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________________ शुद्धि ३३४ समति तहेवत्ति, तथैव सावद्यानुमोदिनी गी-वाक् यथा सुष्ठु हतो ग्राम इति, तथाऽवधारिणी-इदमित्थमेवेति, संशयकारिणी - वाक्यसाधावा, या च परोपघातिनी यथा-मांसमदोषाय, से इति तामेवंभूतां, क्रोधाल्लोभाद्भयाद्धासाद्वा, मानप्रेमादीनामुपलक्षणश्रीदशवै| मेतन्मानवः-पुमान् साधुन हसन्नपि गिरं वदेत् , प्रभूतकर्मबन्धहेतुत्वादिति ।। ३३१ ॥ फलम् सवक्कसुद्धिं समुपहिआ मुणी, गिरं च दुटुं परिवजए सया। |गा.३३२मिअं अदुटुं अणुवीइ भासए, सयाण मजे लहई पसंसणं ॥ ३३२ ॥ भासाइ दोसे अ गुणे अ जाणीआ, तीसे अदुढे परिवजए सया। छसु संजए सामणिए सया जए, वइज बुद्धे हिअमाणुलोमिअं ॥ ३३३ ॥ परिक्खभासी सुसमाहिइंदिए, चउक्कसायावगए अणिस्सिए ।। से निझुणे धुन्नमलं पुरेकडं, आराहए लोगमिणं तहा परं ॥ ३३४ ॥ त्तिबेमि ॥ इति सवक्कसुद्धीअज्झयणं समत्तं ७॥ वाक्यशुद्धिफलमाह-सवकत्ति, सद्वाक्यशुद्धिं स्ववाक्यशुद्धिं वा सवाक्य शुद्धिं वा, सतीं शोभनी, स्वां आत्मीयां, स इति वक्ता, वाक्य शुद्धिं संप्रेक्ष्य-सम्यग्दृष्ट्वा मुनिः-साधुः, गिरं तु दुष्टां-यथोक्तलक्षणां परिवर्जयेत्सदा, किंतु मितं ॥ १३५ ॥ हात Jain Education Intern For Private & Personel Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600093
Book TitleDashvaikalikam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchanvijay, Kshemankarsagar
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1954
Total Pages276
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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