SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुमतिसाधु श्रीदशवै० ॥ १९७॥ अणोहाइएणं चेव हयरस्सिगयंकुसपोयपडागाभूआई इमाइं अट्ठारस ठाणाइं सम्मं संपडिलेहिअवाइं भवंति, तंजहा-हंभो ! दुस्समाए दुप्पजीवी १, लहुसगा इत्तरिआ गिहीणं कामभोगास्थानानि सू०२१ २, भुजो अ साइबहुला मणुस्सा ३, इमे अ मे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सई ४, ओम-1 जणपुरकारे ५, वंतस्स य पडिआयणं ६, अहरगइवासोवसंपया ७, दुल्लहे खलु भो! गिहीणं धम्मे गिहवासमझे वसंताणं ८, आयके से वहाय होइ ९, संकप्पे से वहाय होइ १०, सोवक्केसे | गिहवासे, निरुवक्केसे परिआए ११. बंधे गिहवासे मुक्खे परिआए १२, सावजे गिहवासे, अणवज्जे परिआए १३, बहुसाहारणा गिहीणं कामभोगा १४, पत्ते पुन्नपावं १५, अणिच्चे खलु भो ! मणुस्साणं जीविए कुसग्गजलबिंदुचंचले १६, वहुं च खलु भो ! पावं कम्मं पगडं १७, पावाणं | च खलु भो! कडाणं कम्माणं पुविं दुञ्चिन्नाणं दुप्पडिकंताणं वेइत्ता मुक्खो, नत्थि अवेइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता १८ । अट्ठारसमं पयं भवइ । सू० २१ । भवइ अ इत्थ सिलोगो इह खलु भो पव्वेति, इह खलु भो प्रव्रजितेन इहेति जिनप्रवचने, खलुशब्दोऽवधारणे, स च भिन्नक्रम इति १९७॥ Jain Education Inter For Private & Personel Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600093
Book TitleDashvaikalikam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchanvijay, Kshemankarsagar
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1954
Total Pages276
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy