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जनमथरनाकरम्य
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श्रीवीतरागाई नमः। स्वर्गीय कविवर बनारसीदासजीरचित बनारसीविलास
और कविवर बनारसीदासजीका मनोहर
जीवनचरित्र।
మనం మన సంసాహారద కనక
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देवरीनिवासी नाथूराम प्रेमीद्वारा
सम्पादित।
जिसको जैनग्रन्थरताकरकार्यालयके स्वामीने
मुम्बयीके निर्णयसागर प्रेसमें मुद्रित कराके
प्रकाशित किया।
श्रीवीरनिर्वाण संवत् २४३२.
मथम वार १००० प्रति.]
मूल्य 11} मान ।
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गम और जोगनगांनी आफ्ट २५ गन् १८६५ के
नगर गंजान होगई है, प्रकाशकी आमा बिना गिंग भी सपना अधिगर नहीं है।
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आ नमः सिद्धयः
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उत्थानिका।
- -- * कवितायै नमस्तस्यै यद्रसोल्लासिताशयाः ।
कुर्वन्ति कवयः कीर्तिलतां लोकान्तसंश्रयाम् ॥ भाषासाहित्यके आज तक जितने अन्य प्रकाश हुए हैं, उनका अधिकांश केवल शृंगाररमसे ओतपोत मरा हुआ है । और नायकामदके अन्योंकी तो गिनती करना भी कठिन है। इन ग्रन्याम विरही और चिरहिणियोंका रोना कुलटाकि कटाक्षोंकी नोक झोंक, अभिसारिकाआके संकेतस्यान, विदन्याओंनी चारक्रियाचातुरी और संयोगियोंकी " लपटाने दोज पटताने परे की कथाओंका ही पिटपेषण देखा जाता है । रामयी उन्नति होनमें साहित्य एक प्रधान कारण माना गया है, परन्तु हम नहीं कह सक्त कि, ऐसे साहित्यसे राष्ट्रको क्षतिके अतिरिक्त क्या
लाभ होता होगा। भाषासाहित्यम गोस्वामी तुलसीदासजी, या । सूरदासजी, सुन्दरदासजी, भूपणली आदि चार छह श्रेष्ट कवियों । अन्य यदि प्रकाशित नहीं हुए होते तो कहना पडता कि, मापा । ने कवि भंगारके अतिरिक्त इतर विषयोंमे कार थे, अर्थात् शांतकरणादि रसोंकी कविता करना एक प्रकारने जानते ही नहीं थे। आजकल के अधिकांश कवियोंकी भी यही दशा है। उनकी
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"उस कविता देवीको नमस्कार है, जिनके भनुरागर्ने यदिराचित्त होकर कविगण स्वादि फलोंकी देनेवाली वीतिलताशे लोरम *अन्तका आनय करनेवाली अर्थान् लोक्यव्यापिनी करते हैं । (य
खिलकचन्पुमहाकान्ये.)
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उत्थानिका ।
वाग्देवी स्त्रियोंके नखशिख, तथा छल कपटोंकी प्रशंसामें ही उलझी रहती है। अधिक हुआ तो राधिकारसिकेशकी शक्तिमें दौड़ती है, परन्तु इस भक्तिके व्याजसे यथार्थम अपनी विषयवासनाही पुष्ट की जाती है और भक्तिका यथार्थ तत्त्व समझने में उनकी बुद्धि कुंठित रहती है। हम यह नहीं कहते कि, श्रृंगाररसन कविता करनी ही न चाहिये, नहीं! अंगारके बिना साहित्य फीका रहता है, इस लिये भंगार एक आवश्यक रस है; परन्तु प्रत्येक विपयके परिमाणकी नीमा होती है । सीमाका उलंघन करना ही
दोपास्पद होता है । सारांश वह है कि, अब भंगाररस बहुत न हो चुका कविजनाको अन्य विषयोंकी ओर भी ध्यान देना चाहिये । परमार्थदृष्टिसे शान्त और करुणा ये दो रस परमोचन है,
और इन्ही रसॉस परिपूर्ण अन्य भाषा (हिन्दी) साहित्यमें बहुत बोटे दिखाई देते हैं। इन रसासे कविका आत्मा सुख और शांति दोनों से प्राप्त कर सका है।
साहित्य और धर्मस घनिष्ट सम्बन्ध है, इस लिये प्रत्येक भाषासाहित्यके धोकी अपेक्षा अनेक भेद हो राक्त हैं। जिस कविका जो धर्म होगा, उसकी कविता उसी धर्मक साहित्यमें गिनी जावेगी । परन्तु अन्योंके पालोचनसे जाना जाता है, कि प्राचीन समयके विद्वानों में धर्मोकी अनेकता होनेपर भी साहित्यकी अनेकता नहीं थी। उस समयका धर्मभेद विनोदरूप था, द्वेपरूप नहीं था। इस लिये प्रत्येक विद्वान् यावद्धमाके अन्धोंका परिशीलन निष्पक्षदृष्टिसे करता था। कविगण धर्मभेदके कारण किसी काव्यका आस्वादन करना नहीं छोड देते थे, बल्कि आत्नादन करके यथासमय उनकी प्रशंसा करते थे। वे जानते थे कि सा
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हित्य कविक धर्मके अनुकूल विषय प्रतिपादन करता है, परन्तु मिमीसे यह नहीं कहता कि, तुम्हें हमारा धर्म अंगीकार करना. ही पड़ेगा । महाकवि याणभट्टने कहा है
पदबन्धोज्वलो हारी कृतवर्णक्रमस्थितिः।
भट्टारहरिचन्द्रस्य गद्यबन्धो नृपायते ॥ इसमें जिस महाकविके गद्यवन्ध ग्रन्थको काल्योका राजा म बतलाया है, वे भट्टार हरिश्चन्द्र जैन थे।जल्हणकी सूफिमुक्तावलीम महाकवि श्रीधनंजयकी प्रशंसा में कहा है
द्विसन्धाने निपुणतां स तां चक्रे धनंजयः ।
यया जातं फलं तस्य सतां चक्रे धनं जयः ॥ द्विसंधानमहाकाव्यके प्रणेता परम जैन धनंजयका नाम किसने न सुना होगा । ध्वन्यालोकके कर्ता आनन्दवर्धन और महरचरित महाकाव्यके कर्ता रत्नाकरने भी धनंजय की स्तुति
की है। इसी प्रकार नहाकवि वाग्भट्ट जो जैन थे, उन्होंने कालिदासकी प्रशंसामें कहा है
नव्यनन्यक्रमासायानुसणं यस्य सूक्तयः ।
प्रभवन्ति प्रमोदाय कालिदासः स सत्कविः ॥ परमभहारक श्रीसोमदेवसरिने यशस्तिलकचम्पूके दूसरे आश्वासमै " सुकविकाव्यकथाविनोददोहनमाघ" पद देके माघ महाकविकी प्रशंसा की है।
इत्यादि और भी अनेक उदाहरणोंसे जाना जाता है कि, प्राचीनकालमें एक दूसरेके अन्योंके पठनपाठनकी पद्धति बहुलतासे थी । परन्तु अब वह समय बहुत पीछे पड़ गया
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आजकका समय उनके टीक प्रतिकृत है। विधाली न्यून दाने लगान द्रूनुद्धि बहुत बढ़ गई है। इन
व्यिक मात्र प्रन्योन पठन पाठन को दूर है, दूसरने मन्यांकी निन्दा काना है और उसके प्रारमें बाधक बनना ही अपना धन समन्द हैं। , यदि धर्मकी रक्षा यहाँक नकृनाहित्यक भट्ट विष जातो. मुलता वैदिक, जन. और बाद तीन वानी है। पुग्नु माना हिन्दी साहित्यके वैदिक और जैन के दो ही हो मग ।। क्यात-जिन अन्य सामानादिलका प्रचुनाव हुन था, उसन
मरतन धर्मका मामा नानप हो चुका था की मदद ही थोड़ा बहुत हानी हो तो उनकी भाषा हिन्दी नहीं यी। संकृतवाहिल्का झड़ कर हन यहां नामानाहिलो. मन्द
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1 काशी, आगरा आदिको नागरी प्रचारमा माग हिल्या
प्रन्योका प्रकाशन, आलोचन परिचाननाद करती हैं, और उन उद्देश भी नहीं है । इन नमाात्र द्वारा नाणमाहिलो बहुत ई छुद्ध लाम पहुंचा है, परन्तु छेद है कि इन्स भी प्रभ -
का मंजन नहीं हो सका है और महिलाओं ने जितनी मुरता और स्वादयता होनी चाहिं, इनमें नहीं है। इस बातली पुष्टिकलिये इतना ही पन्तन बहुत है है, अन्नबराइन बनानाने जितने अन्यों का प्रभागन-माओवन हुना है, उन जनजाहित्यका एक भी अन्य नहीं है। जहां तक ही दिदित है, इन समाओना कोई ऐसा नियम नहीं है कि, वैटिकनाहिल मचिरिन अन्यशहिला प्रश्नान आमोचन किया जा गा, परन्तु वैदिक के अनुयायी नदनांना उन्हू दत्तनमान
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अधिक है, इस कारण उनकी मनत्तुटिलिये ही ऐमा किया। जाता है । और इसलिये हम कह मुक्त हैं कि, रक्त सभायें मापानाहित्यकी उन्नतिकलिये नहीं, किंतु एक विशेष मापामाहिपकी उन्नतिकलिये स्थापित हैं । जब तक वाणभट्ट और वाग्भट्ट सरीख उदार हृदययाले उक्त समाओंके सन्य नहीं होंग, तब तक साहित्यकी यथार्थ सेवा करने के उद्देशका पालन कदापि नहीं हो सकता।
उक्त सभाओंके अतिरिक्त हिन्दीभाषाक साताहिक मासिकपत्र मी मापासाहित्यकी उन्नति करनेवाले गिन जाते है। परन्तु उनमें जितने प्रसिद्ध पत्र हैं, ये किसी एक धर्मके कट्टर अनुयायी और दूसरों के विरोधी है। अतएव उनके द्वारा भी एक विशेष भाषासाहित्यको उन्नति होती है, सामान्य भाषासाहित्यकी नहीं। यह ठीक है, कि प्रत्येक धर्मके साहित्यकी उन्नति उनी धर्मके अनुयायियोंको करना * चाहिये, और वे ही इसके यथार्थ उत्तरदाता है । परन्तु जिन । पत्रोंकी सृष्टि सर्वसामान्य राष्ट्रको उन्नतिकलिये है, और जो निरन्तर सबको एकदृष्टिसे देखनेकी डींग मारा करते हैं, उनके द्वारा किसी एक समूहकी उन्नतिमें सहायता मिळनके बदले क्षति पहुं
चना क्या लटककी बात नहीं है? मूर्खताके कारण जैनियोंका एक ॐ बड़ा समूह ग्रन्थोंके मुद्रित करानेका विरोधी है, इसलिय जैनग्रन्थ प्रथम तो छपते ही नहीं, और यदि कोई जैनी साहस करके किनी तरह छपाता भी है, तो उसका यथार्थ प्रचार नहीं होता । समाचार पत्रोंजी समालोचना ग्रन्यप्रचारणमें एक विशेष कारण है, परन्तु जैनग्रन्थ समालोचनासे सर्वथा बंचित रहते हैं। क्योंकि जैनियोंक जो एक दो पत्र हैं, उनमें तो विरोधियोंकि मयने मुद्रित
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ग्रन्थयोंकी वात ही नहीं की जाती, और हिन्दी के सामान्य पत्राम जो समालोचना होती है, वह प्रचार होने में बाधा देनेके अभिप्रायसे होती है । "छपाई सफाई उत्तम है, मूल्य इतना है, अन्ध जैनियोंके कामका है। जैनमन्यांकी समालोचना इतनमें ही पत्र. सम्पादकगण समाप्त कर देते हैं। और यदि विशेष कृपा की तो दो चार दोष दिखला दिये ! दोष कैसे दिखलाये जाते हैं, उनका नमूना भी लीजिये । एक महानुभाव सम्पादकने दौलतविलासकी आलोचनामें कहा था " बड़ी नीरस कविता है ! परन्तु यथार्थमें देखा जाये तो दौलतविलासकी कविताको नीरस कहना कविताका अनादर करना है। हमारे पड़ौसी एक दूसरे सम्पादकशिरोमणिने स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाके भापा टीकाकार जयचन्द्रजीके साथ स्वर्गीय, शब्द लगा देखकर एक अपूर्व तक की थी, कि " जैनियोंमें स्वर्ग तो मानते ही नहीं हैं, इन्हें स्वर्गीय क्यों लिखा " धन्य ! धन्य!! त्रिवार धन्य!!! पाठकगण जान सक्त हैं, कि सम्पादक महाशय जैनियोंके कैसे शुभेच्छुक हैं. और जैनधर्मसे कितने परिचित हैं। जिस ग्रन्थकी समालोचनामें यह तर्क किया गया है, यदि उसीके दो चार पन्ने उलट करके आलोचक महाशय देखते, तो स्वर्ग है कि नहीं विदित हो जाता । पूर्ण अन्य १०० स्थानोंसे भी अधिक इस वर्ग शब्दका व्यवहार हुआ होगा । परन्तु देखें कौन ? जनी नास्तिक कैसे बने? लोग उनसे घृणा कैसे करें ? सारांश यह है कि, हृदयकी संकीर्णतासे आलोचकगण कैसी ही उत्तम पुस्तक क्यों न हो, उसमें एक दोई लांछन लगाके समालोचनाकी इतिश्री कर देते हैं, जिससे पुस्तकप्रचारमें बड़ा भारी आघात पहुंचता है। और सामान्य भाषासा
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हित्यकी उन्नति न होकर एक विशेष मापासाहित्यकी उन्नतिहोती है। से भारतवर्ष वैदिक धर्मानुयायियोंके मिलानमें जैनियोंकी मंग्या ।।
शतांश भी नहीं है, और जबसे भाषासाहित्यका प्रचार हुआ है,
तवसे प्रायः यही दशा रही है। राज्यसत्ता न रहनसे इन ४००मी ५०० वर्षोंमें जैनियोंकी किसी विषयमें यथार्थ उन्नति भी नहीं में हुई है, परन्तु आश्चर्य है कि, इस दशामें भी जैनियोंका भापासा. शहित्य वैदिक भाषासाहित्यसे न्यून नहीं है। समयके फेरसे जैनि
योंके संस्कृतसाहित्यके अस्तित्वमें भी लोगोंको शंकायें होने लगी * थी, परन्तु जब काव्यमालाने जन्म लिया, डा. भांडारकर और
पिटर्सनकी रिपोर्ट जैनियोंके सहस्रावधि ग्रन्थोंके नाम लेकर प्रकाशित हुई वंगाल एशियाटिक सुसाइटीने जनग्रन्थोंका मापना प्रारंभ किया और जब विद्वानों के हाथोंमें यशस्तिलकचम्पू, धर्मशर्माभ्युदय, नेमिनिर्वाण, गद्यचिंतामणि, काव्यानुशासन आदि । काव्यग्रन्ध, शाकटायन कातंत्रप्रभृतिव्याकरण, सप्तभंगीतरंगिणी, स्थाद्वादमंजरी, प्रमेयपरीक्षादि न्यायग्रन्थ मुद्रित होकर मुशोभित हुए; तव धीरे २ उनकी वे शंकाये दूर हो गई। इसी प्रकार वर्तमानमें भाषासाहित्यके ज्ञाता जैनियोंके भाषासाहित्यसे अनभिन्न हैं। परन्तु उस अनभिज्ञताके दूर होनेका भी अब समय आ रहा है। हमलोग इस विषयमें यथाशक्ति प्रयत्न कर रहे हैं।
प्रत्येक भाषाके साहित्यके गद्य और पद्य दो भेद हैं, इनमें वैदिक साहित्यमें जिस प्रकार पधग्रन्थोंकी बहुलता है, उसी प्रकार जनसाहित्यमें गपग्रन्योंकी बहुलता है । भापासाहित्य विषयों कमी २ यह निर्देश किया जाता है कि, भापाकवियोमें गयलिवन
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उत्थानिका ।
की प्रथा नहीं थी। हम समझते हैं, यह दोष जनसाहित्यपर सर्वथा नहीं लगाया जायेगा, गद्यके सैकड़ों ग्रन्थ जैनियोंके पुस्तकालयों में अब भी प्राप्य हैं । पद्यग्रन्थोंकी भी त्रुटि नहीं है, परन्तु । । उनमें नायकाओंका आमोद प्रमोद नहीं है । कैवल तत्त्वविचार और
आध्यात्मिकरस की पूर्णताका उज्ज्चलप्रवाह है। संभव है कि, इस कारण आधुनिक कविगण उन्हें नीरस कहके समालोचना कर डालें
परन्तु जानना चाहिये कि, शृङ्गाररस को ही रससंज्ञा नहीं है। म जिस समय भाषाग्रन्थोंकी रचनाका प्रारंभ हुआ है, उस
समय जैनियोंके विलासके दिन नहीं थे। ये वडी २ आपदायें । झेलकर बड़ी कठिनतासे अपने धर्मको जर्जरित अवस्थामें रक्षित रख सके थे। कहीं हमारे अलौकिक-तत्त्वज्ञानका संसारमें अभाव न । हो जावे, यह चिन्ता उन्हें अहोरात्र लगी रहती थी, अतएय उनके विद्वानोंका चित्त विलास-पूर्ण-अन्धोंके रचनेका नहीं हुआ।
और वे नायकाओंके विभ्रमविलासोंको छोडकर धर्मतत्वोंको भाषा लिखनेकेलिये तत्पर हो गये । धर्मतत्त्वोंको देशमाषामें लिखने की। आवश्यकता पडनेका कारण यह है कि, उस समय अविद्याका अंधकार बढ़ रहा था और गीर्वाणवाणी नितान्त सरल न होनेसे है लोग उसे मूलने लगे थे, अथवा उसके पढनेका कोई परिश्रम नहीं करता था। ऐसी दशा में यदि धर्मतत्त्वोंका निरूपण देशभाषामें न होता, तो लोग धर्मशून्य हो जाते । एक और भी कारण है वह यह कि, हमारे आचार्योंका निरन्तर यह सिद्धान्त रहा है कि, देश काल में भावके अनुकूल प्रवृत्ति करनी चाहिये, इसलिये देशमें जिस समय जिस भाषाका प्राधान्य तथा प्राबल्य रहा है, उस समय उन्होंने
उसी माषामें अन्धोंकी रचना करके समयसूचकता व्यक्त की है। MARATHI
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प्राकृत, मागधी, शौरसेनी आदि भाषाओंके धर्मग्रन्य इनक साक्षी हैं । देशभाषाओमें ग्रन्थरचनेका प्रारंम हमारे आचायों द्वारा ही हुआ है, यदि ऐसा कहा जावे तो कुछ अत्युक्तिकर न होगा। कर्णाटक भाषाका सबसे प्रथम व्याकरण परममट्टारक श्रीमद्भट्टाकलंकदेवने गीर्वाण भाषामें बनाया है, ऐसा पाश्चात्यपंडितोंका भी मत है । मागधीके अधिकांश व्याकरण जैनियों के ही हैं। भाषामन्योंके वनजानेसे लोगोंकी अभिरुचि फिर बढ़ने लगी और उनके स्वाध्यायसे समाजमें पुनः ज्ञानकी वृद्धि होने लगी।
अभी तक यह भलीभांति निश्चय नहीं हुआ है कि, भाषाकायका ३ प्रचार कबसे हुआ ! ज्यों ज्यों शोध होती जाती है, त्यों त्यों
भाषाकी प्राचीनता विदित होती जाती है। कहते हैं कि, संवत् । ७७० में अवंतीपुरीके राजा भोजके पिताने पुण्यकवि बन्दीजनको संस्कृतसाहित्य पढाया और फिर पुप्यकविने संस्कृत अलकारोंकी भाषा दोहोंमें रचना की, तवहीसे भाषाकाव्यको जड पड़ी। | इसके पश्चात् नवमी, ग्यारहवीं, वारहवीं, और तेरहवीं श
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चित्तोरगढ़के महाराज खुमानसिंह सोनादियाने संवत ९०० खुमानरायसा नामक अन्यकी नानाछन्दोंमें रचना की।
२ संवत् ११२४ से चन्दकवीश्वरने पृथ्वीराजरायसा बनाना प्रारंभ किया और ६९ संडोंमें एकलक्ष लोक प्रमाण अन्य संवत् ११२० से ११४९ तक पृथ्वीराजका चरित्र वर्णन किया।
३ संवत् १२२० में कुमारपालचरित्र नामका एक अन्य महाराज कुमारपालके चरित्रका बनाया गया। कहते हैं कि, इसका स्नानवाला जन था।
४ संपत् १३५७ में शारंगधरकविने हमीररायसा और मी. *रकाव्य बनाया।
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r.tatestatutettituatitiotstetstatutatutotukat.ttttes १० उत्थानिका ।
mmmmmmmmonwe .worm mmmmmamniwan .. * तान्दीमें भापाके चार पांच अन्य निर्मित हुए, परन्तु भाषाकाव्यकी -
यथार्थ उन्नति सोलहवीं शताब्दीमें कही जाती है । इस शताब्दीमें अनेक उत्तमोत्तम ग्रन्थों की रचना हुई है। अन्धपण करनेमे जाना
जाता है कि, जैनियोंके मापासाहित्यने भी इसी शताब्दीमें अच्छी भी उन्नति की है। पंडित रूपचन्दजी, पांडे हेमराजजी, वनारसीदासजी, भैया भगवतीदासजी, भूधरदासजी, द्यानतरायजी आदि श्रेष्ठ कवि भी इसी सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दीमें हुए हैं। इन दो शताब्दियोंके पश्चात् बहुतसे कवि हुए हैं और ग्रन्थोंकी रचना अभी बहुत हुई है, परन्तु उक्त कवियोंके तुल्य न तो कोई कवि
हुए और न कोई ग्रन्थ निर्मापित हुए । सच पूर्वकवियोंके अनुकऔरण करनेवाले हुए ऐसा इतिहासकारोंका मत है।
हम इस विषयमें अभी तक कुछ निश्चय नहीं कर सके हैं कि जैनियोंमें भाषासाहित्यकी नीव कवसे पड़ी और सबसे प्रथम कौन कवि हुआ। और न ऐसा कोई साधन ही दिखता है कि, जिससे आगे निश्चयकर सकेंगे। क्योंकि जैनियोंमें तो इस विषय के शोधनेवाले और आवश्यकता समझनेवाले बहुत कम निकलेंगे और अन्यभाषासाहित्यके विद्वान् वैदिकसाहित्येतर साहित्यको साहित्य ही नहीं ।
समझते । परन्तु यह निश्चय है कि, शोध होने पर जैनभाषासाहित्य । अ किसी प्रकार निम्नश्रेणीका और पश्चात्पद न गिना जावेगा। * जैनधर्मके पालनेवाले विशेषकर राजपूताना, युक्तप्रान्त, मध्य* प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और कर्णाटक प्रान्तमें रहते हैं। हिन्दी, गुजराती, मराठी, और कानडी ये चार भाषायें इन प्रान्तोंकी मुख्य भाषायें हैं । परन्तु इन चार भाषाओं से प्रायः हिंदी ही एक ऐसी भाषा है, जिसमें जैनधर्मके संस्कृत प्राकृतग्रन्थोंका अर्थ है
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जैनग्रन्यरत्नाकर
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* सरल और बोधप्रद लिखा गया है, अथवा उनके आधारने नवीन
सरल-बोधप्रद अन्य लिखे गये हैं। कर्णाटकी भाषामें अनेक जैनग्रन्थ सुने जाते हैं, परन्तु वे सबको सुलभ नहीं है। ऐनी अनस्थामें प्रत्येक प्रान्तके जैनीको अपने धर्मतत्त्वोंको जाननेकेलिये हिन्दीका ही आश्रय लेना पड़ता है जिनियोंके आवश्यक पटकमा शास्त्रत्वाध्याय एक मुख्य कर्म है, इसलिये प्रत्येक जैनीको प्रतिदिन थोड़ा बहुत शास्त्रस्वाध्याय करना ही पड़ता है, जो हिन्दीम ही होता है। इसप्रकार जैनसाहित्य और नियोंके द्वारा हिन्दी भाषाकी एफ विलक्षणरीतिसे उन्नति होती है। जो जैनी धर्मतत्त्वोंका थोड़ा भी नमन होगा, चाहे वह किसी भी प्रान्तका हो, हिन्दीका जाननेवाला अवश्य होगा । हिन्दी प्रचारकोंको यह सुनकर आश्चर्य होगा कि, जैनियोंके । एक जैनमित्र नामक हिन्दी मासिकपत्रके एक हजार ग्राहक है, जिनमें ५०० उत्तर भारतके और शेष ५०० गुजरात, महाराष्ट्र और कर्णाटकके हैं। नागरीप्रचारिणी सभाओं और हिन्दी हितपियोंको इस ओर ध्यान देना चाहिये। जिस जैनमाहित्यमे हिन्दीकी इस प्रकार उन्नति होती है, उसको अप्रकट रखने की चेष्टा करना, और उसके प्रचारमें यथोचित उत्साह और सहायता नहीं देना हिन्दी हितैपियोंको शोभा नहीं देता।
जैन-भाषा-साहित्य-भंडारको अनुपम रत्नोंसे सुसज्जित करनेवाले विद्वान् प्रायः आगरा और जयपुर इन दो स्थानोंगे हुए हैं। आगरे की भाषा वृतमापा कहलाती है, और जयपुर की ढूंढारी जमापाका परिचय देनेकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हिन्दीकी पुरानी
कविता प्रायः इसी भाषामें है, जो सबके पठन पाटनम आती है। ॐ यह वनारसीविलास ग्रन्थ जो पाठकों के हाथमें उपस्थित है, इसी
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उत्थानिका।।
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ॐ भाषामें है। वृजमापाके पद्यसे लोग जितने परिचित हैं उतने
गद्यसे नहीं हैं । वृजभाषाका गद्य जाननेकेलिये इस ग्रन्यकी * आध्यात्मवचनिका और उपादाननिमित्तकी चिट्ठी पढनी चाहिये।
ढूंढारी भाषा जयपुर और उसके आसपास ढूंढार देशकी भाषा है। इसमें और वृजभाषामें इतना ही अन्तर है कि, इंढारीमें प्राकृतशब्दोंका जितना बाहुल्य रहता है, उतना वृजभाषामें नहीं अरहता। और वृजभाषामें फारसी शब्दोंके अपभ्रंश अधिक व्यव
हत होते हैं । ढूंढारी मापाके गद्य ग्रन्थ बहुत सरल हैं, प्रत्येक प्रान्तका थोड़ी सी भी हिंदी जाननेवाला उन्हें सहज ही समझ ॐ सकता है।
जैनग्रन्थरत्नाकरमें जो स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्य निकला ॐ है, उसकी टीका इसी भाषामें है, पाठकगण उसे मंगाके ढूंढारी ॐ भापासे परिचित हो सके हैं।
भापागद्य लिखनेवाले जैनविद्वानों पं० टोडरमलजी, पं० जय* चन्द्ररायजी, पं० हेमराजजी, पांडे रूपचन्द्रजी, पं० भागचन्द्रजी और पलिखनेवालोंमें पं० वनारसीदासजी, पं० द्यानतरायजी, पं० भूधरदासजी, पं० भगवतीदासजी, पं० वृन्दावनजी, पं० देवीदासजी, पं० दौलतरामजी, पं० विहारीलालजी और सेवारामजी आदि
कविवर उत्कृष्ट गिने जाते हैं । इनके बनाये हुए ग्रन्थोंके 1 पढनेसे इनकी विद्वत्ता अच्छी तरह व्यक्त होती है। आश्चर्य है कि
इनमें से किसी भी कविने भंगाररसका ग्रन्थ नहीं बनाया । सभीने ॐ आध्यात्म और तत्त्वोंका निरूपण करके अपना कालक्षेप किया है । पं० भूधरदासजीने कहा है,
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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राग उदै जग बंध भयो, सहजै सब लोगन लाज गमाई। सीखविना सब सीखत हैं, विपयानके सेवनकी सुबराई ॥ तापर और रचे रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई। अंध असूझनकी अँखियानमें, मेलत है रज राम दुहाई !
