणमिति, तथा निन्दामि गरिहामीति आत्मसाक्षिकी निन्दा
॥२८॥
Jan Education Inten
For Private
Personal Use Only
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
प्रथममहाव्रतस्वरूपम्
क
श्री- lal परसाक्षिकी गर्दा-जुगुप्सोच्यते, आत्मानमतीतदण्डकारिणमश्लाघ्यं व्युत्सृजामीति, विविधार्थो विशेषार्थो वा विशब्दः,
उच्छद्रो भृशार्थः सृजामि-त्यजामि, ततश्च विविधं विशेषेण वा भृशं त्यजामि व्युत्सृजामि, आह- यद्येवमतीतदण्डप्रतिसाधु
क्रमणमात्रमस्यैदम्पयं न प्रत्युत्पन्नसंवरणमनागतप्रत्याख्यानं चेति, नैतदेवं, न करोमीत्यादिना तदुभयसिद्धेरिति । २। दशवै०
अयं चात्मप्रतिप्रत्यहाँ दण्डः, सामान्यविशेषरूप इति, सामान्येनोक्तलक्षण एव, स तु विशेषतः पञ्चमहाव्रतरूपतया अङ्गीकर्तव्य अ०४
इति महाव्रतान्याह
पढमे भंते ! महत्वए पाणाइवायाओ वेरमणं, सवं भंते पाणाइवायं पच्चक्खामि, से सुहमं ॥२९॥
वा बायरं वा, तसं वा थावरं वा, नेव सयं पाणे अइवाएजा नेवऽन्नेहिं पाणे अइवायाविज्जा, पाणे अइवायंते वि अन्ने न समणुजाणामि, जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। पढमे भंते ! महत्वए उवट्रिओमि सवाओ पाणाइवायाओ वेरमणं १ ।सू०३।
पढमे भंते ! इति, सूत्रक्रमप्रामाण्यात् प्राणातिपातविरमणं प्रथमं तस्मिन् प्रथमे भदन्तेति गुरोरामन्त्रणं, महाव्रत इति, महच्च तद्वतं च महाव्रतं, महत्वमणुव्र तापेक्षया महाव्रते प्राणातिपाताद्विरमणं इति, प्राणा-इन्द्रियादयः, तेषामतिपातः प्राणातिपातः-जीवस्य महादुःखोत्पादनं, न तु जीवातिपात एव, तस्माद्विरमणं नाम सम्यगज्ञानश्रद्धानपूर्वकं
॥२९॥
Jain Education Inter
1.
For Private & Personel Use Only
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
सुमतिसाधु दशव० अ०४
॥३०॥
सर्वथा निवर्त्तनं, भगवतोक्तमिति वाक्यशेषः, यतश्चैवमत उपादेयमेतदिति विनिश्चित्य 'सर्व भदन्त ! प्राणातिपातं प्रत्याख्यामीति सर्व-निरवशेष, न तु परिस्थूरमेव, भदन्तेति गुर्वामन्त्रणं प्राणातिपातमिति पूर्ववत , प्रत्याख्यामीति- बादरादिप्रतिशब्दः प्रतिषधे, आडाभिमुख्ये, ख्या प्रकथने, प्रतीपमभिमुखं ख्यापनं प्राणातिपातस्य करोमि प्रत्याख्यामीति, अथवा शब्दप्रत्याचक्षे-संवृतात्मा साम्प्रतमनागतप्रतिषेधस्यादरेणाभिधानं करोमीत्यर्थः, अनेन व्रतार्थपरिज्ञानादिगुणयुक्त उपस्थापनाई || व्याख्या इत्येतदाह-उक्तं च-“पढिए० ॥१॥" इत्यादि, तदेतद्विशेषेणाभिधित्सुराह-से सुहुमं वेत्यादि, सशद्रो मागधदेशीप्रसिद्धः सू०३ अथशब्दार्थः, स चोपन्यासे, तद्यथा-'सूक्ष्म वा बादरं वा त्रसं वा स्थावरं वा, अत्र सूक्ष्मोऽल्पः परिगृह्यते, न तु सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्मः, तस्य कायेन व्यापादनासम्भवात् , बादरोऽपि स्थूरः, स चैकैको द्विधा-त्रसः स्थावरच, सूक्ष्मत्रसः-कुन्थ्वादिः, स्थावरो-वनस्पत्यादिः, बादरवसो गवादिः, स्थावरः पृथिव्यादिः, एतान् , 'नेव सयं पाणे अतिवाएज 'त्ति नैव स्वयं प्राणिनो व्यतिपातयामि, नैवान्यैः प्राणिनोऽतिपातयामि, प्राणिनोऽतिपातयतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि यावज्जीवमित्यादि पूर्ववत् , व्रतप्रतिप्रत्तिं निगमयन्नाह-प्रथमे भदन्त ! म० उप-सामीप्येन तत्परिणामापच्या स्थितः, इत आरभ्य सर्वस्मात्प्राणातिपाताद्विरमणमिति, भदन्त ! अनेन चादिमध्यावसानेषु गुरुमना| पृच्छय न किंचित्कर्तव्यं, कृतं च तस्मै निवेदनीयमेवं तदाराधितं भवति, एतदेवाह-सर्वस्मात्प्राणातिपाताद्विरमणमिति, महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्मात्प्राणातिपाताद्विरमणमिति । ३ । उक्तं च प्रथम महाव्रतं, इदानी द्वितीयमाह
अहावरे दोच्चे भंते ! महत्वए मुसावायाओ वेरमणं, सवं भंते! मुसावायं पच्चक्खामि, से
Jain Education Inter
For Private & Personel Use Only
W
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
द्वितीयतृतीयमहाव्रतस्वरूपम्
साधु० दशव० अ०४
॥३१॥
कोहा वा लोहा वा, भया वा हासा वा, नेव सयं मुसं वएज्जा, नेवन्नहिं मुसं वायाविज्जा, मुसं वयंतेवि अन्ने न समणुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं, न करेमि
न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं 2 वोसिरामि । दोच्चे भंते ! महत्वए उवढिओमि सबाओ मुसावायाओ वेरमणं २ । सू०४।
'अहावरे' इति, अथापरस्मिन् द्वितीये भदन्त ! महाव्रते मृषावादाद्विरमणं, सर्व भदन्त मृषावादं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् , तद्यथा-क्रोधाद्वा लोभाद्वा इत्यनेनाद्यन्तग्रहणात् मानमायापरिग्रहः, भयाद्वा हास्याद्वा इत्यनेन प्रेमद्वेषकलहाभ्याख्यानादिपरिग्रहः, नेव सयं मुसं वइजत्ति, नैवं स्वयं मृषा वदामि, नैवान्यैर्मृषा वादयामि, मृषा वदतोऽप्यन्यान समनुजानामीत्येतद् यावज्जीवमित्यादि च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । ४ । उक्तं द्वितीयं महाव्रतं, अधुना तृतीयमाह
अहावरे तच्चे भंते ! महत्वए अदिन्नादाणाओ वेरमणं, सत्वं भंते ! अदिनादाणं पञ्चक्खामि, से गामे वा नगरे वा रन्ने वा अप्पं वा बहं वा अणुं वा थलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा, | नेव सयं अदिन्नं गिण्हेजा नेवन्नेहिं अदिन्नं गेण्हावेज्जा अदिन्नं गिण्हतेऽवि अन्ने न समणुजाणामि,
जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं, वायाए कायेणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न
।।३१
For Private & Personel Use Only
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुर्यमहाव्रत
सुमति
स्वरूपम्
सू०५
श्री- | समणुजाणमि, तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । तच्चे भंते !
महत्वए उवट्टिओमि सवाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं ३ । सू०५। साधु
अथापरस्मिन् तृतीये मदन्त ! महाव्रते अदत्तादानाद्विरमणं, सर्व भदन्त ! अदत्तादानं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् , तद्यथादशवै०
EI ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा इत्यनेन क्षेत्रपरिग्रहः प्रसिद्धान्येतानि, तथा अल्पं वा बहु वा अणु वा स्थूलं वा, चित्तवद्वा अ०४
अचित्तवद्वा इत्यनेन तु द्रव्यपरिग्रहः, तत्र अल्पं -मूल्यत एरण्डकाष्ठादि बहु-वज्रादि, अणु--प्रमाणतो वज्रादि, स्थूलमेरण्ड॥३२॥ काष्ठादि, एतच्च चित्तवद्वा अचित्तवद्वेति--चेतनाचेतनमित्यर्थः, 'नेव सयं अदिन्नं गेण्हेज 'त्ति, नैव स्वयमदत्तं गृह्णामि |
नैवान्यैरदत्तं ग्राहयामि, अदत्तं गृह्णतोऽप्यन्यान्न समनुजानामीत्येद्यावजीवमित्यादि च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । ५ । उक्तं तृतीयं, महाव्रतमिदानी चतुर्थमाह
___अहावरे चउत्थे भंते ! महत्वए मेहुणाओ वेरमणं, सवं भंते ! मेहुणं पञ्चक्खामि, से दिवं IN वा माणुसं वा तिरिक्खजोणियं वा, नेव सयं मेहुणं सेविजा, नेवन्नेहिं मेहुणं सेवाविजा, मेहुणं
सेवंतेऽवि अन्ने न समणुजाणामि, जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं, न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं |
॥३२॥
For Private & Personel Use Only
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
सुमतिसाधु दशवै० अ०४
पश्चममहाव्रतस्वरूपम्
॥३३॥
वोसिरामि । चउत्थे भंते ! महत्वए उवढिओमि सवाओ मेहुणाओ वेरमणं ४ । सू० ६ ।
अहावरे इत्यादि, अथापरस्मिन् चतुर्थे भदन्त ! महाव्रते मैथुनादविरमणं, सर्व भदन्त ! मैथुनं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत , तद्यथा-दैवं वा मानुषं वा तैर्यग्योनं वा, अनेन द्रव्यपरिग्रहः, 'नेव सयं मेहुणं सेवेजा' नैव स्वयं मैथुन सेवे, न चान्यमैथुनं सेवयामि, मैथुन सेवमानानप्यन्यान्न समनुजानामीत्येतद्यावजीवमित्यादि च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । ६ । उक्तं चतुर्थ महाव्रतं, इदानीं पञ्चममाह
अहावरे पंचमे भंते ! महत्वए परिग्गहाओ वेरमणं, सवं भंते ! परिग्गहं पञ्चक्खामि, से अप्पं वा बहं वा, अणुं वा थलं वा, चित्तमंतं वा अचित्तमतं वा, नेव सयं परिग्गहं परिगेण्हिज्जा, नेवन्नहिं परिग्गहं परिगिहाविज्जा परिग्गडं परिगिण्हंतेवि अन्ने न समणुजाणेजा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कायेणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । पंचमे भंते! महत्वए उवट्रिओमि सबाओ परिग्गहाओ वेरमणं ५। सू०७।। अहावरे इत्यादि, अथापरस्मिन् पञ्चमे भदन्त ! महाव्रते परिग्रहाद्विरमणं, सर्व भदन्त ! परिग्रहं प्रत्याख्यामीति
॥३३॥
Jain Education Inteme
T
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री.
सुमति
साधु० दशवै०
अ० ४
॥ ३४ ॥
Jain Education Intern
पूर्ववत्, तद्यथा - अल्पं वेत्यादि अवयवव्याख्याऽपि पूर्ववदेव, 'नेव सयं परिग्गहं परिगेण्हेजा' नैव स्वयं परिग्रह परिगृह्णामि, नैवान्यैः परिग्रहं परिग्राहयामि, परिग्रहं परिगृहतोऽप्यन्यान्न समनुजानामीत्येतद्यावज्जीवमित्यादि च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । ७ । उक्तं पञ्चमं महाव्रतमधुना पष्ठं व्रतमाह
अहावरे छुट्टे भंते ! वए राईभोयणाओ वेरमणं, सवं भंते ! राईभोयणं पञ्चकखामि, से असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा, नेव सयं राई भुंजिजा, नेवन्नेहिं राई भुंजाविजा, राई वि अन्ने न समजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कायेणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । छट्ठे भंते ! वए उवट्टिओमि सब्बाओ राईभोयणाओ वेरमणं ६ । सू० ८ । इच्चेइयाइं पंच महवयाइं राइभोयणवेरमणछट्ठाई अत्तहियद्रुयाए उवसंपजित्ताणं विहरामि । सू०९।
अहावरे इत्यादि, अथापरस्मिन् षष्ठे व्रते रात्रिभोजनाद्विरमणं, सर्वं भदन्त ! रात्रिभोजनं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत्, तद्यथा-अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा, अश्यत इति अशनं-ओदनादि, पीयत इति पानं-मुद्वी कापानमित्यादि, खाद्यत इति खाद्यं खर्जूरादि, स्वाद्यत इति स्वाद्यं तांबूलादि, 'नेव सयं राई भुंजिज्जा' नैव स्वयं रात्रौ मुझे, नैवान्यै रात्रौ भोजयामि, रात्रौ भुञ्जानानप्यन्यान्नैव समनुजानामीत्येतद्यावज्जीवमित्यादि च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । एतच
पछुत्रत
स्वरूपम्
सू० ८, ९
॥ ३४ ॥
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
सुमति
साधु०
दशवै ०
अ० ४
।। ३५ ।।
Jain Education Interna
रात्रिभोजनविरमणं प्रथमचरमतीर्थकर तीर्थयोः ऋजुजडवक्रजडपुरुषापेक्षया मूलगुणत्वख्यापनार्थं पंचममहात्रतोपरि पठितं, मध्यमतीर्थकर तीर्थेषु पुनः ऋजुप्रज्ञपुरुषापेक्षयोत्तरगुणवर्ग इति । ८ । समस्तव्रताम्युपगमख्यापनायाह-' इच्चेयाई पंचमह व्बयाई' इत्यादि, इत्येतानि अनन्तरोदितानि पञ्च महाव्रतानि रात्रिभोजनविरमणषष्ठानि, किमित्याह-आत्महितार्थे आत्महितो - मोक्षस्तदर्थं, अनेनान्यार्थं तच्चतो व्रताभावमाह तदभिलाषानुमत्या हिंसादावनुमत्यादिभावात्, उपसम्पद्य-सामीप्येनाङ्गीकृत्यव्रतानि 'विहरामि' सुसाधुविहारेण तदभावेऽङ्गीकृतानामपि व्रतानामभावात्, दोषाश्च हिंसादिकर्तॄणामल्पायुजिह्वाच्छेददारिद्र्यपण्डकदुःखितत्वादयो वाच्या इति । ९ । उक्तचारित्रधर्म्मः साम्प्रतं यतनाया अवसरः, तथा चाह
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरय पडिहयपच्चक्खाय पावकम्मे दिया वा राओ वा एओ वा परिसागओ वा सुते वा जागरमाणे वा, से पुढविं वा भित्तं वा सिलं वा लेलुं वा, ससरकुखं वा कार्य ससरकुखं वा वत्थं, हत्थेण वा, पाएण वा, कट्ठेण वा, किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सिलागाए वा, सिलागहत्थेण वा न आलिहिज्जा, न विलिहिज्जा, न घट्टिजा, न भिंदिजा, अन्नं न आलिहाविज्जा, न विलिहाविज्जा, न घट्टाविज्जा, न भिंदाविज्जा, अन्नं आलिहंतं वा विलितं वा घ वा भिदंतं वा न समणुजाणेखा, जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कायेणं न करेमि
महाव्रतयतना सू० १०
।। ३५ ।।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसुमति
साधु
दशवे अ०४
न कारवेमि करतपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं | महाव्रतवोसिरामि । सू० १०।
यतना
सू०१० से भिक्खू वा इत्यादि, से इति निर्देशे स योऽसौ महाव्रतयुक्तो, 'भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा'-आरम्भत्यागाद्धर्मकायपालनाय भिक्षणशीलो भिक्षुः, एवं भिक्षुक्यपि, पुरुषोत्तमो धर्म इति भिक्षुर्विशेष्यते, तद्विशेषणानि च भिक्षुक्या अपि द्रष्टव्यानीत्याह-'संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा' तत्र सामस्त्येन यतः संयत:-सप्तदशप्रकारसंयमोपेतो विविधमनेकधा द्वादशविधे तपसि रतो विरतः, प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मेति, प्रतिहतं-स्थितिहासतो ग्रंथिभेदेन प्रत्याख्यातं-हेस्वभावत: पुनर्वृद्ध्यभावेन पापं कर्म-ज्ञानावरणादि येन स तथाविधः, दिवा वा रात्रौ वा एको वा परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा, रात्रौ सुप्तो दिवा जाग्रत , कारणिक एका, शेषकालं परिषद्गतः, इदं वक्ष्यमाणं न कुर्यात् । ' से पुढविं वा' इत्यादि, तद्यथा-पृथिवीं वा भित्तिं वा शिला वा लेष्टु( लोष्टं) वा, तत्र पृथिवी-लोष्टादिरहिता, भित्ति:-नदीतटी, शिलाविशालः पाषाणः, लेष्टुः(लोष्टः) प्रसिद्धा, सह रजसा-अरण्यपांशुलक्षणेन वर्तते इति सरजस्कं वा 'कायं' कायमिति देह, सरजस्कं वा वस्त्रं-चोलपट्टकादि, एकग्रहणात्तज्जातीयग्रहणमिति पात्रादिपरिग्रहः, एतत्किमित्याह-हस्तेन वा पादेन वा काष्ठेन वा किलिओन वा-क्षुद्रकाष्ठरूपेण अङ्गुल्या वा शलाकया वा-अयःशलाकादिरूपया शलाकाहस्तेन वा-शलाकासंघातरूपेण नालिहितेति नालिखेत न विलिखेत् न घट्टयेत् न भिन्द्यात् , तत्रेषत् सकृद्वाऽऽलेखन, निरन्तरमनेकशो वाला ॥३६॥
Jan Education Intern
For Private
Personel Use Only
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसुमतिसाधु ० दशवे ०
अ० ४
॥ ३७ ॥
Jain Education Intern
विलि (ले) खनं, घट्टनं - चालनं, मेदो विदारणं, एतत् स्वयं न कुर्यात्, तथाऽन्यमन्येन वा नालेखयेत्, न घट्टयेन भेदयेत्, तथाऽन्यं स्वत एव आलिखन्तं वा विलिखन्तं वा घट्टयन्तं वा भिन्दन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् । १० । तथासे भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपञ्चकखायपात्रकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुते वा जागरमाणे वा से उदगं वा ओसं वा हिमं वा महियं वा करगं वा हरतणुगं वा सुद्धोदगं वा उदउलं वा कार्य उदउल्लं वा वत्थं ससिणिद्धं वा कार्य सिद्धिं वा वत्थं न आमुसिज्जा न संफुसिज्जा न आवीलिजा न पवीलिजा न अक्खोडिज्जा न पक्खोडिज्जा न आयाविज्जा न पयाविज्जा अन्नं न आमुसाविज्जा न संफुसाविज्जा न आवीलाविज्जा न पवीलाविज्जा न अक्खोडाविज्जा न पकूखोडाविज्जा न आयाविज्जा न पयाविज्जा अन्नं आमुतं वा संसंतं वा आवीलंतं वा पवीलंतं वा अक्खोडंतं वा पकखोडंतं वा आयावतं वा पयातं वा न समणुजाणेजा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणणं वायाए कायेणं न करेमि न कारवेम करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं
४
अष्काय
यतना सू० ११
॥ ३७ ॥
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
अष्का
सुमति
यतना
साधु दशवे. अ०४
॥ ३८॥
| बोसिरसमि । सू०११।
से भिक्खू बा इत्यादि सवजागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव, से उदगं बेत्यादि, तपथा-उदकं वा अवश्यायं वा हिमं वा महिकां वा करकं वा हरतनुं वा शुद्धोदकं वा, तत्रोदकं-शिरापानीयं, अवश्याय:-त्रेहा, हिमं-स्त्यानोदकं, महिकाधूमरिका, करकः-कठिनोदकरूपः, हरतनुर्भुवमुद्भिद्य तृणाग्रादिषु भवति, शुद्धोदकं-अन्तरिक्षोदकं, तथोदकाद्रं वा कार्य उहकार्द्र वा वस्त्रं, उदकार्द्रता चेह गलद्विन्दुतुषाराधनन्तरोदितोदकमेदसन्मिश्रता, तथा सस्निग्धं वा कार्य, सस्निग्धं वा वस्त्रं, अत्र स्नेहनं स्निग्धमिति, सह निग्धेन वर्चत इति सखिग्धः, सस्निग्धता चेह विन्दुरहितानन्तरोदितोदकमेदसन्मिश्रता, एतत्किमित्याह-' नामुसेज 'त्ति-नामृषेत् न संस्पृशेत् नापीडयेन प्रपीडयेत् नास्फोटयेत् न प्रस्फोटयेत् नातापयेत् न प्रतापयेत् , तत्र सवदीपद्वा स्पर्शनमामर्षणं अतोऽन्यत्संस्पर्शनं, एवं सदीषद्वा पीडनमापीडनं अतोऽन्यत्प्रपीडनं, एवं सकृदीषद्वास्फोटनमास्फोटनमतोऽन्यत्प्रस्फोटनं, एवं सदीपद्वा तापनमातापनं विपरीतं प्रतापनं, एतत् स्वयं न कुर्यात् , तथाऽन्यमन्येन वा नामर्षयेत् न संस्पर्शयेत् नापीडयेत् न प्रपीडयेत् नास्फोटयेत् न प्रस्फोटयेन् नातापयेत् न प्रतापयेत् , तथाऽन्यं स्वत एवामृषन्तं वा संस्पृशन्तं वा आपीडयन्तं वा प्रपीडयन्तं वा आस्फोटयन्तं वा प्रस्फोटयन्तं वा आतापयन्तं वा प्रतापयन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् । ११ ।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा
॥३८॥
For Private & Personel Use Only
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसुमति
साधु०
दशवै०
अ० ४
॥ ३९ ॥
Jain Education Intern
एगओ वा परिसागओ वा सुते वा जागरमाणे वा से अगणिं वा इंगालं वा मुम्मुरं वा अचिं वा जालं वा अलायं वा सुद्धागणिं वा उक्कं वा न उंजेजा न घट्टेजा न उज्जालेज्जा न निघावेजा अन्नं न उंजावेजा न घट्टावेजा न उज्जालावेजा न निवावेज्जा अनं उंजंतं वा घट्टतं वा उज्जालंतं वा निवावतं वा न समणुजाणेजा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कायेणं न करेमि न कारवेम करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि | सू० १२ ।
से भिक्खू वा इत्यादि, यावज्जागरमाणे वति पूर्ववदेव, 'से अगणि वा' इत्यादि, तद्यथा - अर्थ वा अङ्गारं वारं वा अर्थिर्वा ज्वालां वा अलातं वा शुद्धानिं वा उल्कां वा, इहायस्पिण्डानुगतोऽग्निः, ज्वालारहितोऽङ्गारः, विरलाशिकणं भस्म मुर्मुरः, मूलानिविच्छिन्ना ज्वाला अर्चिः, प्रतिबद्धा ज्वाला, अलातं- उल्मुकं, निरिन्धनः- शुद्धोऽग्निः, उल्का - गगनाग्निः, एतत् किमित्याह - 'न उंजिओ' नोत्सिश्चयेत्, न घट्टयेत्, नोजवालायेत्, न निर्वापयेत्, तत्रोञ्जनंउत्सेचनं, घट्टनं - सजातीयादिना चालनं, उज्वालनं व्यजनादिभिः वृद्ध्यापादनं, निर्वापणं-विध्यापनं, एतत् स्वयं न कुर्यात्तथाऽन्यमन्येन वा नोत्सेचयेदित्यादि, तथाऽन्यं स्वत उत्सिञ्श्चयन्तं वा घट्टयन्तं वा उज्ज्वलयन्तं वा निर्वापयन्तं वा
तेजस्काय
यतना सू० १२
॥ ३९ ॥
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसुमति
साधु०
दश०
अ० ४
॥ ४० ॥
Jain Education Intern
न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् । १२ ।
सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरय पडिहयपञ्चक्खायपात्रकम्मे दिया वा राओ वाओ वापरसागओ वा सुत्ने वा जागरमाणे वा से सिएण वा विहुणेण वा तालियंटेण वा पत्तेण वा पतभंगेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा पिहुणेण वा पिहुणहत्थेण वा वेलेण वा चेकन्नेण वाहत्थेण वा मुद्देण वा अप्पणो वा कार्य बाहिरं वावि पोग्गलं न फुमिज्जा न वीएजा अन्नं न फुमाविज्जा न वीयाविज्जा अन्नं फुमंतं वा वीयंतं वा न समणुजाणेजा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कायेणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पक्किमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । सू० १३ ।
'से भिक्खू वा' इत्यादि यावज्जागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव से सिएण वे 'त्यादि, तद्यथा-सितेन वा विधुवनेन वातालवृन्तेन वा पत्रेण वा शाखया वा शाखाभङ्गेन वा पेहुणेन वा पेहुणहस्तेन वा चेलेन वा चेलकर्णेन वा इस्तेन वा मुखेन वा, इह सितं चामरं, विधुवनं व्यजनं, तालवृन्तं तदेव मध्यग्रहणच्छिद्रं द्विपुढं, पत्र-पद्मिनीपत्रादि, शाखा - वृक्षडाल शाखाभङ्गं - तदेकदेशः, पेहुणं - मयूरादिपिच्छं, पेहुणहस्तकः -- तत्समूहः, चेलं वस्त्रं, चेलकर्णः - तदेकदेशः, हस्तमुखे- प्रतीते,
वायुकाययतना
सू० १३
॥ ४० ॥
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु दशवै०
वनस्पति
यतना सू०१४
श्री- एभिः किमित्याह-आत्मनो वा कार्य-स्वदेहमित्यर्थः, बाह्यं वा पुद्गलं-उष्णौदनादि, एतत् किमित्याह-'न फुमेजा' इत्यादि, Nन फूत्कुर्यात् न व्यजेत् , तत्र फूत्करणं-मुखेन धमनं, व्यजनं चमरादिना वायुकरणम् , एतत् स्वयं न कुर्यात् , तथाऽन्यमन्येन वा न फूत्कारयेत् न व्याजयेत् , तथाऽन्यं स्वत फुत्कुर्वन्तं वा व्यजन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् । १३ ।
से भिक्खूवा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ अ०४ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से बीएसु वा बीयपइटेसु वा रूढेसु वा रूढपइटेसु ॥४१॥ वा जाएसु वा जायपइटेसु वा हरिएसु वा हरियपइट्ठेसु वा छिन्नेसु वा छिन्नपइटेसु वा सञ्चित्तेसु
वा सञ्चित्तकोलपडिनिस्सिएसु वा न गच्छेज्जा न चिट्रिज्जा न निसीइज्जा न तुयहिजा अन्नं न गच्छाविजा न चिट्ठाविज्जा न निसीयाविजा न तुयहाविज्जा अन्नं गच्छंतं वा चिटुंतं वा निसीयतं वा तुयहतं वा न समणुजाणेजा जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कायेणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । सू० १४ ।
से भिक्खू वा 'इत्यादि यावज्जागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव, ‘से बीएसु वे 'त्यादि, तद्यथा-बीजेषु वा
॥४१॥
Jan Education Interes
For Private Personel Use Only
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
सुमतिसाधु दशवै० अ०४
॥४२॥
बीजप्रतिष्ठितेषु वा रूढेषु वा रूढप्रतिष्ठितेषु वा जातेषु वा जातप्रतिष्ठितेषु वा हरितेषु चा हरितप्रतिष्ठितेषु
वासजीवछिन्नेषु वा छिन्नप्रतिष्ठितेषु वा सचित्तेषु वा सचित्तकोलप्रतिनिश्रितेषु वा, इह बीज-शाल्यादि. तत्प्रतिष्ठितमासन( हार)- यतना शयनादि गृह्यते, एवं सर्वत्र वेदितव्यं, रूढानि-स्फुटितबीजानि, तत्प्रतिष्ठितानि, जातानि-स्तम्बीभूतानि, हरितानि- सू०१५ दादीनि, छिन्नानि-प्रहरणविशेषपरश्वादिभिवृक्षात् पृथक् स्थापितानि, आर्द्राण्यपरिणतानि तदङ्गानि गृह्यन्ते सचित्तानिअण्डकानि कोलो-घुणस्तत्प्रतिनिश्रितानि-तदुपरिवर्तीनि दार्वादीनि गृह्यन्ते, एतेषु किमित्याह-न गच्छेजा-न गच्छेत् न तिष्ठेत् न निषीदेत् न त्वग्वतयेत् , तत्र गमनमन्यतोऽन्यत्र, स्थानमेकत्रैव, निषीदनं-उपवेशनं, त्वग्व-स्वपनं, एतत् स्वयं न कुर्यात् , तथाऽन्यमेतेषु न गमयेत् न स्थापयेत् न निषीदयेत् न त्वग्वत्र्तयेत्-न स्वापयेत् , तथान्यं स्वत एव गच्छन्तं वा तिष्ठन्तं वा निषीदन्तं वा स्वपन्तं वा न समनुजानीयादिति पूर्ववत् । १४ ।।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से कीडं वा पयंगं वा कुंथु वा पिपीलियं वा हत्थंसि वा पायंसि वा बाहंसि वा ऊरंसि वा उदरंसि वा सीसंसि वा वत्थंसि वा पडिग्गहसि वा कंबलंसि वा पायपुंछणसि वा रयहरणंसि वा गोच्छगंसि वा उंडगंसि वा दंडगंसि वा पीढगंसि वा फलगंसि वा सेजंसि वा संथारगंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारे उवगरणजाए तओ संजयामेव
॥४२॥
Jan Education Intema
For Private
Personal Use Only
Nawjainelibrary.org
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
प्रसजीव
यतना सू०१५
सुमतिसाधु० दशवे० अ०४
॥४३॥
पडिलेहिय २ पमन्जिय २ एगंतमवणेजा नो णं संघायमावजेजा। सू० १५ ।
सेभिक्ख वा इत्यादि यावजागरमाणे वत्ति पूर्ववत्, स कोटं वा पतङ्ग वा कुन्थु वा पिपीलिकां वा, किमित्याहहस्ते वा पाद वा बाहो वा ऊरुणि वा उदरे वा शिरसि वा वस्ने वा पात्रे वा रजोहरणे वा कंवले वा गोच्छे वा उन्दके वा दण्डके वा पीठके वा फलके वा शय्यायां वा संस्तारके वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे साधुक्रियोपयोगिन्यु पकरणजाते कीटादिरूपं त्रसं कथश्चिदापतितं मन्तं संयत एव सन् प्रयत्नेन वा प्रत्युपेक्ष्य प्रत्युपेक्ष्य-पौनःपुन्येन सम्यक् , प्रमृज्य प्रमृज्य-पौनःपुन्येनैव सम्यक, किमित्याह-एकान्ते-तस्यानुपघातके स्थाने अपनयेत्-परित्यजेत् , ' नैनं त्रसं संघातमापादयेत् , नैनं वसं संघात-परस्परगात्रसंस्पर्शपीडारूपमापादयेत्-प्रापयेत्, अनेन परितापनादिप्रतिषेध उक्तो वेदितव्यः, एकग्रहणे तआतीयग्रहणादन्यकारणानुमतिप्रतिषेधश्च, शेषमत्र प्रकटार्थमेव, नवरमुन्दकं-स्थंडिलं, शय्यासंस्तारिका वसतिर्वा । १५ । इत्युक्ता यतना, गतश्चतुर्थोऽर्थाधिकारः । अजयं चरमाणो य(उ), पाणभूयाइं हिंसइ । बंधई पावयं कम्म. तं से होड कडयंफलं ॥३२॥ अजयं चिट्ठमाणो य, पाणभूयाइं हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयंफलं ॥ ३३ ॥
अजयं आसमाणो य, पाणभूया०। बंधई०, तं से० ॥ ३४ ॥ अजयं सयमाणो य, पाण० । बंधई०, तं से हो० ॥ ३५ ॥
1॥४३॥
Jain Education Intem
For Private
Personel Use Only
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
उपदेश | गा०४०
सुमति
साघु०
दशवे
अ०४
॥४४॥
अजयं भुंजमाणो य, पाणभू०। बंधई०, तं से० ॥ ३६ ॥
अजयं भासमाणो य, पाणभू०। बंधई०, तं से० ॥ ३७॥ कहं चरे ? कह चिट्रे?, कहमासे ? कहं सए ? । कहं तो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ? ॥ ३८ ॥ जयं चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए । जयं भुंजंतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ ॥ ३९ ॥ सबभूयप्पभूयस्स, सम्मं भूयाइं पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधइ ॥ ४०॥
सांप्रतं उपदेशाख्यः पञ्चम उच्यते-अजयमित्यादि अयतं चरनयतं गच्छन्-इर्यासमितिमुल्लंध्य, किमित्याह-'प्राणि भृतानि हिनस्ति', प्राणिनो-द्वीन्द्रियादयो भूतानि-एकेन्द्रियास्तानि हिनस्ति-प्रमादानाभोगाभ्यां व्यापादयतीतिभावः, | तानि च हिंसन् 'बध्नाति पापं कर्म' अकुशलपरिणामादादत्ते क्लिष्टं ज्ञानावरणीयादि, 'तत् से भवति कटुकफलं' तत्-पापं कर्म, से तस्यायतचारिणो भवति, कटुकफलमिति अनुस्वारोऽलाक्षणिकः अशुभफलं भवति, मोहादिहेतुतया विपाकदारुणमित्यर्थः ॥ ३२ ॥ एवमयतं तिष्ठन् ऊर्ध्वस्थानेनासमाहितो हस्तपादादि विक्षिपन् , शेषं पूर्ववत् ।। ३३ ॥ एवमयतमासीनोनिषण्णतयाऽनुपयुक्त आकुश्चनादिभावेन, शेषं पूर्ववत् ।। ३४ ।। एवमयतं स्वपन्-असमाहितो दिवा प्रकामशय्यादिना(वा), शेषं पूर्ववत् ।। ३५ ।। एवमयतं भुञ्जानो-निष्प्रयोजनं प्रणीतं काकशृगालभक्षितादिना(वा), शेषं पूर्ववत् ॥ ३६।। एवमयतं भाषमाणो, गृहस्थभाषया निठुरमन्तरभाषादिना(वा), शेषं पूर्ववत् ।। ३७ ।। अत्राह-यद्येवं पापकर्मबन्धस्ततः 'कहं चरे
॥४४॥
A
Jain Education Intema
For Private & Personel Use Only
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसुमति
साधु०
दशवे०
अ० ४
॥ ४५ ॥
इत्यादि कथं केन प्रकारेण चरेत् १, कथं तिष्ठेत् ?, कथमासीत १, कथं स्वपेत् १, कथं भुञ्जानो भाषमाणः पापं कर्म न नातीति १ ॥ ३८ ॥ आचार्य आह-' जयं चरे ' इत्यादि, यतं चरेत् सूत्रोपदेशेन ईर्यादिसमितः, यतं तिष्ठेत् समाहितो हस्तपादाद्यविक्षेपेण, यतमासीत उपयुक्तमाकुञ्चनाद्यकरणेन, यतं स्वपेत् समाहितो रात्रौ प्रकामशय्यादिपरिहारेण यतं भुञ्जान:- सप्रयोजनमप्रणीतं प्रतरसिंह भक्षितादिना एवं यतं भाषमाणः साधुभाषया मृदु कालप्राप्तं च पापं कर्म - क्लिष्टं अकुशलानुबन्धि ज्ञानावरणादि न बध्नाति-नादत्ते, निराश्रवत्वाद्विहितानुष्ठानपरत्वादिति ॥ ३९ ॥ किं च - ' सव्वभूय' इत्यादि, सर्वभूतेष्वात्मभूतः - सर्वभूतात्मभूतो य आत्मवत् सर्वभूतानि पश्यतीत्यर्थः, तस्यैवं सम्यग् - वीतरागोक्तेन विधिना भूतानि - पृथिव्यादीनि पश्यतः सतः पिहिताश्रवस्य - स्थगितप्राणातिपाताद्याश्रवस्य दान्तस्य- इन्द्रियनो इन्द्रियदमेन पापं कर्म्म नबनाति, तस्य पापकर्मबन्धो न भवतीत्यर्थः ॥ ४० ॥ एवं सति सर्वभूतदयावतः पापकर्मबन्धो न भवति, ततश्च सर्वात्मना दयायामेव यतितव्यं, अलं ज्ञानाभ्यासेनापि ( नेति ) मा भूदव्युत्पन्नविनेयमतिविभ्रम इति तदपोहायाहपढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सब संजए। अन्नाणी किं काही ?, किंवा नाही छेयपावगं ? ॥४१॥ सुच्चा जाणइ कल्लाणं, सुच्चा जाणइ पावगं । उभयंपि जाणइ सुच्चा, जं छेयं तं समायरे ॥ ४२ ॥ जो जीवेवि न याणेइ, अजीवेवि न याणेइ । जीवाजीवे अयाणंतो, कह सो नाहीइ संयमं ? ॥४३॥ जो जीवेवि वियाणेइ, अजीवे वि वियाणेइ । जीवाजीवे वियाणंतो, सो हु नाहीइ संयमं ॥ ४४ ॥
उपदेशः गा० ४०
॥ ४५ ॥
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
सुमति
साधु०
दशवै०
अ० ४
।। ४६ ।।
Jain Education Interna
'पडलं लाफ' मिति, प्रथमं -मादी ज्ञानं जीवस्वरूपसंरक्षणोपाय फलविषयं 'ततः' तथाविधज्ञानयमनन्तरं दया-संयमः, तदेकान्तोपादेयतया भावतस्तत्प्रवृत्तेः एवं अनेन प्रकारेण ज्ञानपूर्वक क्रियाप्रतिपत्तिरूपेण तिष्ठति - आस्ते, सर्वसंयतःसर्वप्रव्रजितः, यः पुनरज्ञानी-साध्योपायफल परिज्ञानविकलः स किं करिष्यति १, सर्वत्रान्धतुल्यत्वात् प्रवृत्तिनिवृत्तिनिमित्ताभावात्, किंवा कुर्वन् ज्ञास्यति छेकं निपुणं हितं कालोचितं, पापकं वा - अतो विपरीतमिति, ततश्च तत्करणं भावतोsकरणमेव, समग्रनिमित्ताभावात्, अन्धप्रदीप्तपलायनघुणाक्षर करणवत्, अत एवान्यत्राप्युक्तं - " गीतत्थो य विहारो० ॥ १ ॥ " इत्यादि, अतो ज्ञानाभ्यासः कार्यः ॥ ४१ ॥ तथा चाह - 'सुच्चा०' इति श्रुत्वा - आकर्ण्य तत्साधनस्वरूपविपाकं जानाति - बुद्ध्यते कल्याणं- कल्यो - मोक्षस्तमणति - नयतीति कल्याणं - दयाख्यं संयमस्वरूपं श्रुत्वा जानाति पापं पापकर्म्म असंयमस्वरूपं, उभयमपि संयमासंयमस्वरूपं श्रावकोपयोगि जानाति श्रुत्वा, नाश्रुत्वा, यतश्चैवमत इत्थं विज्ञाय यच्छेकं निपुणं हितं कालोचितं, तत् समाचरेत् तत्कुर्यादित्यर्थः ॥ ४२ ॥ उक्तमेवार्थ स्पष्टयन्नाह - 'जो जीवे 'त्यादि, यो जीवानपि पृथिवीकायिकादि मेदभिन्नान् न जानाति 'अजीवानपि संयमोपघातिनो मद्यहिरण्यादीन् न जानाति, एवं जीवाजीवानजानन् कथमसौ ज्ञास्यति संयमं । तद्विषयं तद्विषयाज्ञानादिति भावः ॥ ४३ ॥ ततश्च ' जो जीवे ' त्यादि, यो जीवानपि विजानाति अजीवानपि विजानाति, जीवाजीवान् विजानन् स एव ज्ञास्यति संयममिति ॥ ४४ ॥ प्रतिपादितः पञ्चम उपदेशार्थाधिकारः । जया जीवमजीवे अ, दोऽवि एए विआणइ । तया गइं बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ ॥ ४५ ॥
उपदेशः
गा० ४४
॥ ४६ ॥
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मफलम् गा०५६
सुमति
ICI जया गइ बहुविहं, सबजीवाण जाणइ । तया पुन्नं च पावं च, बंधं मुक्खं च जाणइ ॥ ४६ ॥
जया पुन्नं च पावं च, बंधं मुक्खं च जाणइ। तया निविदए भोए, जे दिवे जे य माणुसे॥४७॥ साधु
जया निविंदए भोए, जे दिवे जे य माणुसे । तया चयइ संजोगं, सब्भितरबाहिरं ॥ ४८ ॥ दशवै० अ०४
जया चयइ संयोगं, सभितरबाहिरं । तया मुंडे भवित्ता णं, पवइए अणगारियं ॥ ४९ ॥
जया मुंडे भवित्ता णं, पवइए अणगारियं । तया संवरमुकिलु, धम्म फासे अणुत्तरं ॥ ५० ॥ ॥४७॥
जया संवरमुक्टुिं, धम्मं फासे अणुत्तरं । तया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसंकडं ॥ ५१ ॥ जया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलसंकडं। तया सबत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छह ॥ ५२ ॥ जया सवत्तगं नाणं, देसणं चाभिगच्छइ । तया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली ॥ ५३ ॥ जया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली। तया जोगे निलंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ ॥ ५४॥ जया जोगे निलंभित्ता, सेलेसिं पडिवजइ । तया कम्म खवित्ता णं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ ॥५५॥ जया कम्मं खवित्ता णं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ। तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हवइ सासओ॥ ५६ ॥
४७॥
For Private & Personel Use Only
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री.
धर्मफलम्
सुमति
गा० ५६
साधु दशवै० अ०४
॥४८॥
साम्प्रतं धर्मफलमाह-'जया 'इत्यादि यदा-यस्मिन् काले जीवान् अजीवांश्च द्वावप्येतौ विजानाति-विविधं जानाति तदा-तस्मिन् काले गति-नरकगत्यादिरूपां बहुविधां-स्वपरगतभेदेनानेकप्रकारां तां सर्वजीवानां जानाति यथावस्थितजीवाजीवपरिज्ञानमन्तरेण गतिपरिज्ञानाभावात् ॥ ४५ ॥ उत्तरोत्तर फलवृद्धिमाह-यदा गतिं बहुविधां स्वपरगतभेदेनानेकप्रकारां सर्वजीवानां जानाति. तदा पुण्यं च पापं च-बहुविधगतिनिबन्धनं, तथा बन्ध-जीवकर्मयोगसुखदुःखलक्षणं, मोक्षं-तद्वियोगस्वरूपावस्थानलक्षणं जानाति ॥४६।। 'जया'इत्यादि, यदा पुण्यं च पापं च पन्धं मोक्षं च जानाति तदा निर्विन्ते-मोहाभावात् सम्यग्विचारयत्यसारदुःखरूपतया भोगान्-शब्दादीन यान् दिव्यान् यांश्च मानुषान् , शेषास्तु वस्तुतो भोगा एव न भवन्ति ।। ४७ ॥ 'जया' इत्यादि, यदा निर्विन्ते भोगान् यान् दिव्यान् यांश्च मानुषान् तदा त्यजति संयोग-संबन्धं, द्रव्यतो भावतः साभ्यन्तरवाह्य-क्रोधादिहिरण्यादिसम्बन्धमित्यर्थः | ॥४८॥ 'जया' इत्यादि, यदा त्यजति संयोगं साभ्यन्तरबाह्यं तदा मुण्डो भूत्वा द्रव्यतो भावतश्च प्रव्रजति-प्रकर्षण बजत्यपवर्ग प्रत्यनगारं द्रव्यतो भावतश्चाविद्यमानागारमितिभावः ।। ४९ ॥ 'जया' इत्यादि, यदा मुण्डो भृत्वा प्रव्रजत्यनगारितां तदा संवरमुक्किट्ठति प्राकृतशैल्या उत्कृष्टसंवरं धर्म-सर्वप्राणातिपातादिविनिवृत्तिरूपं चारित्रधर्ममित्यर्थः, स्पृश-N त्यनुत्तरं-सम्यगासेवत इत्यर्थः ॥ ५० ॥ 'जया' इत्यादि, यदोत्कृष्टसंवरं धर्म स्पृशत्यनुत्तरं तदा धुनोति-अनेकार्थतया पातयति कर्मरजः-कमैवात्मरञ्जनाद्रज इव रजः, किंविशिष्टमित्याह-अबोधिकलुषकृतं अबोधिकलुषेण मिथ्यादृष्टिनोपात्तमित्यर्थः ॥ ५१ ॥ 'जया' इत्यादि, यदा धुनोति कर्मरजः अबोधिकलुषकृतं तदा सर्वत्रगं ज्ञानं अशेषज्ञेयविषयं
त्यादि, यदाति संयोग संबन्ध, २७ ॥ जयालरूपतया भोगा
Tal॥४८॥
Jain Education Intera
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्म
सुमतिसाधु दशव० अ०४
फलम् गा०५६
॥४९॥
दर्शनं चाशेषदृश्यविषयम् अधिगच्छत्यावरणाभावादाधिक्येन प्राप्नोतीत्यर्थः॥५२॥ 'जया' इत्यादि, यदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं चाधिगच्छति तदा लोक-चतुर्दशरज्वात्मकं अलोकं चानन्तं जिनो जानाति केवली, लोकालोको च सर्व नान्यतरमेवेत्यर्थः ॥ ५३॥ 'जया' इत्यादि, यदा लोकमलोकं च जिनो जानाति केवली तदोचितसमयेन योगान् निरुद्धय मनो. योगादीन शैलेशी प्रतिपद्यते, भवोपग्राहिकशिक्षयाय ॥ ५४॥ 'जया' इत्यादि, यदा योगानिरुत्य शैलेशी प्रतिपद्यते भवोपग्राहिकाँशक्षयाय, तदा कर्म क्षपयित्वा भवोपग्राह्यपि सिद्धिं गच्छति लोकान्तक्षेत्ररूपां नीरजा:-सकल. कर्मरजोविप्रमुक्तः ॥ ५५ ॥ 'जया' इत्यादि,-यदा कर्म क्षपयित्वा सिद्धिं गच्छति नीरजास्तदा लोकमस्तकस्थः त्रैलोक्योपरिवर्ती सिद्धो भवति 'शाश्वतः कर्मबीजाभावात् अनुत्पत्तिधर्मेति भावः ।। ५६ ॥ उक्तो धर्मफलाख्यः षष्ठोऽधिकारः।
सुहसायगस्स समणस्स, सायाउलगस्स निगामसाइस्स । उच्छोलणापहोअस्स, दुलहा सुगई तारिसगस्स ॥ ५७॥ तवोगुणपहाणस्स, उज्जुमइ खंतिसंयमरयस्स । परीसहे जिणंतस्स, सुलहा सुगई तारिसगस्स ॥ ५८॥
पेच्छाविते पयाया, खिप्पं गच्छति अमरभवणाई। १ नैषा गाथा विवृता।
IGI॥४९॥
For Private Personal use only
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसुमति
साधु० दशवै०
अ० ४
॥ ५० ॥
Jain Education Interna
जेसिं पिओ तवो संजमो य, खंती अ बंभचेरं च ॥ ( प्र० १) ॥ इच्चेयं छज्जीवणियं, सम्मद्दिट्ठी सया जए ।
दुलहं लभित्तु सामन्नं, कम्मुणा न विराहिज्जासि ॥ ५९ ॥ तिबेमि इति छज्जीवणियानाम चउत्थं अज्झयणं समन्तं ॥ ४ ॥
साम्प्रतमिदं धर्म्मफलं यस्य दुर्लभं तमभिधित्सुराह - 'सुहसा यगस्से' त्ति सुखास्वादकस्य - अभिष्वङ्गेण प्राप्तसुखोपभोक्तुः श्रमणस्य द्रव्यप्रव्रजितस्य साताकुलस्य भावि सुखार्थं व्याक्षिप्तचित्तस्य निकामशायिनः सूत्रार्थवेला मप्युल्लंघ्य शयानस्यो च्छोलनाप्रधाविनः उच्छोलन योदकायतनया प्रकर्षेण धावति - पादादिशुद्धिं करोति यः स तथाविधस्तस्य किमित्याह-दुर्लभादुष्प्रापा सुगतिः - सिद्धिपदपर्यवसाना तादृशस्य भगवदाज्ञालोपकारिण इति गाथार्थः || ५७॥ इदानीं धर्म्मफलं यस्य सुलभं तमाह - 'तवोगुण' इत्यादि, तपोगुणप्रधानस्य षष्ठाष्टमादितपोगुण (धन) वतः ऋजुमतेर्मार्गप्रवृत्तबुद्धेः क्षान्तिसंयमरतस्य - क्षान्तिप्रधान संयमासेविन इत्यर्थः । परीषहान् क्षुत्पिपासादीन् जयतः - अभिभवतः सुलभा सुगतिः-उक्तलक्षणा तादृशस्य भगवदाज्ञाकारिण इति गाथार्थः || ५८ ।। महार्था षड्जीवनिकायिकेति विधिनोपसंहरन्नाह - 'इच्चेय' मित्यादि, इत्येतां षड्जीवनिकायिकामधिकृताध्ययनप्रतिपादितार्थरूपां न विराधयेदितियोगः । सम्यग्दृष्टिः- जीवस्तत्र श्रद्धानवान् सदा यतः - सर्वकालं प्रयत्नपरः सन् किमित्याह - ' दुर्लभं लब्ध्वा श्रामण्यं ' दुष्प्राप्यं प्राप्य श्रमणभावं - पद्जीव
धर्मफलस्य दुर्लभता
गा० ५७-५९
॥ ५० ॥
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
पिण्डैषणास्वरूपम्
सुमतिसाघु० दशवे.
निकायसंरक्षणैकरूपं कर्मणा मनोवाकायक्रियया प्रमादेन न विराधयेत्-न खण्डयेत् , अप्रमत्तस्य तु द्रव्यविराधना यद्यपि कथंचिद्भवति, तथाप्यसावविराधक एवेत्यर्थः। एतेन "जले जीवाः, स्थले जीवा, आकाशे जीवमालिनि । जीवमालाकुले लोके, कथं भिक्षुरहिंसकः ? ॥१॥" इत्येतत्प्रत्युक्तं, तथा सूक्ष्माणां विराधनाभावाच ॥ ५९ ।। ब्रवीमि इति पूर्ववत् ॥ व्याख्यातं षड्जीवनिकायाध्ययनम् ।
इति चतुर्थ षड्जीवनिकायाध्ययनं समाप्तम् ४॥
- :____ अधुना पिण्देषणाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने साधोराचारः षड्जीवनिकायगोचरः प्रायः इत्येतदुक्तं । इह तु धर्मकाये स्वस्थे सति असौ सम्यक् पाल्यते, स चाहारमन्तरेण प्रायः स्वस्थो न भवति, स च सावद्येतरमेद इत्यनवद्यो ग्राह्य इत्येतदुच्यते, उक्तं च-"से संजए समक्खाए, निरवजाहारि जे विऊ । धम्मकायद्विए सम्म, सुहजोगाण साहए ॥१॥" इत्यनेनाभिसम्बन्धेनायातमिदमध्ययनमिति, तच्चेदंसंपत्ते भिक्खकालमि, असंभंतो अमुच्छिओ। इमेण कमजोगेण, भत्तपाणं गवेसए ॥६॥ से गामे वा नगरे वा, गोयरग्गगओ मुणी। चरे मंदमणुविग्गो, अबक्खित्तेण चेयसा ॥१॥ ____ 'संपत्ते'-गाहा, सम्प्राप्ते-शोभनेन प्रकारेण स्वाध्यायकरणादिना प्राप्ते भिक्षाकाले-भिक्षासमये, अनेनासम्प्राप्ते भक्त| पानैषणाप्रतिषेधमाह । अलामाज्ञाखण्डनाम्यां दृष्टादृष्टविरोधात् , असम्भ्रान्तः-अनाकुलो यथावदुपयोगादि कृत्वा, नान्यथे
॥५१॥
in Educatan inte
For Private Personal Use Only
Diww.jainelibrary.org
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
-पिण्डे शब्दादिषु वा अगृद्धो, विहित यातयोग्यमोदनारनालादि ग्राम वा नगरे वा, उपलक्षणात न क्रमयोगेन परिपाटीव्यापारणामत्यादि, स इत्यसम्भ्रान्तोऽमूच्छित भिक्षाटनमग्रः-प्रधानोऽ
सुमतिसाधु दशवै०
॥५२॥
त्यर्थः । अमूञ्छितः-पिण्डे शब्दादिषु वा अगृद्धो, विहितानुष्ठानमितिकृत्वा, न तु पिण्डादावेवासक्त इति । अनेन वक्ष्य- गोचरीमाणलक्षणेन क्रमयोगेन परिपाटीब्यापारेण भक्तपानं यतियोग्यमोदनारनालादि गवेषयेदिति-अन्वेषयेदिति सूत्रार्थः । विधिः ॥६० ॥ यत्र यथा गवेषयेत्तदाह-'से गामे'त्यादि, स इत्यसम्भ्रान्तोऽमूञ्छितो ग्रामे वा नगरे वा, उपलक्षणत्वात् IFगा०६२ कटादौ वा गोचराग्रगत इति गोरिव चरणं गोचरः-उत्तममध्यमाधमकुलेष्वरक्तद्विष्टस्य भिक्षाटनमग्रः-प्रधानोऽभ्याहृताधाकर्मादिपरित्यागेन तद्गतः-तद्वर्ती मुनि:-भावसाधुः चरेत्-गच्छेत् मन्दं-शनैःशनैर्न द्रुतमित्यर्थः । अनुद्विग्ना-प्रशान्तः परीपहादिभ्योऽविभ्यत् अव्याक्षिप्तेन चेतसा-अन्तःकरणेन एपणोपयुक्तेनेति सूत्रार्थः ।। ६१॥ पुरओ जुगमायाए, पेहमाणो महि चरे। वजंतो बीयहरियाई, पाणे अ दगमट्टियं ॥ ६२॥ ओवायं विसमं खाणुं, विजलं परिवज्जए । संकमेण न गच्छिज्जा, विजमाणे परक्कमे ॥ ६३ ॥ पवडते व से तत्थ, पक्खलंते व संजए। हिंसेज पाणभूयाई, तसे अदुव थावरे ॥ ६४ ॥ | तम्हा तेण न गच्छिज्जा, संजए सुसमाहिए। सइ अन्नेण मग्गेण, जयमेव परक्कमे ॥ ६५ ॥ इंगालं छारियं रासिं, तुसरासिं च गोमयं । ससरक्खेहिं पाएहि, संजओ तं नइक्कमे ॥ ६६ ॥ न चरेज वासे वासंते, महिआए वा पडंतिए। महावाए व वायंते, तिरिच्छसंप्राइमेसु वा ॥७॥
|॥ ५२ ।।
Jain Education Inter
For Private & Personel Use Only
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री.
गोचरीविधिः
सुमति
साधु दशवै० अ०५
॥ ५३॥
यथा चरेत्तथैवाह-'पुरओ जुग'त्ति पुरतो-अग्रतो युगमात्रया-शरीरप्रमाणया शकटोसिंस्थितया दृष्ट्येति वाक्य- शेषः । प्रेक्षमाणः-प्रकर्षेण पश्यन् महीं-भुवं चरेद्-यायात्, न शेषदिगुपयोगेनेति गम्यते । न प्रेक्षमाण एव, अपि तु वर्जयन्-परिहरन् बीजहरितानि, अनेनानेकभेदस्य वनस्पतेः परिहारमाह । तथा प्राणिनो-द्वीन्द्रियादींस्तथोदकंअप्कायं मृत्तिकां च-पृथिवीकार्य, चशब्दात्तेजोवायुपरिग्रहः ।। ६२ ॥ उक्तः संयमविराधनापरिहारः । अधुनाऽऽत्मसंयमविराधनापरिहारमाह-'ओवाय'मिति, अवपातं-गादिरूपं, विषम-निम्नोन्नतं, स्थाणु-ऊर्ध्व काष्ठं, विजलं-विगतजलं कर्दमं परिवर्जयेत्-एतत् सर्व परिहरेत् , तथा सङ्कमेण-जलग परिहाराय पाषाण काष्ठरचितेन न गच्छेतू , आत्मसंयमविराधनासम्भवात् । अपवादमाह-विद्यमाने पराक्रमे-अन्यमार्ग इत्यर्थः । असति तु तस्मिन् प्रयोजनमाश्रित्य यतनया गच्छेदिति सूत्रार्थः ॥६३।। अवपातादौ दोषमाह-'पवडते व' इति, प्रपतन् वाऽसौ तत्र अवपातादौ प्रस्खलन वा संयतःसाधुः हिंस्याद्-व्यापादयेत्, प्राणिभूतानि प्राणिनो-द्वीन्द्रियादयः, भूतानि-एकेन्द्रियाः, एतदेवाह-त्रसानथवा स्थावरान् , प्रपातेनात्मानं चेत्येवमुभयविराधनेति ॥ ६४॥ यतश्चैवं 'तम्हा' इति, तस्मात् तेन-अवपातादिमार्गेण न गच्छेत्संयतः सुसमाहितो, भगवदाज्ञावर्तीत्यर्थः । सत्यन्येनेति, अन्यस्मिन् समादौ, मार्गेणेति मार्गे छान्दसत्वात् सप्तम्यर्थे तृतीया, असति त्वन्यस्मिन् मार्गे तेनैवावपातादिना यतमेव पराक्रमेत् , यतमिति क्रियाविशेषणं, यतमात्मसंयमविराधनापरिहारेण यायादिति ॥६५॥ अत्रैव विशेषतः पृथ्वीकाययतनामाह-'इंगालं'ति आङ्गारमित्यङ्गाराणामय मा. | ङ्गारस्तमागारं राशि, एवं क्षारराशि तुषराशि च गोमयराशिं च, राशिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । सरजस्काभ्यां
॥ ५३॥
Jain Education Inteme
For Private & Personel Use Only
Tww.jainelibrary.org
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
मोचरीविधिः
सुमति
साधु
दशवै०
॥५४॥
पद्भ्यां-सचित्तपृथिवीरजोगुण्डिताभ्यां पादाभ्यां संयतः साधुस्तमनन्तरोदितं गर्शि नातिक्रमेत् , मा भृत् पृथ्वीरजोविराधनेति ॥६६॥ अत्रैवाप्कायादियतनामाह-'न चरेज'त्ति न चरेद्वर्षे वर्षति, भिक्षार्थ प्रविष्टो वर्षणे तु प्रच्छन्ने तिष्ठेत् । तथा महिकायां वा पतन्त्यां, सा च प्रायो गर्भमासेषु पतति, महावाते वा वाति सति, तदुत्खातरजोविराधनादोषात् , तिर्यक् संपतन्तीति तिर्यक्संपाता:-पतङ्गादयः तेषु वा सत्सु, कचिदष्यशनिरूपेण न चरेदिति ॥ ६७ ॥ न चरिज वेससामंते, बंभचेरवसाणु(ण)ए । बंभयारिस्स दंतस्स, हज्जा तत्थ विसुत्तिआ॥६॥ अणायणे चरंतस्स, संसग्गीए अभिक्खणं । हुज्ज वयाणं पीला, सामन्नंमि अ संसओ ॥ ६९ ॥ तम्हा एयं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइवड्डणं । वजए वेससामंतं, मुणी एगंतमस्सिए ॥ ७॥
उक्ता प्रथमव्रतयतना। सांप्रतं चतुर्थव्रतयतनोच्यते-'न चरिज्जे 'त्ति 'न चरेद्वेश्यासामन्ते' न गच्छेद गणिकागृहसमीपे, किंविशिष्ट इत्याह-ब्रह्मचर्यवशान यने ( नये ) ब्रह्मचर्य-मैथुनविरतिरूपं वशमानयति-आत्मायत्तं करोति दर्शनाक्षेपादिनेति ब्रह्मचर्यवशानयनं तस्मिन् , दोषमाह-ब्रह्मचारिणः साधोः, 'दान्तस्य' इन्द्रियनोइन्द्रियदमाभ्यां भवेत् 'तत्र' वेश्यासामन्ते 'विश्रोतसिका' तद्रूपसंदर्शनस्मरणेनापध्यानकचवरनिरोधतो ज्ञानश्रद्धाजलोज्झनेन संयमशस्यशोषणफला चित्तविक्रियेति ।।६८॥ एष सकच्चरणदोषो वेश्यासामन्तसङ्गत उक्तः। साम्प्रतमिहान्यत्र चासकुच्चरण| दोषमाह-' अणायणे 'त्ति अनायतने-अस्थाने वेश्यासामन्तादौ चरतो गच्छतः, संसर्गेण-सम्बन्धेनाभीक्ष्णं-पुनः
| ॥ ५४॥
lain Education Internet
For Private Personel Use Only
Virww.jainelibrary.org
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोचरी
श्री. सुमति
विधि:
साधु
दशवै०
अ०५
पुनः, किमित्याह-भवेद् व्रताना-प्राणातिपातविरत्यादीनां पीडा, तदाक्षिप्तचेतसो भावविराधना भवति, श्रामण्ये च श्रमणभावे च द्रव्यतो रजोहरणादिसंधारणरूपे भूयो भावव्रतप्रधानहेतौ संशयः, कदाचिदुनिष्क्रामत्येवेत्यर्थः। तथा च वृद्धसंप्रदाय:-" वेसादिगयभावस्स मेहुणं पीडिजइ, अणुवओगेण एसणाऽरक्खणे(करणे) य हिंसा, पडुप्पायणे अनपुच्छणअवलवणासच्चवयणं अणनुनायवेसाइदंसणे अदत्तादाणं, ममत्तकरणे परिग्गहो, एवं सव्वयपीडा, दवसामने पुण संसओ उन्निक्खमणेणत्ति" सूत्रार्थः ।। ६९ ॥ निगमयन्नाह-'तम्हे'त्ति, यस्मादेवं तस्मादेतद्विज्ञाय दोषमनन्तरोदितं दुर्गतिवर्धन वर्जयेद्वेश्यासामन्तं, मुनिरकान्तं मोक्षमार्गमाश्रित इति ।। ७० ॥ आह-प्रथमव्रतविराधनानन्तरं चतुर्थव्रतविराधनोपन्यासः किमर्थं ?, उच्यते-प्राधान्यख्यापनार्थ, अन्यव्रतविराधनाहेतुत्वेन प्राधान्यं, तच्च लेशतो दर्शितमेवेति । अत्रैव विशेषमाहसाणं सूइयं गावं(वि), दित्तं गोणं हयं गयं । संडिब्भं कलहं जुज्झं, दूरओ परिवजए ॥७॥ अणुन्नए नावणए, अप्पहिढे अणाउले। इंदियाणि जहाभागं, दमइत्ता मुणी चरे ॥७२॥ दवदवस्सन गच्छिज्जा,भासमाणो अ गोयरे।हसंतो नाभिगाच्छज्जा,कुलं उच्चावयं सया ॥७३॥ आलोयं थिग्गलं दारं, संधि दगभवणाणि य। चरंतो न विनिज्झाए, संकटाणं विवजए ॥ ७४॥ रन्नो गिहवईणं च, रहस्तारक्खियाण य । संकिलेसकरं ठाणं, दूरओ परिवजए ॥ ७५॥
Jain Education Inter
For Private & Personel Use Only
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
गोचरीविधिः
सुमति
साधु० दशवे.
पडिकुटकुलं न पविसे, मामगं परिवजए। अचियत्तकुलंन पविसे, चियत्तं पविसे कुलं । ७६ ॥ साणीपावारपिहियं, अप्पणा नावपंगुरे। कवाडं नो पणुल्लिज्जा, उग्गहसि अजाइया ॥ ७७॥
'साणं 'ति श्वानं लोकप्रतीतं, सूतां गां-अभिनवप्रसूतां, हप्त-दपितं, किमित्याह-गोणं हयं गज, गौः-बलीवदा, हयः-अश्वः, गजो-हस्ती, तथा 'संडिम्भं' बालक्रीडास्थानं, कलह-सवाक्प्रतिबद्धं, युद्ध-खड्गादिभिः, एतद्रूरतोदूरेण परिवर्जयेत्, आत्मसंयमविराधनासम्भवात् , श्वसूतगोप्रभृतिभ्य आत्मविराधना, डिम्भस्थाने वन्दनाद्यागमनपतनभण्डनप्रलुठनादिना संयमविराधना, सर्वत्र चात्मपात्रभेदादिनोभयविराधनेति सूत्रार्थः ॥ ७१ ।। अत्रैव विधिमाह'अणुन्नए 'त्ति अनुन्नतो-द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतो नाकाशदर्शी भावतो न जात्याद्यभिमानवान् , नावनतो-द्रव्यभावाभ्यामेव, द्रव्यानवनतोऽनीचकायो भावानवनतोऽलब्ध्यादिनाऽदीनः, अप्रहृष्टः-अहसन् , अनाकुल:-क्रोधादिरहितः, इन्द्रियाणि-स्पर्शनादीनि, यथाभाग-यथाविषयं, दमयित्वा-इष्टानिष्टेषु स्पर्शादिषु रागद्वेषरहितो मुनि:-साधुश्चरेत्गच्छेत् , विपर्यये तु-प्रभृतदोषप्रसङ्गात , तथाहि-द्रव्योन्नतो लोकहास्यो, भावोन्नत ईयाँ न रक्षति, द्रव्यावनतो बक इति सम्भाव्यते, भावावनतः क्षुद्रमत्त्व इति, प्रहृष्टो योषिद्दर्शनाद्रक्त इति लक्ष्यते, आकुल एवमेव, अदान्तः प्रव्रज्यां नार्हति ॥७२॥ किं च-'दवदवस्स'त्ति द्रुतं द्रुतं-त्वरितमित्यर्थः, न गच्छेद् भाषमाणो वा गोचरे न गच्छेत् , तथा हसन्नाभिगच्छेत्, कुलमुच्चावचं सदा, उच्च-द्रव्यभावभेदाद् द्विविधं-द्रव्योचं धवलगृहवासि, भावोच्च जात्यादियुक्तं,
N
॥५६ ।।
Jain Education Interna
For Private & Personel Use Only
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोचरी| विधिः
सा
श्री. सुमतिसाधु० दशवै.
