________________
सुमति. साधु भीदशवै.
मिक्षु स्वरूपम् गा.४७६४८०
।। १९४॥
उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नायउञ्छं पुलनिप्पुलाए । कयविक्कयसन्निहिओ विरए, सव्वसंगावगए य जे स भिक्खू ॥ ४७६ ॥ अलोल भिक्खू न रसेसु गिज्झे, उञ्छं चरे जीविय नाभिको। इड्डिं च सक्कारणपूयणं च, चए ठियप्पा अणिहे जे स भिक्खू ॥ ४७७ ॥ न परं वइज्जासि अयं कुसीले, जेणऽन्न कुप्पेज न तं वएज्जा। जाणिय पत्तेयं पुण्णपावं, अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू ॥ ४७८ ॥ न जाइमत्ते न य रूवमत्ते, न लाभमत्ते न सुएण मत्ते । मयाणि सवाणि विवज्जइत्ता, धम्मज्झाणरए जे स भिक्खू ॥ ४७९ ॥ पवेयए अजपयं महामुणी, धम्मे ठिओ ठावयई परं पि । निक्खम्म वजेज कुसीललिङ्गं, न यावि हासंकुहए जे स भिक्खू ॥ ४८५ तं देहवासं असुइं असासयं, सया चए निच्चहियट्रियप्पा ।
॥ १९४॥
Jain Education Inten
For Private & Personel Use Only
www.jainelibrary.org