(भूवरशतक) ___ मच है ! जिन महात्माओंके ऐसे विचार थे, उन्हें आप्यात्मिक रचनाके अतिरिक्त केवल शृंगारकी रचना कुछ विशेष शोभा नहीं देती। परमादृष्टिसे शांतरसकी समता श्रृंगाररस नहीं कर सक्ता । क्योंकि शांतरसकी ऊर्च गति है, भंगारकी अधो! परन्तु ऐसा कहनेसे यह नहीं समझना चाहिये कि, इनकी कविता नवरस-रहित और काव्यके किसी अंगसे हीन होगी, नहीं! एक आध्यात्ममें ही नयरसंघटित करके इन्होंने अपने अन्धोंको नयरलयुक्त बनाये हैं । कविवर बनारसीदासजीने अपनी आत्मामें ही न रस घटित किये हैं ! देखिये
गुणविचार शृंगार, वीर उद्दिम उदार रुख । करुणा सम रसरीति, हास हिरदै उछाह सुख ॥ अष्टकरम दलमलन, रुद्र वरतै तिहि थानक । तन विलेच्छ वीभत्स, द्वन्द दुख्दशा भयानक अद्भुत अनंतवल चिंतदन, शांत सहज वैराग ध्रुव ।
नवरस विलास परकाश तब, जब मुबोध बटप्रगट हुवा परवल आमाका यह नवरसयुक्त अपूर्व चितवन विद्वानोंको अभूतपूर्व आनन्दमय कर देता है । पाटकगग इसे एकवार अवश्य ही पाठ करें।
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उत्थानिका।
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__भाषासाहित्यके विषयमै इतना ही कह कर अव यह उत्थानिका पूर्ण की जाती है। आशा है कि, यह जिस इच्छासे लिखी गयी है, पाठकोंके द्वारा वह किसी न किसी रूपमें फलवती होगी । पाठकोंके एक बार ध्यानसे पढलेनेमें ही हम अपनी इच्छाको फलयती ॐ समझ सक्ते हैं । इत्यलम् विद्वद्वरे -
जीयाजैनमिदं मतं शमयितुं कुरानपीयं कृपा । ___ भारत्या सह शीलयत्वविरतं श्रीः साहचर्यवतम् ॥ मात्सर्य गुणिपु त्यजन्तु पिशुनाः संतोपलीलाजुषः ।
सन्तः सन्तु भवन्तु च श्रमविदः सबै कवीनां जनाः चन्दावाड़ी-बबई विदुषां चरणसरोव्हसेवी
नाथूरामप्रेमी, देवरी (सागर) निवासी।
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कविवर वनारसीदासजी।
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* मातृस्वामित्वजनजनकभ्रातृभाजिनामा * दातुं शक्तास्तदिह न फलं सजना यहदन्ते ॥ * काचित्तपां वचनरचना येन सा ध्वस्तदीपा यां शृण्वन्तः शमितकलुषा निर्वृति यान्ति तत्याः ॥ ४६५
(सुभाषितरत्नसन्दोहे ।) - इस संसारमें सज्जनजन जो फल देते हैं, वह नाता, स्वामी, स्वजन,
पिता, भ्राता, स्त्रीजनादि कोई भी देनेको समर्थ नहीं है । दोपोंको । विध्वंस करनेवाली उनकी वचनरचनाको सुनकर जीवधारी शनितकनुप (पापरहित) होकर निवृत्तिको प्राप्त करते हैं।
पाठकगण ! कविवर बनारसीदासजीकी शुभफलको देनेवाली संगति हमलोगोंको प्राप्य नहीं है। क्योंकि वे अब इन लोकमें नहीं हैं। किन्तु हमारे झुमक्रमके उदयसे उनकी निर्मल-वचन-रचना (कविता) अब भी अक्षरवती होकर विद्यमान है, जिनके सम्पूर्ण सांसारिक कलुप (पाप) क्षय हो सक्ते हैं। उन अक्षरोंसे कावियरकी
कीतिकौमुदी कैसी प्रकुटित हो रही है ! यह उपन्चल चाँदनी * आत्माका अनुभवन करनेवाले पुरुषोंके हृदयमें एक अतिक शीतलताका प्रवेश करती है, जिससे उन्हें संसारकी मोहन्याला उत्तापित नहीं करती।
जिस महामाग्यकी बचनरचना ऐमी निर्मल और मुन्ठकर है, उसकी जीवनकथा जाननेकी किसको इच्छा न होगी ! और यह जीवनकथा फितनी सुंदर और रुचिकर न होगी? और उसके मंग्रह करनेकी कितनी आवश्यकता नहीं है? ऐना नोच कर हगने
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१६ कविवरवनारसीदासः ।
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| वनारसीदासजीकी जीवनकथाका शोध करना प्रारंभ किया। जिस
समय बनारसीविलासके मुद्रित करानेका विचार हुआ है, उसके बहुत पहिले हम इस विषयके प्रयत्नमें थे । हर्पका विषय है कि ! ॐ हमारा थोडासा परिश्रम एक बडे फलरूपमें फलित हो गया है । अअर्थात् स्वयं कविवर बनारसीदासजीके हाथका लिखा हुआ ५५ वर्षका
जीवनचरित्र प्राप्त हुआ है। इस जीवनचरित्रका नाम उन्होंने अर्द्धकथानक रक्खा है, और ५५ वर्षके पश्चात् शेषजीवन-कथानक लिखनेकी प्रतिज्ञा की है । परन्तु बहुत शोध करने पर भी उनके
शेषजीवनके वृत्तस हम अनभिज्ञ रहे । अर्द्धकथानक में जो कुछ लिखा है, उसको हम गद्यप्रेमी पाठकोंकी प्रसन्नताकेलिये अपनी आलोचनासहित यहां प्रकाश किये देते हैं । अर्द्धकथानक पद्यबन्ध है। इस चरित्रमें उसके अनेक सुन्दर पद्य भी यथावसर दिये जायेंगे। ॐ पाश्चात्य पंडितोंका यह एक बडा भारी आक्षेप है कि, भारतके विद्वान् जीवनचरित्र अथवा इतिहास लिखना नहीं जानते थे। परन्तु आजसे ३०० वर्ष पहिले जब पाश्चात्यसभ्यताका नाम निशान नहीं
था, भारतका एक शिरोमणि कवि अपने जीवनके ५५ वर्षका * वृत्तान्त लिखकरके रखगया है, इतिहासमें यह एक आश्चर्यकारी घटना है। हम निर्भय होकर कह सक्ते हैं कि, कविशिरोमणि नि बनारसीदासजी एक ही कवि थे, जिन्होंने अपने जीवनकी सची घटनायें लिखकर अच्छे स्पष्ट शब्दोंमें गुणदोयोंकी आलोचना की है।
दोषोंकी आलोचना करना साधारण पुरुषोंका कार्य नहीं है। ॐ भाषासाहित्यमें अनेक संस्कृत तथा भाषा कवियोंके जीवनचरित्र लिखे गये हैं, परन्तु उनमें तथ्य बहुत थोडा है । क्योंकि किंवद
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जैनग्रन्थानावरे
अन्तियोंके आधारसे उनमें अनेक असंमत्र घटनाओंका समावेश किया। * गया है, जिनपर एकाएक विश्वास नहीं किया जा मत्ता । एनी दशामें चरित्रसे जो लोकोपकार होना चाहिये, वह नहीं होना । । क्योंकि चरित्रका अर्थ चारित्र अध्या आचरण है. और आचरणीम अन्तर्वाध दोनोंका समावेश होना चाहिये । जिनचरित्रों में यह बात ॐ नहीं है, ये पूर्ण चरित्र नहीं है। कविवर बनारसीदासजीक जीवनचरि
से भाषासाहित्यकी इन एक बड़ी मारी त्रुटिकी पूर्ति होगी । क्योंकि अन्तर्वास्य चरित्रोंका इसमें अच्छा चित्र वींचा गया है।
पारंम! पानि-जुगलपुट शीस धरि, मान अपनपो दास ।।
आनि भगत चित जानि प्रभु, यन्द्रों पांस सुपास ॥१॥ * यह मंगलाचरण अर्धकथानकका है । ऋदिवर पार्श्वनाथ और
सुपार्श्वनायके विशेष भक्त थे, इमालय कवितामें यत्र तत्र डक जिनेन्द्रद्वय की ही लुति की है । आपका जन्मनाम विक्रमाजीत था, परन्तु आपके पिता जब पार्श्वनाथमुपार्श्वनायकी जन्मभूमि वनारस (काशी) की यात्राको गये थे, तब भक्तिवश बनारसीदास नाम रखदिया था, इसका विशप विवरण आग दिया गया है। वनारसीदासजी को भी अपने नामक कारण बनारस और उक्त जिनेन्द्रद्वयके चरणों में विशेषानुराग हो गया था । बनारसीनगरी की व्युत्पत्ति देतिय धारन केसी नुन्दर की ई
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पार्य। २ गुपाय।
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कवित्त। गंगा माहिं आय धंसी, है नदी वरुना असी
बीच वसीवानारसी नगरी वखानी है। काशिवारदेश मध्य गांव तातें काशी नांव,
श्रीसुपास-पासको जनमभूमि मानी है। तहां दोऊ जिन शिवमारग प्रकट कीन्हों,
तवसेती शिवपुरी जगतमें जानी है। ऐसीविधि नाम भये नगरी बनारसीके,
और मांति कह सो तो मिथ्यामतवानी है ॥२॥ और भी अर्थकथानक की भूमिका बांधते हुए कहा है:जिन पहिरी जिन जनमपुरि, नाम मुद्रिकाछाप । सो बनारसी निज कथा; कहै आपसों आप ॥३॥ भगवान् पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनायकी स्तुति नाटकसमयसारक प्रारंममें कैसी अच्छी की है
(सर्व इस्वाक्षर ) मनहरण। करमभरमजगतिमिरहरनखग,
उरगलखनपग शिवमगदरसि। निरखत नयन भचिक जल वरपत,
हरपत अमित भविकजन सरसि। मदनकदनजित परमधरमहित,
सुमिरत भगत भगत सब डरसि।
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सजलजलदतन मुकुट सपत फन, कमठदलनजिन नमत बनरसि ॥२॥
(सर्व इस्वकारान्त) पदपत्। सकलकरमखलदलन, कमठाठपवनकनकनग। धवलपरमपदरमन, जगतजनममलकमलखग ॥ परमतजलघरपवन, सजलयनसमतन समकर।
परवघरजहरजलद, सकलजननत भवभयहर। यमदलन नरकपदछयकरन, अगमसतरमवजलतरन । ॐ वर सबलमदनवनहरदहन, जय जय परमभयकरन ॥३॥
मनहरण! जिनके वचन उर धारत जुगलनाग,
भये धरणेद्र पदमावति पलकमें। जाकी नाम महिमा सो कुचातु कनक करे,
पारस पापान नामी भयो है खलकम ॥ जिनकी जनमपुरी नामके प्रभाव हम,
आपुनो स्वरूप लस्यो भानुलो भलकमें। तेई प्रभु पारस महारसके दाता अब,
दीजे मोहि साता इंगलीलाकी ललकमें ।।। उक्त तीन छन्द विशेष मनोहर और युक्ति पूर्ण हैं, इसलिये हमको हयात् उद्धृत करना पड़े हैं। चरित्रसम्बन्धी इनसे केवल इतना ही सारांश लेना है कि, कविवर पार्थमुपावनापने इष्ट मानते थे।
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१ गूख कमट रूपी वायुको अवल नगेटकं समान ।
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पूर्व वंशधरोंकी कथा। __ मध्यभारतमें रोहतकपुर नामक एक नगर है। उसके । विहोली नामका एक ग्राम है । बिहोलीमें राजपूतोंकी वस्त वहां कारणवश एक समय किसी जैनमुनिका शुभागमन हुआ।
मुनिराजके विद्वत्तापूर्ण उपदेशों और लोकोत्तर आचरणोंसे मुग्ध से होकर ग्रामवासी सम्पूर्ण राजपूत जैनी हो गये, और____ पहिरी माला मंत्रकी, पायो कुल श्रीमाल।।
थाप्यो गोत विहोलिआ, बीहोली-रखपाल ॥ अर्थात् नवकारमंत्रकी माला पहिनके श्रीमालकुलकी स्थापना की और विहोलिया गोत्र रक्खा । बोहोलिया कुलने खूब वृद्धि पाई ॐ और दूर २ तक फैल गया । इस कुलमें परंपरागत बहुतफाटके पश्चात् गंगाधर और गोसल नामके दो पुरुष हुए । गंगाधरके । वस्तुपाल, वस्तुपालके जेठमल, जेठमलके जिनदास और जिनदासके मूलदास उत्पन्न हुए। मूलदासजी हिन्दी फारसीके ज्ञाता थे । यथा,
मूलदास जिनदासके, भयो पुत्र परधान । पढ्यो हिन्दुगी फारसी, भागवान वलवान । मूलदासजी की वणिक वृत्ति थी । अपनी विद्वत्ता और सचाईके कारण वे मुगलवादशाहके परम कृपापात्र हो गये थे। मालवा के ॐ नरवर नामके नगरमें हुमायूं के किसी उमराव को वहां जागौर प्राप्त हुई थी। यथा---
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तहां मुगल पाई जागीर ।
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१ संवत् १६०८ में मालवा हुमायूके मातहत नहीं था । उस समय हुमायूं हिन्दुस्तानने नहीं था, काबुल में था। संवत् १६०८ में हिजरी सन् ९०८ था, और उस समय मालवे शेरशाहका अमल
था उसकी तरफसे शुजाखा हाकिम था। ___ मालवेका यह हाल है कि वहां भी मुहम्मतुगलको यमन से अलग यादशाही हो गई। आखरी बादशाह महमूदाखिलजीथा, उससे
गुजरातके सुलतान बहादुरने ९ शावान सन् १३५ (चत्र गुदी ११ संवन् १५४५) को मालवा छीन लिया था। * सन् ९४१ (संवत् १५९२) में हुमायूंवादगाहने सुलतानबहा
दुरको भगाकर मालवा लिया ।सन् ९४२ (संवत् १५९३ ) जय बाद माह मालवेसे आगरे और आगरेसे वंगालेको शेरखां पठान लडने गये, तो महमूदाखिलजीके गुलाम मल्लखाने मुगलोंकों निकालकर मालवेमें अमल कर लिया और कादरशाह अपना नाम रस
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लिया।
सन् ९४९ (संवत १५९९) में शेरखान कादिरशाहको निकाल. कर शुजाखांफो मालवेमें रक्ता।
सन् १६२ (संवत् १६१२) में शुजाखां मर गया। उसका * वेटा वापजीद मालवेका मालिक होकर वाजवहादुर कहलाने लगा। से संवत १६१८ में अकबरबादशाहक अनौरान बाजबहादुरको निकालकर मालवेको दिल्ली के राज्यनें मिला दिया ।
इस व्यवस्याने मालूम होता है कि, संयन् १६०८ में जो शुजासां मालवेका मालिक था, वह हुमाका सरदार नहीं शेरखांक सरदार था और उस समय शेरखांके बेटे सलीमशाह मातहत था,।
जानना चाहिये फि, फालपी और गवालियर पावरके समयम हुमायूं वादशाह के अधिकारमें थे।कालपी में यादगाहला चचा यादगार
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statutetattatattatttttttttttttttistiane २२ कविवरबनारसीदासः ।।
शाह हुमायूंको वरंबीर ॥ १५॥ मूलदासजी उक्त नरवर नगरमें शाहीमोदी वनकर गये और अपना कार्य प्रतिष्ठापूर्वक करने लगे। कुछ दिनके पश्चात् अर्थात् सावन सुदी ५ रविवार संवत् १६०२ को आपको एक पुत्ररत से प्राप्त हुआ । जिसका नाम खरगसेन खखा । दो वर्षके पश्चात् । धनमल नामके दूसरे पुत्रने अवतार लिया । परन्तु तीन वर्ष जीवित रहके,धनमल धेनदल उडि गये, कालपवनसंजोग। मातपितातरुवर तये, लहि आतप सुतसोग ॥ १९ ॥ । घनमलके शोक को मूलदासजी झेल नहीं सके और संवत् । १६१३ में पुत्र के कुछदिन पीछे पुत्र की गति को प्राप्त हो गये।
मूलदासकी मृत्युके पश्चात् उनकी स्त्री और बालक दोनों अनाथ हो गये, अनाथिनीको पति के बिना संसार स्मशान सा दिखने लगा परन्तु इतनेसे ही कुशलता न हुई। मुगलसरदार मूलदासका काळ सुनकर आया, और उसने इनका घर खालसा करके सब जायदाद नासिरमिरजा और गवालियरमें अवुलकासिम हाकिम था। नरवर गवालियरके नीचे था, सो वहां कोई मुगलहाकिम रहता होगा, जिसके मोदी बनारसीदासजीके दादा मूलदास थे । परन्तु संवत् १६०८ में नरवरका हाकिम मुगल नहीं पठान था, संवत् १६१३ में मुगल होगा, क्योंकि संवत् १६१२ से फिर हुमायूका राज्य दिल्लीमें हो
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गया था।
१ अकथानककी जो प्रति हमारे पास है, उसमें वरवीर शब्दपर 'उमराव' ऐसी टिप्पणी है। * २ कदाचित् घनसे कविराजने नमका भाव रखा है।
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औ जन्त करली! अनायिनी और भी अनाधिनी होगई । मुगलमादार
की निर्दयताका कुछ ठिकाना या ? मरको मार माह मदार म अनाविधवा इस घोर विपत्तिको वहां रहकर सहन न कर नकी,
और अनाव बालकको पीठपर बॉयक पूर्वदशकी ओर चल पड़ी। * और नानाप्रकारके पथसंकटोंको झेलती हुई, कुछ दिनोंक पश्चात् ।
जौनपुर माहरमें पहुंची। जौनपुरमें अनापिनीका पीहर था। यहां के प्रतिष्ठित रहीस चिनालिया गोत्रज मदनसिंहजी जौहरी की यह भतीजी थी। मदनसिंहजी पुत्रीको पाकर प्रसन्न हुए और उसकी दुर्दशा सुनकर बहुत दुःखी हुए। पीछ दिलासा देके पुत्रीको सम-, आया कि, एक पुत्रसे सब कुछ हो नचा है, सुनगुःख वृक्षको छायाके समान हैं। पुत्र की रक्षा कर और नुनमे रह । यह घर द्वार मव तेरा है। - जौनपुर गोमती नदी के किनारे बसा हुआ है । पटान बंशोझव । जोनाशाह सुन्द्रतानने इस नगरको बसाया था। इस कारण इसका नाम । जीनपुर हुआ । उस समय जौनपुरराज्यका विस्तार पूर्वनें पटना है पश्चिममें इटावा दक्षिण में विंध्याचल और उत्तर हिमालय तक
था। कविवरने इस नगरका वर्णन स्वतः देन्बुकर बहुत लिना है। * परन्तु विस्तारमयसे हम उसे छोडे देते हैं, और बादशाहों की नामावली जो एक जानने योग्य विषय है, लिख देते हैं,
प्रथमशाह जोनाशह जानि । दुतिय ववक्कर शाह रखानि ॥ ३२॥ त्रितिय भयो सुरहरसुलतान । चौथो दोस्तमुहम्मद जान ॥
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कविवरवनारसीदासः। rrrrrrrrrr.rimmmmmmmmm nonmara.. पंचम भूपति शाह निजाम। छहमशाह बिराहिम नाम ॥ ३३ ॥ सत्तम साहिब शाह हुसेन। अहम गाजी सजितसैन । नवमशाह बख्यासुलतान। वरती जानु अखंडित आन ॥ ३४ ॥
१ वनारसीदासजीने जोनपुरके बादशाहोंके ये ९ नाम लिखे हैं
१ जोनाशाह २ यवक्कर ३ सुरहर ४ दोस्तमुहम्मद ५ शाहनिजाम ६ शाहविराहीम ( इब्राहीम)
शाहहुसेन गाजी ९ वख्यासुलतान इन वादशाहोंका पतालगानेकेलिये फारसीतवारीखाम जोनपुरका हाल
ढकर ऊपरके लेखसे मिलाया तो, कुछ और ही पाया, और नाम ३ भी कुछ और ही पाये । नाम उन तवारीखों के ये है११ आईनअकवरी २ तारीख निजामी ३ तारीख फरि
शता ४ तारीख फीरोजशाही ५ सेरुलमुताखरीन ६ जुगराफिये व तारीखजोनपुर वगैरः--
इनमें सबसे पुरानी फीरोजशाही है । इन तवारीखों में जो विवरण जौनपुरकी सलतनतका लिखा है, उसका सारांश यह है कि
खिलजियोंका राज्य जानेपर तुगलकजातिका दिल्लीमें उदय हुआ। पहिला वादशाह इस घरानेका गाजी तुगलक पंजावका सूवेदार था, जो कि-ता० १ शावान सन् ७३१(भादोंसुदी ३ संवत् १३७८ को सव अमीरोंकी सलाहसे दिल्लीके सिंहासनपर बैठा था। और रवीउलअवल सन् ७३५ (फाल्गुण सुदी और पैनवदी संवत् १३८१) में मरा। उसका वेटा मलिक फखरुद्दीनजोना सुलतान नासिर
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उलदीन मुहम्मदशाह के नामसे ततपर बैठा । इमीको मुहम्मदतुगलक भी कहते हैं। यह ११ मुहर्रम सन् ७५२ (चैतदी संवत् १४०७ ) को सिंधमें मर गया ।
मुहम्मद तुगलक के बेटा नहीं था, इसलिये उसके कान सालार रज्जबका बेटा फीरोजशाहबारक बादशाह हुआ। इसने सन ७७४ ( संवत् १४२९ ) में बंगालेसे लोटते हुए, गोमतीनदीके तीरपर १ अच्छी समचौरस जमीन देखकर वहां शहर बसाया, और उसका नाम अपने चचेरे भाई मुहम्मदतुगलक के असली नाम मलिकजोना के नामसे जोनपुर रक्खा, क्योंकि उसने सपनें मलिकजोनाको यह कहते हुए देखा था कि, इस दशहरका नाम मेरे नामपर रसना ।
फीरोजशाह १३ रमजान सन् ७१० ( भार्दा मुदी १५ संवत् १४४५ ) को ९० वर्षका होकर मरा। उसका पोता दूसरा ग्यासुद्दीन तुगलक बादशाह हुआ। यह २१ सफर सन् ७९१ (फागुण यदी ८ सं० १४४५) को मारा गया । उसका बचेराभाई अबूबक उसकी जगह बैठा । वह भी २० जिलहिन सन् ७६१ (पौष वदी ७ संवत् १४१७ ) को मर गया। तब उसका काका नासिरउलदीन मुहम्मदशाद चादशाह हुआ। वह १७ वीरलअव्वल सन् ७९६ (फागुण वदी ४ संवत् १४५० ) को मर गया । उसका बेटा हुमायूंखां १९ को मृत पर बैठा और १|| महीने पीछे ही मर गया। तब उसके भाई नासिरउददीन महमूदशाहको ख्वाजा जहां वजीरने उसकी जगह बैटाया। इसने पूर्व के हिन्दुओं का स्वतंत्र हो जाना सुनकर ख्वाजाजहांको उनके ऊपर भेजा । यही पहिला बादशाह जोनपुरका हुआ। इसका नाम नलिक सरवर था और फीरोजके समयमं स्योटीका दारोगा था। नाजिरउद्दीनमुहम्मदशाहने इसको वजीर बनाकर ख्वाजाजहांका निताय दिया था और जब नाविरउद्दीन महमदशाहने इते पूर्वको भेजा तो सुलतानुलशर्कका खिताब भी उसको दे दिया था, जिसका अर्थ होता है पूर्वका
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कविवरवनारसीदासः ।।
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जोनपुरके शाह। १ मुलतानउलशक ख्वाजाजहांने हिन्दुओंपर जीत पाकर जोनपुरमें अपनी राजधानी स्थापित की। उसका राज्य परगने कोल से तिरहुत तक था । वह सन् ८०२ (संवत् १४५६ । ५७) में मरा ।। उसके संतान नहीं थी, करनाल नाम १ लइकेको बेटा बनाया था। वहीं उसके पीछे जोनपुरका बादशाह हुआ और मुबारिकशाह नाम रक्खा ।
मुवारिकशाह-तुगलकोंकी बादशाही दिन २ गिरती देखकर पूरा खतंत्र होगया । २ वर्ष पीछे सन् ८०४ (संवत् १४५८१५९) मे मरा। ३ संतान इसके भी नहीं थी, भाई तख्तपर बैठा। ॐ इब्राहीमशाह (मुबारिकशाहका भाई)-इसके समयमें दिल्ली तुगलकोंसे सैयदोंने ले ली । पहिले सैयद खिजरखां और फिर सैयद मुहम्मदशाह वहाँका बादशाह हुआ । इब्राहीम दोनोंसे ही लड़ता लड़ता सन् ८४४ (संवत् १४९६ में) मर गया।
४ महमूदशाह (सुलतान इब्राहीमका बेटा)-इसके समयमें दिलीका बादशाह मुहम्मदशाह भर गया और अलाउद्दीनशाह वैठा। अमीरोंने उससे नाराज होकर महमूदशाह को बुलाया, तब अला. उद्दीन पंजावके हाकिम बहलोललोदीको दिल्ली सौंपकर बदाऊ से चला गया । बहलोलसे और महमूदसे लडाई होती रही, निदान महमूद
सन् ८६२ (संवत् १५१४१५ में) मर गया। वेटा न था, भाई तख्त पर बैठा।
५ मुहम्मदशाह (महमूदका भाई)-इसने चहलोलसे मुलह कर ली, * परन्तु फिर लड़ाई होने लगी और मुहम्मदशाह अपने भाइयों के झगड़ेम
मारा गया। ५महीने राज्य किया। उसका भाई हुसेनशाह बादशाह हुआ। ॐ हुसेनशाह-इससे और बहलोलसे भी बड़े २ युद्ध हुए, निॐ दान बहलोलने जोनपुर लेकर अपने बड़े बेटे वारखुकको दे दिया। हुसे
नशाह विहारमें चलागया। * चारखुकशाह लोदी-सन् ८९४ (संवत् १५४५।४६ ) में बहलोल
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जैनान्धरत्नाकरे २७
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मरा और छोटा पेटा निजामखां दिहीने बादशाह हुमा और गुलनान सिकंदर कहलाया। पारसुफ उससे लड़ने गया और हारा । निकंदरने जोनपुर तो उसे फेर दिया, परन्तु मुस्कने अपने हाकिम बटालिये, जिन के जुलमोसे जोनपुर राज्यके आश्रित राजाने तंग होकर मुलतान हुसेनको बुलाया। वह सन् ८९५ (संवत् १५४६।१४) में आकर सिकंदर लड़ा, परन्तु हारकर यगालेमें चला गया । सिकंदर अपने बेटे जलाल खांको जोनपुरमें यठाकर चला गया।
जलालशाह लोदी-जीवाद सन् ९२३ (मंगमर मुदी संवन् १५७३) को सिकंदर मरा और जलालशाहका माई इब्राहीमगाह दिली तस्तपर बैठा, उसने जलालशाहको निकालकर जोनपुर दरियावां लोहानीको दे दिया।
९दरियाखालोहानी के समय वावर बादशाहने मुलतान उमा होमको मारकर दिही लेली । उसी समय दरियाखां भी मर गया।
१० यहादुरशाह (दरियावांका पेटा)-यापके पीछ बादशाह हो गया। क्योंकि पटानों की बादशाही दिली जाती रही थी। चावर यादगाहने से शाहजादे तुमायूको भेजा, उसने वहादुरशाहको निकालकर हिंदूचे
गको जोनपुरमें रख दिया। उसके पीछे वायायेग उसका बेटा जोनपुरमें हाकिम हुआ।
११ वावावेगको, शेरखांसूरने, हुमायूं बादशाहने वादग्राही लेने के पीछे जोनपुरसे निकाल दिया और अपने बेटे आदिलखांफो जोनपु. रका हाकिम बनाया।
१२ आदिलखांसुर-२ रवीउल अव्वल सन् १५२ (जेठ गुदी १४ मोसंवत् १६०२) को शेरशाहके मरनेपर सलीमशाह तातपर पंडा, उगने -
आदिलशने युलाकर क्यानेका किला दे दिया और जोनपुर साल कर लिया। फिर जोनपुर खतन राज्य नहीं हुआ, पटानो के. पीठे मुगलो राज्यमें भी यहां हारिन रहते रहे। वह जोनपुरका संक्षिप्त इतिहास है। जिन्होंने इति न देगा
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कविवरवनारसीदासः ।
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यही जानते हैं कि, जोनपुर जोनाशाह (मुहम्मद तुगलक) नेवसायावा, और यही मुनमुनाकर बनारसीदासजीने भी पहिलावादशाह जोनाशाह लिया है। यह बात कविनरके ३०० वर्ष पहिले की थी, और सो भी किसी इतिहासकै आधारसे नही लिखी थी, पुराने लोगोसे पूछ पाछ लिखी थी, उसमें इतनी भूल होना संभव है। उन्होंने इस विषयमें
खतः सशकित चित होकर लिया है। 23 "इते पूर्व पुरुषा परथान । तिनके वचन सुने हम कान । ॐ वरनी कथा यथाश्रुत जेम । मृपादोष नहिं लागे एम" ३७८ ॥
(अर्धक्यानक) * इस प्रकार प्रथम पादशाह जौनाशाह नहीं, किन्तु फीरोजशाइको सम
झना चाहिये। दूसरा जो ववक्करशाह लिखा है, वह फीरोजशाह बार वुक है । वारखुकका अपभ्रश वक्क्करशाह हो सका है।
तीसरा-जोरहर सुलतान लिखा है, वह स्वाजाजहां है, जिस का नाम मलिक सरवर था, सरवर ही गलतीसे सुरहर लिखा गया है।
चौथा जिसको दोस्तमोहम्मद लिखा है, वह अथारिकशाह है, जिसका नाम करनफल श। शायद जोनपुरवाले उसे दोस्तमुहअम्मद कहते थे।
पांचवां--जिसको शानिजाम लिया है, उसका पता भुवारिकशाह और इब्राहीमके वीचमें कुछ नहीं लगता। छहा-जो शाहबाहीम लिखा है, वह इब्राहीमशाह ही है।
सातवां-बिसे शाहहुसेन लिखा है, वह इबराहीमशाहो बेटे महमूद और पोते नुहम्मदशाहके पीछे हुआ था। वीचके इन दो बादशाहोको बनारसीदासजीने नहीं लिखा है।
आठवां-जो गाजी लिखा है, वह सैय्यद बहलोललोदी है। शाहहुसेनके पीछे वही जोनपुरका मालिक हुआ था।
नवमाँ जो वख्यामुलतान लिखा है, यह बहलोलका बेटा बाखुकशाह हो सका है । जिसे वापने जोनपुरका तस्त दिया था।
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जैनग्रन्थरलाकरे २०.