॥५७॥
एवमवचमपि द्रव्यतः कुटीरकवासि, भावतो जात्यादिहीनमिति। दोषा उभयविराधनालोकोपघातादय इति ॥७३।। अत्रैव विधि- माह-'आलोयं थिग्गल'मिति, आ(अव)लोकं-निर्यहकादिरूपं, थिग्गलं-चितं द्वारादि, संधि-चितं क्षत्रं, उदकभव नानि-पानीयगृहाणि चरन् भिक्षार्थ न विनिज्झाइत्ति-विनिध्यायेत्-विशेषेण पश्येत् , शङ्कास्थानमेतदवलोकादि, अतो विवर्जयेत्, तथा च नष्टादौ तत्राशङ्कोपजायत इति ॥ ७४ ॥ किं च-"रन्नो गिहे'त्यादि राज्ञः-चक्रवर्त्यादेः, गृहपतीनां-श्रेष्ठिप्रभृतीनां रहस्यस्थानानि वर्जयेदिति योगः। आरक्षकाणां च-दण्डनायकादीनां, रहास्थानं-गुवापवरकमन्त्रगृहादि सङ्क्लेशकरं-असदिच्छाप्रवृत्त्या मन्त्रभेदे वा कर्षणादिनेति दूरतः परिवर्जयेदिति ॥ ७५ ॥ 'पडिकुट्टकुलं 'ति, प्रतिकुष्टकुलं द्विविध-इत्वरं यावत्कथिकंच, इत्वरं मूतकयुक्तं, यावत्कथिकं-अभोज्यं एतन्न प्रविशेत् , शासनलघुत्वप्रसङ्गात् । मामकं यत्राह गृहपतिर्मा मम कश्चिद् गृहमागच्छेत् , एतत् वर्जयेत् भण्डनादिप्रसङ्गात् । अचिअत्तकुलं-अप्रीतिकुलं यत्र प्रविशद्भिः साधुभिरप्रीतिरुत्पद्यते, न च निवारयन्ति कुतश्चिनिमित्तान्तरात्, एतदपि न | प्रविशेत , तत्सङ्क्लेशनिमित्तत्वप्रसङ्गात् । चियत्तंति एतद्विपरीतं अचिअत्तविपरीतं प्रविशेत् कुलं, तदनुग्रहप्रसङ्गादिति ।। ७६ ॥ किंच-'साणीपावारपिहिय'मिति शाणी-अतसीवल्कजा पटी, प्राचार:-प्रतीतः, कम्बलाद्युपलक्षणमेतत् , एवमादिभिः पिहितं-स्थगितं, गृहमिति वाक्यशेषः । आत्मना-स्वयं, नापवृणुयात्-नोद्घाटयेदित्यर्थः । अलौकिकत्वेन तदन्तर्गतभुजिक्रियादिकारिणां प्रद्वेषप्रसङ्गात् । तथा कपाटं द्वारस्थगनं न प्रेरयेत्-नोद्घाटयेत् पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात् , किमविशेषतो ? नेत्याह-अवग्रहमयाचित्वा-आगाढप्रयोजनेऽननुज्ञाप्यावग्रह-विधिना धर्मलाभमकृत्वेति ॥ ७७ ।।
Jain Education Internationa
For Private Personel Use Only
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
सुमति
साधु० दशवे ०
अ० ५
1146 11
गोरग्गपविट्ठो अ, वच्चमुत्तं न धारए । ओगासं फासुअं नच्चा, अणुन्नविअ वोसिरे ॥ ७८ ॥
विधिशेषमाह -' गोयरग्ग 'त्ति - गोचराग्रप्रविष्टस्तु वर्चो मूत्रं वा न धारयेत् अवकाशं प्रासुकं ज्ञात्वाअनुज्ञाप्य व्युत्सृजेदिति । अस्य विषयो वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायं - "पुवमेव साहुणा सन्नाकाइओवओगं काऊण गोयरे पविसियां, कहिंचि (वि)न कओ कए वा पुणो होजा ताहे वच्चमुत्तं न धारेयवं, जओ मुत्तनिरोहे चक्खुवधाओ हवा, वचनिरोहे य जीविओवघाओ, असोहणा अ आयविराहणा, जओ भणियं - " सवत्थ संजमं संमाउ अप्पाणमेव रक्खिजा । मुच अवायाओ पुणो बिसोही न याविरई || १ || ” ( ओघनि० ४७ ) अओ संघाडि ( ड ) यस्स सयभायणाणि समपिय डिस्सए पाणयं गहाय सन्नाभूमीए विहिणा वोसिरेजा," वित्थरओ जहा ओह निज्जुत्तीए ॥ ७८ ॥ णीअदुवारं तमसं, कुट्ठगं परिवज्जए । अचक्खुविसओ जत्थ, पाणा दुप्पडिलेहगा जत्थ पुप्फाई बीयाई, विप्पइन्नाई कुट्ठए । अहुणोवलित्तं उल्लं, दहूणं परिवज्जए ॥ ८० ॥ एलगं दारगं साणं, वच्छगं वावि कुट्ठए । उल्लंघिआ न पविसे, विउहित्ताण व संजए ॥ ८१ ॥
1198 11
तहा 'नीयदुवारं 'ति नीचद्वारं- नीचनिर्गमप्रवेशं, तमसमिति - तमोवन्तं कोष्ठकं-अपवरकं परिवर्जयेत्, न तत्र भिक्षां परिगृह्णीयात्, सामान्यापेक्षया, सर्व एवंविधो भवतीत्याह- अचक्षुर्विषयो यत्र, न चक्षुषो व्यापारो यत्रेत्यर्थः । अत्र दोषमाह - प्राणिनो दुष्प्रत्युप्रेक्षणीया भवन्ति, ईर्याशुद्धिर्न भवतीति सूत्रार्थः ॥ ७९ ॥ किंच-' जत्थे 'ति, यत्र
गोचरी
विधिः
।। ५८ ।।
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
सुमति
साधु०
दश०
अ० ५
॥ ५९ ॥
Jain Education Internat
पुष्पाणि जातिपुष्पादीनि, बीजानि - शालिवीजादीनि विप्रकीर्णानि - अनेकधा विक्षिप्तानि परिहर्तुमशक्यानीत्यर्थः । कोष्ठके कोष्ठकद्वारे वा, तथाऽधुनोपलिप्तं साम्प्रतोपलिप्तं, आर्द्रकं-अशुष्कं कोष्ठकमन्यद्वा दृष्ट्वा परिवर्जयेत् दूरत एव, न तु तत्र धर्मलाभं कुर्यात्, संयमात्मविराधनापत्तेरिति ।। ८० ।। किंच 'एलगं 'ति, एडकं - मेषं, दारकं - बाल, श्वानं मण्डलं, वत्सकं वापि क्षुद्रवृपभलक्षणं कोष्ठके उल्लङ्घ्य पद्भ्याम् न प्रविशेत्, व्यूह्य वा प्रेर्य वेत्यर्थः । संयतः - साधुः, आत्मसंयमविराधनादोषाल्लाघवाच्चेति ॥ ८१ ॥
असंत्तं पलोइज्जा, नाइदूरा वलोअए । उप्फुल्लं न विनिज्झाए, निअट्टिज्ज अयंपिरो ॥ ८२ ॥ अइभूमिं न गच्छेजा, गोअरग्गगओ मुणी । कुलस्स भूमिं जाणित्ता, मिअं भूमिं परक्कमे ॥ ८३ ॥ तत्थेव पाडलोहजा, भूमिभागं विअक्खणो । सिणाणस्स य वञ्चस्स, संलोगं परिवज्जए ॥ ८४ ॥ दगमट्टि आयाणे, वीआणि हरिआणि अ । परिवज्जंतो चिट्ठिज्जा, सर्विवदिअसमाहिए ॥ ८५ ॥
इहैव विशेषमाह-'असंसत्तं 'ति असंसक्तं प्रलोकयेत् न योषिद्द्दष्टेर्दृष्टिं मीलयेदित्यर्थः, रागोत्पत्ति लोकोपघातदोषात् । तथा 'नातिदूरं प्रलोकयेत्' दायकस्यागमन मात्र देशं प्रलोकयेत्, परतचौरादिशङ्कादोषः । तथोत्फुल्लं - विकसित लोचनं न निज्झाए इति-न निरीक्षेत गृहपरिच्छदमप्यदृष्टकल्याण इति लाघवोत्पत्तेः । तथा निवर्त्तेत गृहादलब्धेऽपि सति, अजल्पन्- दीनवचनमनुच्चारयन्निति ॥ ८२ ॥ तथा ' अहभूमिं ने'ति अतिभूमिं न गच्छेद्, अननुज्ञातां गृहस्थैः,
गोचरीविधिः
॥ ५९ ॥
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोचरीविधिः
सुमति
श्री- II यथान्ये भिक्षाचरा न यान्तीत्यर्थः। गोचराग्रगतो मुनिः, अनेनान्यदा तद्गमनासम्भवमाह-किं तर्हि ? कुलस्य भूमि-17
उत्तमादिरूपामवस्था ज्ञात्वा मितां भूमि तैरनुज्ञातां पराक्रमेत्, यत्रैषामप्रीतिर्न जायत इति ॥ ८३ ॥ विधिशेषमाहसाधु 'तत्थेव'त्ति तत्रैव-तस्यामेव मितायां भूमौ प्रत्युपेक्षेत सूत्रोक्तेन विधिना भूमिभागं-उचितं भूमिप्रदेशं, विचक्षणोदशवै० विद्वान, अनेन केवलागीतार्थस्य भिक्षाटनप्रतिषेधमाह । तत्र च तिष्ठन् स्नानस्य तथा वर्चसः-विष्ठायाः संलोकं अ०५ । परिवजयेद्, एतदुक्तं भवति-स्नानभूमिकायिकादिभूमिसंदर्शनं परिहरेत् , प्रवचनलाघवप्रसङ्गात् , अप्रावृतस्त्रीदर्शनाच्च
रागादिभावादिति ॥ ८४ ॥ किंच-'दग'त्ति उदकमृत्तिकादानं-आदीयतेऽनेनेत्यादानो-मार्गः, उदकमृत्तिकान॥६ ॥
यनमार्गमित्यर्थः। बीजानि-शाल्यादीनि 'हरितानि च' दुर्वादीनि, चशब्दादन्यानि च सचेतनानि परिवर्जयन्, तिष्ठेदनन्तरोदिते देशे सर्वेन्द्रियसमाहितः, शब्दादिभिरख्या(नाक्षिप्त इति ।। ८५ ॥
तत्थ से चिट्ठमाणस्स, आहरे पाणभोअणं। अकप्पिन गेण्हिज्जा, पडिगाहिज कप्पिअं॥८६॥ आहारती सिआ तत्थ, पडिसाडिज्ज भोअणं । दितिअंपडिआइक्खे,न मे कप्पइ तारिसं ॥ ८७॥ संमद्दमाणी पाणाणि, बीआणि हरिआणि य । असंजमकरि नच्चा, तारिसिं परिवजए ॥ ८८॥
'तत्थ से 'त्ति, तत्र कुलोचितया भूमौ से-तस्य साधोस्तिष्ठतः सतः, आहरेदू-आनयेत् पानभोजनं, गृहीति | NI गम्यते। तत्रायं विधिः-अकल्पिक-अनेषणीयं न गृहीयात्, प्रतिगृह्णीयात् कल्पिक-एषणीयं, एतच्चार्थापनमपि
॥६०
Jain Education Intern
For Private & Personel Use Only
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
H0
सुमति- साधु० श्रीदशवै०
उ०१ |
कल्पिकग्रहणं, द्रध्यतः शोभनमशोभनमपि एतदविशेषेण ग्राह्यमिति दर्शनार्थ साक्षादुक्तमिति ॥ ४६॥ 'आहरंति 'त्ति, अकल्पआहरन्ती-आनयन्ती भिक्षामगारीति गम्यते, स्यात्तत्र कदाचित्तदेकदेशं परिशाटयेत्-इतश्चेतश्च विक्षिपेत् भोजनं वा
निषेधः पानं वा, ततः किमित्याह-ददतीं प्रत्याचक्षीत-प्रतिषेधयेत् । तामगारी, स्त्रियो हि प्रायो भिक्षां ददतीति स्त्रीग्रहणं, कथं । गा. | प्रत्याचक्षीतेत्याह-न मे-मम कल्पते तादृशं परिशाटनावत् , समयोक्तदोषप्रसङ्गात् , दोषांश्च भावं ज्ञात्वा कथयेत् मधु- ८३-९३ | विन्दूदाहरणादिनेति ॥ ८७॥ किंच-'सम्मद्देति, संमईयन्ती पद्भ्याम् समाक्रामन्ती, कानित्याह-प्राणिनो-| द्वीन्द्रियादीन् , बीजानि-शालिबीजादीनि, हरितानि-दुर्वादीनि, असंयमकरी-साधुनिमित्तमसंयमकरणशीलां ज्ञात्वा ताहशीं परिवर्जयेत्, ददती प्रत्याचक्षीतेति ।। ८८ ॥ साहङ निक्खिवित्ता णं, सचित्तं घट्टिआणि अ । तहेव समणट्टाए, उदगं संपणुल्लिआ ॥ ८९ ॥ ओगाहइत्ता चलइत्ता, आहरे पाणभोअणं। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ९ ॥ पुरेकम्मेण हत्थेण, दवीए भाअणेण वा। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ९१॥ एवं उदउल्ले ससिणिद्धे, ससरक्खे महिआउसे । हरिआले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे॥ गेरुअवन्निअसेढिअसोरद्विअपिटुकुक्कुसकए य । उकिट्ठमसंसट्टे, संसट्टे चेव बोद्धव्वे ॥९३॥
॥६१॥
Jain Education Intem borli
For Private & Personel Use Only
Nil
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु श्रीदशवै० अ०५, उ०१
अकल्प. निषेधः
गा० ८९-९३
॥६२॥
'साहटुत्ति, संहृत्यान्यस्मिन् माजने ददाति, "तं फासुगमवि वजए, तत्थ फासुए फासुयं साहरइ, फासुए अफासुयं साहरइ, अफासुए फासुयं साहरइ, अफासुए अफासुर्य साहरह ४, तत्थ जं फासुए फासुयं साहरइ, तत्थवि थेवे थेवं साहरइ, थेवे बहुं साहरइ, बहुए थेवं साहरइ, बहुए बहुयं साहरइ ४" एवमादि यथा पिण्डनियुक्तौ । तथा निक्षिप्य भाजनगतमदेयं षड्जीवनिकायिकेषु ददाति तथा सचित्तं-अलातपुष्पादि घट्टयित्वा-संचाल्य च ददाति । तथैव श्रमणार्थप्रव्रजितनिमित्तमुदकं संप्रणुद्य भाजनस्थं प्रेयं ददाति ॥ ८९॥ तथा ओगाहइत्ता-अवगाह्य-उदकमेवात्मनोऽभिमुखमाकृष्य ददाति । तथा चालयित्वा उदकमेव ददाति, उदके नियमादनन्तवनस्पतिरिति प्राधान्यख्यापनार्थ सचित्तं घट्टयित्वेत्युक्तेऽपि भेदेनोपादानं अस्ति चायं न्याया-"यदुत सामान्यग्रहणेऽपि प्राधान्यख्यापनार्थ भेदेनोपादानं, यथाब्राह्मणा आयाता वशिष्टोऽप्यायात" इति, ततश्चोदकं चालयित्वा आहरेद् आनीय दद्यादित्यर्थः । किं तदित्याह-पानभोजनंओदनारनालादि । तदित्थम्भूतां ददती प्रत्याचक्षीत-निराकुर्यात् न मम कल्पते तादृशमिति पूर्ववदेवेति सूत्रद्वयार्थः ॥९०॥ 'पुरेकम्मे 'ति, पुरः कर्मणा हस्तेन-साधुनिमित्तं प्राकृतजलोज्झनव्यापारेण, तथा दा-डोवसदृशया, भाजनेन वा-कांस्यभाजनादिना ददती प्रत्याचक्षीत-प्रतिषेधयेत्, न मम कल्पते तादृशमिति पूर्ववदेव इति सूत्रार्थः ॥९१ ॥ एवं, एवं-उदकाइँण, हस्तेन-करेण, उदकाो नाम गलदुदकविन्दुयुक्तः । एवं सस्निग्धेन हस्तेन, सस्निग्धो नाम ईषदुदकयुक्तः, एवं सरजस्केन हस्तेन-सरजस्को नाम पृथिवीरजोगुण्डितः । एवं मृद्गतेन | हस्तेन, मृद्गतो नाम कईमयुक्तः। एवं ऊषादिष्वपि योज्यं । एतावन्त्येव एतानि सूत्राणि नवरमूषः-पांशुक्षारः, हरिताल
।। ६२॥
For Private & Personel Use Only
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु० श्रीदशचै०
अ० ५,
उ० १
॥ ६३ ॥
हिङ्गुलकमनःशिलाः- पार्थिवाः वर्णकमेदाः, अञ्जनं - रसाञ्जनादि, लवणं - सामुद्रादि ॥ ९२ ॥ तथा 'गेरुय'त्ति, गैरु (रि) को - धातुः, वर्णिका - पीतमृत्तिका, सेटिका-खटिका, वेतिका-शुक्लमृत्तिका, सौराष्ट्रका - तुवरिका, पिष्टं-आमतण्डुलक्षोदः, कुक्कुसाः - प्रतीताः कृतेनेत्येभिः कृतेन, हस्तेनेति गम्यते । तथा उत्कृष्ट इत्युत्कृष्टशब्देन कालिङ्गाला बुत्र पुष| फलादीनां शस्त्रकृतानि श्लक्ष्णखण्डानि भण्यन्ते । चिश्चिणिकादि-पत्रसमुदायो वा उदुखलख (क)ण्डित इति, तथाऽसंसृष्टोव्यञ्जनादिनाऽलिप्तः संसृष्टचैव व्यञ्जनादिलिप्तो बोद्धव्यो हस्त इति । विधिं पुनरत्रोर्ध्वं स्वयमेव वक्ष्यतीति ॥ ९३ ॥
असंसण हत्थे, दव्वीए भायणेण वा । दिनमाणं न इच्छिज्जा, पच्छाकम्मं जहिं भवे ॥९४॥ संसण हत्थे, दव्वीए भायणेण वा । दिजमाणं पडिच्छिना, जं तत्थेसणिअं भवे ॥ ९५ ॥ आह च - असंसट्टेणत्ति, असंसृष्टेन हस्तेनान्नादिभिरलिप्तेन दर्या भाजनेन वा दीयमानं नेच्छेत्, किं सामान्येन १, नेत्याह- पश्चात्कर्म्म यत्र भवति दध्यादौ, शुष्कमण्डकादिवत् तदन्यदोषरहितं गृह्णीयादिति ॥ ९४ ॥ 'संसणे 'ति संसृष्टेन हस्तेनान्नादिलिप्तेन, तथा दर्या भाजनेन वा दीयमानं प्रतीच्छेत् गृह्णीयात् किं सामान्येन १, नेत्याह-यत् तत्रैषणीयं भवति तदन्यदोषरहितमित्यर्थः । इह च वृद्धसम्प्रदाय:-" संसट्टे हत्थे संसट्टे मत्ते सावसेसे दवे, सट्टे हत्थे संसट्टे मत्ते निरवसेसे दवे, एवं अट्ठभंगा, एत्थ पढमो भंगो सब्बुत्तमो, अनेमुवि जत्थ सावसेसं दवं तत्थ घेप्पइ, न इयरेसु, पच्छा कम्मदोसाओ" ति ।। ९५ ।। किंच --
अकल्प
निषेधः
गा० ९४-९५
॥ ६३ ॥
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
बालस्तन्य
याने
साधु० श्रीदशव० अ०५,
विधिः
गा. ९६-१०३
॥६४॥
दुहं तु भुंजमाणाणं, एगो तत्थ निमंतए। दिजमाणं न इच्छिज्जा, छंदं से पडिलेहए ॥ ९६ ॥ दुण्हं तु भुंजमाणाणं, दोवि तत्थ निमंतए। दिजमाणं पडिच्छिज्जा, जं तत्थेसणिअंभवे ॥ ९७ ॥ गुठिवणीए उवण्णत्थं, विविहं पाणभोअणं । भुंजमाणं विवजिज्जा, भुत्तसेसं पडिच्छए ॥ ९८॥ सिआ असमणवाए, गुठिवणीकालमासिणी।उट्रिआ वा निसीइज्जा, निसन्ना वा पुणुट्टए॥९९ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं । दितिअं पडिआइक्खें, न मे कप्पइ तारिसं ॥ १० ॥ थणगं पिज्जेमाणी, दारगं वा कुमारिअं। तं निक्खिवित्तु रोअंतं, आहरे पाणभोअणं ॥ १०१ ।। तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दितिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ १०२॥ जंभवे भत्तपाणं तु, कप्पाकप्पमि संकि। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥१०३॥
__'दोण्हं तुति, द्वयोर्भुञ्जतोः पालनां कुर्वतोः, एकस्य वस्तुनो नायकयोरित्यर्थः । एकस्तत्र निमन्त्रयेत्-तदानं त प्रत्यामन्त्रयेत् , तद्दीयमानं नेच्छेदुत्सर्गतः, अपितु छन्द-अभिप्राय, से-तस्य द्वितीयस्य प्रत्युपेक्षेत नेत्रवक्त्रविकारैः, किमस्येदमिष्टं दीयमानं न वेति, इष्टं चेत् गृह्णीयात् , न चेनेति । एवं भुञ्जानयोः-अभ्यवहारायोद्यतयोरपि योजनीयं । यतो "भुजिः-पालने अभ्यवहारे च" वर्तत इति ॥ ९६ ॥ तथा 'दुण्हं तु द्वयोस्तु पूर्ववद् भुञ्जतोर्भुञानयोर्वा द्वावपि तत्रा
॥४॥
Jain Education Internationa
For Private & Personel Use Only
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु०
श्रीदशवै०
याने विधिः का गा. ९६-१०३
उ०१
भि(ति)प्रसादेन निमन्त्रयेयातां, तत्रायं विधिः-दीयमानं प्रतीच्छेत्-गृहीयात् यत् तत्रैषणीयं भवेदिति, तदन्यदोषरहितमिति ॥९७ ॥ विशेषमाह-'गुग्विणीए'त्ति, गुर्विण्या-गर्भवत्या, उपन्यस्तं-उपकल्पित, किं तदित्याहविविध-अनेकप्रकारं, पानभोजनं-द्राक्षावानखण्डखायकादि, तत्र भुज्यमानं तया विवज्य, मा भूत्तस्या अल्पत्वेनाभिलापानिवृत्त्या गर्भपातादिदोष इति । भुक्तशेष-भुक्तोद्धरितं प्रतीच्छेत् यत्र तस्या निवृत्तोऽमिलाष इति ॥ ९८ ॥ किंच'सिया येत्ति स्याच-कदाचिच श्रमणार्थ-साधुनिमित्तं गुचिणी पूर्वोक्ता कालमासवर्तिनी-गर्भाधानानवममासवर्तिनीत्यर्थः । उत्थिता वा यथा कथञ्चित निषीदेन्निषण्णा वा ददामीति साधुनिमित्तं, निषण्णा वा स्वव्यापारेण पुनरुत्तिष्ठेत् ददामीति साधुनिमित्त मेवेति ॥ ९९ ॥ तं भवे'इति, तद् भवेद् भक्तपानं तु तथानिषीदनोत्थानाभ्यां दीयमानं संयतानामकल्पिकं, इह च " स्थविरकल्पिकानामनिषीदनोत्थानाभ्यां यथावस्थिततया दीयमानं कल्पिकं, जिनकल्पिकानां तु आपन्नसचया प्रथमदिवसादारभ्य सर्वथा दीयमानमकल्पिकमेवे"ति सम्प्रदायः। यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशामित्येतत्पूर्ववदेवेति ॥ १०॥ किश्च-धणगंति, स्तन(न्यं) पाययन्ती, किमित्याह-दारक कुमारिकां वा, वाशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, अत एव नपुंसकं वा, तद्दारकादि निक्षिप्य रुदन भूम्यादौ आहरेत् पानभोजनं, अनायं वृद्धसम्प्रदायः "गच्छवासी जइ थणजीवी पिबंतो निक्खितो तो न गिण्हइ, रोबउ वा मा वा, अह अन्नपि आहारेइ तो जइन रोबइ तो गिण्हइ, अह रोवह तो न गेण्हइ, अह अपियंतो निक्खित्तो थणजीवी रोवह तो न गेहति, अह ण रोवति तो गेण्डति, गच्छनिग्गया पुण जाव थणजीवी ताव रोवउ मा वा पियंतो वा अपियंतो वा
॥६५॥
in Eduelan Internet
For Private & Personel Use Only
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु० श्रीदशवै०
अ० ५,
उ० १
॥ ६६ ॥
Jain Education Internation
नगिति, जाहे अन्नंपि आहारेउमाढतो हवइ ताहे जड़ पिर्यंतओ रोवउ वा मा वा न गेण्डंति, अह अभियंतओ तो जह रोवइ तो परिहरंति, अरोविए गिव्हंति, सीसो आह-को तत्थ दोसोत्थि १, आयरिया भणति तस्स निक्खिप्यमाणस्स खरे हिं हत्थेहिं घेपमाणस्स अथिरत्तणेण परितावणादोसा मजाराइ वा अवहरिज" ति ॥ १०१ ॥ तं भवे भत्तपाणं'ति, तद्भवेद्भक्तपानं तु अनन्तरोदितं संयतानामकल्पिकं । यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति ॥ १०२ ॥ किं च बहुनोक्तेन, उपदेश सर्वस्वमाह - 'जं भवेत्ति यद् भवेद् भक्तपानं तु कल्पकल्पयोः कल्पनीयाकल्पनीय धर्म इत्यर्थः । किम् , शङ्कितं न विद्मः किमिदमुद्गमादिदोषयुक्तं किंवा नेत्येवमाशङ्कास्पदीभूतं तदित्थम्भूतमसति कल्पनीयनिश्वये ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति ॥ १०३ ॥
दगवारेण पिहिअं, नीसाए पीढएण वा । लोढेण वावि लेवेण, सिलेसेणावि केइ ॥ १०४ ॥
तं च उभिदिआ दिजा, समणट्ठाए व दावए । दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ १०५ ॥
किश्च - 'दगवारेण पिहियं'ति दकवारेण उदककुम्भेन पिहितं स्थगित भाजनस्थं, तथा नीसाएत्ति पेपण्या, पीठकेन- काठपीठादिना, लोढेन चापि शिलापुत्रकेण, तथा लेपेन मृल्लेपादिना, श्लेषेण केनचिजतुसिक्थादिनेति ॥ १०४ ॥ 'तं च'त्ति तच उभिदितुं स्थगितं लिप्तं सत् उद्भिद्य दद्यात् श्रमणार्थं दायकः, नात्माद्यर्थं तदित्थम्भूतं ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति ।। १०५ ॥
If
बालस्तन्ययाने विधिः
गा. १०४१०५
॥ ६६ ॥
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु
वालस्तन्ययाने विधिः गा.१०६. ११३
श्रीदशवै० अ०५, उ०१
॥६७॥
असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा,दाणट्ठा पगडं इमं॥१०६॥ तारिसंभत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥१०७॥ असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। जं जाणिज सुणिज्जा वा, पुण्णट्ठा पगडं इमं ॥१०८॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ १०९ ।। असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। जंजाणिज सुणिज्जा वा, वणिमट्ठा पगडं इमं ॥११०॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दितिअंपडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥१११ ॥ असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा, समणट्ठा पगडं इमं ।। ११२।। तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दितियं पडिआइखे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ११३॥
किश्च-'असणं'ति, अशनं पानकं वापि खाद्यं स्वाद्य, तद्यथा-ओदनआरनालादिलड्डुकहरीतक्यादि, यजानीया. दामन्त्रणादिना, शृणुयाद्वान्यतो यथा दानार्थ प्रकृतमिदं, दानार्थ प्रकृतं नाम साधुवाद निमित्तं यो ददाति अव्यापार. पापण्डिभ्यो [वा] देशान्तरादेरागतो वणिकप्रभृतिरिति सूत्रार्थः ॥ १०६ ।। 'तारिसंपत्ति, तादृशं भक्तपानं दानार्थ प्रवृत्तव्यापार संयतानामकल्पिकं । यतश्चैवमतो ददती प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति ॥१०७॥'असणं'ति,
॥६७॥
For Private & Personel Use Only
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु०
श्रीदशवै०
।
उ०१
॥६८॥
| एवं पुण्यार्थ प्रकृतमिदं, पुण्यार्थ प्रकृतं नाम साधुवादानङ्गीकरणेन यत्पुण्यार्य कृतमिति ॥ १०८ ।। एवं वनीपकार्थ बालस्तन्यः | वनीयका वनीपका:-कृपणाः॥११०॥ एवं श्रमणार्थमिति, श्रमणा-निग्रंथाः, शाक्यादयः॥११२॥ अस्य निषेधः पूर्ववत् ॥११३॥ याने विधिः उद्देसिअंकीअगडं, प्रइकम्मं च आहडं। अज्झोयर पामिच्चं, मीसजायं विवज्जए ॥ ११४॥
गा. ११४किश्च-'उद्देसिति -उद्दिश्य कृतमौदेशिकं-उद्दिष्टकृतकर्मादिभेदं, क्रीतकृत-द्रव्यभावक्रयक्रीतमेदं, पूतिकर्म च-N सम्भाव्यमानाधाकावयवसंमिश्रलक्षणं, आहृतं-स्वग्रामाहृतादि, तथाऽध्यवपूरकं-स्वार्थमृलाद्रहणप्रक्षेपरूपं, प्रामित्यंसाध्वर्थमुच्छिद्य दानलक्षण, मिश्रजातं च-आदित एव गृहिसंयतमिश्रोपस्कृतरूपं वर्जयेदिति ॥ ११४॥ उग्गमं से अ पुच्छिज्जा, कस्सट्रा केण वा कडं। सुच्चा निस्संकिअं सुद्धं, पडिगाहिज्ज संजए ॥११५॥
संशयव्यपोहायोपायमाह-'उग्गमं 'ति-उद्गम-तत्प्रसूतिरूपं, 'से' तस्य शङ्कितस्य अशनादेः पृच्छेत् तत्स्वामिनं कर्मकरं वा, यथा कस्यार्थमेतत् ? केन वा कृतमेतदिति, श्रुत्वा तद्वचो न भवदर्थ, किं त्वन्यार्थमित्येवम्भृतं निःशङ्कितं शुद्धं सदृजुत्वादिभावगत्या प्रतिगृह्णीयात् संयतः। विपर्ययग्रहणे दोषादिति ॥ ११५॥ असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। पुप्फेसु हुज्ज उम्मीसं, बीएसु हरिएसु वा ॥ ११६ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दितिअं पडियाडक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ११७॥ असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा । उदगमि हुज निक्खित्तं, उत्तिंगपणगेसु वा ॥ ११८ ॥
||६८॥
Jain Education Inteme
For Private
Personal Use Only
Jww.jainelibrary.org
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
वालस्तन्य| याने
विधिः गा. ११६१२३
तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दितिअंपडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ११९ ॥ साधु || असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। तेउम्मि हुज्ज निक्खितं,तं च संघटिआ दए ॥ १२० ॥ श्रीदशवै. । तं भवे भत्तपाणं तु,संजयाण अकप्पिअं । दिति पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ।। १२१ ॥
एवं उस्सकिआ ओसकिआ, उज्जालिया पज्जालिआ निवाविआ।
उस्सिंचिया निस्सिचिया, उवत्तिया ओयारिया दए ॥ १२२ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाणं अकप्पिअं। दिति पडियाइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥ १२३ ॥
तथा 'असणं'ति-अशनं पानकं वापि खायं स्वायं तथा. पुष्पैः-जातिपाटलादिभिः भवेदुन्मिभं चीजैर्हरितेति ॥ ११६ ॥ 'तं भवेत्ति-तादृशं भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं, यतश्चैवमतो ददती प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥११७॥ तथा 'असणं'ति सूत्रं, अशनं पानकं वापि खाद्यं स्वायं तथा, उदके भवेनिक्षिप्तमुत्तिङ्गपनकेषु वा कीटिकानगरोल्लिषु वेत्यर्थः। उदकनिक्षिप्तं द्विविध-अनन्तरं परम्परं च, अनन्तरं नवनीतपोग्गलियमादि, परंपरं जलघडोवरिभायणत्थं दधिमादि, एवं उत्तिंगपणगेसु मावनीयमिति ॥ ११८ ॥ 'तं भवेत्ति सूत्र, तद्भवेद् भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं, यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते, तादृशमिति सूत्रार्थः
al॥६९॥
in Educh an interes
Www.jainelibrary.org
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु श्री दशवे०
अ० ५,
उ० १
॥ ७० ॥
॥ ११९ ॥ तथा 'असणं'ति सूत्रं, अशनं पानकं वापि खाद्यं स्वाद्यं तथा, तेजसि भवेन्निक्षिप्तं, तेजसीत्यनौ तेजस्काय इत्यर्थः । तच सङ्घट्टय, यावद् भिक्षां ददामि तावत् तापातिशयेन मा भूदुद्वर्त्तिष्यत इत्यपोह्य दद्यादिति ॥ १२० ॥ 'तं भवे' त्ति-तद्भवेद् भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं, अतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति ॥ १२१ ॥ एवमुस्सक्किय'ति यावद् भिक्षां ददामि तावन्मा भूद्विध्यास्यतीत्युत्सिच्य दद्याद्, एवं ओसक्किया-अवसतिदाह भयादुल्मुकान्युत्सार्येत्यर्थः एवं 'उजालिया पञ्जालिया' उज्वाल्य-अर्द्धविध्यातं सकृदिन्धनप्रक्षेपेण, प्रज्वालय- पुनः पुनः एवं निव्वाविया - निर्वाप्य दाहभयादेवेति भावः, एवमुहिंसचिया निरिंस चिया - उत्सिच्य - अतिभृतादुज्झनभयेन ततो वा दानार्थं तीमनादि, निषिच्य तद्भाजनाद्रहितं द्रव्यमन्यत्र भाजने तेन दद्याद्, उद्वर्त्तनभयेन वा तदाई (आर्द्र )हितमुदकेन निषिच्य एवं ओबत्तिया-ओबारिया, 'अपवर्त्य - तेनैवाग्निनिक्षिप्तेन भाजनेनान्येन वा दद्यात्, तथा 'अवतार्य' दाहमयादानार्थं वा दद्यात् । तत्तदन्यच्च साधुनिमित्तयोगे न कल्पते ॥ १२२ ॥ 'तं भवे' सूत्रं पूर्ववत् ।। १२३ ।। हुज्ज कट्ठे सिलं वावि, इट्ठालं वात्रि एगया । ठवियं संकमट्ठाए, तं च होज चलाचलं ॥ १२४ ॥ ण तेण भिक्खू गच्छिना, दिट्ठो तत्थ असंजमो । गंभीरं झुसिरं चेव, सव्विंदिअसमाहिए ॥१२५॥ निस्सेर्णि फलगं पीढं, उस्सवित्ता णमारुहे । मंचं कीलं च पासायं, समणट्ठा एव दावए ॥ १२६ ॥ दुरूहमाणी पत्रडिज्जा, हत्थं पायं व लूसए । पुढविजीवे विहिंसिज्जा, जे अ तन्निस्तिआ जगे ॥१२७॥
बालस्तन्ययाने विधिः
गा. १२४
१२८
।। ७० ।।
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
बालस्तन्य
साधु श्रीदशवै०
विधिः गा.१२८
१३०
उ०१ ।। ७१॥
| एयारिसे महादोसे, जाणिऊण महेसिणो। तम्हा मालोहडं भिक्खं, न पडिगिण्हति संजया ॥१२८॥
गोचराधिकार एवं गोचरप्रविष्टस्य होज्जत्ति, भवेत् काष्ठं शिलां वापि इहालं वापि, एकदा-एकस्मिन् काले प्रावृडादौ स्थापितं सङ्कमार्थ तच्च भवेच्चलाचलं-अप्रतिष्ठितं, न च भवेत् स्थिरमेवेति सूत्रार्थः ॥ १२४ ॥'न तेणं' ति सूत्रं, न तेन काष्ठादिना भिक्षुर्गच्छेत् , किमित्याह-दृष्टस्तत्रासंयमः, तच्चलने प्राण्युपमर्दसम्भवात् । तथा गम्भीरंअप्रकाशं, शुषिरं-चैवान्तःसाररहितं, सर्बेन्द्रियसमाहितः-शब्दादिषु रागद्वेषावगच्छन् परिहरेदिति ॥१२५॥ किश्च'निस्सेणीति सूत्रं, निःश्रेणिं फलक पीठं उस्सवित्ता-उत्सृत्योधं कृत्वेत्यर्थः, आरोहेत्, मञ्च कीलकं चोत्सृत्य, कमारोहेदित्याह-प्रासाद, श्रमणार्थ-साधुनिमित्तं, दायको-दाता आरोहे , एतदप्यग्राह्यमिति ॥१२६।। अत्रैव दोषमाह'दुरूहमाणि'त्ति, आरोहन्ती प्रपतेत्, प्रपतन्ती च हस्तं वा पादं वा लूषयेत्-स्वकं स्वत एव खण्डयेत् , तथा पृथिवीजीवान् विहिंस्यात् कथञ्चित्तत्रस्थान् तथा यानि च तनिश्रितानि जगन्ति-प्राणिनस्तांश्च हिंस्यादिति ॥१२७॥ 'एयारिसे'त्ति-इदृशान् अनन्तरोदितरूपान् महादोषान् ज्ञात्वा महर्षयः-साघवो,यस्माद्दोषकारिणी तस्माद् मालापहृता-मालोपनीतां भिक्षां न प्रतिगृह्णन्ति संयताः। पाठान्तरं वा हंदि मालापहृतामिति, हंदीत्युपदर्शन मिति ॥१२८॥ कंद मूलं पलंबं वा, आमं छिन्नं व सन्निरं । तुंबागं सिंगबेरं च, आमगं परिवज्जए ॥ १२९ ॥ | तहेव सत्तुचुण्णाई, कोलचुण्णाई आवणे । सक्कुलिं फाणिअं पूअं, अन्नं वावि तहाविहं ॥ १३० ॥
॥७१॥
Join Education Intel
For Private Personal Use Only
Yil www.janesbrary.org
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
.......
साधु० श्रीदशवै० अ०५, उ०१
॥७२॥
विकायमाणं पसढं, रएणं परिफासि। दितिअं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ १३१ ॥ पानक.
.ना विधि: बहुअट्ठिअं पुग्गलं, अणिमिसं वा बहुकंटयं । अच्छिअंतिंदुअं बिल्लं, उच्छृखंडं व सिंबलिं ॥ १३२ ॥
गा. १२९अप्पे सिआ भोअणजाए, बहुउझियधम्मिअं। देतिअं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥ १३३ ॥
१३३ प्रतिषेधाधिकार एवाह-'कंदमूलं'ति-कन्द-सूरणादिलक्षणं, मूलं-पिण्डादिवृन्दारिकादिरूपं, प्रलम्बंवा-तालफलादि, आमं छिन्नं च सन्निरं-सन्निरमिति पत्रशाकं तुम्बाकं त्वग्मिञ्जान्तर्वाद्री वा तुलसीमित्यन्ये,शृङ्गबेरं च-आर्द्रकं, आमकं परिवर्जयेदिति ॥ १२९ ॥'तहेव'त्ति-तथैव सक्तुचूर्णान् , कोलचूर्णान्-बदरसक्तून आपणे-वीथ्यां, तथा शकुलिंतिलपप्पटिका, फाणितं-द्रवगुडं, पूर्य-कणिकादिमयं, अन्यद्वा तथाविधं मोदकादि ॥१३० ।। किमित्याह-'विकायेत्ति विक्रायमाणं-विक्रीयमाणमापण इति वर्त्तते । प्रसामनेकदिनस्थापनेन प्रकटमत एव रजसा पार्थिवेन परिस्पृष्ट-व्याप्तं, तदित्थम्भूतं तु ददती प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रद्वयार्थः ।। १३१ ॥ किश्च-बहुअट्ठियं पोग्गल. मिति-बहस्थिकं पुद्गलं-मांस, अनिमिषं वा मत्स्यं वा बहुकण्टकं, अयं किल कालाद्यपेक्षया ग्रहणे प्रतिषेधः। अन्ये त्वभिदधति-"वनस्पत्यधिकारात्तथाविधफलाभिधाने एते "इति । तथा चाह-अस्थिकं-अस्थिकवृक्षफलं, तिंदुकंत्ति-तेन्दुकीफलं, बिल्वं इक्षुखण्डं च प्रतीते, शाल्मलि वा वल्लादिफलं, वाशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्ध इति ॥ १३२ ।। अत्रैव दोषमाह-'अप्पे'त्ति अल्पं स्यात्, भोजनजातमत्र तथा बहूज्झनधर्मकमेतद्यतश्चैवं अतो ददती प्रत्याचक्षीत
तर
Jain Education Internal
For Private & Personel Use Only
Mw.jainelibrary.org
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु०
श्रीदशवै०
उ०१
॥ ७३॥
न मम कल्पते तादृशमिति ॥ १३३ ।। उक्तोऽशनविधिः । साम्प्रतं पानविधिमाह
पानविधि: तहेवुच्चावयं पाणं, अदवा वारधोअणं । संसेइमं चाउलोदगं. अहणाधो विवजए॥ १३४॥NIगा. १३४
१४० जं जाणेज चिराधोयं,मईए दंसणेण वा।पडिपुच्छिऊण सुच्चा वा, जं च निस्संकिअंभवे ॥ १३५॥ अजीवं परिणयं नच्चा, पडिगाहिज संजए । अह संकियं भविज्जा, आसाइत्ताण रोयए॥ १३६ ॥ थोवमासायणट्राए, हत्थगंमि दलाहि मे । मा मे अच्चबिलं पूअं, नालं तण्हं विणित्तए॥ १३७ ।। तं च अचंबिलं पूर्य, नालं तिण्हं विणित्तए । दितिअं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥१३८॥ तं च होज्ज अकामेण, विमणेणं पडिच्छि। तं अप्पणा न पिबे, नोऽवि अन्नस्स दावए ॥ १३९॥
एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलोहआ। जयं परिविजा, परिट्रप्प पडिक्कमे ॥ १४॥ | 'तहेव'त्ति-तथैव यथा अशनमुच्चावचं तथा पानं, उच्च-वर्णाद्युपेतं द्राक्षापानादि, अवर्च-वर्णादिहीने पूत्थारनालादि, अथवा वारकधावनं-गुडघटधावनादीत्यर्थः। संस्वेदजं-पिष्टोदकादि, एतदशनवदुत्सर्गापवादाभ्यां गृहीयादिति वाक्पशेषः । तन्दुलोदकं त्वढिकरक(बीहिदक) अधुनाधौतमपरिणतं विवर्जयेदिति ।। १३४ ।। अत्रैव विधिमाह-'जंजाणेजत्ति सूत्र, तन्दुलोदकं जानीयात्-विन्यात, चिस्यौत, कथं जानीयादित्याह-मस्या दर्शनेन | ७३ ।।
en Education inte
For Private
Personal Use Only
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
पानविधिः गा. १३४.
१४०
सुमति- वा, मत्या-तद्ग्रहणादिकर्मजया, दर्शनेन वा-वर्णादिपरिणतसूत्रानुसारेण, वा चशब्दार्थः, तदप्येवम्भूतं कियंती साधु न
वेलाऽस्य धौतस्येति पृष्ट्वा गृहस्थं, श्रुत्वा वा महती वेलेति श्रुत्वा च प्रतिवचनं, यच्चेति, यदेवं निःशकित श्रीदशवैभवति, निरवयवं प्रशान्ततया तन्दुलोदकं तत् प्रतिगृह्णीयादिति । विशेष: पिण्डनियुक्तावुक्त इति ॥ १३५ ॥ अ०५, IN उष्णोदकादिविधिमाह-'अजीवं'ति सूत्रं, उष्णोदकं अजीवं परिणतं ज्ञात्वा त्रिदण्डपरिवर्तनादिरूपं मत्या दर्शनेन वेत्यादि
वर्त्तते, तदेवम्भूतं प्रतिगृह्णीयात् संयतः, चतुर्थरसमपूत्यादि देहोपकारक मत्यादिना ज्ञात्वेत्यर्थः। अथ शङ्कितं भवेत्
पूत्यादिभावेन तत आस्वाथ रोचयेद्विनिश्चयं कुर्यादिति ॥ १३६ ॥ तच्चैवं-'थोवं'त्ति-स्तोकमास्वादनाथ प्रथम ॥ ७४॥
तावद्धस्ते देहि मे, यदि साधुपायोग्यं ततो ग्रहीये, मा मेऽत्यम्लं पूति नालं तृडपनोदाय, ततः किमनेनानुपयोगिना ? इति सूत्रार्थः॥ १३७ ।। आस्वादितं च सत्साधुप्रायोग्यं चेत् गृह्यत एव, नो चेदग्राह्य, अत आह-तं चेति गतार्थ चेति ॥ १३८ । 'तं च होजे ति, तच्चात्यम्लादि भवेदकामेन उपरोधशीलतया विमनस्केन-अन्यचित्तेन प्रतीच्छितंगृहीतं तदात्मना कायापकारकमनाभोगधर्मश्रद्धया न पिबेन्नाप्यन्येभ्यो दापयेत्, रत्नाधिकेनापि स्वयं दानस्य प्रतिषेधज्ञापनार्थं दापनग्रहणं । इह च “ सवत्थ संजमं संजमाओ अप्पाणमेवे"त्यादि भावनेति ॥१३९।। अस्यैव विधिमाह'एगन्त'त्ति-एकान्त अवक्रम्य-गत्वा अचित्तं दग्धदेशादि प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा प्रमृज्य च रजोहरणेन स्थण्डिलमिति गम्यते यतं-अत्वरित प्रतिष्ठापयेत्, विधिना त्रिः वाक्यपूर्व व्युत्सृजेत् , प्रतिष्ठाप्य वसतिमागतः प्रतिक्रामेत् | ईयापथिकां । एतच बहिरागतनियमकरणसिद्धं प्रतिक्रमणं अबहिरपि प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रमणनियमापनार्थमिति ॥ १४०॥
॥७४॥
Jain Education Inter
For Private & Personel Use Only
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
समति- साधु श्रीदशवै० अ०५, उ०१ ॥ ७५॥
भोजनविधिः गा.१४१| १४५
सिआ य गोयरग्गगओ,इच्छिज्जा परिभुत्तुअं(भुजिउं)। कुटुगंभित्ति मूलं वा,पडिलेहिताण फासुअं॥ अन्नवित्त मेहावी, परिच्छन्नंमि संवुडे । हत्थगं संपमजित्ता, तत्थ भुजिज संजए॥१४२॥ तत्थ से भुंजमाणस्स, अद्विअं कंटओ सिआ। तणकट्टसकरं वावि, अन्नं वावि तहाविहं ॥१४३॥ तं उक्खिवित्तु न निक्खिवे, आसएण न छड्डए । हत्थेण तं गहेऊण, एगंतमवक्कमे ॥ १४४॥ एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलहिआ। जयं परिविज्जा, परिट्रप्प पडिक्कमे ॥ १४५॥ ___ एवमनपानग्रहणविधिमभिधाय भोजनविधिमाह-'सिआ यत्ति-स्यात्-कदाचित् गोचराग्रगतो-ग्रामान्तरं मिक्षा प्रविष्ट इच्छेत्, परिभोक्तुं पानादिपिपासाद्यभिभूतः सन् , तत्र साधुवसत्यभावे कोष्ठकं-शून्यं चट्टमठादिभित्तिमूलं वाकुडयैकदेशादि प्रत्युपेक्ष्य-चक्षुषा प्रमृज्य च रजोहरणेन प्रासुकं-बीजादिरहितं चेति ॥ १४१॥ तत्र 'अणुन्नवित्तु'त्तिअनुज्ञाप्य सागारिकपरिहारतो विश्रमणब्याजेन तत्स्वामिनमवग्रहं मेधावी-साधुः प्रतिच्छन्ने तत्र कोष्ठकादौ संवृत्तःउपयुक्तः सन् साधुरीर्याप्रतिक्रमणं कृत्वा तदनु हस्तकं-मुखवत्रिकारूपमादायेति वाक्यशेषः। संप्रमृज्य विधिना तेन कार्य तत्र भुञ्जीत संयतो रागद्वेषावपाकृत्येति सूत्रार्थः ॥१४२॥ 'तत्थ'त्ति-तत्र कोष्ठकादौ से-तस्य साधोः भुञ्जानस्यास्थि कण्टको वा स्यात्, कथश्चित् गृहीणां प्रमाददोषात् , कारणगृहीते पुद्गल एवेत्यन्ये । तृणं काष्ठं शर्करं चापि स्यात् , उचितभोजने अन्यद्वापि तथाविधं बदरकर्कटादीति ॥ १४३ ।। 'तं उक्खिवित्तु' इति, तदस्थीत्युत्क्षिप्य हस्तेन यत्र |
in Education Inter
ww.jainelibrary.org
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु भीदशवै०
भोजनविधिः गा.१४६.
१५३
॥ ७६ ॥
क्वचिन्न निक्षिपेत् , तथा आस्येन-मुखेन नोज्झेत्, माभूद्विराधनेति, अपि तु हस्तेन गृहीत्वा तदस्थ्यादि एकान्तमवक्रामेदिति ॥ १४४ ॥ 'एगते'ति-एकान्तमवक्रम्याचित्तं प्रत्युपेक्ष्य यतं प्रतिष्ठापयेत्, प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रामयेदिति | भावार्थः पूर्ववदेवेति ॥ १४५॥ | सिआ य भिक्खू इच्छिाजा, सिजमागम्म भुत्तुअं । सपिंडपायमागम्म, उंडुयं पडिलेहिआ ॥१४६॥
विणएणं पविसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी। इरियावहियमायाय, आगओ य पडिक्मे ॥१४॥ | आभोइत्ताण नीसेसं, अईआरं जहक्कम । गमणागमणे चेव, भत्तपाणे व संजए ॥१४॥
उज्जुप्पन्नो अणुश्विग्गो, अबक्खित्तेण चेअसा । आलोए गुरुसगासे, जं जहा गहिअं भवे ॥१४९॥ | न सम्ममालोइयं हुजा, पुत्विं पच्छा व जं कडं। पुणो पडिक्कमे तस्स, वोसट्ठो चिंतए इमं ॥१५०॥
अहो जिणेहिं असावजा, वित्ती साहूण देसिआ। मुक्खसाहणहेउस्स, साहुदेहस्स धारणा ॥१५१॥ नमुक्कारेण पारित्ता, करिता जिणसंथवं । सज्झायं पटुवित्ता णं, वीसमेज खणं मुणी ॥१५२॥ वीसमंतो इमं चित्ते, हियमढें लाभमट्ठिओ। जइ मे अणुग्गहं कुजा, साहू हुज्जामि तारिओ ॥१५३॥ |
n.७१॥
in Eden inte
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु श्रीदशवै० अ०५, उ०१
भोजनविधिः गा.१४६. १५५
॥ ७७॥
साहवो तो चिअत्तेणं, निमंतिज जहक्कम । जइ तत्थ केइ इच्छिज्जा, तेहिं सद्धिं तु भुंजए ।।१५४॥ अह कोई न इच्छिज्जा, तओ जिज एग(क)ओ। आलोए भायणे साहू, जयं अप्परिसाडियं ॥१५५॥ __वसतिमधिकृत्य भोजनविधिमाह-'सिआ यत्ति, स्यात्कदाचित् तद् द्रव्यं कारणाभावे सति भिक्षुरिच्छेदिति शय्यां-वसतिमागम्य परिभोकुं, तत्रायं विधिः-सह पिण्डपातेन-विशुद्धसमुदानेनागम्य, वसतिमिति गम्यते, तत्र पहिरेवोन्दुकं-स्थान प्रत्युपेक्ष्य विधिना तत्रस्थ: पिण्डपातं विशोधयेदिति सूत्रार्थः ॥ १४६ ॥ तत ऊर्ध्व 'विणएणं'त्ति विशोध्य पिण्डं बहिः 'विनयेन' नैषेधिकी नमः क्षमाश्रमणेभ्योऽञ्जलिकरणलक्षणेन प्रविश्य, वसतिमिति गम्यते, सकाशे गुरोः-मुनिर्गुरुसमीप इत्यर्थः। ईर्यापथिकीमादाय 'इच्छामि पडिकमिउं इरियावहियाए ' इत्यादि सूत्रं पठित्वा, आगतश्च गुरुसमीपं प्रतिक्रामेत्-कायोत्सर्ग कुर्यादिति ॥ १४७॥ 'आभोइत्ताण'त्ति-तत्र कायोत्सर्गे आभोग यित्वा-ज्ञात्वा निःशेषमतिचारं यथाक्रमं परिपाया, क्वेत्याह-गमनागमनयोश्चैव-गमने-गच्छत आगमनेआगच्छतो योऽतिवारः, तथा भक्तपानयोश्च-भक्त पाने च योऽतिचारस्तं संयतः-साधुः कायोत्सर्गस्थो हृदये स्थापयेदिति ॥ १४८॥ विधिनोत्सारिते चैतस्मिन् 'उज्जुप्पन्नो'ति-ऋजुप्रज्ञा-अकुटिलमतिः सर्वत्र, अनुद्विग्नःक्षुधादिजयात् प्रशान्तः, अव्याक्षिप्तेन चेतसा, अन्यत्रोपयोगमगच्छतेत्यर्थः, आलोचयेत् गुरुसकाशे-गुरोनिवेदयेदितिभावः । यदशनादि यथा-येन प्रकारेण हस्तप्रदा(धाव)नादिना गृहीतं भवेदिति सूत्रार्थः ।। १४९ ॥ तदनु च न
७७॥
T en Education Interior
For Private
Personal Use Only
Jaw.jainelibrary.org
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु०
श्रीदशवै०
अ० ५,
उ० १
।। ७८ ।।
Jain Education Internation
' संमं 'त्ति- न सम्यगालोचितं भवेत् सूक्ष्मं अज्ञानात् अनाभोगेनाननुस्मरणाद्वा, पूर्व पश्चाद्वा यत्कृतं पुरःकर्म पश्चात् चेत्यर्थः । पुनरालोचनोत्तरकालं प्रतिक्रामेत्, तस्य सूक्ष्मातिचारस्य 'इच्छामि पडिकमिउं गोयरचरियाए ' इत्यादि सूत्रं पठित्वा व्युत्सृष्टः- कायोत्सर्गस्थः, चिन्तयेदिदं वक्ष्यमाणलक्षणमिति ॥ १५० ॥ ' अहो जिणेहिं ' 'अहो' विस्मये, जिनैः - तीर्थकरैः, असावद्या- अपापा, वृत्ति:- वर्त्तना, साधूनां दर्शिता देशिता वा मोक्षसाधनहेतोः - सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसाधनस्य साधुदेहस्य धारणाय - संधारणार्थमिति ।। १५१ ।। ततथ 'नमोक्कारे'त्ति - नमस्कारेण पारयित्वा 'नमो अरिहंताण' मित्यनेन कृत्वा जिनसंस्तवं " लोगस्सुजोगरे " इत्यादिरूपं, अ (त) तो यदि न पूर्व प्रस्थापितस्ततः स्वाध्यायं प्रस्थाप्य मण्डल्युपजीवकस्तमेव कुर्यात् यावदन्ये आगच्छन्ति यः पुनस्तदन्यः क्षपकादिः सोऽपि प्रस्थाप्य विश्राम्येत् क्षणं स्तोककालं मुनिरिति ॥ १५२ ॥ 'वीस्समंतो' त्ति-विश्राम्यन्निदं चिन्तयेत् परिणतेन चेतसा, हितं- कल्याणप्रापक मर्थं वक्ष्यमाणलक्षणं, किंविशिष्टः सन् ? भावलामेन - निर्जरादिनाऽर्थोऽस्येति, लाभार्थिकः, यदि मे - ममानुग्रहं कुर्युः साधवः प्राकपिण्डग्रहणेन ततः स्यामहं तारितो भवसमुद्रादिति ।। १५३ ।। एवं सञ्चिन्त्योचितवेलायां आचार्यमामन्त्रयेत्, यदि गृह्णाति शोभनं नो चेद्वक्तव्योऽसौ भगवन् ! देहि केभ्योऽप्यतो यद्दातव्यं, ततो यदि ददाति सुन्दरं, अथ भणति - 'त्वमेव प्रयच्छ' अत्रान्तरे 'साहवो'त्ति-साधूंस्ततो गुर्वनुज्ञातः सन् 'चिअत्तेणं' ति मनःप्रणिधानेन निमन्त्रयेत् यथाक्रमं यथा रत्नाधिकतया, "ग्रहणौचित्यापेक्षया वालादिक्रमेणे" त्यन्ये । यदि तत्र केचन धर्मबान्धवा इच्छेयुः - अभ्युपगच्छेयुः, ततस्तैः सार्धं भुञ्जीतोचितसंविभागदानेनेति ॥ १५४ ॥ 'अह कोई 'त्ति अथ
भोजन
विधिः
गा. १४६.
१५५
।। ७८ ।।
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु श्रीदशवै० अ०५,
भोजनविधिः गा.१५६१५९
॥ ७९ ॥
कश्चिन्नेच्छेत् साधुस्ततो भुञ्जीत एकको-रागादिरहित इति । कथं भुञ्जीतेत्यत्राह-आलोके भाजने मक्षिकाघपोहाय प्रकाशप्रधाने भाजन इत्यर्थः। साधुः-प्रव्रजितः यतं-प्रयत्नेन तत्रोपयुक्तं, अपरिशाट-हस्तमुखाम्यां अनुज्झनिति ।। १५५॥ तित्तगंव कडुअंव कसायं, अंबिलंवमहरंलवणंवा। एअलद्धमन्नत्थ पउत्तं, महघयं व भुजिज्ज संजए॥ अरसं विरसं वावि, सूइअं वा असूइअं। उल्लं वा जइवा सुकं, मंथुकुम्मासभोअणं ॥ १५७ ॥ उप्पण्णं नाइहीलिज्जा, अप्पं वा बहुफासुअं । मुहालद्धं मुहाजीवी, भुजिज्जा दोसवजिअं ॥१५८॥ दुल्लहाउ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा। मुहादाई मुहाजीवी, दोवि गच्छति सुग्गइं॥१५९॥तिबेमि॥ |
पिंडेसणाए पढमो उद्देसो समत्तो ५-१॥ भोज्यमधिकृत्य विशेपमाह-'तित्तगं वत्ति-तिक्तकं वा एलुकवालुकादि, कटुकं वाऽऽकतीमनादि, कषायं वल्लादि, आम्लं तक्रारनालादि, मधुरं क्षीरमध्वादिकं, लवणं वा प्रकृतिवारं तथाविधशाकादिलवणोत्कटं वान्यत् , एतत् तिक्तकादि लन्धं-आगमोक्तेन विधिना प्राप्त अन्यार्थ “अक्षोपाङ्गन्यायेन" परमार्थतो मोक्षार्थ प्रयुक्तं तत् साधकमिति कृत्वा मधुचूत मिव भुञ्जीत संयतः, न वर्णाद्यर्थ । अथवा मधुघृतमिव " नो वामाओ हणुयाओ दाहिणं हणुयं संचारेज"त्ति ॥ १५६ ॥ किञ्च-'अरसं'ति अरसं-अप्राप्तरसं हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतमित्यर्थः, विरसं वा-विगतरसमतिपुराणौदनादि, सूचितं
G
॥७९॥
Jain Education Intel
For Private
Personel Use Only
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु० श्रीदशचै०
अ० ५,
उ० १
॥ ८० ॥
Jain Education Internat
ouञ्जनादियुक्तं असूचितं वा तद्रहितं वा " कथयित्वा अकथयित्वा वा दत्त "मित्यन्ये । आर्द्र- प्रचुरण्यञ्जनं, यदि वा शुष्कं स्तोकव्यञ्जनं वा किं तदित्याह-मन्धुकुल्माष भोजनं मन्धु-बदर चूर्णादि, कुल्माषाः सिद्धमापाः, "यत्रमापा" इति चिदिति ॥ १५७ ॥ एतद्भोजनं किमित्याह-' उपपन्नं 'त्ति सूत्रं, उत्पन्नं विधिना प्राप्तं, नातिहीलयेत् सर्वथा नं निन्दयेत्, अल्पमात्रमेतत् न देहपूरकमिति किमनेन ? बहु वा अमारप्रायमिति । वाशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः किंविशिष्टं तदित्याह - प्रासुकं - प्रगतासु निर्जीवमित्यर्थः । अन्ये तु व्याचक्षते - " अल्पं वा वाशब्दाद्विरसादि वा बहु प्रासुकं सर्वथा शुद्धं नातिहीलये"दिति, अपि त्वेवं भावयेत्-यदेवेह लोका ममानुपकारिणः प्रयच्छन्ति तदेव शोभनमिति, एवं मुधा लब्धंकोण्टकादिव्यतिरेकेण प्राप्तं, मुहाजीवी - सर्वथा अनिदान जीवी, “जात्याद्यनाजीवक " इत्यन्ये, भुञ्जीत दोषवर्जितंसंयोजनादिरहितमिति || १५८ ।। एतदुरापमपि दर्शयति-' दुल्लह 'त्ति-दुर्लभा एवं मुधादातारः, तथाविध भागवतत्रत् मुधाजीविनोऽपि दुर्लभाः तथाविधचेलकवत्, अमीषां फलमाह - सुधादातारों मुधाजीविनश्व द्वावप्येतौ गच्छतः सुगतिसिद्धगतिं कदाचिदनन्तरमेव, कदाचित् देवलोकमानुषत्वप्रत्यागमपरम्परया, ब्रवीमीति पूर्ववत् ।
अत्र भागवतोदाहरणम् (दृ० ३) - कश्चित् परिव्राजकः कञ्चनापि भक्तिमन्तं भागवतमवादीत्-यदि मदीयोदन्त मुद्रहसि ततोऽहं तत्र गृहे वर्षासमयमतिवाहयामि तेनोक्तं-यदि मदीयां तप्तिं न करोषि तेनोक्तं एवं करिष्ये, ततः प्रदत्तस्तेन तस्मै समाश्रयः, तद्रक्षणं चकार भोजनादिभिस्तस्य गृहाधिपतिः, अतिक्रान्ते च कियत्यपि काले एकदा प्राप्तच्छिद्रेश्वरैस्तस्य भागवतस्य प्रधानोऽखः प्रमादेन रक्षकाणामपहृतः, प्रभातं वर्त्तते इति न शक्ताः ते तमचं निर्वोढुं ततोऽतिवृक्षगहने बच्वा तं
मुषादक्षयि नि भाग
तोदा
हरणम्
गा. १५६१५९
॥ ८० ॥
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु० श्रीदशवै०
अ० ५, उ० १
॥ ८१ ॥
तेऽन्यत्रोपययुः, अत्रान्तरे प्रातरेव स्नातुं परिव्राजकस्तडागमुपजगाम, दुष्टश्च तेन सरःसमीपवर्त्तिन्यां जाल्यामसौ तुरंगमः, प्रत्यभिज्ञातश्चापि सोऽयमश्वः, योऽस्माकमुपकारिणो भागवतस्य तस्करैरपहृतः, ततस्तेन गत्वा स्वमावास अग्रे गृहपतिपुरुषाणामुक्तं यथा मम स्नातुमितः सरसि गतस्य जाल्यां धौतवासो विस्मृतं, ततस्तैः पुमान् प्रहितः तेन च तत्र गतेन egiser वाजी समानीतश्च कथितो गृहपतये, ततस्तेन समचिन्ति-अपि व्याजेन व्रतिना ममोपकारः कृतस्तत्कथमहं निर्व्याजदानफलं विहाय प्रत्युपकारेण दानप्रवृत्तिं विदधामीति संप्रधार्य गदितोऽसौ परिव्राजकः-भद्र ! व्रज त्वमिदानीं, न कृतोपकारिणे भवते तप्तं विधास्यामि, यस्मादुपकारिणि विहितं दानं निष्फलं उपजायत इति, एवं मुधादायीति ।
मुधाजीविन्युदाहरणमुच्यते ( दृ० ४) - कश्चिन्नरपतिरनित्यतां विलोक्य प्रियाणामपि पुत्रकलत्र मित्र पौत्रादीनां समुपजातवैराग्यो धर्माधर्मपरीक्षां चक्रे को वा अनिसृष्टं भुंक्ते ? ततस्तं परीक्षयामीति संप्रधार्य पुरुषानामुधिकयादिदेश यथा राजा मोदकान् प्रयच्छति, समागत्य परिगृह्यतामिति । समाकण्र्योद्घोषणामुपजग्मुः कापटिकप्रभृतयोऽर्थिनो जनाः, पृष्टाय ते भूभुजा
भवन्तो जीवन्ति १, तत्रैकेनोक्तं-अहं तावत् मुखेन । अपरेण गदितं अहं पादाभ्यां, अपरेणोक्तं-अहं हस्ताभ्यां अन्येन निवेदितं - अहं लोकानुग्रहणेन, क्षुल्लकसाधुनोक्तं- अहं मुधिकयेति, ततस्तां नरपतिः पुनरपि जगाद - कथमेवेति । ततः प्रथमो जगाद अहं तावत्कथको जनानां विस्तार्य रामायणादिकथां कथयामि तेन मुखेन जीवामीति । द्वितीयः प्राह- अहं हि लेखवाहको घटिकामध्ये योजनं लंघयामि तेन पादाभ्यां जीवामि । तृतीयः प्राह- अहं हि लेखकः, अतो हस्ताभ्यां जीवामि । भिक्षुकेणोक्तम्- अहं प्रव्रजितः अतो लोकाणामनुग्रहेण निर्वहणं । पुनः क्षुल्लकसाधुनोक्तं, प्रव्रजितोऽहं जन्मजरा
सुधा
जीविनि
क्षुल्लकोदाहरणम्
॥ ८१ ॥
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु श्रीदशवै०
भोजनविधि:
मरणरोगशोकच्याध्युपद्रवशतोपद्रुतं दारिधदौर्भाग्यकलङ्कवातकलुषितमिष्टवियोगानिष्टसंयोगदुःख जनितकशतरकार्य क्षुधापि|पासाशीतोष्ण क्लेशसहस्रसंकुलं दैन्यचिंताजरादिभिः क्षणमप्यमुक्तसमीपं संसारं विलोक्य, ततो निर्विणः प्रतिपद्या, शारीर- | | मानसानेकदुःखजलधिविलंघनसेतुं सौभाग्यसोजन्यौदार्योपकारकरणपटिष्टं ज्ञानविज्ञानजनक विजितसमस्तराजन्यचक्रराजसंपादकं स्वर्गवाससंपादितसुखातिशयसंदोहं मोक्षफलदायकं जैनधर्म, ततो मुधिकया यथोपलब्धेनाहारजातेन जीवामीति । निशम्य तद्भाषितमहो एष धर्मः सर्वदुःखमोशसाधक इति निश्चित्य, विशेषेणाचार्यसमीपे धर्ममाकर्ण्य प्रतिबुद्धो राज्ये सुत - संस्थाप्य प्रव्रज्यामसौ नरपतिरग्रहीत । एष मुधाजीवीति ।। १५९ ॥
॥ इति पिण्डैषणाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः ५-१॥
उ०१
॥८२॥
पडिग्गहं संलिहित्ता णं, लेवमायाए संजए । दुगंधं वा सुगंधं वा, सवं भुंजे न छड्डए ॥ १६०॥
पिण्डैषणायाः प्रथमोद्देशक एव प्रक्रान्तोपयोगि यन्नोक्तं तद् द्वितीये समुपदर्शयन्नाह-'पडिग्गह'त्ति-प्रतिग्रहभाजनं, संलिह्य-प्रदेशिन्या निरवयवं कृत्वा, कथमित्याह--लेपमर्यादया-अलेपं संलिह्य, संयतः-साधुः, दुर्गन्धि वा सुगन्धि वा भोजनजातं, गन्धग्रहणं रसायुपलक्षणं, सर्व-निरवशेष भुञ्जीत-अश्नीयात् , नोज्झत्-नोत्सृजेत् किश्चिदपि, मा भत्संयमविराधनेति । अस्यैवार्थस्य गरीयस्त्वख्यापनाय सूत्रार्थयोः व्यत्ययोपन्यासः। प्रतिग्रहशब्दो माङ्गलिक इत्युद्देशादौ तदुपन्यासार्थ वा, अन्यथैवं स्यात्-दुर्गन्धि वा सुगन्धि वा सर्व भुञ्जीत नोझेत् । प्रतिग्रहं संलिह्य लेपमर्यादया संयतः। Un८२॥
For Private
Personel Use Only
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
गोचरीविधि:
साधु
श्रीदशवै०
उ०२
॥८३ ॥
विचित्रा च सूत्रगतिरिति ॥ १६० ॥
सेजा निसीहियाए, समावन्नो य गोअरें । अयावयट्रा भुच्चा णं, जइ तेणं न संथरे ॥ १६१॥ तओ कारणमुप्पण्णे, भत्तपाणं गवेसए । विहिणा पुत्वउत्तेणं, इमेणं उत्तरेण य ॥ १६२ ॥
विधिविशेषमाह- सेज'त्ति शय्यायां-बसतो नैषेधिक्यां-स्वाध्यायभूमौ शय्यैव वा असमञ्जसनिषेधान्नैषेधिकी तस्या, समापन्नो वा गोचरे, क्षपकादिः, छात्र(छन्न)मठादौ च, अयावदर्थ भुक्त्वा न यावदर्थ अपरिसमाप्तमित्यर्थः । णमिति वाक्यालङ्कारे । यदि तेन-भुक्तेन, न संस्तरेत् न यापयितुं समर्थः, क्षपको विषमवेलापत्तनस्थो ग्लानो वा भवति ।। १६१॥ 'तओ'त्ति ततः कारणे-वेदनादौ उत्पन्ने पुष्टालम्बन: सन् भक्तपानं गवेषयेत्-अन्वेषयेत् अन्यथा सकृदभुक्तमेव यतीनामिति । विधिना पूर्वोक्तेन "संप्राप्ते भिक्षाकाल" इत्यादिना, अनेन च वक्ष्यमाणलक्षणेनोत्तरेण चेति ।। १६२ ॥ कालेण निक्खमे भिक्खू, कालेण य पडिक्कमे । अकालं च विवजित्ता, काले कालं समायरे ॥१६३॥ अकाले चरसी भिक्खू, कालं न पडिलेहसि। अप्पाणं च किलामेसि, संनिवेसंच गरिहसि ॥१६४॥ सइकाले चरे भिक्खू, कुजा पुरिसकारिअं । अलाभुत्ति न सोइजा, तवुत्ति अहिआसए ॥ १६५ ॥
Jain Education Intern
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु०
श्रीदशवै०
अ० ५,
उ० २
॥ ८४ ॥
तर्हेचावया पाणा, भट्टाए समागया । तं उज्जुअं न गच्छिजा, जयमेव परकमे ॥ १६६ ॥ गोरग्गपट्ठिो अ, न निसीए (इ) ज कत्थई । कहं च न पबंधिजा, चिट्ठित्ता ण व संजए ॥१६७॥ अग्गलं फलिहं दारं, कचाडं वावि संजए । अवलंबिआ न चिटुजा, गोयरग्गगओ मुणी ॥ १६८ ॥ समणं माहणं वात्रि, किविणं वा वणीमगं । उवसंकमंतं भत्तट्ठा, पाणट्ठाए व संजय ॥ १६९ ॥ तमइक्कमित्तु न पविसे, नवि चिट्टे चक्खुगोयरे । एगतमवक्कमित्ता, तत्थ चिट्टिज संजय ॥ १७०॥ वणी' वा तस्स दायगस्सुभयस्त वा । अप्पत्तिअं सिआ हुज्जा, लहुत्तं पवयणस्स वा ॥ १७९॥ डिसेहिए व दिने वा, तओ तम्मि नियत्तिए । उवसंकमिज्ज भत्तट्ठा, पाणट्ठाए व संजए ॥ १७२ ॥
कालेत्ति, यो यस्मिन् ग्रामादावुचित्तो भिक्षाकालस्तेन करणभूतेन निष्क्रामेत्, भिक्षुव्रती व्रजेत् वसतेर्भिक्षायै, कालेन चोचितेनैव यावता स्वाध्यायादि निष्पद्यते तावता प्रतिक्रामेत् - निवर्तेत, भणियं च " खित्तं कालो मायणं तिनिवि पहुष्पंति हिँडउ'ति अट्ठभंगा ", अकालं च वर्जयित्वा येन स्वाध्यायादि न संभाव्यते स खल्वकालः तमपास्य काले कालं समाचरेदिति सर्वयोगोपसङ्ग्रहार्थं निगमनं, भिक्षावेलायां मिक्ष समाचरेत्, स्वाध्यादिवेलायां स्वाध्यायादीनीति । उक्तं च- “ जोगो जोगो जिणसासणंमि दुक्खक्खया पउंजते । अनोन्नमवाहाए असवत्तो होइ कायवो ॥ १ ॥ "
गोचरीविधिः
॥ ८४ ॥
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु०
श्रीदशवै०
अ० ५,
उ० २
।। ८५ ।।
Jain Education Internat
( ओघ० नि० गा० २७७ ) ।। १६३ || अकालचरणे दोषमाह-अकालेत्ति, अकालचारी कश्चित्साधुरलब्धभैक्षः केनचित्साधुना 'प्राप्ता भिक्षा न वे' त्यभिहितः सन्नेवं ब्रूयात्-कुतोऽत्र स्थण्डिलसन्निवेशे भिक्षा १, स तेनोक्तः- अकाले चरसि भिक्षो ! प्रमादात् स्वाध्यायलोभाद्वा, कालं न प्रत्युपेक्षसे, किमयं भिक्षाकालो न वेति, अकालचरणेनात्मानं च क्लामयसि ( ग्लपयसि ) दीर्घाटनन्यूनोदरताभावेन, सन्निवेसं च गर्हसि भगवदाज्ञालोपतो दैन्यं प्रतिपद्येति । यस्मादयं दोषः सम्भाव्यते तस्मादकालाटनं न कुर्यादिति ॥ १६४ ।। आह च सइत्ति, सति-विद्यमाने भिक्षाकाले भिक्षासमये चरेत् भिक्षुः । अन्ये तु व्याचक्षते - स्मृतिकार्ड एव भिक्षाकालोऽभिधीयते, संस्मर्यन्ते यत्र भिक्षुकाः स स्मृतिकालः तस्मिन् चरेत् भिक्षुःभिक्षार्थं यायात् कुर्यात् पुरुषकारं जङ्घाबले सति वीर्याचारं न लङ्घयेत्, तत्र चालाभे सति भिक्षाया अलाभ इति न च शोचयेत्, वीर्याचाराराधनस्य निष्पन्नत्वात्, तदर्थं च भिक्षाटनं नाहारार्थमेवातो न शोचयेत् अपि तु तप इत्यधिसहेत, अनशन न्यूनोदरतालक्षणं तपो भविष्यतीति सम्यग् विचिन्तयेदिति ।। १६५ ।। उक्ता कालयतना । अधुना क्षेत्रयतनामाह-तहेवत्ति, तथैवोच्चावचाः - शोभनाशोभनभेदेन नानाप्रकाराः प्राणिनो भक्तार्थं समागताः बलिप्राभृतिकादिवागता भवन्ति, तजुगं तेषामभिमुखं न गच्छेत्, तत्सन्त्रासनेनान्तरायाधिकरणादिदोपात्, किन्तु यतमेव पराक्रामेत्, तदुद्वेगमनुत्पादयन्निति ॥ १६६ ॥ किंच-गोयरग्गत्ति, गोचरायप्रविष्टस्तु भिक्षार्थं प्रविष्ट इत्यर्थः । न निषीदेत्-नोपविशेत् कश्वित्-गृहदेवकुलादौ संयमोपघातादिप्रसङ्गात् कथां च धर्मकथादिरूपां न प्रबध्नीयात्प्रबन्धेन न कुर्याद् अनेनैकव्याकरणैकज्ञातानुज्ञामाह, अत एवाह-स्थित्वा कालपरिग्रहेण संयत इति, अनेषणाद्वेषादि
कालक्षेत्रयतना
गा. १६३१६७
॥ ८५ ॥
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु श्रीदशवै०
द्रव्य-माव
यतना गा. १६८१७५
उ०२
दोषासादिति स्वार्थः ॥ १३७ ।। उक्ता क्षेत्रयतना। द्रव्ययतनामाह-अग्गलमिति, अर्गलां-गोपुरकपाटादिसम्बन्धिनी | फलक-पाटकादिस्थगनं, द्वारं शाखामयं, कपाटं द्वारयन्त्रं, वापि संयतोऽवलम्ब्य न तिष्ठेल्लाघवविराधनादोषात् । गोचराग्रगतो-भिक्षाप्रविष्टः, संयतो यतिः मुनिपर्यायौ, तदुपदेशाधिकाराददुष्टावेवेति ॥ १६८ ॥ उक्ता द्रव्ययतना। मावयतनामाह-समणंति, श्रमण-निर्ग्रन्थादिरूपं, ब्राह्मणं-धिग्वर्ण, वापि कृपणं वा पिण्डोलकं, वनीपक-दरिद्रं चतुर्णामन्यतममुपसङ्कामन्तं-सामीप्येन गच्छन्तं वा गतं वा भक्तार्थ पानार्थ वा संयतः-साधुरिति ।। १६९ ॥ तमइक्कमित्तुत्ति, तं-श्रमणादिमतिक्रम्योल्लङ्घय न प्रविशेत्, दीयमाने च समुदाने तेभ्यो न तिष्ठेच्चक्षुर्गोचरे, कस्तत्र विधिरित्याह-एकान्तमवक्रम्य तत्र तिष्ठेत्संयत इति ॥ १७० ।। अन्यथैतदोषा इत्याह-वणीमगरसत्ति, वनीपकस्य वा तस्येत्येतत् श्रमणाद्युपलक्षणं, दातुर्वा उभयोर्वा अप्रीतिः कदाचित्स्यात्-अहो अलौकिकन्जतैतेपामिति लघुत्वं प्रवचनस्य वाऽन्तरायदोषश्चेति तस्मान्नैव कुर्यात् ।। १७१ ।। किंतु-पडिसेहिए वेति, प्रतिषिद्धे वा दत्ते वा ततः स्थानात् तस्मिन् वनीपकादौ निवर्तिते सति उपसङ्क्रामेत् भक्तार्थं पानार्थं वापि संयत इति ।। १७२ ।। उप्पलं पउमं वावि, कुमुअं वा मगदंतिअं। अन्नं वा पुप्फसच्चित्तं, तं च संलुंचिआ दए ॥ १७३॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं । दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥ १७४॥ उप्पलं पउमं वावि, कुमुअंवा मगदंति। अन्नं वा पुप्फसच्चित्तं, तं च संमद्दिआ दए ॥ १७५ ॥
Jan Education International
For Private
Personal Use Only
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु०
श्रीदशवै०
अ० ५, उ० २
॥ ८७ ॥
तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं । दितिअं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ १७६ ॥ सालुयं वा विरालियं,कुमुअं उप्पलनालिअं । मुणालिअं सासवनालिअं, उच्छुखंड अनिव्वुडं ॥ १७७॥ तरुणगं वा पवालं, रुक्खस्स तणगस्स वा । अन्नस्स वा वि हरिअस्स, आमगं परिवजए ॥१७८॥ तरुणिगं वा छिवाडिं, आमिअं भजिअं सई । दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥ १७९॥ तहा कोलमणुस्सिन्नं, वेलुअं कासवनालिअं । तिलपप्पडगं नीमं, आमगं परिवज्जए ॥ १८० ॥ तव चालं पिट्ठ, विअडं वा तत्तनिव्वुडं । तिलपिट्ठपूइपिन्नागं, आमगं परिवज्जए || १८१ ॥ कवि माउलिंगं च, मूलगं मूलगत्तिअं । आमं असत्थपरिणयं, मणसावि न पत्थए । १८२ ॥ तदेव फलमंथूणि, बीअमंथूणि जाणिआ । बिहेलगं पियालं च, आमगं परिवज्जए || १८३ ॥
I
परपीडाप्रतिषेधाधिकारादिदमाह - उप्पलंति, उत्पलं- नीलोत्पलादि, पद्मं- अरविन्दं, कुमुदं वा गर्दभकं वा मदन्तिक मेत्तिका, मल्लिकामित्यन्ये, तथाऽन्यद्वा पुष्पं सचित्तं - शाल्मली पुष्पादि, तच्च-संलुञ्जय- अपनीय छिवा दद्यादिति ॥ १७३ ॥ तारिसंति, तादृशं भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं, यतश्चैवं अतो ददतीं प्रत्याचक्षीतन मम कल्पते तादृशमिति ॥ १७४ ॥ एवं तच संमृद्य दद्यात्, संमर्दनं नाम पूर्वच्छिन्नानामेवापरिणतानां मर्द्दनम्, शेषं
अकल्प्य -
निषेधः
गा. १७६
१८३
।। ८७ ।।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु श्रीदशवै|
अकल्प्यनिषेधः गा.१७५.
