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________________ सुमति साधु भीदशवै० भोजनविधिः गा.१४६. १५३ ॥ ७६ ॥ क्वचिन्न निक्षिपेत् , तथा आस्येन-मुखेन नोज्झेत्, माभूद्विराधनेति, अपि तु हस्तेन गृहीत्वा तदस्थ्यादि एकान्तमवक्रामेदिति ॥ १४४ ॥ 'एगते'ति-एकान्तमवक्रम्याचित्तं प्रत्युपेक्ष्य यतं प्रतिष्ठापयेत्, प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रामयेदिति | भावार्थः पूर्ववदेवेति ॥ १४५॥ | सिआ य भिक्खू इच्छिाजा, सिजमागम्म भुत्तुअं । सपिंडपायमागम्म, उंडुयं पडिलेहिआ ॥१४६॥ विणएणं पविसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी। इरियावहियमायाय, आगओ य पडिक्मे ॥१४॥ | आभोइत्ताण नीसेसं, अईआरं जहक्कम । गमणागमणे चेव, भत्तपाणे व संजए ॥१४॥ उज्जुप्पन्नो अणुश्विग्गो, अबक्खित्तेण चेअसा । आलोए गुरुसगासे, जं जहा गहिअं भवे ॥१४९॥ | न सम्ममालोइयं हुजा, पुत्विं पच्छा व जं कडं। पुणो पडिक्कमे तस्स, वोसट्ठो चिंतए इमं ॥१५०॥ अहो जिणेहिं असावजा, वित्ती साहूण देसिआ। मुक्खसाहणहेउस्स, साहुदेहस्स धारणा ॥१५१॥ नमुक्कारेण पारित्ता, करिता जिणसंथवं । सज्झायं पटुवित्ता णं, वीसमेज खणं मुणी ॥१५२॥ वीसमंतो इमं चित्ते, हियमढें लाभमट्ठिओ। जइ मे अणुग्गहं कुजा, साहू हुज्जामि तारिओ ॥१५३॥ | n.७१॥ www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only in Eden inte
SR No.600093
Book TitleDashvaikalikam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchanvijay, Kshemankarsagar
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1954
Total Pages276
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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