mermanenerr ... rint __ बालक खरगसन अपने नानाके घर मुम्बस रहने लगा। आठ वर्षकी उमर होने पर उसने पढना प्रारंभ किया और धोदे ही दिनों हिसाव किताच चिट्ठीपत्रीकेकार्यमें व्युत्पन्न हो गया। योग्य वय होनेपर नानाके साथ सोना चांदी और जवाहिरातका व्यापार सीखने लगा। और व्यापार कुशल होनेपर नामान्तरोंम भी आने जाने लगा। एक दिन खरगसेनने अपनी मातास मंत्र लेकर नानाकी मम्मतिक बिना
ही एक घोडेपर सवार होकर बंगालकी और कूच कर दिया और से वह कई मंजिल तय करके इच्छित स्थानपर जा पहुंचा । उस समय
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इस तरह बनारसीदासजीके लेखकी विधि मिल सकती है।
जोनपुरमें जो बनारसीदासजीने जवाहिरातका व्यापार होना लिसा है, सो भी सही है क्योंकि जोनपुर आगरे और पटने बीचमें बढ़ा भारी पाहर था, और जब वहां वादशाही थी, उस वक्त तो दारी दिली ही बना हुआ था, ४ कोसमें वसता था। इलाहाबाद बसनेके पीछे जोनपुर उसके नीचे कर दिया गया था।
आईने अकबरी में जोनपुरके १९ मुहाल लिगे हैं, परन्तु अब अंगरजी अमलदारीमें जोनपुर ५ ही तहसीलोंका जिला रह गया है।
जोनपुरकी यन्ती अफवरके समयमें कितनी थी, इसका पता जुगराफिये (भूगोल) जोनपुरसे मिलता हाउसमें लिखा है कि, अश्वर यादमा हने गरीबोंकी आंसका इलाज करनेकेलिये एक हकीमको भेजा था, पर गरीयोंका मुफ्त इलाज करता था, और मनीरोंको मोल र दया देता है था।ती भी हजार पंद्रही रुपये रोजकी उसको आमदनी हो जाती थी। एक दिन उसके गुनाइतान जब उसने कहा कि, आज नो ५०१, का ही नामा विका है, तब उसने एक बड़ी आह भरी और कहा हाय. जोनपुर गोगन (जजद) हो गया। फिर वह उसी दिन आगरेको चला गया।
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१३० कविवरवनारसीदासः । Hinmarwarewer mimummmmwww.me
बंगालमें सुलेमान सुलतान राज्य करता था। सुलेमान अपने ३ साले लोदीखानयर बहुत प्यार करता था, और उसे अपने पुत्रके स्थानापञ्च मानता था । सुलेमानके कोई पुत्र नहीं था । उक लोदीखानके दीवानका नाम धन्नाराय श्रीमाल था । दीयाब बड़ा उदारशैल और कृपाल था । उसका आश्रयपाकर ५०० श्रीमाल यहां निवास करते थे । खरगसेनजी इन्हींकी सेवामें जाकर उपस्थित हुए । खरगसेनकी आयु अब भी छोटी थी । परन्तु वाक्पटुना और विचारशीलता देखके थोड़े दिन अपने आश्रित रसके दीवान चाहिनने । इन्हें चार परगनोंका पोतदार बना दिया । खरगसेन परगनामें जाके अमलदारी करने लगे।छह सात महीने के पीछे दीवान साहिवने शिखरजीकी मात्राका संघ चलाया, और कुछ दिनों में वे याचासे लौटके घर आ गये । उस दिन सामायिक करते २ उदरशूल उत्पन्न हुआ, और तत्काल ही उनका प्राण पखेरू उड़ गया । कवियर कहते हैंपुण्यसंजोग तुरे रथपायक, माते मतंग तुरंग तवेले मानि विभौ अगयो सिरभार, कियो विसतार परिवह लेले बंध वढाय करी थिति पूरन, अन्त चले रठि आप अकेले। हारि हमालकी पोटसी डारिकै, और दिवालको औदव्है खेले
सुलेमान किरानी जातिका पठान था।वह हिच सन् ९५६(संवत् ।। १६०६ से सन् १८१ (संवत् १६३०)तक वगालका स्वतंत्र हाकिम रहा था। उसकी राजधानी गोहमें थी, जो वंगालका एक पुराना शहर
था और जिसपरसे बंगालको अब तक गोडबंगाल कहते हैं, और पहिले ॐ गौडदेश भी कहते थे । कविवरने संवत् १६२५ नै बगालन्छ राजा माहमुढेमानको लिखा है, सो बहुत ठीक है । पीछे सन् ९४३ (सवत् १६३२) में अकवरकी फौजने सुलेमानले बेटे दाजदखास बंगाला और उड़ीसा छीन लिया।
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जैनग्रन्थरवाकरे ३१ खरगसेन अपनी मातासे नरवरकी विपत्तिका हाल सुन चुके थे। से रायसाइवके शरीरपात होनेपर उन्हें वही बात स्मरण हो आई, । इसलिये जो कुछ जमा पूंजी साथमें थी; उमे लेकर एक होगी। दरिद्रीका वेप बनाकर वहांसे निकल पड़े। कई दिन में मार्ग चलके जौनपुरमें आये । माताके चरणोंकी पूजा की । जो कुछ द्वन्य या
उन्हें सौंप दिया और विपत्तिका कारण बतलाया । इस समय बरगम ॐनकी वय केवल १४ वर्षकी थी, माताने आंनू भरके से दिया।
चार वर्ष जौनपुरमें रहके संवत् १६२६ में वर्गसन आगरे में व्यापार निमित्त आये । सुन्दरदास पतिया नामक मिली। से व्यापारी के मांझमें व्यापार किया । उक्त सांबीदारसे एसी मित्रता हुई कि, दोनोंकी प्रीति देखकर लोग दोनों को पिता पुत्र मगरते थे।
चार वर्षक सांझमें बहुतसा द्रव्य एकत्र किया, और पांच वर्ष * माता और गुरुजनों के प्रयत्नाने मेरठनगरके सूरदासजी श्रीमानको
कन्याके साथ खरगसेनका विवाह हो गया । विवाह होने के पश्चात् फिर अगलपुर (आगरा) आकर व्यापार में दत्तचित्त हो गये।
इसी समय अर्थात् संवत् १६३१ में मित्रचर्य मुन्दरदासजी अपनी मायांक सहित परलोकयात्रा कर गये, और अपने पीछे मात्र एक पुत्री छोड गये । बरगसेनजी उदारचरित्र पुरुष थे, उन्होंने अपनी ओरसे बड़े साजवाजसे नित्रको पुनीका विवाह कर दिया, और पंचोंके सम्मुख मुन्दरदासजीकी सम्पूर्ण मन्नति पुत्री
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संवत् १६३३ में खरगमनने आगरा छोड़ दिया और ये विपुल सम्पत्तिके अधिकारी होकरजौनपुरमें रहने लगे। पीछे जानपुरके प्रसिद्ध के
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asketaket totkati totket-tttttattattiatatatar १३२ कविवरवनारसीदासः ।
पनिक लाला रामदासजी अग्रवाल के साथ सांझे जवाहिरात का अदा करने लगे। 1 संवत् १६३५ में एक पुत्र उत्पन्न हुआ, परन्तु आठ दश दिन जीवित रहके अपनी घाट लग गया । पुनके मरनेका सुरगसेनको बहुत शोक हुआ। थोड़े दिनके पीछे पुत्रलाभकी इच्छासे वे रोहतकपुरकी सती की यात्रा करनेको सकुटुम्ब गये। परन्तु । माग्यके फेरसे मार्गमे चोगेने सर्वस्व लूट लिया, एक फूटी काडी भी पास में नहीं रही। दम्पती बड़ी कठिनतासे अपने शरीरको
लेकर घर लौटके आये। कविवर कहते हैं१ गये हुते मांगनको पूत । यह फल दोनों सती अमत प्रगट रूप देखें सब सोग । तऊ न समुझे सूरखलोग ॥
खरगसेनके नाना मदनसिंघजी बहुत वृद्ध हो गये थे, इसलिये उन्होंने सब कार्य सुरगसेनको सौंप दिया था, और आप शान्तिमावसे कालयापन करते थे । संवत् १६४१ में शान्तिमायके में साथ उनका शरीर छूट गया । नानाकी मृत्युके दो वर्षके पश्चात् भी अर्थात् सवत् १६४३ में खरगसेननी पुत्रलाभकी इच्छासे फिर असतीकी यात्राको गये । अबकी बार कुगल हुई कि, आनन्दसे लौट है।
आये । और थोड़े दिनके पीछे उनकी मनकामना मी पूर्ण हो। गई। आठ वर्षके पश्चात् पुत्रका मुंह देखा, इस लिये सविशेष आनन्द मनाया गया । दम्पति सुखसमुद्रमें गोते लगाने लगे। पुत्रका जन्मकाल और नाम नीचेके पघसे प्रगट होगा,संवत् सोलह सौ ताल । माधमास सितपक्ष रसाल। एकादशी वार रविनन्द । नखत रोहिणी घृषको चन्द ॥
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जैनग्रन्थरलाकरे ३३१ meroin am ..mra rm ..... . ... रोहिनि त्रितिय चरनयनुसाररावरगसन घर मुत अवतार! में दोनों नाम विक्रमाजीत । गावहिं कामिनि मंगलगीत ॥ भू पुत्र जब छह सात महीनेका हुआ, तब वरगसेन सकुटुम्ब पा.
नायकी यात्राको काशी गये । भगवत्की भावपूर्वक पूजन करके उनके चरणोंके समीप पुत्रको डाल दिया और प्रार्थना की,चिरंजीवि कीजे यह याल। तम शरणागतके रखपाल। १. इस वालकपर कीजे दया । अव यह दास तुम्हारा भया ८८ है
प्रार्थना करते समय मन्दिरका पुजारी यहां खड़ा था। उसने थोड़ी देर कपटरूप पवनसाधने और मौनधारण करने के पश्चात् कहा कि, पार्श्वनाथ भगवानका यक्ष मेरे ध्यानमें प्रत्यक्ष हुआ है,
उसने मुझसे कहा है कि, इस बालककी ओररेर कोई चिन्ता न १ करनी चाहिये । परन्तु एक कठिनता है, सो उसके लिये कहा है किजो प्रभु पार्वजन्मको गांव । सो दीले बालकको नांच॥९॥ तो बालक चिरजीवी होय । यह कहि लोप भयो सुर सोय॥
खरगसेनने पुजारीके इस मायाजालको सत्य समदा लिया और प्रसन्न होकर पुत्रका नाम बनारसीदास रख दिया। यही वनारसीदास हमारे इस चरित्रके नायक है।
वाल्यकाल । । हरपित कदै कुटुम्ब सब, स्वामी पास सुपास। 1 दुहुँको जनम बनारसी, यह बनारसीदास ॥९॥
बालक बड़े लाद चायके साथ पढ़ने लगा । मातापिताका पुन: पर निःसीम प्रेम था । एक पुत्रपर किस मातापिताका अंग नहीं होना PERMINATERTAITREATREATERI
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१३४ कविवरवनारसीदासः ।
.waman merament संवत् १६४८ में पुत्र संग्रहगीरोगसे असित हुआ। मातापिताके शोकका ठिकाना न रहा । ज्यों त्यों मंत्र यंत्र तंत्रोंके प्रयोगोंसे संग्रअहणी उपशान्ति हुई कि, शीतलाने आ घेरा । इस प्रकार १ वर्षक।
लगमग बालक अतीय कष्टमें रहा । शीतला शान्त होनेपर उक्त बालककी पीठपर एक बालिकाका जन्म हुआ।
संवत् १६५० में बालकने चटशालामें जाकर पांडे रूपचन्दजीके पास विद्या पढ़ना प्रारंभ किया। पांडे रूपचन्दजी अध्यात्म विद्वान और प्रसिद्ध कवि थे। उनका बनाया हुआ पंचमंगलपाठ एक हृदयग्राही श्रेष्ठ काव्य है । सारे जनसमाजमें इसका प्रचार है। जैनी मात्रको यह कंठस्थ रहता है। बालककी बुद्धि बहुत तीक्ष्ण थी, वह दो तीन वर्ष में ही अच्छा व्युत्पन्न हो गया।
जिस समयका यह इतिहास है, उस समय मुसलमानों का प्रतापसूर्य मध्याहमें था, उनके अत्याचारोंके भयसे देशमें बालविवाहका प्रचार विशेषतासे हो रहा था। अतएव ९ वर्षकी वयमें अर्थात् । संवत् १६५२ में खैराबादक शेठ कल्यानमलजीकी कन्याके साथ बालककी सगाई कर दी गई । संवत् १६५३ में एक बड़ा भारी दुष्काल पड़ा, लोग अन्नकेलिये बेहाल फिरते दिखाई दिये। अतः इस वर्ष विवाह नहीं हुआ । जव दुष्काल कमर से शांत हो गया, तव संवत् १६५४ में माघ सुदी १२ को धनारसीदासकी बरात खैराबादको गई । विवाह शुममुहूर्तम मानन्दके साथ हो गया । वरात लौटके घर आ गई । जिस दिन वरात घर आई । उसदिन खरगसेनजीके एक पुत्रीका और भी जन्म हुआ,
उसी दिन वृद्धा नानीने कूच कर दिया! कवि कहते हैं,* नानीमरन सुताजनम, पुत्रवधू आगौन।
तीनों कारज एक दिन, भये एक ही मौन ॥ १०॥ मल्लललललललललल्लामा
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जैनग्रन्थरनाकरे
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यह संसारविडम्बना, देख प्रगट दुःख मेष्ट। र चतुरचित्त त्यागी भये, मृद न जानहिं भेद ॥ १८ ॥
उस समय विवाह होनेपर यरातके साथ ही दुलहिन लयमें आती थी, उसी प्रयांक अनुसार दो महीने वधू रही, पश्चात् अपने काका के साथ लिवाई हुई, विद्यालयको चली गई। एक घड़ी भारी विपत्ति आई । जीनपुरके हाकिम कुलीचन है।
कुलीच तुर्फी भाषाका शब्द ई, इसका अर्थ माहम नहीं है। जिस नवाब कुलीचका जुन्म हरियोंपर बनारसीदासजीन लिया है, उस कुलीचखांका सकवरनामे और जहागीरनामे मगलों पर उलट पुलट करनेसे इतना पता लगा है कि, कुलीचना इंदुजाना
रहनेवाला जानाकुरबानी जातिका एक तुकया। इंदुजान नरान देशका मी एक शहर है । जो अब शायद रूस या अमारकाबुल के करमें है।
कुलीचखांके याप दादा मुगल बादशाहोंक नोकर थे। कुलीचमाली अकवरवादशाहने सन् १७ जल्ली (संयन् १६२९) में सूरती किलेदारी, और सन् २३ (संवन् १६३५) में गुजरातकी सुवेदारी दी थी। सन् २५ (संयन १६१७)में उसे वजीर बनाया। सन् २८ (संपन् १६४०)
में फिर गुजरातको भेजा और सन् १९७ (संवत् १६४Ejमें राम * तोडरमलफे मरनेपर वह दीवान बनाया गया, तो सन् २००२ (मंगन् ।
१६५०) तक रहा यी बीच में गन् १००० (संवन् १६४८)में जोनपुर मी उसकी जागारमें दे दिया गया।सन् ५००५ (संवत् १९५३) में सामान शाहजाद दानियालको इलाहावासके मूह भेगा, तो फुलीचमांगे उसका अनाटीक (शिक्षक) करके साथ किया । उपाशी येटी कामदयो व्याही थी।
फिर मन् ४४ (64) में आगरेकी, और सन् १६ (१६५८) में लाहौर तथा कावुलकी सूचदार्ग उनको दी गई।
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१३६ कविवरवनारसीदासः । में सम्पूर्ण जौहरियोंको पकड़वाके बुलवाया, और एक बड़ा मारी नग ।
मांगा, परन्तु उस समय जौहरियोंके पास उतना बड़ा जितना
हाकिम चाहता था, कोई नग नहीं था। इसलिये वेचारे नहीं दे * सके । इसपर हाकिमका क्रोध और भी उवल उठा । उसने सबको
एक कोठरीम कैद कर दिये । और जब कुछ फल नहीं हुआ तब सवेरे सवको कोड़ोंसे (दुरोंसे) पीट र के छोड़ दिया। इस अत्याचारसे अतिशय व्यथित होकर सम्पूर्ण जौहरियोंने सम्मतिपूर्वक नगर छोड़ दिया और सब यत्र तत्र चले गये । खरगसेनजीने भी अपने भी परिवारसहित पश्चिमकी और गमन किया। हाय! उस राज्यमें कैसा अन्याय था।
गंगापार कडामाणिकपुरके निकट शाहजादपुर नगर है। वहां तक आते २ मूसलाधार पानी वरसने लगा, घोर अंधकार छा गया । मार्ग कीचड़से पूर्ण हो गये, एक पैड चलना भी कठिन हो गया । लाचार शाहजादपुरकी सरायमें डेरा डालना पड़ा । उस
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सन् १०१४ (संवत् १६६२)में जहांगीर वादशाहने उसको गुजरातमें बदल दिया, और सन् १०१६ (संवत् १६६२) में वह फिर लाहोर भेजा गया।
सन् ६ जहांगीरी (संवत् १६६९) में कावुल और अफगानिस्थानके बंदोवस्तपर मुकर्रर होकर गया, जहां सन् १०२३ (संवत् १६७१) में मर गया। __वनारसीदासजीने जो संवत् १६५५ में कुलीचखांका जोनपुरमें होना लिखा है, सो सही है। क्योंकि प्रथम तो जोनपुर कुलीचवांकी जागीरमें ही था। दूसरे संवत् १६५३ में उसकी तईनाती भी इलाहाबाद सूर्वमें हो गई थी, जिसके नीचे जोनपूर भी था।
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नग्रन्थरनाकरे ३७ rry ram rrrrram rurn .-..-- .. जो समयके कष्टसे कातर होकर स्वर्गमन दीन अनायोंकी नाई रोदन : करन लंग। उन्हें स्त्री पुत्र कन्या और विपुलसम्पत्तिकी रक्षा असंभव प्रतीति होन लगी । पान्नु उदय अन्छा था। उस नगा करमचन्द नामक माहुरवणिक था । वह एक परगसजन पुरुषच खरगसनको पहिचानका था। वह इनकी विपत्तिकी टोह पाकर दौडा हुआ आया, और प्रार्थना करके खरगसेनको सपरिवार अपने गृह ले गया। करमचन्दने बड़े आग्रहसे अपना धनधान्यपूर्णगृह खरगसेनको मोर दिया और आए दूनर गृहमें रहने लगा। खरगसेनने गृहकी धान्यादि प्रचुरसामग्री न लेक लिये बहुत प्रयत्न किये, परन्तु सञ्च मित्रक प्रेमके आगे उनके आगृहका कुछ फल नहीं हुआ । कविवर कहते हैं
बन वरसै पावस समै, जिन दोनों निजभौन । ताकी महिमाकी कथा, मुखसों बरनै कौन? ॥१८॥
शाहजादपुग्में सुरगसेन सपरिवार मुसुम रहने लगे, और मित्रके अगाध प्रेमका उपभोग करने लगे। पूर्व की विपत्ति मर्यथा मूल गये । इस भूलनेपर अध्यात्म रसिया कविवरन कहा है,
वह दुख दियो नवाब कुलीच । ___ यह मुख शाहजादपुर वीव ।।
एकदृष्टि बहु अन्तर होय । ____ एकदृष्टि सुख दुख सम होय ॥ जो दुख देखे सो मुख लहै ।
सुख भुजै सोई दुख लहै। सुखमें मान में सुखी, दुसमें दुग्यमय होय । मूहपुरुषकी दृष्टिम, दीसें सुख दुग्न दोय ॥
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१३८ कविवरवनारसीदासः ।
शानी संपति विपतिमें, रहै एकसी भांति । ज्यों रवि ऊगत आथवत, तजै न राती कांति॥१३०॥
खरगसेननी शाहजादपुरमें १० महीने रहकर प्रयागको जिसे : * उस समय इलाहोवास भी कहते थे और जो त्रिवेणीके तटपर
बसा है, व्यापारके लिये गये । परन्तु कुटुम्बको शाहजादपुरमें ही छोड गये । उस समय अकवरका शाहजादा (जहांगीर) प्रयाग में ही रहता था।
पिताके चले जानेपर इधर बनारसीदासने कौड़ियां बटे से खरीदकर बेचनेका व्यापार सीखना प्रारंभ किया। प्रतिदिन टक्के दो टके कमाना और चार छह दिन पीछे अपनी दादीके सम्मुख लाकर रखना, ऐसा नियम किया । कौडियोंकी कमाईको भोली दादी अपने पौत्रकी प्रथम कमाई समझकर उसकी शीरानी और निकृती लाकर सतीके नामसे बाँट देती थी। दादीके भोलेपन विषयमें कविवरने बहुत कुछ लिखा है। उसका सारांश यह है कि "हमारी दादीके मोह और मिथ्यात्वका ठिकाना नहीं था, वे समझती थीं, कि यह बालक (बनारसी) सती जी की कृपासे ही हुआ है। और इसी विचारमें रात्रि दिवस मन रहती थीं । रात्रिको नित्य नये २ स्वम देखती थीं, और उन्हें यथार्थ समझक तदनुसार
आचरण भी करती थीं।" । तीन महीनेके पीछे खरगसेनजीका पत्र आया कि, सबको लेकर फतहपुर चले आओ। ऐसा ही हुआ, दो डोली किरायसे करके और सब सामान लेके बनारसी पिताकी आज्ञानुसार फतहपुर आ गये । फतहपुरमें दिगम्बरी ओसवाल जैनि
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योका बडा सगृह था, उनमें वासुसाहजी गुग्ग्य थे। बारमाह अध्यात्मक अच्छ विद्वान् थे । इनके पुत्र भगवतीदासीन बनारसीदासजीका सत्कार किया, और एक उत्तम न्यान रहनको दिया। खरगसनजीका कुटुम्ब फतहपुरमें आनन्दो रहन लगा परन्तु कुछ दिन पीछे ही उन्होंने पत्र लिम्बके बनारसीदाससहित इलाहाबाद बुला लिया। इलाहाबादमें उस समय जवाहिरातका ब्यापार अच्छा चटका था। दानाशाह सरकारकी जवाहिराती फरमायाको खरगसेन ही पूरी करते थे। पितापुत्र चार महीने इलाहाबाद रहे, पश्चात् फतहपुर आके कुटुम्बसे मिलें । इसी समय जुबर लगी कि, नवाबकुलीच आगरेको चला गया है, जौनपुरमें सब
ये भगवतीदासजी कविता भी करते थे, परन्तु नाहविलास के निर्माता ये नहीं हैं। क्योंकि वनाविलासके या पिताका नाम लालजी था, और इनके पिताका नाम वासूलाह था । प्राविलापक कती आगराके रहनेवाले थे, और ये जानपुरके थे। इसके अतिरिक ब्रह्मविलासग्रन्धकी रचना संवत् १७५० में हुई है और यह गगन १६५० का है। पुरुषका इतना वसा जीवन होना असम्भव है । नाद समयसारके अन्तमें भी एक भगवतीदासका नाम आया है, जो आग रेमें रहते थे, और उक्त कविवरके पांच मित्रोमें अन्यतम थे।
रूपचन्द पंडित प्रथम, इतिय चतुर्भुजनाम। तृतिय भगवतीदास नर, कंवरपाल गुणधाम ॥ ११ ॥
धर्मदास ये पांचजन, x x x x x अथवा जॉनपुरके भगवतीदासजी ही कदाचित् ये हो, और मागरे । आ रहे हो।
१ दानाशाह कौन ! यहीं शाहदानियाल तो नहीं जो असर बाद मादका छोटा पाहजादा था और इलाहाबासमें कुछ दिनों तक रसमा फुरलीचो उसका अतानीक (गाडिंयन) था।
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कविचरवनारसीदासः ।
प्रकार शांति है । खरगसेनजी सकुटुम्ब जौनपुर चले आये । अन्य जोहरी आदि जो भाग गये थे, वे भी सब आ गये थे, और जौनपुर फिर न्यों का त्यों आबाद हो गया था। सब लोग अपने २ कृत्यमें लग गये, और प्रायः एक वर्षतक जौनपुर में शान्ति रही। यह | समय संवत् १६५६ का था । इसके घोडे दिन पीछे ही एक नवीन विपति आई ।
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अकचरका शाहजादा सलीमशोह जो पीछे जहांगीर के नामसे विख्यात हुआ, कोल्हूवनकी आखेटको निकला था । कोल्हूचन जौनपुर के पास है | जौनपुर के नूरमसुलतान के पास इसी समय शाहीफरमान आया कि, शाहजादा तुम्हारे तरफ आ रहा है, कोई ऐसा उपाय करो, जिसमें उसका कोल्हूवनका जाना चन्द्र हो जावे । नूरमसुलतानने शाहीफरमान सिरपर चढ़ाया, और एक विचित्र उपाय बनाया। जहां तहांके सब मार्ग रोक दिये । शहरके आवागमनके दरवाजे बन्द करा दिये । गौमतीमें नौकायें चलाना बन्द करा दी, और आप गढ़में जाके बैठ गया। बुजापर तोप चढवा दीं । बन्दूक गोलीबारूदोंका भंडार खोल दिया । इस प्रकार विग्रहका ठाठ देखके प्रजाने भागना प्रारंभ किया । कुछ समझदार धनाढ्य लोगोंने मिलकर सुलतानसे प्रार्थना की, परन्तु उसका कुछ फल नहीं हुआ, इसलिये वे लोग भी भागे । और घोडे ही समय में वह महानगर ऊजड़ हो गया । खरगसेनजी भी सकुटुम्ब
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१ सुलतान सलीमको वापने ६ मुहर्रम सन १००८ (आसोजवदी १४ संवत् १६५५) को राना अमरसिंहके ऊपर जानेका हुक्म दिया था, मगर वह बागी होकर इलाहाबास चला गया और फिर वागी ही रहा।
२ नूरमसुलतान कुलीच के पीछे जोनपुरका हाकिम हुआ था ।
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भागनबालोंके माथी हुए, यार लछमनपुर, नागा सामने जर्ग * लछमनदासनीक आश्रयसे जा टहरे और यियत्तिके दिन गिनने लगे।
सलीम शाहजादा जानपुरके पास आ पहुंचा, परन्तु जब गामती उतरने दगा, और यह विग्रह देखा तो कुछ मितित हुआ
और अपने वकील लालवेग नग्मसुलतानके पास भेजा। वकीलने सुलतानके पास जाकर दा पांच नर्म गर्म बातें कहीं।
और शाहजादक पास उस ले आया । नुम्मसुलतान शाहजादेव परोपर पड़ गया, तब शाहजादेने गुनह माफ करके अभयदान दिया। नगरमें फिर शान्ति हो गई, मांग हुए अंग पुनः आ गये । मुरमसनजी भी ६-७ दिन लछमनपुरमें रहकर लौट आये, और अपने व्यवसायमें निरत हो गये।
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१ यह विग्रह क्यों किया गया? इसका फल क्या हुआ? चार शाहजादा से नान गया ! तुजकजहांगीरीची भूमिका में जी हाल जहांगीर यादशाहकी युवराजावस्थाका लिखा है, उससे इन प्रश्नों का समाधान हो गया है। ४. उसमें लिखा है कि, तारीख महर सन् २००५ (आगोजयदी १४ बन् १६५५) को अकबर वादगाह तो दरसन फतह करनेके दिये गये
और अजमेरका सूबा शाहसलीमको जागीरमें देर रानाले गर मा करनेका हुक्म दे गये । शाहकुलीचसा महरम और राजा मानसिंह
की नोकरी इनके पास बोली गई यंगालका सया जो गजाको सापामा भा, राजा अपने बढे ३ जगतसिंहको सौंपकर शाहरी नितमें रहने लगा।
शाहसलीमने अजमेर आकर अपनी पोज रानार कार भेजी - और कुछ दिनों पीछे आप भी शिसार मरते हुए, उदयपुर गरे । जिसको राना छोड गया था, और सिपाहियों को पहारों में भेजाररानाक पकाउनेको योशिमा करने लंग।
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कविवरवनारसीदासः।
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से यहां खुशामदी और स्वार्थी लोग जो नीचे नहीं बैठा करते हैं,
इनके कान मरा करते थे कि, बादशाह तो दक्खनके लेने में लगे हैं और वह मुल्क एकाएकी हाथ आनेवाला नहीं है; और वे भी वगैर लिये
पीछे आनेवाले नहीं है। इसलिये हजरत जो यहाँसे लौटकर आगरेसे * परेके आवाद और उपजाऊ परगनोंको ले ले, तो बडे फायदेकी बात हो।
वंगालेका फिसाद भी कि जिसकी खबरें आ रही है और जो वगैरजाने राजा मानसिंहके मिटनेवाला नहीं है, जल्द दूर हो जायगा। से यह बात राजामानसिंहके भी मतलवकी थी, क्योंकि उसने वंगा
लेकी रखवालीका जिम्मा ले रक्खा था, इस वास्ते उसने भी हमें हां मिलाकर लौट चलनेकी सलाह दी।
शाहसलीम इन बातोसे रानाकी मुहिम अधूरी छोडकर इलाहाबाद: को लोट गये। जब आगरेमें पहुंचे तो वहांका किलेदार कुलीचखां पेशवाईने आया, उस वक्त लोगों ने बहुत कहा कि, इसको पकडलेनेसे आगरेका किला जो खजानोंसे भरा हुआ है, सहजमें ही हाथ आता है, मगर इन्होंने कुबूल न करके उसको रुखसत कर दिया और यमुनासे उतरकर इलाहावासका रस्ता लिया । इनकी दादी हौदमें बैठकर इनको इस इरादेसे मना करनेके लिये किलेसे उतरी थी कि, ये नावमें बैठकर जलदीसे चल दिये और वे नाराज होकर लोट आई।
१ सफर सन् १००९ (द्वि० सावन सुदी ३ संवत् १६५५) को शाहसलीम इलाहावादके किलेमें पहुचे और आगरेसे इधरके बहुतसे परगने लेकर अपने नोकराको जागीरमें दे दिये । विहारका सूवा कुतबुद्दीनखांको दिया । जौनपुरकी सरकार लालावेगको, और कालपांकी सरकार नसीमबहादुरको दी । घनसूर दीवानने तीन लाख रुपयेका खजाना विहारके खालिसेमेसे तहसील करके जमा किया।
था, वह मी उससे ले लिया। 1 इससे जाना जाता है कि शाहसलीमने जो लालाबेगको जोनपुर दिया था, नूरमसुलतान लालावेगको लेने नहीं देता होगा;
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बनारसीदासजीकी यय इस समय १४ वर्ष की हो चुकी थी, बाल्यकाल निकल गया था, और युवावस्थाका प्रारंग था। इस समय पं० देवदत्तजीके पास पढना ही उनका एक मात्र कार्य था। धनंजयनाममालादि कई अन्य वे पढ़ चुके थे। यशापढी नाममाला शतदोय । और अनेकारय अवलोय । ज्योतिष अलंकार लघुकोक । खंडस्फुट शत चार श्लोक ॥
यायनकाल। युवावस्थाका प्रारंम बहुत बुरा होता है, अनेक लोग इस अवस्थाम शरीरके मदसे उन्मत्त होकर कुलकी प्रतिष्ठा संपति संतति आदि मत्र का चौका लगा देते हैं । इस अवस्थामें गुरुजनोंका प्रयत्न मात्र रक्षाकर सक्ता है, अन्यथा कुशल नहीं होती। हमारे चरित्रनायक अपने माता पिताके इकलोत लडके थे, इमलिये माता-पिता और दादीका उनपर अतिशय प्रेम होना स्वाभाविक है । को अमाधारण प्रेमके कारण गुरुजनोंका पुत्रपर जितना भय होना चाहिय, उतना बनारसीदासजीको नहीं था। फिर क्या था?