॥ ८८ ॥
सूत्रद्वयेऽपि तुल्यम् । आह 'एतत्पूर्वमप्युक्तमेव, " संमद्दमाणी पाणाणि, बीयाणि हरियाणि य," इत्यत्र, उच्यते-उक्तं नाम सामान्येन, विशेषाऽभिधानाददोषः ॥ १७५-१७६ ॥ तथा सालुयंति, शालूकं-उत्पलकन्दं, विरालिकां-पलाशकन्द. रूपां, पर्ववल्लिप्रतिपर्ववल्लिप्रतिपर्वकन्दमित्यन्ये । कुमुदोत्पलनालो प्रतीतो, तथा मृणालिकां-पद्मिनी कन्दोत्थाम् , सर्षपनालिकां-सिद्धार्थकमञ्जरी, तथेक्षुखंडमनिर्वृत्तं-सचित्तं, एतच्चानिवृतग्रहणं सर्वत्राभिसम्बध्यते इति ॥ १७७ ।। किंव-तरुणगंति, तरुणकं वा प्रवालं-पल्लवं, वृक्षस्य-चिश्चिणिकादेः, तृणस्य वा-मधुरतणादेः, अन्यस्य वापि हारितस्यार्यकादेः, आमक-अपरिणतं परिवर्जयेदिति ॥ १७८ ॥ तथा तरुणियं वत्ति, तरुणां वा असंजातां वा छिवाडिमिति मुद्दादिफलिं, आमामसिद्धां सचेतनां, तथा भर्जिता, सकृत्-एकवारं, ददती प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशं भोजनमिति ।। १७९ ॥ तहा कोलंति, तथा कोलं-बदरं अश्विनं-वह्वयुदकयोगेनानापादितविकारान्तरं, तथा वेलुकं वंसकरिल्लं, कासवनालिकां श्रीपर्णीफलं, अस्विन्नमिति सर्वत्र योज्यम् । तथा तिलपर्पटकं-पिष्टतिलमयं, नीम-नीमफलं, आमं परिवर्जयेदिति ॥ १८० ॥ तहेवत्ति, तथैव तान्दुलं पिष्टं-लोष्ठ(ट्ट)मित्यर्थः, विकटं वाशुद्धोदकं, तथा तप्तनिवृतं कथितं सच्छीतीभृतं, तप्तानिर्वृतं वा-अप्रवृत्तत्रिदण्डं, तिलपिष्ठ-तिललोष्ठ(टुं) पूतिपिन्नागंसिद्धार्थकखलं, आम परिवर्जयेदिति ॥ १८१॥ कविट्ठत्ति, कपित्थं-कपित्थफलं, मातुलिग वा-बीजपूरकं, मूलकं सपत्रजालकं, मूलकर्तृकां-मूलकन्दचक्कली, आमां अपक्कामशस्त्रपरिणतां स्वकायशस्त्रादिनाऽविध्वस्तां अनन्तकायिकत्वात् गुरुत्वख्यापनार्थमुभयम् । मनसापि न प्रार्थयेदिति ।। १८२ ॥ तहेवत्ति, तथैव फलमन्थून-चदरचूर्णान् , बीजमन्थून-1
॥ ८८ ॥
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु०
श्रीदशवै ०
अ० ५,
उ० २
11 28 11
Jain Education Internat
यवादिचूर्णान् ज्ञात्वा प्रवचनतः विभीतकं बिभीतकफलं, प्रियालं- प्रियालफलं च आमं- अपरिणतं परिवर्जयेदित्यर्थः । १८३ ॥ समुआणं चरे भिक्खू, कुलमुच्चावयं सया । नीयं कुलमइक्कम्म, ऊसढं नाभिधार ॥ १८४ ॥ अदीण वित्तिमेसिज्जा, न विसीइज पंडिए । अमुच्छिओ भोअणंमि, मायपणे एसणार ॥ १८५ ॥ बहु परघरे अस्थि, विविहं खाइमसाइमं । न तत्थ पंडिओ कुप्पे, इच्छा दिज परो न वा ॥ ९८६ ॥ सयणासणवत्थं वा, भत्तं पाणं व संजए । अदितस्स न कुप्पिजा, पञ्चक्खेवि अदीसओ ॥ १८७ ॥
विधिमाह समुयाति, समुदानं भावभैक्ष्यमाश्रित्य चरेत् गच्छेत् भिक्षुः । क्केत्याह- कुलमुच्चावचं सदा, अगर्हितत्वे सति विभवापेक्षया प्रधानमप्रधानं च यथा परिपाठ्येव चरेत् गच्छेत् सदा सर्वकालं, नीचे कुलमतिक्रम्य विभवापेक्षया प्रभूततरलाभार्थं उत्सृतं ऋद्धिमत् कुलं, नाभिधारयेत् न यायात्, अभिष्वङ्गलोकलाघवादिप्रसङ्गादिति ॥ १८४ ॥ किंच-अदीणोत्ति, अदीनो- द्रव्यदैन्यमङ्गीकृत्याम्लानवदनः, वृत्तिं वर्त्तनं एषयेत् - गवेषयेत्, न विषीदेत्अलाभे सति विषादं न कुर्यात् पण्डितः - साधुः, अमूर्च्छितः - अगृद्धो भोजने, लाभे सति मात्राज्ञ आहारमात्रां प्रति एषणारतः- उद्गमोत्पादनैषणापक्षपातीति ॥ १८५ ॥ एवं च परिभावयेत् बहुंति, बहु-प्रमाणतः प्रभूतं परगृहेअसंयतादिगृहेऽस्ति विविधं - अनेकप्रकारं वाद्यं स्वाद्यं एतच्चाशनाद्युपलक्षणं, न तत्र पण्डितः कुप्येत्-सदपि न ददातीति न रोषं कुर्यात्, किंतु-इच्छया दद्यात्परो न वेति, इच्छा परस्य, न तत्रान्यत् किञ्चिदपि चिन्तयेत्,
भैक्ष्य
विधिः
गा. १८४१८७
॥ ८९ ॥
*
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
मैक्ष्य
साधु श्रीदशवै
विधिः गा. १८८१९२
उ०२
सामायिकबाधनादिति ॥ १८६ ॥ एतदेव विशेषेणाह-सयणत्ति, शयनासनवस्त्रं चेत्येकवद्भावः। भक्तं पानकं वा संयतोऽददतो न कुप्येत तत्स्वामिनः, प्रत्यक्षेऽपि च दृश्यमाने शयनासनादाविति ॥ १८७ ॥ इत्थिअं पुरिसं वावि, डहरं वा महल्लगं । वंदमाणं न जाइज्जा, नो अणं फरुसं वए ॥१८८॥ जे न वंदे न से कुप्पे, वंदिओ न समुक्कसे । एवमन्नेसमाणस्स सामण्णमणुचिट्ठइ ॥ १८९॥
किंच-इत्थियंति, स्त्रियं वा पुरुषं वा, अपिशब्दात् तथाविधं नपुंसकं वा डहरं-तरुण, महल्लकं वा-वृद्धं वा, वाशब्दान्मध्यम वा, वन्दमानं सन्तं भद्रकोऽयमिति न याचयेत्, विपरिणामदोषात् , अन्नाद्यभावेन याचितादाने, न चैनं परुषं यात्-वृथा ते वन्दनमित्यादिरिति । पाठान्तरं वा-'वन्दमानोन याचेत लल्लिव्याकरणेन' शेषं पूर्ववदिति ॥१८८॥ तथा-जेन वंदेत्ति, यो न वन्दते कश्चिद् गृहस्थादिने से तस्मै कुप्येत् । तथा वन्दितः केनचिन्नृपादिना न समुत्कर्षेत् । एवं-उक्तेन प्रकारेण अन्वेषमाणस्य-भगवदाज्ञामनुपालयतः, श्रामण्यमनुतिष्ठति अखण्डितमिति सूत्रार्थः॥१८९॥ सिआ एगइओ लड़े, लोभेण विणिगूहइ । मामेयं दाइयं संतं, दणं सयमायए ॥ १९०॥
अत्तट्ठागुरुओ लुद्धो, बहुं पावं पकुवइ । दुत्तोसओ अ सो होइ, निवाणं च न गच्छइ ॥ १९१ ॥ सिआ एगइओ ल , विविहं पाणभोअणं । भद्दगं भद्दगं भुच्चा, विवन्नं विरसमाहरे ॥ १९२ ॥
॥
९
For Private & Personel Use Only
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु श्रीदशवै० अ०५, उ.२
स्वपक्षस्तेयनिषेधः गा.१९०१९४
॥ ९१
| जाणंतु ता इमे समणा, आययट्ठी अयं मुणी । संतुट्ठो सेवए पंतं, लूहवित्ती सुतोसओ ॥ १९३॥ प्रअणदा जसोकामी, माणसम्माणकामए। बहुं पसवई पावं, मायासलं च कुबह ॥ १९४॥ - स्वपक्षस्तेयप्रतिषेधमाह-सियत्ति, स्यात्-कदाचित् एकका-कश्चिदत्यन्तजघन्यो लब्ध्वोत्कृष्टमाहारं लोभेनअभिष्वङ्गेण विनिगूहते-अहमेव भोक्ष्य इत्यन्तप्रान्तादिनाऽऽच्छादयति । किमित्यत आह-मा मम इदं भोजनजातं दर्शितं सदृष्ट्वा आचार्यादिः स्वयमादद्यादात्मनैव गृहीयादिति ॥ १९० ॥ अस्य दोषमाह-अत्तत्ति, आत्मार्थ एव जिघन्यो गुरुः-पापप्रधानो यस्य स आत्मार्थगुरुः, लुब्धः सन् क्षुद्रभोजने बहु-प्रभृतं पापं प्रकरोति-मायया द्रारिद्यकर्मेत्यर्थः । अयं परलोकदोषः। इहलोकदोपमाह-दुस्तोषश्च भवति-येन केनचिदाहारेणास्य क्षुद्रसत्वस्य तुष्टिः कर्तन शक्यते । अत एव निर्वाणं च न गच्छति-इहलोके च धृति न लभते, अनन्तसंसारिकत्वाद्वा मोक्षं न गच्छतीति ॥१९॥ एवं यः प्रत्यक्षमपहरति स उक्तः, अधुना यः परोक्षमपहरति स उच्यते-सियत्ति, स्यादेको लब्ध्वेति पूर्ववत् , विविधंअनेकप्रकारं पानभोजनं तत्र भिक्षाचर्यागत एव भद्रकं भद्रकं-घृतपूर्णादि भुवा विवर्ण-विगतवर्ण आम्लखलादि, विरसं-विगतरसं-शीतौदनादि आहरेद-आनयेदिति ।। १९२ ।। स किमर्थमेवं कुर्यादित्याह-जाणंतुत्ति, जानन्तु मां तावत् इमे श्रमणा:-शेषसाधवः यथा आयतार्थी-मोक्षार्थी अयं मुनिः-साधुः सन्तुष्टो-लाभालामयोः समः सेवते प्रान्तं-असारं, रूक्षवृत्तिः-संयमवृत्तिः, सुतोष्या-येन केनचित्तोपं नीयत इति ॥१९३॥ एतदेव किमर्थ मेवं कर्यादित्याहपूयणट्टत्ति, पूजार्थमेवं कुर्वतः स्वपक्षपरपक्षाम्यां सामान्येन पूजा भविष्यतीति, यशस्कामी-अहो अयमिति प्रवादार्थी
॥९१ ॥
For Private & Personel Use Only
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु श्रीदशवै०
सुरापाननिषेधः गा. १९५
उ.२
॥ ९२ ।।
वा, मानसन्मानकामका एवं कुर्यात् । तत्र वन्दनाभ्युत्थानलाभनिमित्तो मानो, वस्त्रपात्रादिलाभनिमित्तश्च सन्मान इति । म चैवम्भृतो बहु-अतिप्रचुरं प्रधानसंक्लेशयोगात् प्रसूते-निवर्तयति पापं, तद्गुरुत्वादेव सम्यगनालोचयन् मायाशल्यं च-भावशल्यं च करोतीति ॥ १९४ ॥ सुरं वा मेरगं वा वि, अन्नं वा मज्जगं रसं । ससक्खं न पिबे भिक्खू, जसं सारक्खमप्पणो ॥१९५॥ पियए एगओ तेणो, न मे कोइ विआणइ। तस्स पस्सह दोसाई, निअर्डिं च सुणेह मे ॥ १९६ ॥ वड्ढई सुंडिआ तस्स, मायामोसं च भिक्खुणो। अयसो अ अनिवाणं, सययं च असाहुआ।। १९७॥ निच्चुबिगो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई । तारिसो मरणंतेऽवि, न आराहेइ संवरं ॥ १९८ ॥ आयरिए नाराहेइ, समणे आवि तारिसे। गिहत्थावि ण गरिहंति, जेण जाणंति तारिसं ॥ १९९ ॥ एवं तु अगुणप्पेही, गुणाणं च विवजए । तारिसो मरणंतेऽवि, ण आराहेति संवरं ॥ २०० ॥
प्रतिषेधान्तरमाह-सुरं वेति, सुरां वा-पिष्टादिनिष्पत्रां, मेरकं चापि-प्रसन्नाख्या, सुराप्रायोग्यद्रव्यनिष्पन्नमन्यं वा, ] मद्यरसं-सीध्वादिरूपं, ससाक्षिक-सदापरित्यागसाक्षिकेबलिप्रतिषिद्धं न पिबेत् भिक्षुः, अनेनात्यन्तिक एव तत्प्रतिषेधः, सदासाक्षिभावात् । किमिति न पिबेदित्याह-यशः संरक्षनात्मनः, यशःशब्देन संयमोऽभिधीयते । अन्ये तु ग्लानाप
का॥९२॥
For Private & Personel Use Only
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
सुरापान
। दोषः
साधु श्रीदशवै० अ०५, उ०२
गा.१९५
२००
गामयाधनेन परमार्थतापरपक्षयोः, तथा अतृप्तिदुःख अापलापेन वर्द्धते तस्य
॥ ९३ ॥
वादविषयं एतत् सूत्रमल्पसागारिकविधानेन व्याचक्षत इति ॥ १९५॥ अत्रैव दोषमाह-पियएत्ति, पिवत्येको-धर्मसहायविप्रमुक्त एकान्तस्थितो वा स्तेनः-चौरोऽसौ भगवददत्तग्रहणात अन्योपदेशयाचनाद्वा न मां कश्चिन्जानाति विभावयन् तस्येत्थंभूतस्य पश्यत दोषानैहिकान् पारलौकिकांश्च निकृति च-मायारूपां शृणुत ममेति ॥ १९६ ॥ वड्डइत्ति, वर्धते शोण्डिका-तदत्यन्ताभिष्वङ्गरूपा तस्य मायामृषावादं चेत्येकवद्भावः, प्रत्युपलब्धापलापेन वर्धते तस्य भिक्षोः, इदं च भवपरम्पराहेतुरनुबन्धदोषात , तथाऽयशश्च स्वपक्षपरपक्षयोः, तथा अतृप्तिदुःख-अनिर्वाणं, तदलामे सततं चासाधुता लोके व्यवहारतश्चरणपरिणामवाधनेन परमार्थत इति ॥१९७॥ निच्चुब्विगोत्ति, स इत्थंभूतो नित्योद्विग्न:-सदा अप्रशान्तो यथा स्तेनः-चौरः आत्मकर्मभिः-स्वदुश्चरितैः दुर्मतिः-दुर्बुद्धिस्तादृशः-क्लिष्टचित्तो(सत्त्वो) मरणान्तेऽपिचरमकालेऽपि नाराधयति संवरं-चारित्रं, सदैवाकुशलवुद्धथा तबीजाभावादिति ॥ १९८।। तथा आयरिएत्ति आचायोन् नाराधयत्यशुद्धभावत्वात् श्रमणांश्चापि तादृशो नाराधयत्यशुद्धभावत्वादेव, गृहस्था अप्येनं दुष्टशील गहॅन्तिकुत्सन्ति । किमिति ?, येन जानन्ति तादृशं-दुष्टशीलमिति ॥१९९।। एवं तु त्ति, एवं तु उक्तेन प्रकारेण अगुणप्रेक्षीअगुणान्-प्रमादादीन् प्रेक्षते तच्छीलच य इत्यर्थः। तथा गुणानां चाप्रमादादीनां स्वगतानामनासेवनेन परगताना च प्रद्वेषेण विवर्जकः-त्यागी, तादृशः-क्लिष्टचित्तो मरणान्तेऽपि नाराधयति संवरं-चारित्रमिति गाथार्थः ॥ २०० ।। तवं कुबइ मेहावी, पणीअं वजए रसं। मज्जप्पमायविरओ, तवस्सी अइउक्कसो ॥ २०१॥ तस्स पस्सह कल्लाणं, अणेगसाहपइअं। विउलं अत्थसंजुत्तं, कित्तइस्सं सुणेह मे ॥ २०२ ॥
पि तादृशो नाति॥१९९॥ एवं मादादीनां स्वा
॥ ९३॥
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धवृत्तस्य फलम् गा. २०१० २०४
सुमति
16 एवं तु सगुणप्पेही, अगुणाणं च विवजए । तारिसो मरणंतेऽवि, आराहेइ संवरं ॥ २०३ ॥ साधु
आयरिए आराहेइ, समणे आवि तारिसे। गिहत्थावि ण(एणं) पूयंति, जेण जाणंति तारिसं ॥२०४॥ श्रीदशवै. अ०५,
यतश्चैवमत एतद्दोपपरिहारेण तवंति, तपःप्रकरोति मेधावी-मर्यादावर्ती, प्रणीतं-स्निग्धं वर्जयति रसं
घृतादिकं, न केवलमेतत्करोति अपि तु मद्यप्रमादविरतो, नास्ति क्लिष्टसच्चानामकृत्यमित्येवं प्रतिषेधः। तपस्वी-साधुः उ०२
अत्युत्कर्ष:-अहं तपस्वीत्युत्कर्षरहित इति सूत्रार्थः ॥२०९ ॥ तस्सत्ति, तस्येत्थंभूतस्य पश्यत कल्याणं-गुण॥ ९४॥ सम्पद्रपं संयमम् । किं विशिष्टमित्याह-अनेकसाधुपूजितं पूजितमिति-सेवितमाचरितं, विपुलं-विस्तीर्ण विपुलमोक्षावह
त्वात् । अर्थसंयुक्तं-तुच्छतादिपरिहारेण निरुपमसुखरूपमोक्षसाधनत्वात् , कीर्तयिष्ये अहं शृणुत मे-ममेति ॥ २०२ ॥ एवं तु, एवं तु-उक्तेन प्रकारेण स-साधुर्गुणप्रेक्षी-गुणान्-अप्रमादादीन् प्रेक्षते तच्छीलश्च य इत्यर्थः, तथा अगुणानां च-प्रमादादीनां स्वगतानामनासेवनेन परगतानां चाननुमत्या विवर्जका-त्यागी, तादृशः-शुद्धवृत्तो मरणान्तेऽपिमरण( चरम )कालेऽपि आराधयति संवरं-चारित्रं सदैव कुशलबुद्ध्या तबीजपोषणादिति ॥२०३ ॥ आयरियएत्ति, आचार्यान् आराधयति, शुद्धभावत्वात् । श्रमणांश्चापि तादृशः समाराधयति, शुद्धभावत्वादेव, गृहस्था अप्येनंशुद्धवृत्तं पूजयन्ति, किमिति ? येन जानन्ति तादृशं-शुद्धवृत्तमिति ॥ २०४ ॥ तवतेणे वयतेणे, रूवतणे अ जे नरे । आयारभावतेणे अ, कुबई देवकिविसं ॥ २०५ ॥1
॥९४ ॥
Jain Education Internation
For Private & Personel Use Only
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु मीदशवै० अ०५, उ०२
मायामृषावादनिषेधः मा.२०४२०८
॥९५॥
लद्धणवि देवत्तं, उववन्नो देवकिविसे। तत्थावि से न याणाइ, किं मे किच्चा इमं फलं? ॥२०६ ॥ तत्तोवि से चइत्ताणं, लब्भिही एलमूअगं। नरयं तिरिक्खजोणिं वा, बोही जत्थ सुदुल्लहा ॥ २०७॥ | एअंच दोसं दट्ठणं, नायपुत्तेण भासिअं। अणुमायपि मेहावी, मायामोसं विवजए ॥२०८॥ ___ स्तेनाधिकार एवेदमाह-तवत्ति, तपस्तेनो वाइस्तेनो रूपस्तेनश्च यो नरः कश्चिद् आचारभावस्तेनश्च [नामक्षपकरूपश्च] पालयन्नपि क्रियां तथाभावदोषात् करोति देवकिल्विषं कर्म निवर्तयतीत्यर्थः, तत्र तपस्तेनो नाम क्षपकरूपकल्पः कश्चित् केनचित् पृष्टः, त्वमसी क्षपक इति', पूजाद्यर्थमाह-अहं, अथवा वक्ति-साधव एव क्षपकास्तूष्णीं वाऽऽस्ते, एवं वास्तेनो धर्मकथकादितुल्यरूपः कश्चित्केनचित्पृष्ट इति । एवं रूपस्तेनो राजपुत्रादेस्तुल्यरूपः। एवमाचारस्तेनो विशिष्टाचारवर्तितुल्यरूप इति । भावस्तेनस्तु परोत्प्रेधितं कथश्चित्केनचित् श्रुत्वा स्वयमनुत्प्रेक्षितमपि मयैतत्प्रपञ्चेन चर्चितमित्याहेति ॥२०५।। अयं चेत्थंभूतः, लणवित्ति, लब्ध्वापि देवत्वं तथाविधक्रियापालनवशेनोपपन्नो देवकिल्बिषे-देवकिल्विषिका ये, तत्राप्यसौ न जानाति विशुद्धावध्यभावात् , किं मम कृत्वेदं फलं-किल्बिषिकदेवत्वमिति ॥ २०६॥ अस्यैव दोषान्तरमाह-तत्तोत्ति, ततोऽपि देवलोकादसौ च्युत्वा लप्स्यते एलमूकता-अजभाषानुकारित्वं मानुषत्वे, तथा नरकं तिर्यग्योनि वा पारम्पर्येण लप्स्यते, धिर्यत्र सुदुर्लभः-सकलसम्पनिबन्धना यत्र जिनधर्मप्राप्तिरापा । इह च प्राप्नोत्येलमुकवामिति वाच्ये असमाक्प्राप्तिरूयापनाय लप्स्यत इति भविष्यत्कालनिर्देश इति ॥२०७।। प्रकृतमुपसंहरति
॥१५॥
Jain Educat an international
For Private Personal Use Only
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु० श्रीश०
अ० ५,
उ० २
॥ ९६ ॥
Jain Education Intern
एयं चेति, एनं दोषं - अनन्तरोदितं सत्यपि श्रामण्ये किल्बिषकत्वादिप्राप्तिरूपं दृष्ट्वा आगमतो ज्ञातपुत्रेण-भगवता वर्द्धमानेन भाषितं - उक्तं अणुमात्रमपि स्तोकमात्रमपि किमुत प्रभूतं १ मेघावी मर्यादावर्त्ती, मायामृषावादअनन्तरोदितं विवर्जयेत्परिवर्जयेदिति ॥ २०८ ॥
सिक्खिऊण भिक्खे सण सोहिं, संजयाण बुद्धाण सगासे ।
तत्थ भिक्खु सुप्पणिहिइंदिए, तिब्वलज्जगुणवं विहरिज्जासि ॥ २०९ ॥ त्तिबेमि ।
॥ पंचमं पिंडेसणानामज्झयणं समत्तं ॥
अध्ययनार्थमुपसंहरन्नाह - सिक्खिणत्ति, शिक्षयित्वाऽधीत्य भिक्षैषणाशुद्धि - पिण्ड मार्गणाशुद्धिमुद्रमादिरूपां केभ्यः सकाशादित्याह संयतेभ्यः साधुभ्यः, बुद्धेभ्योऽयगततश्वेभ्यो गीतार्थेभ्यो न द्रव्यसाधुभ्यः सकाशात् । ततः किमित्याह तत्र भिक्षैषणायां भिक्षुः-साधुः सुप्रणिहितेन्द्रियः - श्रोत्रादिभिर्गाढं तदुपयुक्तस्तीवलज्जः - उत्कृष्टसंयमः सन् , अनेन प्रकारेण गुणवान् विहरेत्- सामाचारीपालनं कुर्यात्, ब्रवीमीति पूर्ववदिति ॥ २०९ ॥
॥ इति पिण्डेषणाध्ययने द्वितीय उद्देशकः समाप्तः, समाप्तं च पिण्डेषणाध्ययनम् ५ ॥
--—
उपदेशः गा. २०९
॥ ९६ ॥
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु
श्रीदशवै०
आचारपृच्छा गा.२१०. २१४
॥ ९७॥
व्याख्यातं पिण्डैषणाध्ययन, अधुना महाचारकथाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने साधोमिक्षाविशोधिरुक्ता, इह तु गोचरप्रविष्टेन सता स्वाचारं पृष्टेन तद्विदाऽपि न महाजनसमक्षं तत्रैव विस्तरतः कथयितव्य इति, अपि त्वालये गुरवो वा कथयन्तीति वक्तव्यमित्येतदुच्यते, उक्तं च-" गोयरग्गपविट्ठो उ, न निसीएज कत्थइ । | कहं च न पबंधेजा चिट्ठिता ण व संजए ॥१॥" इत्यनेनाभिसम्बन्धेनायातमिदमध्ययनमिति, तच्चेदंनाणदंसणसंपन्नं, संजमे अ तवे रयं । गणिमागमसंपन्नं, उजाणम्मि समोसढं ॥ २१० ॥ रायाणो रायमच्चा य, माहणा अदुव खत्तिआ। पुच्छंति निहुअप्पाणो, कहं भे आयारगोयरो? ॥२११॥ तेसिं सो निहुओ दंतो, सबभूअसुहावहो । सिक्खाए सुसमाउत्तो, आयक्खइ विअक्खणो ॥२१२॥ हंदि धम्मत्थकामाणं, निग्गंथाणं सुणेह मे । आयारगोअरं भीम, सयलं दुरहिट्ठिअं ॥ २१३ ॥ नन्नत्थ एरिसं वुत्तं, जं लोए परमदुच्चरं । विउलट्ठाणभाइस्स, न भूअं न भविस्सइ ॥ २१४ ॥
नाणदंसणसंपन्नमित्यादि, ज्ञानदशनसंपन्न ज्ञान-श्रुतज्ञानादि दर्शनं-क्षायोपशमिकादि ताभ्यां संपन्नं-युक्तं संयमेपञ्चाश्रवविरमणादौ तपसि च-अनशनादौ रतं-आसक्तं, गणोऽस्यास्तीति गणी तं गणिनं-आचार्य, आगमसंपन्नंविशिष्टश्रुतघरं, बह्वागमत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थमेतत् । उद्याने-क्वचित्साधुप्रायोग्ये समवसृतं-स्थितं धर्मदेशनार्थ वा प्रवृत्तमिति ॥ २१० ॥ तत्किमित्याह-रायाणोत्ति, राजानः-नरपतयः, राजामात्याश्च-मन्त्रिणः, ब्राह्मणाः प्रतीताः
॥ ९७ ।।
an Education Inter
For Private
Personal Use Only
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साघु० श्रीदशवै० अ० ६
1186 11
Jain Education Intera
अदुवत्ति तथा क्षत्रियाः श्रेश्यादयः पृच्छन्ति निभृतात्मानः - असम्भ्रान्ता रचिताञ्जलयः, कथं भे- भवतामाचारगोचरः- क्रियाकलापः स्थित इति ॥ २१९ ॥ तेसिंति, तेभ्यो राजादिभ्यः, असौ गणी निभृतोऽसम्भ्रान्तः उचितधर्मकास्थित्या दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमाभ्यां सर्वभूतसुखावहः - सर्वप्राणिहित इत्यर्थः । शिक्षया-ग्रहणासेवनारूपया, सुसमायुक्तः- सुष्ठु - एकीभावेन युक्तः, आख्याति-कथयति विचक्षणः पण्डित इति ॥ २१२ ॥ हंदि धम्मत्थ, हन्दीत्युपप्रदर्शने, तमेनं धर्मार्थकामानामिति, धर्मः - चारित्रधर्मादिस्तस्यार्थः - प्रयोजनं मोक्षस्तं कामयन्ति - इच्छन्तीति विशुद्धविहितानुष्ठानकरणेनेति धर्मार्थकामा - मुमुक्षवस्तेषां निर्ग्रन्थानां - बाह्याभ्यन्तरग्रन्थरहितानां शृणुत मम समीपात् आचारगोचरं-क्रियाकलापं भीमं कर्मशच्यपेक्षया रौद्रं सकलं - संपूर्ण दुरधिष्ठं (ष्ठितं ) - क्षुद्रसचैर्दुराश्रयमिति ॥ २१३ ॥ हानन्तरसूत्रे निर्ग्रन्थानामाचारगोचरकथनोपन्यासः कृतः, साम्प्रतमस्यैवार्थतो गुरुतामाह - नन्नत्थत्ति, न अन्यत्र - कपिलादिमते ईदृशं उक्तमाचारगोचरं वस्तु यलोके - प्राणिलोके परमदुश्वरं - अत्यन्तदुष्करमित्यर्थः । ईदृशं च विपुलस्थान भाजिनः - विपुलस्थानं - विपुलमोक्षहेतुत्वात् संयमस्थानं तद्भजते-सेवते तच्छीलश्च यः तस्य, न भूतं न भविष्यतीति अन्यत्र जिनमतादिति ॥ २९४ ॥
सखुड्डगविअत्ताणं, वाहिआणं च जे गुणा । अखंडफुडिआ कायव्वा, तं सुणेह जहा तहा ||२१५|| दस अट्ठ य ठाणाई, जाई बालोऽवरज्झइ । तत्थ अन्नयरे ठाणे, निग्गंथत्ताउ भस्सइ ॥ २१६ ॥ एतदेव संभावयन्नाह-सखुड्डुगत्ति, सह क्षुल्लकैः- द्रव्यभाववालैर्ये वर्त्तन्ते ते व्यक्ता - द्रव्यभाववृद्वास्तेषां सक्षुल्लक
आचारकथने
जिनमतस्याद्विती
यत्वम् गा. २१५२१६
।। ९८ ।।
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु मीदशवै०
२१८
॥९९॥
व्यक्तानां, सवालवृद्धानामित्यर्थः, व्याधिमतां चशब्दादव्याधिमतां च, सरुजानां नीरुजानां चेतिमावः। जे ये गुणा वक्ष्य- अष्टादश माणलक्षणास्तेऽखण्डास्फुटिताः कर्तव्याः, अखण्डा देशविराधनापरित्यागेन अस्फुटिताः सर्वविराधनापरित्यागेन, तत् स्थानानि श्रृणुत यथा कर्तव्यास्तथेति ॥२१५॥ ते चागुणपरिहारेणाखण्डास्फुटिता भवन्तीत्यगुणास्तावदुच्यन्ते-दसेत्ति-दशाष्टौ च गा . २१७स्थानानि-असंयमस्थानानि वक्ष्यमाणलक्षणानि यान्याश्रित्य बाल:-अज्ञोऽपराध्यति तत्सेवनयाऽपराधमामोति । कथमपराध्यतीत्याह-तत्रान्यतरे स्थाने वर्तमानः प्रमादेन निग्रंथत्वात्-निर्ग्रन्थमावाद् भ्रश्यति निश्चयनयेनापैति बाल इति ॥ २१६ ॥ ___कानि पुनस्तानि स्थानानि ? इत्याह-"वयछक्कं कायछक्कं, अकप्पो गिहिभायणं । पलियंकनिसजा य, सिणाणं सोहवजणं ॥" (दश नि० २७० ) ॥ वयछक्कन्ति, व्रतषट्कं-प्राणातिपातनिवृत्त्यादीनि रात्रिभोजनविरतिषष्ठानि षड्व्रतानि, कायषट्कं-- पृथिव्यादयः षड्जीवनिकायाः, अकल्पा-शिक्षकस्थापनाकल्पादिर्वक्ष्यमाणः, गृहिभाजनं-गृहस्थभाजनं गृहस्थसम्बन्धि कांस्यभाजनादि प्रतीतं, पर्यङ्कः-शयनीयकविशेषः प्रतीतः, निषद्या च-गृहे एकानेकरूपा, स्नानं-देशसर्वमेदभिन्नं, शोभावर्जन-विभूषापरित्यागः, वर्जनमिति च प्रत्येकमभिसम्बध्यते शोभावर्जनं स्नानवर्जनमित्यादीति ॥ २७० ॥ | तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसि । अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो ॥ २१७ ॥
जावंति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा । ते जाणमजाणं वा, न हणे णोवि घायए ॥ २१८॥
॥ ९
Jain Education Internal
For Private & Personel Use Only
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु० श्रीदशबै०
अ० ६
॥१००॥
Jain Education Intern
सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिजिउं । तम्हा पाणवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ २१९ ॥ गुणा अष्टादशसु स्थानेष्वखण्डास्फुटिताः कर्तव्याः, तत्र विधिमाह - तत्थिमन्ति, तत्राष्टादशविधे स्थानगणे व्रतपट्के वानासेवनाद्वारेणेदं वक्ष्यमाणलक्षणं प्रथमं स्थानं महावीरेण भगवता अपश्चिमतीर्थकरेण देशितं कथितं यदुताहिंसेति । इयं च सामान्यतः प्रभूतैर्देशितेत्याह- निपुणा-आधाकमद्यपरिभोगतः कृतकारितादिपरिहारेण सूक्ष्मा, नागमद्वारेण देशि - अपि तु दृष्टा - साक्षाद्धर्मसाधन (क) त्वेनोपलब्धा, किमितीयमेव निपुणेत्याह-यतोऽस्यामेव महावीरदेशितायां सर्वभूतेषुसर्वभूतविषयः संयमो, नान्यत्र उद्दिश्यकतादिभोगविधानादिति ॥ २१७ ॥ एतदेव स्पष्टयन्नाह - जावंतित्ति, यतो हि भागवत्याज्ञा - यावन्तः केचन लोके प्राणिनस्त्रसा - द्वीन्द्रियादयः, अथवा स्थावराः - पृथिव्यादयः तान् जानन् रागाद्यभिभूतो व्यापादनबुद्ध्याऽजानन्वा प्रमादपारतन्त्र्येण न हन्यात्स्वयं नापि घातयेत् अन्यैः, एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात् घ्नतोऽपि अन्यान्न समनुजानीयात् अतो निपुणा दृष्टेति ॥ २९८ ॥ अहिंसैव कथं साध्वीत्येतदाह-सव्वेत्ति, सर्वे जीवा अपि दुःखितादिमेदभिन्ना इच्छन्ति जीवितुं न मतुं प्राणवल्लभत्वाद् । यस्मादेवं तस्मात्प्राणवधं घोरं रौद्रं दुःखहेतुत्वात् निर्ग्रन्थाः - साधवो वर्जयन्ति भावतः । णमिति वाक्यालङ्कारे इति ॥ २१९ ॥
अपट्टा पट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया । हिंसगं न मुलं बूआ, नो वि अन्नं वया ॥ २२०॥ मुसावाओ उ लोगम्मि, सव्वसाहूहिं गरिहिओ । अविस्सासो अ भूआणं, तम्हा मोसं विवज्जए ॥ २२१॥
प्रथमं
स्थानम्
गा. २१९२२१
॥१००॥
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु श्रीदशवै०
द्वितीयतृतीयस्थाने गा. २२२. २२३
॥१०॥
उक्तः प्रथमस्थानविधिः, अधुना द्वितीयस्थानविधिमाह-अप्पणट्ठत्ति, आत्मार्थ-आत्मनिमित्तं अग्लान एव ग्लानोहं | ममानेन कार्यमित्यादि, परार्थ वा-परनिमित्तं वा एवमेव, तथा क्रोधादा त्वं दास इत्यादि, एकग्रहणे तजातीयग्रहणमिति मानाद् वा, अबहुश्रुत एवाहं बहुश्रुत एवमादि, मायातो भिक्षाटनपरिजिहीर्षया पादपीडा ममेत्यादि,लोभात् शोभनतरानलामे | सति प्रान्तस्यैषणीयत्वेऽपि अनेषणीयमिदमित्यादि, यदिवा भयात्किश्चिद्वितथं कृत्वा प्रायश्चित्तभयान कृतमित्यादि, एवं हासादिष्वपि वाच्यं । अत एवाह-हिंसक-परपीडाकारि सर्वमेव न मृषा यात् स्वयं, नाप्यन्यं वादयेत् , एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात अवतोऽप्यन्यान्न समनुजानीयादिति ॥ २२०॥ किमित्येतदित्याह-मुसाबाउत्ति, मृपावादो हि लोके सर्वस्मिन्नेव सर्वसाधुभिर्गहितो-निन्दितः, सर्वव्रतापकारित्वात् , प्रतिज्ञातापालनात् अविश्वासश्च-अविश्वसनीयश्च
भूतानां मृषावादी भवति, यस्मादेवं तस्मात् मृषावादं वर्जयेदिति ॥ २२१॥ | चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । दंतसोहणमित्तंपि, उग्गहांस अजाइया ॥ २२२ ॥ | तं अप्पणा न गिण्हंति, नोवि गिण्हावए परं। अन्नं वा गिण्हमाणंपि, नाणुजाणंति संजया॥२२३॥ ____ उक्तो द्वितीयस्थानो विधिः । साम्प्रतं तृतीयस्थानविधिमाह-चित्तमंतंत्ति, चित्तवत्-द्विपदादि वा अचित्तवद्वाहिरण्यादि, अल्पं वा-मूल्यतःप्रमाणतश्च, यदि वा बहु-मूल्यप्रमाणाभ्यामेव, किं बहुना? दन्तशोधनमात्रमपि तथाविधं तृणादि अवग्रहे यस्य तत्तमयाचित्वा न गृह्णन्ति साधवः कदाचनेति ।। २२२ ॥ एतदेवाह-तमिति, तचित्तवदादि आत्मना न गृह्णन्ति विरतत्वान्नापि ग्राहयन्ति परं विरतत्वादेव, तथाऽन्यं वा गृह्णन्तमपि स्वयमेव न अनु
॥१.१॥
Jain Education Inter
T
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थ
सुमतिसाधु श्रीदश०
स्थानम् गा.२२४
२२८
॥१.२।।
जानन्ति-नानुमन्यन्त संयता इति ॥ २२३ ॥
अबंभचरिअं घोरं, पमायं दुरहिट्रिअं। नायरंति मुणी लोए, भेआययणवजिणो ॥ २२४ ॥ मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा वजयांत णं ॥ २२५॥
उक्तः तृतीयस्थानविधिः,चतुर्थस्थानविधिमाह-अबंभत्ति,अब्रह्मचर्य प्रतीतं, घोरं-रौद्रं रौद्रानुष्ठानहेतुत्वात् , प्रमादप्रमादवत् सर्वप्रमादमूलत्वात् , दुरधिष्ठितं-दुराश्रयं दुस्सेवं विदितजिनवचनेनानन्तसंसारहेतुत्वात् , यतश्चैवमतो नाचरन्तिनासेवन्ते मुनयो लोके-मनुष्यलोके किं विशिष्टा ? इत्याह-भेदायतनवर्जिन:-भेदः-चारित्रभेदः तदायतनं-तत्स्थानमिदमेवोक्तन्यायात्तद्वर्जिनः चारित्रातिचारभीरव इति ॥ २२४ ॥ एतदेव निगमयति-मूलमेयत्ति, मूलं-बीजमेतदधर्मस्य पापस्येति पारलौकिकोऽयायः। महादोषसमुच्छूयं महतां दोषाणां चौर्यप्रवृत्यादीनां समुच्छ्रयं-सङ्घातबदिति ऐहिकोऽपायः। यस्मादेवं तस्मान्मैथुनसंसर्ग इति प्राकृतत्वात् मैथुनसंसर्ग-मैथुनसम्बन्धं योषिदालापाद्यपि निर्ग्रन्था वर्जयन्ति, णमिति वाक्यालङ्कार इति ॥ २२५ ॥ विडमुब्भेइमं लोणं, तिल्लं सप्पिं च फाणि।न ते संनिहिमिच्छति, नायपुत्तवओरया ॥ २२६ ॥ लोहस्सेस अणुप्फासे, मन्ने अन्नयरामवि । जे सिआ सन्निहिं कामे, गिही पवइए न से॥ २२७॥ जंपि वत्थं वा पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । तंपि संजमलजट्टा, धारंति परिहरति अ॥ २२८॥
॥१०॥
Jain Education Intematon
For Private & Personel Use Only
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
पञ्चम
स्थानम् गा. २२९
साघु० श्रीदशवै० ब०६ ॥१०॥
न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इअ वुत्तं महसिणा ॥ २२९॥ सम्वत्थुवाहणा बुद्धा, संरक्षणपरिग्गहे । अविअप्पणोऽवि देहमि, नायरति ममाइयं ॥ २३०॥ ___ प्रतिपादितश्चतुर्थस्थानविधिः, इदानीं पश्चमस्थानविधिमाह-विडमुत्ति, बिडं-गोमूत्रादिपक्कं, उद्भेद्य-सामुद्रादि यद्वा बिडं-प्रासुकं उद्भेद्यमप्रासुकमपि, एवं द्विप्रकारं लवणं, तथा तैलं सपिश्च फाणितं, तत्र तैलं प्रतीतं, सप्पिः-घृतं, फाणितंद्रवगुडः, एतल्लवणादि एवं प्रकारमन्यच्च न ते साधवः संनिधिमिच्छन्ति-पर्युषितं स्थापयन्ति, ज्ञातपुत्रवचोरता:भगवद्बर्द्धमानवचसि निस्सङ्गताप्रतिपादनपरे रताः-सक्ता इति ।।२२६॥ संनिधिदोषमाह-लोहस्सेत्ति, लोभस्य-चारित्रविनकारिणश्चतुर्थकषायस्यैषोऽनुस्पर्श:-एषोऽनुभावो यदुत एतत् सन्निधिकरणमिति, यतश्चैवमतो[ऽहं]-मन्ये मन्यन्ते प्राकतशैल्या एकवचनं, एवमाहुः तीर्थकरगणधराः, अन्यतरामपि-स्तोकामपि यः स्यात्, यः कदाचित्सन्निधिं कामयतेसेवते गृहीति-गृहस्थोऽसौ भावतः प्रव्रजितो नेति, दुर्गतिनिमित्तानुष्ठानप्रवृत्तेः, सन्निधीयते नरकादिष्वात्माऽनयेति, सन्निधिरिति शब्दार्थात् प्रबजितस्य च दुर्गतिगमनाभावादिति ।। २२७ ।। आह-यद्येवं वस्त्रादि धारयतां कथं साधुनामसनि. धिरित्यत्राह-जंपित्ति, यदप्यागमोक्तं, वस्त्रं वा-चोलपट्टकादि, पानं वा-अलाबुकादि, कम्बलं-वर्षाकल्पादि, पादपुञ्छनंरजोहरणं, तदपि संयमलज्जार्थमिति, संयमार्थ पात्रादि, तद्व्यतिरेकेण पुरुषमात्रेण गृहस्थभाजने सति संयमपालनाभावात, लज्जार्थ वस्त्रं, तद्व्यतिरेकेणाङ्गनादौ विशिष्टश्रुतपरिणत्यादिरहितस्य निर्लज्जतोपपत्तेः, अथवा संयम एव लज्जा संयमलजा तदर्थ सर्वमेतद्वस्त्रादि धारयन्ति, पुष्टालम्बनविधानेन परिहरंति च-परिभुञ्जते च मूर्छारहिता इति ॥ २२८ ॥
॥१०॥
Jain Education Intemaliona
For Private & Personel Use Only
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
14
सुमतिसाधु० श्रीदशवै०
पश्चम स्थानम् गा.२३१२३४
अ०६
॥१०४॥
यतश्चैवमतः-न सोत्ति, नासौ निरभिष्वङ्गस्य वस्त्रधारणादिलक्षणः परिग्रह उक्तो बन्धहेत्वभावात , केन ?, ज्ञातपुत्रेण-ज्ञात-उदारक्षत्रियः सिद्धार्थस्तत्पुत्रेण वर्धमानेन, वात्रा-स्वपरपरित्राणसमर्थेन, अपि तु मूर्छा-असत्स्वपि वस्त्रादिष्वभिष्वङ्गः परिग्रह उक्तो बन्धहेतुत्वात् , अर्थतस्तीर्थकरेण, ततोऽवधार्य इत्येवमुक्तो महर्षिणा-गणधरेण सूत्रे शय्यंभवेनेति ॥ २२९ ।। आह-वस्वाद्यभावभाविन्यपि मृर्छा कथं वस्त्रादिभावे साधूनां न भविष्यति ?, उच्यते, सम्पग्बोधेन तद्धीजभूताबोधोपघाताद्, आह च-सव्वत्थत्ति, सर्वत्र-उचिते क्षेत्रे काले च उपधिनाऽऽगमोक्तेन वस्त्रादिना सहापि बुद्धा-यथावद्विदितवस्तुतच्याः साधवः, संरक्षणपरिग्रह इति-संरक्षणाय षण्णां जीवनिकायानां वस्त्रादिपरिग्रहे सत्यपि नाचरन्ति ममत्वमिति योगः। किंचानेन ?, ते हि भगवन्तः, अप्यात्मनोऽपि देह इति-आत्मनो धर्मकायेऽपि विशिष्टप्रतिबन्धसंगतिं न कुर्वन्ति, ममत्वमात्मीयाभिमानं वस्तुतच्चाववोधात् , तिष्ठतु तावदन्यत् , ततश्च देहवदपरिग्रह एवेति ॥२३०॥ अहो निच्चं तवोकम्म, सबबुद्धहिं वण्णि। जाव लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं च भोअणं ॥२३१ ।। संतिमे सुहमा पाणा, तसा अदुव थावरा । जाइं राओ अपासंतो, कहमेसणिअं चरे? ॥२३२॥ | उदउल्लं बीअसंसत्तं, पाणा निवडिया माहिं । दिआ ताइं विवजिज्जा, राओ तत्थ कहं चरे ? ॥२३३ ।। | एअंच दोसं दवणं, नायपुत्तेण भासिअं। सवाहारं न भुजंति, निग्गंथा राइभोअणं ॥ २३१॥
उक्तः पञ्चमस्थानविधिः, अधुना षष्ठमधिकृत्याह-अहोत्ति, अहो नित्यं तपःकम्मति, अहो-विस्मये नित्यं नाम
G
॥१०४॥
Jain Education Internationa
For Private & Personel Use Only
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
पष्टु
साधु श्रीदशवै० अ०६
स्थानम् गा. २३१२३५
॥१०५॥
अपायाभावेन तदन्यगुणवृद्धिसम्भवादप्रतिपात्येव तपःकर्म-तपोऽनुष्ठानं, सर्वबुद्धैः-सर्वतीर्थकरैर्वणितं-देशितं, किंविशिष्टमित्याह-यावल्लज्जासमा वृत्तिः-लज्जा-संयमः तत्समा-सदृशी तुल्या संयमाविरोधिनीत्यर्थः, वर्तनं वृत्तिः-देहपालना, एकभक्तं च भोजनं-एकं भक्तं द्रव्यतो भावतश्च यस्मिन् भोजने तत्तथा, द्रव्यत एक-एकसंख्यानुगं, भावत एककर्मवन्धाभावादद्वितीय, तदिवस एव रागादिरहितस्यान्यथा भावतः एकत्वाभावादिति ॥२३१ ॥ रात्रिभोजने प्राणातिपातसम्भवेन कर्मबन्धसद्वितीयतां दर्शयति-संति मेत्ति, सन्त्येते-प्रत्यक्षोपलभ्यमानस्वरूपाः सूक्ष्माः-लक्ष्णाः, प्राणिनोजीवास्त्रसा-द्वीन्द्रियादयः, अथवा स्थावरा:-पृथिव्यादयो यान् प्राणिनो रानावपश्यन् चक्षुषा कथमेषणीयं-सच्चानुपरोधेन चरिष्यति-भोक्ष्यते च, असम्भव एव रात्रावेषणीयचरणस्येति ॥२३२।। एवं रात्रिभोजने दोषमभिधायाधुना ग्रहणगतमाह-उदउल्लंति, उदकाई-पूर्ववदेकग्रहणे तजातीयग्रहणात् सस्निग्धादिपरिग्रहः । तथा बीजसंसक्तं-बीजैः संसक्तंमिश्रमोदनादीति गम्यते । अथवा बीजानि पृथग्भूतान्येव संसक्तं चारनालाद्यपरेणेति । तथा प्राणिनः संपातिमप्रभृतयो निपतिता मह्यां-पृथिव्यां सम्भवन्ति । ननु दिवाप्येतत्सम्भवत्येव ?, सत्यं, किंतु परलोकभीरुश्चक्षुषा पश्यन् दिवा तान्युदकार्दादीनि विवर्जयेत्, रात्रौ तु तत्र कथं चरेत संयमानुपरोधेन ? असम्भव एव शुद्धचरणस्येति ॥२३३॥ उपसंहरबाह-एयं चत्ति, एतदनन्तरोदितं प्राणिहिंसारूपं चशब्दादन्यं चात्मविराधनादिलक्षणं च दोषं दृष्ट्वा मतिचक्षुषा ज्ञातपुत्रेण भगवता भाषितं-उक्तं, सर्वाहार-चतुर्विधमप्यशनादिलक्षणमाश्रित्य न भुञ्जन्ते निर्ग्रन्थाः-साधवो रात्रिभोजनमिति ॥२३४॥ पुढविकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेणं करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ॥२३५।।
॥१०५॥
en Educaton tema
For Private
Personal Use Only
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साघु० श्रीदशवै०
॥१०६॥
पुढविकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए । तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचखुसे ॥२३६॥ || सप्तमाष्टमतम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं । पुढविकायसमारंभं, जावजीवाइ वजए ॥ २३७ ॥ स्थाने आउकायंन हिंसंति,मणसा वयसा कायसा। तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिआ॥२३८॥
गा. २३६
२४० आउकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए । तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे ॥२३९॥ तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवडणं । आउकायसमारंभ, जावजीवाइ वज्जए ॥ २४ ॥
उक्तं व्रतषट्कं, अधुना कायषट्कमुच्यते, तत्र पृथिवीकायमधिकृत्याह-पुढवित्ति, पृथिवीकार्य न हिंसन्त्यालेखनादिना प्रकारेण मनसा वाचा कायेन, उपलक्षणमेतदत एवाह-त्रिविधेन करणयोगेन-मनःप्रभृतिभिः करणादिरूपेण, के न हिंसन्तीत्याह-संयता:-साधवा, सुसमाहिता-उद्युक्ता इति ॥ २३५ ।। अत्रैव हिंसादोपमाह-पुढवित्ति, पृथिवीकायं हिंसन्नालेखा(खना)दिना प्रकारेण हिनस्त्येव तुरवधारणार्थों व्यापादयत्येव तदाश्रितान्-पृथिव्याद्याश्रितान्
सांश्च विविधान् प्राणिनो-द्वींद्रियादीन् चशब्दात् स्थावरांश्चापकायादीन , तांश्च चाक्षुषानचाक्षुषांश्च-चक्षुरिन्द्रिय| ग्राह्यानग्राह्यांश्चेति ।। २३६ ॥ यस्मादेवं तम्हत्ति, तस्मादेवं विज्ञाय दोषं तत्तदाश्रितजीवहिंसादिलक्षणं दुर्गतिवर्धनं
संसारवर्धन पृथिवीकायसमारम्भमालेखनादि यावजीवमेव वर्जयेदिति ।। २३७॥ उक्तः सप्तमस्थानविधिः, अधुनाs. Pष्टमस्थानविधिमधिकृत्योच्यते-आउक्कायंतीत्यादि, सूत्रत्रयमकायामिलापेन ज्ञेयं ततश्चायमप्युक्त एव ।। २३८-२४०॥
For Private & Personel Use Only
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
IHA
नवमं
साधु श्रीदशवै०
स्थान गा.२४१२४४
॥१०७॥
जायते न इच्छंति, पावगं जलइत्तए । तिक्खमन्नयरं सत्थं, सबओवि दुरासयं ॥ २४१ ॥ पाईणं पडिणं वावि, उड्ढे अणुदिसामवि । अहे दाहिणओ वावि, दहे उत्तरओवि अ ॥ २४२ ॥ भयाणमेसमाघाओ, हववाहो न संसओ। तं पईवपयावद्रा, संजया किंचि नारभे ॥ २४३ ॥ तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवडणं । तेउकायसमारंभ, जावजीवाइ वजए ॥ २४४॥
साम्प्रतं नवमस्थानविधिमाह-जायतेयंति-जाततेजाः-अग्निः तं जाततेजसं नेच्छन्ति, मनःप्रभृतिभिरपि पापपाप एव पापकस्तं, प्रभूतसच्चापकारित्वेनाशुभमित्यर्थः । किं नेच्छन्तीत्याह-ज्वालयितुं-उत्पादयितुं वृद्धि वा नेतुं, किंविशिष्टमित्याह-तीक्ष्णं-छेदकरणात्मकं, अन्यतरशस्त्रं-सर्वशस्त्रं, एकधारादिशस्त्रव्यवच्छेदेन सर्वतोधारशस्त्रक पमिति भावः । अत एव सर्वतोऽपि दुराश्रयं सर्वतोधारत्वेनानाश्रणीयमिति ।। २४१ ॥ एतदेव स्पष्टयनाह-पाईणंति, प्राच्या प्रतीच्यां वापि-पूर्वायां पश्चिमायां चेत्यर्थः । ऊर्ध्वमनुदिक्ष्वपि "सुपा सुपो भवन्ती"ति, सप्तम्यर्थेष ष्ठी, विदिश्वपीत्यर्थः,। अधो दक्षिणतश्चापि दहति-दाह्यं भस्मीकरोति, उत्तरतोऽपि च, सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च दहतीति ।। २४२ ॥ यतश्चैवमतः भूयाणंति, भूतानां स्थावरादीनां एष आघातः आघातहेतुत्वादाघातः, हव्यवाहः-अग्निः न संशय इत्येवमेवैतद् आघात एवेतिभावः। येनैवं तेन तं हव्यवाहं प्रदीपप्रतापनार्थ-आलोकशीतापनोदार्थ संयता:-साधवः किञ्चित्सङ्घट्टनादिनाऽपि नारभन्ते, संयतत्वापगमनप्रसङ्गादिति ।। २४३॥ यस्मादेवं तम्हति व्याख्या पूर्ववत् ।। २४४॥
१०७॥
Jain Education Internal
For Private & Personel Use Only
१
w w.jainelibrary.org
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति- साधु श्रीदशवै० अ०६
दशम स्थानम् गा.२४५
२४८
॥१०८॥
अणिलस्स समारंभ, बुद्धा मन्नंति तारिसं । सावजबहुलं चेअं, नेअं ताईहि सविअं ॥ २४५ ॥ | तालिअंटेण पत्तेण, साहाविहअणेण वा । न ते वीइउमिच्छंति, वेआवेऊण वा परं ॥ २४६ ॥ जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं। न ते वायमुईरंति, जयं परिहरंति अ ॥ २४७ ॥ तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं । वाउकायसमारंभ, जावज्जीवाइ वजए ॥ २४८॥
उक्तो नवमस्थानविधिः, साम्प्रतं दशममाश्रित्याह-अणिलस्स-अनिलस्य-वायोः समारम्भ-तालवृन्तादिभिः करणं बुद्धाः-तीर्थकरा मन्यन्ते-जानन्ति तादृशं-जाततेजःसमारम्भसदृशं, सावद्ययहुलं-पापभूयिष्ठं चैतमितिकृत्वा सर्वकालमेव नैनं त्रातृभिः-सुसाधुभिः सेवितं-आचरितं, मन्यन्ते बुद्धा एवेति ।। २४५ ॥ एतदेव स्पष्टयति-तालियं. टेणंति, तालवृन्तेन पत्रेण शाखाविधूननेन वेत्यमीषां स्वरूपं यथा षड्जीवनिकायिकायां, न ते साधवो वीजितुमिच्छन्त्यात्मानमात्मना, नापि वीजयन्ति परैरात्मानं तालवृन्तादिभिरेव, नापि वीजयन्तं परमनुमन्यन्त इति ।। २४६ ।। उपकरणात्तद्विराधनेत्येतत्परिहरन्नाह-जंपित्ति, यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा कम्बलं वा पादपुञ्छनममीषां स्वरूपं पूर्वोक्तं धर्मोपकरणं यत्तेनापि न ते वातमुदीरयन्त्यपि, अयतप्रत्युपेक्षणादिक्रियया, किंतु यतं परिहरन्ति, परिभोगपरिहारेण धारणाया परिहारेण चेति ॥ २४७॥ यत एवायं सुसाधुर्वर्जितोऽनिलसमारम्भः, तम्हत्ति पूर्ववत् ।। २४८ ॥ वणस्सइंन हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ ॥२४९॥
॥ एतदेव स्पष्टयति-तालवा
वीजयन्ति पयोषां स्वरूपं यथा षड्जीवन
॥१०॥
Jain Education Inteme
For Private & Personel Use Only
T
ww.jainelibrary.org
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु श्रीदशवै०
एकादशं द्वादशं च | स्थानम् गा. २५०२५४
॥१०९॥
al वणस्सइं विहिंसंतो, हिंसई अ तयस्सिए । तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे ॥ २५०॥
तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवढ्ढणं। वणस्सइसमारंभ, जावजीवाइ वजए ॥ २५१ ॥ तसकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा । तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ॥२५२॥ तसकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए । तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे ॥ २५३ ।। तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवड्डणं । तसकायसमारंभ, जावजीवाइ वजए ॥ २५४ ॥ ____ उक्तो दशमस्थानविधिः, इदानीं एकादशमाश्रित्योच्यत इति । वणस्सई इत्यादि सूत्रत्रयं वनस्पत्यभिलापेन ज्ञेयं, ततश्चायमप्युक्त एव ॥ २४९-२५१ ।। द्वादशस्थानविधिरुच्यते-तसकायमिति, त्रसकायं-द्वीन्द्रियादिरूपं न हिंसन्त्यारम्भप्रवृत्त्यादिना प्रकारेण, मनसा वाचा कायेन-तदहितचिन्तनादिना, त्रिविधेन करणयोगेन-मनःप्रभृतिभिः करणादिना प्रकारेण, संयता:-साधवः, सुसमाहिता-उद्युक्ता इति ॥ २५२ ॥ तत्रैव हिंसादिदोषमाह-त्रसकायं विहिंसन्नारम्भप्रवृत्यादिना प्रकारेण हिनस्त्येव तुरवधारणार्थे व्यापादयत्येव तदाश्रितान्-त्रसाश्रितान् सांश्च | विविधान् प्राणिनस्तदन्यद्वीन्द्रियादीन, चशब्दात् स्थावरांश्च पृथिव्यादीन् , चाक्षुषानचाक्षुषांश्च-चक्षुरिन्द्रियग्राह्यान
ग्राह्यांश्चेति सूत्रार्थः ॥ २५३ ॥ यस्मादेवं तम्हत्ति, तस्मादेतं विज्ञाय दो-तदाश्रितजीवहिंसालक्षणं दुर्गतिवर्धनं| संसारवर्धनं बसकायसमारम्भं तेन तेन विधिना यावज्जीवमेव वर्जयेदिति ।। २५४ ।।
१०९।
Jain Education Interatia
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु० श्रीदशवै०
अ० ६
॥ ११० ॥
जाणि (इं) चत्तारि अभुजाई, इसिणाऽऽहारमाइणि । ताइं तु विवज्जंतो, संजमं अणुपालए ॥२५५॥ पिंडं सिज्जं च वत्थं च, चउत्थं पायमेव य । अकप्पिअं न इच्छिज्जा, पडिगाहिज्ज कपिअं ॥ २५६ ॥ जे निआगं ममायंति, कीअमुद्देसि आहडं । वहं ते समणुजाणंति, इअ उत्तं महेसिणा ॥ २५७ ॥ तन्हा असणपाणाई, कीअमुद्देसिआहडं । वज्जयंति ठिअप्पाणो, निग्गंथा धम्मजीविणो ॥ २५८ ॥
उक्तो द्वादशस्थानविधिः, प्रतिपादितं कायषट्कम्, एवत्प्रतिपादनादुक्ता मूलगुणाः, अधुनैतद्वृत्तिभूतोत्तरगुणावसरः, ते चाकल्पादयः षडुत्तरगुणाः, यथोक्तं-" अकप्पो गिहिभायणं "ति, तत्राकल्पो द्विविधः- शिक्षकस्थापनाकल्पः अकल्पस्थापनाकल्पश्च । तत्र शिक्षकस्थापना कल्पोऽनधी तपिण्डनिर्युक्तत्यादिनाऽऽनीतमप्याहारादि न कल्पत इति उक्तं च - " अणहीया खलु जेणं पिंडेसणसेजवत्थपाएसा । तेणाणियाणि जइणो कप्पंति न पिंडमाईणि ॥ १ ॥ उउबर्द्धमि पण अणला वासावासे उ दोवि णो सेहा । दिक्खिजंती पायं ठदणाकप्पो इमो होह || २ || " अकल्पस्थापना कल्पं त्वाह-जाणित्ति, यानि चत्वारि अभोज्यानि-संयमापकारित्वेना कल्पनीयानि, ऋषीणां साधूनामाहारादीन्याहारवसतिवस्त्रपात्राणि तानि तु विधिना विवर्जयन् संयमं - सप्तदशप्रकारं अनुपालयेत् तदत्यागे संयमाभावादिति ॥ २५५ ॥ एतदेव स्पष्टयति-पिंडंति, पिण्डं शय्यां च वस्त्रं च चतुर्थं पात्रमेव च एतत्स्वरूपं प्रकटार्थं, अकल्पिकं नेच्छेत्प्रतिगृह्णीयात्कल्पिकं यथोचितमिति ।। २५६ || अकल्पिके दोषमाह-जेत्ति, ये केचन द्रव्यसाध्वादयो द्रव्यलिङ्गधारिणो नियागंति नित्यमामन्त्रितपिण्डं
त्रयोदश
स्थानम्
गा. २५५
२५८
॥ ११० ॥
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु श्रीदशवै० अ०६
.