तजि कुलफान लोशकी लाज ।
भयो बनारसि आसियाज ॥१७॥ औरकर यासिखी धरित न धीर।
दरदयन्द ज्या शेख फकीर इकटक देख ध्यानसों धरै।
पिता आपुनेको धन हरै ॥ १७ ॥ हैं जिसपर शाहसलीम शिकारका बहाना करके गया था, फिर नूरमयेगके हाजिरदोनपर लालावेगको यहां रख पाया होगा।
शुद्ध शब्द इसकमान है।
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कविवरवनारसीदासः।
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चोरै चूनी माणिक मनी। ___ आने पान मिठाई धनी ॥
भेजे पेशकशी हित पास। ____ आप गरीब कहावै दास ॥ १७२ ॥ हमारे चरित्रनायक जिस समय इस अनंगरंगमें सराबोर हो रहे थे, उसी समय जौनपुरमें लइतरगच्छीय यति भानुचन्द्र
जीका आगमन हुआ । यति महाशय सदाचारी और विद्वान् थे भी उनके पास सैकडों श्रावक आते जाते थे। एक दिन बनारसीदा
सजी अपने पिताके साथ, यतिजीके पास गये । यतिजीने इन्हें सुबोध देखकर स्नेह प्रगट किया । बनारसीदास प्रतिदिन आने जान लगे। पीछे इतना स्नेह बह गया कि, दिनभर यतिक पास ही पाठशालामें रहने लगे । केवल रात्रिको घर आते थे। यतिके पास पंचसंधिकी रचना, अष्ठौन, सामायिक, पडिकोण (प्रतिक्रमण), छन्दशास्त्र, श्रुतबोध, कोप और अनेक स्फुटलोक आदि विषय कंठस्य पढे । आठ मूलगुण भी धारण कर लिये, परन्तु इश्क नहीं छुटा-यथा
कचहूं आइ शब्द उर धरै।
कवई जाइ आसिखी करै।
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१ यति भानुचन्द्रजी श्वेताम्बर थे, ऐसा जान पडता है। क्योकि खडतरगच्छ श्वेताम्बरसम्प्रदायका ही है, और अष्टान आदि विषय भी मुख्यतासे श्वेताम्बरीय हैं, जो कविवर ने उनके पास से पढे थे। परन्तु जान पडता है कि, उस समय दिगम्बर वेताम्बरोंमें आजकलके समान शनुभाव नहीं था। HTTERTAINMENT
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१६ कविवरवनारसीदासः। •mmmmmmmmmmmmmmmmmmmm. . में ऐसी अशुभ दशा भई, निकट न आवै कोइ।
सासू और विवाहिता, करहिं सेव तिय दोइ ॥१२॥
खैराबादमें एक नाई कुष्टरोगका धन्वन्तरि था । वह बनारसीकी टहल चाकरी और साथ ही औषधि करता था। उसने दो महीने में जी तोड़ परिश्रम करके हमारे चरित्रनायकके राहुग्रसित शरीरको संसारके गगनमंडलपर पुनः निर्मल प्रकाशित कर दिया । नाईको से यथोचित हान देकर स्वास्थ्यलाभ करके वनारसदासनी घरको ठौटे। परन्तु सासससुरने अपनी लडकीकी विदाई नहीं की। घर आके
आय पिताके पद गहे, मा रोई उर ठोकि। जैसी चिरी कुरीतकी, खो जुतदशा विलोकि ।। खरगसेन लजित भये, कुवचन कहे अनेक ।
रोये बहुत बनारसी, रहे चकित छिन एक ॥ १९५॥ १ दश पांच दिनके पश्चात् ; फिर पाठशालाने पढनको जाने के लगे और___के पढ़ना के आसिती, पहिली पारी चार ।।
खरगसेनजी इसी समय व्यापारके निमित्त पटनेको चले गये। चार महीने बीत जानेपर बनारसीदासजी फिर ससुरालको गये, और * मार्याको लेकर घर आ गये । अब आप गृहस्थ हो गये, इस कारण गुरुजन उपदेश देने लगे ...
गुरुजन लोग देहि उपदेश ।
आसिखवाज सुनें दरवेश ॥ बहुत पढ़ें वामन अरु माट।
वनिक पुत्र तो बैठे हाट ॥
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बहुत पढ़े सो मांग भीख !
__ मानहु पूत ! बड़ोंकी सीख ॥ २० ॥ परन्तु गुरुजनों के वचनन्दप ओमके कनके बनारसीके हृदय- है कमलपर उन्मत्तताकी प्रबल वायुके कारण कन ठहरनेवाले थे। बढ़ते हुए यौवन-पयोधिक प्रवाहको क्या कोई रोक मुक्ता है। * सबका कहा सुना इस कानसे सुना और उस कानसे निकाल दिया फिर हलके हलके हो गये । गुरुजीसे विद्या पहना और इसकबाज़ी करना ये दो कार्य ही उन्हें सुखके कारण प्रतीत होते थे। मतिक अनुसार गति हुआ करती है। कुछ दिनों पीछे विद्या पढना मी बुरा बैंचने लगा ! ठीक ही है, विद्या और अविद्याकी एकता कैसी संवत् १६६० में पढ़ना छोड़ दिया। इस संवत् में आपकी की बहिनका विवाह हुआ और एक पुत्रीने जन्म लिया । पुत्री ६-७ दिन रहके चल बसी । विदाई में पिताको बीमार करती गई । बनारसीदासजीको बढी मारी बीमारी लगी । बीस लंघन करनी पड़ी।
२१ वें दिन वैद्यन और भी १०-५ लंघन करानेकी बात नाही, * और यहां क्षुधाके मारे प्राग जाते थे, तब एक विचित्र रंग मुला, भरात्रिको घर सूना पाकर आप आधसेर पूरी चुराके उडा गये !!
आश्चर्य है कि, वे पूरी आपको पथ्यका काम कर गई, और आर शीघ्र ही निरोग हो गये । इसी संवत्में सरगसेनजीने एक वडा
मारी व्यापार किया, जिसमें कि सौगुणा लाम हुआ! सम्पपिसे घर से भर गया। ___ संवत् १६६१ में एक संन्यासी देवता आये । उन्होंने बडे आदमीका लडका समझने बनारसीको फँसानेके लिये जाल वि.
इस पुत्रीका नाम टिप्पणीमें वीरवाई लिखा है।
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छाया | जाल काम कर गया। बनारसी फांस लिये गये । सन्या-* सीने रंग जमाया कि मेरे पास एक ऐसा मंत्र है कि, यदि कोई
उसे एक वर्षतक नियमपूर्वक जप, तथा मिसीपर प्रगट न करे, तो ॐ साल बीतनेपर गृहद्वारपर प्रतिदिन एक सुवर्णमुद्रा पड़ी हुई पात्र । इश्कबाजोंको द्रव्यकी बहुत आवश्यकता रहती है । इस कल्पद्रुम मंत्रकी बातसे उनकी लाल टपक पड़ी । लगे सन्यासीकी सेवा सुश्रुषा करने, उधर सन्यासी लगा पैसे ठगनेकी बातें बनाने । निदान भरपूर द्रव्य खर्च करके सन्यासीसे मंत्र सीख लिया, और तत्काल ही जप करना प्रारंभ कर दिया । इधर सन्यासीजी मौका पाकर नौ दो ग्यारह हो गये । मंत्र जपते २ एक वर्ष बडी ॐ कठिनतासे पूर्ण हुआ । प्रातःकाल ही लान ध्यान करके बनारसी महाशय बडी उत्कंठासे प्रसन्न होते हुए गृहद्वारपर आये । लगे जमीन सूंघने, परन्तु वहां क्या खाक पडी थी । आशा बुरी होती है, सोचा कि कहीं दिन गिनने में मेरी भूल न हो गई हो, अस्तु एक दो दिन और सही । और भी चार छह दिन सिर पटका परन्तु मुहर तो क्या फूटी कौडी भी नहीं मिली । सन्यासीको * तरफसे अब कुछ २ आंख खुली । आपने एक दिन यह अपनबीती गुरु भानुचंद्रजीको कह सुनाई । गुरूजीने सन्यासीके छल कपटोंको विशेष प्रगट कर कहा, तब आप सचेत हुए।
थोड़े दिन पीछे एक जोगीने आकर अपना एक दूसरा ही रंग जमाया। एक बार शिक्षा पा चुके थे, परन्तु भोले बनारसीपर फिर भी रंग जमते देर न लगी ! जोगीले एक शंख तथा कुछ पूजनके उपकरण दिये और कहा कि यह सदाशिवकी मूर्ति है। इसकी पूजासे महापापी भी शीघ्र ही शिव (मोक्ष) प्राप्त करता
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है। मोले वनारसीने जोगीकीवात सिर आंखोंसे मान ली और जोगीकी । शु सेवा सुश्रूषा करना शुरू कर दी । बथायोग्य भेटादि देके उसे खूब
संतुष्ट किया । दूसरे दिनसे ही सदाशिवको पूजन होने लगी। पूजअनके पश्चात् शिव शिव-कहकर एकसौआठ बार जप भी होने लगा। * पूजन और जपमें इतनी श्रद्धा हुई कि, पूजन जप किये बिना भोजन
नहीं होते थे । यदि किसी कारणवश किसी दिन पूजन नहीं की जा * सके, तो उसके प्रायश्चित्त स्वरूप लूखा भोजन करनेकी प्रतिज्ञा थी।
परन्तु ध्यान रहै, यह पूजन गुप्तरूपसे होती थी, कोई गृहकुटुम्बी जानता भी नहीं था । अनेक दिनों यह पूजन होती रही । संवत् १६६१ में मुकीम हीरानंदनी ओसवालने शिखरजीको संघ च. लाया, गांव २ नगर २ में संघकी पत्रिकायें भेज दी। हीरानंदजी
सलीम शाहजादेके जौहरी थे, अतः उस समय इनकी बड़ी प्रतिष्ठा अथी। खरगसेनजीके पास हीरानंदजीका विशेष पत्र आया, इसलिये ये गंगाके किनारे हीरानंदजीसे मिले और हीरानंदजीके आग्रहसे
वहीं के वहीं यात्राको चले गये ।जब यह समाचार बनारसीको लगे भी तब उन्होंने घर सूना पाकर चैनकी गुड्डी उड़ाना शुरू किया । पि
ताके जानेपर पूत निरंकुश हो गये, और नित्य धरमें कलह मचाने लगे । एक दिन बैठे २ एक सुबुद्धि सूझी कि, पार्श्वनाथकी यात्राको चलना चाहिये । मातासे आज्ञा मांगी, परन्तु जब उसने सुनी। अनसुनी कर दी, तब आपने दही, दूध, घी, चावल, चना, तैल, ताम्बूल और पुष्पादि पदायाँको छोड दिया, और प्रतिज्ञा की कि जब तक यात्रा नहीं करूंगा, तब तक ये पदार्थ भोगों नहीं लाऊंगा। इस प्रतिज्ञाको ६ महीने बीत गये। कार्तिकी पूर्णिमा आ गई। शैव लोग गंगास्नानको और जैनी पार्श्वनाथकी यात्राको चले,
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तब बनारसी भी अवसर पाकर किसीसे विना पूछेताछे उनके साथ हो लिये । बनारसमें पहुंच कर गंगास्नान पूर्वक भगवान् पार्श्वसुॐ पार्श्वकी पूजन दशदिन तक बडे हावभावसे की । स्मरण रहे कि,
सदाशिवकी पूजन वहां भी छोड नहीं दी थी, वह नियमसे होती थी। यात्रा करके संखोली लिये हुए बड़े हर्पके साथ घर आ गये । कविवरने अपने जीवनचरित्रमें सदाशिवपूजनको उत्प्रेक्षा और आक्षेपालंकारमें इस प्रकार कहा है......
शंखरूप शिव देव, महाशंख वानारसी। ॐ दोऊ मिले अवेव, साहिब सेवक एकसे ॥ २३७ ॥
तारके कारण जैसी आजकलकी यात्रा सरल हो गई है, ऐसी उस समय नहीं थी । जो याना आज १० दिनमें पूरी हो जाती है, उस समय उसमें १ वर्ष बीत जाता था । अतः मुकीम हीरानन्द जीका संघ बहुत दिनके पीछे लौटके आया। आते २ अनेक लोग
मर गये, अनेक बीमार हो गये, और अनेक लुट गये । खरगसेअनजीको उदर रोगने घर दवाया । ज्यो त्यो बडी कठिनतासे संघके साथ अपने घर जौनपुर तक आये। जौनपुरमें संघका खरगसेनजीकी
ओरसे यथोचित आतिथ्यसत्कार किया गया, पश्चात् यहीसे संघ विखर गया, सब लोग अपने २ ग्राम नगरोंकी राह लग गये
संध फूटि चहुँदिशि गयो, आप आपको होय।
नदी नाव संजोग ज्यों, विछुर मिलै नहिं कोय २२३.. ३. खरगसेनजी घर रहकर धीरे २ स्वास्थ्य लाभ करने लगे। हाटबाजार में जाने आने लगे और पश्चात् प्रसन्नतासे रहने लगे। यात्रासे आनेके पहिले आपके एक पुत्रने जन्म लिया था, परन्तु यह दो
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संवत् १६६२ के कार्तिकम बादशाह जलालुद्दीन अकबरकी मृत्यु आगरामें हो गैई । यह खबर जिस समय जौनपुरमें आई, प्रजाके हृदयमें असीम याकुलताका उदय हुआ। इस आकुलताके अनेक कारण थे। एक तो आजकलकी नाई उस समय एक सम्बाट्का शरीरपात हो जानेपर दूसरा सम्राट शान्तिवाके साथ राज्यासनपर नहीं बैठ सका था । विना खूनखराबी हुए तथा प्रजापर नाना अत्याचार हुए बिना बादशाहत नहीं बदलती।
दूसरे मुसलमानोंमें अकवर सरीखे प्रजानिय वादशाह बहुत थोड़े महोते थे। यद्यपि अकवरकी राजनीति अतिशय कूट कही जाती
है, परन्तु प्रजा उसके राजत्वकालमें दुःखी नहीं रही, यह निश्चय है। आन उस प्रजावत्सल नरनाथकी परलोकयात्रासे प्रजा अनाथ । हो गई। चारों और कोलाहल मच गया। लोगोंको विपत्ति मुंह फाडके मय दिखाने लगी । सबने अपनी २ जमा पूंजीकी रक्षा चित्त लगाया
घर घर दर दर दिये कपाट ।
हटवानी नहिं बैठे हाट। हँडबाई (१)गाढी कई और।
नकद माल निरभरमी और।
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१ अकवरका देहान्त कार्तिक सुदी १४ संवत् १६६२ मंगलवारकी रात्रिको हुआ था, और दूसरे दिन बुधवारको उत्तरक्रिया हुई थी।
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५२ कविवरवनारसीदासः।। . .. ........maan mmmmmmm.. . . . . ....
भले वस्त्र अरु भूपन मले।
ते सव गाढे धरती तले॥ घर घर सनि विसाहे शन।
लोगन पहिरे मोटे वन ।। टाढो कंबल अथवा खेस।
नारिन पहिरे मोटे बेस ॥ ऊंच नीच कोउ न पहिचान ।
धनी दरिखी भये समान। चोरि घाढ़ दीसै कहुं नाहिं।
यों ही अपभय लोग डराहि ॥ २५५ ॥ यह अशान्तिकी हवा दश बारह दिन बडे जोर शोरसे चलती रही। तेरहवें दिन शान्तिसूचक बादशाही चिहियां आई और घर २ वांट दी गई । चिट्ठियां बांटते ही अशान्तिने विदा ले ली। सन्नाटा खिंच गया । घर र जयजयकार होने लगा । जो धनी
और गरीबोंका भेद उठ गया था, वह अब फिर आ डेटा । धनि३ योके वस्त्र वेष चमचमाने लगे, बेचारे दरिद्री भीख मांगते हुए। नजर आने लगे । चिट्ठीमें समाचार इस प्रकार थे
प्रथम पातशाही करी, बावनवरप जलाल। अव सौलहसै चासहै, फार्तिक हूओ काल । अकवरको नन्दन बड़ो, साहिव शाह सलेम । नगर आगरेमें तखत, बैठो अकवर जेम ॥ २६८ ॥ १ अकवरका नाम जलालउद्दीन था।
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जैनग्रन्थरत्नाकरे ५३ नाम धरायो नूरदी, जहांगीरसुलतान । * फिरी दुहाई मुलकमें, जहँ तहँ वरती आन ॥२६९॥
कविवर वनारसीदासजीका हृदय बहुत कोमल था, वे अकबरके धर्मरक्षादि गुण सुनकर बहुत प्रशंसा किया करते थे। अकवरकी मृत्युको खबर जिस समय जौनपुर आई, उस समय ये घरकी सीढ़ीपर बैठे हुए थे, सुनते ही मूर्ती आ गई । शरीर सीढीसे नीचे दुलक गया, माथा फूट गया, खून बहने लगा और उसमें कपडे सराबोर हो गये । माता पिता दोडे हुए आये, पुत्रको गोदमें उठा लिया । पंखा करके पानीके छाँट डालके मूळ उपशान्ति की गई घावमें कपडा जलाके मर दिया गया।थोडे समयमें अच्छे हो गये। नवीन बादशाहके तिलककी खुशीम घर २ उत्सव मनाया गया। राज्यभक्त प्रजाने भिखारियोंको बहुत सा दान दिया।
पाठकोंको स्मरण रहे कि, अभी तक सदाशिवकी पूजन निरंतर से हुआ करती थी, उसमें बनारसीने कमी भूल नहीं की। उस दिन एकान्तमें बैठे २ सोचने लगे।...
जय में गिख्यो परयो मुरझाय ।
तव शिव कछु नहिं करी सहाय! ॥ 1 इस विकट शंकाका समाधान जब उनके हृदयमें न हुआ, तब
उन्होंने सदाशिवजीका आसन कहीं अन्यत्र लगा दिया, और पूजन करना छोड दिया । वनारसीके नानारसी हृदयने इस समयसे ही पलटा खाया। उनके शरीरमेंसे वालकपन कभीका निकल गया अथा। युवावस्था विराजमान थी। विद्यादेवीने युवावस्थाकी सहचरी
उन्मत्ततासे बहुत झगडा मचा रखा था, परन्तु कुसंगति और ART
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५४ कविवरवनारसीदासः । म खतंत्रताके कारण वह विजयलाम नहीं कर सकी थी। अब खतं
त्रता गृहजंजालको देखके रफूचक्कर हो गई थी, वेचारी कुसंगतिको सदा साथ रहनेका अवकाश नहीं था। अतएव विद्यादेवी अपना काम कर गई । उसनें कोमल हृदयमें कोमल शान्तिरसका बीज बो दिया। कविवर वनारसीदासजीके पास अब केवल शृंगारसका गुजारा नहीं रहा।
एक दिन संध्याके समय गोमती नदीके पुलपर वनारसीदास अपनी मित्रमंडलीके साथ समीरसेवन कर रहे थे, और सरिताकी तरल-तरंगोको चित्तवृत्तिकी उपमा देते हुए कुछ सोच रहे थे। बगलमें एक सुन्दर पोथी दुव रही थी। मित्रगण भी इस समय
चुपचाप नदीकी शोभा देख रहे थे । कविवर आप ही आप * बडबडाने लगे "लोगोंसे सुना है कि, जो कोई एक बार मी न
बोलता है, वह नरकनिगोदके नाना दुःखाका पात्र होता है। परन्तु न जाने मेरी क्या दशा होगी, जिसने झूठका एक पुंज बनाके पखा है। मैंने इस पोथीमें त्रियोंके कपोलकल्पित नखशिख हायमाय । विभ्रमविलासोंकी रचना की है । हाय! मैंने यह अच्छा नहीं कियामैं तो पापका भागी हो ही चुका, अब परंपरा लोग भी इसे पढकर पापके भागी होंगे। इस उच्चविचारने कविवरके हृदयको डगमगा। दिया । वे आगे और विचार नहीं कर सके, और न किसीकी सम्मतिकी प्रतीक्षा कर सके । तत्क्षण गोमतीके उस अथाह और भीषणवेगयुक्तप्रवाहमें उस रसिकजनोंकी जीवनरूपा स्वकृत नव्यनिर्मित पोथीको डालकर निश्चित हो गये । पोथीके पन्ने अलग २ होकर वहने लगे, और मित्र हाय २ करने लगे, परन्तु फिर क्या होता था? गोमतीकी गोदमेसे पोथी छीन लेनेका किसीने साहस नहीं
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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किया । सब लोग मन मारके अपने २ घर चले आये । कविवर मी प्रसन्नतासे अपने घर गये । पाठक ! एक बार विचार कीजिये, अमूल्य-रस-रखको इस प्रकार तुच्छ समझके फेंक देना और तत्काल विरक्त हो जाना, क्या रसिकशिरोमणिको सामान्य उदारता * हुई १ नहीं ! यह कार्य वडी उदारहदयता और स्वार्थत्यागका हुआ। उस दिनसे कविवरने एक नवीन अवस्था धारण की
तिस दिनसों बानारसी, करी धर्मकी चाह । तजी आसिखी फासिखी; पकरी कुलकी राह ॥
खरगसेनजी पुत्रका उक्त वृत्तान्त सुनकर बहुत हर्षित हुए। 3 उन्हें आशा हो गई कि, मेरे कुलका नाम जैसा आज तक रहा है, वैसा आगे भी रहेगा 1 पुत्रकी पूर्वावस्यासे साम्प्रत अवस्थाका मिलान कर वें चकित हो गये । निश्चय किया कि,
कह दोप कोउ न तजै, तजै अवस्था पाय । । जैसे वालककी दशा, तरुण भये मिट जाय ॥२७॥
और
उदय होत शुभकर्मके, भई अशुमकी हानि । * तातें तुरत बनारसी, गही धर्मकी बानि ।। २७३ ॥
थोड़े ही समयमें क्या से क्या हो गया। जो बनारसी संसारको एक क्लेशजन्यरसके रसिया थे, वे ही अब जिनेन्द्रकै शान्तरसके वशमें हो गये । अडौस पडौसके लोग तया कुटुम्बीजन जिसको कल गली कूचोंमें मटकते देखते थे, आज उसी बनारमीको जिनमन्दिरको अष्टद्रव्ययुक्त जाते देखते हैं। जिनदर्शन किये बिना १ आशिकी। २ मासिकी अर्थात् पापकर्म ।
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५६ कविवरवनारसीदासः । भोजनके त्यागकी प्रतिनायुक्त देखते हैं। चतुर्दश नियम, प्रत, सामायिक,खाध्याय, प्रतिक्रमणादि नाना आचार-विचार-युक्त देखते हैं।
और देखते हैं, सच्चे हृदयसे सम्पूर्ण क्रियाओंको करते । स्वभावका इस प्रकार पलटना बहुत थोड़ा देखा जाता है।
तब अपजसी बनारसी,
अव जस भयो विख्यात ॥ १ खरगसेनजीके दो कन्या थी, जिसमेंसे एक तो जौनपुर विवाही गई थी, दूसरी कुमारी थी । इस वर्ष अर्थात् संवत् १६६४ के फाल्गुणमासमें पाटलीपुर (पटना)में किसी धनिकके पुत्र
उसका भी विवाह कर दिया गया । कन्याका विवाह सानन्द हो भी चुकनेपर इसी वर्ष
बानारसिके दूसरोः भयो और सुतकीर। दिवस कैकुमें उड़ि गयो, तज पिंजरा शरीर ॥२८॥ इस पोतेके मरनेसे खरगसेनजीको विशेष दुःख रहा । परन्तु तीन वर्षतक पुत्रके रंग ढंग अच्छे रहे, यह देखकर उन्हें बहुत कुछ शान्तवन भी मिलता रहा। संवत् १६६७ में एक दिन खरगसेनजीने । पुत्रको एकान्तमें बुलाके कहा बेटा! अब तुम सयाने हो गये। हमारा वृद्धकाल आया | पुत्रोंका धर्म है कि, योग्य-वय-प्राप्त होनेपर पिताकी सेवा करें, इस लिये अब तुम यह घरका सव कार्यभार संभालो और हम दोनोंकोरोटी खिलाओ" यह सुनके पुत्र लज्जावनत हो रहा, उससे कुछ कहा नहीं गया। पिताका प्रेम देखके आंखोंमें आरं है
भर लाया । उसी समय पिताने अपने हाथसे पुत्रको गोदमें लेके हरिमें द्राका तिलक कर दिया, और घरका सब काम सौंप दिया। पीछे
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
दो मुद्रिका, चौवीस माणिक, चौतीस मणि, नी नीलम, वीस पन्ना और चार गांठ फुटकर चुनी, इस प्रकारतो जवाहिरात, और २० मन धीव, दो कुप्पे तैल, दौ सौ रुपयाका कपडा इस प्रकार माल और कुछ नकद रुपया देकर व्यापारके लिये आगराको जानेकी आना दी। पुत्रने आज्ञा शिरोधार्य करके सब माल गाड़ियोंपर लदाके अनेक साथियोंके साथ आगरेकी यात्रा कर दी । प्रतिदिन ५ कोसके हिसाबसे चलके गाड़ियां इटावाके निकट आई, वहां मंजिल पूरी हो जानेसे एक ऊजड़ स्थानमें डेरा डाल दिया। थोडे । समय विश्राम कर पाये थे, कि मेघ उमड़ आये, अंधकार हो । गया, और लगा मूसलधार पानी बरसने ! साथके सब लोग गाड़ियां छोडके इधर उधर भागने लगे । कुछ लोग पयादे होकर
शहरकी सरायमें गये, परन्तु सरायमें कोई उमराव ठहरे हुए थे, है। इससे स्थान खाली नहीं मिला । बाजारमें भी कोई जगह खाली
नहीं देखी, आंधी और मेघकी झड़ीके मारे घर २ के कपाट
वन्द थे, कहीं खड़े होनेका भी ठिकाना नहीं पड़ा । कविवर भी कहते हैं
फिरत फिरत फावा भये, वैठन कहै न कोय । ॐ तले कीचसों पग भरें, ऊपर वरसत तोय ॥ २९४ ॥ + अंधकार रजनी विणे; हिमरितु अगहनमास।
नारि एक बैठन को पुरुष उठ्यो लै बाँस ! ॥ २९६॥ नगरमें जब रातनिकालनेका कहीं भी ठीक न पडा, तब लाचार होके गोपुरके पार एक चौकीदारकी झोपडी थी, वहां आये, और चौकीदारोंको अपनी सब आपत्ति कह सुनाई। चौकीदारोंका
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कविवस्वनारसीदासः।
हृदय इन बेचारोंकी कथा सुनके पिघल आया। उन्होंने कहा अच्छा आज रातभर आप लोग यहां आनन्दसे रहो, हम अपने घर जाके सोवेंगे । परन्तु इतना ध्यान रखना कि, सवेरे नगरका हाकिम आवेगा, वह बिना तलासी लिये नहीं जाने देगा, इस लिये में उसे कुछ दे लेके राजी कर लेना । चौकीदार चले गये, इन लो
गोने पानी लाके हाथ पैर धोये, गीले कपडे सूखनेको डाल दिये और अयाल बिछाके सबके सब विश्रामकी चिन्तामें लगे। लोगोंकी ऑन्न झपती ही जाती थीं, कि इतने एक जबर्दस्त आदमी आया, और लगा डॉट डपट बतलाने । तुम लोग किसके हुक्मसे यहां आये ? कौन हो? यहाँसे अव शीघ्र चले जाओ, नहीं तो अच्छा नहीं होगा इत्यादि । इस नवीन आपजिसे भयभीत होके चारे उठ बैठे, और विना कुछ कहे सुने चलने लगे । परन्तु इन लोगोंकी तत्कालीन दशा देखके पत्थर भी पसीनता था, नवागन्तुक तो आनी ही था। से इनके सीधेपनको देखके उससे न रहा गया, जाते हुए लौटा लिया और अपना एक टाट बिछानेको दे दिया। चौकीम जगह इतनी थोडी थी कि, सोना तो दूर रहा, चार आदमी सुमीतसे बैठ भी नहीं सकते थे। तब टाटपर नीचे तो दुखिया बनारसी तथा उनके साथी सोये और ऊपर खाट विछाके नवागन्तुक अपवे पांच २ फैलाके सोया! समय पडनेपर इतनी ही गनीमत है! क्यों त्यों
रात्रि पूरी हो गई, सबेरे देखा तो, वर्षा बंद हो चुकी थी, आकाश निखरके निर्मल हो गया था। उठके अपनी २ गाड़ियोंपर आये, ॐ और मार्गका सुमीता देखके गाडी चला दी। आगरा निकट आ
गया । धनारसीदासजी सोचने लगे, कहां जाना चाहिये ? माल कहां में उतरावा चाहिये और मुझे कहां ठहरना चाहिये ? क्योंकि उन्हें PARIYARAMPARAN
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हा व्यापारके लिये घरसे बाहिर निकलनेका यह पहिला ही अवसर था। शनिदान चित्तमें कुछ निश्चय करके गाडियोंको पीछे छोड आप है मोतीकटलेमें पहुंचे ! आपके छोटे बहनेउ, धन्दीदासजी चांपसीके घरके पास रहते थे, उन्हींके यहां गये । वहनेऊने सालेका यथोचित सत्कार किया। दो चार दिनमें बहनेऊकी सम्मतिसे एक दूसरा मकान किराये से लिया और उसमें सव माल असवाच । रखके वेचना वर्चना आरंभ कर दिया।
पहिले कपडा बेचके उसका हिसाव तयार किया तो, याजमूल देके कुछ घाटा रहा, पश्चात् धीव तैल बेचा, उसका भी यही हाल हुआ, केवल चार रूपया लाममें रहे । कपडा और घी तैलकी विक्रीका रुपया हुंडीसे जौनपुर मेज दिया और सबके पीछे जवाहिरातपर हाथ लगाया । बनारसीदास व्यापारसे अभी तक एक तो प्रायः अनमिन थे, दूसरे आगरेका व्यापार! | अच्छे २ ठगा जाते है, इनकी तो बात ही क्या थी। जिस तिसको साधु असाधुकी जांच किये बिना ही आप जवाहिरात दे देते थे, और उसके साथ जहां चाहे तहां चले जाते थे। जौहरियोंके लिये यह वर्ताव बड़े । धोखेका है। परन्तु अच्छा हुआ कि, किसी लुचे लफंगेकी दृष्टि नहीं पड़ी । तो मी अशुम कर्मका उदय था, इजारबन्दके नारेमें कुछ छूटा जवाहिरात बांध लिया था, वह नमालूम कहां खिसककर गिर गया। माल बहुत था, इससे चोट भी गहरी लगी, परन्तु किसीसे कुछ कहा नहीं । आपत्तिपर आपत्तियां प्रायः माती हैं। किसी कपड़े कुछ माणिक बंधे थे, वे डेरे रस्खे थे उन्हें चूहे
कपडे समेत ले गये दो जडाऊ पहुंची किसी शेठको वैची थी, दूसरे * दिन उसका दिवाला निकल गया! एक जडाऊ मुद्रिका थी, वह
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सडकपर गांठ लगाते हुए नीचे गिर पड़ी, परन्तु अब नीचे देवा तंब कुछ भी पता नहीं लगा, न जाने किस उठाईगीरेक हाथमें सफाई पड़ गई । इन एकपर एक आई हुई अनेक आपत्तियों से बनारसीका
कोमलहृदय कम्पित हो गया ! और संध्याको खूब जोरमे वर चढ४ आया । चिन्ताके कारण बीमारी बढ गई । वैद्यने दश कोरी संधन
कराई, पीछेसे पथ्य दिया। पथ्यके पश्चात् अशकिताके कारण है। अ महीने भर तक बाजारका आना जाना नहीं हुआ। इस बीच पिताके अनेक पन आये, परन्तु किसीका मी उत्तर नहीं दिया।। तो भी वात छुपी नहीं रही । उत्तमचन्द भाहरी वो आपके बडे । बहनेक थे, उन्होंने खरगसेननीको अपने पत्र में लिख भेजा कि
बनारसीदास जमा पूंनी सव सौक भिन्डारी हो गये हैं। इस अखवरले खरगसेनजीके घरमे रोना पीटना होने लगा। उन्होंने
अपनी स्त्रीको सम्मति से बनारसीको घरका मौर बांधा था, इसलिये लीसे कलह पूर्वक कहने लगे कि "मैं तो पहिले ही जानता
था कि, पूत धूळ लगावेगा, परन्तु तेरे कहने से तिलक किया था। ३. उसका यह फल हुबा
कहा इमाय सव थया, भया भिखारी पूत ।
पूंजी खोई वेहया, गया वनज गय सूत ॥ ३३१ ॥ । यहां वनारसीदासजी जो कुछ वस्तु पासम थी, सो सब बेच १२ के खाने लगे, और इसतरह जब पासमें केवल दो चार टके रह । १ गये, तब हाट बाजारका जाना भी छोड दिया । दिन व्यतीत ।
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जैनग्रन्थरत्नाकरे ६१ * करनेके लिये मृगावती और मधुमालती नामक पुस्तकोंको डेरमें
बैठे हुए पढा करते थे। पोथियोंको सुननेके लिये दो चार रसिकपुरुष भी पास आ बैठते थे, और प्रसन्न होते थे। श्रोताओंमें एक कचौडीवाला था, उसके यहांसे आप प्रतिदिन दोनों वक्त कचौडी उधार लेके खाया करते थे। जब उधार खाते २ बहुत दिन बीत गये, तब एक दिन पोथी सुनकर जाते हुए कचौडीवालेको एकान्तमें बुलाकर लज्जित होते हुए आपने कहा कि,
तुम उधार कीन्हों वहुत, आगे अब जिन देहु । मेरे पास कछू नहीं, दाम कहांसों लेहु ॥
मृगावती यह एक कल्पित क्या है । इसके बनानेवाले कविका नाम कुतुवन था । फुतवन जातिके मुसलमान थे और विक्रम संवत् ।। १५६० के लगभग विद्यमान थे । शेख चुरहानके दो चेले थे, एक कुतुबन और दूसरा मलिक मुहम्मदजायसी । ये दोनों ही हिन्दी अच्छे कवि हो गये हैं । मलिक मुहम्मदजायसीका पद्मावतकाव्य हिन्दीमें एक उत्कृष्ट श्रेणीका ग्रन्थ है । यह काव्य मृगावतीले ३७ वर्ष पीछे बनाया गया है । मृगावतीको कथा जिस प्रकार देव और परियोंकी असम्भववातोसे भरी है, उस प्रकार पद्मावतकी कथा नहीं हैं। पद्मावत ऐतिहासिक कथाके आधारपर लिखा गया है, और मृगावती केवल कल्पनाका प्रवन्ध है । परन्तु मृगावती कल्पितप्रवन्ध होने पर भी * सुन्दरता और सरलतासे कूट १ कर भरा है, इससे रसिकोंका जीउसे बिना पढ़े नहीं मानता। विपत्तिके समय कविवर के चित्तको इससे अवश्य विश्राम में मिलता होगा । कुतुबन जौनपुरके वादशाह शेरशाहसुरके पिता हुसे. नशाहके आश्रित थे, ऐसा समालोचक भाग ३ अंक २७-२८-२९ में , प्रकाशित हुआ है, परन्तु शेरशाहको हुसेनशाहल वेटा बतलानेने भूल
हुई जान पड़ती है। क्योंकि शेरशाहका बीनपुरके हुसेनगाहसे कुछ HTTARS
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कविवरवनारसीदासः।
कचौरीवाला मला आदमी था, वह जानता था कि, बनारसीदास कोई अविश्वस्त पुरुष नहीं है, किन्तु एक विपत्तिका मारा हुआ व्यापारी है। उसने कहा कि, कुछ चिन्ताकी बात नहीं है। आप उधार लेने जावें, मेरे द्रव्यकी परवाह न करें, और जहां जी चाहे, आवे जावें । समयपर मेरा द्रव्य वसूल हो जावेगा । इस सजनकी बातका बनारसीदास और कुछ उत्तर न दे सके, और पूर्वोक्त क्रमसे दिन काटने लगे । छह महीने इसी दशाम बीत गये। एक दिन मृगावतीकी कथा सुननेको ताबीताराचन्दनी नामके एक पुरुप आये। यह रिश्तमें बनारसीदासजीके श्वसुर होते थे। कथाके हो चुकनेपर उन्होंने बनारसीदासजीसे पहिचान निकालके वडा नेह प्रगट किया और एकान्तमें ले जाके प्रार्थना की कि, कल प्रभातकाल सम्बन्ध नहीं था । वह शूर जातिका पान था और उसका असली नाम फरीद, वापका हसन और दादाका इब्राहीम या। इब्राहीम घोडाका व्यापार करता था, परन्तु उसका बेटा हसन व्यापार छोडके सिपाही चना और बहुत दिनातकरायमल शेखावतकी नौकरी करता रहा। वहाँसे मुलतान सिकन्दर
लोदीके अमीर नसीरखांके पास नौकर रहा । फरीद धापसे स्टकर पहिले । लोदी पठानों और फिर वायरयादशाहके मुगल अमीरीके पास रहा । वावरने इसकी आँखों में फसाद देखकर पकडनेका हुक्म दिया, जिससे वह भागकर सहस्रमके जंगलोंमें लूट मार करने लगा। फिर विहार और गालेका मुल्क दबाते २ हुमायू बाहशाहसे लड़ा और उनको निकालकर संवत् १६९७ में हिन्दुस्थानका पादशाह बन वैध ।
२ मधुमालती हमारे देखनेमें नहीं आई, इसके बनानेवाले कवि चतुर्भुजदासनिगम (कायस्थ) है । इस ग्रन्थकी रचना भी संवत् १६०० के लगभग हुई जान पडती है । मधुमालतीको लोकसंख्या १२०० का है। कहते हैं कि, यह एक प्राचीनपद्धतिका पद्यवन्ध उपन्यास है।
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जैनग्रन्थरताकरे .