२६१
ममायतीति परिगृह्णन्ति, तथा क्रीतमौदेशिकाहृतमेतानि यथा क्षुल्लकाचारकथायाम् । वधं-सस्थावरादिघातं चत ते-द्रव्यसाध्वादयः समनुजानन्ति दातृप्रवृत्त्यनुमोदनेनेत्युक्तं महर्षिणा-वर्द्धमानेनेति ॥ २५७ ।। यस्मादेवं तम्हत्ति,
स्थानम् तस्मादशनपानादि चतुर्विधमपि यथोदितं क्रीतमौद्देशिकमाहृतं वर्जयन्ति स्थितात्मानो-महासत्त्वाः निर्ग्रन्थाः
गा. २५९साधवो धर्मजीविनः-संयमैकजीविन इति ॥ २५८॥ कंसेसु कंसपाएसु, कुंडमोएसु वा पुणो । भुंजंतो असणपाणाई, आयारा परिभस्सइ ॥ २५९॥ 1: सीओदगसमारंभे, मत्तधोअणछड्डणे । जाइं छिप्पंति भृआई, दिट्ठो तत्थ असंजमो ॥ २६० ॥ पच्छाकम्मं पुरेकम्मं, सिआ तत्थ न कप्पइ । एणमटुं न भुंजंति, निग्गंथा गिहिभायणे ॥ २६१ ॥ |
उक्तोऽकल्पस्तदभिधानात् त्रयोदशस्थानविधिः, इदानीं चतुर्दशस्थानविधिमाह-कंसेत्ति, कांसेषु-करोटकादिषु, कांस्यपात्रेषु-तिलकादिषु, कुण्डमोदेषु-हस्तिपादाकारेषु मृन्मयादिषु, भुञ्जानोऽशनपानादि तदन्यदोषरहितमपि, आचारातश्रमणसम्बन्धिनः, परिभ्रश्यति-अपैतीति ।। २५९॥ कथमित्याह-सीओदगत्ति, अनन्तरोद्दिष्टभाजनेषु श्रमणा भोक्ष्यन्ते भुक्तं वैभिरिति शीतोदकेन धावनं कुर्वन्ति । तदाह-शीतोदकसमारम्भे-सचेतनोदकेन भाजनधावनारम्भे तत्मात्रकधावनोझने-कुण्डमोदादिषु थालनजलत्यागे यानि क्षप्यन्ते-हिंस्यन्ते भूतानि-अप्कायादीनि, सोऽत्र-गृहिभाजनभोजने दृष्ट:-उपलब्धः, केवलज्ञानभास्वता असंयमस्तस्य भोक्नुरिति ॥ २६० ॥ किंच पच्छाकम्मंति, पश्चात्कर्म पुरःकर्म
॥१११॥
Join Education International
For Private Personal Use Only
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु
पश्चदर्श
स्थानम्
श्रीदशवै०
अ०६
२६४
॥११२॥
स्यात्तत्र-कदाचिद् भवेद् गृहिभाजनभोजने, पश्चात्कर्मपुरःकर्मभावस्तूक्तवदित्येके । अन्ये तु भुञ्जन्तु तावत्साधवो वयं तु पश्चाद्भोक्ष्यामहे इति पश्चात्कर्म, व्यत्ययेन तु पुरःकर्मेति व्याचक्षते । एतच्च न कल्पते धर्मचारिणां, यत एवमेतदर्थपश्चात्कादिपरिहारार्थ न भुञ्जन्ते निर्ग्रन्थाः, क्वेत्याह-गृहिभाजने अनन्तरोदित इति ॥ २६१ ।।
गा. २६२आसंदीपलिअंकेसु, मंचमासालएसु वा । अणायरिअमज्जाणं, आसइत्तु सइत्तु वा ॥ २६२॥ नासंदीपलिअंकेसु, न निसिजा न पीढए । निग्गंथाऽपडिलेहाए, बुद्धवुत्तमहिट्ठगा ॥ २६३ ॥ 11 गंभीरविजया एए, पाणा दुप्पडिलेहगा । आसंदी पलिअंको अ, एअमटुं विवजिआ ॥ २६४॥ |
उक्तो गृहिभाजनदोषस्तदभिधानाच्चतुर्दशस्थानविधिः, इदानीं पञ्चदशस्थानविधिमाह-आसंदीति, आसन्दीपर्यौ प्रतीतौ तयोरासन्दीपर्ययोः, मश्चाशालकयोश्च मञ्चः प्रतीतः, आशालकस्तु-अवष्टम्भसमन्वित आसनविशेषः, एतयोरनाचरितमनासेवितमार्याणां-साधूनामासितुं-उपवेष्टुं स्वप्तुं वा-निद्रातिवाहनं वा कर्तु, शुपिरादिदोषादिति ॥ २६२ ॥ अत्रैवापवादमाह-नासंदित्ति, नासन्दीपर्यकयोः प्रतीतयोन निषद्यायां-एकादिकल्परूपायां, न पीठके-वेत्रकाष्ठमयादौ निर्ग्रन्थाः-साधवः, अप्रत्युपेक्ष्य-चक्षुरादिना न निषीदनादि कुर्वन्ति इति वाक्यशेषः, नसर्वत्राभिसम्बध्यते, न कुर्वन्तीति, । किंविशिष्टा निर्ग्रन्थाः १, इत्याह-बुद्धोक्ताधिष्ठातार:-तीर्थकरोक्तानुष्ठानपरा इत्यर्थः, इह चाप्रत्युपेक्षितासन्धादौ निषीद. नादिनिषेधात् धर्मकथादौ राजकुलादिषु प्रत्युपेक्षितेषु निषीदनादिविधिमाह विशेषणान्यथानुपपत्तेरिति ।। २६३ ॥ अत्रैव ॥११ ॥
Jan Education International
For Private
Personal use only
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
दोषमाह-गंभीरत्ति, गम्भीरविजया, गम्भीरं-अप्रकाश, विजय:-आश्रयः अप्रकाशाश्रया, एते-प्राणिनामासन्धादयः, षोडशं साधु• IN
एवं च प्राणिनो दुष्प्रत्युपेक्षणीया एतेषु भवन्ति, पीड्यन्ते च एतदुपवेशनादिना, आसन्दः पर्यश्च, चशब्दात् मञ्चादय- स्थानम् श्रीदशवै० चैतदर्थ विवर्जिताः साधुभिरिति ॥ २६४ ॥
गा.२६५अ०६ । गोअरग्गपविटुस्स, निसिज्जा जस्स कप्पइ। इमेरिसमणायारं, आवजइ अबोहियं ॥ २६५ ॥ | २६८
विवत्ती बंभचेरस्स, पाणाणं च वहे वहो । वणीमगपडिग्घाओ, पडिकोहो अगारिणं ॥ २६६ ॥ अगुत्ती बंभचेरस्स, इत्थीओ वावि संकणं। कुसीलवड्ढणं ठाणं, दूरओ परिवज्जए ।। २६७ ॥ तिण्हमन्नयरागस्स, निसिज्जा जस्स कप्पई। जराए अभिभूअस्स, वाहिअस्स तवस्सिणो ॥२६८॥
उक्तः पर्यङ्कस्थानविधिः, तदभिधानात्पञ्चदशस्थानम्, इदानी पोडशस्थानमधिकृत्याह-गोयरग्गत्ति, गोचराग्रप्रविष्टस्य-भिक्षाप्रविष्टस्येत्यर्थः, निषद्या यस्य कल्पते, गृह एव निषीदनं यः समाचरति साधुरितिभावः, स खलु एनमीदृशं वक्ष्यमाणलक्षणं अनाचारमापद्यते-प्रामोति, अबोधिकं-मिथ्यात्वफलमिति ।। २६५ ॥ अनाचारमाह-विवत्तित्ति, विपत्तिर्ब्रह्मचर्यस्य-आज्ञाखण्डनादोषतः साधुसमाचरणस्य, प्राणिनां च वधे वधो भवति, तथा सम्बन्धादाधाकर्मादिकरणेन, वनीपकप्रतीधातस्तदाक्षेपणादित्साभिधानादिना, प्रतिक्रोधश्चागारिणां तत्स्वजनानां च स्यात् तदाऽऽक्षेपदर्शनेनेति ॥ २६६ ।। तथा अगुत्तित्ति, अगुप्तिब्रह्मचर्यस्य तदिन्द्रियाद्यवलोकनेन, स्त्रीतश्चापि शङ्का भवति एतत्प्रफु
Fel|११३
For Private & Personel Use Only
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तदर्श
सुमतिसाधु श्रीदशबैक
स्थानम् गा.२६९.
२७२
॥११४॥
ल्ललोचनदर्शनादिना अनुभूतगुणायाः, कुशीलवर्धनं स्थानं-तदुक्तेन प्रकारेणासंयमवृद्धिकारक, दूरतः परिवर्जयेत्परित्यजेदिति ॥२६७॥ सूत्रेणेवापवादमाह-तिण्हति, त्रयाणां वक्ष्यमाणलक्षणानां अन्यतरस्य एकस्य निषद्या गोचरप्रविष्टस्य गृहे यस्य कल्पते औचित्येन, तस्य तदासेवने न दोष इति वाक्यशेषः, कस्य पुनः कल्पत इत्याह-जरयाऽभिभूतस्यात्यन्तवृद्धस्य, व्याधिमतः-अत्यन्तमशक्तस्य, तपस्विनो-विप्रकृष्टक्षपकस्य, एते च भिक्षाटनं न कार्यन्त एव, IN आत्मलब्धिकाद्यपेक्षया तु सूत्रविषयः, न चैतेषां प्राय उक्तदोषाः सम्भवन्ति, परिहरन्ति च वनीपकप्रतिघातादीति ।। २६८।। वाहिओ वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थए । वुकंतो होइ आयारो, जढो हवइ संजमो ॥२६९॥ संतिमे सुहुमा पाणा, घसासु भिलुगासु अ। जे अ भिक्खू सिणायंतो, विअडेणुप्पलावए ॥२७॥ तम्हा ते न सिणायंति, सीएण उसिणेण वा । जावजीवं वयं घोरं, असिणाणमहिट्ठगा ॥ २७१ ॥ सिणाणं अदुवा ककं, लुद्धं पउमगाणि अ। गायस्सुबट्टणट्टाए, नायरंति कयाइवि ॥ २७२॥
उक्तो निषधास्थानविधिः, तदभिधानासोडशस्थानं, साम्प्रतं सप्तदशस्थानमाह-वाहिओ वेति, व्याधिमान्-व्याधि| ग्रस्तः, अरोगी वा-रोगविप्रमुक्तो वा, स्नान-अङ्गप्रक्षालनं, यस्तु प्रार्थयते-सेवत इत्यर्थः, तेनेत्थम्भूतेन व्युत्क्रान्तो
भवति आचारो-बाबतपोरूपः, अस्नानपरीपहानतिसहनात् , जढः-परित्यक्तो भवति, संयमः-प्राणिनां रक्षणादिकोऽप्का| यादिविराधनादिति ।। २६८ ।। प्रासुकस्नानेन कथं संयमपरित्याग इत्याह-संतिमे, सन्त्येते प्रत्यक्षोपलम्यमानस्वरूपाः,
॥११॥
Jain Education Interes
For Private
Personel Use Only
.
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु श्रीदशवै० अ०६
२७५
॥११५॥
सूक्ष्मा:-श्लक्ष्णाः, प्राणिनो-द्वीन्द्रियादयः, घसासु-शुषिरभूमिषु, भिलुकासु च-तथाविधभूमिराजीषु च, यांस्तु भिक्षुः
अष्टादर्ष स्नपयन् स्नानजलोज्झनक्रियया विकृतेन-प्रासुकोदकेनोत्प्लावयति, तथा च तद्विराधनातः संयमपरित्याग इति ॥२७॥ स्थानम् निगमयन्नाह-तम्हत्ति, यस्मादेवमुक्तदोषप्रसङ्गस्तस्मात्ते साधवो न स्नान्ति शीतोदकेनोष्णोदकेन वा प्रासुकेना- |गा.२७३. पासुकेन वेत्यर्थः । किंविशिष्टास्त इत्याह-यावज्जीव-आजन्म, व्रतं घोरं-दुरनुचरमस्नानमाश्रित्य अधिष्ठातारः-अस्यैव कार इति ।। २७१ ॥ किं च-सिणाणन्ति, स्नानं पूर्वोक्तं, अथवा कल्कं-चन्दनादि, लोभ्रं-गन्धद्रव्यं, पद्मकानि च-कुमकेसराणि, चशब्दादन्यच्चैवंविधं गात्रस्योद्वर्तनार्थ-उद्वर्त्तननिमित्तं नाचरन्ति कदाचिदपि-यावजीवमिति भावसाधव इति ।। २७२ ॥ नगिणस्स वावि मुंडस्स, दीहरोमनहसिणो। मेहुणा उवसंतस्स, किं विभूसाइ कारिअं? ॥२७३॥ विभूसावत्तिअं भिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं । संसारसागरे घोरे, जेणं पडइ दुरुतरे ॥ २७४ ॥ NI विभूसावत्तिअं चेअं, बुद्धा मन्नंति तारिसं । सावजबहुलं चेअं, नेयं ताईहिं सेविअं ॥ २७५ ।। ___उक्तोऽस्नानविधिः, तदभिधानात्सप्तदशं स्थानं, साम्प्रतमष्टादशं शोभावर्जनास्थानमुच्यते-शोभायां नास्ति दोषः, " अलङ्कतश्चापि धर्ममाचरेदि " त्यादिवचनात् पराभिप्रायमात्रमाशङ्कयाह-नगिणत्ति-नग्नस्यापि-कुचेलवतोऽपि उपचारनग्नस्य निरुपचस्तिस्य नग्नस्य वा जिनकल्पिकस्येति सामान्यविषयमेव सूत्रं, मुण्डस्य-द्रव्यभावाम्यां, दीर्घरोमनखवता
घरामनखवतः-११५ ॥
Jain Education Internet
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
विभूषाया
सुमति साधु० श्रीदशव० अ०६
अपायः गा. २७६२७७
दीर्घरोमवतः कक्षादिषु, दीर्घनखवतो हस्तादौ जिनकल्पिकस्य, इतरस्य तु प्रमाणयुक्ता एव नखा भवन्ति यथाऽन्यसाधूनां शरीरेषु तमस्यपि न लगन्ति । मैथुनादुपशान्तस्योपरतस्य किं विभूषया-राढया प्रयोजनं (कार्य) १, न किश्चिदिति ॥ २७३ ।। इत्थं प्रयोजनाभावमभिधायापायमाह-विभूतत्ति, विभूषाप्रत्ययं-विभूषानिमित्तं भिक्षु:-माधुः कर्म बध्नाति चिक्कणं-दारुणं संसारसागरे घोरे-रौद्रे येन कर्मणा पतति दुरुत्तरे-अकुशलानुबंध तोऽत्यन्त दीर्घ इति ॥ २७४ ॥ एवं बाह्यविभूषापायमभिधाय सङ्कल्पविभूषापायपाह-विभूसावत्ति, विभूषाप्रत्ययं-विभूषानिमित्तं चेत एवं च यदि मम विभूषा सम्पद्यत इति, तत्प्रवृत्यङ्ग चित्तमित्यर्थः, वुद्धाः-तीर्थकरा मन्यन्ते-जानन्ति तादृशं रौद्रकर्मबन्धहेतुभूतं विभूषाक्रियासहितं ( सदृशं) सावद्यबहुलं चैतदातध्यानानुगतं चेतः, नैतदित्थम्भृतं त्रातृभिरात्मा| रामैरायः साधुभिः सेवितमाचरितं. कुशलचित्तत्वात्तेषामिति ।। २७५ ।।
खवंति अप्पाणममोहदंसिणो, तवे रया संजमअजवे गुणे । धुणंति पावाइं पुरेकडाई, नवाइं पावाइं न ते करंति ॥ २७६ ॥ सओवसंता अममा अकिंचणा, सविजविजाणुगया जसंसिणो। उउप्पसन्ने विमलेव चंदिमा, सिद्धिं विमाणाई उति ताइणो ॥ २७७ ॥ त्तिबेमि ।
छटुं धम्मत्थकामज्झयणं समत्तं ६ ॥
भिः सेवितमाचारत, सदृशं ) सावद्यबहुलं चना, वृद्धाः-तीर्थकरा मामत्यय-विभूपानि
॥११६॥
Jain Education Interne
For Private & Personel Use Only
पी
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु
श्रीदशवै०
उक्तः शोभावर्जनस्थानविधिस्तदभिधानादष्टादशं पदं, तदभिधानाच्चोत्तरगुणाः, साम्प्रतमुक्तफलप्रदर्शनेनोपसंहरनाह-II अष्टादशखवंतित्ति, क्षपयन्त्यात्मानं तेन तेन चित्तयोगेनानुपशान्तं शमयोजनेन जीवं, किंविशिष्टा इत्याह-अमोहदर्शिन:- स्थानअमोहं ये पश्यन्ति, यथावत्पश्यन्ति य इत्यर्थः, त एव विशेष्यन्ते-तपसि-अनशनादिलक्षणे रताः-सक्ताः, किंविशिष्टे वर्जनफलम् | तपसीत्याह-संयमार्जवगुणे प्राकृतत्वादेकारः संयमार्जवे गुणौ यस्य तपसस्तस्मिन् , संयमऋजुभावप्रधाने शुद्ध इत्यर्थः, ते ।
एवंभूता धुन्वन्ति-कम्पयन्ति अपनयन्ति, पापानि पुराकृतानि जन्मान्तरोपात्तानि, नवानि-प्रत्यग्राणि पापानि न ते | साधवः कुर्वन्ति, तथा अप्रमत्तत्वादिति ।। २७६ ॥ किं च सओवसंतत्ति, सदोपशान्ताः -सर्वकालमेव क्रोधरहिताः
अममा:-सर्वत्र ममत्वशून्याः, अकिञ्चना-हिरण्यादिमिथ्यात्वादिद्रव्यभावकिञ्चनविनिर्मुक्ताः, स्वा-आत्मीया विद्या स्वविद्या-परलोकोपकारिणी केवल श्रुतरूपा तया स्वविद्यया विद्यया अनुगता-युक्ताः, न पुनः परविद्यया इहलोकोपकारिण्येति, त एव विशेष्यन्ते-यशस्विन:-शुद्धपारलौकिकयशोवन्तः, त एवंभूता ऋतौ प्रसन्ने-परिणते शरत्कालादौ विमल इव चन्द्रमा:-चन्द्रमा इव विमलाः, इत्येवंकल्पास्ते भावमलरहिताः सिद्धि-निवृत्ति तथा सावशेषकर्माणो विमानानि-सौधर्मावतंसकादीन्युपयान्ति-सामीप्येन गच्छन्ति त्रातार:-स्वपरापेक्षया साधय इति ॥२७७॥ ब्रवीमीति पूर्ववदेव ।।
दशवैकालिकश्रुतस्कन्धषष्टाध्ययनव्याख्या समाप्तेति ॥६॥
॥११७॥
Jain Education Internet
For Private & Personel Use Only
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति. साधु श्रीदशवै०
अ०७
२८१
॥११८॥
व्याख्यातं महाचारकथाध्ययनं, इदानीं वाक्यशुद्ध्याख्यमध्ययनमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः इहानन्त
भाषाराध्ययने गोचरप्रविष्टन सता स्वाचारं पृष्टेन तद्विदाऽपि न महाजनसमक्षं तत्रैव विस्तरतः कथयितव्यमिति, अपि वालये
सङ्कथा गुरवो वा कथन्यतीति वक्तव्यमित्येतदुक्तं, इह त्वालयगतेनापि तेन गुरुणा वा वचनदोषगुणाभिजेन निरवद्यवचसा
गा.२७८कथयितव्यमित्येतदुच्यते, उक्तं च-"सावजणवजाण"मिति अनेन सम्बन्धेनायातमिदमध्ययनमिति, तवेदमचउण्हं खल भासाणं, परिसंखाय पन्नवं। दुण्हं तु विणयं सिक्खे,दोन भासिज सबसो॥२७८॥ जा असच्चा अवत्तवा, सच्चामोसा अजामुसा । जा अबुद्धेहिं णाइण्णा, न तं भासिज पन्नवं ॥२७९॥ असच्चमोसं सच्चं च, अणवजमकक्कसं । समुप्पेहमसंदिद्धं, गिरं भासिज्ज पन्नवं ॥ २८ ॥ एअंच अट्ठमन्नं वा, जंतु नामेइ सासयं । स भासं सच्चमोसंपि, तंपि धीरो विवज्जए ॥ २८१ ॥16
चउण्हंति, चतसृणां, खलुशब्दोऽवधारणे, चतसृणामेव, नातोऽन्या भाषा विद्यत इति । भाषाणां-सत्यादीनां परिसङ्ख्याय-सर्वैः प्रकारात्वा, स्वरूपमिति वाक्यशेषः। प्रज्ञावान्-प्राज्ञो बुद्धिमान् साधुः, किमित्याह-द्वाभ्यां सत्यासत्यामृषाम्यां, तुरवधारणे द्वाभ्यामेव आम्यां विनयं-शुद्धप्रयोग विनीयतेऽनेन कम्र्मेतिकृत्वा शिक्षेत-जानीयात् , द्वे-असत्यासत्यामृषे न भाषेत सर्वश:-सर्वैः प्रकारैरिति ।। २७८ ॥ विनयमेवाह-जा य सचत्ति, या च सत्या पदार्थतत्वमङ्गीकृत्य अवक्तव्या-अनुच्चारणीया सावद्यत्वेन-अमुत्र स्थिता पल्लीरिति कौशिकभाषावत् , सत्यामृषा वा यथा-दश दारका जाता Id॥११८ ॥
Jan Education Intem
For Private Personal use only
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति साधु मीदशवै० अ०७
वाच्या
वाक् |गा.२८२.
२८३
॥ ११९॥
इत्येवंलक्षणा, मृषा च संपूर्णैव, चशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, या च बुदैः-तीर्थ करगणधरैरनाचरिता असल्यामृषाआमन्त्रण्याज्ञापन्यादिलक्षणा अविधिपूर्वकं स्वरादिना प्रकारेण, न तां भाषेत, नेत्थंभूतां वाचमुदाहरेत् प्रज्ञावान्-बुद्धिमान् साधुरिति सूत्रार्थः ॥ २७९ ॥ यथाभूता अवाच्या भाषा तथाभूतोक्का, साम्प्रतं यथाभूता वाच्या तथाभूतामाह-असच्चमोसन्ति, असत्यामृषामुक्कलक्षणां, सत्यां चोक्तलक्षणामेक, इयं च सावद्यापि सकर्कशापि भवत्यत आह-असावद्यांअपापां, अकर्कशामतिशयोक्त्या ह्यमत्सरपूर्वां, संप्रेक्ष्य-स्वपरोपकारिणीति बुद्ध्या आलोच्यासंदिग्धां-स्पष्टामक्षेपेण प्रति
पत्तिहेतुं, गिरं-वाचं, भाषेत-ब्रूयात् , प्रज्ञावान्-बुद्धिमान् साधुरिति ॥ २८० ॥ साम्प्रतं सत्यासत्यामृपाप्रतिषेधार्थमाहal एयं चत्ति, एतं चार्थमनन्तरप्रतिषिद्धं सावध कर्कशविषयमन्यं वा, एवंजातीयं प्राकृतशैल्या यस्तु नामयति शाश्वतं, य एव
कश्चिदर्थो नामयति-अननुगुणं करोति, शाश्वतं-मोक्षं, तमाश्रित्य स साधुः पूर्वोक्तभाषाभाषकत्वेनाधिकृतो भाषां सत्यामृषामपि पूर्वोक्तां, अपिशब्दात् सत्यापि या तथाभूता तामपि धीरो-बुद्धिमान् विवर्जयेत्-न ब्रूयादिति भावः । आह-- सत्यामृषाभाषाया ओघत एवं प्रतिषेधात्तथाविधसत्यायाश्च सावद्यत्वेन गतार्थ सूत्रमिति, उच्यते, मोक्षपीडाकर सूक्ष्ममप्यर्थ अङ्गीकृत्यान्यतरभाषाभाषणमपि न कर्त्तव्यमित्यतिशयप्रदर्शनपरमेतददुष्टमेवेति ॥ २८१ ॥ वितहपि तहामुत्ति, जं गिरं भासए नरो। तम्हा सो पुट्ठो पावेणं, किं पुणं जो मुसं वए ॥२८२॥ तम्हा गच्छामो वक्खामो,अमुगवाणे भविस्सइ। अहं वाणं करिस्तामि,एसोवाणं करिस्तइ॥२८॥
15/११९ ॥
Join Education International
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
साधु०
२८५
सुमति एवमाइ उ जा भासा, एसकालंमि संकिया। संपयाईअमटे वा, तंपि धीरो विवजए ॥ २८४ ॥ वा
साम्प्रतं मृषाभाषासंरक्षणार्थ आह-वितहंपि, वितथं-अतथ्यं तथामूर्त्यपि-कथश्चित्तत्स्वरूपमपि वस्तु, अपिशब्द- वाक् श्रीदशवैका
INस्य व्यवहितः सम्बन्धः, एतदुक्तं भवति-पुरुषनेपथ्यस्थितबनिताद्यप्यङ्गीकृत्य यां गिरं भाषते नरः, इयं स्त्री आगच्छति भगा.२८४अ०७
गायति चेत्यादिरूपां, तस्माद्भाषणादेवम्भूतात्पूर्वमेवासौ वक्ता भाषणाभिसन्धिकाले स्पृष्टः पापेन-बद्धः कर्मणा, ॥ १२०॥
किं पुनर्यो मृषां वक्ति ?, भूतोपघातिनीं वाचं स सुतरां बाध्य(बद्ध्य )त इति ।। २८२ ॥ तम्हत्ति, यस्माद्वितथं तथामूर्त्यपि वस्त्वङ्गीकृत्य भाषमाणो बद्ध्यते तस्माद्गमिष्याम एव श्व इतोऽन्यत्र, वक्ष्याम एव श्वस्तत्तदोषधनिमित्तमिति, अमुकं वा नः कार्य वसत्यादि भविष्यत्येव, अहं चेदं लोचादि करिष्यामि नियमेन, एप वा साधुरस्माकं विश्रामगादि करिष्यत्येवेति ॥ २८३ ।। एवमाइ उ इति, एवमाद्या तु या भाषा, आदिशब्दात् पुस्तकं ते दास्याम्येवेत्येवमादिपरिग्रहः, एष्यत्कालेभविष्यत्कालविषया, बहुविघ्नत्वान्मुहूर्तादीनां शङ्किता-किमिदमित्यमेव भविष्यत्युतान्यथेत्यनिश्चितगोचरा, तथा साम्प्रतातीतार्थयोरपि या शङ्किता, साम्प्रतार्थे स्त्रीपुरुषाविनिश्चये एष पुरुष इति, अतीतार्थेऽप्येवमेव बलीवर्दतत्याद्यनिश्चये तदात्र गौरस्माभिदृष्ट इति । याप्येवंभूता भाषा शङ्किता तामपि धीरो विवर्जयेत् , तत्तथाभावनिश्चयाभावेन व्यभिचारतो मृषात्वोपपत्तर्विघ्नतोऽगमनादौ गृहस्थमध्ये लाघवादिप्रसङ्गात् , सर्वमेव सावसरं वक्तव्यमिति ।। २८४ ॥ किं चअईअंमि अ कालंमि, पच्चुप्पण्णमणागए। जमद्रं तु न जाणिज्जा, एवमेअंति नो वए ॥२८५॥ d॥ १२०॥
asame
Jain Education Inter
For Private & Personel Use Only
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
वाग्विनिनिषेधौ गा. २८६२९२
अईयांम अकालंमि, पच्चुप्पण्णमणागए । जत्थ संका भवे तं तु, एवमेति नो वए ॥ २८६ ॥ साधु 2 अईयंमि अ कालंमि, पच्चुप्पण्णमणागए। निस्संकिअं भवे जंतु, एवमेअं तु निदिसे ॥ २८७ ॥ श्रीदशवै०
___अईअंमि इति, अतीते च काले तथा प्रत्युत्पन्ने-वर्तमाने अनागते च यमर्थ तु न जानीयात्सम्यगेवअ०७
मयमिति, तमङ्गीकृत्यैवमेतदिति न ब्रूयादिति, अयमज्ञातभाषणप्रतिषेधः ॥ २८५ ॥ तथा-अईयम्मि-अतीते च काले ॥१२॥
प्रत्युत्पन्नेऽनागते यत्रार्थे शङ्का भवेदिति तमप्यर्थमाश्रित्यैवमेतदिति न यादिति, अयमपि विशेषतः शङ्कितभाषणप्रतिषेधः ॥ २८६ ॥ अईयंमि, अतीते च काले प्रत्युत्पन्ने अनागते निःशङ्कितं भवेत् , यदर्थजातं तुशब्दात् । अनवद्यं, तदेवमेतदिति निर्दिशेत् , अन्ये पठन्ति-स्तोकस्तोकमिति, तत्र परिमितया वाचा निर्दिशेदिति ॥ २८७ ॥ तहेब फरुसा भासा, गुरुभूओवघाइणी। सच्चावि सा न वत्तवा, जओ पावस्स आगमो ॥ २८८ ॥ | तहेव काणं काणत्ति, पंडगं पंडगत्ति वा । वाहिअं वावि रोगित्ति, तेणं चोरत्ति नो वए ॥ २८९ ॥ एएणऽनेण अटेणं, परो जेणुवहम्मइ । आयारभावदोसन्न, न तं भासिज पन्नवं ॥ २९० ॥ तहेव होले गोलित्ति, साणे वा वसुलित्ति अ । दमए दुहए वावि, नेवं भासिज्ज पन्नवं ॥ २९१ ॥ अजिए पज्जिए वावि, अम्मो माउसिअत्ति । पिउस्सिए भायणिजत्ति, धूए णतुणिअत्ति अ॥ २९२ ॥
॥१२॥
Jan Education Intema ISA
For Private
Personal Use Only
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
वाग्विधि
निषेधौ गा. २९३। २९७
हले हलित्ति अन्नित्ति, भट्टे सामिणि गोमिणि। होले गोले वसुलित्ति, इथि नेवमालवे ॥ २९३ ॥ पानामधिजेण णं बुआ, इत्थीगुत्तेण वा पुणो।जहारिहमभिगिज्झ, आलविज लविज वा ॥ २९४ ॥ भीदशवै०
अज्जए पजए वावि, बप्पो चुल्लपिउत्ति अ। माउलो भाइणिज्जत्ति, पुत्ते णतुणिअत्ति अ॥ २९५॥
हे भो हलित्ति अन्नित्ति, भट्टे सामिअ गोमिअ । होल गोल वसुलित्ति, पुरिसं नेवमालवे ॥ २९६ ॥ ॥१२२॥
नामधिजेण णं ब्रूआ, पुरिसगुत्तेण वा पुणो। जहारिहमभिगिज्झ, आलविज लविज वा ॥ २९७॥
तहेवत्ति, तथैव, परुषा भाषा-निष्ठुरा साधुभावस्नेहरहिता गुरुभूतोपघातिनी-महाभूतोपघातवती, यथा [भत्रति | तथा] कश्चित्कस्यचित् कुलपुत्रत्वेन प्रतीतस्तं दासमित्यभिदधतः, सर्वथा सत्यापि सा बाह्यार्थातथाभावमङ्गीकृत्य न वक्तव्या, यतो यस्या भाषायाः सकाशात्पापस्यागमः-अकुशलबन्धो भवति ॥ २८८ ॥ तहेवत्ति, तथैवेति पूर्ववत् , काणं-भिन्नाक्षं काण इति, तथा पण्डकं-नपुंसकं पण्डक इति वा, व्याधिमन्तं वापि रोगीति, स्तेनं-चौरं चौर | इति नो वदेत् , अप्रीतिलजानाशस्थिररोगबुद्धिविराधनादिदोषप्रसङ्गादिति ॥२८९ ।। एएणं ति, एतेनान्येन वाऽर्थेनोक्तेन सता परो येनोपहन्यते, येन केनचित्प्रकारेण । आचारभावदोषज्ञो यतिन तं भाषेत प्रज्ञावान् तमर्थमिति ॥ २९० ॥ तहेव त्ति, तथैव, होले गोले इति श्वा वा वसुल इति, द्रमको दुर्भगश्चापि नैवं भाषेत प्रज्ञावान्, इह होलादिशब्दास्तत्तद्देशप्रसिद्धितो नैष्ठुर्यादिवाचका अतस्तत्प्रतिषेध इति ॥ २९१ ।। एवं स्त्रीपुरुषयोः सामान्येन भाषणप्रतिषेधं कृत्वा |
|१२२॥
For Private & Personel Use Only
T
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु श्रीदशवै.
वाग्विधिनिषेधौ
॥१२३॥
अधुना स्त्रियमधिकृत्याह-अज्जिएत्ति, आर्थि(जि)के प्रार्यि(जि)के वापि अम्ब मातृवस इति च पितृष्वसःभागि- नेयीति, दुहितः नप्त इति च, एतानि ख्यामन्त्रणवचनानि वर्तन्ते, तत्र मातुः पितुर्वा माता आर्यिका, तस्या अपि या अन्या माता सा प्रार्यिका, शेषाभिधानानि प्रकटार्थानि एवेति सूत्रार्थः ॥ २९२ ।। किंच-हले हलेत्ति, हले इत्येवं अन्ने इत्येवं तथा भद्दे स्वामिनि गोमिनि, तथा हले गोले वसुले इत्येतान्यपि नानादेशापेक्षया स्यामन्त्रणवचनानि गौरवकृत्सादिगर्भाणि वर्तन्ते, यतश्चैवमतः स्त्रियं नैवं हो(ह)लादिशब्दरालपेदिति, दोषाश्चैवमालपनं कुर्वतः सङ्गगीतत्प्रद्वेषप्रवचनलाघवादय इति ।। २९३ ॥ यदि नैवमालपेत् कथं तर्हि आलपेदित्याह-नामधिज्जेणन्ति, नामधेयेनेतिनाम्नैव नामधेयेनैनां ब्रूयात् , स्त्रियं क्वचित्कारणे, यथा देवदत्ते ! इत्येवमादि, नामास्मरणादौ गौत्रेण वा पुनर्ब्रयात् स्त्रियं, यथा काश्यपगोत्रे ! इत्येवमादि, यथार्ह-यथायोग्यं वयोदेशैश्वर्याद्यपेक्षया अभिगृह्य-गुणदोषानालोच्यालपेल्ल. पेद्बा, ईषत्सकद्वा लपनं आलपनं, लपनमतोऽन्यथा, तत्र वयोवृद्धा मध्यदेशे ईश्वरा धर्मप्रिया, अन्यत्रोच्यते धर्मशीले इत्यादि, अन्यथा च यथा न लोकोपघात इति ।। २९४ ॥ उक्तः स्त्रियमधिकृत्यालपनप्रतिषेधो विधिश्च, साम्प्रतं पुरुषमधि| कृत्याह-अज्जए पजएत्ति, आर्यकः प्रार्यकश्चापि बप्प चुल्लपितेति च, तथा मातुल भागिनेयेति, पुत्र नप्त इति च, इह भावार्थः स्त्रियामिव द्रष्टव्यः, नवरं चुल्लबप्पा-पितृव्योऽभिधीयत इति ।। २९५ ॥ किंच-हे भो हलित्ति, अन्नेत्ति भट्ट स्वामिन् गोमिन् होल गोल वसुलित्ति पुरुष नैवमालपेदित्यत्रापि भावार्थः पूर्ववदेवेति ॥ २९६ ।। यदि नैवमालपेत्कथं तालपेदित्याह-नामधिज्जेणं ति पूर्ववदेव, नवरं पुरुषाभिलापेन योजना कार्येति ।। २९७ ।।
॥१२३॥
Jain Education Internal
For Private
Personal Use Only
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु० श्रीदशवै०
अ० ७
॥ १२४॥
Jain Education Interria
२९९ ॥
चिआिण पाणणं, एस इत्थी अयं पुमं । जाव णं न विजाणिज्जा, ताव जाइत्ति आलवे ॥ २९८ ॥ तव माणुस पसुं, पक्खि वावि सरीसवं । थूले पमेइले वज्झे, पाइ (य) मित्ति अ नो वए ॥ परिवृढत्ति णं बूआ, बूआ उवचिअत्ति अ । संजाए पीणिए वात्रि, महाकायत्ति आलवे ॥ ३०० ॥ तव गाओ दुज्झाओ, दम्मा गोरेहगत्ति अ । वाहिमा रहजोगित्ति, नेवं भासिज पन्नवं ॥ ३०९ ॥ जुवं गवित्तिणं बूआ, धेणुं रसदयत्ति अ । रहस्से महल्लए वावि, वए संवहणित्ति अ ॥ ३०२ ॥
उक्तः पुरुषमप्याश्रित्यालपन प्रतिषेधो विधिव, अधुना पञ्चेन्द्रियतिर्यग्गतं वाग्विधिमाह-पंचिंदियाणंति, पञ्चेन्द्रियाणां प्राणिनां गवादीनां क्वचिद्विप्रकृष्टदेशावस्थितानामेषा स्त्री गौरयं पुमान् बलीवर्दः, यावदेतद्विशेषेण न विजानीयातावन् मार्गप्रश्नादौ प्रयोजने उत्पन्ने सति जातिमाश्रित्यालपेत्, अस्माद् गोरूपजातात् कियद्दूरेणेत्येवमादि, अन्यथा लिङ्गव्यत्ययसम्भवात् मृषावादापत्तिः, गोपालादीनामपि विपरिणाम इत्येवमादयो दोषा इति, आक्षेपपरिहारौ तु वृद्धविवरणादवसेयौ, तच्चेदं "जह लिंगवच्चए दोसो ता कीस पुढवाईए नपुंसगतेऽवि, पुरिसित्थिनिदेसो पयट्टइ, जहा पत्थरो मट्टिया करओ उस्सा मुम्रो जाला वाओ वाउली अंबओ अंबिलिओ, किमिओ जलूगा मक्कोडओ कीडिया ममरओ मच्छिया मादि १, आयरिओ आह-जणवयसच्चेण ववहारसचेण य एवं पयट्टत्ति न इस्थ दोसो, पंचिदिएस पुण ण एयमंगीकीरह, गोवादीविण सुधम्मिति विपरिणामसंभवाओ, पुच्छियसामायारिकहणे वा गुणसंभवादिति " ॥ २९८ ॥ किंच
वाग्विधिनिषेधौ
गा. २९८३०२
॥ १२४ ॥
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु श्रीदशवै०
वाग्विधिनिषेधौ गा. ३०३. ३०५
॥१२५॥
तहेवत्ति, तथैव यथैवोक्तं प्राक, मानुष्यं-आर्यादिकं, पशु-अजादिकं, पक्षिणं वापि-हंसादिकं, सरीसृपं-अज- गरादिकं, स्थूल:-अत्यन्तमांसलोऽयं मनुष्यादिः, तथा प्रमेदुरः-प्रकर्षेण मेदासम्पन्नः तथा वध्यो-व्यापादनीयः पाक्य | इति च नो वदेत्, पाक्यः-पाकप्रायोग्यः, कालप्राप्त इत्यन्ये, नो वदेव-न ब्रूयात् तदप्रीतितद्व्यापचयाशङ्कादिदोष- प्रसङ्गादिति ॥ २९९ ।। कारणे पुनरुत्पन्ने एवं वदेदित्याह-परिवूढत्ति, परिवृद्ध इति एनं-स्थूलं मनुष्यादि ब्रूयात् , तथा ब्रूयादुपचित इति च, संजातः प्रीणितथापि सस्निग्धः महाकाय इति चालपेत् परिवृद्धं, पलोपचितं परिहरेदित्यादाविति ॥ ३०० ॥ किंच-तहेवत्ति, तथैव यथैव गावो दोह्या-दोहार्हा-दोहसमय आसां वर्त्तत्त इत्यर्थः, दम्या-दमनीया गोरथका इति च, गोरथकाः कल्होडकास्तथा वाह्याः सामान्येन ये क्वचित्तानाश्रित्य रथयोग्या इति च नैवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुः, अधिकरणलाघवादिदोषादिति ॥३०१॥ प्रयोजने तु कचिदेवं भाषेतेत्याह-जुवं गवेत्ति, युवा गौरिति दम्यो गौर्युवेति ब्रूयात्, धेनु-गां रसदेति च ब्रूयात् , रसदा गौरिति, तथा इस्वं महल्लकं वापि गोरथकं इस्वं वाह्यं महल्लकं वदेत्, संवहनमिति च रथयोग्यं संवहनं वदेत् , क्वचिद्दिगुपलक्षणादौ प्रयोजन इति ॥ ३०२ ।। तहेव गंतुमुज्जाणं, पव्वयाणि वणाणि अ । रुक्खा महल्ल पेहाए, नेवं भासिज पन्नवं ॥ ३०३ ॥ अलं पासायखंभाणं, तोरणाण गिहाण अ। फलिहऽग्गलनावाणं, अलं उदगदोणिणं ॥ ३०४॥ पीढए चंगबेरे(रा) अ, नंगले मइयं सिआ। जंतलट्री व नाभी वा, गंडिआ व अलं सिआ ॥ ३०५॥
॥१२॥
in Educh an intem
Law.jainelibrary.org
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाघु० भीदशवै०
वाग्विधिनिषेधौ गा. ३०६
३१२
॥१२६॥
आसणं सयणं जाणं, हुजा वा किंचुवस्सए । भूओवघाइणि भासं, नेवं भासिज्ज पन्नवं ॥ ३०६ ॥ तहेव गंतुमुजाणं, पवयाणि वणाणि अ। रुक्खा महल्ल पेहाए, एवं भासिज्ज पन्नवं ॥ ३०७ ॥ जाइमंता इमे रुक्खा, दीहवहा महालया । पजायसाला विडिमा, वए दरिसणित्ति अ॥ ३०८ ॥ तहा फलाइं पक्काई, पायखज्जाइं नो वए। वेलोइयाई टालाई, वेहिमाइ त्ति नो वए ॥ ३०९ ॥ | असंथडा इमे अंबा, बहुनिवडिमाफला । वइज बहुसंभूआ, भूअरूवत्ति वा पुणो ॥ ३१ ॥
तहेवोसहिओ पक्काओ, नीलिआओछवीइ । लाइमा भजिमाउत्ति, पिहखज्ज त्तिनोवए ॥३११।। (वि)रूढा बहुसंभूआ, थिरा ओसढावि अ । गम्भिआओ पसूआओ, संसाराउत्ति आलवे ॥ ३१२ ॥
तहेव गंतुमिति, तथैवेति पूर्ववत् , गत्वा उद्यानं-जनक्रीडास्थान तथा पर्वतान् प्रतीतान् तथा वनानि च, तत्र वृक्षान्महतो-महाप्रमाणान् प्रेक्ष्य-दृष्ट्वा नैवं भाषेत प्रज्ञावान-साधुरिति ॥ ३०३ ।। कथमित्याह-अलमिति, अलं-पर्याप्ता एते वृक्षाः प्रासादस्तम्भयोः, अत्रैकस्तम्भः प्रासादः, स्तम्भस्तु स्तम्भ एव, तयोरलं, तथा तोरणानांनगरतोरणादीनां गृहाणां च-कुटीरकादीनामलमिति योगः, तथा परिघार्गलानावां वा तत्र नगरद्वारे परिधः, गोपुरकपाटादिषु अर्गला, नौः प्रतीता, आसां अलं एते वृक्षाः, तथोदकद्रोणीनामलं, उदकद्रोण्योरहट्टजलधारिका इति ॥३०॥
॥१२६॥
Jain Education Inteman
For Private Personal Use Only
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु. श्रीदशवै० अ०७
वाग्विधिनिषेधौ
॥१२७॥
तथा पीढए इति, पीठकायालमेते वृक्षाः, पीठकं प्रतीतं तदर्थ, "सुपां सुपो भवन्ती"ति चतुर्थ्यर्थ प्रथमा, एवं सर्वत्र योजनीयं, तथा चंगवेरा येत्तिचंगवेरा-काष्ठपात्री तथा नङ्गलेत्ति नांगलं-हलं, तथा अलं मयिकाय स्थात् , मयिक-उप्तबीजाच्छादनं, तथा यन्त्रयष्टये वा, यंत्रयष्टिः प्रसिद्धा, नामये वा, नाभिः-शकटरथाङ्गं गण्डिकायै वाऽलं स्युरेते वृक्षा इति, नैवं भाषेत प्रज्ञावानिति वर्त्तते, गण्डिका सुवर्णकाराणामधिकरणी स्थापनी भवतीति ॥३०५॥ तथा आसणंति, आसनं-आसन्दकादि, शयनं-पर्यकादि, यानं-युग्यादि, भवेद्वा किंचिदुपाश्रये-वसतावन्यद्वा द्वारपात्राद्येतेषु वृशेविति, भूतोपघातिनीसच्चपीडाकारिणी भाषां नैव भाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति, दोषाश्चात्र तदनस्वामी व्यन्तरादिः कुप्येत् , सलक्षणो वा वृक्ष इत्यभिगृहीयात , अनियमितभाषिणो लाघवं चेत्येवमादयो योज्याः ॥ ३०६ ॥ अत्रैव विधिमाह-तहेवत्ति, वस्तुतः पूर्ववदेव, नवरमेवं भाषेत ।। ३०७ ॥ जाइमंतत्ति, जातिमन्तः-उत्तमजातीया अशोकादयोऽनेकप्रकारा वा एते-उपलम्यमानस्वरूपा वृक्षा दीर्घवृत्ता महालया:-दीर्घा नालिकेरिप्रभृतयो, वृत्ता नन्दिवृक्षादयो, महालया वटादयः, प्रजातशाखा-उत्पन्नडाला, विटपिन:-प्रशाखावन्तो वदेदर्शनीया इति, एते च प्रयोजने उत्पन्ने विश्रमणतदासनमार्गकथनादौ वदेनान्यदेति ॥३०८॥ तहा फलाई पक्काइत्ति, तथा फलानि-आम्रफलादीनि पक्कानि-पाकप्राप्तानि, तथा पाकखा| यानि-चद्धास्थीनि ग प्रक्षेपकोद्रवपलालादिना विपाच्य भक्षणयोग्यानीति नो वदेत्, तथा वेलोचितानि-पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि, अतः परं कालं न विषहन्तीत्यर्थः, टालानि-अबद्धास्थीनि कोमलानीति यदुक्तं भवति, तथा द्वैधिकानीति-पेशीसम्पादनेन द्वैधीभावकरणयोग्यानि वेति नो वदेत् , दोषाः पुनरत्रात ऊर्ध्व नाश एवामीषा, न शोभनानि
॥१२७॥
Jain Education IntermalnGI
For Private Personal Use Only
Ja
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु० श्रीदशवै० अ०७
IC
३१४
॥१२८॥
का प्रकारान्तरभोगेनेत्यवधार्य गृहिप्रवृत्तावधिकरणादय इति ॥ ३०९ ॥ प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादौ चैत्र वदेदित्याह- वाणिनिअसंथडत्ति, असमर्था एते आम्राः, अतिभारेण न शक्नुवन्ति फलानि धारयितुमित्यर्थः, आम्रग्रहणं प्रधानवृक्षोपलक्षण, | निषेधौ एतेन पक्कार्थ उक्तः, तथा बहुनिवर्तितफलाः-बहुनि निर्वर्णितानि-बद्धास्थीनि फलानि येषु ते तथा, अनेन पाकखाद्यार्थ गा.३१३उक्तः, वदे बहुनि-संभूतानि-पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि फलानि येषु ते तथाविधाः, अनेन वेलोचितार्थ || उक्तः, तथा भूतरूपा इति वा पुनर्वदेद्भूतानि रूपाणि-अवद्धास्थीनि कोमलफलरूपाणि येषु ते तथा, अनेन टालाद्यर्थ उपलक्षित इति ॥ ३१ ॥ तहत्ति, तथैवौषधयः-शाल्यादिलक्षणाः पका इति तथा नीलाइछवय इति, वल्लचनकादिफललक्षणाः, तथा लबनवत्यो-लवनयोग्याः, भर्जनवत्य इति-भर्जनयोग्याः, पृथुकभक्ष्या इति नो वदेत् पृथुकमक्षणयोग्याः, नो बदेदिति सर्वत्र सम्बध्यते, पृथुका अर्द्धपक्कशाल्यादिषु क्रियन्ते, अभिधानदोषाः पूर्ववदिति ।।३११॥ प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादावेवमालपेदित्याह-रूढत्ति, रूढाः-प्रादुर्भूताः, बहुसंभूता-निष्पन्नप्रायाः, स्थिरा-निष्पन्नाः, उस्मृता इति वा-उपघातेभ्यो निर्गता वा, तथा गर्भिता-अनिर्गतशीर्षकाः प्रसूता-निर्गतशीर्षकाः, संसारा:-संजात| तण्डुलादिसारा इत्येवमालपेत् , पक्काद्यर्थयोजना स्वधिया कार्येति ॥ ३१२ ॥
तहेव संखडि नच्चा, किच्चं कज्जति नो वए। तेणगं वावि वज्झित्ति, सुतित्थित्ति अ आवगा ॥ ३१३॥ संखडिं खंखडिं ब्रूआ, पणिअटुं त्ति तेणगं । बहुसमाणि तित्थाणि, आवगाणं विआगरे ॥ ३१४ ॥ ॥ १२८ ॥
in Education Inter
For Private Personal Use Only
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
So
सुमति
वाग्विधिप्रतिषेधाधिकारेऽनुवर्तमाने इदमपरमाह-तहेवत्ति, तथैव संखडिं ज्ञात्वा संखण्डयन्ते प्राणिनामायूंषि वाग्विधि साधु
| यस्यां प्रकरणक्रियायां सा संखडी तां ज्ञात्वा, करणीयेति पित्रादिनिमित्तं कृत्यैवैषेति नो वदेत् , मिथ्यात्वोपबृंहणदोषात , INI निषेधौ श्रीदशवैन तथा स्तेनकं वापि वध्य इति नो वदेत् , तदनुमतत्वेन निश्चयादिदोषप्रसङ्गात् , सुतीर्था इति च, चशब्दाद् दुस्तीर्था गा. ३१५. अ०७। इति वा आपगा-नया, केनचित्पृष्टः सत्रो वदेत , अधिकरणविघातादिदोषप्रसङ्गादिति ॥३१३॥ प्रयोजने पुनरेवं वदेदित्याह- ३१७ ॥१२९॥
संखडिंति, संखडि संखडि ब्रूयात्, साधुकथनादौ संकीर्णा संखडिरित्येवमादि, पणितार्थ इति स्तेनकं वदेत्, शैक्षकादिककर्मविपाकदर्शनादौ, पणितेनार्थोऽस्येति पणितार्थः, पणद्युतप्रयोजन इत्यर्थः। तथा बहुसमानि तीर्थानि आपगाना-नदीनां व्यागृणीयात्साध्वादिविषय इति ॥ ३१४ ॥
तहा नईओ पुण्णाओ, कायतिजत्ति नो वए। नावाहि तारिमाउत्ति, पाणिपिजत्ति नो वए ॥ ३१५ ॥ प्रा बहुवाहडा अगाहा, बहुसलिलुप्पिलोदगा । बहुवित्थडोदगा आवि, एवं भासिज पन्नवं ॥ ३१६ ॥ तहेव सावज जोगं, परस्सट्रा अनिट्रिअंकीरमाणंति वा नच्चा, सावजं न लवे मुणी ॥ ३१७॥
वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एव इदमाह-तहा नईउत्ति, तथा नद्यः पूर्णा-भृता इति नो वदेव , प्रवृत्तश्रवणनिवर्तनादिदोषात, तथा कायतरणीयाः-शरीरतरणयोग्या इत्येवं नो वदेत, साधुवचनतोऽविनमिति प्रवर्तनादिदोषप्रसङ्गात् , तथा नौभि:-द्रोणीभिस्तरणीयाः-तरणयोग्या इत्येवं नो वदेत , अन्यथा विघ्नशङ्कया तत्प्रवर्त्तनात् , तथा प्राणिपेया:-तटस्थ- ICT॥१२९॥
Jain Education Intem
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुमतिसाधु
| वाग्विधि
निषेधौ गा. ३१८ ३१९
श्रीदशवै० अ०७
॥१३॥
प्राणिपेया नो वदेदिति, तथैव प्रवृत्तनिवर्तनादिदोषादिति ॥ ३१५ ॥ प्रयोजने: तु साधुमार्गकथनादावेवं भाषेतेत्याहबहुवाहडेति, बहुधा भृताः प्रायशो भृता इत्यर्थः, तथा अगाहा इति बहुगाधाः प्रायोगम्भीराः, तथा बहुसलिलोत्पीलोदका:-प्रतिश्रोतोवाहितापरसरित इत्यर्थः, तथा बहुविस्तीर्णोदकाश्च-स्वतीरप्लावनप्रवृत्तजलाच, एवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुः, न तु तदाऽऽगतपृष्टो न वेद्यहमिति ब्रूयात् , प्रत्यक्षमृषावादित्वेन तत्पद्वेषादिदोषप्रसङ्गादिति ॥ ३१६ ॥ वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाह-तहेवत्ति, तथैव सावा-सपापं, योग-व्यापार अधिकरणं समादिविषयं परस्याय-परनिमित्तं निष्ठितं-निष्पन्न तथा क्रियमाणं वा वर्तमानं वाशब्दात् भविष्यत्काले भाविनं वा ज्ञात्वा सावद्यं नालपेत् सपापं न ब्यान्मुनि:-साधुरिति ॥ ३१७ ॥ | सुकडित्ति सुपक्कित्ति, सुच्छिन्ने सुहडे मडे । सुनिट्ठिए सुलट्ठित्ति, सावजं वजए मुणी ॥ ३१८ ॥
पयत्तपक्कत्ति व पकमालवे, पयचच्छिन्नत्ति व छिन्नमालवे ।
पयत्तलट्ठित्ति व कम्महेउअं, पहारगाढत्ति व गाढमालवे ॥ ३१९ ॥ तत्र निष्ठितं नैवं ब्रूयात इत्याह-सुकडित्ति, सुष्टु कृतं सुकृतं समादि, सुपक्कमिति, सुष्टु पक्कं सहस्रपाकादि, सुच्छि. नमिति-सुष्ठु छिन्नं तद्वनादि, सुहृतमिति-सुष्टु हृतं क्षुद्रस्य वित्तमिति, सुमृत इति-सुष्ठु मृतः प्रत्यनीक इति, अत्रापि J सुशब्दोऽनुवर्तते, सुनिष्ठितमिति सुन्छु निष्ठितं वित्तामिमानिनो वित्तं, सुलट्ठित्ति-सुष्टु सुन्दरा कन्या इति, सावद्यमालपनं I
॥१३०॥
Jain Education Internationa
For Private & Personel Use Only
T
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु भीदशवै० अ०७
३२३
॥१३१॥
वर्जयेन्मुनिरनुमत्यादिदोषप्रसङ्गात, निरवयं तु न वर्जयेत् , यथा-सुकृतमिति सुष्टु कृतं चैयावृत्यमनेन, सुपकमिति-सुष्टु
| वाग्विधिपक्वं ब्रह्मचर्य साधोः, सुच्छिन्नमिति-सुष्ठु छिन्नं स्नेहबन्धनमनेन, सुहृतमिति सुष्ठु हृतं शिक्षकोपकरणमुपसर्गे, सुमृत |
निषेधौ इति-सुष्ठु मृतः पण्डितमरणेन साधुरिति, अत्रापि सुशब्दोऽनुवर्तते, सुनिष्ठितं-सुष्टु निष्ठितं कर्माप्रमत्तसंयतस्य, सुल.