मेरे घरको आप अवश्य ही पवित्र करें। ऐसा कहकर चले गये।
और दूसरे दिन फिर लिबानेको आ पहुंचे । बनारसीदासजी साथ हो लिये, इधर श्वसुर महाशय अपने एक नौकरको गुसरीतिसे आज्ञा दे गये कि, तू इस मकानका भाडा वगैरह चुकाकर और डेरा डंडा उठाकर अपने घर पीछेसे ले आना । नौकरने आज्ञाकी । पूरी २ पालना की । भोजनोपरान्त बनारसीदासजीपर जब यह बात प्रगट हो गई, तब श्वसुरने हाथ जोडके कहा कि, इसमें आपको दुःखी नहीं होना चाहिये । यह घर आपका ही है, आप यदि प्रसन्नतासे रहे, तो मैं अत्यन्त प्रसन्न होऊंगा। संकोची बनारसीदासजी कुछ कर न सके और श्वसुराळ्यमें रहने लगे । दो महीने । बीत गये । व्यापार करनेकी चिन्ता रात्रि दिन सताती रही, निदान घरमदास जौहरीके साझेमें व्यापारका प्रयत्न किया । जसू और अमरसी दो भाई थे, यह जातिके ओसवाल थे। अमरसीका पुत्र धरमसी अथवा धरमदास जौहरी था । घरमसीका चालचलन अच्छा नहीं था, थोडीसी उमरमें ही उसके पीछे अनेक व्यसन लग चुके थे । इन व्यसनोंसे पीछा छुडानेके लिये ही वनारसी. दासजीकी संगति उसके वापने तजवीज की और निरन्तर समागम रखनेके लिये ५००) की पूंनी देकर दोनोंको सांझी बना दिया। ___ दोनों साझी माणिक, मणि, मोती, चुनी आदि खरीदने और भवचने लगे। कुछ दिनोंमें जब वनारसीदासजीन थोडासा द्रव्य क
१-२ ये दोनों नाम कच्छी तथा गुजरातीसे जान पड़ते हैं । उस समय आगरा राजधानी थी, इससे वहां भिन्न २ प्रान्तवालाने आकर दूकाने की थीं। ।
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६४ कविवरचनारसीदासः । भाया, तव कचौरीवालेका हिसाब कर उसके रुपया चुका दिये । कुल ।। ३१४)चौदह रुपयाका जोड हुआ। पाठको! वह कैसा समय था, जब
आगेरे सरीखे शहरमें भी दोनो वककी पूरी कचौरियोंका खर्च केवल दो ।
रुपया मासिक था! और आज कैसा समय है, जब उनदो रुपयोंमें एक 3 सप्ताहकी भी गुजर नहीं होती !! भारतवासियोंको इस अंग्रेजी राज्यमें से भी क्या वह समय फिर मिलेगा? इस सांझेके व्यापारमें दो वर्ष । पूरे हो गये, पर विशेष लाभ कुछ नहीं सूआ, इससे बनारसी विषादयुक्त हुए और आगरा छोड़ देनेका विचार किया। जनसाहुसे सांझेका सव हिसाब किया तो, दो वर्षकी कमाई २००) निकली, और इतना ही खर्च चैठ गया। चलो छुट्टी हुई, हिसान घरावर हो गया । कविवर कहते हैं
निकसी थोथी सागर मथा।
भई हींगवालेकी कथा ॥ लेखा किया लखतल पैठि,
पूंजी गई * * में पैठि ॥ ३६७ ॥ आगरा छोड़के आप खैराबाद (ससुराल) को जानेके विचारमें थे, से कि एकदिन बाजारसे लौटते हुए सड़कमें एक गठरी पड़ी हुई मिली,
उसमें आठ सुन्दर मोती बंधे थे। बड़ी खुशी हुई। धनार्थी मोहीजीवको प्रसन्नता ओर कब होगी ? बड़े यत्नसे मोती कमरमें लगालिये। और दूसरे दिन रास्ता नापने लगे। रात्रिको श्वसुरालयमें पहुंचे है बडे आदरसे लिये गये; सबको प्रसन्नता हुई।समयपर भार्यासे एकान्त । समागम हुआ । सामान्य संयोगसे, सामान्य प्रेमसे, सामान्य आनन्दसे हमारे दम्पतिका यह संयोग, प्रेम, आनन्द कुछ विलक्षण ही था।
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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पतिप्राणा स्त्री पतिके सम्मुख कुछ समयको स्तमित हो रही, कुछ स-है। समयको पति भी स्थकित हो रहा । दोनों के पारलिक शरीरोंने इस प्रकार सब ओरसे मौन धारण कर लिया। परन्तु यह शरीर क्रिया ऐसी ही नहीं बनी रही, पतिप्राणास्त्रीने साहस करके कुछेक अस्फुटित खरोंसे प्राणपतिकी शारीरिक कुशलता पूछी, औरस्वामीसे सुन्दर शब्दोंमें उत्तर पाया । पश्चात् व्यापारसम्बन्धी प्रश्न किये, जिनका उत्तर पतिन मनगढन्तकरके अयथार्थ देना चाहा, क्योंकि बीती
कथा कहनेके योग्य नहीं थी, परन्तु अगिनी भावमंगीसे उनका अवाक्छल ताड़ गई, और अपनी सेहचतुराईसे शीघ्र ही पतिका आन्तरिक विषय जानने में सफलमनोरथा हुई । बनारसीदासजी अपनी प्रियतमासे कुछ छुपाकर न रख सके । जिन दम्पतियोंके दो शरीर एक मन हैं, उनके बीचमें कपट को स्थान कब मिल सका है ? पतिकी दिशाका अनुमानकर साध्वी स्त्रीने आजकलकी स्त्रियोंकी नाई पैसेकी प्रीति नहीं दिखलाई । वडी गंभीरतासे पतिको आश्वासन दिया । और कहा
समय पायके दुख भयो, समय पाय सुख होय । होनहार सो द्वै रहै, पाप पुण्य फल दोय ॥ ३७६ ॥ इसप्रकार नाना सुखशोकके संभाषणोंमें और संयोग वियोगके चिन्तवनमें रात्रिकाल शेष हो गया। संयोगकी रातें बहुत छोटी होती हैं। शीघ्र ही सबेरा हो गया। दिवसमें एकान्त पाकर उस पतिप्राणा स्त्रीने अपने पतिके करकमलोंमें २०) रु. कहीसे लाके रक्खे और हाथ जोरके कहाये मैं जोरि धरे थे दाम । आये आज तुम्हारे काम। साहिय! चिन्तन कीजे कोय। 'पुरुष जिये तो सब कछुहोया'
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६६ कविवरवनारसीदासः।। २ अहाहा! यह अन्तका वनितावदन-विनिर्गत-पद कैसा मनोहर है। ऐसे शब्द भाग्यवान् पुरुषोंके अतिरिक्त अन्यपुरुषोंको सुनना नसीव नहीं होते । उस वन्दनीय स्त्रीको तृप्ति इतनेहीमें, नहीं हुई, उसने एकान्त पाकर अपनी माताकी गोदमें सिर रख दिया और फूट २ के रोने लगी। पतिकी आर्थिक अवस्थाके शोकस उसका हृदय कितना विद्ध हुआ है, सो माताको खोलके दिखलान हि लगी । बोली-जननी! मेरी लज्जा अब तेरे हाथ है। यदि तू साहाय्य नहीं करेगी, तो प्राणपति-सर्वस्व न जाने क्या करेंगे। वे इतने लजालु हैं कि, अपने विषय में किसीसे याच्या तो दूर रहै, एक अक्षर मी नहीं कह सक्ते । मुझसे न जाने उन्होंने कैसे कह दिया है। उनका चित्त बहुत डांवाडोल है। वे न तो धर जाना चाहते हैं और न यहां रहना चाहते हैं, परन्तुयदि तू कूछ आर्थिक सहायता करेगी, तो व्यवसाय अवश्य ही करने लगेंगे।" (धन्य पति
ते!), पुत्रीके हृदयदुःख को जानकर माताने आश्वासन देते हुए आंसू पोंछकर कहा, "बेटी ! उदास-निराश मत हो । मेरे पास ये दोसौ रुपये हैं, सो तुझे देती हूं, इससे वे आगरेको जाकर व्यापार कर सकेंगे (धन्य जननी 1)
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पुनः रात्रि हुई । दम्पति समागम हुआ । पति परायणा साथ्वीने अपने कोकिल-कण्ठ-विनिन्दित-खरसे लालायितनेत्रोंद्वारा पतिॐ की मुखच्छनि अवलोकन करते हुए कहा "नाथ! मैं समझती हूँ कि आप जौनपुर जानेके विचारमें नहीं होंगे, और यथार्थमें वहां जाना इस दशामें अच्छा भी नहीं है । मेरे कहनेसे आप आगरेको
एक बार फिर जाइये! एक बार फिर उद्योग कीजिये ! अबकी बार ॐ अवश्य ही आप सफलमनोरथ होंगे। मैं दोसौ रुपया और भी आपको है।
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जैनग्रन्थरत्नाकरे ६७
देती हूं। इन्हें मैंने अपने प्राणोंमसे निकाले हैं। आप ले जाइये और व्यापारमें लगाइये ।" भाग्यशाली बनारसी भार्याकी कृतिपर अवाक् हो रहे । हां, न, कुछ भी नहीं कहा गया ! रजनी विविधविचारोमें पूर्ण हो गई। ॐ दूसरे दिनसे व्यापारकी ओर चित्त लगाया गया। कपडा, मोती,
माणिक्यादि खरीदना शुरू किया। इस तयारीमें और श्वसुरालयके सत्कारमें चार महीने गत हो गये । अवकाश बहुत मिला, इसलिये कविता भी समय २ पर अल्पवहुत की गई। अजितनाथके छन्दों
और धनंजयनाममालाके दोसौ दोहोंकी रचना इसी समय की। पश्चात् अगहनसुदी १२ को माल भराके आगरेकी ओर रवाना हुए।
अबकी बार कटलेम माल उतारा। समयपर श्वसुरके घर भोजन करना, बाजारमें कोठीपर सोना, और दिनमर दूकानमें बैठना, बस यही उस समयका नित्यकर्म था । समयकी बलिहारी ! कपडेका मात्र बिलकुल गिर गया। विक्री एकदम गिर गई । अतः बजाजीसे हाथ
धोकर मोती माणिक्यों में चित्त दिया । मोतीका एक हार जो ४०) 1 में खरीदा था, ७०) में बेचा।३०) लाभ हुआ, इससे संतोषहुआ। तव आपने विचार किया, कि आगामी कपडेका व्यापार कमी नहीं करना, जवाहिरातका ही करना । देखो! सहन ही यौन दून हो गये।
श्रीमाल-खोबरागोत्रज वेणीदासजीके पौत्र नरोत्तमदास, बालचन्द और बनारसीदास इन तीनोंमें बडी गाढ़ी मैत्री थी। ये तीनों रात्रिंदिन १ वनारसीविलास-पृष्ठ १९३ । २ नाममाला एकवार हमारे देखनेमें आई थी, परन्तु फिर बहुत खोज करने पर भी नहीं मिली। वही अच्छी-सरल कविता है। MPARAN
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६८
कवियरवनारसीदासः ।
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एकत्र रहकर आमोद प्रमोदमें सुखम कालयापन करत थे । एक दिन तीनों मित्र एक विचार होकर कोल (अलीगढ़) की यात्राको । गये । यहाँ संसारकी प्रबल-तृष्णाकरशीभूत होकर भगात्से प्रार्थी हुए* * * * * * | हमको ना! लच्छमी दहा लछमी जय देहो तुम तात । तय फिर करहिं तुम्हारी जाता
हाय ! यह भी ऐसी ही यस्तु है। यह भगवतसे संसाररुपी मार्थनाके बदले संसारयटिकी प्रार्थना कराती है और किये हुए शुभफर-प्रदायक-पुण्यकर्मरूप यूक्षको इस याचना और निदानके मी कुबरसे काट डालती है । आज भी न जाने स्तिने लोग सके कारण देवी देवताओं को मना रहे होंगे परयही प्रार्थनाशक हमारे तीनों मित्र घरको लौट आये, कोटकी यात्रा ममाप्त हुई।
फाल्गुणमें बालचन्दका विवाह था । रातको तयारी हुई। मित्रने बनारसीदासजीसे साथ चटनेको अतिशय आनह किया तब अन्तव्य मोती आदि वेचले ३२) रुपया पासमें किये और अगतमें शामिल हो गये, नरोचमदासको भी साथ नाना पटा । घरातमें सब * रुपया खर्च हो गये। लौटके आगरे आये और खराबादी कपडेको
शारके फरोख्त कर दिया, परन्तु हिसाम किया तो मूल और व्याज है देके ४० घाटे रहे ! अदृष्टको कौन जानता है चापारकार्य निष हो चुकनेपर घरको जानेका निश्चय कर लिया। परन्तु निरपर्य नरोधमदासजीने कहा
कहै नरोत्तमदास तब, रहौ हमारे गेह।।
माईलों क्या मित्रता कपटीसों क्या नेह ? ४०६ १जात्रा (यात्रा)।
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जैनग्रन्थरत्नाकरे इस पर वनारसीदासजीने बहुत कुछ कहा सुना, परन्तु सब व्यर्थ हुआ। मित्रके यहां रहना ही पड़ा।
कुछ दिनके पश्चात् साहुकी आनासे नरोत्तमदास, उनके श्वसुर, और बनारसीदासजी तीनों पटनाकी ओर रवाना हुए । सेवक कोई साथमें नहीं लिया। फीरोजाबादसे शाहजादपुरके लिये गाडीमाडा f किया । शाहजादपुरमें पहुंचते ही माड़ेवालेने अपना रास्ता पकडा 1 सरायमें डेरा डाल दिया ! मार्गकी थकावटके मारे तीनोंको पड़ते ही गहरी निद्राने घेर लिया। एक महरके बाद जब एक मित्रकी निद्राट्टी, उस समय चांदनी का कुछ धुंधला २ उजेला था, इसलिये उसने समझा कि, प्रमात हो गया। अतः दोनों साथियोंको जगाया ।। और उसी वक्त कूच कर दिया। एक कुली किरायेयर करके अपने साथ कर लिया, और उसपर बोझा लाद दिया । परन्तु दो चार कोस चलकर
ही रास्ता मूल गये एक बड़े वीहड़ जंगलमें जा फँसे । कुली रोने लगा से और थोड़ा बहुत चलकर नौ दो ग्यारह हो गया। बडी विपत्ति उपस्थित हुई । उस जंगल में इन दुखियोंके सिवाय चौथा जीव ही न था, यदि सहायता मांगते तो किससे? अतः तीनोंने वोझेके तीन हिस्से करके अपने २ सिरके हवाले किये और लगे रोते गाते रास्ता काटने। आधी रातके पश्चात् आपत्ति के मारे एक चोरोंके आममें पहुंचे। पहिले पहिले चोरोंके चौधरीसे ही सामना हुआ। उसने पूछा कि, तुम कौन हो और कहांसे आये हो ? इस समय सबके होश गायव थे, क्योंकि इस ग्रामकी कथा पहिलेसे सुनी हुई थी। परन्तु बनारसीदासजीकी बुद्धि इस समय काम कर गई, उन्होंने अपना कल्पित नामग्राम बताके एक श्लोक पढा और उच्चस्तरसे चौधरीको आशीर्वाद दिया । लोकयुक्त आशीर्वाद सुनके चौधरी कुछ मृदु हुआ। उसने ब्राह्मण समझके दंडवत किया और वढे आदरके
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tetatututetet e kontinuitet retorikateterita tentar tenter intretention to top १७. कविवरबनारसीदासः ।
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साथ अपने घर ले गया। तथा “आप लोग मार्ग भूल गये हैं, रात्रिभर विनाम कर लें, प्रातः आपको रास्ता बतला दिया जावेगा। इस प्रकार वचनामृत कहके संतोषित किया । सशंकितचित्त मित्र चौधरीके घर ठहर गये । जव चौधरी अपने शयनागारमें चला गया, तब तीनोंने सूत वटकर जनेऊ बनाकर धारण किये और मिट्टी घिसके मस्तक त्रिपुण्डोंसे सुशोभित किये । यथा
माटी लीन्हीं भूमिसों, पानी लीन्हों ताल । विप्रवेष तीनों धरयो, टीका कीन्हों भाल ॥ ४२४ ॥
नानाप्रकारको चिन्ताओंमें रात विताई । सूरज निकलनेके पहिले ही हयारूढ़ चौधरीने आकर प्रणाम किया । विप्रोंने आशिष दी,
और बोरिया बसना बांदके तीनों साथ हो गये। तीन कोस चलनेपर फतहपुरकी रास्ता मिलगई, तब चौधरी तो शिष्टाचारपूर्वक अपने घरको लौटा, और ये दो कोस चलने पर फतहपुर मिला, वहां दो मजदूर करके इलाहावास गये । सरायमें डेरा लिया। गंगाके तट पर रसोई बनाके भोजन किये । पश्चात् वनारसीदासजी घूमने लिये नगरमें निकले । एक स्थानमें अचानक पिता खरगसेनजीके दर्शन हो गये । पुत्र पिताके चरणोंसे लपट गया, परन्तु पिताका चिरपुत्रवियोगी हृदय इस अचानकसम्मिलनको सह न सका, खरग- सेनजीको तत्काल ही मूर्छा आ गई ! 1 बनारसीदास और नरोचमदास दोनों एक डोली भाडे करके
और उसमें खरगसेनको सवार कराके जौनपुर आये। फिर जौनपुरमें दो चार दिन ठहरके व्यापारके लिये बनारस आये। बनारस जाकर पार्श्वनाथ परमेश्वरकी पूजन की । इस समय हार्दिक
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जैनग्रन्थरताकरे
३ भक्तिका अतिशय उद्वार हुआ। अतः दोनों मित्रोंने सदाचारको अनेक प्रतिज्ञाय की
अदिल्ल। सांझ समय दुविहार, प्रात नवकार सहि । एक अधेली पुण्य, निरन्तर नेम गहि । नौकरवाली एक, जाप नित कीजिये। होप लगै परमात, तो धीव न लीजिये ॥ ४३७॥
दोहा।
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मारग घरत यथा शकति, सब चौदस उपवास साखी कीन्हें पाजिन, राखी हरी पचास ॥ दोय विवाह सु सुरति है, आगे करनी और।
परदारा संगम तन्यो, दुई मित्र इक दौर ॥४३९॥ भगवत्की पूजन करके दोनों मित्र घर आये । भोजनादि करके । हंसी खुशीकी बातें कर रहे थे, इतनेमें पिताकी चिट्ठी मिली। उसमें अत्यन्त दुःखप्रद समाचार थे। " तुम्हारे तीसरे पुत्रका जन्म हुआ, परन्तु १५ दिनके पीछे ही वह चल बसा, साथमें अपनी माताको मी लेता गया! 7 वस इससे आगे और नहीं पढ़ा गया। शोकसे छाती फटने लगी, आंखोसे आंसुओंकी धारा खर २ बहने । लगी। अपनी सुयोग्य सहधर्मिणीके अलौकिक गुणों और भक्तिभावों को स्मरण करकर उनके हृदयकी क्या दश थी, इसका अनुमान हम लोग नहीं कर सके। "हाय ! वेचारीसे अन्तसमय भी न मिल सके। एकवार उसके पिपासित नेत्रोंको मेरे ये लालायित नेत्र मी न देख सके। मैंने बड़ा मारी अपराध किया, जो उसकी दुःखावस्था में साहाय्य न
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६७२ कविचरवनारसीदासः। किया ! न जाने बेचारीके प्रण कैसे दुख छूटे होंगे । सतीसानिका । मैं तुम्हारी मक्किका कुछ भी बदला न दे सका, क्षमा करना । इस प्रकारके उथल पुथल विचारोंमें मग्न बनारसीको नरोसमदासने नाना उपदेशोंसे सचेत किया और चिट्ठी पूरी पहनेको कहा।। ॐ तत्र धैर्यावलम्बन करके बनारसी आगे पढने लगे, यह लिखा था। "तुम्हारी सारी अर्थात् बडूकी छोटी बहिन कुंआरी है । तुम्हारी । ससुरालसे एक ब्राह्मण उसकी सगाईकी बातचीत लेके आया था, सो मैंने तुमसे बिना पूछे ही शुभमुहूर्त शुभदिनमें सगाई पक्की करती है। है। भरोसा है कि, तुम मेरी इस कृतिसे अप्रसन्न नहीं होओग इन द्विल्पक समाचारोंको पढकर कविवरने कहाएकवार ये दोऊ कथा । संडासी लुहारकी यथा। छिनमें अगिनि छिनक जलपात! त्या यह हर्षशोककीवात ॥
अपने गृहसंसारके इस प्रकार अचानक परिवर्तनसे किसको है शोक-वैराग्य नहीं होता है सबको होता है और अधिक होता है। परन्तु खेद है कि, मोहमाया-परिवेष्टित चित्तमें यह स्मशान-वैराग्य चिरकाल तक नहीं रहना । जगत्के बावकार्य नियमानुसार चलते हैं। न ही रहते हैं, किसीके मरने वा जन्मठेने से उनमें अन्तर नहीं आता है से बनारसीदासजीकी मी यही दशा हुई । थोडे दिनों तक उनका चित है।
शोकाकुल रहा, परन्तु पीछे व्यापारादि कायोंमें लिप्त होके वे सन । । मूल गये । सव ही मूल जाते हैं।
इन दिनों दोनो भित्रीने छह सात महीने व्यापारमें बढी मशवत उठाई । आवश्यकतानुसार कमी जौनपुर और कमी बनारसमें रहे, परन्तु निरन्तर साथमै रहे । उस समय जौनपुरका नव्याव सु चीनीकिठीचखां था, यह बडा बुद्धिवान, पराक्रमी तथा दानी
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था। और बादशाहकी ओरसे " चारहजारीमीर " कहलाता था। अइसने एक बार कविवरकी प्रशंसा सुनकर इन्हें बुलाया और बडे प्रेमसे सिरोपात्र देकर सत्कार किया । नव्याबमें और कवियरमें अत्यन्त गाढ मंत्री हो गई । नचानकी कविवरपर बड़ी या रहने लगी । कुडीचखां कोई प्रदेश फतह करनेके लिये अन्यत्र चला गया और दो महिनेतक लौटके नहीं आया । इसी समय जौनपुरम इनका कोई परम वैरी उत्पन्न हुआ, उसने इन दोनों (वनारसी-नरोत्तम) को अतिशय दुखित किया । और बहुत सी है आर्थिक हानि भी पहुंचाई।
तिन अनेकविध दुख दियो, कहाँ कहां ली सोय । 2 जैसी उन इनसों करी, तैसी करै न कोय ॥ ४५३ ॥
चीनीकिलीचखां देश विजय करके जौनपुर आगया, बनारसीदासजीसे पूर्वानुसार स्नेह रहा । अबकी बार उसने कविवरसे कुछ विद्याभ्यास करना प्रारंभ किया। नाममाला, श्रुतबोध, छन्द कोष, आदि अनेक ग्रन्थ पढ़े। किलीचवांके चले जानेपर सिम पुरुषने दुम्स पहुंचाया था, उसके विषयमें यद्यपि कविवरने नव्याबसे कुछ भी नहीं कहा था, और अपना पूर्वोपार्जित कमीका फल समझकर दे
उससे कुछ बदला भी नहीं लेना चाहते थे, परन्तु वह भयभीत हो ॐगया, और नवाबसे प्रार्थना करके पांच पंचौमसे क्षमा मांग ॐ झगडेका निबटेरा जब तक न किया, तब तक उसे निराकुलता
नहीं हुई । सज्जनोंके शत्रु स्वयं आकुलित रहा करते हैं ! संवत् । १६७२ में चीनीकिलीचवांका शरीरसात हो गया। कविवरको इस गुणग्राहीकी मृत्युसे शोक हुआ । वे अपने मित्रके साथ जौनपुर छोडके पटनेको चले गये, वहां यह सात महीने रहकर
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नाद के नंबर मालक है। टाई कर दवा देने का योगाने में
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भालू बनारसी, और जौनपुर बीच। रियो उदण्ड बटन मारकममा १९६६
हमनाइन पर डिश का * इंडीबाट उसकत, नदी नाल Harit
आई मार काय, कई बडी पाव। ईन्द नावची सनदेह सजाया सनन्न उ हिन्दी ई. हा हमा गाई बहस दिन
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सराय।
रहे । तब तक सुना कि, आगानूर आगरेकी ओर चला गया है। अतः शीघ्र ही सफर करके जौनपुर आ गये।
जौनपुरमें सबलसिंहजी मोठियाका पत्र आया कि, "दोनों सांझी यहां चले आओ, अव पूर्वमें रहनेकी आवश्यकता नहीं है। पाठकोंको स्मरण होगा कि, यह सवलसिंह वही है, जिन्होंने इन दोनोंको साझी करके व्यापारको भेजा था। इस चिट्ठीके साथमें एक शुप्तचिट्ठी नरोत्तमदासजीके नामकी आई थी, जो उनके पिताने भेजी थी । नरोत्तमदासजीने चिट्ठी मनोनिमेष पूर्वक वांची और एक दीर्घनिःश्वास लेकर अपने प्राणाधिकमिय मित्र बनारसीके हाथमें वह चिट्ठी दे दी और पाठ करने को कहा। बनारसी बांचने लगे, उसमें लिखा था
खरगसेन वानारसी, दोऊ दुष्ट विशेष । कपटरूप तुझसों मिले, करि धूरतका भेप॥ ४८१ ।।
इनके मत जो चलेगा, सो मांगेगा भीख । ____तातें तू हुशियार रह, यही हमारी सीख ॥ ४८३ _ चिट्ठी पढते ही बनारसीके मुखपर कुछ शोककी छाया दिखाई दी। यह देखते ही नरोत्तम हाथ जोड़के गदगद हो बोला मेरे अमिन्नहृदय-मित्र ! संसारमें मुझे तू ही एक सचा वांधव मिला है। मेरे पिताकी बुद्धि अविचारित-रम्य है। वे किसी दुष्टके बहकानेमें लगे हैं, अतः उनकी भूल क्षन्तव्य है। मेरा अचलविश्वास आपमें याव
चन्द्र-दिवाकर रहेगा। आप मुझपर कृपा रखें।" मित्रके इस विश-* सदविवेक-पूर्ण और विश्वस्तमापणसे वनारसी विमुग्ध-अवाक हो रहे।
चित्तौ आनन्दकी धारा बहने लगी और उसमेंसे मंद २ शब्द निकलने लगे "यदि संसारमें मित्र हो, तो ऐसा ही हो । अहा! स
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1 ७६ कविवरवनारसीदासः । * "विधिना केन सृष्टं मित्रमित्यक्षरद्वयम्" । एक दिन अपने / मिबके गुणोंका मनन करते हुए बनारसीदासजीने निलिखित कवित्त बनाया था। इसे वे निरन्तर पढा करते थे
नवपद् ध्यान गुनगान भगवंतजीको, ____ करत सुजान दिन शान जगि मानिये ।
रोम रोम अभिराम धर्मलीन आठौं जाम, __रूप-धन-धाम काम मूरति यखानिये ॥ तनको न अभिमान सात खेत देत दान,
महिमान जाके जसको वितान तानिये । महिमानिधान प्रान प्रीतम 'बनारसी' को,
चहुपद् आदि अच्छरन नाम जानिये ॥ ४४८ ॥ नरोत्तमदास संवत् १६७३ के वैशाखमें साझेका लेखा करके साहुकी आज्ञानुसार आगरे चले गये । वनारसीदास नहीं जा सका। क्योंकि इस समय उनके पिता खरगसेनजीको बीमारी लगने लगी थी । पुत्रने पिताकी जी जानसे सेवा की, नाना औषधियोका सेवन कराया, परन्तु फल कुछ भी नहीं हुआ। मौतका ॐ परवाना आ चुका था, अतः विलम्ब नहीं हो सका । ज्येष्ठकृष्णा पंचमीकी कालरात्रिमें खरगसेनजीका प्राणपखेरु शरीर पंजरसे देखतेही देखते उड़ गया । पुत्र अतिशय शोकाकुल हुआ । पूज्य पिताके पूज्य गुणस्मरण करके हाय पिता! हाय पिता! कहनेके सिवाय वह और कुछ न कर सकाकियो शोक पानारसी, दियो नैन भर रोय । हियो कठिन कीन्हों सदा, जियो न जगमें कोय ॥४९५४
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पिताके खर्गवास होनेपर १ महीने तक पुत्रने पितृशोक मनाया ।। अशोक विस्मृत करने के लिये लोगोंने उन्हें अनेक शिक्षायें देकर, व्या
त्यों संतोषित किया । जीव इष्टजनों के वियोगमें दुःखी होते हैं, परन्तु निदान यह संसार है, मोहमायामें शीघ्र ही उसको भूल जाते हैं। बनारसी फिर जगज्जालमें लीन हुए। थोड़े दिन पीछ साहुजीका पत्र आया कि "तुम्हारे विना लेखा नहीं चुकेगा, अतः तुम्हें आगरको । आना चाहिये ।" साहुजीकी आज्ञानुसार बनारसीदासजी आगरको रवाना हुए। इस यात्रामें मुगलाईके न्याय और अत्याचारका कविवरने अपनेपर बीता हुआ वृत्तान्त लिखा है, पाठकोंक रुचिकर होगा।
में अपने शाहजीकी आमासे एक शीघ्रगामी अश्वपर मवार होके आगरेको रवाना हुआ । पहिले दिन घेसुआ नामक गांधौ । रात्रि हो जानेसे ठहरना पड़ा । संयोगसे उसी दिन आगरका है एक कोठीवाल महेश्वरी अपने ६ नौकरोंके साथ इसी त्राममें मेरे पास ही ठहर गया । और भी २-३ ब्राह्मण तथा अन्य लोगोंका संग हो गया । सव १९ मनुष्य हो गये । सब आपसमें यह राय करके कि, आगरे तक बराबर साथ चलेंगे, दूसरे दिन धेसुमासे डेरा उठाके चल पडे । कई दिन चलकर इस संघन
घाटमपुरके निकट कुर्रा नामक ग्रामकी सरायमें डेरा डाला । सब ही लोग अपने २ खाने दानेकी चिन्तामें लगे, कोई बाजार गया: कोर्ट अन्य कहीं गया । मथुरावासी ब्राह्मणों से एक दूध लेनेके लिंग अहीरके घर गया और दूसरा बाजारमें पैसे भुनाकर खाद्यसामग्री लेके डेरेसर आगया | थोडी देरमें वह सराफ जिसके यहांस विप पैसे लाया था, आ धमका और बोला कि, तू हमको धोखा देकर
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कविवरवनारसीदासः ।
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खोटा रुपया दे आया है । विप्रने कहा तू शठ बोलता
चोखा देके आया हूं | बस ! दो चार बार की 'मैं मैं तु. व.