कगा.३२०. दृत्ति-सष्ठ सन्दरा साधुक्रियेत्येवमादिरिति ।। ३१८ ।। उक्तानुक्तापवादविधिमाह-पयत्तत्ति, प्रयत्नपकमिति वा प्रयत्नपक्कमेतत. पक्कं सहस्रपाकादि ग्लानादिप्रयोजने एवमालपेत्, तथा प्रयत्नच्छिन्नमिति वा-प्रयत्नच्छिन्नमेतच्छिन्न-व्रणा(वना)दि साधुनिवेदनादावेवमालपेत् , तथा प्रयत्नलष्टेति चेति प्रयत्नसुन्दरा कन्या दीक्षिता सती सम्यक पालनीयेति, कर्महेतकमिति सर्वमेव वा कृतादि कम्मनिमित्तमालपेदिति योगः, तथा गाढप्रहारमिति वा कश्चन गाढमालपेत्गाढप्रहारं ब्रूयात् , क्वचित्प्रयोजने, एवं हि तदप्रीत्यादयो दोषाः परिहृता भवन्ति इति ॥ ३१९ ।। सव्वुक्कसं परग्धं वा, अउलं नस्थि एरिसं । अविकिअमवत्तवं, अचिअत्तं चेव नो वए ॥ ३२०॥ सबमेअं वइस्सामि, सबमेअंति नो वए । अणुवीइ सत्वं सत्वत्थ, एवं भासिज पन्नवं ॥ ३२१ ॥ सक्कीअंवा सुविक्की,अकिजं किजमेव वा। इमंगिण्ह इमं मुंच, पणीयं नो विआगरे ॥३२२॥ अप्पग्घे वा महग्घे वा, कए वा विक्कएवि वा । पणिअटे समुप्पन्ने, अणवज्ज विआगरे ॥ ३२३ ॥ __ क्वचिद् व्यवहारे प्रक्रान्ते पृष्टो वा अपृष्टो वा नैवं वदेदित्याह-सबुक्कसंति, एतन्मध्ये इदं सर्वोत्कृष्टं-स्वभावेन
॥१३१॥
Jain Education Internet
Www.jainelibrary.org
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु भीदशवै० अ०७
॥१३२॥
सुन्दरमित्यर्थः, परार्घ चोत्तमा वा महा क्रीतमिति भावः, अतुलं-नास्तीदृशमन्यत्रापि क्वचित , अविक्कियंति-असं-12 | वाग्विधिस्कृतं सुलभमीदृशमन्यत्रापि, अवक्तव्यमित्यनन्तगुणमेतदेव अचियत्तं वा-अप्रीतिकरं चैतदिति नो वदेद् , अधिकरणा- निषेधौ तरायादिदोषप्रसङ्गादिति ॥ ३२० ॥ किंच-सव्वमेयमिति, सर्वमेतद्वक्ष्यामीति केनचित्कस्यचित्संदिष्टे सर्वमेतत् त्वया गा.३२४ वक्तव्यमिति, सर्वमेतद्वक्ष्यामीति नो वदेव , सर्वस्य तथास्वरव्यञ्जनायुपेतस्य वक्त्तुमशक्यत्वात् , तथा सर्वमेतदिति नो वदेत् , कस्यचित्संदेशं प्रयच्छन् , सर्वमेतदित्येवं वक्तव्यमिति नो वदेत् , सर्वस्य तथास्वरव्यञ्जनायुपेतस्य वस्तुमशक्यत्वात् , असंभवाभिधाने मृषावादः, यतश्चैवमतोऽनुचिन्त्यालोच्य सर्व वाच्यं सर्वेषु कार्येषु यथाऽसंभवाद्यभिधानादिना मृषावादो न भवत्येवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति ॥ ३२१ ॥ किंच-सुक्कीयं वत्ति, सुक्रीतं चेति केनचित् किश्चित् क्रीतं दर्शितं सत् सुक्रीतमिति नव्यागृणीयादिति योगः, तथा सुविक्रीतमिति किश्चित्केनचिद्विक्रीतं दृष्ट्वा पृष्टः सन् सुविक्रीतमिति न व्यागृणीयात् , तथा केनचित्क्रीते पृष्टः, अकेयं-क्रयाईमेव न भवतीति न व्यागृणीयात् , तथैवमेव क्रेयमेव वा-क्रयाहमिति, तथेदं-गुडादि गृह्णीयादा( गृहाणा)गामिनि काले महाचं भविष्यतीति, तथेदं मुश्च घृताद्यागामिनि काले समय भविष्यतीति कृत्वा पणितं-पण्यं नैव व्यागृणीयात् , अप्रीत्यधिकरणादिदोषप्रसङ्गादिति ।। ३२२ ॥ अत्रैव विधिमाह-अप्परचे वत्ति, अल्पार्धे वा महाघे वा, कस्मिनित्याह-क्रये वा विक्रयेऽपि वा पणितार्थे-पण्यवस्तुनि समुत्पन्ने केनचित्पृष्टः समनवयं-अपापं व्यागृणीयात् यथा नाधिकारोऽत्र तपस्विनां, व्यापारामावादिति ।। ३२३ ॥ तहेवासंजयं धीरो, आस एहि करेहि वा । सय चिट्र वयाहित्ति, नेवं भासिज पन्नवं ।। ३२४ ॥ ॥१३॥
Jain Education Interol
For Private & Personel Use Only
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति० साधु० श्रीदशवे०
अ० ७
।। १३३ ।।
Jain Education Inter
बहवे इमे असाहू, लोए वुच्चंति साहुणो । न लवे असाहु साहुत्ति, साहु साहुति आलवे ॥ ३२५ ॥ नाणदंसणसंपन्नं, संजमे अ तवे रयं । एवं गुणसमाउत्तं, संजयं साहुमालवे ॥ ३२६ ॥
किंच- तहेवत्ति, तथैवासंयतं गृहस्थं धीरो-यतिः, आस्वेदेव, एहीतोऽत्र, कुरु वेदं संचयादीति, तथा शेष्व निद्रया, तिष्ठोर्ध्वस्थानेन ब्रज ग्राममिति नैवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति ॥ ३२४ ॥ बहवेत्ति, बहव एते-उपलभ्यमानस्वरूपा आजीविकादयः असाधवो निर्वाणसाधकयोगापेक्षया लोके तु प्राणिलोके प्राणिसंघात उच्यन्ते साधवः सामान्येन, तत्र नालपेत् असाधुं माधुं मृषावादप्रसङ्गात्, अपि तु साधुं साधुमित्यालपेत्, न तु तमपि नालपेत्, उपबृंहणाति - चारदोषप्रसङ्गादिति ॥ ३२५ ॥ किंविशिष्टं साधु साधुमित्यालपेदित्याह - नाणत्ति, ज्ञानदर्शन संपन्नं-समृद्धं, संयमे तपसि च रतं यथाशक्त्या एवं गुणसमायुक्तं संयतं साधुमालपेत्, न तु द्रव्यलिङ्गधारिणमपीति ॥ ३२६ ॥ देवाणं मणुआणं च, तिरिआणं च वुग्गहे । अमुगाणं जओ होउ, मा वा होउ ति नो वए ॥ ३२७ ॥ वाओ वुटुं च सीउण्हं, खेमं धायं सिवंति वा । कया णु हुज एयाणि ?, मा वा होउ त्ति नो वए ॥ ३२८ ॥ तव मेहं व नहं व माणवं, न देवदेवत्ति समुच्छिए उन्नए वा पओए, वइज वा वुटु
१२
गिरं वइज्जा । बलाहयत्ति ॥ ३२९ ॥
वाग्विधिनिषेध
गा. ३२५
३२९
। । १३३ ।।
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति० साधु० श्रीदशचै०
अ० ७
॥ १३४ ॥
Jain Education Internation
अंतलिक्खत्ति णं बूआ, गुज्झाणुचरिअत्ति अ । रिद्धिमंतं नरं दिस्स, रिद्धिमंतांत आलवे ॥ ३३० ॥ तव सावज्जणुमोअणी गिरा, ओहारिणी जा य परोवघाइणी ।
से कोह लोह भय हास माणवो, न हासमाणोऽवि गिरं वइज्जा ॥ ३३१ ॥
किंच- देवाणंति, देवानां देवासुराणां मनुजानां च नरेन्द्रादीनां तिरश्चां च महिषादीनां विग्रहे-सङ्ग्रामे सत्यमुकानां देवादीनां जयो भवतु मा वा भवतु इति च नो वदेत्, अधिकरणतत्स्वाम्यादिद्वेषदोषप्रसंगादिति || ३२७ ॥ किं च-वाओत्ति, वातो- मलयमारुतादिः, वृष्टं वा प्रवर्षणं, शीतोष्णं प्रतीतं, क्षेमं - राजविदुरशून्यं भ्रातंसुभिक्षं, शिवमिति चोपसर्गरहितं कदा नु भवेयुरेतानि वातादीनि मा भवेयुरिति, धर्माद्यभिभूतो नो वदेद्, अधिकरणादिदोषप्रसङ्गात्, वातादिषु सत्सु सभ्वपीडापत्तेस्तद्वचनतस्तथाऽभवनेऽध्यार्त्तध्यानभावादिति ।। ३२८ ॥ तवत्ति, तथैव मेघं
नभ मानवं वाश्रित्य नो देवदेवत्ति गिरं वदेत्, मेघमुन्नतं दृष्ट्वा 'उन्नतो देव' इति नो वदेत्, एवं नभः - आकाश मानवं राजानं देवमिति नो वदेत् मिथ्यावादलाघवादिप्रसङ्गात् कथं तर्हि वदेत् ? इत्याह मेघमुन्नतं दृष्ट्वा सम्मूर्च्छित उन्नत वा पयोद इति, वदेद्वा वृष्टो बलाहक इति ॥ ३२९ ॥ नभ आश्रित्याह- अंतलिक्खत्ति, इह नमोऽन्तरिक्षमिति ब्रूयात्, गुह्यानुचरितमिति वा सुरसेवितमित्यर्थः एवं किल मेघोऽप्येतदुभयशब्दवाच्य एव तथा ऋद्धिमन्तं - संपदुपेतं नरं दृष्ट्वा, किमित्याह ऋद्धिमन्तमिति ऋद्धिमानयमित्येव मालपेत् व्यवहारतो मृषावादादिपरिहारार्थम् ॥ ३३० ॥ किंच
वाग्विधि
निषेधौ
गा. ३३०
३३१
॥ १३४ ॥
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धि
३३४
समति तहेवत्ति, तथैव सावद्यानुमोदिनी गी-वाक् यथा सुष्ठु हतो ग्राम इति, तथाऽवधारिणी-इदमित्थमेवेति, संशयकारिणी - वाक्यसाधावा, या च परोपघातिनी यथा-मांसमदोषाय, से इति तामेवंभूतां, क्रोधाल्लोभाद्भयाद्धासाद्वा, मानप्रेमादीनामुपलक्षणश्रीदशवै| मेतन्मानवः-पुमान् साधुन हसन्नपि गिरं वदेत् , प्रभूतकर्मबन्धहेतुत्वादिति ।। ३३१ ॥
फलम् सवक्कसुद्धिं समुपहिआ मुणी, गिरं च दुटुं परिवजए सया।
|गा.३३२मिअं अदुटुं अणुवीइ भासए, सयाण मजे लहई पसंसणं ॥ ३३२ ॥ भासाइ दोसे अ गुणे अ जाणीआ, तीसे अदुढे परिवजए सया। छसु संजए सामणिए सया जए, वइज बुद्धे हिअमाणुलोमिअं ॥ ३३३ ॥ परिक्खभासी सुसमाहिइंदिए, चउक्कसायावगए अणिस्सिए ।। से निझुणे धुन्नमलं पुरेकडं, आराहए लोगमिणं तहा परं ॥ ३३४ ॥ त्तिबेमि ॥
इति सवक्कसुद्धीअज्झयणं समत्तं ७॥ वाक्यशुद्धिफलमाह-सवकत्ति, सद्वाक्यशुद्धिं स्ववाक्यशुद्धिं वा सवाक्य शुद्धिं वा, सतीं शोभनी, स्वां आत्मीयां, स इति वक्ता, वाक्य शुद्धिं संप्रेक्ष्य-सम्यग्दृष्ट्वा मुनिः-साधुः, गिरं तु दुष्टां-यथोक्तलक्षणां परिवर्जयेत्सदा, किंतु मितं
॥ १३५ ॥
हात
Jain Education Intern
For Private & Personel Use Only
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु श्रीदशवै० अ०७
वाक्यशुद्धिफलम्
॥ १३६॥
स्वरतः परिमाणतश्च, अदुष्ट-देशकालोपपन्नादि अनुविचिन्त्य-पर्यालोच्य भाषमाणः सन् सतां-साधूनां मध्ये लभते प्रशंसन-प्राप्नोति प्रशंसामिति ॥ ३३२॥ यतश्चैवमतः-भासाएति, भाषाया उक्तलक्षणाया दोषांश्च गुणांश्च ज्ञात्वायथावदवेत्य तस्याश्च दुष्टाया भाषायाः परिवर्जको-विवर्जकः सदा, एवम्भृतः सन् षड्जीवनिकायेषु संयतस्तथा | श्रामण्ये-श्रमणभावे चरणपरिणामगर्ने चेष्टिते सदा यतः-सर्वकालमुटुक्तः सन् वदेत् बुद्धो हितानुलोम-हितं परिणाम| सुन्दरं अनुलोम-मनोहारीति ॥ ३३३ ।। उपसंहरबाह-परिक्खत्ति, परीक्ष्यभाषी-आलोचितवक्ता तथा सुसमाहि
तेन्द्रियः-सुप्रणिहितेन्द्रिय इत्यर्थः, अपगतचतुष्कषाय:-क्रोधादिनिरोधकर्तेति भावः,अनिश्रितो-द्रव्यभावनिश्रारहितः, | प्रतिबन्धविमुक्त इति हृदयं, स इत्थंभूतो निर्धूय-प्रस्फोव्य धून्नमलं-पापमलं, पुराकृतं-जन्मान्तरकृतं, किमित्याह
आराधयति-प्रगुणीकरोति लोकमेनं-मनुष्यलोकं वाक्संयतत्वेन, तथा परमिति-परलोकमाराधयति निर्वाणलोकं, यथा. सम्भवमन्तरं पारम्पर्येण चेत्यर्थः ॥ ३३४ ॥ ब्रवीमीति पूर्ववदेवेति ॥
इति श्रीसुमतिसाधुविरचितायां दशवकालिकटीकायां सप्तमस्य वाक्यशुद्ध्यध्ययनस्य व्याख्यानं समाप्तम् ७॥
in Educh an intem
|
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु० श्रीदशवै ०
अ०८
॥ १३७ ॥
Jain Education Interne
व्याख्यातं वाक्यशुद्ध्यध्ययनं इदानीमाचारप्रणिध्याख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः । इहानन्तराध्ययने साधुना वचन दोषगुणाभिज्ञेन निश्वद्यवचसा वक्तव्यमित्येतदभिहित, इह तु तन्निरवद्यं वच आचारे प्रणिहितस्य भवतीति तत्र यत्नवता भवितव्यमित्येतदुच्यते उक्तं च-" पणिहाणरहियस्सेह निरवपि भासियं । सावजतुल्लं विनेयं, अज्झत्थेणेह संबुडं ॥ १ ॥ " इत्यनेनाभिसम्बन्धेनायातमिदमध्ययनमिति, तद्यथा—
आयारणिहिं लधुं, जहा काय व भिक्खुणा । तं भे उदाहरिस्सामि, आणुपुत्रिं सुह मे ॥ ३३५ ॥
आचारमित्यादि, आचारप्रणिधिमुक्तस्वरूपां लब्ध्वा - प्राप्य यथा येन प्रकारेण कर्त्तव्यं विहितानुष्ठानं भिक्षुणा - साधुना, तंप्रकारं भे-भवद्द्भ्य उदाहरिष्यामि - कथयिष्याम्यानुपूर्व्या परिपाठ्या शृणुत ममेति गौतमादयः स्वशिष्यानाहुरिति ।। ३३५ ।। तं प्रकारमाह
पुढचीदगअगणिमारुअ, तणरुक्खस्सबीयगा । तसा अ पाणा जीवत्ति इइ वृत्तं महेसिणा ॥ ३३६ ॥ तेसिं अच्छणजोएण, निच्चं होअवयं सिआ । मणसा कायवक्केणं, एवं हवइ संजए ॥ ३३७ ॥ पुढविं भित्तिंसिलं लेलं, नेव भिंदे न संलिहे । तिविहेण करणजोएणं, संजए सुसमाहिए ||३३८ || सुद्धपुढवीं न निसीए, ससरक्खंमि अ आसणे । पमजित्तु निसीइज्जा, जाइत्ता जस्स उग्गहं ॥ ३३९ ॥
संयत
स्वरूपम्
गा. ३३५
३३९
॥ १३७ ॥
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु० श्रीदशवै०
अ० ८
॥ १३८ ॥
Jain Education Internationa
सीओदगं न सेविज्जा, सिलावुटुं हिमाणि अ । उसिणोदगं तत्तफासुअं, पडिगाहिज्ज संजए ||३४० ॥ उदउलं अपणो कार्य, नेव पुंछे न संलिहे । समुप्पेह तहाभूअं, नो णं संघट्टए मुणी ॥ ३४९ ॥ इंगालं अणि अचं, अलायं वा सजोइअं । न उंजिज्जा न घट्टिज्जा, नो णं निवावर मुणी ॥ ३४२ ॥ तालिअंटेण पत्ते, साहाए विहुणेण वा । न वीइज्जऽप्पणो कार्य, बाहिरं वावि पुग्गलं ॥ ३४३ ॥ तणरुक्खं न छिंदिज्जा, फलं मूलं च कस्सई । आमगं विविहं बीअं, मणसावि ण पत्थए ॥ ३४४ ॥ गणेसु न चिट्टिज्जा, बीएसु हरिएसु वा । उदगंमि तहा निच्चं, उत्तिंगपणगेसु वा ॥ ३४५ ॥ तसे पाणे न हिंसिज्जा, वाया अदुव कम्मुणा । उवरओ सबभूएसु, पासेज विविहं जगं ॥ ३४६ ॥
पुढवित्ति, पृथिव्युदकाग्निवायवस्तृणवृक्षसवीजा एते पञ्चै केन्द्रियकायाः पूर्ववत्, त्रसाश्च प्राणिनो द्वीन्द्रियादयो जीवा इत्युक्तं महर्षिणा - वर्द्धमानेन गौतमेन वेति ॥ ३३६ ॥ यतश्चैवमतः - तेसिंत्ति, तेषां पृथिव्यादीनां अक्षणयोगेन - अहिंसाव्यापारेण नित्यं भवितव्यं वर्तितव्यं स्याद्भिक्षुणा मनसा कायेन वाक्येनैभिः करणैरित्यर्थः, एवं वर्त्तमानोऽहिंसकः सन् भवति संयतो, नान्य ( था ) इति ॥ ३३७ ॥ एवं सामान्येन षड्डीवनिकायाहिंसायां संयतत्वमभिधायाधुना तद्गतविधीन्विधानतो विशेषेणाह - पुढवित्ति, पृथिवीं शुद्धां भित्तिं तटीं शिलां पाषाणात्मिकां
पृथ्व्यादि
यतना
विधिः
गा. ३४०३४६
।। १३८ ।।
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति ०
साधु ० श्रीदशवै०
अ० ८
॥ १३९ ॥
लेहुं- इट्टालखण्डं नैव भिन्द्यात् न संलिखेत्, तत्र भेदनं द्वैधीभावोत्पादनं संलेखनं-ईषल्लेखनं त्रिविधेन करणयोगेन न करोति मनसेत्यादिना संगतः - साधुः सुसमाहितः शुद्धभाव इति ॥ ३३८ ॥ तथा सुद्धत्ति, शुद्धपृथिव्यां अशस्त्रोपहतायामनन्तरितायां न निषीदेत्, तथा सरजस्के - पृथिवीरजोगुण्डिते वा आसने- पीठकादौ न निषीदेत्, निषीदनग्रहणात् स्थानत्वग्वर्त्तनपरिग्रहः, अचेतनायां तु प्रमृज्य तां रजोहरणेन निषीदेत्, ज्ञात्वेत्यचेतनां ज्ञात्वा याचयित्वा sवग्रहमिति यस्य सम्बन्धिनी पृथिवी तमवग्रहमनुज्ञाप्येत्यर्थः ।। ३३९ ।। उक्तः पृथिवी कायविधिः, अधुना अष्कायविधिमाहसीओदगत्ति, शीतोदकं पृथिव्युद्भवं, सच्चित्तोदकं न सेवेत, तथा शिलावृष्टं हिमानि च न सेवेत, अत्र शिला ग्रहणेन करकाः परिगृह्येते, वृष्टं वर्षणं, हिमं प्रतीतं प्राय उत्तरापथे भवति, यद्येवं कथमयं वर्त्ततेत्याह-उष्णोदकं कथितोदकं तप्तप्रासुकं - तप्तं सत् प्रासुकं त्रिदण्डोद्वृत्तं, नोष्णोदकमात्रं परिगृह्णीयात्, वृत्त्यर्थं संयतः - साधुः, एतच्च सौवीराद्युपलक्षणमिति ॥ ३४० ॥ तथा उदउल्लेति, नदीमुत्तीर्णः भिक्षाप्रविष्टो वा वृष्टिष्ठतः उदका - उदकविन्दुचितमात्मनः कार्य- शरीरं सस्निग्धं वा नैव पुञ्छयेद्वस्तृणादिभिः न संलिखेत् पाणिना-हस्तेन, अपि तु संप्रेक्ष्य-निरीक्ष्य तथाभूतमुदकार्द्रादिरूपं नैव कायं संघट्टयेन्मुनिर्मनागपि न संस्पृशेदिति ।। ३४१ ॥ उक्तोऽष्कायविधिः, तेजः कार्यविधिमाह-इंगालिति, अङ्गारंज्वालारहित, अग्निमयःपिण्डानुगं, अर्चिः - छिनज्वाला, अलातं उल्मुकं वा सज्योतिः साग्निकमित्यर्थः किमित्याह -नोत्सिञ्चयेन्न घट्टधेत्, तत्रोञ्जनमुत्सेचनं प्रदीपादेः, घट्टनं- मिथश्चालनं, तथा नैनमग्नि निर्वापयेत् अभावमापादयेन्मुनि:साधुरिति ॥ ३४२ ॥ प्रतिपादितस्तेजः कायविधिः, वायुकायविधिमाह - तालियंदेणंति, तालवृन्तेन- व्यजनविशेषेण,
पृथ्व्यादि
यतना
विधिः
।। १३९ ॥
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति साधु श्रीदशवै० अ०८
अष्टसूक्ष्माणि गा.३४७.
३४९
॥१४॥
पत्रेण-पधिनीपत्रादिना, शाखया-वृक्षडालरूपया विधूवनेन वा-ध्यजनेन वा, किमित्याह-न वीजयेदात्मनः कार्यस्वशरीरमित्यर्थः, बाह्य वापि पुद्गलं-उष्णोदकादीति ॥ ३४३ ॥ प्रतिपादितो वायुकायविधिः, वनस्पतिविधिमाह-तणत्ति, तृणवृक्षमित्येकवद्भावः, तृणानि-दर्भादीनि वृक्षा:-कदम्बकादयः, एतान्न छिन्यात्, फलं मूलकं वा कस्यचिवृक्षादेन छिन्द्यात् तथा आम-अशस्त्रोपहतं विविध-अनेकप्रकारं बीजं मनसापि न प्रार्थयेत् , किं पुनरश्नीयादिति ॥ ३४४ ॥ तथा गहणेसु, गहनेषु-वननिकुञ्जषु च न तिष्ठेत् , सट्टनादिदोषप्रसङ्गात् , तथा बीजेषु-प्रसारितशाल्यादिषु, हरितेषु वा-दुर्वादिषु न तिष्ठेत , उदके तथा नित्यं अत्रोदकं-अनन्तवनस्पतिविशेषः, यथोक्तं-"उदए अवए पणए" इत्यादि, उदकमेवान्ये, तत्र नियमतो वनस्पतिभावात , उत्तिङ्गपनकयोर्वा न तिष्ठेत् , तत्रातिङ्ग:-सर्पच्छत्रादिः पनका-उल्लिवनस्पतिरिति ।। ३४५।। उक्तो वनस्पतिविधिः, त्रसविधिमाह-तसत्ति, त्रसप्राणिनो-द्वीन्द्रियादीन् न हिंस्यात्, कथमित्याहवाचा अथवा कर्मणा-कायेन, मनसस्तदन्तर्गतत्वादग्रहणं, अपि चोपरतः सर्वभूतेषु निक्षिप्तदण्डः सन् पश्येद्विविधं जगत्-कर्मपरतन्त्रं नरकादिगतिरूपं निर्वेदायेति ॥ ३४६ ।। अट्र सुहमाई पेहाए, जाई जाणित्त संजए। दयाहिगारी भएस. आस चिट्ट सएहि वा॥३४७। कयराइं(णि) अट्ठ सुहुमाइं? जाइं पुच्छिज्ज संजए। इमाइं ताइं मेहावी, आइक्खिज विअक्खणो ।३४८ सिणेहं पुप्फसुहुमं च, पाणुत्तिंगं तहेव य । पणगं बीअहरिअं च, अंडसुहुमं च अट्ठमं ॥ ३४९ ॥
Jain Education inte
For Private & Personel Use Only
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
एवमेआणि जाणिज्जा (ता), सवभावेण संजए । अप्पमत्तो जए निच्चं, सविंदिअसमाहिए ॥ ३५० ॥ उक्तः स्थूलविधिः, अथ सूक्ष्मविधिमाह-अट्ठत्ति, अष्टौ सूक्ष्माणि वक्ष्यमाणानि प्रेक्ष्योपयोगतः आसीत तिष्ठेत् शयीत वेति योगः, किंविशिष्टानीत्याह- यानि ज्ञात्वा संयतो ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च दयाधिकारी भूतेषु भवति, अन्यथा दयाधिकार्येव नेति, तानि प्रेक्ष्य तद्रहित एवासनादीनि कुर्यात्, अन्यथा तेषां विराधनेन सातिचारतेति ।। ३४७ ।। आह-कयराणित्ति, कतराणि तान्यष्टौ सूक्ष्माणि यानि दयाधिकारित्वाभावभयात् पृच्छेत्संयतः १ १४१रण एवैवंविधेषु यत्नमाह, सह्यवश्यं तदुपकारकाण्यपकारकाणि च पृच्छति, तत्रैव मात्रप्रतिबन्धादिति, अमूनि तान्यनन्तरं वक्ष्यमाणानि मेघावी आचक्षीत विचक्षण इति, अनेनाप्येतदेवाह - मर्यादावर्त्तिना तज्ज्ञेन तत्प्ररूपण कार्या, एवं हि श्रोतुस्तत्रोपादेयबुद्धिर्भवति, अन्यथा विपर्यय इति ॥ ३४८ ॥ सिणेहंति, स्नेहमिति स्नेहसूक्ष्मंअवश्यायहिममहिकाकर कहरतनुरूपं, पुष्पसूक्ष्मं चेति वटोदुम्बराणां पुष्पाणि तानि तद्वर्णानि सूक्ष्माणीति न लक्ष्यन्ते, प्राणीति, प्राणिसूक्ष्ममनुद्धरिः कुन्थुः, स हि चलन् विभाव्यते, न स्थितः, सूक्ष्मत्वात्, उत्तिगं तथैव चेति, उतिंगसूक्ष्मंकीटिकानगरं, तत्र कीटिका अन्ये च सूक्ष्मसच्चा भवन्ति, तथा पनकमिति, पनकसूक्ष्मं प्रायः प्रावृट्काले भूमिकाष्ठादिषु पञ्चवर्णस्तद्रव्यलीनः पनक इति, तथा बीजसूक्ष्मं - शाल्यादिवीजस्य मुखमूले कणिका, या लोके तुषमुखमित्युच्यते, हरितं चेति हरितसूक्ष्मं तच्चाऽत्यन्ताभिनवोद्धिनं पृथिवीसमानवर्णमेवेति, अण्डसूक्ष्मं चाष्टममिति एतच्च मक्षिकाकीटिकागृहको किलाब्राह्मणी कुकलासाद्यण्डकमिति ॥ ३४९ ॥ एवमेआणित्ति, एवमुक्तेन प्रकारेण एतानि सूक्ष्माणि ज्ञात्वा
सुमति ० साधु०
श्रीदश ०
अ०८
सूक्ष्म
यतना
गा. ३५०
॥ १४१ ॥
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
उपदेश: गा.३५१३५९
सूत्रादेशेन सर्वभावेन-शक्त्यनुरूपेण स्वरूपसंरक्षणादिना संयतः-साधुः, किमित्याह-अप्रमत्तो-निद्रादिप्रमादरहितो।। साधु
यतेत मनोवाकायैः संरक्षणं प्रति, नित्यं-सर्वकालं सर्वेन्द्रियसमाहितः-शन्दादिषु रागद्वेषौ अगच्छनिति ॥ ३५० ॥ श्रीदशवै. धुवं च पडिलेहिज्जा, जोगसा पायकंबलं । सिज्जमुच्चारभूमिं च, संथारं अदुवाऽऽसणं ॥ ३५१ ॥
उच्चारं पासवणं, खेलं सिंघाणजल्लिअं । फासुअं पडिलेहित्ता, परिट्ठाविज संजए ॥ ३५२ ॥ 1: ॥१४२॥ पविसित्तु परागारं, पाणट्ठा भोअणस्स वा। जयं चिट्ठे मिअं भासे, न य रूवेसु मणं करे ॥ ३५३ ॥ 13
| बहुं सुणेइ कन्नेहिं, बहुं अच्छीहिं पिच्छइ। न य दिटुं सुअं सवं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ ॥ ३५४ ॥
सुअंवा जइ वा दिवं, न लविज्जोवघाइअं। न य केणइ उवाएणं, गिहिजोगं समायरे ॥ ३५५॥ निठाणं रसनिज्जूढं, भद्दगं पावगंति वा । पुट्टो वावि अपुट्टो वा, लाभालाभं न निहिसे ॥ ३५६ ॥
न य भोअणमि गिद्धो, चरे उंछं अयंपिरो । अफासुअं न भुंजिज्जा, कीअमुद्देसिआहडं ॥ ३५७ ॥ ANT संनिहिं च न कुविजा, अणुमायपि संजए । मुहाजीवी असंबद्धे, हविज जगनिस्सिए ॥ ३५८ ॥ ! लूहवित्ती सुसंतुटे, अप्पिच्छे सुहरे सिआ। आसुरत्तं न गच्छिज्जा, सुच्चा णं जिणसासणं ॥ ३५९ ॥
॥ १४२ ॥
Jain Education Inteme
For Private & Personel Use Only
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपदेशः गा.३६.. ३६२
सुमति- 12 कन्नसुक्खेहि सद्देहि, पेम्मं नाभिनिवेसए । दारुणं कक्कसं फासं, काएण अहिआसए ॥ ३६० ॥ साधु० | खुहं पिवासं दुस्सिजं, सीउण्हं अरइं भयं । अहिआसे अवहिओ, देहदुक्खं महाफलं ॥ ३६१ ॥ श्रीदशवै०
अत्थंगयंमि आइच्चे, पुरत्था अ अणुग्गए । आहारमइयं सत्वं, मणसावि ण पत्थए ॥ ३६२ ॥ अ०८
तथा धुवंति, तथा ध्रुवं च-नित्यं च यो यस्य काल उक्तोऽनागतः परिभोगे च तस्मिस्तत्प्रत्युपेक्षेत सिद्धान्त॥१४३ ॥ विधिना योगे सति सामर्थ्य अन्यूनातिरिक्तं, किं तदित्याह-पात्रकम्बलं-पात्रग्रहणादलाबुदारुमयादिपरिग्रहः, कम्बलग्रह
कणादसूत्रमयपरिग्रहः, तथा शय्यां-वसतिं द्विकालं त्रिकालं च, उच्चारभुवं च-अनापातवदादि स्थंडिलं तथा संस्तारकं
तृणमयादिरूपं, अथवाऽऽसनं-अपवादगृहीतं पीठकादि प्रत्युपेक्षेतेति ॥ ३५१ ॥ तथा उचारंति, उच्चारं प्रश्रवणं श्लेष्म सिंघानं जल्लमिति प्रतीतानि, एतानि प्रासुकं प्रत्युपेक्ष्य स्थण्डिलमिति वाक्यशेषः, परिष्ठापयेदुत्सृजेत्संयत इति ॥३५२ ॥ उपाश्रयस्थानविधिरुक्तः, गोचरप्रवेशमधिकृत्याह-पविसित्तुत्ति, प्रविश्य परागारं-परगृहं, पानार्थ भोजनस्य वा ग्लानादेः औषधार्थ वा यतं-गवाक्षाद्यनवलोकयस्तिष्ठेदुचितदेशे, मितं यतनया भाषेतागमनप्रयोजनादि, न रूपेषु-दातृकान्तादिषु मनः कुर्यादेवम्भूतान्येतानीति न मनो निवेशयेत् , रूपग्रहणं रसायुपलक्षणमिति
॥३५३॥ गोचरादिगत एव केनचित्तथाविधं पृष्टः एवं ब्रूयादित्याह-बहुंति, अथवोपदेशाधिकार एव सामान्येनाह| यहुंति, बहु-अनेकप्रकारं शोभनाशोभनं शृणोति कर्णाभ्यां, शब्दजातमिति गम्यते, तथा बहु-अनेकप्रकारमेव |
॥१४३ ॥
Jain Education Internationa
For Private & Personel Use Only
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु०
उपदेश:
श्रीदशवै० अ०८ ॥ १४४ ॥
शोभनाशोमनभेदेनाक्षिभ्यां पश्यति, रूपजातमिति गम्यते, एवं न च दृष्टं श्रुतं सर्व स्वपरोभयाहितमपि श्रुता ते पत्नी रुदतीत्येवमादि भिक्षुराख्यातुमर्हति, चारित्रोपघातित्वात् , अर्हति च स्त्रपरोभयहितं दृष्टि( दृष्ट )स्ते राजानमुपशामयन् शिष्य इत्येवमादीति । ३५४ । एतदेव स्पष्टयनाह-सुयंति, श्रुतं वा अन्यतो यदि घा दृष्टं स्वयमेव न लपेन्न भाषेत, औपघातिक-उपघातेन निवृत्तं तत्फलं वा, यथा-चौरस्त्वमित्यादिः अतोऽन्यल्लपेदपीति गम्यते, तथा न च केनचिदुपायेन सूक्ष्मयापि भङ्गथा गृहियोग-गृहिसम्बन्धं तद्वालग्रहणादिरूपं गृहिव्यापारं वा-प्रा(आ)रंभरूपं समाचरेत्-कुर्यादिति ॥ ३५५ ॥ किंच-निहाणति, निष्ठानं-सर्वगुणोपेतं संभृतमन्नं रसनियंढ मेतद्विपरीतं कदशनं, एतदाश्रित्यायं भद्रकं द्वितीयं पापकमिति वा, पृष्टो वापि परेण की हग्लब्धमित्यपृष्टो वा स्वयमेव लाभालाभं निष्ठानादेन निर्दिशेद्, अद्य साधु लब्धमसाधु वा शोभनमिदं अपरमशोभनं वेति ॥ ३५६ ॥ किंव-न येति, न च भोजने गृद्धः सन्विशिष्टवस्तुलाभायेश्वरादिषु कुलेषु मुखमङ्गलिकया चरेत्, अपितु उञ्छं भावतो-शाताज्ञातमजल्पनशीलो धर्मलाभमात्राभिधायी चरेत् , तत्राप्यप्रासुकं-सचित्तं सन्मिश्रादि कथंचिद्गृहीतमपि न भुञ्जीत, तथा क्रीतमौदेशिकाहृतं प्रासुकमपि न भुञ्जीत, एतद्विशोध्यविशोधिकोटयुपलक्षणमिति ॥ ३५७ ।। संनिहिं चेति, सन्निधि च प्रानिरूपित. स्वरूपां न कुर्यादणुमात्रमपि-स्तोकमात्रमपि, संयता-साधुः, तथा मुधाजीवीति पूर्ववत् , असम्बद्धः पधिनीपत्रोदकवद्गृहस्थैः, एवंभूतः सन् भवेत् जगनिश्रितश्चराचरसंरक्षणप्रतिबद्ध इति ॥३५८॥ किंच-लूहत्ति, रूक्षैः-बल्लचनकादिभित्तिरस्येति रूक्षवृत्तिः, सुसन्तुष्टो येन वा तेन वा सन्तोषगामी, अल्पेच्छो न्यूनोदरतया आहारपरित्यागी, सुमरः
॥१४४ ॥
For Private & Personel Use Only
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति०
साधु०
श्रीदशवे० ५० ८
।। १४५ ।।
Jain Education Intern
स्यादल्पेच्छत्वादेव दुर्भिक्षादाविति फलं प्रत्येकं वा स्यादिति क्रियायोगः, रूक्षवृत्तिः स्यादित्यादि, तथा आसुरत्वंक्रोधभावं न गच्छेत् क्वचित् स्वपक्षादौ श्रुत्वा जिनशासनं - क्रोधविपाकप्रतिपादकं वीतरागवचनं, जहा -" चउहिं ठाणेहिं जीवा आसुरत्ताए कम्मं पकरिंति, तंजहा- कोहसीलयाए पाहुडसीलयाए जहा ठाणे जात्र जं णं मए एस पुरिसे अण्णाणी मिच्छादिट्ठी अकोसह हणइ वा तं ण मे एस किंचि अवरज्झइति, किं तु मम एयाणि वेयणिजाणि कम्माणि अवरज्यंतित्ति सम्म महियासमाणस्स निजरा एव भविस्सइ " ति ॥ ३५९ ॥ तथा कन्नत्ति, कर्णसौख्य हेतवः - कर्णसौख्याः शब्दावेणुवीणादिसम्बन्धिनः तेषु प्रेम-रागं नाभिनिवेशयेत् न कुर्यादित्यर्थः, तथा दारुणमनिष्टं कर्कशं कठिनं स्पर्शपनतं सन्तं कायेनाधिसहेत्, न तत्र द्वेषं कुर्यात् इत्यनेनाद्यन्तयो रागद्वेषनिराकरणेन सर्वेन्द्रियविषयेषु रागद्वेषप्रतिषेघो वेदितव्य इति ।। ३६० ।। किच-खुहंत्ति, क्षुधं बुभुक्षां, पिपासां तृषं, दुःशय्यां विषमभूम्यादिरूपां, शीतोष्णंप्रतीतं, अरतिं - मोहनीयोद्भवां भयं व्याघ्रादिसमुत्थमति सहेदेतत्सर्वमेव अव्यथितोऽदीनमनाः सन् देहे दुःखं महाफलं संचिन्त्येति वाक्यशेषः, तथा च शरीरे सत्येतदुःखं, शरीरं चाsसारं सम्यगतिसह्यमानं च मोक्षफल मेवेदमिति ॥ ३६१ ॥ किंच-अत्थंति, अस्तं गते आदित्ये-अस्तपर्व्वतं प्राप्ते अदर्शनीभूते वा पुरस्तात् चानुगते - प्रत्यूषस्यनुदित इत्यर्थः, आहारात्मकं सव्वं निरवशेषमाहारजातं मनसापि न प्रार्थयेत् किमङ्ग पुनर्वाचा कर्मणा वेति ॥ ३६२ ॥ अतिंतिणे अचवले, अप्पभासी मिआसणे । हविज्ज उअरे दंते, थोवं लडुं न खिंसए ॥ ३६३ ॥ न बाहिरं परिभवे, अत्ताणं न समुक्कसे । सुअलाभे न मज्जिज्जा, जच्चा तवस्सिबुद्धी ॥ ३६४ ॥
१३
उपदेशः
गा. ३६३
३६४
।।। १४५ ।।
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु०
उपदेशः गा.३६५ ३७४
श्रीदशवै० अ०८
से जाणमजाणं वा, कट्ठ आहम्मि पयं । संवरे खिप्पमप्पाणं, बीअं तं न समायरे ॥ ३६५॥ अणायारं परकम्म, णेव गूहे न निण्हवे । सुई सया वियडभावे, असंसत्ते जिइंदिए ॥ ३६६ ॥ अमोहं वयणं कुजा, आयरियस्स महप्पणो । तं परिगिज्झ वायाए, कम्मुणा उववायए ॥ ३६७॥ अधुवं जीवियं नच्चा, सिद्धिमग्गं वियाणिया। विणियाहिज भोगेसु, आउं परिमिअप्पणो ॥ ३६८॥ बलं थामं च पेहाए, सद्धामारुग्गमप्पणो । खित्तं कालं च विन्नाय, तहप्पाणं निजुंजए ॥ ३६९ ॥ जरा जाव न पीडेई, वाही जाव न वड्डई। जाविंदिआ न हायंति, ताव धम्म समायरे ॥ ३७० ॥ कोहं माणं च मायं च, लोभं च पाववडणं । वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छंतो हिअमप्पणो ॥ ३७१ ॥ कोहो पीइं पणासेइ,माणो विणयनासणो।माया मित्ताइं(णि) नासेइ,लोभो सबविणासणो ॥३७२॥ उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। मायं चऽजवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥ ३७३ ॥
कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोभो य पवड्डमाणा । चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ॥ ३७४ ॥
P॥१४६ ॥
Jain Education Inter
For Private & Personel Use Only
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
उपदेशः
साधु० श्रीदशवै० ब०८ ३१४७॥
दिवाप्यलम्यमानेऽप्याहारे किमित्याह-अतिंतिणेत्ति, अतिन्तिनो भवेत् , अतिन्तिनो नामालाभेऽपि नेषयत्किञ्चनभाषी, तथा अचपलो भवेत्-सर्वत्र स्थिर इत्यर्थः, तथा अल्पभाषी-कारणे परिमितवक्ता, तथा मिताशन:-मितभोक्ता भवेदित्येवंभूतो भवेत् , तथोदरेदान्तो येन वा तेन वा वृत्तिशीलः, तथा स्तोकं लब्ध्वा न खिसयेत्-देयं दातारं वा न हेलयेदिति ॥ ३६३ ॥ मदवजनार्थमाह-न बाहिरंति, न बाह्यमात्मनोऽन्यं परिभवेत्तथाऽऽत्मानं न समुत्कर्षयेत्, सामान्येनेत्थंभूतोऽहमिति, श्रुतलाभाभ्यां न मायेत, पण्डितो लब्धिमानहं इत्येवं तथा जात्या तपस्त्वेन बुद्ध्या वा न माद्यतेति वर्तते, जातिसम्पन्नः तपस्वी बुद्धिमान् अहमित्येवं, उपलक्षणं चैतत्कुलबलरूपाणां, कुलसम्पन्नो बलसम्पन्नोऽहं, रूपसम्पन्नोऽहमित्येवं न मायेदिति ।। ३६४ ॥ ओघत आभोगानाभोगसेवितार्थमाह-सेति, स-साधुःजानन्नजानन्वाआभोगतोऽनाभोगतश्चेत्यर्थः, कृत्वा आधार्मिकं पदं कथश्चिद्रागद्वेषाभ्यां मृलोत्तरगुणविराधनमिति भावः, संवरेक्षिप्रमात्मानं भावतो निवृत्या(निवर्त्या )लोचनादिना प्रकारेण, तथा द्वितीयं पुनस्तन्न समाचरेदनुबन्धदोषादिति ॥३६५।। एतदेवाह-अणायारं ति, अनाचार-सावधयोग पराक्रम्य-आसेव्य गुरुसकाशे आलोचयन निगृहेत-न निह्नवीत, तत्र गृहनं-किश्चित्कथनं, निह्नव-एकान्तापलापः, किंविशिष्टः सन्नित्याह-शुचिः-अकलुषमतिः सदा विकटभावा-प्रकटभावः, असंसक्तः-अप्रतिबद्धः क्वचिजितेन्द्रियो-जितेन्द्रियप्रमादः सन्निति ॥ ३६६ ॥ तथा-अमोहंति, अमोघंअवन्ध्यं वचनमिदं कुर्वित्यादिरूपं कुर्यादित्येवमित्यभ्युपगमेन, केषामित्याह-आचार्याणां महात्मनां श्रुतादिभिर्गुणैः, । तत्परिगृह्य वाचा एवमित्यभ्युपगमेन कर्मणोपपादयेत्-क्रियया सम्पादयेदिति ।। ३६७ ॥ तथा अधुवंति, अधुवं
मणापत्यम्युपगमेन, मादः साबित
॥१४७॥
Jain Education Internal
For Private & Personel Use Only
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति०
साधु० श्रीदशवे० ०८
॥ १४८ ॥
Jain Education Inter
अनित्यं मरणाशङ्कि जीवितं सर्वभावनिबन्धनं ज्ञात्वा, तथा सिद्धिमार्ग- सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणं विज्ञाय विनिवर्तेत भोगेभ्यो बन्धैकहेतुभ्यः, तथाऽध्रुवमप्यायुः परिमितं संवत्सरशतादिमानेन विज्ञायात्मनो विनिवर्त्तेत भोगेभ्य इति ॥ ३६८ ॥ बलं धार्मति, (बलं- शारीरिकं स्थाम- हस्तादिविशेषोत्थं पेहाए प्रेक्ष्य श्रद्धामारोग्यं आत्मनः, क्षेत्रं "चिक्खपाणथंडिले "त्यादि १३ गुणोपेतं विज्ञायात्मनः ( कालं - यौवनादिवयोरूपं ) नियोजयेद्धर्भे ।। ३६९ ।। बृहल्लघुवृत्त्योरव्याख्याता अन्यकृतेति ) उपदेशाधिकारे प्रक्रान्ते इदमेव समर्थयन्नाह - जरत्ति, जरा-वयोहानिलक्षणा यावन्न पीडयति, व्याधिः- क्रियासामर्थ्यशत्रुर्यावन्न वर्द्धते, यावदिन्द्रियाणि क्रियासामर्थ्योपकारीणि श्रोत्रादीनि न हीयन्ते तावदत्रान्तरे प्रस्ताव इतिकृत्वा धर्मं समाचरेच्चारित्रधर्ममिति ॥ ३७० ॥ तदुपायमाह- कोहंति, क्रोधं मानं च मायां च, लोभं च पापवर्धनं, सर्व एते पापहेतव इति पापवर्द्धनव्यपदेशः, यतश्चैवमतो वमेच्चतुरो दोषान् एतानेव क्रोधादीन् हितमिच्छन्नात्मनः, एतद्वमने हि सर्वसम्पदिति ॥ ३७१ || अवमने त्विह लोके एवापायमाह -कोहत्ति, क्रोधः - प्रीति प्रणाशयति, क्रोधान्धवचनतस्तदुच्छेददर्शनात्, मानो - विनयनाशनः, अवलेपेन मूर्खतया तदकरणोपलब्धेः, मायामित्राणि नाशयति, कौटिल्यवर्त्तिनस्त्यागदर्शनात्, लोभः - सर्वविनाशनः, तत्त्वतस्त्रयाणामपि तद्भावभावित्वादिति ॥ ३७२ ॥ यत एवमतः- उवसमेणंति, उपशमेन - क्षान्तिरूपेण हन्यात्क्रोधं, उदयनिरोधोदयप्राप्ताफलीकरणेन, एवं मानं मार्दवेन - अनुत्सु (च्छिततया जयेत्, उदयनिरोधादिनैव, मायां चार्जव भावेनाशठतया जयेदुदय निरोधादिनैव, एवं लोभं सन्तोषतः निःस्पृहत्वेन जयेत्तदुदय निरोधोदयप्राप्ताफलीकरणेनेति ।। ३७३ ।। क्रोधादीनामेव परलोकापाय
उपदेशः
।। १४८ ॥
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
ጲ╔ጆ ̆
२०८
॥ १४९ ॥
Jain Education Internall
माह- कोहत्ति, क्रोधश्च मानश्चानिगृहीतौ - उच्छृंखलौ, माया च लोभश्च विवर्धमानौ-वृद्धिं गच्छन्तौ चत्वार एते क्रोधादयः कृत्स्ना:- सम्पूर्णाः, कृष्णा वा क्लिष्टाः कषायाः सिञ्चन्त्यशुभभावजलेन मूलानि तथाविधकर्मरूपाणि पुनर्भवस्य - पुनर्जन्म तरोरिति ॥ ३७४ ॥
रायणिएस विणयं पउंजे, धुवसीलयं समयं न हावइज्जा ।
कुम्मुव अल्लीणपलीणगुत्तो, परक्कमिज्जा तवसंजमंमि ॥ ३७५ ॥ निद्दं च न बहु मन्निज्जा, सप्पहासं विवज्जए । मिहो कहाहिं न रमे, सज्झायंमि रओ सया || ३७६ ॥ जोगं च समणधम्मंमि, जुंजे अणलसो धुवं । जुत्तो य समणधम्मंमि, अट्टं लहइ अणुत्तरं ॥ ३७७ ॥ इहलोगपारत्तहिअं, जेणं गच्छइ सुग्गई । बहुस्सुयं पज्जुवासिज्जा, पुच्छिज्जत्थविणिच्छयं ॥ ३७८ ॥ हत्थं पायं च कार्य च, पणिहाय जिइंदिए । अल्लीणगुत्तो निसिए, सगासे गुरुणो मुणी ॥ ३७९ ।। न पक्खओ न पुरओ, नेव किञ्चाण पिटुओ । न य ऊरुं समासिज्जा, चिट्टिज्जा गुरुणंतिए ॥ ३८० ॥ अपुच्छिओ न भासिज्जा, भासमाणस्स अंतरा । पिट्ठिमंसं न खाइजा, मायामोसं विवज्जए ॥ ३८९ ॥ अप्पत्तियं जेण सिया, आसु कुप्पिज्ज वा परो । सब सो तं न भासिज्जा, भासं अहियगामिणिं ॥ ३८२ ॥
उपदेश
गा. ३७५
३८२
॥ १४९ ॥
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु०
श्रीदशवे०
अ० ८
।। १५० ।।
दिट्टं मिअं असंदिद्धं, पडिपुन्नं विअं जिअं । अयंपिरमणुविग्गं, भासं निसिर अत्तत्वं ॥ ३८३ ॥ आयारपन्नत्तिधरं, दिट्टिवायमहिज्जगं । वायविक्खलिअं नच्चा, न तं उवहसे मुणी ॥ ३८४ ॥
यतएवमतः कषायनिग्रहार्थमिदं कुर्यादित्याह - रायणिएत्ति, रत्नाधिकेषु - चिरदीक्षितादिषु विनयं अभ्युत्थानादिरूपं प्रयुञ्जीत, तथा ध्रुवशीलतां - अष्टादशशीलाङ्गसहस्रपालनरूपां सततं अनवरतं यथाशक्या न हापयेत् तथा कूर्म्म इव - कच्छप इव आलीनप्रलीनगुप्तः अङ्गोपाङ्गानि सम्यक्संयम्येत्यर्थः, पराक्रमेत- प्रवर्त्तेत तपः संयमे तपःप्रधाने संयमे इति ॥ ३७५ ॥ किं च-निदं चेति, निद्रां च न बहु मन्येत न प्रकामशायी स्यात्, सप्रहासं च-अतीवग्रहासरूपं विवर्जयेत्, मिथः कथासु-राहस्यिकीषु न रमेत, स्वाध्याये - वाचनादौ रतः सदा, एवंभूतो भवेदिति ॥ ३७६ ॥ तथा - जोगं चेति, योगं च त्रिविधं मनोवाक्कायव्यापारं श्रमणधर्मे - क्षान्त्यादिलक्षणे युञ्जीत अनलसः - उत्साहवान्, ध्रुवं कालाद्यौचित्येन नित्यं सम्पूर्ण सर्वत्र प्रधानोपसर्जनभावेन वा अनुप्रेक्षाकाले मनोयोगं, अध्ययनकाले वाग्योगं प्रत्युपेक्षणाकाले काययोगमिति फलमाह-युक्त एवं व्यापृतः श्रमणधर्मे दशविधे अर्थं लभते प्राप्नोत्यनुत्तरं भावार्थ ज्ञानादिरूपमिति ॥ ३७७ ॥ एतदेवाह - इहलोएत्ति, इहलोकपरत्रहितमिहाकुशलप्रवृत्तिदुःखनिरोधेन परत्र कुशलानुबन्धतः, उभय लोकहितमित्यर्थः, येनार्थेन ज्ञानादिना करणभूतेन गच्छति सुगतिं, पारम्पर्येण सिद्धिमित्यर्थः, उपदेशाधिकारे उक्त व्यतिकरसाधनोपायमाह - बहुश्रुतं-आगमवृद्धं पर्युपासीत-सेवेत, सेवमानश्च पृच्छेदर्थविनिश्चयमपायरक्षकं कल्याणावहं वार्थावितथमावमिति ॥ ३७८ ॥ पर्युपासीनश्च - इत्थंति, हस्तं पादं च कार्य च प्रणिधायेति
उपदेशः
गा. ३८३३८४
।। १५० ।।
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
क
उपदेश
मुमति साधु० श्रीदशवै० ब०८ ॥१५१ ॥
संयम्य जितेन्द्रियो निभृतो भूत्वा आलीनगुप्तो निषीदेत् , ईपल्लीन उपयुक्त इत्यर्थः, सकाशे गुरोर्मुनिरिति ॥३७९॥ किंच-न पक्खउत्ति, न पक्षतः-पार्श्वतः, न पुरतो-ऽग्रतो नैव कृत्यानामाचार्याणां पृष्ठतो मार्गतो निषीदेदिति वर्तते, यथासंख्यमविनयवन्दमानान्तरायादर्शनादिदोषप्रसङ्गात् , न चोरूं समाश्रित्योरोरुपरं कृत्वा तिष्ठेद्गुर्वन्तिके, अविनयादिदोप्रसङ्गादिति ॥ ३८० ॥ उक्तः कायप्रणिधि/प्रणिधिमाह-अपुच्छिउत्ति, अपृष्टो निष्कारणं न भाषेत, भाषमाणस्य चान्तरेण न भाषेत, नेदमित्थं किं तवमिति, तथा पृष्ठिमांसं परोक्षदोषकीर्तनरूपं न खादेत न भाषेत, मायामृषा-मायाप्रधानां मृषावाचं विवर्जयेदिति ॥ ३८१॥ किंच-अप्पत्तियन्ति, अप्रीतिर्येन स्यादिति प्राकृतशैल्या येनेति-यया भाषया भाषितया अप्रीतिमात्रं भवेत , तथा आशु-शीघ्रं, कुप्येद्वा परो रोषकार्य दर्शयेत , सर्वश:-सर्वावस्थास तामित्थंभतां न भाषेत भाषां, अहितगामिनीमुभयलोकविरुद्धामिति ।। ३८२ ॥ भाषणोपायमाह-दिटुंति, दृष्टी-दष्टार्थविषयां मिता-स्वरूपप्रयोजनाम्यामसंदिग्धां-निःशंकिता प्रतिपूर्णा स्वरादिभिर्व्यक्तां-अलल्लां जितां परिजि(चि)ता. मजल्पनशीला नोच्चैलग्नविलग्नामनुद्विग्ना-नोद्वेगकारिणीमेवंभूतां भाषां निसृजेत् ब्रूयादात्मवान् सचेतन इति ।। ३८३ ।। प्रस्तुतोपदेशाधिकार एवेदमाह-आयारेति, आचारप्रज्ञप्तिधरमिति आचारधरः स्त्रीलिङ्गादीनि जानाति प्रज्ञप्ति | धरस्तान्येव सविशेषाणीत्येवंभूतं, तथा दृष्टिवादमधीयानं प्रकृतिप्रत्ययलोपागमवर्णविकारादिवेदिनं वाग्विस्खलितं ज्ञात्वा विविधमनेकैः प्रकारेः लिंगभेदादिभिः स्खलितं विज्ञाय न तमाचारादिधरमुपहसेन्मुनिः, अहो नु खल्वाचारादिधरस्य वाचि कौशलमित्येवं, इह च दृष्टिवादमधीयानमित्युक्तमत इदं गम्यते नाधीतहष्टिवाद, तस्य ज्ञानाप्रमादातिशयतः
|
|१५१॥
Jain Education Inter
For Private & Personel Use Only
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति०
स्खलनासम्भवात्, यद्येवंभूतस्यापि स्खलितं सम्भवति न चैनमित्युपहसे दित्युपदेशस्ततोऽन्यस्य सुतरां सम्भवति, नासौ इसितव्य इति ।। ३८४ ॥
साघु० श्रीदशवे ०
भ० ८
३८८ ॥
३८९ ॥
नक्खत्तं सुमिणं जोगं, निमित्तं मंतभेसजं । गिहिणो तं न आइक्खे, भूयाहिगरणं पयं ॥ ३८५ ॥ अन्नट्टं पगडं लयणं, भइज्ज सयणासणं । उच्चारभूमिसंपन्नं, इत्थीपसुविवज्जियं ॥ ३८६ ॥ ॥ १५२ ॥ विवित्ताय भवे सिज्जा, नारीणं न लवे कहं । गिहिसंथवं न कुज्जा, कुज्जा साहूहिं संथवं ॥ ३८७ ॥ जहा कुकुडपोअस्स, निच्चं कुललओ भयं । एवं खु बंभयारिस्स, इत्थीविग्गहओ भयं ॥ चित्तभित्तिं न निज्झाए, नारिं वा सुअलंकिअं । भक्खरंपिव दट्टणं, दिट्ठि पडिलमाहरे ॥ हत्थपाय पडिच्छिन्नं, कण्णनासविगप्पिअं । अवि वासस्यं नारिं, बंभचारी विवज्जए ॥ ३९० ॥ विभूसा इत्थिसंसग्गो, पणीअं रसभोअणं । नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ।। ३९९ ॥ अंगपच्चंगसं ठाणं, चारुल्लविअपेहिअं । इत्थीणं तं न निज्झाए, कामरागविवडणं ॥ ३९२ ॥ विससु मणुन्ने, पेमं नाभिनिवेसए । अणिच्चं तेसिं विन्नाय, परिणामं पुग्गलाण उ ॥ ३९३ ॥ पोग्गलाणं परीणामं, तेसिं नच्चा जहा तहा । विणीअतण्दो विहरे, सीईभूएण अपणा ॥
३९४ ॥
Jain Education Inter
उपदेशः
गा. ३८५३९४
॥ १५२ ॥
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साघु० श्रीदश ०
ग० ८
॥ १५३ ।।
किंच- नक्तंति, गृहिणा पृष्टः सन् नक्षत्रं - अश्विन्यादि, स्वप्नं- शुभाशुभफलमनुभूतादि योगं - वशीकरणादि निमित्तमतीतादि मन्त्रं - वृश्चिकमन्त्रादि भेषजं - अतीसाराद्यौषधं, गृहिणां असंयतानां तदेतन्नाचक्षीत, किंविशिष्टमित्याह-भूताधिकरणं पदमिति भूतानि - एकेन्द्रियादीनि संघट्टनादिनाऽधिक्रियन्तेऽस्मिन्निति, ततश्च तदप्रीतिपरिहारार्थमित्येवं ब्रूयात् - अनधिकारोऽत्र तपस्विनामिति ।। ३८५ ।। किंच अन्नति, अन्यार्थ प्रकृतं न साधुनिमित्तमेव निवर्त्तितं, लयनं स्थानं वसतिरूपं भजेत्-सेवेत, शयनासनमित्यन्यार्थ प्रकृतं संस्तारकपीठकादि सेवेतेत्यर्थः, एतदेव विशेष्यतेउच्चारभूमिसम्पन्नं-उच्चारप्रश्रवणादिभूमियुक्तं, तद्रहिते असकृतदर्थं निर्गमनादिदोषात्तथा स्त्रीपशुविवर्जितमिति, एकग्रहणे जातीयग्रहणात् स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितं रूपा (रूपा) घालो कनादिरहितमिति ॥ ३८६ ।। तदित्थंभूतं लयनं सेव - मानस्य धर्मकथा विधिमाह - विवित्ता यत्ति, विविक्ता च तदन्यसाधुभिर्विवर्जिता, चशब्दात्तथाविधभुजङ्गप्रायैकपुरुषसंयुक्ता भवेच्छया वसत्यादि ततो नारीणां स्त्रीणां न कथयेत्कथां, शङ्कादिदोषप्रसङ्गादौचित्यं विज्ञाय पुरुषाणां तु कथयेत्, अविविक्तायां नारीणामपीति, तथा गृहिसंस्तवं - गृहिपरिचयं न कुर्यात्तत्स्नेहादिदोपसम्भवात् कुर्यात्साधुभिः सह संस्तवं - परिचयं, कल्याणमित्रयोगेन कुशलपक्षवृद्धिमावत इति ॥ ३८७ ॥ कथंचिद्गृहिसंस्तवभावेऽपि स्त्रीसंस्तवो न कर्त्तव्य एवेत्यत्र कारणमाह-जहत्ति, यथा कुर्कुटपोतस्प- कुर्कुटशिशोर्नित्यं सर्वकालं कुललतो मार्जाराद्भयं एवं ब्रह्मचारिणः साधोः स्त्रीविग्रहात् - स्त्रीशरीराद् मयं, विग्रहग्रहणं मृतविग्रहादपि मयख्यापनार्थमिति ॥ ३८८ ॥ यतचैनमतः - चित्तभित्तिति, चित्रभित्ति चित्रगतां स्त्रियं न निरीक्षेत न पश्येत्, नारीं वा सचेतनामेव स्वलकृतां,
उपदेशः
॥ १५३ ॥
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपदेशः
मुमति साधु
श्रीदशवे. अ०८
॥१५४ ॥
उपलक्षणमेतदनलक्कृतां च न निरीक्षेत, कथंचिद्दर्शनयोगेऽपि भास्करमिवादित्यमिव दृष्ट्वा दृष्टिं प्रतिसमाहरेत्द्रागेव निवर्तयेदिति ।। ३८९ ॥ किंबहुना हत्थति, हस्तपादप्रतिच्छिन्ना-प्रतिच्छिन्नहस्तपादां कर्णनासाविकृत्ता-N मिति-विकृत्तकर्णनासामपि वर्षशतिकां नारी, एवं वृद्धामपि किमङ्गं पुनस्तरुणी?, तां तु सुतरामेव, ब्रह्मचारी-चारि
धनो महाधन इव तस्करान्विवर्जयेदिति ॥ ३९॥ अपिच-विभूसेति, विभूषा-वस्त्रादिराढा, स्त्रीसंसर्गः-येन केनचित्प्रकारेण स्त्रीसम्बन्धः, प्रणीतरसभोजन-गलत्स्नेहरसाम्यवहारः, एतत्सर्वमेव विभूषादि नरस्यात्मगवेषिण:आत्महितान्वेषणपरस्य विषं तालपुटं यथा-तालमात्रव्यापत्तिकरविषकल्पमहितमिति ॥ ३९१ ॥ किंच-अंगपचंगेति, अङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानमिति, अङ्गानि-शिरप्रभृतीनि प्रत्यङ्गानि-नयनादीनि एतेषां संस्थान-विन्यासविशेष, तथा चारुशोभनं लपितपेक्षितं-लपितं-जल्पितं प्रेक्षित-निरीक्षितं स्त्रीणां सम्बन्धि, तदङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानादि न निरीक्षेत-न पश्येत , कुत इत्याह-कामरागविवर्द्धनमिति, एतद्धि निरीक्ष्यमाणं मोहदोषान्मैथुनाभिलाषं वर्द्धयति, अत एवास्य प्राक स्त्रीणां निरीक्षणप्रतिषेधात् गतार्थतायामपि प्राधान्यख्यापनार्थो भेदेनोपन्यास इति ॥३९२॥ किंच-विसएसुत्ति, विषयेषुशब्दादिषु, मनोज्ञेषु-इन्द्रियानुकूलेषु, प्रेम-राग नाभिनिवेशयेत्-न कुर्यात् , एवममनोज्ञेषु द्वेष, आह-उक्तमेवेदं प्राक "कन्नसोक्खेहीत्यादौ" (गा.३६०) किमर्थं पुनरुपन्यास इति ?, उच्यते-कारणविशेषाभिधानेन विशेषोपलम्भार्थमिति,
आह च-अनित्यमेव-परिणामानित्यतया तेषां-पुद्गलानां, तुशब्दात् शब्दादिविषयसम्बन्धिनामितियोगः, विज्ञाय-अवेत्य | जिनवचनानुसारेण, किमित्याह-परिणाम-पर्यायान्तरापत्तिलक्षणं, ते हि मनोज्ञा अपि क्षणादमनोज्ञतया परिणमन्ति,
॥१५४ ॥
Jain Education Intern
For Private
Personal Use Only
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साघु० श्रीदश०
अ० ८
१५५ ।।
Jain Education Intern
अमनोज्ञा अपि मनोज्ञतयेति, तुच्छं रागद्वेषयोर्निमित्तमिति ॥ ३९३ ॥ एतदपि स्पष्टयन्नाह - पोग्गलाणं वि, पुद्गलानांशब्दादिविषयान्तर्गतानां परिणाममुक्तलक्षणं तेषां ज्ञात्वा - विज्ञाय यथा मनोज्ञेतररूपतया भवन्ति तथा ज्ञात्वा विनीततृष्णः-अपेताभिलाषः शब्दादिषु विहरेत्, शीतीभूतेन - क्रोधाद्यग्न्युपगमात् प्रशान्तेनात्मनेति ॥ ३९४ ॥ जाइ सद्धाइ निक्खंतो, परिआयट्ठाणमुत्तमं । तमेव अणुपालिज्जा, गुणे आयरिअसंमए ॥ ३९५ ॥ तवं चिमं संजमजोगयं च, सज्झायजोगं च सया अहिए ।
सूरे व सेणाइ समत्तमाउहे, अलमप्पणो होइ अलं परेसि ॥ ३९६ ॥ सज्झायसज्झाणरयस्स ताइणो, अपावभावस्स तवे रयस्स ।
विसुज्झई जंसि मलं पुरेकडं, समीरिअं रुप्पमलं व जोइणा ॥ ३९७ ॥ से तारसे दुक्खस जिइंदिए, सुएण जुत्ते अममे अकिंचणे ।
वियई कम्मघम अवगए, कसिणब्भपुडावगमे व चंदिमि ॥ ३९८ ॥ तिमि ॥ आयारपणिहिणामज्झयणं अट्ठमं समत्तं ८ ॥ किंच-जाइत्ति, यया श्रद्धया - प्रधानगुणस्वीकरणरूपया निष्क्रान्तोऽविरतिजम्बालात्,
पर्यायस्थानं - प्रव्रज्यारूपं
उपदेशः
गा. ३९५३९८
।। १५५ ।।
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाघु० श्रीदशवे०
ज० ८
॥ १५६ ।।
Jain Education Intera
उत्तमं प्रधानं प्राप्त इत्यर्थः, तामेव श्रद्धामप्रतिपतितया प्रवर्धमानामनुपालयेद्यत्नेन, क्वेत्याह- गुणेषु - मूलगुणादिलक्षणेषु आचार्यसंमतेषु - तीर्थंकरादिबहुमतेषु अन्ये तु श्रद्धाविशेषणमित्येतद्व्याचक्षते, तामेव श्रद्धामनुपालयेद्गुणेषु, किंभूतांआचार्यसम्म, न तु स्वाग्रहकलङ्कितामिति ।। ३९५ ।। आचारप्रणिधिफलमाह - तवं चिमंति, तपश्चेदमनशनादिरूपं साधु लोकप्रतीतं संयमयोगं च पृथिव्यादिविषयं संयमव्यापारं च स्वाध्यायादियोगं च-वाचनादिव्यापारं सदा-सर्वकालमधिष्ठाता तपःप्रभृतीनां कर्त्तेत्यर्थः, इह च तपोऽभिधानात्तद्ग्रहणेऽपि स्वाध्याययोगस्य प्राधान्यख्यापनार्थं भेदेना| भिधानमिति । स एवंभूतः शूर इव-विक्रान्तभट इव सेनया - चतुरङ्गरूपया इन्द्रियकषायादिसेनया निरुद्धः सन् समाप्तायुधः- संपूर्णतपःप्रभृतिखङ्गाद्यायुधः, अलं- अत्यर्थमात्मनो भवति, संरक्षणायै अलं च परेषां निवा (क) रणायेति ।। ३९६ ।। एतदेव स्पष्टयन्नाह - सज्झायति, स्वाध्याय एवं सद्ध्यानं स्वाध्याय सद्ध्यानं तत्र रतस्य - आसक्तस्य त्रातुः - स्त्रपरोभयत्राणशीलस्य अपापभावस्य - लब्ध्याद्यपेक्षारहिततया शुद्धचित्तस्य तपसि - अनशनादौ यथाशक्त्या, रतस्य विशुद्धयते अपैति, यदस्य साधोर्मलं-कर्ममलं पुराकृतं -जन्मान्तरोपातं दृष्टान्तमाह- समीरितं- प्रेरितं रूपयमलमित्र ज्योतिषा- अग्निनेति ॥ ३९७ ॥ ततश्व-से तारिसेति, स तादृश अनन्तरोदितगुणयुक्तः साधुर्दुःखसह:परीपहजेता जितेन्द्रियः - पराजितश्रोत्रेन्द्रियादिः श्रुतेन युक्तो विद्यावानित्यर्थः, अममः - सर्वत्र ममत्वरहितः, अकिञ्चनो द्रव्यभावकिञ्चनरहितः, विराजते-शोभते, कर्म्मघने-ज्ञानावरणीयादिकर्ममेघे अपगते सति निदर्शनमाहकृत्स्नाभ्रपुटापगमे इव चन्द्रमा इति यथा कृत्स्ने अभ्रपुटे कृष्णे वा अपगते सति चन्द्रमा विराजते शरदि, तद्वदसावपग
उपदेशः
।। १५६ ॥
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु श्रीदशवै०
तकर्मघनः समासादितकेवलालोको विराजते ॥ ३९८ ॥ ब्रवीमीति पूर्ववत ॥
इत्याचारप्रणिध्याख्यमष्टममध्ययनं समाप्तम् ।
विनय
विना
गा.३९९
॥१५७॥
व्याख्यातमाचारप्रणिध्यध्ययनम् । अधुना विनयसमाध्याख्यमारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्ध:-इहानन्तराध्ययने निरवयं वच आचारे प्रणिहितस्य भवतीति, तत्र यत्नवता भवितव्यमित्येतदुक्तं, इह त्वाचारप्रणिहितो यथोचित. | विनयसंपन्न एव भवतीत्येतदुच्यते। उक्तं च-" आयारपणिहाणमि, से सम्म बट्टई बुहे । णाणाईणं विणीए जे, मुक्खट्ठा निबिगिच्छए ॥१॥" इत्यनेन सम्बन्धेनायातमिदमध्ययनमिति
थंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे (तिइ)।
सो चेव उ तस्स अभइभावो, फलं व कीअस्स वहाय होइ॥ ३९९ ॥ थंभा वेत्यादि, स्तम्भादा मानाद्वा जात्यादिनिमित्तात् क्रोधाद्वा-अक्षान्तिलक्षणात् , मायाप्रमादादिति, | मायातो-निकृतिरूपायाः प्रमादात-निद्रादेः सकाशात् , किमित्याह-गुरोः सकाशे-आचार्यादेः समीपे विनयमासेवनाशिक्षादिभेदभिन्नं न शिक्षते-नोपादत्ते, तत्र स्तम्भात् कथमहं जात्यादिमान् जात्यादिहीनसकाशे शिक्षामीति, एवं क्रोधात्कचिद्वितथकरणचोदितो रोपाद्वेति, मायातः 'शूलं मे बाधत' इत्यादिव्याजेन, प्रमादात् प्रक्रान्तोचितमनवबुद्ध्यमानो निद्रादिव्यासङ्गेन, स्तम्भादिक्रमोपन्यासश्चेत्थमेवामीषां विनयविघ्नहेतुतामाश्रित्य प्राधान्यख्यापनार्थः, तदेवं स्तम्भादिभ्यो गुरोः सकाशे
॥१५७॥
Jain Education Intema
For Private & Personel Use Only
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु० श्रीदशवै०
अ० ९,
उ० १
॥ १५८ ॥
Jain Education Internat
चिनयं न शिक्षते, अन्ये तु पठन्ति - गुरोः सकाशे बिनये न तिष्ठति - विनये न वर्त्तते, विनयं नासेवत इत्यर्थः । इह च स एव तु स्तंभादिर्विनय शिक्षाविनहेतुस्तस्य जडमतेः, अभूतिभाव इति-अभूतेर्भावोऽभूतिभावः, असंपद्भाव इत्यर्थः, किमत्वाह-वधा भवति - गुणलक्षणभावप्राणविनाशाय भवति, दृष्टान्तमाह-फलमिव कीचकस्य कीचको वंशस्तस्य यथा फलं वधाय भवति सति तस्मिंस्तस्य विनाशात्तद्वदिति ।। ३९९ ॥
जे आवि मंदित्ति गुरुं विज्ञत्ता, डहरे इमे अप्पसुअत्ति नच्चा ।
हीलंति मिच्छं पडिवजमाणा, करंति आसायण ते गुरूणं ॥ ४०० ॥ पई मंदावि हवंति एगे, डहरावि अ जे सुअबुद्धोववेआ । आयारमंतो गुणसुट्ठिअप्पा, जे हीलिआ सिहिरिव भास कुज्जा ॥ ४०९ ॥ जे आवि नागं हरति नच्चा, आसायए से अहिआय होइ । एवायरिअपि हु हीलयंतो, निअच्छई जाइपहं खु मंदो ॥ ४०२ ॥ आसीविसो वावि परं सुरुट्टो, किं जीवनासाउ परं नु कुज्जा ? । आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना, अबोहिआसायण नत्थि मुकूखो ॥ ४०३ ॥
गुर्वाशातनादोषः
गा. ४००
४०३
॥ १५८ ॥
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु०
श्रीदशवै०
व० ९,
उ० १
॥१५९॥
Jain Education Interna
जो पावगं जलिअमवक्कमिज्जा, आसीविसं वावि हु कोवइज्जा । जो वा विसं खायइ जीविअट्ठी, एसोवमाऽऽसायणया गुरूणं ॥ ४०४ ॥ सिया हु से पावय नो डहिज्जा, आसीविसो वा कुविओ न भकूखे । सिया विसं हालहलं न मारे, न यावि मुक्खो गुरुहीलणाए ॥ ४०५ ॥ जो पवयं सिरसा भेत्तुमिच्छे, सुत्तं व सिंहं पडिबोहइज्जा ।
जो वा दए सत्तिअग्गे पहारं, एसोवमाऽऽसायणया गुरूणं ॥ ४०६ ॥ सिया हु सीसेण गिरिपि भिंदे, सिया हु सीहो कुविओ न भक्खे | सिया न भिंद्रेज व सत्तिअग्गं, न यावि मुक्खो गुरुहीलणाए ॥ ४०७ ॥ आयरियपाया पुण अप्पसन्ना, अबोहिआसायण नत्थि मुक्खो ।
तम्हा अणाबाह सुहाभिकंखी, गुरुप्पसायाभिमुहो रमिज्जा ॥ ४०८ ॥
किंच-जे यावित्ति, ये चापि केचन द्रव्यसाधवोऽगम्भीराः किमित्याह- मन्द इति गुरुं विदित्वा क्षयोपशम
गुर्वाशातनादोषः
गा. ४०४४०८
॥ १५९ ॥
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु०
श्रीदश
अ० ९,
उ० १
॥१६०
Jain Education Intern
वैचित्र्यात् तन्त्रयुक्त्यालोचनाऽसमर्थः सत्प्रज्ञाविकल इति स्वमाचार्यं ज्ञात्वा । तथा कारणान्तरस्थापितमप्राप्तवयसं डह रोऽयं - अप्राप्तवयाः खल्वयं, तथा अल्पश्रुत इत्यनधीतागम इति विज्ञाय, किमित्याह - हीलयन्ति-सूयया असूयया वा खिंसयन्ति, सूयया अतिप्रज्ञः त्वं वयोवृद्धो बहुश्रुत इति, असूयया तु मन्दप्रज्ञस्त्वमित्याद्यभिदधति, मिथ्यात्वं प्रतिपद्यमाना इति, गुरुर्न दीलनीय इति तच्वमन्यथाऽवगच्छन्तः कुन्त्याशातनां - लघुतापादनरूपां ते-द्रव्यसाधवः गुरूणां - आचार्याणां तत्स्थापनाया अबहुमानेन, एकगुर्व्वाशातनायां सर्वेषामाशातनेति बहुवचनं, अथवा कुर्वन्त्याशावनां स्वसम्यग्दर्शनादिभावापहासरूपां ते गुरूणां सम्बन्धिनीं तन्निमित्तत्वादिति ॥ ४०० ॥ अतो न कार्या हीलनेत्याहपराईए त्ति, प्रकृत्या स्वभावेन कर्मवैचित्र्यात् मन्दा अपि सद्बुद्धिरहिता अपि भवन्त्येके- केचन वयोवृद्धा अपि तथा डहरा अपि च- अपरिणता अपि च वयसा अन्ये अमन्दा भवन्तीति वाक्यशेषः, किंविशिष्टा इत्याह-ये श्रुतबुद्धयुपपेतास्तदा सत्प्रज्ञावन्तः श्रुतेन बुद्धिभावेन वा भाविनीं वृत्तिमाश्रित्य अल्पश्रुता इति, सर्वथा आचारवन्तः - ज्ञानाद्याचारसमन्विताः गुणसुस्थितात्मानः- गुणेषु-संग्रहोपग्रहादिषु सुष्ठु - भावसारं स्थित आत्मा येषां ते तथाविधाः, न हीलनीयाः, ये हीलिताः - खिंसिताः शिखीव - अग्निरिवेन्धनसङ्घातं भस्मसात्कुर्युः - ज्ञानादिगुण सङ्घातमपनयेयुरिति ।। ४०१ ।। विशेषेण डहरहीलनादोषमाह-जे यावित्ति, यश्चापि कश्चिदज्ञो नागं सर्प, डहर इति- बाल इति, ज्ञात्वाविज्ञाय आशातयति-कलिञ्चादिना कदर्थयति स - कदर्थ्यमानो नागः से-तस्य कदर्थकस्य अहिताय भवति, भक्षणेन प्राणनाशनात् एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनय: - एवमाचार्यमपि कारणतोऽपरिणतमेव स्थापितं हीलयन् निर्गच्छति
गुर्वाशातनादोषः
॥ १६०॥
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
SSES
सुमति
| गुर्वाशातनादोषः
साधु
श्रीदशवै०
॥१६॥
जातिपन्थानं-द्वीन्द्रियादिजातिमार्ग मन्दः-अज्ञः, संसारे परिभ्रमतीति ॥ ४०२॥ अत्रैव दृष्टान्तदान्तिकयोर्महदन्तरमित्येतदाह-आसीत्ति, आशीविषश्चापि-सर्पोऽपि परं सुरुष्टः सन्-सुक्रुद्धः सन् किं जीवितनाशात्-मृत्योः परं नु कुर्यात्न किश्चिदपीत्यर्थः, आचार्यपादाः पुनरप्रसन्ना हीलनया अनुग्रहेऽप्रवृत्ताः, किं कुर्वन्तीत्याह-अबोधिनिमित्तहेतुत्वेन मिथ्यात्वसंहति, तदाशातनया मिथ्यात्वबन्धात् , यतश्चैवमतश्चाशातनया गुरोर्नास्ति मोक्षः, अबोधि. सन्तानसम्बन्धेनानन्तसंसारिकत्वादिति ॥४०३॥ किंच-जो पावगत्ति, यः पावकं-अग्निं ज्वलितं सन्तं अपक्रामेत्अवष्टभ्य तिष्ठति, आशीविषं वापि हि-भुजङ्गमं वापि हि कोपयेत्-रोषं ग्राहयेत् , यो वा विष खादति जीवितार्थी-जीवितुकामः एषोपमा-अपायप्राप्ति प्रति एतदपमान, आशातनया कृतया गुरूणां सम्बन्धिन्या, तद्वदपायो भवतीति ।। ४०४ ।। अत्र विशेषमाह-सिया हुत्ति, स्यात्-कदाचिन्मन्त्रादिप्रतिबन्धाद् असौ पावका-अग्निः न दहेत्-न भस्मसात्कुर्यात् , आशीविषो वा भुजङ्गो-वा कुपितो वा न भक्षयेत्-न खादयेत् , तथा स्यात्-कदाचि. न्मन्त्रादिप्रतिबन्धादेव विष हालाहलं-अतिरौद्रं न मारयेत्-न प्राणांस्त्याजयेत् , एवमेतत् कदाचिद्भवति, न चापि मोक्षो गुरुहीलनया-गुरोराशातनया कृतया भवतीति ॥ ४०५ ॥ जो पव्वयंति, यः पर्वतं शिरसा-उत्तमाङ्गेन भेत्तुमिच्छेत् , सुप्तं वा सिंहं गिरिगुहायां वा प्रतिबोधयेत्, यो वा ददाति शक्त्यग्रे प्रहरणविशेषाग्रे प्रहारं हस्तेन, एषोपमाऽऽशातनया गुरूणामिति पूर्ववदिति ॥ ४०६ ॥ अत्र विशेषमाह-सिया हु त्ति, स्यात्-कदाचित्कश्चिद्वासुदेवादिः प्रभावातिशयात्-शिरसा उत्तमाङ्गेन गिरिमपि-पर्वतमपि भिन्द्यात्, स्यान्मन्त्रादिसामर्थ्यात्सिहः कुपितो
॥१६॥
For Private & Personel Use Only
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति- साधु श्रीदशवै० अ०९,
गुरुविनयो
पदेशः गा.४०९. ४१२
॥१६२॥
न भक्षयेत् , स्यादेवतानुग्रहादेन भिन्द्याद्वा शक्त्यग्रे प्रहारे दत्तेऽपि, एवमेतत्कदाचिद्भवति, न चापि मोक्षो गुरु- हीलनया-गुरोराशातनया भवतीति ॥ ४०७ ॥ एवं पावकाद्याशातना अल्पा गुर्वाशातना महतीत्यतिशयप्रदर्शनार्थमाह- आयरिअत्ति-आचार्यपादाः पुनरप्रसन्ना इत्यादि पूर्वाई पूर्ववत् । यस्मादेवं तस्मादनावाधसुखाभिकाङ्क्षीमोक्षसुखामिलाषी साधुर्गुरुप्रसादाभिमुखः-आचार्यादिप्रसादे उद्युक्तः सन् रमेत-वतेति ॥ ४०८ ॥
जहाऽऽहिअग्गी जलणं नमसे, नाणाहुईमंतपयाभिसित्तं । एवायरियं उवचिदइजा, अणंतनाणोवगओ वि संतो॥ ४०९ ॥ जस्संतिए धम्मपयाइं सिक्खे, तस्संतिए वेणइ पउछु । सकारए सिरसा पञ्जलीओ, कायग्गिरा भो मणसा अनिच्चं ॥ ४१० ॥ लज्जा दया संजम बंभचेरं, कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं । जे मे गुरू सययमणुसासयंति, तेऽहं गुरू सययं पूजयामि ॥ ४११ ॥ जहा निसंते तवणच्चिमाली, पभासई केवल भारहं तु । एवायरिओ सुयसीलबुद्धिए, विरायई सुरमज्ञ व इंदो ॥ ४१२ ॥
॥१२॥
T
Jain Education Intem
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु श्रीदशवै.