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वन पडी । विप्रजीने सराफको खूब मार जमाई। लोगोंने बीच बचाब बहुत करना चाहा, पर चौबेजी कब माननेवाले देवता थे ! सराफका एक भाई मदद करनेके लिये दौड़ा हुआ आया । पर चौबेजीके आगे लडनेमें बचाकी हिम्मत नहीं पड़ी। इसलिये एक जालसाजी सोची । ठीक ही है "लो वटसे नहीं जीता जावे उसे अकलसे जीतना चाहिये।" ब्राह्मणके कपडोंमें २५) रु० और भी बंधे हुए थे, उन्हें सराफ के भाईने खोल लिये और "ये भी सच बनावटी तथा खोटे हैं " ऐसा कहता हुआ कोतवाल के पास पहुंचा। मार्ग में चौबेके असली रुपयोंको कहीं चला दिये और बनावटी रुपये कोतवाल के सन्मुख पेश किये और बोला "दुहाई सरकार की ! नगरमें बहुतसे ठग आये हुए हैं, वे इसी तरह हजारों खोटे रुपया चला रहे हैं। और ऐसे जबर्दस्त हैं कि, लोगों को मारने पीटनेसे भी वाज नहीं आते। मेरे भाईको मार २ के अधनुआ कर डाला है । दुहाई हुजूर ! बचाइयो !!" कोतवालने इस वणिककी रिपोर्टको नगरके हाकिमतक पहुंचाई । हाकिमने दीवान साः को तहकीकात के लिये भेज दिया। संध्याका वक्त हो गया था, कोतवाल और दीवानकी सवारी सरायमें पहुंची । नगरके सैकड़ों आदमियों की सवारी भी सरायमें जा जमी । वडा जमघट्ट हुआ। कोतवाल और दीवानके सामने विप्र हाजिर किये गये । इजहार होने लगे । पहिले उनके नाम ग्रामा1 दि पूछे गये, फिर रुपयोंके विषयमें पूंछतांछ की गई। लोग नानाप्रका रकी सम्मतियां देने लगे । कोई बोले ठग हैं, कोई पाखंडी बेपी हैं, कोई बोले मालूम तो भले आदमी से होते हैं। कोतवालने सबकी सुन सुना
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कर हुक्म दिया, इनको और इनके साथियोंको इसीसमय वांध लो।
इसपर दीवानसाधने उन्हें छेड़ा । कहा कि, उतावली नहीं करनी ३ चाहिये । अभी रात्रिको चोर साहका पूरा २ निश्चय नहीं हो सक्ता,
जब तक सवेरा न हो, इन्हें पहिरेमें रखनेकी व्यवस्था कीजिये । सबैरे जैसा निश्चय हो, कीजियेगा । दीवानसा की बात मान ली गई और सब लोग पहिरेम रखे गये । उन्हें यह मी आज्ञा दी गई कि, "घाटमपुर, कुर्रा, वरी आदि तीन चारनामोंमसे यदि तुम अपनी विश्वस्तताके विषय साक्षी उपस्थित कर सकोगे, तो छोड़ दिये जाओगे अन्यथा तुम्हारा कल्याण नहीं है।” सब लोग चले गये, रात्रि आधी वीतगई, चिन्ताके मारे हम लोगोंके पास नींद खडी भी नहीं हुई। जब कि नगरमरमें वह अपना चक्र चलाके प्रायः सवको प्राणहीन कर चुकी थी। नाना सोच विचारोंमें मेरा कलेजा उछल रहा था कि, ॐ एकाएक महेश्वरी कोठीवालने कहा " मित्र! अपनी रक्षाका द्वार निकल आया। मुझे अब स्मरण हो आया कि, मेरा छोटामाई पासके इसी वरी आममें विवाहा है। अब कोई चिन्ता नहीं है। मेरेशुष्क हृदयमें आशालताका संचार हुआ; पर एकप्रकारसे संदेह वना ही रहा, क्यों कि इतने विलम्बसे महेश्वरीने जो बात कही है, उसमें कुछ कारण अवश्य है, जो सर्वथा विपत्तिसे खाली नहीं हो सक्ता । * सबरा हो गया, दीवान और कोतवालकी सवारी आ पहुंची। साथ ॐ में हम १९ आसामियोंके लिये शूली मी तयार की हुई लाई
गई, इन्हें देखते ही दयालु-हृदय पुरुष कांप उठे! कि आज किन ३ अभागोंके दिन आ पहुंचे! हम लोगोंसे साक्षी मागी गई । महेअश्वरीने वरीमें अपनी ससुरालकी बात कही। इसके सुनते ही ॐ हम सब लोगोंको पहिरेमें छोडके और महेश्वरीको साथ लेके
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Fatatutikatatuntstatute thistatuttituttitutstattatra २८. कविवरवनारसीदासः। दीवान कोतवाल बरीकी ओर गये । ससुरालवालोंसे भेट हुई। आदर सत्कार होने लगे। ससुरालवाले वडे प्रतिष्ठित पुरुष थे, उनके भेट मिलापसे ही कोतवालकी साक्षी पूरी हो गई, वे झख सी है भराये लौट आये और हमसे कहने लगे "आप सबै साहु है, हम लोगोंसे अपराध हुआ जो आप लोगोंको इतना कष्ट पहुंचाया, माफ कीजियेगा । मैंने कहा आप राजा हम प्रजा है। राजा प्रजाका ऐसा ही सम्बन्ध है, इसमें आपका कोई दोष नहीं हैजो हम कर्म पुरातन कियो। सो सब आय उदय रस दियो। भावी अमिट हमारा मता। इसमें क्या गुनाह क्या खता॥ * इस प्रकार बातचीत करके दीवानादि लज्जित होते हुए अपने । २ घर आये । मैंने एक दिन और भी मुकाम किया । छह सात
सेर फुलेल लेकर हाकिम, दीवान, कोतवाल सक्की भेट में दिया। शवे बहुत प्रसन्न हुए । अबसर पाकर मैंने उनसे कहा आपके अनगरका सराफ ठग था, हम लोग मुफ्तम फसाये गये थे । यद्यपि अहम लोग अपने भाग्यसे बच निकले, परन्तु उस ठगके विषयों * कुछ भी विचार नहीं किया गया। गरीब ब्रामणोंके रुपये दिला
देना चाहिये, वे व्यर्थ ही लूट लिये गये हैं। इसपर हाकिमाने अलजित होते हुए कहा, हमने आपके विना कहे ही उसको पक* डनेकी व्यवस्थाकी थी, परन्तु खेद है कि, मेद खुलनेके पहिले ही वे दोनों यहां से लापता हैं । अतः लाचारी है।
शामको महेश्वरी शाह आ गये, आनन्द मंगल होने लगे । शेरके । पंजेसे छुटकारा पाया, सवेरे ही सब लोग चल पडे । नदी के पार होते हुए विश्लोग मार्गमें आडे पड गये और लगे दाढ़े मारकर रोने । हमारे रुपये लूट लिये गये, अब हम कैसे जीवेगे | अब तो
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हम यहीं प्राण दे देखेंगे। उनके इन दयायोग्य वचनोंसे हमलोग से दुखी हो गये । दया आ गई । ब्राह्मणोंका क्लिाप और नहीं मुना
गया। हम दोनों (महेश्वरी-बनारसी ने मिटके २५४ रु० वित्राको देकर संतुष्ट किया । वासण आशिय देते हुए विदा हो गये ।
"ब्राह्मण गये अशीष दै, भये वणिक निप्पाप,
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इस प्रकार मुगलाई के एक राजकीय चरित्रका वर्णन समाप्त है। हुआ। जिस समय आगरा बहुत निकट रह गया था, किसी पथि कने वनारसीदासजीको वह वन खबर सुनाई, जिसके सुनने लिये वे आजन्म प्रस्तुत नहीं थे। और जिसके सुनने के लिये
उनका कोमल हृदय सर्वथा असमर्थ था, परन्तु आनेवाली आपॐदाय कहकर नहीं आती, अचानक आ पाती है। पथिकने कहा
तुम्हारे मित्र नरोचमका परलोक हो गया। इसके अतिरिक्त बना. रसी और कुछ न सुन सके । उनका सुन्दर शरीर तत्काल धराशायी हो गया, विचारशक्ति चली गई, वे मूल में आविर्भूत हो गये। उनके साथी इस दशाम बड़े बाकुल हुए, जलसेचनादि टपायोंमे । उनकी मूर्छा-निवृत्ति की । मूर्छानिवृत्ति के साथ शोकको ज्वाला उनके हृदयमें धधक उठी, जिसके कारण मुंहमसे संतस उच्यास निकलने लगे, और नेवासे बाप्पखरूप जलधारा निकलने लगी। विषादयुक्त बदन-विनिर्गत हाय मित्र! हाय मित्र ! हाय मित्र! कहां गये। आदि शब्द सुननेवालोंकी आंखोंमेंस भी दो चार बूंद आंसुओंके निकालते थे। बड़ी बुरी अवस्था हो गई। लोगोंने व्या लों समझा बुझाकर उन्हें आगरेमें ठिकानेपर पहुंचाया । वहां
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८२ कविवरवनारसीदासः । वे अनेक दिन तक शोकाकुल रहे, बड़ी कठिनता से मित्रशोकको विस्मृत कर सके। + एक दिन आगरेमें किस लिये आये हैं ? इस बातकी चिन्ता हुई,
तब साहुजीके हिसाव करनेके लिये गये । परन्तु साहुजीका शाही दरबार देखके अवाक् हो रहे । उन्होंने वणिकोंके घर ऐसा अंधाधुंध कभी नहीं देखा था । साहुजी तकियेके सहारे पड़े हैं । बन्दीजन विरद पढ़ रहे है। नृत्यकारिणी छमाके भर रही है। नानाप्रकारके - सुंदर वादिन बज रहे हैं । भांड अपनी रंगविरंगी नकलोंमें मस्त हैं। :
और शेठजी तथा उनके सेवक सबहीमें मस्त हैं। भला! वहां इनका ! हिसाव कौन सुने ? और वहां इतना अवकाश किसको ? कविवर लि. अखते हैं, कि इस दरबार में पैर तोड़ते २ मैंने चार गहिने खो दिये ।।
जवहिं कहें लेखेकी वात । साहु जवाव देहिं परभात । मासी बरी छमासी जाम । दिन कैसा? यह जाने राम ॥ सूरज उदय अस्त है कहां? विषयी विषय मगन है जहां ॥
साहुजीके अंगाशाह नामक बहनेऊ (भगिनीपति) थे, जो बनारसीदासके मित्र थे। इनके द्वारा बनारसीदासने बड़ी कठिनतासे अपना हिसाव साफ किया। साहुजीने कहने सुननेसे न्यो त्यो । अफारकती लिख दी। इसके बाद ही वनारसीदासके भाग्यका सितारा
चमका । उन्होंने साझा छोड़के पृथक् दूकान कर ली, और उसमें खूब लाभ उठाया।
संवत् १६७३ के फाल्गुणमासके लगभग आगरेमें उस रोगकी: * उत्पत्ति हुई, जो आज सारे भारतवर्षमें व्याप्त है, और जो दशवर्षसे लक्षावधि प्रजाको मुंह फाड़ २ के निगल रहा है । जिसके आगे
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डाक्टर लोगअसमर्थ हो जाते हैं, हकीम लोगजयाव दे देते हैं, और वैद्य वगले झांकते हैं । जिसे अंग्रेजीमें प्लेग, हिन्दीमें मरी, और मराठी गुजराती, मरकी कहते हैं । अनेक लोगोंका ख्याल है कि यह रोग भारतमे पहिले पहिल हुआ है, परन्तु यह उनकी भूल है। इसके सैकड़ो प्रमाण मिलते हैं, कि प्लेग अनेक वार हो चुकी है।
और उसका यही रूप था जो आज है । कविवरने इस विषयमें जो वाक्य लिखे हैं, वे ये हैं
१वम्बईके भूतपूर्व कमिश्नर 'सरजेम्स केम्वले ने 'अहमदावादगेजेरियर में कुछ दिन पहिले इस विषय सम्बन्धी अनेक उल्लेख किये हैं, जो पाटकोंके जानने योग्य है। उन्होंने लिखा है कि, "इसी । सन् १६१८ अर्थात् वि० सं० १६७५ के लगभग अहमदावादमें लेग फैल रहा था, जो कि आगरा-दिल्लीची ओरसे आया था, और जिसम्म प्रारंम ई० स० १६११ में पंजावसे निश्चित होता है । जिस समय प्लेग आगरा और दिल्लीमें कहर मचा रहा था, वहांके तत्कालीन वादशाह जहांगीर उससे डरकर अहमदाबादमें कुछ दिनोंके लिये आ रहे थे। कहते हैं कि उनके आनेके थोडे ही दिन पीछे इस छुआ. छूतके रोगने अहमदावादमें अपना डेरा आ जमाया था। सारांशअहमदाबादने आगरा-दिल्लीसे और आगरा-दिल्ली में पंजाबसे रोगका वीज आया था। उस समय प्लेगका चक्र यत्र तत्र ८ वर्षके लगभग चला था। वर्तमान प्लेगकी नाई उस समय भी उसका चूहोंस घनिष्ट सम्बन्ध पाया जाता था, अर्थात् उस समय जहाँ २ लेगका उपद्रव
होता था, चूहोंकी संख्या वृद्धि होती थी। उस समय हिन्दुस्थानमें जो । यूरोपियन रहते थे, उन्हें भी लेगमें फँसना पड़ा था। यह काले
और गोरोंके साथ नीतिज्ञ राजाकी नाई तब भी एक सा बर्ताव करता या । इस विषयमें "मि० टेरी" नामफ अन्धकारने लिखा है "ना
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इस ही समय ईति विस्तरी। परी आगरेपहिली मरी। जहां तहां सब भागे लोग | परगट भया गांठका रोग ॥ निकसै गठि मरै छिनमाहिं । काहुकी वसाय कछु नाहि चूहे मरें वैद्य मर जाहिं। भयसों लोग अन्न नहिं खाहि
मरीसे भयभीत होकर लोग भाग २ के दूर २ के खेटों और जंगलोंमें जा रहे । बनारसीदासजी भी एक अजीजपुर नामके ग्राममें
एक ब्राह्मण मालगुजारके यहां जाके रहने लगे। मरीकी निवृत्ति ३ होनेपर वे अपने मित्र 'निहालचन्द, जीके विवाहको अमृतसर गये,
और वहांसे लौटकर फिर आगरेमें रहने लगे । माताको भी जौनदिनके अरसेमें सात अंग्रेजोंकी मृत्यु हो गई, लेगमें फेंचने के बाद इन रोगियोंमेंसे कोई भी २४ घंटेसे अधिक जीता नहीं रहा, बहुतोंने
तो १२ घंटमें ही रास्ता पकड लिया।" सन् १६८४ में औरंगजेब अबादशाहके लइकरमे भी लेगने कहर मचाया था, ऐसा इतिहाससे पता * लगा है।
बनारसीदासजीके नाटकसमयसार ग्रन्थमें भी लंगका पता लगता है। उसमें बंधद्वारके कथनमें जगवासी जीवोंके लिये कहा है__ "घरमकी बूझी नहीं उरझे भरम माहि
नाचि नाचि मर जाहिं मरी कैसे चूहे हैं * पाठकोंको जानना चाहिये कि, उस समय लेगको मरी कहते थे। यद्यपि महामारी (हैना) को भी मरी कहते हैं, परन्तु चूहोंका मरना। यह प्लेगका ही असाधारण लक्षण है, हैजाका नहीं।
१ लेगका एक विशेष भेद भी है, जिसमें गांठ नहीं निकलती है केवल ज्वर होता है और ज्वरके पश्चात् मृत्यु । वैद्यक ग्रन्थकाराने प्लेगको "प्रन्थिक सन्निपात” बतलाया है। यह असाध्य रोग है। .
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पुरसे अपने पास बुला लिया, और उनकी आमानुसार खैराबाद जाकर उन्होंने अपना दूसरा विवाह कर लिया । मैराबादसे आकर कविवरके चित्तम यात्रा करनेकी इच्छा हुई, इसलिये वे अपनी माता और नवीन मार्याको साथ लेकर 'अहिछिति पार्श्वनाथ की वंदनाको गये, और वहांसे हस्तिनागपुर आये । वहां पर भगवान् शान्तिनाथ, कुंथुनाथ, और अरःनाथकी भक्तिमाहित पूजन की । पूजनमें एक तात्कालिक षट्पद बनाकर पढ़ा
श्री विसंसेननरेश-, सूरनप-राय सुंदसन ।
ऐस-सिरि-आदेवि, (१)कराह जिस देव प्रसंसन ॥ ३ तासु नंदन सारंग-,छौंग-नन्दवित लंछन । * चालिस-पैतिस-तीस, चीप काया छवि कंचन ।
सुखरास 'बनारसिदास' भनि, निरखत मन आनन्दई।। ॐ हथिनापुर-जपुर-नागपुर, शान्ति-कुन्थु-अर धन्दई ॥
हस्तिनापुरसे दिल्ली, मेरठ, कोल होते हुए बनारसीदासजी । सकुटुम्ब सकुशल आगरा आ गये । संवत् १६७६ में कविवरको द्वितीयमार्यासे एक पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई।७७ में माताका स्वर्गवास हो गया । ७९ में पुत्र तथा भार्या दोनोंने विदा मांग ली । और लोकरीतिके अनुसार संवत् ८० में खैराबादके ककड़ीगोत्रज वेगाशाह
जीकी पुत्रीके साथ विवाह हो गया। जैसे पतझर होके वृक्षों Elपुनः नवीन सुकोमल उत्पलोंकी सृष्टि होती है, उसी प्रकार कविवर
१ विश्वसेन । २ सूरसिंह । ३ मुदर्शन । ४ ऐरादेवी, श्रीकान्तादेवी, सुमित्रादेवी । ५ मृग। ६ मेप। ७ नन्दावर्त । ८ नुम् (माअप विशेष)।
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* एक बार कुटुम्बहीन होके पुनः गृहस्थ हो गये । इस प्रकार थोडेही दिनोंमें बनारसीदासजीके संसारमें अनेक उलट फेर हुए।
आगरमें अर्थमल्लजी नामक एक सज्जन अध्यात्मरसके परमरसिक थे । कविवर के साथ उनका विशेष समागम रहता था। वे कविवरकी विलक्षण काव्यशक्ति देखकर हर्षित होते थे। परन्तु उनकी कविताको अध्यात्मकल्पतरुके सौरभसे हीन देख-ई. कर कभी २ दुःखी भी होते थे, और निरन्तर उन्हें इस ओरको आकर्षित करने के प्रयत्नमें रहते थे । एक दिन अवसर पाकर उन्हों ने पं० रायमलजीकृत बालावबोधटीकासहित नाटकसमयसार ग्रन्थ कविवरको देकर कहा आप इसको एक बार पढ़िये ।
और सत्यकी खोज कीजिये । कविवरने चित्त लगाकर समयसारका पाठ करना आरंभ कर दिया। एक बार पूरा पढ़ गये, पर संतोष न हुआ अतः फिर पढ़ा। इस प्रकार वारंवार पढ़ा और भाषार्थ मनन । किया, परन्तु एकाएक आध्यात्मिक पेच समझ लेना सहन नहीं है। विना गुरूके अध्यात्मका यथार्थ मार्ग नहीं सूझ सका । क्योंकि विलक्षणदृष्टि पुरुष भी अध्यात्ममें भूलते और चक्कर खाते देखे । जाते हैं । कविवरकी बुद्धि इस परम आध्यात्मिक प्रकाशको देख
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पंडित रायमल्लजी भाषाके बहुत प्राचीन लेखक प्रतीति होते से हैं। पं० दुलीचन्दजीने इन्हें तेरहवींशताब्दीके लगभगका बतलाया है।
समयसार टीका, प्रवचनसार टीका, पंचास्तिकाय टीका, पनामृत टीका, द्रव्यसंग्रह टीका, सिन्दूरप्रकर टीका, एकीभाव टीका, श्रावकाचार भकामरकथा, भक्तामर टीका, और अध्यात्मकमल मातेड आदि ग्रन्थोके प्रभावशाली रचयिता हैं । खेद है कि इनमेसे किसी भी अन्यको हमने । नहीं देखा।
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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कर भी याचार्य न देख सकी, उन्हें कुछ का कुछ चने लगा। वास्यक्रियाओंसे से हाथ धो बैठे, और जहां तहां उन्हें निश्चयनय ही सूझने लगा। "न इधरके हुए न उधर के हुए वाली कहावत चरितार्थ हुई । कविवरने अपनी उस समयकी दशा एक दो
में इस तरह ब्यक्त की हैॐ करनीको रस मिट गयो, भयो न आतमस्वाद।
भई वनारसिकी दशा, जथा ऊंटको पाद ॥ ५९७ ॥
इसी समय आपने ज्ञानपच्चीसी, ध्यानवत्तीसी, अध्यात्मवई से तीसी, शिवमन्दिर, आदि अनेक व्यवहारातीत सुन्दर कविताओं
की रचना की ! अध्यात्मकी उपासनाके साथ २ आचारस्रष्टताकी मात्रा बढ़ने लगी, और जैसा कि उपर कहा है, वे वापक्रियाओंको * सर्वथा छोड़ ही बैठे। उन्होंने जप, तप, सामायिक, प्रतिक्रमण, आदि । क्रियाओंको ही केवल नहीं छोड़ा, किन्तु इतनी उच्छृखलता धारण की, कि भगवत् का चढा हुआ नैवेद्य (निाल) मी खाने लगे। इनके चन्द्रमान, उदयकरन, और थानमलजी आदि मित्रोंकी भी यही दशा थी। चारों एकत्र बैठकर केवल अध्यात्मकी चरचामें अपना कालक्षेप करते थे। इस चरचामें अध्यात्मरसका। इतना विपुलप्रवाह होता था कि, उसमें प्रत्येक, धर्म, जाति, व्यवॐहारकी, उचित, अनुचित, श्रव्य, अश्रव्य सम्पूर्ण बातें वे रोक टोक प्रवाहित होती थीं। वे जिस बातको कहते तथा सुनते थे, उसीको घुमा फिराके व्यंगपूर्वक अध्यात्ममें घटानेकी चेष्टा किया करते थे। सारांश यह है कि, उस समय इनके जीवन का अहोरात्रिका एक मात्र यही कार्य हो रहा था । हमारे जनसमाजमें उक्त मतके अनुयायी अब भी बहुतसे लोग हैं, जो लोकशास्त्रके उल्लंघन करनेको हो ।
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भी कमर कसे रहते हैं, और अपने अभिप्रायको प्रबल बनानेकी इच्छा
से आचायोंके वाक्योंको भी अप्रमाण कहने में नहीं चूकते । पात्र3 कॉकी क्रियाओंको वे हेय समझते हैं, और निश्चयकियाओंमें अनुरक रहनेकी डीग मारा करते हैं। ऐसे महाशयोंको इस नायकके उत्तरीय ।
जीवनसे शिक्षा लेनी चाहिये । इस ऊर्दू और अधःकी मध्यदशाका * पूर्ण वर्णन करनेको जिसमें हमारे कविवर और उनके मित्र लटक भी रहे थे, हमारे पास स्थान नहीं है। इसलिये एक दोहेमें ही उसकी भी इतिश्री करना चाहते हैं। पाठक इन शुद्धामायियोंकी अवस्थाका अनुमान इसीसे कर लेंगे-- नगन होहिं चारों जने, फिरहि कोठरी माहि। कहहिं भये मुनिराज हम, कछू परिग्रह नाहि ॥ इस अवस्थाको देखकरकहहि लोगश्नावक अरु जती । बानारसी 'खोसरामती
क्योंकिनिंदा थुति जैसी जिस होय। तैसी तासु कहै सब कोय। * पुरजन विना कहे नहि हैं । जैसी देखें तैसी कहें ॥
सुनी कहें देखी कह, कलपित कहें बनाय। ___ दुराराधि ये जगतजन, इनसों कछु न वसाय ॥
कविवरने अपनी इस समयकी अवस्थापर पीछेसे अत्यन्त खेद । प्रगट किया है। परन्तु फिर संतोपवृत्ति से कहा है कि " पूर्वकर्मके । उदयसंयोगसे असाताका उदय हुआ था, वही इस कुमतिके उत्पादका यथार्थ कारण था । इसीसे बुद्धिमानों और गुरुजनोंकी शिक्षाये भी कुछ असर न कर सकी । कर्मवासना जब तक थी, तब तक उक्त
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दुर्बुद्धिके रोकनेको कोन समर्थ हो सका था? परन्तु जब अशुभके उदय का अन्त हुआ, तव सहज ही वह सब बल मिट गया। और ज्ञानका यथार्थ प्रकाश समक्ष हो गया इसप्रकार संवत् १६९२ तक हमारे चरित्रनायक अनेकान्तमतके उपासक होकर मी एकान्तके झूलनेमै खूब झूले । पश्चात् जब उदयने पल्टा खाया, तब पंडित रूपचन्दजीका आगरेमें आगमन हुआ । मानों आपके मा
न्यकी प्रेरणा ही उन्हे आगरेमें खींच लाई। पंडितजीने आपको * अध्यात्मके एकान्त रोगमें असित देखकर गोमट्टसाररूप औषधोअपचार करना प्रारंभ कर दिया । अर्थात् आप कविवरको गोमट्ट
सार पढ़ाने लगे । गुणस्थानों के अनुसार ज्ञान और क्रियाओंका है विधान भलीभांति समझते ही हृदयके पट खुल गये, सम्पूर्ण संशय दूर भाग गये और
तव बनारसी और हि भयो। ___ स्यादवादपरणति परणयो।
सुनि २ रूपचन्दके वैन ।
__ यानारसी भयो दिद जैन ॥ __ हिरमें कछु कालिमा, हुती सरदहन वीच ।
सोउ मिटी समता भई, रही न ऊंच न नीच ॥ इस ७-८ वर्षके वीचमें अनेक बातें लिखने योग्य हो चुकी हैं। जो उक्त डगमगदशाके सिलसिलेमें पड़ जानेसे नहीं लिखी जा सकी, अतः अब लिख दी जाती हैं। संवत् १६८४ में जहांगीर सत्राट् काल
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१ हंटर साहिबने जहांगीरकी मृत्यु के विषयमें केवल इतना लिखा है कि, “सन् १९२४ में (संवत् १६८४ ) में जब कि उनका बेटा
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९० . कविवरवनारसीदासः ।
वश हो गये, और उनकी मृत्युके चार महीने पश्चात् शाहजहां सिंहासनारूढ़ हुए । शाहजहां जहाँगीरके बेटे थे। जहांगीरने २२ ३ वर्ष राज्यभोग किया । काईमीरके गार्गमें उनकी अचानक मृत्यु हो गई । इसी वर्ष बनारसीदासजीकी तीसरी भार्याने प्रथमपुत्र अवशाहजहां और वडा सरदार महतावखां ये दोनों बागी हो रहे थे, जहांगीर मर गया, और शाहजहां अपने बापके मरनेको खवर सुनते ही मारामारा मुल्क दक्षिणसे उत्तरको आया, और सन् १९२८ में । आगरे आकर उसने गद्दीपर बैठनेका इश्तहार दे दिया । अवश्य हो। कविवर लिखित ४ महीने इस बीच में गुजर गये होंगे, और तन्त माली, रहा होगा।
तुजुक जहांगीरीमें बादशाहकी मृत्युके विषय इस प्रकार लिखा है-"मच्छी भवन, अजोल और बेरनागकी सैर करके बादशाह काश्मीरसे लाहौरकी ओरको बढे, और वीरमकल्लेफे पहादमें एक कुतूहलजनक शिकार करनेमें आप मन हुए। जमीदार लोग हारणोंको हकालके पहाडकी चोटीपर लाते थे, और बादशाह साहब नीचेसे गोली मारते थे । हरिण गोली खाकर चार खाता हुआ, नीचे तक आता था, इससे आप पडे प्रतन होते थे । (पर हाय! उन वेचारे तृणजीची जीवोंको भी वया प्रसन्नता होती थी?) एक दिन उस देशका एक प्यादा एक हरिणको घेरकर पहाइपर लाया। वह हारेण एक पत्थरकी ओटमें इस तरह हो गया, कि, वादशाह नीचे उसे नहीं देख सक्त थे, इसलिये वह (प्यादा) उसके हकालनेको फिरसे चला । परन्तु चलनेमै अभागेका पैर फिसल पड़ा । पास ही एक वृक्ष था, उसको उसने पकडा परन्तु वह उखड आया । निदान उस पहाडकी चोटीसे लुडकता हुमा बुरी तरहसे जमीन पर आ गिरा, और गिरते ही प्राणहीन हो गया। एकके पीछे एक जीवकी यह दशा देखकर बादशाहको बड़ा उद्वेग हुआ । वे अपने दुखित वित्तको
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जैनग्रन्थरलाकरे ९१ तरित हुआ, परंतु थोड़े दिन जीकर ही चल वसा । फिर संवत् ८५ में दूसरा पुत्र हुआ, जो दो वर्ष जीकर उसी पथका पथिक बन गया ! संवत् ८७ में तीसरा पुत्र और ८९ में एक पुत्री इस प्रकार दो संतान हुए । यह पुत्री भी थोड़े दिनकी होकर मर गई। पुत्र दिन । दूने रात चौगुने, के क्रमसे बढ़ने लगा । कविवरका शून्यगृह आनन्दकारी कलरवयुक्त हो गया । सूक्तिमुक्तावली, अध्यात्मवत्तीसी, पैडी, फाग, धमाल, सिन्धुचतुर्दशी, फुटकर कवित्त, शिवअपचीसी, भावना, सहस्रनाम, कर्मछचीसी, अष्टकगीत, बचनिका
आदि कविताओंका निर्माण मी इसी ७-८ वर्षके बीच हुआ। यद्यपि कविता निर्माणके समय वे केवल शुद्धरसका आखादन करते थे, और वह एकान्त होनेसे जिनागमके अनुकूल नहीं था,,
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सम्हाल नहीं सके, और शिकार छोडके दौलतखाने में आ गये। थोड़ी देरमें उस प्यादेवी असहाया माता रोती पीटती बादशाहके पास आईतव उन्होंने बहुत सा नकद रुपया देकर उस बुढ़ियाको धोडीबहुत तसही की, परन्तु खतः उनके चित्तकी तसल्ली नहीं हुई । उनको दशा बुढ़ियाले भी विचित्र हो गई । मानो यमराजने इस कौनुक्के मिपसे उन्हें दर्शन दे दिया था।
वादशाह इसी दशामें वीरमकल्लेसे थेने और थेनेसे राजौरको गये। फिर वहांसे सदाकी नाई पहर दिन रहे सूत्र किया । मार्गमें प्याला मांगा, पर ज्यों ही मुंहसे लगाया, छूटकर उलटा आ पड़ा।
दौलतखाने में पहुंचने तक यही दशा रही । वडी काटनताने रात निकली। ३ प्रातःकाल कई स्वास वढी सदतीसे आये और हर दिन बढके अनु. मान २८ सफर सन १०३७ (कार्तिक वदी ३० संवत् १६८४) को ६० वर्षको उमरमें हिंदुस्थानके एक शक्तिशाली सम्बादका प्राण निकल गया । सब लोग देखते ही रह गये"।
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१९२ कवियरवनारसीदासः । परन्तु उक्त सव कवितायें भी जिनागमके प्रतिकूल होंगी, ऐसी शंका न करनी चाहिये । वे सब अनुकूल ही हुई हैं। ऐसा कविवरने अर्द्धकथानकमें स्वयं कहा है
सोलह सौ वानवे लों, कियो नियतरस पान | पै कवीसुरी सब भई, स्यादवाद परमान ॥ गोमट्टसारके पढ़ चुकने पर पंडित रूपचन्दजीकी कृपासे जब वनारसीके हृदयके कपाट सुल गये, तब उन्होंने भगवत्कुन्दकुन्दा. चार्यप्रणीत नाटकसमयसार अन्धका भाषापद्यानुवाद करना। प्रारंभ किया। भाषा साहित्यके भंडारमें यह ग्रन्थ कैसा अद्वितीय, और अनुपम है, अध्यात्म सरीखे कठिन विषयको कैसी सरलता और सुन्दरतासे इसमें कहा है, उसे पाठक तव ही जान सकेंगे, जब एकवार उक्त पुस्तकका आद्यन्त पाठ कर जावेंगे । संवत् १९९३ ॐकी आश्विन शुक्ला त्रयोदशीको यह ग्रन्थ पूर्ण किया गया है,
ग्रन्थकी अन्त्यप्रशस्तिसे प्रगट होता है।। ___ संवत् ९६ का वह दिन कविवरके लिये बहुत शोकप्रद हुआ जिस दिन उनके प्यारे इकलौते पुत्रने शरीर छोड़ दिया । ९ व
के एक होनहार चालकके इस प्रकार चले जानेसे किस मातापिताको शोक न होता होगा? अबकी वार कविवरके हृदयमें गहरी चोट बैठी, उन्हें यह संसार भयानक दिखाई देने लगा। क्योंकि
नौ बालक हूए मुवे, रहे नारिनर दोय । ज्यों तरुवर पतझार है, रहें ढूंठसे होय ॥ वे विचार करने लगे किPREMAMMITTE
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तत्त्वदृष्टि जो देखिये, सत्यारथकी भांति । ज्यों जाको परिग्रह धरै, यो ताको उपशांति ॥ परन्तुसंसारी जानें नहीं, सत्यारथकी बात । परिग्रहसों माने विभव, परिग्रहविन उतपात ।।
इस प्रकार विचार करनेपर भी दो वर्ष तक कविवरके मोहका 7 उपशान्त नहीं हुआ। संवत् १६९८ में जब कि यह अर्द्ध कथानक रचा गया है, कुछ मोह उपशान्त हुआ, ऐसा कहकर हमारे चरित्र नायकने कथानकके पूर्वार्द को पूर्ण किया है।
जीवनचरित्रके अन्तमें नायकके गुणदोपोंकी आलोचना करने की प्रथा है। विना आलोचनाके चरित्र एक प्रकार अधरा ही कहलाता है । अतएव कविवरके गुणदोषोंकी आलोचना करना अभीष्ट है । जीवनचरित्रके लेखकोंको इस विषयमें बड़ा परिश्रम करना । पडता है, परन्तु तौ मी यथार्थ लिखने में असमर्थ होते हैं। और अनुमानादिके भरोसे जो थोड़ा बहुत लिखते भी हैं, वह नायकके विशेषकर बाह्यचरित्रोंसे सम्बन्ध रखता है । ऐसी दशामें पाठक प्रायः नायकके अन्तर्चरित्रोंसे अनभिज्ञ ही रहते हैं। परन्तु बड़े हर्षकी बात है कि हमारे चरित्रनायक स्वयं अपने चरित्रोंको लिखके रख गये हैं, इस लिये हमको इस विषयमें विशेष प्रयास तथा चिन्ता करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है । उन्हींके अक्षरोंको हम यहां लिखकर अर्द्धकथानकके चरित्रको पूर्ण करते हैं। __ अव बनारसीके कहों, वर्तमान गुणदोप।
विद्यमान पुर आगरे । सुखसों रहै सजोप ॥
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कविवरवनारसीदासः।
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गुणकथन । भाषा कवित अध्यातम माहिं । पंडित और दूसरो नाहि ।। क्षमावंत संतोषी भला । भली कवितपढ़येकी कला || पढे संसकृत प्राकृत शुद्ध । विविध देशभापा-प्रतियुद्ध । जाने शब्द अर्थको भेद । ठाने नहीं जगतको खेद ॥ मिठयोला सवहीसों प्रीति । जैनधर्मकी दिढ परतीति ॥ सहनशील नहिं कहै कुवोल। सुथिर चित्त नहिं डांवाडोल
है सबनिसों हित उपदेश । हिरदै सुष्ट दुष्ट नहि लेश ॥ पररमगीको त्यागी सोय । कुव्यसन और न ठगने कोय ॥
हृदय शुद्धसमकितकी टेक । इत्यादिक गुन और अनेक * अल्प जघन्य कहे गुन जोय ।नहिं उतकिष्ट न निर्मल होया
दोपकथन। क्रोध मान माया जलरेख । पै लछमीको मोह विशेख ॥ पौत हास्य कर्मदा उदा । घरसों हुआ न चाहै जुदा ॥ कर न जप तप संजम रीत । नहीं दान पूजासों प्रीत ॥ थोरे लाभ हर्प बहु धरै । अल्प हानि बहु चिन्ता करै ।। मुख अवध भाषत न लजाय । सीखै भंडकला मन लाय॥ भाषै अकथकथा विरतंत । ठानै नृत्य पाय एकन्त ।। अनदेखी अनसुनी बनाय । कुकथा कहै सभाम आय ॥ होय निमग्न हास्यरस पाय । सुपावाद विन रह्यो न जाय॥ अकस्मात भय व्यापै धनी । ऐसी दशा आय कर वनी ॥ मालामाल
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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उपसंहार। * कयहूं दोष कबहुँ गुन कोय। जाको उदय नु परगट होय से यह बनारसीजीकी बात । कही थूल जो हुती विख्यात
और जो सूच्छम दशा अनंत । ताकी गति जाने भगवंत जे जे बातें सुमिरन भई । तेते वचनरूप परिनई ॥ जे बूझी प्रमाद इहि माहिं । ते काहपै कहीं न जाहिं ॥ अल्प थूल भी कहै न कोय । भाषै सो जु केवली होय ॥
एक जीवकी एकदिन, दशा होत जेतीक। • सो कहि सके न केवली, यद्यपि जाने ठीक ॥ मनपरजय अरु अवधिधर, कहि अल्प नितीन हमसे कीटपतंगकी, वात चलावै कौन ॥ ताते कहत बनारसी, जीकी दशा रसाल । कछू थूलमें थूलसी, कही पहिर विवहार। वरस पंच पंचासलों, भाल्यो निज चिरतंत ॥ आगे भावी जो कथा, सो जाने भगवंत ॥ वरस पंचावन ए कहे, बरल बचावन और। चाकी मानुप आयुमें, यह उतकिणी दौर ॥ घरस एकसौ दश अधिक, परमित मानुष आव । सोलह सौ अष्टानवे, समय वीच यह भाव ॥
ताते अरधकथान यह, यानारसीचरित्र । ॐ दुष्ट जीव सुन हँसहिंगे, कहहिं सुनहिंगे मित्र ॥
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९६ कविवरवनारसीदासः ।।
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शेषजीवन। पूर्वमें कह चुके है कि, कविवर वनारसीदासजीकी जीवनी ।। संवत् १६९८ तककी है । इसके पश्चात् वे कब तक संसारमें रह क्या २ कार्य किये ? प्रतिज्ञानुसार अपनी शेष जीवनी लिखी कि, नहीं? अन्य नवीन अन्योंकी रचना की कि नहीं ? आदि अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं, परन्तु इनका उत्तर देनके लिये हमारे अनिकट कोई भी साधन नहीं है। और तो क्या हम यह भी निश्चय
नहीं कर सक्ते कि, उनका देहोत्सर्ग कब और किस स्थानमें हुआ ? यह बड़े शोककी बात है।
पाठकगण जीवनचरित्रका जितना भाग उपरि पाठ कर चुके हैं, उसपर यदि विचार किया जाये, तो निश्भय होगा कि, वह समय उनकी आपत्तियोंका था। उस ५५ वर्षके जीवनने उन्हें बहुत थोड़ा समय ऐसा दिया है, जिसमें वे सुखसे रहे हों । बहुत * थोडे पुरुषोंके जीवनमें इस प्रकार एकके पश्चात् एक, अपरिमित * आपतियें उपस्थित हुई हैं। इस ५५ वर्ष की आयुके पश्चात् मोहके उपांत होने पर उनके सुखका समय आया था, मानो विधाताने उनके जीवनके दुःख सुखमय दो विभाग खयं कर दिये थे और इसी लिये कविवरने इस प्रथम जीवनको पृथक् लिखनेका प्रयास किया था । आश्चर्य नहीं कि दूसरे सुखमय
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१'बनारसीविलास' कविवरकी अनेक रचनाओंका संग्रह है। उसमें "कर्मप्रकृतिविधान" नामक सबसे अन्तिम कविता है, जो संवत् १७०० के फाल्गुणकी रची हुई है । इसके पश्चातकी कोई भी कविता प्राप्य नहीं है। इससे यह भी जाना जाता है कि, कदाचित कविवरका सुखमय जीवन १०-५ वर्षसे अधिक नहीं हुआ हो।
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जैनग्रन्यरक्षाकरे
मजीवनको भी उन्होंने हम लोगों के लिये लिखा हो । परन्तु वह आज हमको प्राप्त नहीं है । यह हम लोगोंका अभाग्य है।
इतिहास लिखने में जनश्रुतियां भी साधनभूता है। क्योंकि अनेक इतिहासोंके पत्र केवल जनश्रुतियोंके आधार पर ही रंगे जाते में हैं। कविवरके जीवनकी अनेक जनश्रुतियां प्रचलित हैं। परन्तु अ
नुमानसे जाना जाता है कि, वे सब प्रथम जीवनके पश्चातकी है, इसलिये हम उन्हें शेषजीवनमें सम्मिलित करना ठीक समझते हैं ।
१ शाहजहां बादशाहके दरवारमें कविवर वनारसीदासजीने । बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। बादशाहकी कृपाके कारण उन्हें प्रतिदिन दरवारमें उपस्थित होना पड़ता था और महमें जाकर प्रायः निरन्तर सतरंज खेलना पड़ती थी । कविवर सतरंजके बड़े खिलाड़ी थे । कहते हैं कि, बादशाह इनके अतिरिक्त किसी अन्यके साथ सतरंज खेलना पसन्द ही नहीं करते थे । वादमा जिस समय दौरेपर निकलते थे, उस समय भी वे कविवरको साथम रखते थे । तव अनेक राजा और नयाव खूब चिढ़ते थे, जब वे एक साधारण वणिकको वादशाहकी बराबरी पर बैठा देखते थे, और अपनेको उससे नीचे । संवत् १६९८ के पश्चात् कवित्ररका । मोह उपशान्त होने लगा था, ऐसा कथानकमें कहा गया है । और हम जो कथा लिखते हैं, वह उसके भी कुछ पीछे की है, जब कि, उनके चरित्र और भी विशद हो रहे थे, और जब वे अष्टांग सम्यक्त्वकी धारणा पूर्णतया कर रहे थे। कहते हैं कि उस समय कविवरने एक दुर्धर प्रतिज्ञा धारण की थी। अर्थात् उन्होंने संसारको तुच्छ समझके यह निश्चय किया था कि, मैं
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१ सतरंजपर कविवरने अनेक कवितायें लिखी हैं।
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९८ कविवरवनारसीदासः।
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जिनेन्द्रदेवके अतिरिक्त किसीके भी आगे मस्तक नन नहीं करूंगा । जब यह बात फैलते २ वादशाहके कानोंतक पहुंची, तब वे आश्चर्ययुक्त हुए परन्तु क्रोधयुक्त नहीं हुए। वे कविवरके स्वभावसे और धर्मश्रद्धासे भलीभांति परिचित थे, परन्तु उस श्रद्धाकी सीमा यहां तक पहुंच गई है, यह वे नहीं जानते थे, इसीसे विस्मित हुए । इस प्रतिज्ञाकी परीक्षा करनेके रूपमें उस समय बादशाहको एक मसखरी सूझी । आप एक ऐसे स्थानमें बैठे जिसका द्वार बहुत छोटा था, और जिसमें बिना सिर नीचा किये हुए कोई प्रवेश नहीं कर सक्ता था। पश्चात् कविवरको एक सेवकके द्वारा बुला भेजा । कविवर द्वारपर आते ही ठिठक गये, और हुजूरकी चालाकी समझके चटसे बैठ गये । पश्चात् शीघ्र ही द्वारमें पहिले पैर डालके प्रवेश कर गये । इस क्रियासे उन्हें मस्तक
नम्र न करना पड़ा । बादशाह उनकी इस बुद्धिमानी से बहुत ॐ प्रसन्न हुए, और हँसकर बोले, कविराज ! क्या चाहते हो ? इस
समय जो मांगो मिल सक्ता है, कवियरने तीन वार वचनबद्ध करके कहा, जहाँपनाह ! यह चाहता हूं कि, आजके पश्चात् फिर कभी . दरवारमें स्मरण न किया जाऊ ! इस विचित्र याचनासे वादशाह तथा अन्य समस्त दरबारी जो उस समय उपस्थित थे, चकित तथा स्तंभित हो रहे । वादशाह इस वचनके हार देनेसे बहुत दुःखी हुए, और उदास होके बोले, कविवर! आपने अच्छा नहीं किया । इतना कहके अन्तःपुरमें चले गये, और कई दिनतक दरबारमें नहीं आये । कविवर अपने आत्मध्यानमें लवलीन रहने लगे। २ जहांगीरके दरवारमें भी इससे पहिले एक वार और यह बात
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चली थी, कि बनारसीदास किसीको सलाम नहीं करते हैं। कहते हैं कि, उससमय जब उनसे सलाम करनेके लिये कहा गया था, तब उन्हों ने यह कवित्त गढ़कर कहा था
जंगतके मानी जीव, द्वै रहयो गुमानी ऐसो, आरव असुर दुखदानी महा भीम है। ताको परिताप खंडिवेको परगट भयो, धर्मको धरैया कर्म रोगको हकीम है । जाके परभाव आगे भागे परभाव सब, नागर नवल सुखसागरकी सीम है। संवरको रूप धरै साधै शिवराह ऐलो, शानी पातशाह ताको मेरी तसलीम है।
३ एक बार वनारसीदासजी किसी सड़कपर शुष्कभूमि देखभी कर पेशाव करने लगे, यह देखकर एक शाही सिपाहीने जो
तत्काल ही भरती हुआ था, और जो कविवरको पहिचानता नहीं था, पासमें आकर इन्हें पकड़ लिया और दो चार चपत ( तमाचे ) जड़ दिये । कविवरने तमाचे सह लिये, चूं तक नहीं । किया और चलते बने। दूसरे दिन शाहीदरवारमें कार्यक्शात् देवयोगसे वही सिपाही उस समय हाजिर किया गया, जब कविवर बादशाह के निकट ही बैठे हुए थे । उन्हें देखकर बेचारे सिपाॐ हीके प्राण सूख गये । वह समझा कि, अब मेरी मृत्यु आ पहुँची है,
तव ही मैंने कल इस दरबारीसे खडे बैठे शत्रुता कर ली है । आज इसीने शिकायत करके मुझे उपस्थित कराया है। इन विचारों
१ यह कवित्त "नाटक समयसार" में भी है।
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१०० कविवरवनारसीदासः ।
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से वह थर २ कांपने लगा। वनारसी उसके मनका भाव समझ
गये। सिपाही जिसकार्यके लिये बुलाया गया था, जब उसकी * आज्ञा दे दी गई, तब पीछेसे कविवरने वादशाहसे उसकी मिफारिश की कि, हुजूर ! यह सिपाही बहुकुटुम्बी और अतिदायदीन है, यदि सरकारसे इसका कुछ वेतन बढ़ा दिया जावे, तो वे चारेका निर्वाह होने लगेगा। मैं जानता हूं, यह धानतदार नौकर है। कविवरके कहने पर उसी समय उसकी वेतन यदि कर दी
गई। इस घटनासे सिपाही चकित स्तंभित हो गया। उसके * हृदयमें कविवर के लिये 'धन्य! धन्य!' शब्दोंकी प्रतिप्यनि बारम्बार । उठने लगी। वह उन्हें मनुष्य नहीं किन्तु देवरूपमें समझने लगा, और उस दिनसे नित्य प्रातःकाल उनके द्वारपर जाके जब नमस्कार कर आता, तब अपनी नौकरीपर जाता था ।
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___४ आगरेमें एक बार "बाया शीतलदासजी नामके कोई
सन्यासी आये हुए थे । लोगोंमें उनकी शान्तिता और क्षमाके विषयमें नाना प्रकार अतिशयोक्तियां प्रचलित हो रही थी, जिन्हें सुनकर कविवर उनकी परीक्षा करनेको प्रस्तुत हो गये । एफ. दिन प्रभातकालमें सन्यासीजीके पास गये, और बैठके भोली २ बातें करने लगे। बातोंका सिलसिला टूटने पर पूछने लगे, महाराज! आपका नाम क्या है ? वावाजी बोले, लोग मुझे 'शीतलदास' कहा करते हैं । कुछ देर पीछे यहां वहांकी वार्ता करके फिर पूछने लगे, कृपानिधान! मैं भूल गया, आपका नाम ! उत्तर मिला, शीतलदास । एक दो बातें करनेके पीछे ही फिर पूछ बैठे, महाशय! क्षमा कीजिये, मैं फिर भूल गया, आपका नाम ? इस प्रकार जब तक आप वहां बैठे रहे, फिर २
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कर नाम पूछते रहे, और उसी प्रकार टचर भी पाते रहे । हिर भावहांसे उठके अब घरको चलने लगे, तत्र थोडी दूर जाके लौटे
और फिर पूछ बैठे, महाराज! क्या कन्द, आपका नाम सया अपरिचित है, अतः मैं फिर भूल गया, फिर बतला दीजिये। से अभी तक तो बाबाजी शान्तिताक साथ उत्तर देते रहे, परन्तु
अबकी बार गुस्सेसे बाहर निकल ही पड़े । झुंझलाके बोले, अवे अवस! दशवार कह तो दिया कि, शीतलदास! शीतलदास!!
शीतलदास!!! फिर क्यों खोपड़ी खाये जाता है ? यस! परीक्षा हो चुकी, महाराज फेल (अनुत्तीर्ण) हो गये । कविवर यह कह कर वहांसे चलते बने कि महाराज ! आपका यथार्थ नाम
बालाप्रसाद' होने योग्य है, इसी लिये मैं उस गुणहीन नामको याद नहीं रख सत्ता था।
एकवार दो नममुनि आगरम आये हुए थे, और मन्दिरमें ठहरे थे । सब लोग उनके दर्शन वन्दनको आते जाते थे, और अपनी २ बुद्धयनुसार प्रायः सब ही उनकी प्रशंसा किया करते थे। कविबर परीक्षामधानी जीव थे। उन्हें सब लोगोंकी नाई, दर्शन पूजनको जाना ठीक नहीं ऊँचा, जब तक कि मुनि परीक्षित न हों । अतएव स्वयं परीक्षा लिये उद्यत हुए । एक दिन उक मुनिद्वय मन्दिरके दालानमें एक झरोखे (गवाक्ष)के निकट बैठे हुए थे और सन्मुख भकजन धर्मोपदेश सुननेकी आशासे बैठे थे । अरोखकी दूसरी और एक * बाग था। उस बागमें मुनियोंकी दृष्टि भलीमांति पहुंचती थी, ॐऔर वागमें टहलनेवाले पुरुपकी दृष्टि भी मुनियोंपर स्पष्ट
रीत्या पड़ती थी। कविवर उस बगीचे में पहुंचे, और झरोके
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htakatattt.ttatatattatutatuttitutikattattatst.ttaye ११०२ ऋविवरवनारसीदासः ।
rammamerram. .. camerraneamrore.mr a w..rammarwar समीप खड़े हो गये । जब किसी मुनिकी दृष्टि उनकी ओर आती थी, तब वे अंगुली दिखाके उसे चिढ़ाते थे। मुनियोंने । उनकी यह कृति कई बार देखके मुख फेर लिया, परन्तु कविवरने अपनी अंगुली मटकाना बन्द न किया। निदान मुनि
द्वय क्षमा विसर्जन करनेको उद्यत हो गये । और भक्तजनोंकी ओर * मुंह करके बोले, कोई देखो तो वागमें कोई कूकर ऊधम मचा
रहा है। इतने शब्दोंके सुनते ही जब तक कि लोग वागमें देखॐनेको आये, कविवर लम्बे २ पैर रखके नौ दो ग्यारह हो गये ।।
देखा तो वहां कोई न था । वनारसीदासजी पैर बढ़ाये । हुए चले जा रहे थे । फिरके मुनि महाशयोंसे कहा, महाराज! वहां और तो कूकर शूकर कोई न था, हमारे यहांके सुप्रतिष्ठित पंडित बनारसीदासजी थे, जो हम लोगोंके पहुंचनेके पहिले ही वहांसे चले गये । यह जानके कि, वह कोई विद्वान् परीक्षक था, मुनियोंको कुछ चिन्ता हुई, और दोचार दिन रहके वे अन्यत्र विहार कर गये । कहते हैं कि, कविवर परीक्षा कर चुकनेपर फिर मुनियोंके दर्शनोंको नहीं गये।
६ माषाकवियोंमें गोखामी तुलसीदासजी बहुत प्रसिद्ध हैं। । उनकी बनाई हुई रामायणका भारतमें असाधारण प्रचार है,
और यथार्थमें वह प्रचारके योग्य ही ग्रन्थ है। गोखामीजी बनारसीदासजीके समकालीन थे । संवत् १६८० में जिस समय तुलसीदासजीका शरीरसात हुआ था, बनारसीदासजीकी आयु केवल ३७ वर्षकी थी। इस लिये जो अनेक कथाओमें सुनते हैं कि, वनारसीदासजी और तुलसीदासजीका कई बार मिलाप हुआ था, सर्वथा निर्मूलक भी नहीं हो सक्ता ।
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गोखामीजी निरे कवि ही नहीं थे, वे एक सच्चरित्र महात्मा थे।
और सज्जनोंसे भेट करना बनारसीदासजीका एक समाव था। इस लिये भी दन्तकथाओंपर विश्वास किया जा सक्ता है। ॐ यद्यपि कविवरकी जीवनी संवत् १६९८ तककी है, और उसमें
इस विषयका उल्लेख नहीं है, तो मी दन्तकथाओं में सर्वथा । तथ्य नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सका । एक साधारण बात समझके जीवन में उसका उल्लेख न करना भी संभव है। ___ कहते हैं कि, एकबार तुलसीदासजी बनारसीदासजीकी काव्यप्रशंसा सुनकर अपने कुछ चेलों के साथ आगरे आये तथा कविवरसे मिले। कई दिनों के समागमके पश्चात् वे अपनी बनाई हुई रामायणकी एक प्रति भेट देकर विदा हो गये। और पार्श्वनाथस्वामीकी स्तुतिमय दो तीन कवितायें जो बनारसीदासजीने मेटमें दी थी, साथमें लेते गये। इसके दो तीन वर्षके उपरान्त । जब दोनों कविश्रेष्ठोंका पुनः समागम हुआ, तब तुलसीदासजीने । रामायणक सौन्दर्य विषयमें प्रश्न किया। जिसके उचरमें ऋविवरने एक कविता उसी समय रचके सुनाई_ विराजे रामायण घटमाहि, विराजै रामायण
(धनारसीविलास पृष्ठ २४२) तुलसीदासजी इस अध्यात्मचातुर्यको देखकर बहुत प्रसन्न हुए और बोले "आपकी कविता मुझे बहुत प्रिय लगी है, मैं उसके । बदलेमें आपको क्या सुनाऊ? । उस दिन आपकी पार्श्वनाथस्तुति । पढके मैंने भी एक पार्श्वनाथस्तोत्र बनाया था, उसे आपको ही भेट करता हूं। ऐसा कहके "भक्तिविरदावली " नामक एक सुन्दर कविता कविवरको अर्पण की । कविवरको उस कवितासे
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१०४ कविवरवनारसीदासः । बहुत संतोप हुआ, और पीछे बहुत दिनों तक दोनों सजनोंकी
भेट समय २ पर होती रही। ३ भक्तिविरदावलीकी कविता सुन्दर है, उसकी रचना अनेक
छन्दोंमें है। वो भी रामायणकी कविताका ढंग उसमें नहीं है, इस लिये उक्त किंवदन्तीपर एकाएक विश्वास नहीं हो सकता। ) पाठकोंके जाननेके लिये उसके अन्तिम दो छन्द यहां उद्धृत किये जाते हैं
गीतिका। पदजलज श्री भगवानजूके, वसत है उर माहि । चहुँगतिविहंडन तरनतारन, देख विधन विलाहिं ॥ थकि धरनिपति नहिं पार पावत, नर सु वपुरा कौन ? तिहि लसत करुणाजन-पयोधर, भजहिं भविजन तौन ॥ दुति उदित त्रिभुवन मध्य भूपन, जलधि ज्ञान गभीर। जिहि भाल ऊपर छत्र सोहत, दहन दोष अधीर ।।। जिहि नाथ पारस जुगल पंकज, चित्त चरनन जास। रिधि सिद्धि कमला अजरराजित, भजत तुलसीदास ॥
उक्त विरदावलीमें 'तुलसीदास' इस नामके अतिरिक्त जो कि पांच छह स्थानोंमें आया है, और कोई बात ऐसी नहीं है, जिससे यह निश्चय हो सके कि, यह 'तुलसी' गुसाईंजी ही थे, अथवा कोई अन्य । परन्तु गुसांईजी का होना सर्वथा असंभव भी नहीं कहा जा सकता । क्योंकि उस समयके विद्वानोंमें आजकळकी नाई धर्मद्वेष नहीं था। वे वहे सरलहृदयके भक्त थे।।
७ कविवरका देहोत्सगैकाल अविदित है, यह ऊपर कहा
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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जा चुका है, परन्तु मृत्युकालकी एक किंवदन्ती प्रसिद्ध है। कहते है है कि, अन्तकालमें कविवरका कंठ अवरुद्ध हो गया था, रोगके संक्रमणके कारण वे बोल नहीं सक्त थे। और इसलिये अपने अन्त । समयका निश्चयकर ध्यानावस्थित हो रहे थे। लोगोंको विश्वास है
हो गया था कि, ये अब घंटे दो घंटेसे अधिक जीवित नहीं है ते रहेंगे, परन्तु कविवरको ध्यानावस्था जब घंटे दो घंटे पूर्ण
नहीं हुई, तब लोग तरह २ के ख्याल करने लगे । मूर्खलोग कहने लगे कि, इनके प्राण माया और कुटुम्बियोंमें अटक रहे हैं, ॐ जब तक कुटुम्बीजन इनके सम्मुख न होंगे और दौलतको । गठरी इनके समक्ष न होगी, तब तक प्राणविसर्जन न होंगे। इस प्रस्तावमें सबने अनुमति प्रकाश की, किसीने भी विरोध नहीं किया । (मूर्खमंडलको नमस्कार है!) परन्तु लोगोंके इस तरह मूर्खता-पूर्ण विचारोंको कविवर सहन नहीं कर सके । उन्होंने इस लोकमूढ़ताका निवारण करना चाहा, इसलिये एक पट्टिका ॐ और लेखनीके लाने के लिये निकटस्थ लोगोंको इशारा किया।
बड़ी कठिनताके साथ लोगोंने उनके इस संकेतको समझा । जब लेखनी पट्टिका आ गई, तब उन्होंने निम्नलिखित दो छन्द गढकर लिख दिये । इन्हें पढकर लोग अपनी भूलको समझ गये, और * कविवरको कोई परम विद्वान् और धर्मात्मा समझकर वैयावृत्यमें । लवलीन हुए। , शान कुतका हाथ, मारि अरि मोहना।
प्रगट्यो रूप स्वरूप, अनंत सु सोहना ॥ जा परजैको अंतं, सत्यकर मानना। चले बनारसिदास, फेर नहि भावना ॥ .