गुरुविनयो
पदेशः गा.४१३४१५
उ०१
॥१६॥
जहा ससी कोमुइजोगजुत्तो, नक्खत्ततारागणपरिवुडप्पा । खे सोहई विमले अब्भमुक्के, एवं गणी सोहइ भिक्खुमज्झे ॥ ४१३ ॥ महागरा आयरिया महेसी, समाहिजोगेसुयसीलबुद्धिए । संपाविउकामे अणुत्तराई, आराहए तोसइ धम्मकामी ॥ ४१४ ॥ सुच्चाण मेहावी सुभासियाई, सुस्सूसए आयरियऽप्पमत्तो । आराहइत्ताण गुणे अणेगे, से पावई सिद्धिमणुत्तरं ॥ ४१५ ॥ ति बेमि ॥
इइ विणयसमाहीए पढमो उद्देसो समत्तो ९-१॥ केन प्रकारेणेत्याह-जहाऽऽहिअग्गित्ति-यथाऽऽहिताग्निः-कृतावसथादिर्ब्राह्मणो ज्वलनं-अग्नि नमस्यति, किंविशिष्टमित्याह-नानाहुतिमन्त्रपदाभिषिक्तमाहुतयो-घृतप्रक्षेपादिलक्षणा मन्त्रपदानि-अग्नये स्वाहा इत्येवमादीनि | तैरभिषिक्तं-दीक्षासंस्कृतमित्यर्थः, एवं-अग्निमिवाचार्यमुपतिष्ठेत्-विनयेन सेवेत, किंविशिष्ट इत्याह-अनन्तज्ञानोपगतोऽपीति-अनन्तं स्वपरपर्यायापेक्षया वस्तु ज्ञायते येन तदनन्तज्ञानं तदुपगतोऽपि सन् , किमङ्ग पुनरन्य इति ।। ४०९ ॥ एतदेव स्पष्टयति-जस्सत्ति, यस्यान्तिके-यस्य समीपे धर्मपदानि-धर्मफलानि सिद्धान्तपदानि शिक्षेत-आदद्यात् तस्यान्तिके
॥१६॥
Jain Education Intema
For Private & Personel Use Only
|
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
| पदेशः
साधु श्रीदशवै०
अ०९,
उ०१
॥१६॥
तत्समीपे, किमित्याह-वैनयिकं प्रयुञ्जीत-विनय एव वैनयिकं तत्कुर्यादितिभावः, कथमित्याह-सत्कारयेदभ्युत्थानादिना पूर्वोक्तेन युक्तः शिरसा-उत्तमाङ्गेन प्राञ्जलि:-प्रोद्गताञ्जलिःसन् कायेन-देहेन गिरा-वाचा मस्तकेन वन्दे इत्यादिरूपया
भो इति शिष्यामन्त्रणं मनसा च-भावप्रतिबन्धरूपेण नित्यं-सदैव सत्कारयेत् , न तु सूत्रग्रहण काल एव, कुशलानुबन्धव्यवच्छेदप्रसङ्गादिति ॥ ४१० ।। एवं च मनसि कुर्यादित्याह-लज्जा दयेत्ति, लज्जा-अपवादभयरूपा दया-अनुकम्पा संयमः-पृथिव्यादिजीवविषयः, ब्रह्मचर्य-विशुद्धतपोऽनुष्ठानं, एतल्ल आदि विपक्षव्यावृत्या कुशलपक्षप्रवर्तकत्वेन कल्याणभागिनो-मोक्षभागिनो जीवस्य विशोधिस्थानं-कर्ममलापनयनस्थानं वर्तते, अनेन ये मां गुरव-आचार्याः सततंअनवरतं अनुशासयन्ति-कल्याणयोग्यतां नयन्ति, तानहमेवंभृतान् गुरून सततं पूजयामि, न तेभ्योऽन्यः पूजाई इति ॥ ४१९ ।। इतश्चैते पूज्या इत्याह-जहत्ति, यथा निशान्ते-राज्यवसाने दिवस इत्यर्थः, तपन्नचिौली-सूर्यः प्रभास यति-उद्योतयति केवलं-सम्पूर्ण भारतं-भरतक्षेत्रं तुशब्दादन्यच्च क्रमेण, एवमर्चिालीवाचार्यः श्रुतेन-आगमेन, शीलेन-परद्रोहविरतिरूपेण बुद्ध्या च-स्वाभाविक्या युक्तः सन् प्रकाशयति जीवादिभावानिति । एवं च वर्तमानः सुसाधुमिः परिवृत्तो विराजते सुरमध्य इव-सामानिकादिमध्यगत इव इन्द्र इति ॥ ४१२ ।। जहत्ति, यथा शशी-चन्द्रः, कौमुदीयोगयुक्त:-कार्तिकपौर्णिमास्यामुदित इत्यर्थः, स एव विशेष्यते-नक्षत्रतारागणपरिवृतात्मा-नक्षत्रादिभिर्युक्त इति भावः, खे-आकाशे शोभते, किंविशिष्टें खे,विमले अभ्रमुक्ते-अभ्रमुक्तमेवात्यन्तं विमलं भवतीति ख्यापनार्थमेतत् , एवं चन्द्र इव गणी-आचार्यः, शोभते भिक्षुमध्ये-साधुमध्ये, अतोऽयं महत्वात्पूज्य इति ॥ ४१३ ।। किंच-महागरा
॥१६४॥
Jain Education Intem
For Private & Personel Use Only
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
विनय
गुणाः
सुमतिसाधु श्रीदशवै० अ०९,
गा. ४१६
५१७
॥१६५॥
आयरिएत्ति, महाकरा ज्ञानादिभावरत्नापेक्षया आचार्या महैषिणो-मोक्षैषिणः, कथं महैषिण इत्याह-समाधियोगश्रुतशीलवुद्धिभिः समाधियोगैः-ध्यानविशेषैः श्रुतेन-द्वादशाङ्गाभ्यासेन शीलेन-परद्रोहविरतिरूपेण बुद्ध्या च औत्पत्तिक्यादिरूपया, अन्ये तु व्याचक्षते-समाधियोगश्रुतशीलबुद्धीनां महाकरा इति । तानेवंभूतानाचार्यान् संप्राप्तुकामोऽनुत्तराणि ज्ञानादीन्याराधयेद्विनयकरणेन, न सकृदेव, अपि तु तोषयेत्-असकृत्करणेन तोषं ग्राहयेत् धर्मकामोनिर्जरार्थी, न तु ज्ञानादिफलापेक्षयेति ॥ ४१४॥ सोचाणंति, श्रुत्वा मेधावी सुभाषितानि-गुराधनफलाभिधायीनि, | किमित्याह-सुश्रूषयेत्सदाचार्यानप्रमत्तो-निद्रादिविरहितस्तदाज्ञां कुर्वीतेत्यर्थः, य एवं गुरुसुश्रूषापस स आराध्य | गुणाननेकान् ज्ञानादीन् प्रामोति सिद्धिमनुत्तरां, मुक्तिमित्या, अनन्तरं सुकुलादिपरम्परया वा॥४१५।। ब्रवीमीति पूर्ववत्॥
इति विनयसमाधायुक्तः प्रथम उद्देशकः ९-१॥ विनयाधिकारवानेव द्वितीय उच्यते, तत्रेदमादिसूत्रं
मूलाउ खंधप्पभवो दमस्स. खंधाउ पच्छा समुर्विति साहा।
साहप्पसाहा विरुहंति पत्ता, तओ सि पुष्पं च फलं रसोय ॥ ४१६ ॥ एवं धम्मस्स विणओ. मलं परमो से मक्खो। जेण कित्तिं सुयं सिग्छ, नीसेसं चाभिगच्छ॥४१७॥
मूलाउ इति, मूलादादिप्रबन्धात् स्कन्धप्रभवः-स्थुडोत्पादः, कस्येत्याह-द्रुमस्य-वृक्षस्य, ततः-स्कन्धात्सका. |
॥१६५॥
Jan Education Intern
For Private Personel Use Only
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु० श्रीदशवै०
अ०९,
उ. २
॥१६६॥
Jain Education Intern
शात् पश्चात् तदनु समुपयान्ति - आत्मानं प्राप्नुवन्त्युत्पद्यन्त इत्यर्थः, कास्ता इत्याह-शाखास्तद्भुजाकल्पाः, तथा शाखाभ्यः-उक्तलक्षणाभ्यः प्रशाखास्तदंशभूता विरोहन्ति जायन्ते, तथा ताभ्योऽपि पत्राणि पर्णानि विरोहन्ति । ततस्तदनन्तरं से- तस्य द्रुमस्य पुष्पं फलं च रसश्च फलगत एवैते क्रमेण भवन्तीति ।। ४१६ ।। एवं दृष्टान्तमभिधाय दार्शन्तिकयोजनामाह - एवंति, एवं दुममूलवत्, धर्मस्य - परमकल्पवृक्षस्य विनयो मूलं - आदिप्रबन्धरूपं परम इत्युप्रो रसः से-तस्य फलरसवन्मोक्षः, स्कन्धादिकल्पानि तु देवलोकगमन सुकुलागमनादीनि, अतो विनयः कर्त्तव्यः, किंविशिष्ट इत्याह-येन-विनयेन कीर्ति सर्वत्र शुभप्रवादरूपां तथा श्रुतं - अङ्गप्रविष्टादि श्लाघ्यं प्रशंसास्पदीभूतं निःशेषंसंपूर्ण चाधिगच्छति-प्रानोतीति ॥ ४१७ ॥
चण्डे मिथ, दुव्वाई नियडी सढे । वुज्झइ से अविणीअप्पा, कटुं सोयगयं जहा ॥ ४९८ ॥ विणयंपि जो उवाएणं, चोइओ कुप्पई नरो । दिव्वं सो सिरिमिज्नंतिं, दंडेण पहिए ॥ ४९ ॥
अविनयवतो दोषमाह - जे यति, यश्च चण्डो- रोषणः मृगः-अज्ञो हितमप्युक्तो रुप्यति, तथा स्तब्धो जात्यादिमदोन्मतो दुर्बादी अप्रियवक्ता निकृतिमान् - मायोपेतः, शठः - संयमयोगेण्वानादृतः, एतेभ्यो दोपेभ्यो विनयं न करोति य उद्यते असौ पापः संसारस्रोतसा अविनीतात्मा-सकलकल्याणैकनिबन्धनविनयरहितः किमिवेत्याह- काष्ठं स्रोतोगतं - नद्यादिवहिनीपतितं यथा तद्वदिति ॥ ४१८ ॥ किं च विणयंपीति, विनयमुक्तलक्षणं य उपायेनापि - एकान्तमृदु
अविनीतस्य दोषः
गा. ४१८४१९
॥१६६॥
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु० श्रीदशवै०
विनयाविनयफलम्
४२१
॥१६७॥
भणनादिलक्षणेनापि अपिशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, चोदित उक्तः, कुप्यति-रुष्यति नरः । अत्र निदर्शनमाह-दिव्यां- अमानुषीं, असौ-नरः श्रियं-लक्ष्मी आगच्छन्ती-आत्मनो भवन्तीं दण्डेन-काष्ठमयेन प्रतिषेधयति-निवारयति । एतदुक्तं भवति-विनयः संपदो निमित्तं, तत्र स्खलितं यदि कश्चिचोदयति स गुणः तत्रापि रोषकरणेन वस्तुतः संपदो निषेधः । उदाहरणं चात्र दशारादयः कुरूपागतश्रीप्रार्थनाप्रणय भङ्गकारिणस्तद्रहितास्तदभङ्गकारी च तद्युक्तः कृष्ण इति ॥ ४१९ ॥ IN तहेव अविणीयप्पा, उववज्झा हया गया । दीसंति दुहमेहता, आभिओगमुवट्ठिया ॥ ४२० ॥ तहेव सुविणीयप्पा, उववज्झा हया गया । दीसंति सुहमेहंता, इडिं पत्ता महायसा ॥ ४२१ ॥
अविनयदोषोपदर्शनार्थमेवाह-तहेवत्ति, तथैवेति-तथैवैते अविनीतात्मानो-विनयरहिता अनात्मज्ञाः, उपवाह्यानां-राजादिवल्लभानामेते कर्मकरा इत्वौपवाह्याः, हयाः-अश्वाः, गजाः-हस्तिनः, उपलक्षणमेतन्महिषकादीनामिति । एते किमित्याह-दृश्यन्ते-उपलभ्यन्ते, एव मन्दुरादौ अविनयदोषेणोभयलोकवतिना यवसादिवोदारा, दुःख-संक्लेशलक्षण एधमाना-अनेकार्थत्वादनुभवन्त आभियोग्यं-कर्मकरमावं उपस्थिता:-प्राप्ता इति ॥ ४२०॥ एतेष्वेव विनयगुणमाहतहेवत्ति, तथैव एते सुविनीतात्मानो-विनयवन्त आत्मज्ञा औपवाह्या-राजादीनां हया गजा इति पूर्ववत् । एते किमित्याह-दृश्यन्ते-उपलभ्यन्ते, एव सुखं-आह्लादलक्षणं, एधमाना-अनुभवन्तः शुद्धि प्राप्ता इति विशिष्टभूषणालयभोजनादिभावतः प्राप्तर्द्धयो महायशसो-विख्यातसद्गुणा इति ॥ ४२१॥
॥१६७॥
Jain Education Interie
For Private & Personel Use Only
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
विनयाविनय
गा.
४२५
सुमति- तहेव अविणीयप्पा, लोगंमि नरनारिओ । दीसंति दुहमेहता, छाया विगलितेंदिया ॥ ४२२ ॥ साधु
दंडसत्थापरिज्जुण्णा, असब्भवयणेहि य । कलणाविवन्नच्छंदा, खुप्पिवासाइपरिगया ॥ ४२३॥ भीदशवैः अ०९,
तहेव सुविणीयप्पा, लोगंसि नरनारिओ। दीसंति सुहमेहंता, इढेि पत्ता महायसा ॥ ४२४ ॥ ___एतदेव विनयाविनयफलं मनुष्यानधिकृत्याह-तहेवत्ति, तथैव तिर्यश्च इव अविनीतात्मान इति पूर्ववत् ।
लोकेऽस्मिन्-मनुष्यलोके, नरनार्य इति प्रकटार्थ दृश्यन्ते दुःखमेधमाना इति पूर्ववत् , छारा(ताः)-कसघातव्रणाङ्कित. ॥१६॥d शरीराः, विगलितेन्द्रियाः-अपनीतनासिकादीन्द्रियाः पारदारिकादय इति ।। ४२२ ॥ तथा दंडत्ति, दण्डा-वेत्रदण्डादयः
शस्त्राणि-खगादीनि ताभ्यां परिजीर्णाः-समन्ततो दुर्बलभावमापादिताः, तथा असभ्यवचनैश्च-खरकर्कशादिभिः परिजीर्णाः, त एवंभृताः सन्तः सतां करुणाहेतुत्वात् करुणा-दीना व्यापन्नाच्छन्दसा-परायत्ततया अपेतस्वाभिप्रायाः, क्षुधा-बुभुक्षया पिपासया-तृषा परिगता-व्याप्ता अन्नादिनिरोधस्तोकदानाम्यामिति । एवं इह लोके प्रागविनयोपात्तकर्मानुभावत एवंभूताः परलोके तु कुशलाप्रवृत्तेः दुःखिततरा विज्ञायन्त इति ॥ ४२३ ॥ विनयफलमाह-तहेवत्ति, तथैव विनीततियंच इव सुविनीतात्मानो लोकेऽस्मिन्नरनार्य इति पूर्ववत् । दृश्यन्ते सुखमेधमानाः शुद्धि प्राप्ता महायशस इति पूर्ववत् , नवरं स्वाराधितनृपगुरुजना उभयलोकसाफल्यकारिण एत इति ॥ ४२४ ॥ तहेव अविणीयप्पा, देवा जक्खा य गुज्झगा। दीसंति दुहमहंता, आभिओगमुवट्रिया ॥४२५॥
॥१६॥
Jain Education Inter
For Private & Personel Use Only
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
विनया
विनय
सुमति साधु श्रीदशक अ०९, उ०२
फलम् गा.४२६
४३१
तविनया उपस्थिताः प्राप्ता इति ॥ ४२मयोग-आज्ञाप्रदानलक्षणोऽस्यामाचक्षुषा दुःखमेध
तहेव सुविणीयप्पा, देवा जक्खा य गुज्झगा। दीसंति सुहमेहंता, इहिं पत्ता महायसा ॥४२६ ॥
एतदेव विनयाविनयफलं देवानधिकृत्याह-तहेवत्ति, तथैव यथा नरनार्यः अविनीतात्मानो भवान्तरेऽकृतविनया देवा-वैमानिका ज्योतिष्का यक्षाश्च-व्यन्तराश्च गुह्यका-भवनवासिनः, त एते दृश्यन्ते आगमभावचक्षुषा दुःखमेधमाना:-पराज्ञाकरणपरर्द्धिदर्शनादिना, आभियोग्यमुपस्थिता:-अभियोग-आज्ञाप्रदानलक्षणोऽस्यास्तीति अभियोगी तद्भाव आभियोग्यं, कर्मकरभावमित्यर्थः, उपस्थिताः-प्राप्ता इति ॥ ४२५ ॥ विनयफलमाह-तहेवत्ति, तथैवेति पूर्ववत् , सुविनीतात्मानो-जन्मान्तरकृतविनया निरतिचारधर्माराधका इत्यर्थः, देवा यक्षाश्च गुह्यका इति पूर्ववदेव, दृश्यन्ते सुखमेधमाना अर्हत्कल्याणकादिषु ऋद्धिं प्राप्ता इति देवाधिपादिप्राप्त यो महायशसो-विख्यातसद्गुणा इति ॥ ४२६ ॥ जे आयरियउवज्झायाणं, सुस्सूसावयणंकरा । तसिं सिक्खा पवईति, जलसित्ताइव पायवा ॥४२७॥
अप्पणट्ठा परट्टा वा, सिप्पा नेउणियाणि य । गिहिणो उवभोगट्ठा, इहलोगस्स कारणा ॥४२८॥ | जेण बन्धं वहं घोरं, परियावं च दारुणं । सिक्खमाणा नियच्छंति, जुत्ता ते ललिइंदिया ॥४२९॥ | तेवि तं गुरुं पूयंति, तस्स सिप्पस्स कारणा । सकारोंति नमसंति, तुट्ठा निदेसवत्तिणो ॥४३०॥ | किं पुणो जे सुयग्गाही, अणंतहियकामए। आयरिया जं वए भिक्खू, तम्हा तं नाइवत्तए ॥ ४३१ ॥
॥१६९॥
For Private & Personel Use Only
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति साधु भीदशवै. अ०९,
लोकोत्तर विनयफलम् गा.४२६४३१
॥ १७॥
एवं नारकापोहेन व्यवहारतो येषु सुखदुःखसंभवस्तेषु विनयाविनयफलमुक्तं, अधुना विशेषतो लोकोत्तरविनयफलमाहजे आयरियत्ति, ये आचार्योपाध्याययोः-प्रतीतयोः शुश्रूषावचनकरा:-पूजाप्रधानवचनकरणशीलास्तेषां पुण्यमाजां शिक्षा-ग्रहणासेवनालक्षणा भावार्थरूपाः प्रवर्द्धन्ते-वृद्धिमुपयान्ति, दृष्टान्तमाह-जलसिक्ता इव पादपा-वृक्षा इति ॥ ४२७ ॥ एतच्च मनस्याधाय विनयः कार्य इत्याह-अप्पणहत्ति, आत्मार्थ-आत्मनिमित्तं, अनेन मे जीविका मविष्य- तीत्येवं, परार्थ वा-परनिमित्तं वा पुत्रमहमेतद्ग्राहयिष्यामीत्येवं, शिल्पानि-कुम्भकारक्रियादीनि नैपुण्यानि चआलेख्यादिकलालक्षणानि गृहिण:-असंयताः, उपभोगार्थ-अन्नपानादिभोगाय, शिक्षन्त इति वाक्यशेषः, इहलोकस्य कारणं-इहलोकनिमिचमिति ॥ ४२८ ॥जे णं ति, येन-शिल्पादिना शिक्ष्यमाणेन बन्धं-निगडादिभिः वधंकषादिभिर्घोरं-रौद्रं परितापं च, दारुणं-एतजनितमनिष्टं निर्भर्त्सनादिवचनजनितं च शिक्षमाणा गुरोः सकाशात् नियच्छन्ति-प्राप्नुवन्ति, युक्ता इति-नियुक्ताः शिल्पादिग्रहणे ते ललितेन्द्रिया-गर्भेश्वरा राजपुत्रादय इति ॥ ४२९ ।। तेऽवि तमिति, तेऽपि इत्वरं शिल्पादि शिक्षमाणास्तं गुरुं बन्धादिकारकमपि पूजयन्ति सामान्यतो मधुरवचनाभिनन्दनेन तस्य शिल्पस्येत्वरस्य कारणात्, तन्निमित्तत्वादिति भावः, तथा सत्कारयन्ति वस्त्रादिना, नमस्यन्ति अञ्जलि. ग्रहणादिना । तुष्टा इत्यमुत इदमवाप्यत इति हृष्टा निर्देशवर्तिन:-आज्ञाकारिण इति ॥ ४३० ॥ यदि तावदेतेऽपि तं गुरुं पूजयन्ति अत:-किं पुणन्ति, किं पुनः यः-साधुः श्रुतग्राही-परमपुरुषप्रणीतागमग्रहणाभिलाषी अनन्तहित| कामुको मोक्षं यः कामयत इत्यभिप्रायस्तेन तु सुतरां गुरवः पूजनीया इति, यतश्चैवमाचार्या यद्बदन्ति किमपि
८॥ जेणं तिनपानादिभोगाय, भकारक्रियादीन
॥ १७
Jain Education Internationa
For Private & Personel Use Only
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति साधु भीदशवै. अ०९,
उ०२ ॥१७१ ॥
I
तथाऽनेकप्रकारं भिक्षुः-साधुः तस्मात्तदाचार्यवचनं नातिवर्तयत् युक्तत्वात्सर्वमेव सम्पादयेदिति ॥ ४३१ ॥
कायादिनीयं सेजं गई ठाणं, नीयं च आसणाणि य । नीयं च पाए वंदेजा, नीयं कुज्जा य अंजलिं ॥४३२॥
विनयः संघट्टइत्ता काएणं, तहा उवहिणामवि । खमेह अवराह मे, वएज न पुणोत्ति य ॥ ४३३ ॥
| गा. ४३२
४३५ दुग्गओ वा पओएणं, चोइओ वहई रहं । एवं दुबुद्धि किच्चाणं, वुत्तो वुत्तो पकुबई ॥ ४३४ ॥ कालं छंदोवयारं च, पडिलेहिता ण हेउहिं। तेण तेण उवाएणं, तं तं संपडिवायए ॥४३५॥
विनयोपायमाह-नीयंति, नीचां शय्यां-संस्तारकलक्षणामाचार्यशय्यायाः सकाशात् कुर्यादितियोगः, एवं नीचां गतिमाचार्यगतेस्तत्पृष्ठतो नातिरेण नातिद्रुतं यायादित्यर्थः, एवं नीचं स्थानमाचार्यस्थानाद्यत्राचार्य आस्ते, तस्मानीचतरे स्थाने स्थातव्यमितिभावः। तथा नीचानि-लघुतराणि कदाचित्कारणजाते आसनानि-पीठकानि तस्मिन्नुपविष्टे तदनुज्ञातः सेवेत, नान्यथा, तथा नीचं च-सम्यगवनतोत्तमाङ्गः सन् पादावाचार्यसत्कौ वन्देत, नावज्ञया तथा कचित्प्रश्नादौ नीचंनम्रकायं कुर्याच सम्पादयेचाञ्जलिं,न तु स्थाणुवस्तब्ध एवेति ।। ४३२ ॥ एवं कायविनयमभिधाय वाग्विनयमाह-संघट्टइत्ति, संघदृश्य-स्पृष्टवा कायेन-देहेन कथश्चित्तथाविधप्रदेशोपविष्टमाचार्य तथोपधिनापि-कल्पादिना कथञ्चित्संघटब्य मिथ्यादुष्कृतपुरस्सरमभिवन्द्य क्षमस्व-सहस्वापराधं-दोष मे मन्दमाग्यस्यैवं वदेत्-बेयान पुनरिति न चाहमेनं भूपः करिष्यामीति ॥ ४३३ ॥ एतच्च सर्व बुद्धिमान स्वयमेव करोति, तदन्यस्तु कथमित्याह-दुग्गओवित्ति, दुर्गौरिव-॥१७॥
Jain Education Interi
For Private & Personel Use Only
T
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति साधु श्रीदशवै० अ०९, उ०२
विनयोपायाः गा.४३६
४३८
गलिबलीवर्दवत् प्रतोदेन-आरादण्डलक्षणेन चोदितो-विद्धः सन्वहति-नयति कापि रथं प्रतीतं, एव दुग्गौरिव दुर्बुद्धिःअहितावह बुद्धिः शिष्यः कृत्यानां आचार्यादीनां कृत्यानि वा तदभिरुचितकार्याणि उक्त उक्त:-पुन:पुनरभिहित इत्यर्थः, प्रकरोति-निष्पादयति प्रयुड़े चेति ॥ ४३४ ॥ एवं च कृतान्यप्यमुनि न शोभनान्यत आह-कालंति, कालं-शरदादिलक्षणं छन्दस्तदिच्छारूपं उपचार-आराधनाप्रकारं, चशन्दाद्देशादिपरिग्रहः, एतत्प्रत्युपेक्ष्य-ज्ञात्वा हेतुभिः-यथानुरूपैः कारणः किमित्याह-तेन तेनोपायेन-गृहस्थावर्जनादिना तत्तपित्तहरादिरूपमशनादि सम्प्रतिपादयेत्, यथा कालेऽपि | शरदादौ पित्तहरादिभोजनं प्रवातनिवातादिरूपा शय्या इच्छानुलोमं वा यद्यस्य हितं रोचते च आराधनाप्रकारोऽनुलोमं मापणं ग्रन्थाभ्यासवैयावृत्यकरणादि देशे अनूपदेशााचितं निष्ठीवनादिभिर्हेतुमिः श्लेष्माद्याधिक्य विज्ञाय तदुचितं सम्पादयेदिति ॥ ४३५ ॥ विवत्ती अविणीयस्स, संपत्ती विणीयस्स य । जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अभिगच्छइ ॥ ४३६ ॥
जे यावि चंडे मइइड्ढिगारवे, पिसुणे नरे साहसहीणपेसणे।। अदिट्ठधम्मे विणए अकोविए, असंविभागी न हु तस्स मोक्खो ॥ ४३७ ।। निदेसवित्ती पुण जे गुरूणं, सुयत्थधम्मा विणयम्मि कोविया । तरित्तु ते ओहमिणं दुरुत्तरं, खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गय ॥ ४३८ ॥ तिबेमि ॥
M॥१७२ ॥
Jain Education Inteme
For Private
Personal Use Only
T
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
हमति
साधु०
पीदशक
विनयो
पाया: गा०४३६४३८
उ.
२
॥ १७३ ॥
विणयसमाहीए बीओ उद्देसओ समत्तो ९-२॥ किंच-विवत्तित्ति, विपत्तिरविनीतस्य ज्ञानादिगुणानां, संप्राप्तिविनीतस्य च ज्ञानादिगुणानामेव, यस्यैतत्-।। ज्ञानादिप्राप्त्यप्राप्तिद्वयं उभयत-उभयाभ्यां विनयाविनयाभ्यां सकाशाद्भवतीत्येवं ज्ञातं-उपादेयं चैतदिति भवति शिक्षाग्रहणासेवनारूपामसावित्थंभूतोऽभिगच्छति-प्राप्नोति, भावत उपादयपरिज्ञानादिति ।। ४३६ ।। एतदेव दृढयन्नविनीतफलमाह-जे यावित्ति, यश्चापि चण्डः प्रवजितोऽपि यो रोषणः मतिऋद्धिगौरव इति ऋद्धिगौरवमतिगौरवे अभिनिविष्टः पिशुन:-पृष्ठिमांसखादको नरो-नरव्यञ्जनो न भावनरः साहसिक:-अकृत्यकरणपरः हीनप्रेषणो-हीनगुर्वाज्ञापर: अदृष्टधा -सम्यगनुपलब्धश्रुतादिधर्मा विनयेऽकोविदो-विनयविषयेऽपण्डितः असंविभागी-यत्र कचन लामे न संविभागवान् , य इत्थंभूतोऽधमो नैव तस्य मोक्षः, सम्यग्दष्टेश्चारित्रवत इत्थंविधसंक्लेशाभावादिति ।। ४३७ ।। विनयफलाभिधानोपसंहरनाह-णिद्देसवत्तित्ति, निर्देशवर्तिन:-आज्ञावर्तिनः पुनर्ये गुरूणां-आचार्यादीनां श्रुतार्थधर्मा इति प्राकृतशैल्या श्रुतधर्मार्था गीतार्था इत्यर्थः, विनये कर्तव्ये कोविदा-विपश्चितः, य इत्थंभृतास्तीर्वा ते महासत्वा ओघमेनं-प्रत्यक्षोपलम्यमानं संसारसमुद्रं दुरुत्तारं तीर्चेव तीन, चरमभवं केवलित्वं च प्राप्येतिभावः, ततः क्षपयित्वा कर्म निरव शेपं भवोपनाहिसंज्ञित गतिमुत्तमा सिद्धाख्यां गताः-प्राप्ताः ॥४३८॥ इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ।
विनयसमाधौ व्याख्यातो द्वितीय उद्देशकः ९-२ ।।
॥१७३ ॥
Jain Education Intera!
|
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुमतिसाधु श्रीदशवै०
विनयोपायाः गा.४३९४४४
उ०३
॥ १७४॥
आयरियं अग्गिमिवाहियग्गी, सुस्सूसमाणो पडिजागरिजा । आलोइयं इंगियमेव नच्चा, जो छंदमाराहय ई स पुज्जो ॥ ४३९ ॥ आयारमट्ठा विणयं पउञ्जे, सुस्सूसमाणो परिगिज्झ वक्कं । जहोवइट्ठ अभिकंखमाणो, गुरुं तु नासाययई स पुज्जो ॥ ४४०॥ रायणिएसु विणयं पउछु, डहरावि य जे परियायजिद्रा । नीयत्तणे वइ सच्चवाई, उवायवं वक्ककरे स पुजो ॥ ४४१ ॥ अन्नायउंछं चरई विसुद्धं, जवणट्ठया समुयाणं च निच्छं । अलद्धयं नो परिदेवइज्जा, लडुं न विकत्थई स पुजो ॥ ४४२ ॥ संथारसेज्जासणभत्तपाणे, अप्पिच्छया अइलाभेऽवि संते। जो एवमप्पाणभितोसइज्जा, संतोसपाहन्नरए स पुजो ॥ ४४३ ॥ सक्का सहेउं आसाइ कंटया, अओमया उच्छहया नरेणं । अणासए जो उ सहिज्ज कंटए, वईमए कण्णसरे स पुज्जो ॥ ४४४ ॥
॥ १७४॥
Jain Education Internationa
For Private & Personel Use Only
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु श्रीदशवै०
विनीतस्य | पूजाईत्वम् गा.४४५
॥ १७५॥
मुहत्तदुक्खा उ हवंति कंटया, अओमया तेऽवि तओ सउद्धरा।
वायादुरुत्ताणि दुरुद्धराणि, वेराणुबंधाीण महब्भयाणि ॥ ४४५॥ साम्प्रतं तृतीय आरम्यते, इह च विनीतः पूज्य इत्युपदर्शयन्नाह-आयरिएत्ति, आचार्य-सूत्रार्थप्रदं तत्स्थानीयं । वाऽन्यं ज्येष्ठार्य, किमित्याह-अग्निमिव-तेजस्कायमिव आहिताग्नि:-ब्राह्मणः सुश्रूषयन्-सम्यक् सेवमानः प्रतिजागृयात्तत्तत्कृत्यसम्पादनेनोपचरेत् । आह-यथाऽऽहितासिरित्यादिना प्रागिदमुक्तमेव, सत्यं, किं तु तदाचार्यमेवाङ्गीकृत्य इदं तु रत्नाधिकमप्यधिकृत्योच्यते, वक्ष्यति च-"रायणिरसु विणयमि"त्यादि, प्रतिजागरणोपायमाह-अवलोकित-निरीक्षितं इगितमेव च-अन्यथावृत्तिलक्षणं ज्ञात्वा-विज्ञायाचाीयं यः-साधुः छन्द:-अभिप्रायमाराधयति । यथा शीते पतति प्रावरणावलोकने तदानयने, इणिते वा निष्ठीवनादिलक्षणे शुण्ठ्याद्यानयनेन स पूज्यः स इत्थंभूतः साधुः पूजाह:कल्याणभागिति ॥ ४३९ । प्रक्रान्ताधिकार एवाह-आयारेत्ति, आचारार्थ-ज्ञानाद्याचारनिमित्त विनयमक्तलक्षणं प्रयुक्क्ते-करोति यः सुश्रूषन्-श्रोतुमिच्छन् , किमयं वक्ष्यतीत्येवं, तदनु तेनोक्ते सति परिगृह्य वाक्यमाचार्याय, ततश्च यथोपदिष्टं-यथोक्तमेवामिकाक्षन् , मायारहितः श्रद्धया कर्तुमिच्छन् सन् विनयं प्रयुङ्क्ते, अतोऽन्यथाकरणेन गुरुं विति, आचार्यमेव नाशातयति-न हीलयति यः स पूज्य इति ॥४४॥ किंच-राइणिएत्ति, रत्नाधिकेषुज्ञानादिभावरत्नाभ्यधिकेषु विनयं-यथोचितं प्रयुङ्क्ते करोति, तथा डहरा अपि च ये वयःश्रुताम्यां पर्यायज्येष्ठाश्चिरप्रव्रजितास्तेषु विनयं प्रयुङ्क्ते, एवं नीचत्वे गुणाधिकान् प्रति नीचभावे वर्त्तते, सत्यवादी-अविरुद्धवक्ता तथा
॥ १७५ ॥
Jain Education Intera
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु श्रीदशवै० अ०९, उ०३
विनीतस्य पूजाईत्वम् गा०४४१.
४४५
॥ १७६ ॥
अवपातवान्-वन्दनशीलो निकटवर्ती वा एवं च यो वाक्यकरो-गुरुनिर्देशकरणशीलः स पूज्य इति ॥ ४४१॥ किंच- अण्णायत्ति, अज्ञातोञ्छ-परिचयाकरणेनाज्ञातः सन् भावोऽहं गृहस्थोद्धरितादि चरत्यटित्वाऽऽनीतं भुङ्क्ते, न तु ज्ञातस्तबहुमतमिति, एतदपि विशुद्धं-उद्गमादिदोषरहितं, न तद्विपरीतं, एतदपि यापनार्थ-संयमभरोद्वाहिदेहपालनाय, नान्यथा समुदानं च-उचितभिक्षालब्धं च-नित्यं-सर्वकालं न तूञ्छमप्येकत्रैव बहुलब्धं कदाचित्कं वा, एवंभृतमपि विभागतः, अलब्ध्वा -अनासाद्य न परिदेवयेत्-न खेदं यायात् , यथा मन्दभाग्योऽहं अशोभनो वा अयं देश इत्येवं विभागतश्च लब्ध्वा प्राप्योचितं न विकत्यते-न श्लाघां करोति सपुण्योऽई शोभनो वा अयं देश इत्येवं स पूज्य इति ॥ ४४२ ॥ किंच संथारेति, संस्तारकशय्यासन भक्तपानानि प्रतीतान्येतेष्वल्पेच्छता-अमूर्छया परिभोगः, अतिरिक्तपरिहरणं चातिलाभेऽपि सति संस्तारकादीनां गृहस्थेभ्यः सकाशात् , य एवमात्मानमभितोषयति येन वा तेन वा यापयति सन्तोषप्राधान्यरत:-सन्तोष एव प्राधान्यभावे रतः-सक्तः स पूज्य इति ॥ ४४३ ।। इन्द्रियसमाधिद्वारेण पूज्यतामाह-सक्कित्ति, शक्याः सोदुमाशयेतीदं मे भविष्यतीति प्रत्याशया, के इत्याह-कण्टका अयोमया-लोहात्मका उत्सहता नरेण-अर्थोद्यमिनेत्यर्थः, तथा च कुर्वन्ति केचिदयोमयकण्टकास्तरणशयनमप्यर्थलिप्सवः, न पुनर्वा कण्टकाः शक्या इति, एवं व्यवस्थिते अनाशया-फलाप्रत्याशया निरीहः सन् यस्तु सहेत कण्टकान् वाङ्मयान्-खरादिवागात्मकान् कर्णसरान्-कर्णगामिनः स पूज्य इति ॥ ४४४ ॥ एतदेव स्पष्टयति-मुहुत्तेति, मुहर्त्तदुःखा-अल्पकालदुःखा भवन्ति कण्टका अयोमयाः, वेधकाल एव प्रायो दुःखभावात् , तेऽपि ततः कायात्सूद्धराः-सुखेनेवोद्धियन्ते व्रणपरिकर्म च
॥१७६ ॥
Jain Education Internal
T
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु० श्रीदशवै०
अ० ९,
उ० ३
॥ १७७ ॥
Jain Education Internati
क्रियते, वाग्दुरुक्तानि पुनरुद्धराणि - दुःखेनैवोद्धियन्ते मनोलक्ष्यवेधनात् वैरानुबन्धीनि तथाश्रवणप्रद्वेषादिनेह परत्र च वैरमनुबध्नन्ति, अत एव महाभयानि, कुमतिपातादिभयहेतुत्वादिति ॥ ४४५ ॥ समावयंता वयणाभिघाया, कण्णंगया दुम्मणियं जणंति ।
धम्मोन्ति किच्चा परमग्गसूरे, जिइंदिए जो सहई स पुजो ॥ ४४६ ॥ अवण्णवायं च परम्मुहस्स, पच्चक्खओ पडिणीयं च भासं । ओहारिणि अप्पियकारिणि च, भासं न भासेज्ज सया स पुज्जो ॥ ४४७ ॥ अलोलुप अक्कुए अमाई, अपिसुणे यावि अदीणात्ती । नो भावए नोऽविय भावियप्पा, अकोउहले य सया स पुज्जो ॥ ४४८ ॥ गुणेोहि साहू अगुणेहिऽसाहू, गेण्हाहि साहू गुण मुंचऽसाहू | वियाणीया अप्पगमप्पणं, जो रागदोसेहिं समो स पुज्जो ॥ ४४९ ॥ तहेव डहरं च महल्लगं वा, इत्थीं पुमं पवइयं गिहिं वा । for aisa सिएजा, थंभं च कोहं च चएस पुज्जो ॥ ४५० ॥
विनीतस्य पूजार्हत्वम्
गा. ४४६
४५०
१७७ ॥
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति०
साधु श्रीदशवै० अ०९, उ०३
विनीतस्य | पूजाईत्वम् | गा.४५१: ४५३
॥१७८॥
जे माणिया सययं माणयांत, जत्तेण कन्नं च निवेसयंति । ते माणए माणरिहे तवस्सी, जिइंदिए सच्चरए स पुजो ॥ ४५१ ॥ तेसिं गुरूणं गुणसागराणं, सोच्चाण मेहावि सुभासियाई। चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो, चउकसायावगए स पुज्जो ॥ ४५२ ॥ गुरुमिह सययं पडियरिय मुणी, जिणव(म)यनिउणे अभिगमकुसले। धुणिय रयमलं पुरेकडं, भासुरमउलं गई वइ ॥ ४५३ ॥ ति बेमि ॥
विणयसमाहीए तइओ उद्देसो समत्तो ९-३॥ किंच-समावयंतेति समापतन्त-एकीभावेनाभिमुखं पतन्तः, क इत्याह-वचनाभिघाताः-खरादिवचनप्रहाराः |कर्णगताः सन्तः प्रायोऽनादिभवाम्यासाद्दौर्मनस्य-दुष्टमनोभावं जनयन्ति प्राणिनां, एवंभूतान् वचनाभिघातान् | धर्म इतिकृत्वा सामायिकपरिणामापन्नो, न त्वशत्यादिना, परमानशूरः-दानसंग्रामशूरापेक्षया प्रधानः शूरः जिते. न्द्रियः सन् यः सहते न तु तैर्विकारं उपदर्शयति स पूज्य इति ॥ ४४६ ॥ तथा अवण्णत्ति, अवर्णवादं-अश्लाघावादं च पराङ्मुखस्य पृष्ठत इत्यर्थः, प्रत्यक्षतश्च-प्रत्यक्षस्य च प्रत्यनीकां अपकारिणी चौरस्त्वमित्यादिरूपां भाषां तथा
॥ १७८ ॥
Jain Education Intematona
For Private & Personel Use Only
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति०
साधु० श्रीदशनै०
अ० ९,
उ० ३
॥ १७९ ॥
Jain Education Internat
अवधारिणीं - अशोभन एवायमित्यादिरूपां अप्रीतिकारिणीं च श्रोतुर्मृतनिवेदनादिरूपां भाषां वाचं न भाषेत सदा यः कदाचिदपि नैव ब्रूयात्स पूज्य इति ॥ ४४७ ॥ तथा-अलोलुपत्ति, अलोलुपः- आहारादिषु अलुब्धः, अकुहकइन्द्रजालादिकुहकरहितः, अमायी - कौटिल्यशून्यः, अपिशुनश्चापि न छेदभेदकर्त्ता अदीनवृत्तिः- आहाराद्यला मेsपि शुद्धवृत्तिर्नो भावयेदकुशलभावनया परं, यथा-अमुकपुरतो भवताऽहं वर्णनीयः, नापि च भावितात्मा स्वयमन्य पुरतः स्वगुणवर्णनापर: अकौतुकच सदा नटनर्त्तकादिषु यः स पूज्य इति ॥ ४४८ ॥ किंच-गुणेहिंति, गुणैरनन्तरोदितैविनयादिभिर्युक्तः साधुर्भवति, तथा अगुणैरुक्तगुणविपरीतैरसाधुः, एवं सति " गृहाण साधुगुणान् मुञ्श्चासाधुगुणांचे " ति शोभन उपदेशः, एवमधिकृत्य प्राकृतशैल्या विज्ञापयति- विविधं ज्ञापयत्यात्मानमात्मना यस्तथा रागद्वेषयोः समो न रागवान्न द्वेषवान्निति स पूज्य इति । ४४९ ।। किंच - तहेवेति, तथैवेति पूर्ववत् डहरं वा महल्लकं वा, वाशब्दान्मध्यमं वा स्त्रियं पुमांसमुपलक्षणत्वान्नपुंसकं वा प्रव्रजितं गृहिणं वा, वाशब्दात्तदन्यतीर्थिकं वा, न हीलयति, नापि विसयति, तत्र सूयया असूयया वा, सकदुष्टाभिधानं हीलनं, तदेवासकृत् खिसनमिति, हीलनखिंसनयोश्च निमित्तभूतं स्तम्भं च मानं च क्रोधं च रोषं च त्यजति यः स पूज्यः, निदानत्यागेन तत्वतः कार्यत्यागादिति ।। ४५० ॥ जे माणिएत्ति, ये मानिता अभ्युत्थानादिसत्कारैः सततं - अनवरतं शिष्यान् मानयन्ति श्रुतोपदेशं प्रति चोदनादिभिः, तथा यत्नेन कन्यामिव निवेशयन्ति, यथा “ मातापितरौ कन्यां गुणैर्वयसा च संवर्ध्य योग्यभर्त्तरि स्थापयन्ति", एवमाचार्याः शिष्यं सूत्रार्थवेदिनं दृष्ट्वा महत्याचार्यपदेऽपि स्थापयन्ति, तानेवंभूतान् गुरून्मानयति, योऽभ्युत्थानादिना
विनीतस्य पूजाईत्वम्
गा. ४४७
४५३
॥ १७९ ॥
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु श्रीदशवै० अ०९,
विनीतस्य पूजाईत्वम् गा.४५१४५३
मानार्हान-मानयोग्यान तपस्वी सन् , जितेन्द्रियः सत्यरत इति प्राधान्यख्यापनार्थ विशेषणद्वयं, स पूज्य | इति ॥ ४५१॥ तथा-तेसिं गुरूणंति, तेषां गुरूणामनन्तरोदितानां गुणसागराणां-गुणसमुद्राणां सम्बन्धीनि श्रुत्वा मेधावी सुभाषितानि-परलोकोपकारकाणि चरति-आचरति मुनि:-साधुः पश्चरता-पञ्चमहाव्रतसक्तः त्रिगुप्तोमनोगुप्त्यादिमान चतुष्कषायापगत इत्यपगतक्रोधादिकषायो यः स पूज्य इति ।। ४५२ ।। प्रस्तुतफलाभिधानेनोपसंहरबाह-गुरुन्ति, गुरुमाचार्यादिरूपमिह-मनुष्यलोके सततं-अनवरतं परिचर्य-विधिनाऽऽराध्य मुनि:-साधु, किंविशिष्टो मुनिरित्याह-जिनवचन(मत)निपुणः-आगमे प्रवीणः, अभिगमकुशलो-लोकप्राघूर्णकादिप्रतिपत्तिदक्षः, स एवंभूतो विधूय रजोमलं पुराकृतं क्षपयित्वाऽष्टप्रकार कर्मेति भावः, किमित्याह-भास्वरां ज्ञानतेजोमयत्वादतुलांअनन्यसदृशीं गति-सिद्धिरूपां बजतीति-गच्छति, तदा जन्मान्तरेण वा सुकुलप्रत्यागमनप्रत्ययोत्पादादिना प्रकारेण ॥ ४५३ ॥ ब्रवीमीति पूर्ववत् ।।
इति विनयसमाधावुक्तस्तृतीय उद्देशकः ९-३॥
॥१८॥
सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवंतेहि, चत्वारि विणयसमाहिट्ठाणा पन्नत्ता। कयरे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहिट्ठाणा पन्नत्ता ?, इमे
N॥१८॥
Jan Education Inteman
For Private
Personal Use Only
Alaw.ininelibrary.org
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु० श्री दशवै ०
अ० ९,
उ. ४
॥ १८९॥
Jain Education Internationa
खलु तेथेरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहिद्वाणा पन्नत्ता, तंजहा - विणयसमाही, सुयसमाही, तवसमाही, आयारसमाही । सू० १६ । - विणए सुए य तवे, आयारे निच्चपंडिया । अभिरामयंति अप्पा, जे भवंति जिइंदिया ॥ ४५४ ॥
अथ चतुर्थ उच्यते, तत्र सामान्योक्त विनयविशेषोपदर्शनार्थमिदमाह - सुयं मे इति श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातमित्येतद् यथा षड्जीवनिकायां (पृ. २०) तथैव द्रष्टव्यं, इह खल्विति, इह-क्षेत्रे प्रवचने वा स्वशब्दो विशेषणार्थः, न केवलमिह, किं स्वम्यत्राप्यन्यतीर्थ कृत्प्रवचनेष्वपि, स्थविरैः - गणधरैर्भगवद्भिः-परमैश्वर्यादियुक्तैश्चत्वारि विनयसमाधिस्थानानि - विनयसमाधिभेदरूपाणि प्रज्ञप्तानि प्ररूपितानि, भगवतः सकाशे श्रुत्वा ग्रन्थत उपरचितानीत्यर्थः, कतराणि खलु तानीत्यादिना प्रश्नः, अमूनि खलु तानीत्यादिना निर्वचनं तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः - विनयसमाधिः १ श्रुतसमाधिः २ तपः समाधिः ३ आचारसमाधिः ४ तत्र समाधानं समाधिः - परमार्थत आत्मनो हितं सुखं स्वास्थ्यं, विनये विनयाद्वा समाधिः विनयसमाधिः, एवं शेषेष्वपि शब्दार्थो भावनीयः । १६ । एतदेव श्लोकेन संगृह्णाति - विणए इत्यादि, विनये यथोक्तलक्षणे श्रुते-अङ्गादौ तपसि - बाह्यादौं आचारे च मूलगुणादौ, चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, नित्यं सर्वकालं पण्डिताः सम्यक्परमार्थवेदिनः, किं कुर्वन्तीत्याह-अभिरमयन्त्यनेकार्थत्वादाभिमुख्येन विनयादिषु युञ्जते आत्मानं जीवं किमिति ?, अस्योपादेयत्वात् क एवं कुर्वन्तीत्याह-ये भवन्ति
१६
विनय
समाधि
मेदाः
सू० १६,
गा. ४५४
॥१८२॥
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु
श्रीदसवै
॥१८॥
जितेन्द्रिया:-जितचक्षुरादिभावशत्रवः, त एव परमार्थतः पण्डिता इति प्रदर्शनार्थमेतदिति ।। ४५४ ॥
विनयचउबिहा खल्लु विणयसमाही हवइ, तंजहा-अणुसासिजंतो सुस्सूसइ १, सम्मं संपडि
समाधिः वज्जइ २, वेयमाराहइ ३, न य भवइ अत्तसंपग्गहिए ४ चउत्थं पयं भवइ । सू०१७। भवइ
सू०१७,
गा.४५५ य एत्थ सिलोगो-पेहेइ हियाणुसासणं, सुस्सूसई तं च पुणो अहिट्ठए। न य माणमएण मजई, I विणयसमाही आययट्टिए ॥ ४५५॥
विनयसमाधिमभिधित्सुराह-चउबिहेत्यादि, चतुर्विधः खलु विनयसमाधिर्भवति, तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, अणुसासिनतो इत्यादि, अनुशास्यमानस्तत्र तत्र चोद्यमानः शुश्रूषति-तदनुशासनमर्थितया श्रोतुमिच्छति १, इच्छाप्रवृत्तितः तत् सम्यक्सम्प्रतिपद्यते, सम्यग्-अविपरीतमनुशासनतत्त्वं यथाविषयमवबुध्यते २, स चैवं विशिष्टप्रतिपत्तेरेव | वेदमाराधयति, वेद्यते अनेनेति वेदः-श्रुतज्ञानं तद्यथोक्तानुष्ठानपरत्या सफलीकरोति ३, अत एव विशुद्धप्रवृत्तेने च
भवत्यात्मसंप्रगृहीत:-आत्मा एव सम्यक् प्रकर्षण गृहीतो येनाहं विनीतः सुसाधुरित्येवमादिना स तथा, अनात्मोस्कर्षप्रधानत्वाद्विनयादेः, न चैवंभूतो भवतीति अभिप्रायः, चतुर्थ पदं भवतीत्येतदेव सूत्रक्रमप्रामाण्यादुत्तरोत्तरगुणापेक्षया चतुर्थमिति ४।१७। भवति चात्र श्लोकः, अत्रेति विनयसमाधौ श्लोकः-छन्दोविशेषः, स चाय-पेहेइत्तिप्रार्थयते हितानुशासनं-इच्छति इहलोकपरलोकोपकारिणमाचार्यादिभ्य उपदेशं, शुश्रूषतीत्यनेकार्थत्वात् यथाविषयमव- Hd॥१८॥
Jain Education Internation
For Private & Personel Use Only
T
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति- साधु श्रीदशबैक
श्रुतसमाधिः
गा.४५६
उ०४
॥१८॥
बुध्यते, तच्चावबुद्धं सत्पुनरधितिष्ठति-यथावत्करोति, न च कुर्वमपि मानमदेन-मानगर्वेण माद्यति-मदं याति, विनयसमाधौ-विनयसमाधिविषये आयतार्थिका-मोक्षार्थीति ॥ ४५५ ॥
चउबिहा खलु सुयसमाही भवइ, तंजहा-सुयं मे भविस्सइत्ति अज्झाइयव्वं भवइ १, एगग्गचिचोभविस्सामित्ति अज्झाइयवयं भवइ २, अप्पाणं ठावइस्सामित्ति अज्झाइयवयं भवड ३.ठिओ परं ठावइस्सामित्ति अज्झाइयव्वयं भवइ४ चउत्थं पयं भवइ।सू०१८। भवइ य एत्थ सिलोगोनाणमेगग्गचित्तो य, ठिओ अ ठावई परं । सुयाणि य अहिजिता, रयो सुयसमाहिए ॥४५६॥
उक्तो विनयसमाधिः, श्रुतसमाधिमाह-चउब्विहा इत्यादि, चतुर्विधः खलु श्रुतसमाधिर्भवति, तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः । श्रुतं मे आचारादि द्वादशाचं भविष्यतीत्यनया बुद्ध्या अध्येतव्यं भवति, न गौरवाद्यालम्बनेन १, तथा अध्ययनं कुर्वन्नेकाग्रचित्तो भविष्यामि न च विप्लुतचित्त इत्यध्येतव्यं भवति अनेन चालम्बनेन २, तथाऽध्ययनं कुर्वन् विदितधर्मतत्त्व आत्मानं स्थापयिष्यामि शुद्धधर्म इत्यनेन चालम्बनेनाध्येतव्यं भवति ३, तथा अध्ययनफलात स्थितः स्वयं धर्मे परं विनेयं स्थापयिष्यामि तत्रैवेत्यध्येतव्यं भवत्यनेन चालम्बनेनाध्येतव्यं ४ चतुर्थ पदं भवति ।१८। भवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् , स चायं नाणमिति, ज्ञानमित्यध्ययनपरस्य ज्ञानं भवत्येकाग्रचित्तश्च तत्परतया एकाग्रालम्बनश्च भवति, स्थित इति विवेकाद्धर्मस्थितो भवति, स्थापयति परमिति स्वयं धर्मस्थितत्वादन्यमपि स्थाप
॥१८॥
Jain Education Inter
For Private 3 Personal Use Only
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु०
श्रीदशवै० अ० ९,
उ० ४
॥ १८४॥
Jain Education Interna
यति श्रुतानि च नानाप्रकाराण्यधीते, अधीत्य च रतः - सक्तो भवति, श्रुतसमाधाविति ॥ ४५६ ॥ खलु तवसमाही भवइ, तंजहा - नो इहलोगट्टयाए तवमहिद्वेज्जा १, नो परलोगट्टयाए तवमहिट्टेज्जा २, नो कित्तिवण्णसहसिलोगट्टयाए तवमहिट्टेज्जा ३, नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिट्ठेजा ४, चउत्थं पर्यं भवइ । सू० १९ । भवइ य एत्थ सिलोगो - विविहगुणतवारेए य निच्चं, भवइ निरासए निज्जरट्ठिए । तवसा घुणइ पुराणपावगं, जुत्तो सया तवसमाहिए ॥ ४५७॥
उक्तः श्रुतसमाधिः, तपःसमाधिमाह - चउव्विहा इत्यादि, चतुर्विधः खलु तपःसमाधिर्भवति, तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, नेहलोकार्थमिहलोकनिमित्तं लब्ध्यादिवाञ्छया तपः - अनशनादिरूपमधितिष्ठेत् कुर्यात् धर्मि - लवत् १, तथा न परलोकार्थं - जन्मान्तरभोगनिमित्तं तपोऽधितिष्ठेद् ब्रह्मदत्तवत् २, एवं न कीर्त्तिवर्णशब्दघार्थमिति, सर्वदिग्व्यापी साधुवादः कीर्त्तिः, एक दिग्व्यापी वर्णो, अर्द्धदिग्व्यापी शब्दः, तत्स्थान एव श्लाघा, नैतदर्थ तपोऽधितिष्ठेत् ३, अपि तु नान्यत्र निर्जरार्थमिति, न कर्म्मनिर्जरामेकां विहाय तपोऽधितिष्ठेत्, अकामः सन् यथा कर्मनिर्जरैव फलं भवति तथाधितिष्ठेदित्यर्थः ४, चतुर्थं पदं भवति । १९ । भवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् स चायंविवित्यादि, विविधगुणतपोरतो हि नित्यमनशनाद्यपेक्षयाऽनेकगुणं यत्तपस्तद्रत एव सदा भवति, निराशोनिष्प्रत्याश इहलोकादिषु, निर्जरार्थिकः कर्मनिर्जरार्थी, स एवंभूतः तपसा विशुद्धेन धुनोति - अपनयति पुराणपापं
तप समाधिः
सू० १९, गा. ४५७
॥ १८४॥
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साघु०
श्रीदशवे०
अ० ९,
उ० ४
॥१८५॥
चिरन्तनं कर्म, नवं च न वनात्येवं युक्तः सदा तपःसमाधाविति ॥ ४५७ ॥
चउब्विहा खलु आयारसमाही भवइ, तंजहा - नो इहलोगट्टयाए आयारमहिट्टेजा १, नो परलोगट्टयाए आयारमहिद्वेज्जा २, नो कित्तिवण्णसहसिलोगट्टयाए आयारमहिद्वेज्जा ३, नन्नत्थ आरहंतेहिं हेऊहिं आयारमहिना ४, चउत्थं पयं भवइ । सू० २० । भवइ य एत्थ सिलोगोजिणवयणरए अतितिणे, पडिपुन्नाययमाययट्ठिए ।
आयारसमाहिसंवुडे, भवइ य दंते भावसंघए ॥ ४५८ ॥ अभिगम चउरो समाहिओ, सुविसुद्ध सुसमाहियप्पओ । विउलहियं सुहावहं पुणो, कुवइ असो पयखेममप्पणो ॥ ४५९ ॥
जाइ (जरा) मरणाओ मुच्चई, इत्थंथं च चएइ सव्वसो ।
सिद्धे वा भवइ सासए, देवे वा अप्परए महड्डिए । ४६० ॥ ति बेमि ॥ ९-४ ॥ विणयास माहीणामज्झयणं समत्तं ९ ॥
आचार
समाधिः
सू० २०,
गा. ४५८४६०
॥१८५॥
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु०
श्रीदश०
अ० ९, उ० ४
॥१८६॥
उक्तः तपःसमाधिः, आचारसमाधिमाह - चउव्विहा इत्यादि, चतुर्विधः खल्वाचारसमाधिर्भवति, तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, नेहलोकार्थमित्याद्याचाराभिधानभेदेन पूर्ववत्, यावन्नान्यत्रार्हतैरर्हत्सम्बन्धिभिर्हेतुभिरनाश्रवत्वादिभिः आचारं - मूलगुणोत्तरगुणमयमधितिष्ठेत्, निरीहः सन् यथा मोक्ष एव भवतीति चतुर्थ पदं भवति । २० । भवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् स चायं - जिणवयणरए इत्यादि, जिनवचनरतः - आगमे सक्तः, अतिन्तिन:- न सकृत्किञ्चिदुक्तः सन्नसूयया भूयो भूयो वक्ता, प्रतिपूर्णः सूत्रादिना, आयतमायातार्थिकः - अत्यन्तं मोक्षार्थी आचारसमाधिसंवृत इत्याचारे यः 'समाधिस्तेन स्थगिताश्रवद्वारः सन् भवति च दान्त - इन्द्रियनोइन्द्रियदमाभ्यां भावसन्धको - भावो - मोक्षस्तत्सन्धक आत्मनो मोक्षासनकारीति ।। ४५८ ।। सर्वसमाधिफलमाह-अभिगमेति, अभिगम्य-विज्ञायासेन्य च चतुरः समाधी - ननन्तरोदितान्, सुविशुद्ध मनोवाक्कायैः सुसमाहितात्मा सप्तदशविधे संयमे, स एवंभूतो धर्मराज्यमासाद्य विपुलहितसुखावहं पुनरिति विपुलं विस्तीर्ण हितं तदात्वे आयत्यां च पथ्यं सुखमावहति प्रापयति यत्तत् तथाविधं करोत्यसौ साधुः पदं स्थानं, क्षेमं - शिवं, आत्मन एव, न त्वन्यस्येति अनेनैकान्तक्षणभङ्गव्यवच्छेदमाहेति ॥ ४५९ ॥ एतदेव स्पष्टयति- जाइ इति, जातिजरामरणात् - जन्मजरामरणात्संसारान्मुच्यते, असौ सुसाधुरित्थंस्थं चेति इदंप्रकारमापन्नमित्थं इत्थं तिष्ठतीतीत्थंस्थं - नारकादिव्यपदेशबीजं वर्णसंस्थानादि तच्च चएह-त्यजति सर्वशः सर्वैः प्रकारैरपुनर्ब्रहण तथा, एवं सिद्धो वा कर्मक्षयात् सिद्धो भवति, शाश्वतोऽपुनरागामी सावशेषकर्मा देवो वाऽल्परतः - पामापरिगत कण्डूयनकल्परतरहितो महर्द्धिकः - अनुत्तरवैमानिकादिः ।। ४६० ॥ ब्रवीमीति पूर्ववत् ।। इति विनयसमाधौ चतुर्थ उद्देशकः ॥
समाधि
फलम्
सू० २०,
गा. ४५८
४६०
१८६॥
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
भिक्षु
स्वरूपम् गा. ४६१४६३
सुमति- का इति श्रीसुमतिसाधुविरचितावचूरौ नवमं विनयसमाधिनाममध्ययनं समाप्तम् ९॥ साधु भीदशवै० व्याख्यातं विनयसमाध्यध्ययनम् ॥ अधुना सभिक्ष्वाख्यमारभ्यते, अस्य चायममिसम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने अ०१० आचारप्रणिहितो यथोचितविनयसंपन्नो भवतीत्येतदुक्तं, इह त्वेतेष्वेव नवस्वध्ययनार्थेषु यो व्यवस्थितः स सम्यग्मिचरित्ये
तदुच्यते, इत्यनेनाभिसम्बन्धेनायातमिदमध्ययनमिति । तच्चेदं॥१८७॥
निक्खम्ममाणाइ य बुद्धवयणे, निच्चं चित्तसमाहिओ हवेजा। इत्थीण वसं न यावि गच्छे, वंतं नो पडियायइ जे स भिक्खू ॥ ४६१॥ पुढविं न खणे न खणावए, सीओदगं न पिए न पियावए । अगणिसत्थं जहा सुनिसियं, तं न जले न जलावए जे स भिक्खू ॥४६२॥ अनिलेण न वीए न वीयावए, हरियाणि न छिंदे न छिंदावए। बीयाणि सया विवजयंतो, सञ्चित्तं नाहारए जे स भिक्खू ॥ ४६३ ॥ वहणं तसथावराण होइ, पुढवीतणकट्ठनिस्सियाणं।
॥१८७॥
Jain Education Intema
For Private & Personel Use Only
स
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
मिन
स्वरूपम्
साधु श्रीदशवै० अ० १० ॥१८८॥
गा०४६४. ४६५
तम्हा उद्देसि न भुंजे, नोऽवि पए न फ्यावए जे स भिक्खू ॥ ४६४ ॥ रोइअ नायपुत्तवयणे, अप्प(च)समे मन्नेज छप्पि काए।
पंच य फासे महत्वयाई, पंचासवसंवरे जे स भिक्खू ॥ ४६५॥ किंच-निक्खम्मेति, निष्क्रम्य-द्रव्यभावगृहात , प्रव्रज्यां गृहीत्वेत्यर्थः आज्ञया-तीर्थकरगणधरोपदेशेन योग्यतायां सत्या, निष्क्रम्य किमित्याह-बुद्धवचने-अवगततवतीर्थकरगणधरवचने नित्यं-सर्वकालं चित्तसमाहितश्चित्तेनातिप्रसन्नो भवेत् , प्रवचन एवाभियुक्त इति गर्भः। व्यतिरेकतः समाधानोपायमाह-स्त्रीणां सर्वासामसत्कार्यनिवन्धनभूतानां वशंतत्परतन्त्रता(तदायत्तता)रूपं न चापि गच्छेत् , तदशगो हि नियमतो वान्तं प्रत्यापिबति, अतो बुद्धवचनचित्तसमाधानतः सवथा स्त्रीवशत्यागात् , अनेनैवोपायेन, अन्योपायासम्मवात, वान्तं-परित्यक्तं सद्विषयजम्बालं न प्रत्यापिवति-न मनागप्याभोगतोऽनाभोगतश्च तत्सेवते यः स भिक्षुर्भावभिक्षुरिति ॥ ४६१ ॥ तथा पुढवीति, पृथ्वी-सचेतनादिरूपां न खनति स्वयं, न खानयति परैः, "एकग्रहणे तजातीयग्रहणमि"ति खनन्तमप्यन्यं नानुजानातीति, एवं सर्वत्र वेदितव्यं, शीतोदकं-सचित्तं पानीयं न पिबति स्वयं, न पाययति परान्, अग्निः षड्जीवघातकः, किंवदित्याह-शस्त्रं-खगादि | यथा सुनिशितमुज्ज्वालितं तद्वत् , तं न ज्वालयति स्वयं, न ज्वालयति परैः, य इत्थंभूतःस भिक्षुरिति, आह-षड्जीवनिकायादिषु सर्वाध्ययनेष्वयमर्थोऽभिहितः किमर्थ पुनरुक्त इति?, उच्यते, तदुक्तार्थानुष्ठानपर एव भिक्षुरिति ज्ञापनार्थ,
| ॥१८॥
Jain Education Inter
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु०
श्रीदश०
अ० १०
॥ १८९ ॥
Jain Education Internal
ततश्च न दोष इति ॥ ४६२ ।। तथा अनिलेति-अनिलेनानिलहेतुना चेलकर्णादिना न वीजयत्यात्मादि स्वयं, न वीजयति परैः, हरितानि-शष्पादीनि न छिनत्ति स्वयं न छेदयति परैः, बीजानि - हरितफलरूपाणि व्रीह्मादीनि सदा-सर्वकालं विवर्जयेत् संघट्टनादिक्रियया, सचित्तं नाहारयति यः कदाचित् अप्यपुष्टालम्बनः स भिक्षुरिति ॥ ४६३ || औद्देशिकादिपरिहारेण त्रसस्थावरपरिहारमाह-वहणमिति, वधनं हननं त्रसस्थावराणां - द्वीन्द्रियादिपृथिव्यादीनां भवति कृतौदेशिके, किंविशिष्टानां १ - पृथिवीतृणकाष्ठनिश्रितानां तथासमारम्भात्, यस्मादेवं तस्मादौशिकं कृतादि, अन्यच्च सावद्यं न भुङ्क्ते, न केवलं एतत् किन्तु नापि पचति स्वयं, न पाचयत्यन्यैः, न पचन्तमनुजानाति स भिक्षुरिति ॥ ४६४ ॥ रोइत्ति, रोचयित्वा - विधिग्रहणभावनाभ्यां प्रियं कृत्वा, किं तदित्याह - ज्ञातपुत्रवचनं भगवन्महावीरवचनं आत्मसमान् - आत्मतुल्यान्मन्यते षडपि कायान् पृथिव्यादीन्, पञ्च चेति चशन्दोऽपिशब्दार्थः पञ्चापि स्पृशति-सेवते महाव्रतानि पञ्चाश्रवसंवृतश्च द्रव्यतोऽपि पञ्चेन्द्रियसंवृतश्च यः स भिक्षुरिति ॥ ४६५ ।। चत्तारि वमे सया कसाए, धुवजोगी य हवेज बुद्धवयणे ।
अहणे निजायवरयणे, गिहिजोगं परिवज्जए जे स भिक्खू ॥ ४६६ ॥ सम्माद्दट्ठी सया अमूढे, अस्थि हु नाणे तवे संजमे य ।
तवसा धुण पुराणपावगं, मणवयकायसुसंवुडे जे स भिक्खू ॥ ४६७ ॥
मिक्षु
स्वरूपम् गा. ४६६
४६७
1186811
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु० श्रीदशवै०
अ० १०
॥१९०॥
तव असणं पाणगं वा, विविदं खाइमसाइमं लभित्ता । होही अट्ठो सुए परे वा, तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू ॥ ४६८ ॥ तदेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता । छंदिय साहम्मिआण मुझे, भुच्चा सज्झायरए जे स भिक्खू ॥ ४६९ ॥ न यग्गहियं कहं कहेज्जा, न य कुप्पे निहुइंदिए पसंते ।
संजमे धुवं जोगेण जुत्ते, उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू ॥ ४७० ॥
किंच- चत्तारिचि, चतुरः क्रोधादीन् वमति तत्प्रतिपक्षाभ्यासेन सदा सर्वकालं कषायान्, ध्रुवयोगी चोचितनित्ययोगवांश्च भवति, बुद्धवचन इति तृतीयार्थे सप्तमी, तीर्थकरवचनेन करणभूतेन, ध्रुवयोगी भवति, यथागममेवेति भावः, अधनश्चतुष्पदादिरहितो निर्जातरूपरजतो निर्गतसुवर्णरूप्य इति भावः, गृहियोगं-मूर्च्छया गृहस्थसम्बन्धं परिवर्जयति सर्वैः प्रकारैः परित्यजति यः स भिक्षुरिति ॥ ४६६ ॥ तथा सम्मद्दिद्वीति, सम्यग्दृष्टिः- भावसम्यग्दर्शनी यः सदाऽमूढः - अविप्लुतः सभेचं मन्यते अस्त्येव ज्ञानं हेयोपादेयविषयमतीन्द्रियेष्वपि तपश्च बाह्याभ्यन्तरकर्म्ममलापनयनजलकल्पं संयमश्च नवकर्मानुपादानरूपः, इत्थं च दृढभावस्तपसा धुनोति पुराणं पापं भावसारतया प्रवृया,
मिक्षुस्वरूपम्
गा. ४६८
४७०
॥ १९०॥
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु० श्रीदशचै०
अ० १०
॥१९१॥
मनोवाक्कायसुसंवृतः- तिसृभिर्गुप्तिभिर्गुप्तो यः स भिक्षुरिति ||४६७॥ किं च-तहेव असणंति, तथैवेति पूर्वर्विविधानेनाशनं पानं च प्रागुक्तस्वरूपं तथा विविधमनेकप्रकारं खाद्यं स्वाद्यं च प्रागुक्तस्वरूपमेव लब्ध्वा - प्राप्य, किमित्याहभविष्यत्यर्थः - प्रयोजनमनेन श्वः परश्वो वेति तद्-अशनादि न निघत्ते-न स्थापयति स्वयं, तथा न निधापयति-न स्थापयत्यन्यैः, स्थापयन्तमन्यं नानुजानाति यः सर्वथा संनिधिपरित्यागवान् स भिक्षुरिति ॥ ४६८ ॥ किंच तहेवति, तथैवाशनं पानं च विविधं खाद्यं स्वाद्यं च लब्ध्वेति पूर्ववत् लब्ध्वा किमित्याह-छन्दित्वा निमन्त्रय समानधार्मिकान् साधून् भुङ्क्ते, स्वात्मतुल्यत्वाद्वात्सल्यसिद्धेः, तथा भुक्तत्वा स्वाध्यायरतश्च यः चशब्दो विशेषानुष्ठानपरच यः स भिक्षुरिति ॥ ४६९ ।। भिक्षुलक्षणाधिकार एवाह-न ये चि न च वैग्रहिकीं- कलहप्रतिबद्धां कथां कथयति, सद्वादकथादिष्वपि न च कुप्यति परस्यापि तु निभृतेन्द्रियोऽनुद्धतेन्द्रियः प्रशान्तो-रागादिरहित एवास्ते, तथा संयमे-पूर्वोक्ते ध्रुवं सर्वकालं योगेन - कायवाङ्मनः कर्मलक्षणेन युक्तः - योगयुक्तः, प्रतिमेदमौचित्येन प्रवृत्तेः, तथोपशान्तोऽनाकुलः कायचापलादिरहितः, अविहेठकः न क्वचिदुचितेऽनादरवान् क्रोधादीनां विश्लेषक इत्यन्ये, ये इत्थंभूतः स भिक्षुरिति ॥ ४७० ॥
जो सहइ हु गामकण्टए, अक्कोसपहारतजणाओ य ।
भयभेरवसद्द सप्पहासे, समसुहदुक्खसहे य जे स भिक्खू ॥ ४७१ ॥
भिक्षु
स्वरूपम् गा. ४७१
॥१९१॥
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
भिक्षु
साधु० श्रीदशवै० अ०१०
| स्वरूपम् गा.४७२४७५
॥१९॥
पडिमं पडिवजिया मसाणे, नो भीयए भयभेरवाई दिस्स । विविहगुणतवोरए य निच्चं, न सरीरं चाभिकए जे स भिक्खू ॥ ४७२ ॥ असई वोस?चत्तदेहे, अक्कुट्टे व हए लूसिए वा।। पुढविसमे मुणी हवेज्जा, अनियाणे अकोउहल्ले जे स भिक्ख ॥४७३ ॥
अभिभूय कायेण परीसहाई, समुद्धरे जाइपहाओ अप्पयं । विइत्तु जाईमरणं महब्भयं, तवे रए सामणिए जे स भिक्खू ॥ ४७४ ॥ हत्थसंजए पायसंजए, वायसंजए संजइंदिए ।
अज्झप्परए सुसमाहिअप्पा, सुत्तत्थं च वियाणइ जे स भिक्खू ॥ ४७५ ॥ किंच-जो सहइत्ति, यः खलु महात्मा सहते सम्यग्ग्रामकण्टकान् प्रामा-इन्द्रियाणि तदुःखहेतवः कण्टकास्तान , स्वरूपत एवाह-आक्रोशान् महारान् तर्जनांश्चेति, तत्राक्रोशा यकारादिभिः, प्रहाराः कशादिभिः, तर्जना अपयादिभिः, तथा भैरवभया-अत्यन्तरौद्रभयजनकाः शब्दाः सपहासा यस्मिन् स्थान इति गम्यते, तत्तथा तस्मिन् , वैतालादिकृतात्तेनादाट्टहास इत्यर्थः, अत्रोपसर्गेषु सत्सु समसुखदुःखसहश्च-योऽचलितसामायिकमावः स भिक्षुरिति ।। ४७१।।
॥१९२॥
in Educh an intera
s
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति०
साघु० श्रीदशचै०
अ० १०
॥ १९३ ॥
एतदेव स्पष्टयति-पडिमंति, प्रतिमां- मासादिरूपां प्रतिपद्य - सविधिमङ्गीकृत्य स्मशाने पितृवने, न विभेति न भयं याति, भैरवभयानि दृष्ट्वा - रौद्र भयहेतू नुपलभ्य वैतालिकादिरूपशब्दादि, विविधगुणतपोरतश्च नित्यं मूलगुणाद्यनशनादिसक्त सर्वकालं न शरीरमभिकाङ्क्षते निःस्पृहतया वार्त्तमानिकं भावि च य इत्थंभूतः स भिक्षुरिति ॥ ४७२ ॥ असइंति, न सकृदसकृत्सर्वदैवेत्यर्थः किमित्याह - व्युत्सृष्टत्यक्तदेह :- व्युत्सृष्टो भावप्रतिबन्धाभावेन, त्यक्तो - विभूषाकरणेन, देह: - शरीरं येन स तथाविधः, आक्रुष्टो वा ज ( य ) कारादिना, हतो वा दण्डादिना, लूषितो वा खड्गादिना, भक्षितो वा शृगालादिना, पृथिवीसमः - सर्वसहो मुनिर्भवति, न च रागादिना पीडयते, तथाऽनिदानो - भाविफलाशंसारहितः, अकुतूहलश्च नटादिषु य एवंभूतः स भिक्षुरिति ॥ ४७३ || भिक्षुस्वरूपाभिधानाधिकार एवाह-अभिभूयत्ति, अभिभूय - पराजित्य, कायेन शरीरेणापि न भिक्षुसिद्धान्तनीत्या मनोवाग्भ्यामेव, कायेनानभिभवे तवतस्तदनभिभवात्, परीषहान् क्षुदादीन्, समुद्धारयत्युत्तारयति, जातिपथात् संसारमार्गादात्मानं कथमित्याहविदित्वा - विज्ञाय, जातिमरण-संसारमूलं महाभयं महाभयकारणं, ततः- तपसि रतः सक्तः किंभूतः १ इत्याहश्रामण्ये - श्रमणानां सम्बन्धिनि, शुद्ध इति भावः, य एवंभूतः स भिक्षुरिति ॥ ४७४ ॥ इत्थति, हस्तसंयतः पादः संयत इति, कारणं विना कूर्मवल्लीन आस्ते, कारणे च सम्यग्गच्छति, तथा वाक्संयतः - अकुशलवाग्निरोधात् कुशलवागुदीरणेन संयतेन्द्रियो - निवृत्तविषयप्रसरः अध्यात्मरतः - प्रशस्तध्यानासक्तः, सुसमाहितात्मा ध्यानापादकगुणेषु, तथा सूत्रार्थं च यथावस्थितं विधिग्रहणशुद्धं विजानाति यः सम्यग्यथाविषयं स मिक्षुरिति ।। ४७५ ।।
१७
भिक्षु
स्वरूपम्
गा. ४७२४७५
॥ १९३ ॥
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति. साधु भीदशवै.
मिक्षु स्वरूपम् गा.४७६४८०
।। १९४॥
उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नायउञ्छं पुलनिप्पुलाए । कयविक्कयसन्निहिओ विरए, सव्वसंगावगए य जे स भिक्खू ॥ ४७६ ॥ अलोल भिक्खू न रसेसु गिज्झे, उञ्छं चरे जीविय नाभिको। इड्डिं च सक्कारणपूयणं च, चए ठियप्पा अणिहे जे स भिक्खू ॥ ४७७ ॥ न परं वइज्जासि अयं कुसीले, जेणऽन्न कुप्पेज न तं वएज्जा। जाणिय पत्तेयं पुण्णपावं, अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू ॥ ४७८ ॥ न जाइमत्ते न य रूवमत्ते, न लाभमत्ते न सुएण मत्ते । मयाणि सवाणि विवज्जइत्ता, धम्मज्झाणरए जे स भिक्खू ॥ ४७९ ॥ पवेयए अजपयं महामुणी, धम्मे ठिओ ठावयई परं पि । निक्खम्म वजेज कुसीललिङ्गं, न यावि हासंकुहए जे स भिक्खू ॥ ४८५ तं देहवासं असुइं असासयं, सया चए निच्चहियट्रियप्पा ।
॥ १९४॥
Jain Education Inten
For Private & Personel Use Only
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
भिक्षु
सुमति साधु० मीदशवै०
स्वरूपम् गा. ४७६
४८१
॥ १९५॥
छिंदित्तु जाईमरणस्स बंधणं, उवेइ भिक्खू अपुणागमं गई ।। ४८१ ॥ तिबेमि॥
___ सभिक्खुअज्झयणं दसमं समत्तं १०॥ तथा उवहिंमित्ति, उपधौ-वस्त्रादिलक्षणे अमूच्छितः-तद्विषयमोहत्यागेन अगृद्धः-प्रतिबन्धाभावेन, अज्ञातोञ्छ चरति भावपरिशुद्धं, स्तोकं स्तोकमित्यर्थः पुलाकनिष्पुलाका-संयमासारतापादकदोषरहितः, क्रयविक्रयसंनिधिभ्यो विरता-द्रव्यभावभेदभिन्नक्रयविक्रयपर्युषितस्थापनेभ्यो निवृत्तः, सर्वसङ्गापगतश्च योऽपगतद्रव्यभावसङ्गश्च यः, स भिक्षु. रिति ॥ ४७६ ॥ किंच-अलोलेति, अलोलो नाम नाप्राप्तप्रार्थनापरो भिक्षुः-साधुन रसेषु गृद्धः, प्राप्तेष्वपि अप्रतिबद्ध इति भावः, उञ्छं चरति भावोछमेवेति पूर्ववत् । नवरं तत्रोपधिमाश्रित्योक्तमिह स्वाहारमित्यपौनरुत्यं । तथा जीवितं नाभिकाङ्कते असंयमजीवितं, तथा ऋद्धिं च-आमाँपध्यादिरूपा, सत्कारं-वस्त्रादिभिः, पूजनं च-स्तबादिना त्यजति नैतदर्थ एव यतते, स्थितात्मा ज्ञानादिषु, अनिभ इत्यमायो यः स भिक्षुरिति ॥ ४७७ ॥ तथा न परमिति, न परं स्वपक्षविनेयव्यतिरिक्तं वदति-अयं कुशीलस्तदप्रीत्यादिदोषप्रसङ्गात् , स्वपक्षविनेयं तु शिक्षाग्रहणबुद्ध्या वदत्यपि, सर्वथा येनान्यः कश्चित्कुप्यति न तद्ब्रवीति दोषसद्भावेऽपि, किमित्यत आह-ज्ञात्वा प्रत्येकं पुण्यपापं, नान्यसम्बन्धि अन्यस्य भवति अग्निदाहवेदनावत् , एवं सत्स्वपि गुणेषु नात्मानं समुत्कर्षति-न स्वगुणैर्वमायाति यः स भिक्षुरिति ॥ ४७८ ॥ मदप्रतिषेधार्थमाह-न जाइमत्तेति, न जातिमत्तो यथाऽहं ब्राह्मणः क्षत्रियो वा, न चापि रूपमत्तो यथाऽहं
॥ १९५॥
Jain Education Internet
For Private
Personal Use Only
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु
मिक्षुमाव
फलम्
श्रीदशवै० अ०१०
गा.४७९
॥ १९६॥
रूपवान् , आदेयः, न लाभमत्तो यथाऽहं लाभवान् , न श्रुतमत्तो यथाऽहं पण्डितः, अनेन कुलमदादिपरिग्रहः, अत एवाहमदान् सर्वानपि कुलादिविषयान्विवर्य-परित्यज्य धर्मध्यानरतो-यो यथागमं तत्र सक्तः स भिक्षुरिति ॥ ४७९ ॥ किंच-पवेयए इत्यादि, प्रवेदयति-कथयत्यार्यपदं-शुद्धधर्मपदं परोपकाराय महामुनि:-शीलवान् ज्ञाता एवंभूत एव वस्तुतो नान्यः, किमित्येतदेवमित्याह-धम्में स्थितः स्थापयति परमपि-श्रोतारं, तत्रादेयभावप्रवृत्तेः, तथा निष्क्रम्य वर्जयति कुशीललिंग-आरम्भादि कुशीलचेष्टितं, तथा न चापि हास्यकुहको-न हास्यकारिकुहकयुक्तो यः स भिक्षुरिति ।। ४८०॥ भिक्षुभावफलमाह-तं देहेति, तं देहवासमित्येवं प्रत्यक्षोपलभ्यमानं चारकरूपं शरीरावासमशुचिं शुक्रशोणितोद्भवत्वादिना, अशाश्वतं प्रतिक्षणपरिणत्या सदा त्यजति ममत्वानुबन्धपरित्यागेन, क इत्याह-नित्यहितेमोक्षसाधने सम्यग्दर्शनादौ स्थितात्मा-अत्यन्तसुस्थितः, स चैवंभृतश्छिच्चा जातिमरणस्य संसारस्य वन्धनं-कारण| मुपैति-सामीप्येन गच्छति भिक्षुः-यतिरपुनरागमां नित्यां जन्मादिरहितामित्यर्थः, गतिमिति-सिद्धिगतिम् ॥ ४८१॥ ब्रवीमीति पूर्ववत् ।। इति व्याख्यातं सभिश्वध्ययनम् १० ॥
अधुनौघतथूडे आरम्येते, अनयोश्चायमभिसम्बन्ध इहानन्तराध्ययने भिक्षुगुणयुक्त एव भिक्षुरुक्तः, स चैवंभूतोऽपि कदाचिकर्मपरतन्त्रत्वात् कर्मणश्च बलवत्त्वात् सीदेव , अतस्तत्स्थिरीकरणं कर्तव्यमिति, तदर्थाधिकार एव चूडाद्वयमभिधीयते, तच्चेदं
इह खल्लु भो! पवइएणं उप्पन्नदुक्खेणं संजमे अरइसमावन्नचित्तेणं ओहाणुप्पहिणा
Jain Education Interation
For Private & Personel Use Only
Aaw.jainelibrary.org
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु श्रीदशवै०
॥ १९७॥
अणोहाइएणं चेव हयरस्सिगयंकुसपोयपडागाभूआई इमाइं अट्ठारस ठाणाइं सम्मं संपडिलेहिअवाइं भवंति, तंजहा-हंभो ! दुस्समाए दुप्पजीवी १, लहुसगा इत्तरिआ गिहीणं कामभोगास्थानानि
सू०२१ २, भुजो अ साइबहुला मणुस्सा ३, इमे अ मे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सई ४, ओम-1 जणपुरकारे ५, वंतस्स य पडिआयणं ६, अहरगइवासोवसंपया ७, दुल्लहे खलु भो! गिहीणं धम्मे गिहवासमझे वसंताणं ८, आयके से वहाय होइ ९, संकप्पे से वहाय होइ १०, सोवक्केसे | गिहवासे, निरुवक्केसे परिआए ११. बंधे गिहवासे मुक्खे परिआए १२, सावजे गिहवासे, अणवज्जे परिआए १३, बहुसाहारणा गिहीणं कामभोगा १४, पत्ते पुन्नपावं १५, अणिच्चे खलु भो ! मणुस्साणं जीविए कुसग्गजलबिंदुचंचले १६, वहुं च खलु भो ! पावं कम्मं पगडं १७, पावाणं | च खलु भो! कडाणं कम्माणं पुविं दुञ्चिन्नाणं दुप्पडिकंताणं वेइत्ता मुक्खो, नत्थि अवेइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता १८ । अट्ठारसमं पयं भवइ । सू० २१ । भवइ अ इत्थ सिलोगो
इह खलु भो पव्वेति, इह खलु भो प्रव्रजितेन इहेति जिनप्रवचने, खलुशब्दोऽवधारणे, स च भिन्नक्रम इति १९७॥
Jain Education Inter
For Private & Personel Use Only
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुमति. साधु श्रीदशवै
अष्टादश स्थानानि सू०२१
दर्शयिष्यामः, भो इत्यामन्त्रणे, प्रव्रजितेन-साधुना, किंविशिष्टेनेत्याह-उत्पन्नदुःखेन-सञ्जातशीतादिशारीरस्त्रीनिषधादिमानसदुःखेन संयमे-ध्यावणितस्वरूपे अरतिसमापनचित्तेनोद्वेगगताभिप्रायेण संयमनिर्विण्णभावेनेत्यर्थः, स एव विशेष्यते-अवधावनोत्प्रेक्षिणा-अवधावनं-अपसरणं संयमादुत्-प्राबल्येन प्रेक्षितुं शीलं यस्य स तथाविधस्तेन, उत्प्रवजितुकामेनेति भावः, अनवधावितेनैव-अनुत्प्रव्रजितेनैवामूनि वक्ष्यमाणलक्षणान्यष्टादश स्थानानि सम्यग्-भावसारं सुप्रत्युपेक्षितव्यानि-सुष्ट्वालोचनीयानि भवन्तीति योगः; अवधावितस्य तु प्रत्युपेक्षणं प्रायोऽनर्थकमिति, तान्येव विशेष्यन्ते-हयरश्मिगजाङ्कुशपोतपताकाभूतानि-अश्वखलिनगजाकैशबोहित्थसितपटतुल्यानि, एतदुक्तं भवति-यथा हयादीनामन्मार्गप्रवृत्तिकामानां रम्यादयो नियमनहेतवः तथा एतान्यपि संयमादुन्मार्गप्रवृत्तिकामानां भव्यसत्त्वानामिति, यतश्चैवमतः सम्यक् प्रत्युपेक्षितव्यानि भवन्ति, खलुशब्दोऽवधारणे, योगात् सम्यगेव संप्रत्युपेक्षितव्यानि एवेत्यर्थः। तद्यथेत्यादि-तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, हंभो ! दुःषमायां दुष्पजीविन इति, हंभो-शिष्यामन्त्रणे, दुष्षमायांअधमकालाख्यायां कालदोषादेव दुःखेन-कृच्छ्रेण प्रकर्षणोदारभोगापेक्षया जीवितुं शीला दुष्प्रजीविनः, प्राणिन इति गम्यते, नरेन्द्रादीनां अपि अनेकदुःखप्रयोगदर्शनात् , उदारभोगरहितेन च विडम्बनाप्रायेण कुगतिहेतुना किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति प्रथमं स्थानम् १ । तथा लघव इत्वरा गृहिणां कामभोगाः, दुष्षमायामिति वर्तते, सन्तोऽपि लघवा-तुच्छाः प्रकृत्यैव तुषमुष्टिवदसाराः इत्वरा-अल्पकालाः गृहिणां-गृहस्थानां कामभोगा:-मदनकामप्रधानाः शब्दादयो विषया विपाककटवश्च, न देवानामिव विपरीताः, अतः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति द्वितीयं
॥१९८
Jain Education Intem
For Private & Personel Use Only
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुमति
साघु० श्रीदशवै०
अष्टादश स्थानानि सू० २१
स्थानम् २। तथा भूयश्च स्वातिबहुला मनुष्याः दुष्षमायामिति वर्त्तते एव, पुनश्च स्वातिबहुला मायाप्रचुरा मनुष्या इति प्राणिनो, न कदाचित् विश्रम्भहेतवोऽमी, तद्रहितानां च कीदृक् सुखं ?, तथा तद्वन्धहेतुत्वेन दारुणतरो बन्ध इति किं गृहाश्रमेणेति, संप्रत्युपेक्षितव्यमिति तृतीय स्थानम् ३ । पाठान्तरं वा तथा-भूयश्च सातबहुला मनुष्याः, मुक्तेष्वपि कामभोगेषु पुनरपि सुखाभिलाषिण एव मनुष्याः, अतः किं कामभोगैः । इति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति तृतीयं स्थानम् ३। तथा इदं च मे दुःखं न चिरकालोपस्थायि भविष्यति, इदं चानुभूयमानं मम श्रामण्यमनुपालयतो दुःखं शारीरमानसं कर्मफलं परीषहजनितं न चिरकालमुपस्थातुं शी भविष्यति, श्रामण्यपालनेन परीषहनिराकृते: कर्मनिर्जरणात् , संयमराज्यप्राप्तेः, इतरथा महानरकादौ विपर्ययः, अतः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति चतुर्थ स्थानम् ४। तथा ओमजणपुरस्कारमिति न्यूनजनपूजा, प्रवजितो हि धर्मप्रभावाद्राजामात्यादिभिरभ्युत्थानासनाञ्जलिप्रग्रहादिभिः पूज्यते, उत्प्रव्रजितेन तु न्यूनजनस्यापि स्वव्यसनगुप्तयेऽभ्युत्थानादि कार्य, अधार्मिकराजविषये च वेष्टिप्रयोक्तः खरकर्मणो नियमत एवेदमधर्मफलं, अतः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति पञ्चमं स्थानं, एवं सर्वत्र क्रिया योजनीया ५। तथा वान्तस्य प्रत्यापानं भुक्तोज्झितपरिभोग इत्यर्थः, अयं च श्वशृगालादिक्षुद्रसच्चाचरितः सतां निन्द्यो व्याधिदुःखजनका, वान्ताश्च भोगाः प्रव्रज्याङ्गीकरणेन, एतत्प्रत्यापानमप्येवंभूतमेव चिन्तनीयमिति षष्ठं स्थानम् ६ । तथा अधोगतिःनरकतिर्यग्गतिस्तस्यां वसनं अधोगतिवासः, एतन्निमित्तभूतं कर्म गृह्यते, तस्योपसंपत्-सामीप्येनाङ्गीकरणं यदेतदुत्प व्रजनं, एवं चिन्तनीयमिति सप्तमं स्थानम् ७। तथा दुर्लभः खलु भो! गृहिणां धर्म इति प्रमादबहुलत्वाद् दुर्लभ एव,
॥ १९९ ॥
For Private & Personel Use Only
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु० श्रीदशवे० चू० १
॥ २०० ॥
Jain Education Internat
भो! इत्यामन्त्रणे गृहस्थानां परमनिर्वृतिजनको धर्मः, किंविशिष्टानामित्याह - गृहवासमध्ये वसतामित्यत्र गृहशब्देन पाशकल्पाः पुत्रकलत्रादयो गृह्यन्ते, तन्मध्ये वसतामनादिभवाभ्यासादकारणं स्नेहबन्धनं, एतच्चिन्तनीयमित्यष्टमं स्थानम् ८ । तथा आतङ्कस्तस्य वधाय भवति, आतङ्कः - सद्योघाती विशुचिकादिरोगः से-तस्य गृहिणो धर्मबन्धुरहितस्य वधायविनाशाय भवति, तथा वधश्वाने कवधहेतुः एवं चिन्तनीयमिति नवमं स्थानम् ९ । तथा संकल्पः तस्य वधाय भवति, संकल्पः - इष्टानिष्टप्रयोग संप्रयोगप्राप्तिजो मानस आतङ्कस्तस्य गृहिणः, तथा चेष्टायोगात् मिध्याविकल्पाम्यासेन ग्रहादिप्राप्तेर्वधा भवति इत्येतच्चिन्तनीयमिति दशमं स्थानम् १० । तथा सोपक्लेशो गृहवास इति सहोपक्लेशैः सोपक्लेशो गृहिवासो - गृहाश्रमः, उपक्लेशाः - कृपिपाशुपाल्य वाणिज्याद्यनुष्ठानानुगताः पण्डितजन गर्हिताः शीतोष्ण श्रमादयः, घृतलवणचिन्तादयश्चेत्येवं चिन्तनीयमित्येकादशं स्थानं ११ । तथा निरुपक्लेशः पर्याय इति, एभिरेवोपक्लेशे रहितः प्रव्रज्यापर्यायः, अनारंभी कुचिन्तापरिवर्जितः श्लाघनीयो विदुषामित्येवं चिन्तनीयमिति द्वादशं स्थानं १२ । तथा बन्धो गृहवासः सदा तद्धेत्वनुष्ठानात्, कोशकारकीटकवत् इत्येतचिन्तनीयं इति त्रयोदशं स्थानं १३ । तथा मोक्षः पर्यायोsaatतं कर्म निगड विगमान्मुक्तवदित्येवं चिन्तनीयमिति चतुर्द्दशं स्थानं १४ । अत एव सावद्यो गृहवास इति सावद्यः - सपापः प्राणातिपातमृषावादादिप्रवृत्तेरित्येतच्चिन्तनीयमिति पश्चदर्श स्थानम् १५ । एवमनवद्यः पर्याय इत्यपाप इत्यर्थः, अहिंसादिपालनात्मकत्वादेतच्चिन्तनीयमिति षोडशं स्थानम् १६ । तथा बहुसाधारणा गृहिणां कामभोगा इति, बहुसाधारणाः- चौरराजकुलादिसामान्या गृहिणां - गृहस्थानां कामभोगाः पूर्ववत्, एतश्चिन्तनीयमिति सप्तदर्श
अष्टादश: स्थानानि सू० २१
॥ २०० ॥
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
अष्टादश
साधु
स्थानानि ०२१
श्रीदशवै०
स्थानम् १७। तथा प्रत्येकं पुण्यपापमिति, मातापित्कलत्रादिनिमित्तमप्यनुष्ठितं पुण्यपापं प्रत्येकं प्रत्येकं-पृथक् पृथक् येनानुष्ठितं तस्य कर्तुरेवैतदिति भावार्थः । एवमष्टादशं स्थानम् १८। एतदन्तर्गतो वृद्धाभिप्रायेण शेषग्रन्थः समस्तोऽत्रैव, अन्ये तु व्याचक्षते-सोपक्लेशो गृहिवास इत्यादिषु षट्सु स्थानेषु सप्रतिपक्षेषु स्थानत्रयं गृह्यते, एवं च बहुसाधारणा गृहिणां कामभोगा इति चतुर्दशं स्थानं, प्रत्येकं पुण्यपापमिति पञ्चदशमं स्थानं, शेषाण्यभिधीयन्ते, तथाऽनित्यं खल्वित्यनित्यमेव नियमतो भो! इत्यामन्त्रणे मनुष्याणां-पुंसां जीवितमायुः, एतदेव विशेष्यते-कुशाग्रजलबिन्दुचञ्चलं सोपक्रमत्वादनेकोपद्रवविषयत्वादत्यन्तासारं, तदलं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति षोडशं स्थानं १६ । तथा बहुं च खलु भो! पापं कर्म प्रकृतं बहु च चशब्दात् क्लिष्टं च खलुशब्दोऽवधारणे, बद्धं च पापकर्म चारित्रमोहनीयादि, प्रकृतं-निर्वर्तितं मयेति गम्यते, श्रामण्यप्राप्तावप्येवं क्षुद्रबुद्धिप्रवृत्तेः, नहि प्रभूतक्लिष्टकर्मरहितानामेवमकुशला बुद्धिर्भवति, अतो न किश्चिद्गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति सप्तदशं स्थानं १७ । पावाणं चेत्यादि, पापानां च-अपुण्यरूपाणां चशब्दात्पुण्यरूपाणां च, खलु भो! कृतानां कर्मणां, खलुशब्दः कारितानुमतविशेषणार्थः, भो इति शिष्यामन्त्रणे, कृताना-मनोवाक्काययोगेरोघतो निवर्तितानां कर्मणां-ज्ञानावरणीयावसातावेदनीयादीनां प्राक्-पूर्वमन्यजन्मसु दुश्चरितानां-प्रमादकषायजदुश्चरितजनितानि, दुश्चरितानि कारणे कार्योपचारात् , दुश्चरितहेतूनि वा दुश्चरितानि, कार्ये कारणोपचारात् , एवं दुष्पराक्रान्तानांमिथ्यादर्शनाविरतिजदुष्पराक्रान्तजनितानि दुष्पराक्रान्तानि, हेतौ फलोपचारात् , दुष्पराक्रान्तहेतूनि वा दुष्पराक्रान्तानि, फले हेतूपचारात , इह च दुश्चरितानि मद्यपानाश्लीलानृतभाषणादीनि, दुष्पराक्रान्तानि तु वधबन्धनादीनि, तदमीषां एवं-
च खलुशब्दात संप्रत्युपेक्षितव्यातदेव विशेष्यते पन्त,
२०१॥
Jain Education Intera!
For Private & Personel Use Only
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति ०
साधु० श्रीदशवे० चू० १
॥ २०२ ॥
Jain Education Internation
भूतानां कर्मणां वेदयित्वाऽनुभूय, फलमिति वाक्यशेषः, किं १, मोक्षो भवति - प्रधानपुरुषार्थो भवति, नास्त्यवेदयित्वा न भवति अननुभूय, अनेन सकर्मकमोक्षव्यवच्छेदमाह - इष्यते च स्वल्प कर्मोपेतानां कैश्चित्सहकारिनिरोधतस्तत्फलादानवादिभिस्तत्, तदपि नास्त्यवेदयित्वा मोक्षः, तथारूपत्वात् कर्मणः, स्वफलादाने कर्मत्वायोगात्, तपसा वा क्षपयित्वा - अनशनप्रायश्चित्तादिना वा विशिष्टक्षायोपशमिकशुभ भावरूपेण तपसा प्रलयं नीत्वा, इह च वेदनमुदयप्राप्तस्य व्याधेरिवानारब्धोपक्रमस्य क्रमशः अन्यानिबन्धन परिक्लेशेन, तपःक्षपणं तु सम्यगुपक्रमेणानुदीर्णोदीरणदोषक्षपणवद्, अन्यनिमित्तमुपक्रमेणापरिक्लेशमित्यतस्तपोऽनुष्ठानमेव श्रेय इति न किञ्चिगृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमित्यष्टादशं पदं भवति - अष्टादशं स्थानं भवति १८ । २१ । भवति चात्र श्लोकः, अत्रेति अष्टादशस्थानार्थव्यतिकरे, उक्तानुक्तार्थ संग्रहपर इत्यर्थः, श्लोक इति च जातिपरो निर्देशः, ततश्च श्लोकजातिरनेकमेदा भवतीति प्रभूतश्लोकोपन्यासेऽपि न विरोधःजया च धम्मं, अणज्जो भोगकारणा । से तत्थ मुच्छिए वाले, आयइं नावबुज्झइ ॥ ४८२ ॥ जया ओहाविओ होइ, इंदो वा पडिओ छमं । सबधम्मपरिब्भट्ठो, स पच्छा परितप्पइ ॥ ४८३ ॥ जया अ वंदिमो होइ, पच्छा होइ अवंदिमो । देवया व चुआ ठाणा, स पच्छा परितप्पड़ ॥४८४ ॥ जया अ पूइमो होइ, पच्छा होइ अपूइमो । राया व रजपब्भट्ठो, स पच्छा परितप्पइ ॥ ४८५ ॥ जया अमाणिमो होइ, पच्छा होइ अमाणिमो । सिट्ठि व कब्बडे छूढो, स पच्छा परितप्पइ ॥ ४८६ ॥
भ्रष्टशीलस्य दोषः
गा. ४८२४८६
U॥ २०२ ॥
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति-
साधु
भ्रष्टशीलस्य दोषः मा.४८७. ४८९
श्रीदशवै०
बा
॥२०३॥
जया अ थेरओ होइ, समइकंतजुवणो । मच्छुत्व गलं गिलित्ता, स पच्छा परितप्पइ ॥ ४८७ ॥ | जया अ कुकुडुंबस्स, कुतत्तीहिं विहम्मइ । हत्थी व बंधणे बद्धो, स पच्छा परितप्पइ ॥ ४८८ ॥
" पुत्तदारपरीकिन्नो, मोहसंताणसंतओ । पंकोसन्नो जहा नागो, स पच्छा परितप्पइ ॥ ४८९ ॥
जयायेति-यदा चैवमष्टादशसु व्यावर्तनकारणेषु सत्स्वपि जहाति-त्यजति धर्म-चारित्रलक्षणं, अनार्य इत्यनार्य इवानार्यो-म्लेच्छचेष्टितः, किमर्थमित्याह-भोगकारणात्-शब्दादिभोगनिमित्तं स-धर्मत्यागी, तत्र-तेषु भोगेषु मूञ्छितोगृद्धो बालोऽज्ञः, आयति-आगामिकालं नावबुध्यते-न सम्यगवगच्छतीति ॥ ४८२ ॥ एतदेव दर्शयति-जया उत्ति, यदाऽवधावितोऽपसतो भवति संयमसुखविभूतेः, उत्प्रव्रजित इत्यर्थः, इन्द्रो वेति-देवराज इव पतितःक्ष्मां-क्ष्मां गतः, स्वविभवभ्रंशेन भूमौ पतित इतिभावः, क्षमा-भूमिः, सर्वधर्मपरिभ्रष्टः-सर्वधर्मेभ्य:-क्षान्त्यादिभ्यः आसेवितेभ्योऽपि यावत्प्रतिज्ञमननुपालनात् लौकिकेभ्योऽपि वा गौरवादिभ्यः परिभ्रष्ट:-सर्वतश्युतः, स पतितो भूत्वा पश्चान्मनागू मोहावसाने परितप्यते, किमिदमकार्य मयानुष्ठितमित्यनुतापं करोतीति ।। ४८३ ।। जया येति, यदा च वन्द्यो भवति श्रमणपर्यायस्थो नरेन्द्रादीनां पश्चाद्भवति उनिष्क्रान्तः समवन्धः तदा देवता इव काचिदिन्द्रवर्जा स्थानच्युता सती स पश्चात्परितप्यते इति एतत्पूर्ववदेवेति ॥ ४८४ ॥ जया वेति, यदा च पूज्यो भवति वस्त्रपात्रादिभिः श्रामण्यसामर्थ्याल्लोकानां पश्चाद्भवत्युत्प्रव्रजितोऽपूज्यो लोकानामेव तदा राजेव राज्यपदभ्रष्टो महतो भोगाद्वियुक्तः (विप्रमुक्तः) स पश्चात्प
२०३॥
Jain Education Interna
For Private & Personel Use Only
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु० श्रीदशवै०
भ्रष्टशील|स्य दोषः गा.४८७४९१
॥२०४॥
रितप्यत एवेति पूर्ववदेवेति ॥ ४८५ ॥ तथा जया येति, यदा च मान्यो भवति अभ्युत्थानाज्ञाकरणादिना माननीयः शीलप्रभावेण पश्चावत्यमान्यस्तत्परित्यागेन, तदा श्रेष्ठीव कर्बटे-महाक्षुद्रसन्निवेशे क्षिप्तोऽमात्यः सत्परितप्यत, इति, एतत्समानं पूर्वेणेति ॥ ४८६ ॥ जया येति, यदा च स्थविरो भवति स त्यक्तसंयमो वयःपरिणामेन, एतद्विशेषप्रदर्शनायाह-समतिक्रान्तयौवनः, एकान्तस्थविर इतिभावः, तदा विपाककटुकत्वाद्भोगानां मत्स्य इव गलं-बडिशं गिलित्वाऽभिगृह्य तथाविधकर्मलोहकण्टकविद्धः सन् स पश्चात्परितप्यत इत्येतदपि समानं पूर्वेणेति ॥ ४८७ ॥ एतदेव स्पष्टयति-जया य कुकुडुंबस्सेत्यादि, कुकुटुम्बस्य-कुत्सितकुटुम्बस्य कुतप्तिभिः-कुत्सितचिन्ताभिरात्मनः संतापकारिणीभिर्विहन्यते-विषयमोगान् प्रति विघातं नीयते तदा स मुक्तसंयमः सन् परितप्यते पश्चात् , क इव ?-यथा हस्ती कुकुटुम्बबन्धनबद्धः परितप्यते ।। ४८८ ॥ एतदेव स्पष्टयति-पुत्रदारेति, पुत्रदारपरिकीर्णो-विषयसेवनात्पुत्रकलत्रादिभिः सर्वतो विक्षिप्तो मोहसन्तानसन्ततो-दर्शनादिमोहनीयकर्मप्रवाहेण व्याप्तः, क इव-पङ्कावसन्नो यथा नाग:-कईमावमनो वनगज इव स पश्चात्परितप्यते-हा! हा! किं मयेदं असमञ्जसमनुष्ठितमिति ॥ ४८९ ।। अज्ज आहं गणी हुँतो, भाविअप्पा बहुस्सुओ। जइऽहं रमतो परिआए, सामन्ने जिणदेसिए ॥४९०॥ देवलोगसमाणो अ, परिआओ महेसिणं । रयाणं अरयाणं च, महानरयसारिसो ॥ ४९१ ॥
अमरोवमं जाणिअ सुक्खमुत्तमं, रयाण परिआइ तहाऽरयाणं ।
इव स पचासन्ततोदर्शनादिमोहनीयति-पुत्रदारेति, पुत्रदारवाय
२०४॥
Jain Education Interns
For Private & Personel Use Only
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु०
शीलस्य
श्रीदशवै.
दोषाः
गा. ४९२| ४९५
॥२०५॥
निरओवमं जाणिअ दुक्खमुत्तम, रमिज तम्हा परिआइ पंडिए ॥ ४९२ ॥ धम्माउ भटुं सिरिओ अवेयं, जन्नग्गिविज्झामिवऽप्पतेअं। हीलंति णं दुविहिअं कुसीला, दाढड्डिअं घोरविसं व नागं ॥ ४९३ ।। इहेवऽधम्मो अयसो अकित्ती, दुन्नामधिजं च पिहजणमि । चुअस्स धम्माउ अहम्मसेविणो, संभिन्नवित्तस्स य हिट्ठओ गई ॥ ४९४ ॥ भुजित्तु भोगाइं पसज्झचेअसा, तहाविहं कटु असंजमं बहुं।
गई च गच्छे अणभिज्झि दुहं, बोही असे नो सुलहा पुणो पुणो ॥ ४९५॥ कश्चित् सचेतनो नर एवं च परितप्यत इत्याह-अज्जत्ति, अद्य तावदह-अद्य-अस्मिन् दिवसेऽहमित्यात्मनिर्देशे, गणी स्यां-आचार्यों भवेयं, भावितात्मा-प्रशस्तआगम(योग)भावनाभिः, बहुश्रुत-उभयलोकहितबह्वागमयुक्तः, यदि किं स्वादित्याह-यदि अहमरमिष्यं-रतिमकरिष्य, पर्याये-प्रव्रज्यारूपे, सोऽनेकमेद इत्याह-श्रामण्ये-श्रमणानां सम्बन्धिनि, सोऽपि शाक्यादिभेदभिन्न इत्याह-जिनदेशिते-निर्ग्रन्थसम्बन्धिनीति ॥४९०॥ अवधानोत्प्रेक्षिणः स्थिरीकरणार्थमाह-देवलोकसमाणोति, देवलोकसमानस्तु-देवलोकसदृश एवं पर्याय:-प्रव्रज्यारूपो महर्षीणां
१८
K
॥२०५॥
Jan Education Intem
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
भ्रष्टशीलस्य
दोषाः
साधु श्रीदशवै० चू०१ ॥२०६॥
गा. ४९१. ४९३
सुसाधूना, स्तानां-सक्ताना, पर्याय एवैति गम्यते, एतदुक्तं भवति, यथा देवलोके देवाः प्रेक्षणकादिव्यापृता अदीनमनसः तिष्ठन्स्येव संसाधनोऽपि, ततोऽपिक मावतः प्रत्युपेक्षणादिक्रियायां व्यापूताः, उपादेयषिशेषत्वात्प्रत्युपेक्षणादेरिति देवलोकसमान एवं पर्यायो महर्षीणां रतानामिति । अरतीनां च-भावतः सामाचार्यसक्तानां च, चशब्दात् विषयामिलापिणां च भगवल्लिंगविडम्बकानां क्षुद्रसत्वानां महानरकसदृशो-ौरवादितुल्यस्तत्कारणत्वान्मानसदुःखातिरेकात् तथा विडम्बनाञ्चेति ॥ ४९१ ।। एतदुपसंहारेणैव निगमयनाह-अमर ति, अमरोपमं उक्तन्यायादेवसदृशं ज्ञात्वाविज्ञाय सौख्यमुत्तम-प्रधान प्रशमसौख्यं, केषामित्याह-रतानां पर्यायें-सक्तानां सम्यकप्रत्युपेक्षणादिक्रियाव्यङ्गये वि श्रामण्ये, तथा अरतानां पर्याय एक, किमित्याह-नरकोपमं-नरकतुल्यं ज्ञात्वा दु:खमुत्तमं-प्रधान, उक्तन्यायात् , यस्मादेवं रतारतविपाकस्तस्माद्रमेतासक्तिं कुर्यात्, केत्याह-पर्याय उक्तस्वरूपे पंडिता-शास्त्रार्थज्ञ इति ॥ ४९२ ॥ पर्यायन्युतस्यैहिकं दोषमाह-धम्माउ इति, धर्माद श्रमणधर्माद्भष्टं-च्युतं, श्रियोऽपेतं-तपोलक्ष्म्या अपगते, यज्ञाग्निमनिष्टोमाद्यनलं विध्यातमिव यागावसानेऽत्पतेजस, अल्पशब्दोऽभावे, तेजाशून्यं भस्मकल्पमित्यर्थः, हीलयन्ति-कदर्थयन्ति पतितस्त्वमिति पंक्यपसारणादिना, एन-उन्निष्क्रान्तं दुर्विहितमुनिष्क्रमणादेव दुष्टानुष्ठायिनं कुशीलास्तत्संयोगो(सङ्गो). चिता लोकाः, स एव विशेष्यते-दादुड्डिअंति, प्राकृतशैल्यादुद्धतदंष्ट्रं-उत्खातदंष्ट्रं घोरविषमिव-रौद्रविषमिव नागंसप्प, यज्ञाग्निसोपमानं लोकनीत्या प्रधानमावादप्रधानभावख्यापनार्थमिति ॥ ४९३ ।। एवमस्य भ्रष्टशीलस्यौषत ऐहिक दोषमभिधायैहिकामुष्मिकमाह-इहेकत्ति, इहैव-इहलोक एवाधर्म इति, अयमधर्मः फलेन दर्शयति
२०६॥
For Private
Personal Use Only
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु०
भीदशवै०
चू० १
॥२०७॥
यदुतायशः - अपराक्रमकृतं न्यूनत्वं तथाऽकीर्त्तिरदानपुण्यफलप्रवादरूपा, तथा दुर्नामधेयं च - पुराणः पतित इति कुत्सितनामधेयं च भवति, क्केत्याह - पृथग्जने - सामान्यलोकेऽपि, आस्तां विशिष्टलोके, कस्येत्याह-च्युतस्य- धर्मादुत्प्रवजितस्येतिभावः, तथाsधर्मसेविनः - कलत्रादिनिमित्तं षट्कायोपमर्दकारिणः, तथा संभिन्नवृत्तस्य चाखण्डनीय खण्डित - चारित्रस्य च क्लिष्टकर्मबन्धाद् अधस्ताद्गतिः- नरकेषु अवपात (धूपपात ) इति ।। ४९४ ॥ अस्यैव विशेषापायमाह-भुंजित्तु ति, स - उत्प्रव्रजितो भुक्तवा भोगान्-शब्दादीन् प्रसह्यचेतसा - धर्मनिरपेक्षतया प्रकटेन चित्तेन तथाविधं अज्ञोचितफलं कृत्वाऽमिनियसंयमं कृष्याद्यारम्भरूपं बहु-असन्तोषात्प्रभूतं स इत्थंभूतो मृतः सन् गतिं च गच्छत्यनभिध्यातांअभिध्याता - इष्टान तामनिष्टामित्यर्थः काचित्सुखाऽप्येवंभूता भवत्यत आह-दुःखां - प्रकृत्यैवासुन्दरां दुःखजननीं, बोधिश्चास्य जिनधर्मप्राप्तिश्वास्योपनिष्क्रान्तस्य न सुलभा पुनः पुनः प्रभूतेष्वपि जन्मसु दुर्लभैव, प्रवचनविराधकत्वादिति ।। ४९५ ॥ इमस्स ता नेरइअस्स जंतुणों, दुझेवणीअस्स किलेसवत्तिणो । पलिओवमं झिज्झइ सागरोवमं, किमंग पुण मज्झ इमं मणोदुहं ? ॥ ४९६ ॥ न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सइ, असासया भोगपिवास जंतुणो । न चे सरीरेण इमेण विस्सइ, अंविस्सई जीविअपजवेण मे ॥ ४९७ ॥
शुभ
चिन्तनं
गा. ४९६४९७
॥९०७||
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु०
श्रीदवे ० चू० १
॥२०८ ||
Jain Education Inter
जस्सेवमप्पा उ हविज निच्छिओ, चइज देहं न हु धम्मसासणं । तं तारिसं नो पइलंति इंदिआ, उविंति (त) वाया व सुदंसणं गिरिं ।। ४९८ ॥
इचैव संपस्सि बुद्धिमं नरो, आयं उवायं विविहं विआणिआ ।
काण वाया अदु माणसेणं, तिगुत्तिगुत्तो जिणवयणमहिट्टिज्जासि ॥ ४९९ ॥ त्ति बेमि ॥ ॥ रइवक्का पढमा चूला समत्ता १ ॥
यस्मादेवं तस्मादुत्पन्न दुःखोऽप्येतदनुचिन्त्य नोत्प्रव्रजेदित्याह - इमस्सेति, अस्य तावदित्यात्मनिर्देशे, नारकस्य जन्तोः नरकमनुप्राप्तस्येत्यर्थः, दुःखोपनीतस्य - सामीप्येन प्राप्तदुःखस्य, क्लेशवृत्तेरेकान्तक्लेशचेष्टितस्य सतो नरक एव पल्योपमं क्षीयते सागरोपमं च यथाकर्म्मप्रत्ययं, किमङ्ग पुनर्ममेदं संयमारतिनिष्पन्नं मनोदुःखं तथाविधक्लेशधृति(दोष) रहितं १, एतत् क्षीयत एव एतच्चिन्तनेन नोत्प्रव्रजितव्यमिति ।। ४९६ ।। विशेषेणैतदेवाह-न मेति, न मम चिरंप्रभूतकालं दुःखमिदं - संयमारतिलक्षणं भविष्यति, किमित्याह-अशाश्वती-प्रायो यौवनकालावस्थायिनी भोगपि पासा - विषयतृष्णा, जन्तो:- प्राणिनः, अशाश्वतीत्व एव कारणान्तरमाह-न चेच्छरीरेणानेनापयास्यति-न यदि शरीरेणानेन करणभूतेन वृद्धस्यापि सतोऽपयास्यति, तथापि किमाकुलत्वं ?, यतोऽपयास्यति जीवितपर्ययेण - जीवितस्य व्यप
शुभचिन्तनं
गा० ४९८४९९
॥२०८॥
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति- साधु० भीदशबै०
॥२०९॥
गमेन-मरणेनैवं निश्चितः स्यादिति ॥ ४९७ ॥ अस्यैव फलमाह-जस्सेवत्ति, यस्येति-साधोरेवमुक्तेन प्रकारेणात्मा तु- 12 चिन्तनतुशब्दस्यैवकारार्थत्वादात्मैव भवेनिश्चितो दृढः यः सत्यजेद्देहं क्वचिद्विघ्न उपस्थिते, न तु धर्मशासनं-न पुनर्धर्माज्ञामिति, फलम् तंच तादृशं धर्मे निश्चितं न प्रचालयन्ति-संयमस्थानान्न प्रकम्पयन्ति इन्द्रियाणि-चक्षुरादीनि । निदर्शनमाह-उपपात- गा.४९७ वाता इव-संपतत्पवना इव सुदर्शनं गिरि-मेरु, एतदुक्तं भवति-यथा मेकं वाता न चालयन्ति, तथा तमपीन्द्रियाणीति ४९९ ॥ ४९८ ॥ उपसंहरबाह-इच्चेवत्ति, इत्येवमध्ययनोक्तं दुष्प्रयोगजीवित्वादि संप्रेक्ष्याऽऽदित आरम्य, यथा यदृष्ट्वा बुद्धिमान्नरः सम्यग्बुद्धथुपेत आयमुपायं विविधं विज्ञाय आय:-सम्यग्ज्ञानादेरुपायस्तत्साधनप्रकार: कालविनयादिविविधोऽनेकप्रकारस्तं ज्ञात्वा, किमित्याह-कायेन वाचाऽथवा मनसा-त्रिभिरपि करणैर्यथाप्रवृत्तः, त्रिगुप्तिगुप्तः सन् जिनवचनमहेंदुपदेशमधितिष्ठेत यथाशक्त्या तदक्कक्रियापालनपरो भयाद भावाय सिद्धौ तच्चतो मुक्तिसिद्धेः ॥ ४९९ ।। ब्रवीमीति पूर्ववत् ।।
समाप्तं रतिवाक्याध्ययनमिति चूला १ ॥
व्याख्यातं प्रथमचूडाध्ययनम् , अधुना द्वितीयमारभ्यते, अस्यौषतः सम्बन्धः प्रतिपादित एव, विशेषतस्त्वनन्तराध्ययने सीदतः स्थिरीकरणमुक्तं, इह तु विविक्तचर्योच्यत इत्ययमभिसम्बन्धः
| ॥२०९॥
For Private
Personal Use Only
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
आया
साधु भीदशवै.
दृष्टान्तः गा. ५००
॥२१०॥
चूलिअं तु पवक्खामि, सुअं केवलिभासि । जं सुणित्तु सुपुण्णाणं, धम्मे उप्पजए मई ॥ ५० ॥ अणुसोअपट्ठिअबहुजणंमि, पडिसोअलद्धलक्खेणं । पडिसोअमेव अप्पा, दायबो होउकामेणं ॥ ५०१ ॥ अणुसोअसुहो लोओ, पडिसोओ आसवो सुविहिआणं । अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो ॥ ५०२ ॥ तम्हा आयारपरक्कमेणं, संवरसमाहिबहुलेणं।
चरिआ गुणा अ नियमा, अ हुंति साहूण दट्ठव्वा ॥ ५०३ ॥ चूलियंति, चूडां-प्राग्व्यावर्णितशब्दार्थां तुशब्दविशेषितां भावचूडा, प्रवक्ष्यामीति-प्रकर्षणावसरप्राप्ताभिधानलक्षणेन कथयामि, श्रुतं केवलिभाषितमिति, इयं हि चूडा श्रुतं-श्रुतज्ञानं वर्तते, कारणे कार्योपचाराद्, एतच्च केवलिभाषितं
अनन्तरमेव केवलिना प्ररूपितमिति सफलं विशेषणं, एवं च वृद्धवाद:-"कयाचिदार्ययाऽसहिष्णुः कूरगडुकप्रायः संयतश्चातुMमासिकादौ उपवासं कारितः, स तदाराधनया मृत एव, ऋषिघातिकाऽहमित्युद्विग्नाऽसौ तीर्थकरं पृच्छामीति गुणावर्जित
२१०॥
Jain Education Internal
For Private & Personel Use Only
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
सुमतिसाधु० श्रीदशवै०
॥२११॥
देवतया नीता श्रीसीमन्धरस्वामिपादान्तिके, परिपृष्टो भगवान् , अदुष्टचित्ताऽघातिकेत्यभिधाय भगवतेमां चूडां ग्राहितेति," का इदमेव विशेष्यते-यां श्रुत्वा-आकये सपुण्यानां-कुशलानुघन्धिपुण्ययुक्तानां प्राणिनां, धर्मे-अचिन्त्यचिन्तामणिकल्पे INगा.५० चारित्रधर्मे उत्पद्यते मतिः-संजायते भावतः श्रद्धा, अनेन चारित्रं चारित्रबीजं चोपजायत इत्येतदुक्तं भवति ॥ ५०० ।। ५०३ एतद्धि प्रतिज्ञासूत्रं, इह चाध्ययने चर्यागुणा अभिधेयास्तत्प्रवृत्तौ मूलपादभूतमिदमाह-अणुसोएत्ति, अनुश्रोताप्रस्थितेनदीपूरप्रवाहपतितकाष्ठवद् विषयकुमार्गद्रव्यक्रियानुकूल्येन प्रवृत्ते बहुजने तथाविधाभ्यासात् प्रभूतलोके तथाप्रस्थानेनो. दधिगामिनि, किमित्याह-प्रतिश्रोतोलब्धलक्ष्येण-द्रव्यतस्तस्यामेव नद्यां कथञ्चिदेवतानियोगात् प्रतीपश्रोताप्राप्तलक्ष्येण, भावतस्तु विषयादिवपरीत्यात्कथञ्चिदवाप्तसंयमलक्ष्येण प्रतिश्रोत एव दुरपाकरणीयमप्यपाकृत्य विषयादि संयमलक्ष्याभिमुखमेवात्मा-जीवो दातव्यः-प्रवर्त्तयितव्यो भवितुकामेन-संसारसमुद्रपरिहारेण मुक्ततया भवितुकामेन साधुना, न क्षुद्रजनाचरितान्युदाहरणीकृत्यासन्मार्गप्रवणं चेतोऽपि कर्तव्यमपित्वागमैकप्रवणेनैव भवितव्यमिति, उक्तं च-"निमित्तमासाद्य यदेव किश्चन, स्वधर्ममार्ग विसृजन्ति बालिशाः। तपाश्रुतज्ञानधनास्तु साधवो, न यान्ति कृच्छ्रे परमेऽपि विक्रियाम् ॥१॥ तथा-कपालमादाय विपन्नवाससा, वरं द्विषद्वेश्मसमृद्धिरीक्षिता । विहाय लजां न तु धर्मवैशसे, सुरेन्द्रसार्थेऽपि समाहितं मनः॥२॥ तथा-पापं समाचरति वीतघृणो जघन्यः, प्राप्यापदं सघृण एव विमध्यबुद्धिः। प्राणात्ययेऽपि न तु साधुजन: स्वधूचं, वेला समुद्र इव लङ्कयितुं समर्थः ॥३॥" इत्यलं प्रसंगेनेति ॥ ५०१॥ अधिकृतमेव स्पष्टयबाह-अणुसोएत्ति, अनुश्रोतासुखो लोकः उदकनिम्नाभिसर्पणवत् प्रवृत्त्याऽनुकूलविषयादिसुखो लोका, कर्मगुरुत्वात् , प्रतिश्रोत एव त. ॥२१॥
Jain Education Inteme
For Private & Personel Use Only
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु० श्रीदato चू० २
॥२१२॥
Jain Education Inter
स्माद्विपरीत आश्रवः - इन्द्रियविजयादिरूपः परमार्थपेशलः कायवाङ्मनोव्यापारः, आश्रमो वा व्रतग्रहणादिरूपः सुविहितानां - साधूनां, उभयलोके फलमाह-अनुश्रोतः संसारः शब्दादिविषयानुकूल्यं संसार एव, कारणे कार्योपचाराद्, यथा “विषं मृत्युः, दधि पुषी प्रत्यक्षो ज्वरः, " प्रतिश्रोत उक्तलक्षणः, तस्येति पञ्चम्यर्थे षष्ठी " सुपां सुपो भवन्तीति " वचनात्, तस्मात्संसारादुत्तारः उत्तरणमुत्तारो, हेतौ फलोपचारात्, यथा- "आयुर्धृतं तन्दुलान्वर्षति पर्जन्य" इति ॥५०२॥ तम्हेति, यस्मादेतदेवमनन्तरोदितं तस्मादाचारपराक्रमेणेत्याचारे- ज्ञानादौ पराक्रम: - प्रवृत्तिबलं यस्य स तथाविध इति गमकत्वाद्बहुव्रीहि:, तेनैवंभूतेन साधुना संवरसमाधिबहुलेनेति - संवरे - इन्द्रियादिविषये समाधिः - अनाकुलत्वं बहुलं - प्रभूतं यस्य स तथाविध इति, समासः पूर्ववत् तेनैवंविधेन सताऽप्रतिपाताय विशुद्धये च किमित्याह-चर्या - भिक्षु भावसाधनी ह्या नियतवासादिरूपा गुणाश्च-मूलोतरगुणरूपाः, नियमाश्च - उत्तरगुणानामेव पिण्डविशुद्धयादीनां स्वकाला सेवन नियोगा भवन्ति साधूनां द्रष्टव्या इति, एते चर्यादयः साधूनां द्रष्टव्या भवन्ति, सम्यग्ज्ञानासेवनप्ररूपणारूपेणेति ॥ ५०३ ॥ अनि अवासो समुआणचारिआ, अन्नायउञ्छं परिक्कया अ । अप्पोवही कलहविवज्जणा य, विहारचरिआ इसिणं पसत्था ॥ ५०४ ॥ आइन्ओमाणविवज्जणा अ, ओसन्नदिट्ठाहडभत्तपाणे । संसकपेण चरिज भिक्खू, तज्जायसंसट्ट जई जइज्जा ॥ ५०५ ॥
उपदेशः
गा. ५०४.
५०५
॥२१२॥
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपदेशः गा. ५०६.
५०८
सुमति
अमज्जमंसासि अमच्छरीआ, अभिक्खणं निविगइं गया अ। साधु श्रीदशवै०
अभिक्खणं काउस्सग्गकारी, सज्झायजोगे पयओ हविज्जा ॥ ५०६ ॥ ण पडिन्नविज्जा सयणासणाई, सिजं निसिजं तह भत्तपाणं ।
गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तभावं न कहिंपि कुज्जा ॥ ५०७ ॥ ॥२१॥
गिहिणो वेआवडिन कुज्जा, अभिवायणवंदणप्रअणं वा।
असंकिलिटेहिं समं वसिज्जा, मुणी चरित्तस्स जओ न हाणी ॥ ५०८ ॥ चर्यामाह-अनिएएति, अनियतवासो मासकल्पादिना अनिकेतवासो वा-अगृहे-उद्यानादौ वासः, तथा समुदा. नचर्या-अनेकत्र याचितभिक्षाचरणं, अज्ञातोल्छ-विशुद्धोपकरणग्रहणविषयं, पइरिक्कया य-विजनेकान्तसेविता च, अल्पोपधित्वं-अनुल्बणयुक्तस्तोकोपधिसेवित्वं, कलहविवर्जनाच-तथा तद्वासिजनभण्डनविवर्जना, विवर्जनं विवर्जना श्रवणकथादिनापि वर्जनमित्यर्थः । विहारचर्या-विहरणस्थितिः, विहरणमर्यादा, इयमेवंभृता ऋषीणां-साधूनां, प्रशस्ता-व्या
क्षेपामावादाज्ञापालनेन भावचरणसाधनात्पवित्रेति ।।५०४॥ विहारचर्या ऋषीणां प्रशस्तेत्युक्तं, तद्विशेषोपदर्शनायाह-आइPण्णेत्ति-आकीर्णमवमानविवजना च विहारचर्या ऋषीणां प्रशस्तेति, तत्राकीर्ण-राजकुलसंखड्यादि, अवमानं-स्वपक्षपर
| ॥२१॥
Jain Education Internation
For Private & Personel Use Only
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
समति-
उपदेशः गा. ५०५.
साधु श्रीदशवै०
॥२१४॥
पक्षप्राभूत्य लोकाबहुमानादि, अस्य विवर्जन, आकीर्णे हस्तपादादिलूषणदोषाद् , अवमाने अलामाधाकर्मादिदोषादिति, तथोN समष्टाहतं-प्राय उपलब्धमुपनीतं, उत्सनशब्दः प्रायो वृत्ती वर्तते, यथा “देवा उस्सन सायं वेयण वेयंति", किमित्याह
भक्तपान-ओदनारनालादि, इदं चोत्सन्नदृष्टाहृतं, यत्रोपयोगः शुद्ध्यति, त्रिगृहान्तरादारत इत्यर्थः, "भिक्खग्गाही एगत्थ कुणह, बीओ अ दोसु उवजोगमिति" वचनाद् , इत्येवम्भूतमुत्सन्नं दृष्टाहृतं भक्तपानमृषीणां प्रशस्तमिति योगा, तथा संसृष्टकल्पेन-हस्तमात्रकादिसंसृष्टविधिना चरेद्भिक्षुरिति उपदेशः, अन्यथा पुरस्कर्मादिदोषात् , संसृष्टमेव विशिनष्टि-तज्जात संसृष्ट इत्यामगोरसादिसमानजातीयसंसृष्टे हस्तमात्रकादौ यतिर्यतेत-यत्ने कुर्याद् , अतजातसंसृष्टे संसर्जनादिदोषादिति, अनेनाष्टमङ्गसूचनं, तद्यथा-" संसंटे हत्थे संसट्टे मत्ते सावसेसे दवे" इत्यादि, अत्र प्रथमो भङ्गः श्रेयान् , शेषाश्च चिन्त्या इत्यादि ॥५०५ ।। उपदेशाधिकार एवेदमाह-अमज्जेति, अमद्यमांसाशी भवेदिति योगः, अमद्यपः अमांसाशी च स्यादेते च मद्यमांसे लोकागमप्रतीते एव, ततश्च यत्केचनाभिदधति-आरनालादिष्वपि संधानाद् ओदनाद्यपि प्राण्यङ्गत्वात्याज्यमिति, तदसत् ,अमीषां मद्यमांसवायोगात्, लोकशाखयोरप्रसिद्धत्वात् , संधानप्राण्यङ्गत्वतुल्यत्व चोदना स्वसाध्वी, अतिप्रसङ्गदोषात, द्रवत्वस्त्रीत्वतुल्यतया मूत्रपानमातृगमनादिप्रसङ्गात् इत्यलं प्रसङ्गेन । अक्षरगमनिकामात्रप्रक्रमात् , तथा अमत्सरी च-न परसंपवेषी च स्यात् , तथा अभीक्ष्णं-पुन: पुन: पुष्टकारणाभावे निर्विकृतिकश्च-निगेतविकृतिपरिभोगश्च भवेद्, अनेन परिभोगोचितविकृतीनामप्यकारणे प्रतिषेधमाह । तथाऽभीक्ष्णं गमनागमनादिषु, विकृतिपरिभोगेऽपि चान्ये । किमित्याहकायोत्सर्गकारी भवेद् ईपिथप्रतिक्रमणमकृत्वा न किश्चिदन्यत्कुर्यात् , तदशुद्धतापत्तेरितिभावः । तथा स्वाध्याययोगे
१४॥
For Private & Personel Use Only
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
उपदेशः
गा.५०९
साधु श्रीदशवै० चू०२
॥२१५॥
वाचनाद्यपचारव्यापार आचाम्लादौ प्रयतोऽतिशययत्नवान्भवेत्तथैव तस्य सफलत्वात् , विपर्यये उन्मादादिदोषप्रसङ्गादिति ॥५०६॥ किंच-न पडिपणवेज्जत्ति, न प्रतिज्ञापयेन्मासादिकल्पपरिसमाप्तौ गच्छन् भूयोऽप्यागतस्य ममैवैतानि दातव्यानीति न प्रतिज्ञा कारयेद् गृहस्थं, किमाश्रित्येत्याह-शयनासने शय्यां निषद्यां तथा भक्तपानमिति, तत्र शयनंसंस्तारकादि, आसनं-पीठकादि, शय्या-वसतिः, निषद्या-स्वाध्यायादिभूमिः, तथा-तेन प्रकारेण तत्कालावस्थानोचितेन भक्तपानं-खण्डखाद्यकद्राक्षापानकादिन प्रतिज्ञापयेत् ,ममत्वदोपात , सर्वत्र एतनिषेधमाह-ग्रामे-शालिग्रामादौ, कुले वाश्रावककुलादौ, नगरे-साकेतादौ, देशे वा-मध्यदेशादौ ममत्वभावं ममेदमिति, स्नेहमोहं न कचिदुपकरणादिष्वपि कुर्यात् तन्मलत्वाद दःखादीनामिति ।।५०७॥ उपदेशाधिकार एवाह-गिहिणोत्ति, गृहिणो-गृहस्थस्यं वैयावृत्त्यं-गृहिभावोपकाराय तत्कर्मस्वात्मनो व्यावृत्तभावं न कुर्यात् , स्वपरोभयाश्रेयासमायोजनदोपात् , तथाऽभिवादन-वाङ्नमस्काररूपं, वन्दनं-कायप्रणामलक्षणं, पूजनं च-वस्त्रादिभिः समभ्यर्चनं वा, गृहिणो न कुर्यादुक्तदोषप्रसङ्गादेव, तथैतद्दोषपरिहारायैव असंक्लिष्टैः-गृहिवैयावृत्त्यादिकरण संक्लेशरहितः साधुभिः समं वसेन्मुनिश्चारित्रस्य-मूलगुणादिलक्षणस्य यतो-येभ्यः साधुभ्यः सकाशान हानिः, संवासतस्तदकृत्यानुमोदनादिनेत्यनागतविषयं चेदं पूत्रं, प्रणयनकाले संक्लिष्टसाध्वभावादिति ॥५०८॥
ण या लभेजा निउणं सहायं, गुणाहिअं वा गुणओ समं वा। इक्कोऽवि पावाई विवजयंतो, विहरिज कामेसु असज्जमाणो ॥ ५०९ ॥
॥२१५॥
Jain Education Internationa
For Private & Personel Use Only
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु श्रीदशवै०
उपदेशः गा.५१० ५१४
॥२१६॥
संवच्छरं वावि परं पमाणं, बीअंच वासं न तर्हि वसिज्जा । सुत्तस्स मग्गेण चरिज भिक्खू, सुत्तस्त अत्थो जह आणवेइ ॥ ५१० ॥ जो पुवरत्तावररत्तकाले, संपेहए अप्पगमप्पगेणं। किं मे कडं किं च मे किच्चसेसं ?, किं सक्कणिजं न समायरामि ? ॥ ५११ ॥ किं मे परो पासइ? किं च अप्पा ?, किं वाऽहं खलिअंन विवज्जयामि । इच्चेव सम्म अणुपासमाणो, अणागयं नो पडिबंध कुजा ॥ ५१२ ॥ जत्थेव पासे कह दुप्पउत्तं, कारण वाया अद माणसेणं। तत्थेव धीरो पडिसाहरिजा, आइन्नओ खिप्पमिव क्खलीणं ॥ ५१३ ॥ जस्सेरिसा जोग जिइंदिअस्स, धिईमओ सप्पुरिसस्स निच्चं । तमाहु लोए पडिबुद्धजीवी, सो जीअई संजमजीविएणं ॥ ५१४ ।।
॥२१६॥
Jain Education Inter
For Private & Personel Use Only
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपदेश: गा.५१५
सुमति साधु श्रीदशवै०
चू०२ ॥ २१७॥
अप्पा खल्लु सययं रक्खिअव्वो, सविदिएहिं सुसमाहिएहिं । अरक्खिओ जाइपहं उवेइ,सुरक्खिओ सबदुहाण मुच्चइ ॥ ५१५ ।। तिबेमि
इइ विवित्तचरिया चूडा समत्ता २॥
॥इइ दसवेयालियं सुत्तं समत्तं ॥ "असंक्लिष्टैःसमं वसे"दित्युक्तमत्र विशेषमाह-ण येति, कालदोषान्न यदि लभेत-न यदि कथञ्चित्प्राप्नुयान्निपुणंसंयमानुष्ठानकुशलं सहायं-परलोकसाधनद्वितीयं, किंविशिष्टमित्याह-गुणाधिकं वा-ज्ञानादिगुणोत्कटं वा, गुणतः समं वा-तृतीयार्थे पञ्चमी गुणस्तुल्यं वा, वाशब्दाद्धीनमपि जात्यकाञ्चनकल्पं विनीतं वा, ततः किमित्याह-एकोऽपि संहननादियुक्तः पापानि-पापकारणान्यसदनुष्ठानानि विवर्जयन्-विविध-अनेक प्रकारैः सूत्रोक्तैः परिहरन्विहरेदुचितविहारेण कामेष्विच्छाकामादिष्वसज्यमानः-सङ्गमगच्छन् , एकोऽपि विहरेत् , न तु पार्श्वस्थादिपापमित्रसङ्गं कुर्यात् , तस्य दुष्टत्वात् , तथा चान्यैरप्युक्तं-" वरं विहां सह पन्नगर्भवेच्छठात्मभिर्वा रिपुभिः सहोषितुम् । अधर्मयुक्तैश्चपलैरपण्डितैर्न पापमित्रैः सह वर्तितुं क्षमम् ॥ १॥ इहैव हन्युर्भुजगा हि रोषिताः, धृतासयश्छिद्रमवेक्ष्य चारयः। असत्प्रवृत्तेन जनेन संगतः, परत्र चैवेह च हन्यते जनः ॥२॥" तथा-" परलोकविरुद्धानि, कुर्वाणं दूरतस्त्यजेत् । आत्मानं योऽभिसंधत्ते, सोऽन्यस्मै स्यात्कथं हितः ? ॥३॥" तथा-"ब्रह्महत्या सुरापानं, स्तेयं गुर्वङ्गनागमः। महान्ति पातकान्याहुरेभिश्च सह संगमम् ।। ४ ॥" इत्यादि |
IPI
२१७ ॥
१९
Jain Educat an inte
For Private Personal Use Only
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु मीदशवै. चु०२
॥ २१८॥
॥५०९॥ विहारकालमानमाह-संवच्छरं ति, संवत्सरं वाप्यत्र संवत्सरशन्देन वर्षासु चातुर्मासिको ज्येष्ठावग्रह उच्यते, उपदेश तमपि, अपिशन्दात् मासमपि, परं प्रमाणं-वर्षाऋतुबद्धयोरुत्कृष्टमेकत्र निवासकालमानमेतत् , द्वितीयं च वर्ष चशब्दस्य INगा. ५०९व्यवहित उपन्यासः, द्वितीय वर्ष च वर्षासु चशब्दान्मासं च ऋतुबद्धे न तत्र क्षेत्रे वसेत्, यत्रैको वर्षाकल्पो मासकल्पश्च कृतः, अपितु सङ्गदोषाद् द्वितीय तृतीयं च परिहत्य वर्षादिकालं ततस्तत्र वसेदित्यर्थः, सर्वथा, किंबहुना ?, सर्वत्रैव सूत्रस्य मार्गेण चरेद्रिक्षुरागमादेशेन वचेंतेति भावः, तत्रापि नौघत एव यथाश्रुतग्राही स्यात् , अपि तु सूत्रस्यार्थ:पूर्वापराविरोधितन्त्रयुक्तिपटितः पारमार्थिकोत्सर्गापवादगर्भो यथाऽऽज्ञापयति-नियुङ्क्ते तथा वर्चेत, नान्यथा, यथेहापवादतो | | नित्यवासेऽपि वसतावेव प्रतिमासादि साधूनां संस्तारकगोचरादिपरिवन, नान्यथा, शुद्धापवादायोगात् , इत्येवं वन्दनप्रतिक्रमणादिष्वपि तदर्थ प्रत्युपेक्षणेन अनुष्ठानेन वत, न तु तथाविधलोकहे तं परित्यजेत् , तदाशातनाप्रसङ्गादिति ॥५१॥ एवं च विविक्तचर्यावतोऽसीदनगुणोपायमाह-जोति, यः साधुः पूर्वरात्रापररात्रकाले, रात्रौ प्रथमचरमयोः प्रहरयोरित्यर्थी, संप्रेक्षते सूत्रोपयोगनीत्याऽऽत्मानं कर्मभूतं आत्मनैव करणभूतेन, कथमित्याह-किं मे कृतमिति, छान्दसत्वात्तृतीयार्थे षष्ठी, किं मया कृतं ? शक्त्यनुरूपं तपश्चरणादियोगस्य, किं च मम कृत्यशेषं-कर्त्तव्यशेषं उचितं ?, किं शक्यं-चयोऽवस्थानुरूपं वैयावृत्यादि न समाचरामि-न करोमि, तदकरणे हि तत्काल नाशयति ॥५११ ॥ तथा-कि मेति, कि मम [स्खलितं] पर:-स्वपक्षपरपक्षलक्षणः पश्यति, किंवाऽऽत्मा क्वचिन्मनाक् संवेगापमः, किं वाऽहं ओषत एव स्खलितं न विवर्जयामीत्येवं सम्यगनुपश्यन्ननेनैव प्रकारेण स्खलितं ज्ञात्वा सम्यगागमोक्तेन विधिना भूयः पश्येत् अनागतं न ॥ २१८॥
Jain Education Internationa
For Private & Personel Use Only
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
बाप्रतिवन्धं कुर्यात्-आगामिकालविषयं नासंयमप्रतिवन्धं करोति ॥५१२॥ कथमित्याह-जत्थेवेति, यत्रैव पश्यत्युक्तव- उपदेशः साधु परात्मदर्शनद्वारेण क्वचित्-संयमस्थानावसरे धर्मोपधिप्रत्युपेक्षणादौ दुष्पयुक्तं-दुर्व्यवस्थितमात्मानमिति गम्यते, केने- गा. ५१२श्रीदशवै० त्याह- कायेन वाचा अर्थ मानसेन-मन एव मानसं, करणत्रयेणेत्यर्थः, तत्रैव-तमिन्नेव संयमस्थानावसरे धीरो-बुद्धि
मान प्रतिसंहरेत-प्रतिसंहरति य आत्मानं, सम्यग्विधि प्रतिपद्यत इत्यर्थः, निदर्शनमाह-आकीर्णो जवादिमिर्गुणैर्जात्योऽश्व इति गम्यते, असाधारणविशेषणात् , तच्चेदं-क्षिप्रमिव-शीघ्रमेव खलिनं-कविकमिव, यथा जात्योऽश्वो नियमितगमननिमित्तं शीघ्रं खलिनं प्रतिपद्यते, एवं यो दुष्प्रयोगपरित्यागेन खलिनकल्पं सम्यग्विधि, एतावताउंशेन दृष्टान्त इति ॥ ५१३ ॥ यः पूर्वरात्रेत्याघधिकारोपसंहारायाह-जस्सरिसत्ति, यस्य साधोरीदृशाः स्वहितालोक(च)नप्रवृत्तिरूपा योमा-मनोवाकायव्यापारा जितेन्द्रियस्य-वशीकृतस्पर्शनादीन्द्रियकलापस्य धृतिमतः-संयमे सधृतिकस्य सत्पुरुषस्व-प्रमादजयात् महा. पुरुषस्य नित्यं-सर्वकालं सामायिकप्रतिपत्तेरारम्यामरणान्तं तमाहुलोंके प्रतिबुद्धजीविनं तमेवंभूतं साधुमाहुः-अमिदधति विद्वांसो लोके-प्राणिसंघाते प्रतिबुद्धजीविनं-प्रमादनिद्रारहितजीवितशीलं, स एवंगुणयुक्तः सन् जीवति संयम-18 जीवितेन-कुशलाभिसंधिभावात् सर्वथा संयमप्रधानेन जीवितेनेति ॥५१४॥ शास्त्रमुपसंहरबाह-उपदेशसर्वतचमाह-अप्पेति, आत्मा खल्विति-खलुशब्दो विशेषणार्थः, शक्तौ सत्यां परोऽपि, सततं-सर्वकालं रक्षितव्या-पालनीयः पारलौकिकापायेभ्यः, कथमित्युपायमाह-सर्वेन्द्रियैः-स्पर्शनादिमिः सुसमाहितेन-निवृत्तविषयव्यापारेणेत्यर्थः, अरक्षणरक्षणयोः फलमाह-अरक्षितः सन् जातिपन्थानं-जन्ममार्ग संसारमुपैति-सामीप्येन गच्छति । सुरक्षितः पुनर्यथामममप्रमादेन ॥२१९
Jan Education International
For Private
Personal use only
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
IM प्रशार
प्रशस्ति:
सुमति
सर्वदुःखेभ्यः-शारीरमानसेभ्यो विमुच्यते-विविध-अनेक प्रकारः अपुनर्ग्रहणपरमस्वास्थ्यापादनलक्षणैर्मुच्यते विमुच्यते साधु ा | ॥५१५॥ इति अवीमीति पूर्ववत् ॥ श्रीदशवै०
इति विविक्तचर्यानाम्नी द्वितीयचूला समाप्ता २ ॥ ॥ २२ ॥
॥ समाप्तेयं दशवैकालिकस्य लघुटीका ॥
- 40महात्तराया याकिन्या, धर्मपुत्रेण चिन्तिता । आचार्यहरिभद्रेण, टीकेयं शिष्यबोधिनी ॥१॥ दशवैकालिके टीकां विधाय यत् पुण्यमर्जितं तेन । मात्सर्यदुःखविरहाद् गुणानुरागी भवतु लोकः ॥ २॥
(लघुटीकाप्रणेतृणां प्रशस्ति:-) दशकालिकानुयोगात् , सूत्रव्याख्या पृथक्कृता । हरिभद्राचार्यकृतान्मोहाद्भच्याऽथवा मया ॥३॥ श्रीमद्बोधकशिष्येण, श्रीमत्सुमतिसूरिणा । विद्वद्भिस्तत्र नोद्वेगो, मयि कार्यों मनागपि ॥ ४ ॥ यस्माद् व्याख्याक्रमः प्रोक्तः, सूरिणा भद्रबाहुना । आवश्यकस्य नियुक्ती, व्याख्याक्रमविपश्चिता ॥५॥ सूत्रार्थः प्रथमो ज्ञेयो, नियुक्तिमिश्रितः ततः । सर्वैर्व्याख्याक्रमैयुक्तो, भणितव्यस्तृतीयकः ॥६॥
॥ २२०॥
Jain Education Inter
For Private Personal Use Only
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु ० श्रीदश०
॥ २२१ ॥
प्रमादकार्यविक्षेपचेतसां तदयं यया । क्रियया अवबोधार्थ साधूनां तु पृथक्कृतः ॥ ७ ॥ लब्ध्वा मानुष्यकं जन्म, ज्ञात्वा सर्वविदां मतम् । प्रमादमोहसंमूढा, वैकल्प्यं ये नयन्ति हि ॥ ८ ॥ जन्ममृत्युजराव्याधिरोगशोकाद्युपद्रुते । संसारसागरे रौद्रे, ते भ्रमन्ति विडम्बिताः ॥ ९ ॥
ये पुनर्ज्ञानसम्यक्त्व चारित्रविहितादराः । भवाम्बुधिं समुल्लङ्घ्य, ते यान्ति पदमव्ययम् ॥ १० ॥
ये भव्यान् प्रतिबोध्य जैनवचनैः स्याद्वादसंभूषितै- निर्वाणाश्रितचेतसो विदधिरे स(साधुमार्गश्रितान् । साधूनां विधिना च सूरिपदवीमारोपयाञ्चक्रिरे, ते श्रीमज्जिनदेवसूरिचरणा रक्षन्तु सङ्कं सदा ॥ ११ ॥
समाप्ता श्रीवैकालिक टीकेति ॥ ग्रंथाग्रं ३५००, मंगलमस्तुलेखक पाठकयोः । संवत् १६६२ वर्षे वैशाखबदि ४ भौमे लिखितं । शुभं भवतु ॥
प्रत्यन्तरे -
मूलं दयादानमुखाश्चतस्रः, शाखाः प्रशाखा नियमत्रतानि । पुष्पाणि संपत्प्रकराः फलं तु, मोक्षो भवेद् धर्मसुरद्वमस्य ॥११॥ इति दशवेकालिकलघुटीका समाप्ता ॥ छ ॥ शुभं भवतु || मंगलमस्तु ॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥ परमगुरुभ्यो नमः ॥ मंगलमस्तु ।। संवत् १५१६ वर्षे माघ वदि १ गुरौ अधे हि श्रीघोघा वेलाकूले महाराजाधिराजपातसाह श्रीकृ तबदीन
प्रशस्तिपुष्पिके
॥ २२१ ॥
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुष्पिका
सुमतिसाधु० श्रीदशबैक
महिम्मदराज्ये व्यापारी तनियुक्तः सं०सोमदत्तपंचकुलप्रतिपत्त्यै ॥ श्रीमद्धर्मभृतां वरिष्टतपसां पू०सत्यविशालप्रभृतीनां महात्मनां तेषामध्ययनार्थ पुस्तकमिदमलिखापयत् द्युम्नेन स्वार्थ तथा परोपकाराय ॥ [श्रीगणेशाय । श्रीवक्रतुठाय ॥] शुभं भवतु ॥
श्रीआणंदविमलमूरिगुरुभ्यो नमः पं०वीरविमलगणि ।
॥ २२२॥
॥ इति भगवच्छय्यं भवश्रुतकेवलिनियूढं श्रीमत्सुमतिसाधुमरिणा भवविरहाङ्कितबृहट्ठीकोद्धृतवृत्त्युपेतं ।
श्रीदशवैकालिकं समाप्तम् ।
श्रेष्ठिदेवचन्द्रलालभाई-जैन-पुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः॥
२२२॥
Jain Education Inteme
For Private
Personel Use Only
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुमति
साधु. श्रीदशवै० परि०
श्रीसुमतिसाधुसरिकृतलघुविवरणोपेतश्रीदशवैकालिकसूत्रस्य परिशिष्टानि ।
परि०१ स्त्राबकारादि
॥ २२३ ॥
प्रथमं परिशिष्टम् । श्रीदशवैकालिकसूत्रस्य सूत्राणां गाथानां च
अकारादिक्रमः आद्यांशः सूत्रस्य पृष्टाङ्क: आद्यांशः
सूत्रस्य पृष्ठाः
आद्यांशः गाथायाश्चाङ्क:
गाथायाश्चाङ्कः अइभूमि न गच्छेजा ८३ ५९ | अगुत्ती बंभचेरस्स २६७ ११३ | अजय भासमाणो य अईअंमि अ कालंमि २८५ १२० अम्गलं फलिईदारं १६८ ८४ | अजयं भुंजमाणो य भईयमि य कालंमि २८६ १२१ | अजयं आसमाणो य ३४ ४३, अजयं सयमाणो य
२८७ १२१ | अजयं चरमाणो य ३२ ४३ अजीवं परिणयं नच्चा | अकाले चरसी भिक्खू १६४ ८३. अजयं चिट्ठमाणो य ३३. ४३ | अन्ज आई गणी हुँतो
सूत्रस्य पृष्ठाः गाथायाश्चाङ्कः
३७ ४४ ३६ ४४
१३६ ४९०
N॥ २३ ॥
Jain Education Intel
For Private & Personel Use Only
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति साधु० मीदशवै.
परि०१ सूत्राबकारादि
परि०
२०४
॥ २२४॥
३६७
आद्यांशः सूत्रस्य पृष्ठाकः
आद्यांशः सूत्रस्य पृष्ठाहः आद्यांशः
सूत्रस्य पृष्ठाकः गाथायाश्चाः गाथायाश्चाहः
गाधायाश्वाहा अज्जिए पजिए वाषि २९२ १२१ | अधुवं जीवि नव्या ३६८ १४६ | अभिभूय कायेण परीसहाई ४७४ १९२ २९५ १२२ | अनिपअवासो समुआण
अमज्जमंसासि अमच्छरीमा ५०६ २१२ अट्ठ सुहुमाई पेहाए ३४७ १४०
चारिआ ५०४ २१३ | अमरोवर्म जाणिम अट्ठावए अनालीए २० अनिलेण न विएन बियावर ४६३ १८७
सुक्खमुत्तमं ४९२ अणायणे चरंतस्स ६९ ५४ | अन्नद्रं पगडं लय]
| अमोई वयणं कुज्जा
१४६ अणायारं परक्कम्म ३६६ १४६ | अन्नायउंछ चरई विसुद्ध ४४२ १७४ | अरसं विरसं वावि १५७ ७९ अणिलस्स समारंभ २४५ १०८ | अपुच्छिओ न भासिज्जा ३८१ १४९ अलं पासायखंभाणं ३०४ १२५ अणुन्नए नावणए
अप्पग्घे वा महग्धे वा ३२३ अलोल भिक्खू न रसेसु ४७७ १९४ अणुनवित्तु मेहावी १४२ ७५
अप्पणट्ठा परट्ठा वा २२० १०० अलोलुप अहए अमाई ४४८ १७७ अणुसोअपट्टिबबहुजणंमि ५०१ २१०
४२८ १६९ | अवण्णवायं च परम्मुहस्स ४४७ १७७ अणुसोमसुद्दो लोओ ५०२ २१० अप्पत्तियं जेण सेया ३८२ १४२ असई वोसट्टचत्तदेहे ४७३ १९२ अतितिणे अचवले ३६३ १४५ अप्पा खलु सययं रविवअव्वो५१५ २१७ असचमोसं सच्चं च अत्तट्ठा गुरुओ लुद्धो १९१ ९० अप्पे सिआ भोअणजार १३३ ७२ असणं पाणगं वावि अत्थंगयंमि आइये ३६२ १४३ | अबंभचरिमं घोरं २२४ १०२
१०८
" " " मदीणो वित्तिमेसिज्जा १८५ ८९ । अभिगम चउरो समाहिओ ४५९ १८५ । " " "
IN
७२
२८० १०६
२२४॥
an Education inten
For Private
Personal Use Only
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु०
जा
आद्यांशः
परि०१ सूत्राधकारादि
श्रीदश० परि०
॥२२५॥
सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः आद्यांशः सूत्रस्य पृष्ठाहः
आद्यांशः सूत्रस्य पृष्ठाः गाथायाश्चाङ्कः गाधायाश्चाङ्कः
गाथायाश्चाङ्कः असणं पाणगं वावि ११२ ६७ | अहो निच्चं तवो कम्मं २३१ १०४ | आयावयाहि चय सोगमल्लं १०
११६ ६८ | अंगपच्चंगसंठाणं ३९२ १५२ आलोयं थिग्गलं दारं ७४ ५५ ११८ ६८ अंतलिक्खत्ति णंबूआ ३३० १३४
भासण सयण जाण ३०६ १२० ६९ | आइन्नओमाणविवज्जणा अ ५०५ २१२ आसंदीपलिअंकेसु २६२ असंथडा इमे अंबा ३१० १२६ | आउकार्य न हिंसंति २३८ १०६
आसीविसोवावि परं सुरुट्ठो ४०३ असंसट्टेण हत्थेण
, विहिंसंतो २३९ १०६ आहरंती सिया तत्थ ८७ ६० असंसत्तं पलोइजा
आभोत्ताण नीसेसं १४८ ७६ इच्चेइयाई पंच महन्छयाई सू०९ ३४ अह कोई न इच्छिज्जा
| आयरिए आराहेह २०४ | इच्चेयं छज्जीवणियं. ५९ ५० अहं च भोगरायस्स
नाराहेइ
९२ | इच्चेच संपस्सिम बुद्धिमं महावरे चउत्थे भंते! आयरियपाया पुण अप्पसमा ४०८ १५९
नरो ४९९ २०९ अहावरे छठे भंते ! सू०८ ३४ मायरियं अग्गिमिवाहियग्गी ४३९ १७४ इच्चेसि छण्हं जीवनि, तचे, सू०५ आयारपन्नत्तिधरं ३८४ १५०
कायाणं सू०२ २७ , दोच्चे, सू०४ आयारप्पणिहिं लळू ३३५ १३७ इत्थिमं पुरिसं वावि १८८ ९० | पंचमे, सू०७ आयारमट्ठा विणयं पउंजे ४४० १७४ | इमस्स ता नेराअस्स जंतुणो ४९६ २०७ अहो जिणेहिं असावजा १५१ ७६ | आयावयंति गिम्हेसु २८ १७ | इह खलु भो! पापणं सू०२१ १९६
॥ २२५ ॥
Jain Education Intema
For Private & Personel Use Only
Il
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति०
साधु० श्रीदशवै ०
परि०
॥ २२६ ॥
Jain Education Internatio
आयांश:
इहलोगपारतहिअं. इहेऽधम्मो अयसो
अकिती इंगालं अगणि अधि
39
छारियं रासिं उग्गमं से अ पुच्छिज्जा उच्चारं पासवर्ण उज्जुप्पन्नो अणुविग्गो उदउलं अप्पणी कार्य बीयसंस
39
उद्देसिअं की अगडं
उद्देसियं कीयगढं
उप्पण्णं नाइहीलिजा उप्पलं परमं वावि
39
" "
आद्यांश:
आद्यांश:
सूत्रस्य पृष्ठाङ्क: गाथायावाङ्कः
सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः गाथायाबाङ्गः
१६. ११
२०० ९२
३७८ १४९ | उबद्दिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे ४७६ १९४ | एवं करंति संबुद्धा उबसमेण द्दणे कोहं २७३ १४६ एवं च अद्रुमन्नं वा २८२ ११८ दोसं २०८ बहूणं ९५ २३४ १०४ २९० १२१
" तु अगुणप्पेही " सगुणप्पेही
२०३ ९४
" धम्मस्स विणओ ओग़ाहरत्ता चलद्दत्ता
४१७ १६५
1
९० ६१
ओवायं विसमं खाणुं ६३. ५२ ३सिदेदि
१४०
३६० १४३ कयराई (णि) अट्ठ सुसाई ३४८ १४०.
१४५
१८२
८७
४
४९४ २०५ ३४२ १३८ ६६. ५२ ११५ ६८ ३५२ १४२ पंगतमवकमित्ता
१४९ ७६ ३४१ १३८ २३३ १०४
११४
६८
ઢ
१५८
१७३
१२
७९
८६
१७५ ८६
י לי
29 29 33
"
एणऽन्त्रेण अद्वेणं
"
"
एमेए समणा मुत्ता एयारिसे मद्दादोसे
पलगं दारगं साणं
ני
एवमाइ उ जा भासा
एवमेआणि जाणिजा
एवं उदउले ससिणिद्वे
७५
३
२
१२८ ७१
८१ ५८
२८४ १२०
३५०
१४९
९२ ६१
६९
उसकि ओसक्किमा १२२
सूत्रस्य : पृष्ठाङ्कः गाथायावाडः
कवि माउलिंगं च
कहन्तु कुजा सामन्तं कहूं चरे ? कहं चिट्ठे ? कंदं मूलं पलंबं वा कंसेसु कंसपारसु
कालं छंदोवयारं च
काले निक्खमे भिक्खू १६३.
६.
३८
१२९
४४
७१
२५९ १११ ४३५ १७१
८३
परि० १
सूत्राद्य
कारादि
।। २२६ ॥
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति०
साधु० श्रीद●
परि०
॥ २२७ ॥
Jain Education Internat
आद्यांश:
किं पुणो जे सुयग्गाही किं मे परो पासह किंच
आयांशः
सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः गायायाचाङ्कः
सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः गाथायाञ्चाङः
४३१ १६९ | गुणेहि साहु अगुणेहिऽसाहु ४४९ १७७ गुरुमिह सययं पडियरिय मुणी ४५३ १७८
१८ ६४ ९३ ६१ २६५ ११३
७८ ५८
अप्पा ५१२ २१६ ३७१ १४६
कोहं माणं च मायं च कोदो पीई पणासेह ३७२ १४६ कोहो य माणो य अणि
खवंति अपाणममोह
गुचिणी उवण्णत्थं गेरुअवनिअ सेढिअ० गोरापविस
गहीया ३७४ १४६ गोअरग्गपविट्ठो अ
दंसिणो २७६ ३१
अपामा खुदं पिवासं दुरिसजं
११६
१८ | चउविदा खलु आयार
"
"
चउण्छे खलु भासाणं
३६१ १४३
समाही सू०२० १८५
चट्टा गंभीरविजया एए गिहिणो वेयावडियं १८३ गिद्दिणो बेयावडियं न कुज्जा ५०८ २१३ | चचारि वमे सया कलाप ४६६ १८९
तवसमाही सू० १९ १८४ विजयसमाही सू० १७ १८२ सुयसमाही सू० १८
२२ १४
37
19
३४५ १३८ २६४ ११२
33
"
33
१६७ ૮૪ २७८ ११८
"
आद्यांशः
चित्तमिति न निज्झाए वित्त मंतमचित्तं वा चूलिअं तु पवक्खामि जर तं काहिसि भावं जत्थ पुप्फाई बीयाई जत्थेव पासे कर दुप्पउतं ५१३ २१६ जयं चरे जयं चिट्टे
८०
५८
३९ ક ४८८ २०३
जया अ कुकुटुंबस्ल थेरओ होइ
" ,,
४८७ २०३
४८५ २०२
४८६ २०२
४८४ २०२
"
39
39
"
महोद माथियो हो
39
” बंदिमो होइ
ओहाविभो होइ
"
कम्मं खविता
35
" गइ बहुविहं
सूत्रस्य गाथायाश्वाडूः
पृष्ठाङ्क:
३८९ १५२
२२२ १०१
५०० २१०
१४ १०
४८३ २०२
५६ ४७
४६.
४७
परि० १
सूत्राद्य
कारादि
।। २२७ ॥
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु श्रीदशवै० परि०१ ॥ २२८॥
११०
१८५
आद्यांशः सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः
आद्यांशः
सूत्रस्य पृष्ठाक: आद्यांशः सूत्रस्य पृष्ठाखापरि०.१ गाथायाश्चाङ्कः गाथायाश्चाः
गाथायावाहः जया चयइ संयोगं
सूत्राद्य४९
| जाइ सद्धाइ निक्खंतो ४७| जस्सवमप्पा उ हविज्ज
३९५ १५५ ,, जीवमजीवे अ निच्छिओ ४९८ २०८ जाणंतु ता इमे समणा १९३
कारादि ,, जोगे निमित्ता ५५ ४७/जहा कुक्कुडपोअस्स ३८८ १५२ जाणि (ई)चत्तारि अभुजाई २५५ , धुणइ कम्मरयं , दुमस्स पुप्फेसु
जायतेयं न इच्छति २४१ , निविदए भोए
४७ , निसंते तवणचिमाली ४१२ १६२ / जावंति लोप पाणा २१८ , पुग्नं च पावं च
४७ , ससीकोमुइजोगजुत्तो ४१३ १६२ जिणवयणरए अतितिणे ४५८ , मुंडे भवित्ता गं ४७ ,ऽऽहिअग्गी जलणं
जुवं गवित्ति शंबूआ ३०२ ,, य चयई घमं
नमंसे ४०१ १६२ जे आवि मंदित्ति गुरुं विइत्ता ४०० ,, लोगमलोग च
७ज जाणेज चिराधोयं १३५ ७३ जे आयरियउवज्झायाणं ४२७ ,, सब्वत्तगं जाणं ५३ ४७ | जंपि बत्थं व पायं वा २२८ १०२ | जेण बन्धं वह घोरं ४२९ १६९ , संवरमुक्किट्ठ
५१ ४७ . .. २४७ १०८ जे न वंदे न से कुप्पे १८९ ९०
३७० १४६ | जं भवे भत्तपाणं तु १०३ , नियागं ममायंति २५७ जस्संतिए धम्मपयाई
जा अ सच्चा अवत्ता २७९ ११८ , माणिया सययं सिक्खे ४१० १६२ | जाइ। जरा) मरणाओ मुश्चई ४६० १८५
___ माणयंति ४५१ १७८ जस्सेरिसा जोग जिइंदिअस्स५१४ २१६ | जाइमंता इमे रुक्खा ३०८ १२६ । , य कंते पिए भोए ८ ५ ॥ २२०
१२४
१५८
For Private & Personel Use Only
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु श्रीदशवै०
परि०१ सूत्राधकारादि
परि०
॥२२९॥
आद्यांशः सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः आधोशः
सूत्रस्य पृष्ठा
आद्यांशः
सूत्रस्य पृष्ठाकः गाबायाश्चा गाथायाश्चाः
गाथायाचा जे य चण्डे मिए थद्धे ४१८ १६६ | ण या लभेजा निउणं
तम्हा एअं विआणित्ता २४४ १०७ वा, यावि चंडे मइइडिगारवे ४३७ १७२
सहायं ५०९ २१५
२४८ १०८ |., यावि नाग डहरंति
णीअदुवारं तमसं नच्चा ४०२ १५८ तओ कारणमुप्पण्णे १६२ ८३
२५४ १०९ जोगं च समणधम्ममि ३७७ १४९ तणरुक्वं न छिदिज्जा ३४४ १३८
, एयं विआणित्ता
७० ५४ जो जीववि न याणेह ४३ ४५ तत्तोवि से चइचाणं २०७
, गच्छामो वक्खामो २८३ ११९ , , बियाणे ४४ ४५ तत्थ से चिट्ठमाणस्स
, तेण न गच्छिज्जा ६५ |, पक्षयं सिरसा मेत्तु
, भुंजमाणस्स १४
ते न सिणायंति २७१ ११४ मिच्छे ४०६ १५९ तस्थिमं पढम ठाणं
२१७
तरुणगं वा पवालं .. पावगं जलिअमवकतत्थेव पडिलेहिज्जा ८४ ५९
, छिवाडि १७९ ८७ मिज्जा ४०४ १५९ ,, पुष्वरत्तावररत्तकाले ५११ २१६ तमइकमित्तु न पविसे १७० ८४ तवतेणे चयतेणे २०५ ,, सहइ हु गामकण्टए ४९१ १९१
तम्हा असण पाणाई २५८ ११० तवं कुवर मेहावी २०१ ण तेण भिक्खू गच्छिज्जा १२५ ७० , आयारपरक्कमेणं ५०३ २१० , चिमं संजमजोगयं च ३९६ १५५ , पडिन्नविजा सयणा- .
, परं विआणित्ता
तबोगुणपहाणस्स
५८ ४९ सणाइ ५०७ २१३ । " " " २४० १०६ तसकार्य न हिंसंति २५२ १०९
॥२२९॥
in duen intera
For Private Personal use only
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु श्रीदशवै० परि०
परि०१ सूत्राघकारादि
॥२३०॥
आद्यांशः सूत्रस्य पृष्ठाः आद्यांशः
सूत्रस्य पृष्ठा
आद्यांशः
सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः गाथायाश्चाङ्क: माथायाश्चाः
गाथायाश्चाङ्कः तसकार्य विहिंसंतो २५३ १०९ | तहेव चाउलं पिटुं १ ८१ ८७ | तहेव होले गोलित्ति २९१ १२१ तसे पाणे न हिसिज्जा ३४६ १३८ | , डहरं च महल्लगं वा ४५० १७७ तहेवासंजयं धीरो ३२४ १३२ तस्स पस्सह कल्लाणं २०२ ९३ , फरसा भासा २८८ १२१ तहेवुच्चावयं पाणं १३४ ७३ तहा नईओ पुण्णाओ ३१५ १२९ फलमंथूणि १८३ ८७ तहेबुच्चावया पाणा १६६ , कोलमणुस्सिन्नं १८० ८७ माणुसं पसुं २९९ १२४ तहेवोसहियो पक्काओ ३११ " फलाई पक्काई ३०९ १२६ मेहं व नई व
तं अप्पणा न गिण्डंति २२३ तहेव अविणीयप्पा ४२० १६७
माणवं ३२९ १३३ तं उक्खिवित्तु न निक्लिवे १४४ ४२२ १६८ सत्तुचुण्णाई १३० ७१ ,, च अच्चबिलं पूर्य १३८
४२५ १६८ संखडि नच्चा ३१३ १२८ ,, उभिदिमा दिज्जा १०५ , असणं पाणगं वा ४६८ १९० , सावज्जणुमोमणी
,, होज्ज अकामेण १३९ तहेव असणं पाणगं वा ४६९ १९०
गिरा ३३१ १३४ , देहवासं असुई ., काणं काणत्ति २८९ १२१ सावज्जं जोगं ३१७ १२९
असासयं ४८१ " गंतुमुज्जाणं ३०३ १२५ , सुविणीयप्पा ४२१ १६७ , भवे भत्तपाणं तु १०० ३०७ १२६
४२४ १६८ गाओ दुज्झाओ ३०१ १२४ ।
॥२३०॥
Jain Education Inter
For Private & Personel Use Only
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु० श्रीदशवै०
परि०
॥२३१॥
Jain Education Intere
आद्यांशः
तं भवे भक्तपाणं तु
33 3.
33
"
39
"3
"
"
33
35
"
"
33
"
22
33
33
"2
"
तारिसं
"
तालिअंटेण पत्तेण
37
13
33
33
"
"
31
तिमन्नरागस
तिचं व कडुअं व कसा तीसे सो वयणं सोडवा तेवितं गुरुं पूयंति
आयशः
१११ ६७ | तेसिं अच्छणजोएण
११३
६७
११७
११९
सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः
गाथायाश्राङ्कः
ફૂટ
६९
१२१ ६९
६९.
८६
८७
१२३
१७४
१७६
१०७ ६७
२४६ १०८ ३४३ १३८
२६८ ११३
१५६
.
39
३३७ १३७ गुरूणं गुणसागराणं ४५२ १७८ सो निहुओ दंतो २१२ ९७ थणगं पिज्जेमाणी २०१ ६४ थंभा व कोहा व मयप्पमाया ३९९ १५७ थोबमासायणट्टाए दगमट्टिअआयाणे
१३७
७३
५९
६६
दगवारेण पिहिअं
दवदवस्स न गच्छिजा
दस अड्ड य ठाणाई दंडसत्थापरिज्जुण्णा दि मिभं असंदिद्धं
दुक्कराई करिचाणं दुग्गओ वा पभोपणं
सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः गाथायाश्चाङः
७९
१५
१०
४३० १६९ | दुहं तु भुंजमाणाणं
८५
१०४
७३
५५
२१६ ९८
४२३ १६८ ३८३ १५० १७
३०
४३४ १७१ ९६
आद्यांशः
दुहं तु भुंजमाणार्ण दुरूहमाणी पवडिजा दुला मुदादाई देवलोगसमाणो अ देषाणं मणुआ च
३२७ १३३
धम्मा भट्ट सिरियो अवेयं ४९३ २०५
धम्मो मंगलमुक्कि
१ १ १२
धिरत्थु ते जसोकामी धुवं च पडिलेहिजा धूवणेति वमणे य नक्खतं सुमिणं जोगं नगिणस्स वावि मुंडस्स २७३ न चरेज बेससामंते
३५१ १४२ २५ १६ ३८५ १५२ ११५ ५४ ५२
ફૂટ ६७
न चरेज वाले वासंते
६४ | न जाइमत्ते न य रुवमचे ४७९ १९.४
सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः गाथायाश्वारः
९७ ६४
१२७
७०
१५९ ७९
४९१ २०४
परि० १
सूत्राद्य
कारादि
॥२३१॥
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु० मीदशवे०
o
परि०
॥२३२॥
Jain Education Internationa
आद्यशः
नन्नत्थ परिसं बुतं
न पक्खओ न पुरओ
न परं वज्जासि अयं कुसीले ४७८
३६४
१५२
न बाहिरं परिभवे नमुक्कारेण पारिता न मे चिरं दुक्खमिणं
न य घुग्गद्दियं कह
35
सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः गाथायाश्वाडूः
भविस्सा ४९७ २०७
न य भोभणमि गिद्धो न सम्ममालोइयं हुज्जा न सो परिग्गद्दो कुत्तो नाणदंसण संपनं
नागचित्य
२१४ ९७ नामधिज्जेण णं बूआ
३८० १४९
१९४
१४५
७६
कहेज्जा ४७०
१९० ३५७ १४२
आयांशः
१५० ७६
२२९ १०३
२१०
९७
३२६ १३३
४५६ १८३
33
33
नासंदीप लिअंकेसु
निक्खम्ममाणाद य
"
सूत्रस्य पृष्ठाङ: गाथायाथाङ्कः
२९४ १२२ २९७ १२२ २६३ ११२
बुद्धवयणे ४६१ १८७ १९८ ९२ ३५६ १४२ ३७६ १४९ ४३८ १७२ १२६ ७० ४३२ १७१
निष्युग्मि जाणो निद्वाणं रसनिज्जूढं निहं च न बहु मन्निज्जा निद्देसवती पुण जे गुरूणं निस्सेणि फलगं पीढं नीयं सेज्जं गई ठाणं
पक्खंदे जलियं जोई
पगईइ मंदावि हवंति एगे पच्छाकम्मं पुरेकम्मं पच्छावि ते पयाया
११
८
४०१ १५८ १११
२६१
प्र० १
४९
आयांश:
८२
पडिकुट्टकुलं न पविसे ७६ ५६ पडिग्गहं संलिहित्ता णं १६० पडिमं पडिवज्जिया मसाणे ४७२ १९२ पडिसेहिए व दिने वा १७२ * पढमं नाणं तओ दया ४१ पढमे भंते ! महवप सू० ३ पयन्तपक्कत्ति व पक्कमालवे ३१९ १३० परिक्वभासी सुसमाहिईदिए ३३४ १३५ परिवृढति णं बूआ ३०० १२४ परीसरा
४५ २९
२९ १७
पवडते व से तत्थ
परागारं
पवेयए अज्जपयं मद्दामुणी पंचासवपरिचाया पंचिदिआण पाणाणं
सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः गाथायावाडः
६४ ५२
३५३ १४२
४८० १९४
२७ १६ २९८ १२४
परि० १
सूत्राद्यफारादि
॥२३२॥
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुमति
साधु०
श्रीदश●
परि०
॥२३३॥
Jain Education Intera
आयशः
पाईणं पडणं वावि
पियए पगओ तेणो
पिंडं सिज्जं च वत्थं च
सूत्रस्य पृष्ठाः गाथायावाडः
पीढए चंगबेरे (रा) अ पुढविकायं विहिंसंतो न हिंसंति
33
पुढविं न खणे न खणावर पुढवीदग अगणिमारुअ पुढविं भित्ति सिलं लेलुं पुतदारपरीकियो
पुरओ जुगमायाए पुरेकमेव इत्येष अट्ठा जसोकामी पहियाणुसासणं पोगलाणं परीणामं
२४२ १०७ ९२
१९६
२५६ ११०
३०५ १२५
२३६ १०६
१०५
२३५
४६२
१८७
३३६ १३७
३३८ १३७ ४८२ २०३
६२ ५२
९१ ६१
आयांश:
बलं धामं च पेद्दाप बहवे इमे असाहू बहुअअिं पुग्गलं
१९४
४५५ १८२ ३९४ १५२
बहुवाहडा अगाद्दा बहु परघरे अस्थि
बहुं सुणे कन्नेहिं भासाइ दोले अ गुणे अ
भुंजितु भोगाई
आद्यांशः
३६९ १४६ मूलए सिंगबेरे य ३२५ १३३ मूलमेयमहम्म
१३२ ७२
३१६ १२९ १८६ ८९.
३५४ १४२
सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः गाथायाश्वाणः
९१ मुसावाओ उ लोगम्मि
मुडुतदुक्खा उ हवंति
जाणीआ ३३३ १३५
४६५ १८८
पसज्झचेअला ४९५ २०५ भूयामसमाधाओ २४३ १०७ महागरा आयरिया महेसी ४१४ १६३ महुगारसमा बुद्धा
लज्जा दया संजम बंभरं ४९१ १६२ २०६ ९५ लगुणवि देवतं लूहवित्ती सुसंतु लोहस्सेस अणुफासे २२११०० हुई सुंडिआ तस्ल वणस्सई न हिंसंति
५
२
विहिंसंतो
कंटया ४४५ १७५
सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः गाथायाश्वाकः
२३ १५
२२५ १०२
मूलाउ संधप्पभवो दुमस्स ४१६ १६५ रनो गिद्दवईणं च
रायणिपसु विजयं पउंजे
७५ ५५ ३७५ १४९
४४१ १७४
"
रायाणो रायमच्चा य २११ ९७ | रोइअ नायपुत्तवयणे
"
३५९ १४२
२२७ १०२
१९७ ९२
२४९ १०८
२५० १०९
परि० १
सूत्राद्य
कारावि
॥२३३॥
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु०
श्रीसने ०
परि०
॥२३४॥
Jain Education Intera
आयांश:
वणीमगरस वा तस्स वरथगंधमलंकारं वयं च वित्तिं लब्भामो
वद्दणं तस्थावराणं होइ वाओ वुटुं च सीउन्हं वाहिओ वा अरोगी वा विक्कायमाणं पसढं मेलो
विणणं पविसित्ता विणए सुप य तवे विनयपि जो उवाएणं वितद्वंपि तहामुि विभूसा इल्यिसम्मो विसावति
विभूसावत्ति भिक्खू
आयांश:
*
(वि) रूढा बहुसंभूआ ५ | विवत्ती अविणीयस्त
४
२
४६४ १८८
३२८ १३३
विवत्ती बंभवेरस्स विवित्ता य भवे सिज्जा विविधगुणतवोरए २६९ ११४ विसपसु मणुन्नेसु १३१ ७२ वीसमंतो इमं चित्ते १०२ | सहकाले चरे भिक्खू ७६ समवसंता अममा
२२६
४५४ १८१
४१९ १६६
२८२ ११९
३९१ १५२ सज्झाय सज्झाणरयस्स २७५ ११५
२७४ ११५ | सन्निद्दीगिद्दिमत्ते य
सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः
गाथाया बाङ्कः १७१
60
१४७
सूत्रस्य पृष्ठाङ्क: गाथावाश्वाङ्क:
३१२ १२६ ४३६ १७२ २६६ ११३ ३८८ १५२ ४५७ १८४
३९३ १५२
१५३ ७६ सवकसुद्धिं समुपेहिआ
१६५ ૮૩
अकिंचणा २७७ सक्का सहे असाइ कंटया ४४४ सखुडुगविअत्ताणं
२१५
११६ १७४
९८
वाइणो ३९७ १५५
१९
१३
आद्यशः
सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः गाथायाश्वाडः १६९ ८४
समणं माद्दणं वावि समाइ पेद्दाइ परिचयंतो १९ ६ समावयंता वयणाभिघाया ४४६ १७७ समुआणं चरे भिक्खू * ८९ सम्मदिट्ठी सया अमूढे ४६७ १८९ सयणासणवत्थं वा १८७ ८९
थुणा बुद्धा सवभूयप्पभूयस्स सचमे वस्लामि मेयमणानं
मुणी ३३२ १३५ २३० १०३ સમ્ર ३२१ १३१ २६ १६
४०
३२० १३१
२१९ १००
३१४ १२८
सबुक परग्धं वा सधे जीवा वि इच्छंति संखडि संखडि बूआ
परि० १
सूत्राद्य
कारादि
॥२३४॥
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु०
श्रीशने ०
परि०
॥२३५ ॥
आयांश:
संघट्टन्ता कारणं
संजमे सुट्टप्पा
संतिमे सुडुमा पाणा
आयांश:
४३३ १७१ | सीमा अ समणट्टाए
१७ १२ सिआ एगहओ लड
सूत्रस्य पृष्ठाडू: गाथायाथाङः
२३२ १०४
२७०
19
"
संथार सेज्जा सणभत्तपाणे संनिहिं च न कुबिज्जा संपत्ते भिक्खकामि संमद्दमाणी पाणाणि संवच्छरं वाऽवि परं प्रमाणं ५१० संसद्वेण य हत्थे
૮૮
साणं सूइयं गावं साणीपावारपिडिय सालुयं वा विरालियं साइड निक्खिवित्ताणं साहवो तो चिमणं
"
११४ सिक्खिऊण भिक्खे
४४३ १७४
३५८ १४२
६०
५१
६०
२१६
९५
६३
७१
५५
७७
५६
१७७ ८७
८९ ६१
१५४
33
सिज्झायरपिंड च
सिणाणं अदुवा कक्कं
सिणेहं पुप्फसुदुमं च
सिया य गोयरग्गगओ
सणसोहिं २०९
૨૨
सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः गायायाश्वाङ्कः
आयांशः
९९ ६४ | सीओदगसमारंभे
१९०
९०
१९२
९०
सिया हु सीसेण गिरिंपि
९६
१४
२७२ ११४
१४१
सिया य भिक्खू इच्छिता १४६ सिया हु से पावय नो
७७ | सीओइगं न सेविज्जा
३४९ १४० ७५
७६
भिंदे ४०७ + ३४०
हिज्जा ४०५ १५९ सुरं वा मेरगं वा बि
सुअं वा जद्द वा दिहुं सुकडिति सुपक्कित्ति
१५९ १३८
सुक्की वा सुविकीअं सुरचा जाणइ कल्लाणं सुच्चाण मेहावी
सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः गाथायावाडः
सुभासियाई ४१५ १६३ ३३९ १३७
सुखपुढवीं न निसीए सुयं मे आउलं !० चचारि
विणयसमा हिडाणा० सू० १६ १८० सुयं मे आउसंतेणं
सू० १ १९५
१९ ९२
५७ ४९
६१ ५१
३६५ १४६
"
२६० १११
३५५ १४२
३१८ १३०
३२२ १३१
४२ ४५
सुइसायगस्स समणस्स से गामे वा नगरे वा
जाणमजाणं वा
परि० १
सूत्राद्य
कारादि
॥२३५॥
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमतिसाधु भीदशवै०
परि०१ सूत्राबकारादि:
परि०
जिइंदिप ३९८ १५५ सभिल बा० से
आद्यांशः सूत्रस्प पृष्ठाकः आद्यांशः
सूत्रस्य पृष्ठा
आयांशः
सूत्रस्य पृष्ठाङ्कः गाथायाश्चाङ्क: गाथायाश्चा
गाथायावाद | सेज्जा निसीहियाए १६५ ८३ | से मिक्ख वा० से
| हत्थसंजए पायसंजए ४७५ १९२ से तारिसे दुक्त्रसहे.
पुढविं वा सू०१० ३६ हत्थपायपडिच्छिन्नं ३९० १५२ से भिक्खू वा० से
हत्थं पायं च कायं च ३७९ अगणि वा सू०१२ ३८
बीएसु वा सू० १४ ४१ | हले हलित्ति अन्नित्ति २९३ १२२ से भिक्खू वा० से से भिक्खू वा० से
हंदि धम्मत्थकामाणं २१३
सिएण वा सू० ४० ४० हुन्ज कटुं सिलं वा वि से भिक्खू वा० से
१२४ ७० कीड वा सू०१५ ४२ | सोवञ्चले सिंघवे लोणे २४ १५ हे भो हलित्ति अन्नित्ति २९६ १२२
॥२३६॥
__ उदगं वा
॥२३६॥
Jain Education Intern
For Private & Personel Use Only
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
परि०
मुमतिसाधु
श्रीदशवै० परि०
अन्या ,
द्वितीयं परिशिष्टम्।
'अन्या' इत्यादि पृष्ठाः पृष्ठाः पृष्ठाङ्कः
पृष्ठाकः अन्यः
११३, १२१, १२५, १४०, । केचिद्
वृद्धविवरणम् २,१२४ अन्यथा व्याख्यायते २१ १५६, १५८, १६०, १६५, पाठान्तरम् ५,२४,९०,१९९ वृद्धसंप्रदाय: ५५,५८,६२,६५ अन्ये ११, १२, १६, १८, २२, १९१, २०१,२१४. (बृहल्लघुवृत्त्योरव्याख्याता | वृद्धाभिप्राय २३, ७२,७५, ७८,८०, अपरा
२१ अन्यकतेति) १४८ | सम्प्रदायः ८५, ८७, ८८, ९२, । एके
२४, ११२ । वृद्धवाद
२१०।
साक्षि
अन्याय
॥२३७॥
२०१
प्रन्धः
पृष्ठा १८१
तृतीयं परिशिष्टम् ।
साक्षिग्रन्थानामकारादि प्रन्थः
प्रन्यः पृष्ठाङ्कः
प्रन्यः याचारप्राप्तिः आचारादि
आवश्यकनियुक्तिः भाचारप्रणिधिः १३७, १५७ आचारादिद्वादशाङ्गम् १८३ इसिभासियमो माचार
१५१ । आयारपन्नति १५० | ईरियावहियं
पृष्ठाः २२०
अनादि अन्यत्रापि अन्यैरप्युक्त
२१७
॥२३७॥
Jain Eduent an inte
For Private & Personel Use Only
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
७७
परि०३ साक्षिप्रन्था
साधु भीदशवै०
परि० ॥२३८॥
प्रन्थः पृष्ठाः
प्रन्थः
पृष्टाः ईर्यापथिकीम्
जिणसंथवो
७६ (ओघनियुक्तिः)
जिनसंस्तवः
७८ ओहनिज्जुत्ती
ठाण
१४५ क्षुल्लकाचारकथा
(तस्वा० अ०सू०) १७, २७ क्षुल्लिकाचारकथा १२ दशवकालिकटीका २२०
२१०, २११ (दशवकालिकनियुकिः) ९९ चूडाद्वयम्
दशवकालिकम् १,११
१९६ दशकालिकानुयोगः २२० चूलिअं १९६ दिट्ठिवायं
१५० चूलियं
दृष्टिवाद
१५१ छज्जीवणिया १९, ५१ । द्रुमपुष्पिका
ग्रन्थः पृष्ठाः ।
प्रन्थः धम्मपन्नत्ती
वाक्यशुद्धि ११८, १३७ धर्मप्राप्तिः
विनयसमाधिः १५७, १८७ नमस्कार
शिष्यबोधिनी २२० नमोकारो
श्रामण्यपूर्विका ४,१२ नायज्झयणाहरणा ११ षड्जीवनिका १८१ पइनगसुया
षड्जीवनिकाया ५१, १८८ पिण्डनियुक्तिः ६२, ७५,११० षड्जीवनिकायिका १९, २१, पिण्डनियुक्त्यादि ११०
२२,५०,१०८, पिण्डैषणा ५१, ८२,९७ सभिक्षु प्रथमच्डाभ्यवनम् २०९ महाचारकथा ९७,१३८ ।
२१०
d॥२३८॥
Jain Education Intern
For Private & Personel Use Only
lww.jainelibrary.org
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साधु०
श्रीश वै०
परि०
॥२३९॥
Jain Education Interanda
साक्षिनां प्रतीकम् अप्पो गिहिभायणं अणीया खलु जेणं अलङ्कृतश्चापि धर्ममाच
रेत्
आमे घडे निहितं आयारपणिहाणंमि आयुर्धृतम् इच्छामि पडिक्कमिडं
वहन्युर्भुजगा रोषिताः
उब िण अणला
उदप अवर पण एक एव हि भूतात्मा
पृष्ठाङ्कः
११०
११०
११५
२१
१५७
२१२
७७
२१७
११०
१४०
२४
चतुर्थ परिशिष्टम् । साक्षिपाठानामकारादि
पृष्ठाङ्कः साक्षिनां प्रतीकम्
२१
साक्षिनां प्रतीकम् एतणियura कथं नु स राजा कनसोक्खेहि गा. २६० २५४ कपालमादाय विपन्न
४
वाससा
८४
किं एतो पावयरं किंची सकाय सत्थं खितं कालो भायणं गच्छवासी अइ थणजीवी ६५ गीत्थो य विहारो હૃદ गृहाण साधुगुणान् १७९. गोयरग्गपविट्ठो उ ग्रहणौचित्यापेक्षया
९७
७८
२११ २१
२४
पृष्ठाङ्क:
१४५
१९
चउर्दि ठाणेहिं जीवा०
छसु जीवनिका जर लिंगवश्चर
जले जीवाः स्थले जीवा १० जइ न सप्पतुल्लाई जोगो जोगो जिणसा० ८४ पिरासेवनार्थः २२ तन्दुलाम्बर्षति पर्जन्यः तस्यात्मा संयतो तं फासुगमवि वज्जए तेजोवायुद्धीन्द्रि० दधि पुषी प्रत्यक्षो ज्वरः २१२ दक्षं सत्यforfoo २४
२७
१२४
५१
साक्षिनां प्रतीकम् देवा उस्सन्नं सायं नमो अरिहंताणं
नाणस्स होइ भागी निमित्तमासाद्य यदेव किञ्चन
२११
नो वामाओ हणुयाओ ७९ पढिए
३० १३७
२१७
पणिहाणरहियस्लेह
२१२ १२ परलोकविरुद्धानि ६२
पापं समाचरति वीतघृणो जघन्यः पुरुषोत्तमो धर्मः पुचमेव साहुणा
पृष्ठाङ्कः २१४
७८
२२
२११
३६
५८
परि० ४ साक्षिपाठाः
॥२३९॥
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
परि०
२७
सुमतिसाधु श्रीदशवै० परि०
२२
| साक्षिपाठा विशिष्टनामानि च
॥२४॥
साक्षिनां प्रतीकम् पृष्ठांकः । साक्षिनां प्रतीकम् । पृष्ठाङ्कः साक्षिनां प्रतीकम् पृष्ठाङ्क: साक्षिा प्रतीकम् पृष्ठाङ्कः पृथक्कर्मफलमुजो ६ मधुकरसमाना
विचित्रा सूत्रगति
संमहमाणी पाणाणि ८८ पृथिवी देवता
मार्गाच्यवननिर्जराथै विदारयति यत्कर्म संसट्टे हत्थे संसटे पृथिव्यम्बुवन २७ मूलं संसारस्स उ
विर्ष मृत्युः
संसट्टे हत्थे संसट्टे मत्ते २१४ ब्रह्महत्या सुरापानं २१७ रायणिपसु विणयं १७५ वेसादिगयभावस्स
सावजणवजाणं २१ भिक्खग्गाही एगत्थ लोगस्स उज्जोअगरे ७८ सवस्थ संजमं
सावजणवजाणं कुणह २१४ षयछक्क कायछकं ९९ सर्षपत्रिभागमात्र
से संजए समक्खाए भुजिः-पालने अभ्यवहारे | बयणं न कायजोगा० २१ | सवत्थसंजमं संजमामो ७४ स्थविरकल्पिकानाम ६४ । वरं विहढे पन्नगर्भवे० २२७ | संप्राप्ते भिक्षाकाले
पञ्चमं परिशिष्टम् ।
विशिष्टनाम्नामकारादि पृष्ठाङ्कः । नाम पृष्ठाङ्कः |
नाम
पृष्ठा अगन्धना अरिटुनेमी अंधगवण्डि
उग्रसेनः अतीसाराधौषधं अश्विन्यादि अंधकवृष्णिः
उत्तरापथ अपश्चिमतीर्थकर १००। अस्तपर्वतः १४५ । आचार्यहरिभद्रः २२० कपिलादिमतम्
नाम
नाम
१०
॥२४॥
Jain Education Intern
For Private & Personel Use Only
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाम
नाम
पृष्टाः
१८४
सुमति. साधु श्रीदशवै० परि०
२४ १०४
परि०५ विशिष्टनामानि
२२ ।
१०४, ५९
॥ २४१ ।।
पृष्ठाः नाम पृष्टाः
पृष्ठाङ्कः कार्तिकपौर्णिमासी १६४ । धर्मिलबत्
मलयमारुतादिः १३४ वैदिकः काश्यपः
नायपुत्तो ९५, १०२, १०३, महावीरः १००, १८९ शय्यभवः कासवो
महावीरो
शय्यभवाचार्य कूरगडुकः २१० बारवई
मागधदेशी
३०.
शालिग्रामादि कृष्णः १६७ बोधकः शिष्यः (?) २२०
मेरुः
२०९ समुद्रविजयः कोमुह
ब्रह्मदत्तः १८४ रथनेमिः
१०, ११ साकेतादि कौमुदी १६४ भद्रबाहुः
२२० रहनेमी
सिद्धार्थः गन्धना भरतक्षेत्रम् राजीमती
सीमन्धरस्वामी गौतमः २०, १३८ भरतादिः
रायमई
सुदर्शनागिरिः चेल्लका भागवतः बर्द्धमानस्वामी
सुदंसणो गिरी जंबूस्वामी २० भारतम्
बर्द्धमानः ९६, १०३, १०४ जिनदेवसूरिः
भारहे २२१ દર
सुधर्मस्वामी
१११, १३८ शातपुत्रः ९६, १०३, १०४, भोगराजा वशिष्ठः
सुबन्धुः भोगराया
वीर
१,२२, सुमतिसूरिः दशारादयः १६७ मध्यदेशादि
वृश्चिकमन्त्रादि १५३ | हरिभद्राचार्यः
२०
२२० २२०
२१५
am२४१॥
RES
Jain Education Inter
For Private & Personel Use Only
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति
साघु०
श्रीदशचै०
परि०
॥ २४२ ॥
Jain Education Interna
पृष्ठाङ्क:
उदाहरणम् सुबन्धुवत् (दश. चू. पू. ८१) ५ भरतादिवत् (दश. चू. पृ. ८३) ६ उदाहरणम् (१) ( न सा महं नोऽवि अहंपि
प्रतीकम् अथ प्रक्रियाप्रश्नाo अनेकार्थत्वाद्धातूनां निमित्तकारणहेतुषु
पृष्ठाङ्कः
२५
२२
२३
षष्ठं परिशिष्टम् । दर्शितान्यतिदिष्टान्युदाहरणानि
उदाहरणम्
पृष्ठाङ्कः
मधुविदाहरणादि ६१ भागवतोदाहरणम् (३) ८० ( राजीमतीरथनेमी ) मुधाजीविन्युदाहरणम् (४) ८१ ( दश च पृ. ८७ ) ९: | दशारादयः
१६७
पृष्ठाङ्कः
उदाहरणम् तीसे) (दश. चू. पृ. ८५) ६ द्वितीयमुदाहरणम् (२)
सप्तमं परिशिष्टम् । टीकान्तरगता व्याकरण सिद्धिः प्रतीकम् प्राकृतम्
पृष्ठाडू:
प्रतीकम् प्राकृतशैल्या १४, १६, १८. ४८, १०३. ११९, १५१, १७३, १७९, २०६
पृष्ठाङ्कः
१०२, ११७ सुपां सुपो भवन्ति २८, १०७, १२७, २१२, २२१
उदाहरणम्
धर्मिलवत् ब्रह्मदत्तवत्
प्रतिकम् देतौ प्रथमा
२३
पृष्ठाङ्कः
૮૪
१८४
पृष्ठाङ्क:
परि० ६-७
उदाहरण
व्याकरणे
॥ २४२ ॥
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमति०
साधु० श्रीदशवे०
परि०
॥ २४३ ॥
Jain Education Inter
न्यायः
अक्षोपाङ्गन्यायः
अन्धप्रदीप्त पलायन घुणा
क्षरकरणवत्
पृष्ठाः
७९
अष्टमं परिशिष्टम् । टीकान्तरगता न्यायाः
न्यायः
एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणम्
८, २७, ३६, १००, १८८
४६
पृष्ठाङ्कः
भावात् सामान्यग्रहणेऽपि
इति लघुवृत्त्युपेतस्य श्रीदशवैकालिकसूत्रस्य समाप्तानि परिशिष्टानि
रु
न्यायः
सति तस्मिन्नव्यवच्छिति
पृष्ठाङ्कः
२१ ६२
परि० ८
न्यायाः
॥ २४३ ॥
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________ - sasleseblosladka Islasiastastestastestostostelstestablastasiastasiastak इति भगवच्छय्यंभवश्रुतकेवलिनिटं श्रीमत्सुमतिमाधुरिणा भवविरहाङ्कितबृहट्टीकोद्धृतवृत्युपेतं श्रीदशवैकालिकं समाप्तम् / इति श्रेष्ठिदेवचन्द्रलालभाई-जैन-पुस्तकोद्वारे ग्रन्थाङ्कः 103 // 79$*$$$$$$$$$$$$$$?$$$geggs Jain Education Intel For Private & Personel Use Only