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कविवरवनारसीदासः।
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___ इस कथासे जाना जाता है कि, कविवरको मृत्यु किमी ऐसे । स्थानमें हुई है, जहां उनके परिचयी नहीं थे । क्योंकि
अथवा जौनपुरमें उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी, वहां इस प्रकारकी घटना नहीं हो सक्ती थी।
बनारसीदासनीकी रचना । | बनारसीविलास, नाटकसमयसार, नाममाला, और कथानक, ये चार अन्य कविवरकी रचनाके प्रसिद्ध हैं । बाबा । दुलीचन्दजी संगृहीत ग्रन्थोंकी सूची ( जैनशास्त्र नाममाला ) में वनारसीपद्धति ग्रन्थ भी आपका बनाया हुआ लिखा है । अभी तक हम अर्धकथानक और बनारसीद्धति दोनोंको एक समझते हैं, परन्तु दुलीचन्दजीके लेखसे दो पृथक् ग्रन्थ प्रतीत होते हैं। क्योंकि उन्होंने वनारसीपद्धतिको जयपुरके भंडारमें मौजूद बतलाया है । अतः हो सका है कि, यह कोई दूसरा ग्रन्थ हो, अथवा
और पांचवा अन्य वह है, जो यमुनानदीके विशालगर्भ में । सदाके लिये विलीन हो गया है । और जिसके लिये कती महाशॐ यक रसिक मित्र दुःखी हुए थे। पाठको । स्मरण है, वह शङ्कारः रखका प्रन्थ था।
२ बनारसीपद्धतिकी लोकसंख्या वाया दुलीचन्दजीने ५०० लिखी में है, और अर्धकथानककी लोकसंख्या उससे दुगुनीके अनुमान है ।। अर्धकथानक ६७. दोहा चौपाई हैं । अतः संदेह होता है कि, यह कोई दूसरा अन्य होगा, यदि चापाजीका लिखना सत्य हो तो । इसके अतिरिक्त बावाजीने बनारसीपद्धतिको भाषा छन्दोबद्ध विलासोंके कोष्टकमें भी लिखा है। जिससे प्रतीत होता है कि, यह भी कोई चनारसीविलास सरीखा संग्रह है, जो किसी दूसरेने किया है, अथवा स्वयं कविवरका किया हुआ है।
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१०७
अर्द्धकथानकका ही उत्तरार्द्ध हो, जिसमें उत्तरजीवनकी कथा लिखी गई हो, और अपर नाम वनारसीपद्धति हो । परन्तु हमारे देखनेमें यह अन्य नहीं आया । प्रयत्नसे यदि प्राप्त हो जावेगा, तो वह भी कभी पाठकों के समक्ष किया जावेगा।
१ बनारसी विलास-यह कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं है, किन्तु । कविवर रचित अनेक कविताओंका संग्रह है, इस संग्रहके की आगरानिवासी पंडित जगजीवनजी हैं। आप कविवरकी कविताके वडे प्रेमी थे । संवत् १७७१ में आपने बड़े परिश्रमसे इस काव्यका संग्रह किया है, ऐसा अन्त्यप्रशस्तिसे स्पष्ट प्रतिमासित होता है । सजनोत्तम जगजीवनजी आगराके ही रहनेवाले थे, इससे संभवतः । उनकी सव कविताओंका संग्रह आपने किया होगा। परन्तु हमको आशा है कि, यदि अब भी प्रयत्न किया नावेगा, तो बहुत सी कवितायें एकत्रित हो सकेंगी । इस भूमिकाके लिखते समय हमने दो तीन स्थानों को इस विषयमें पत्र लिखे थे । यदि अवकाश होता, तो बहुत कुछ आशा हो सकी थी, परन्तु शीघ्रता की गई, इससे कुछ नहीं हो सका । तथापि दो तीन पद इस संग्रहके ॐ अतिरिक्त मिले हैं, जिन्हें हमने ग्रन्थान्तमें लगा दिये हैं।
बनारसी विलास' की कविता कैसी है, इसके लिखनेकी आवश्यकता नहीं है। "कर कंकनको आरसी क्या ?" काव्यरसिक पाठक स्वयं इसका निर्णय कर लेंगे।
२ नाटक समयसार यह अन्य भाषासाहित्यके गगनमंड
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१ संग्रहकत्तीने इस ग्रन्यमें थोडेसे पद्य कवरलालकी छापवाले भी संग्रह कर लिये हैं । यह कंवरपालजी बनारसीदासजीके पांच मित्रों अन्यतम थे।
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Tikkattitutetottttrakotatstotstitutattitrkutstation ११०८ कविवरवनारसीदासः ।
www. . . - mmmmmarma merrora....... लका निष्कलंक चन्द्रमा है। इसकी रचनामे कविवरने अपनी जिस अपूर्व शक्तिका परिचय दिया है, उसे भापासाहित्यके अध्यात्मको चरमसीमा कहें तो कुछ अत्युक्ति न होगी। नाटक समयसारकी रचना आदिका समय पहिले लिखा जा चुका है है, यहां उसके काव्यका परिचय देने के लिये हम दो चार छन्द उद्धृत करते हैं । पाठक ध्यानसे पढ़ें, और देखें हमारा लिखना कहां तक सत्य है।
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मोक्ष चलवेको सौन, करमको करै यौन , जाको रस भौन बुध लौन ज्यों घुलत है। गुणको गिरंथ निरगुनको सुगम पंथ, जाको जस कहत सुरेश अकुलत है ॥ याहीके जो पक्षी सो उड़त शान गगनमें, याहीके विपक्षी जगजालमें रुलत है। हाक सो विमल विराटक सो विसतार, नाटक सुनत हिय फाटक खुलत है ॥
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काया चित्रसारीमें करम परजंक भारी, मायाकी सवारी सेज चादर कलपना । सैन करै चेतन अचेतनता नींद लिये, मोहकी मरोर यह लोचनको उपना। जीना (सीढिया)। २ वमन (उलटी)। ३ सुवर्ण । ४ पलंग ।।
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चैनप्रस्थरत्नाकरे १०९।
उदै वल जोर यहै स्वासको शवद घोर, . विषय सुख काजकी दौर यह सपना ॥ ऐसी मूढ दशामें मगन रहै तिहंकाल, धावै भ्रमजालमें न पावै रूप अपना ।
काजविना न करैजिय उद्यम, लाजविना रन माहिं नौ।। डीलचिना न सधै परमारथ, शीलबिना सतसौं न अरु । नेमविना न लहै निहचैपद, प्रेमविना रस रीति न झै ।। ध्यानविना न थम मनकी गति, शानविना शिवपंथ व सूझै
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रूपकी न झाँक हिये करमको डाँफ पिये, ज्ञान दवि रहयो मिरगीक जैसे धनमें । लोचनको ढाकसों न माने सदगुरु हाँक, डोलै पराधीन मूढ राके तिहूंपनमें 4 टॉक इक मांसकी डलीसी तामें तीन फाँके, तीविको सो आँक लिखि राख्यो काह तनमें । वासों कहै 'नाँक ताके राखिवेको करें काँक, लॉकसो खरग वांधि धाक धरे मनमें ॥
१ झलक । २ चन्द्रमा । ३ रंक (दोन) । ४ टंक (परिमाणविशेष)। ५ छकड़े। ६ अंक (संख्या)। ५ लंक (कमर)। ८ कता (टिलाई)।
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कविवरवनारसीदासः ।
(५)
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है, है है नाहीं नाहि ।
।
यह सरवंगी नयधनी, सब माने सवमाहिं ॥
है नहीं नहीं
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(६) कायासे विचारि प्रीति मायाहीमें हारजीति, लिये हठरीति जैसे हारिलकी लकरी । चुंगुलके जोर जैसे गोह गहि रहे भूमि, त्यों ही पाँय गाड़े पै न छांड़े टेक पकरी ॥ मोहकी मरोरसों भरमको न टोर पावे, धावै चहुंओर ज्यों बढ़ावै जाल मकरी । ऐसी दुबुद्धि भूलि झूठके झरोखे झुलि फूली फिर ममता जंजीरनसों जकरी ॥ (७)
रूपकी रसीली भ्रम कुलफकी कीली सील, सुधाके समुद्र झीली सीली सुखदाई है । प्राची ज्ञानभानकी अजाची है निदान की सु, राची नरवाची ठौर सांची ठकुराई है | धामकी खवरदार रामकी रमनहार, राधा रस पंथनिमें ग्रंथनिमें गाई है। संततिकी मानी निरवानी नूरकी निशानी, यातें सदबुद्धि रानी राधिका कहाई है ॥
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जैनग्रन्थरताकरे
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पाठक ! इस ग्रन्यकी सम्पूर्ण रचना इसी प्रकारकी है। जिस पद्यको देखते हैं, जी चाहता है कि, उसीको उद्धत कर लें, परन्तु इतना स्थान नहीं है, इसलिये इतनेम ही संतोष करना पड़ता है। आपकी इच्छा यदि अधिक बलवती हो, तो उक्त अन्धका एकवार आद्यन्त पाठ कर जाइये । ॐ नाटकसमयसार मूल, भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यकृत प्राकृतग्रन्थ । है। उसपर परमभट्टारक श्रीमदमृतचन्द्राचार्यकृत संस्कृत टीका तथा कलशे हैं। और पंडित रायमलजीकृत बालावबोधिनी भाषाटीका है । इन्हीं दोनों तीनों टीकाओंके आश्रवसे कविवरने इस अपूर्व पद्यानुवादकी रचना की है।
३ नाममाला--यह महाकावे श्रीधनंजयकृत नाममालाका माए पद्यानुवाद है। शब्दोंका ज्ञान करने के लिये यह एक अत्यन्त सरल और उपयोगी अन्य है। यह अन्ध हमारे देखनेमें नहीं। आया । परन्तु अन्यप्रकाशक महाशयने मुजफ्फरपुरजिलेके छपरौली प्रामके बालकों को एकबार पढ़ते हुए सुना था, परन्तु पीछे प्रयत्न करने पर भी नहीं मिला । नाममालाके कुछ दोहे नाटक समयसारमें इस प्रकार लिने हैं
प्रेमा प्रिपना शेमुपी, धी मेघा मति बुद्धि।। सुरति मनीपा चेतना, आशय अंश विशुद्धि।
tattracter artiడుకుండుదుడుకుడు:
१ पण्डित जयचन्दजी, और पंडित हेमराजजीने भी समयसारको भापाटीका की है। पंडित जयचन्दजीही टीका सबझे विस्तृत और बोषप्रद कही जाती है।
शेमुपीधिषणा प्राना, मनीषा श्रीस्खयाशयः ॥ ११ ॥
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kaist.tattatrkutst.totatutstatut-katinantatstaintainine ११२ कविवरयनारसीदासः ।
निपुन विचच्छन विबुध बुध, विद्याधर विद्वान। पटु प्रवीन पंडित चतुर, मुधी मुजन मनिमान | कलावान कोविद सुशल, सुमन दल धीमन्त !
माता सजन ब्रह्मविद, ता गुनीजन सन्त । ४ अफथानक-यह कविवरकी रसनामा नाका सन्द इसमें ६७३ दोहा चागाईहमने यह जीवनात मी * ग्रन्थके आधारस लिगा है। इनकी विना विप परिचय देनकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जीवनमा यत्रतम
इसके अनेक पद्य उद्धत किये गये है। अनुमानगे जाना : में है, कि यह अन्य बी शीभतार लिया गया। श्योंकि अन्य
कविताओंकी नाई कविवरने में यमकानुपादिपर प्यान नहीं दिया है । केवल व्यतीतदशाका कथन ही इमक रचनका मुख्य उद्देश रहा है। फिर भी कहीं २ के स्वाभाविक पद्य को गनोहर
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芸太った太った人々は、とっさっさっと太った・いよいとは・は・な・いよいさいさいさいベーホーよーよーメーカーよーさーいち・ボーボーズーちゃこっとい太・・まっいったいよいよ
पसंहार। ___ अन्तमें हिन्दीक प्रिय गुणग्राही पाठकवाँस निवेदन करके यह लेख पूर्ण किया जाताहै कि. ग्रन्धकर्ता, प्रकाशक और नवक अन्तमें । संशोधक तथा चरित्रलेखक परिश्रमका विचार करके ये इसे ध्यान से पढ़ें, पढ़ाव, और सर्व साधारणमें प्रचार करें। इतना ही हम लोग में अपना परिश्रम सफल समझेंगे। प्रकाशक महाशयकी आदरणीय प्रेरणास ॐ मैंने इस ग्रन्थके संशोधनादिका कार्य अपनी गन्दबुधनुसार सिपा
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१ प्राज्ञामेधादिमान्विद्वानभिरूपो विचक्षणः । पण्डितः सूरिराचार्या वाग्नी नैयायिकः स्मृतः ॥ १११॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
११३
उसमें कहांतक सफलता हुई है, इसके निर्णयका मार पाठकॉपर ही हैं । यदि वाचकोंने हमारे इस परिश्रमका किंचित् मी आदर किया तो, शीघ्र ही वृन्दावनविलासादि काव्य ग्रन्थ कवियोंके विस्तृत इतिहाससहित दृष्टिगोचर करनेका प्रयत्न किया जावेगा ।
हिन्दीके माननीय पत्रसम्पादकों और समालोचकोंसे प्रार्थना है कि, वे कृपाकर इस ग्रन्थकी आद्यन्त - पाठपूर्वक निष्पक्षदृष्टिसे समालोचना करने की कृपा करें और हम लोगोंके उत्साह और हिन्दीप्रचारकी रुचिको बढा |
बनारसीदासजीके चरित्र लिखने में माननीय मुंशी देवीप्रसादजी सुंसिफ जोधपुर से मुसलमानी इतिहासकी बहुत सी बातोंकी सहायता मिली है, इस लिये यह अन्य और लेखक दोनों उनके आभारी हैं !
ग्रन्थसंशोधन तथा जीवनचरित्र दृष्टिदोषसे तथा प्रमादवशले -यदि कोई मूल रह गई हो, तो पाठकवृन्द क्षमा करें। क्योंकि"न सर्वः सर्वे जानाति " इत्यलम् विद्वद्वरेषु ।
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बम्बई - चन्दाबाड़ी | ३०-९-०५ ई०
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नाथूराम प्रेमी । देवरी (सागर) निवासी ।
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बनारसीविलास ग्रन्थकी विषयानुक्रमणिका.
विपयनाम. १ जिनसहस्त्रनाम, ... ... ... २ सूतमुक्तावली. (संस्कृतसहित) ... ३ ज्ञानवावनी. ... ... ४ वेदनिर्णयपंचासिका. ... ५ त्रेशठ शलाकापुरुषोंकी नामावली. ६ मार्गणाविधान. ... ... ७ कर्मप्रकृतिविधान. .... ८ कल्याणमंदिरस्तोत्र.... ९ साधुवंदना.... ... १. मोक्षपैड़ी. ... ... ११ कर्मछत्तीसी... १२ ध्यानबत्तीसी ... १३ अध्यात्मवत्तीसी. १४ ज्ञानपच्चीसी, ... १५ शिवपच्चीसी... ... १६ मवसिंधुचतुर्दशी. ... १७ अध्यात्मफाग, (धमार) .... १८ सोलहतिथि... ... ... १९ तेरहकाटिया. ... ..... २० अध्यातमगीत. (मेरे मनका प्यारा जो
२१ पंचपदविधान. ... ... ... .... मल्लललललललल
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२
२२ सुमतिदेव्यष्टोत्तरशतनाम
२३ शारदाष्टक... २४ नवदुर्गांविधान. २५ नामनिर्णय विधान. २६ नवरत्नकवित्त,
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३० पहेली. ३१ प्रभोत्तरदोहा.
३२ प्रश्नोत्तरमाला.
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२७ अष्टप्रकारजिनपूजन, २८ दशदानविधान. २९ दशबोल.
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३३ अवस्थाष्टक...... ३४ पद्दर्शनाष्टक. ३५ चातुर्वर्ण्य. ३६ अजितनाथजीके छंद.
३७ शान्तिनायनिनस्तुति.
३८ नवसेनाविधान.
३९ नाटकसमयसार सिद्धान्तके पाठान्तर कलशोंका
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भाषानुवाद.
४० मिथ्यामतवाणी.
४१ प्रस्ताविकफुटकर कविता.
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१४२ गोरखनाथके वचन. '४३ वैद्यआदिके भेद. (फुटकर कविता ) ४४ परमार्थवचनिका..
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विषयानुक्रमणिका
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४५ उपादाननिमित्तकी चिठी. ... ... ... ... २२४ । ४६ निमित्तउपादानके दोहे. ... ... ... ... २३० ४७ राग भैरव.... ... ... ४८ राग रामकली.(२ पद) तथा ४९ राग विलावल.(३ पद)... ... ५० राग आशावरी (२ पद)... ५१ बरवाछंद.... ... ... ५२ राग धनाश्री. (२ पद) ... ... ५३ राग सारंग. (४ पद) ... २४१-२४२-२४३ ५४ आलापदोहा. (६)... ५५ राग गौरी. (२ पद) ५६ राग काफी. (२ पद) ... ... ५७ परमार्थ हिंडोलना. ५८ मलार तथा सोरठराग. ५९ नयापद. १ ला ... ... ६० नयापद २ रा ... ६१ नयापद ३ रा ... ६२ बनारसीविलासके संग्रहकर्ता..
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नमः श्रीवीतरागाय.
जनग्रन्थरताकरस्थ-रत्न ७ वां
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बनारसीविलास.
विषय सूचनिक
फवित्त मनहर. * प्रथम सहस्रनाम सिन्दूरप्रकरघाम, बावनीसवैया वेदनिर्णय पचासिका । बेसठशलोका मार्गना करमकी प्रकृतिकल्याणमन्दिर साधुबन्दन सुवासिका || पैड़ी" करमछत्तीसी ।
पीछे ध्यानकी बत्तीसी, अध्यातमै बत्तीसी पचीसी" ज्ञान । - शासिका । शिवकी पंचीसी भवसिन्धुक्की चतुरदशी, अध्यात
माग तिथिपोर्सविलासिका ॥१॥ 1 तेरहकोठिया मेरे मनका सैंप्यारागीत, पंचपद विधान
सुमति देवीशैत है । शारदा बैंड़ाई नवदुरैगा निर्णय नौम, ॐ नौरतन कवित्त सु पूर्जी दोर्नदत है । दशवोले पहेली सुप्रैन्न ।
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Hakattakkatutiket kettukkukukatatakutukuk diketukutikitettitatet.kukutkikutttttttttt
जैनग्रन्थरत्नाकरे प्रश्नोत्तरमाला, अवस्था मतान्तर दोहरा वरणत है। अजितक छन्द शान्तिनाथछन्द सेनानव, नाटककवित्त चार, वानी मिथ्या मत है ॥ २ ॥
फुटकरसवैया बनाये बच गोरखंके, वेद ऑदिभेद । परमारथ वचनिका । उपादान निमित्तकी चिट्ठी तिनही । दोहे, भैरों रामली ओ विलोवल सचनिका || आशावरी । वरवा सु धोश्री सौरंग गौरी, कॉफी ओ हिंडोलना । मलारकी मचनिका । भूपर उद्योत करो भव्यनके हिरमें, विरधौ ! वनारसीविलासकी रचनिका ॥ ३ ॥
दोहा. ये वरणे संक्षेपसों, नाम भेद विरतन्त । इनमें गर्मित भेद बहु, तिनकी कथा अनन्त ॥ १॥ महिमा जिनके बचनकी, कहै कहां लग कोय । ज्यों ज्यों मति विस्तारिये, त्यो त्यो अधिकी होय ॥२॥
इति विपयसूचनिका.
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श्री अथ जिनसहस्रनाम.
दोहा.
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परमदेव परनामकर, गुरुको करहुं प्रणाम । बुधिवल वरणों ब्रह्मके, सहसमठोचर नाम ॥ १॥ केवल पदमहिमा कहाँ, कहाँ सिद्ध गुनगान ।। भापा प्राकृत संस्कृत, त्रिविधि शब्द परमान ॥२॥ एकारथवाची शबद, अरु द्विरुक्ति को होय ।। नाम कथनके कवितमें, दोष न लागे कोय ॥ ३ ॥
चौपाई १५ मात्रा. प्रथमोंकाररूप ईशान । करुणासागर कृपानिधान ॥ त्रिभुवननाथ ईश गुणवृन्द्र । गिरातीत गुणमूल अनन्द ॥१॥
गुणी गुप्त गुणवाहक बली । जगतदिवाकर कौतूहली ।। ॐ क्रमवर्ती करुणामय क्षमी । दशावतारी दीरथ दमी ॥ २ ॥ * अलख अमूरति अरस अखेद । अचल अवाधित अमर अवेद
परम परमगुरु परमानन्द । अन्तरजामी आनंदकन्द ॥ ३ ॥ प्राणनाथ पावन अमलान । शील सदन निर्मल परमान ॥ तत्त्वरूप तपरूप अमेय । दयाकेतु अविचल आदेव || १ || शीलसिन्धु निरुपम निर्वाण । अविनाशी अस्पर्श अमान ॥ अमल अनादि अदीन अछोम । अनातक अज अगम अलोम||५||
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जैनग्रन्थरलाकरे
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अनवस्थित अध्यातमरूप | आगमरूपी अघट अनूप ॥ अपट अरूपी अभय अमार अनुभवमंडन अनघ अपार ॥६॥ विमलपूतशासन दातार । दशातीत उद्धरन उदार ॥ नभवत पुंडरीकवत हंस । करुणामन्दिर एनविध्वंस || ७ || निराकार निहचै निरमान । नानारसी लोकपरमान ॥ सुखधर्मी सुखज्ञ सुखपाल । सुन्दर गुणमन्दिर गुणमाल ॥ ८॥
दोहा. अम्बरवत आकाशवत, क्रियारूप करतार । केवलरूपी कौतुकी, कुशली करुणागार ।। १२ ।। इति ओंकार नाम प्रथमशतक nan
चौपाई. ज्ञानगम्य अध्यातमगम्य । रमाविराम रमापति रम्य ॥ ई अप्रमाण अधहरण पुराण । अनमित लोकालोक प्रमाणा॥१३ कृपासिन्धु कूटस्थ अछाय । अनभव अनारूढ असहाय ॥ सुगम अनन्तराम गुणग्राम । करुणापालक करुणाधाम || १४| लोकविकाशी लक्षणवन्त । परमदेव परब्रह्म अनन्त ॥ दुराराध्य दुर्गस्थ दयाल । दुरारोह दुर्गम दिकपाल ॥१५॥ सत्यारथ सुखदायक सूर । शीलशिरोमणि करुणापूर ॥ ज्ञानगर्ने चिद्रूप निधान । नित्यानन्द निगम निरजान ॥१६॥ १. 'विपुल ऐसा भी पाठ है.
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वनारसीविलास.
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अकथ अकरता अजर अजीत । अवपु अनाकुल विषयांतीत ॥ मंगलकारी मंगलमूल । विद्यासागर विगतदुकूल ॥ १७ ॥ नित्यानन्द विमल निरुजान । धर्मधुरंधर धर्मविधान ।
ध्यानी धामवान धनवान । शीलनिकेतन बोधनिधान ॥ १८॥ | लोकनाथ लीलाघर सिद्ध । कृती कृतास्थ महासमृद्ध ॥ तपसागर तपपुञ्ज अछेद । भवभयभंजन अमृत अभेद ॥१९॥ गुणावास गुणमय गुणदाम | खपरप्रकाशक रमता राम ॥ नवल पुरातन अजित विशाल । गुणनिवास गुणग्रह गुणपाल ॥२०॥
दोहा. लघुरूपी लालचहरन, लोमविदारन वीर।
धेय घराधर धीर ॥ २१ ॥ इति ज्ञानगम्यनाम द्वितीयशतक ॥२॥
__पद्धरिछन्द, चिन्तामणि चिन्मय परम नेम । परिणामी चेतन परमछेम ॥ चिन्मूरति चेता चिद्विलास । चूडामणि चिन्मय चन्द्रमास ॥२२॥ चारित्रधाम चित् चमत्कार । चरनातम रूपी चिदाकार ॥ निर्वाचक निर्मम निराधार । निरजोग निरंजन निराकार ॥२३॥ निरभोग निरास्वव निराहार । नगनरकनिवारी निर्विकार । आतमा अनक्षर अमरजाद । अक्षर अबंध अक्षय अनाद||२४||
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१. 'विपति अतीत' ऐसा भी पाठ है. २ वन. T
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२६ जैनग्रन्थरत्नाकरे
mmmmmmmmmmmmmm.in आगत अनुकम्पामय अडोल । अशरीरी अनुभूती अलोल || विश्वभर विस्मय विश्वटेक । ब्रजभूषण वजनायक विवेका॥२५॥ छलभंजन छायक छीनमोह । मेधापति अकलेवर अकोह ||
अद्रोह अविग्रह अग अरक । अद्भुतनिधि करुणापति अबंक २६ । १ सुखराशि दयानिधि शीलपुंज । करुणासमुद्र करुणामपुंज ॥ वनोपम व्यवसायी शिवस्या निश्चल विमुक्त ध्रुव सुथिर मुस्ख २७॥
जिननायक जिनकुंजर जिनेश । गुणपुंज गुणाकर मंगलेश ॥ भी क्षेमंकर अपद अनन्तपानि । सुखपुंजशील कुलशील खानि ॥२८॥
करुणारसभोगी भवकुठार । कृषिवत कृशानु दारन तुसार ॥ कैतवरिपु अकल कलानिधानाधिपणाधिप ध्याता ध्यानवान २९
दोहा. छपाकरोपम छलरहित, छेत्रपाल छेत्रज्ञ ॥ अंतरिक्षवत गगनवत, हुत कर्माकृत यज्ञ ॥ ३०॥ इति चिन्तामणि नाम तृतीनशतक ॥३॥
पद्धरिछन्दः लोकांत लोकप्रभु लुप्तमुद्र । संवर सुखधारी सुखसमुद्र ।। शिवरसी गूढरूपी गरिष्ट । वलरूप बोधदायक वरिष्ट ||३१|| विद्यापति घीधव विगतवाम । धीवंत विनायक वीतकाम || अधीरस्व शिलीद्रुम शीलमूल । लीलाविलास जिन शारदूल ॥३२ परमारथ परमातम पुनीत । त्रिपुरेश तेजनिधि त्रपातीत ॥ तपराशि तेजकुल तपनिधान । उपयोगी उग्र उदोतवान॥३३॥ १ चन्द्रोपम,
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बनारसीविलास.
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* उत्पातहरण उद्दामधाम । व्रजनाथ विमक्षर विगतनाम ।।
बहुरूपी बहुनामी अनोप । विपहरण विहारी विगतदोषा॥३४॥ छितिनाथ छमावर छमापाल । दुर्गम्य दयार्णव दयामाल | चतुरेश चिदातम चिदानंद । सुखरूप शीलनिधि शीलकन्दा॥३५॥ रसव्यापक राजा नीतिवंत । ऋषिरूप महर्षि महमहंत ॥ परमेश्वर परमऋषि प्रधान । परत्यागी प्रगट प्रतापवान ॥३६ परतक्षपरमसुख करममुद्र । हन्तारि परमगति गुणसमुद्र ॥ सर्वज्ञ सुदर्शन सदावृप्त । शंकर सुवासवासी अलिप्त ॥ ३७॥ शिवसम्पुटवासी सुखनिधान । शिवपंथ शुभंकर शिखावान ॥ असमान अंशधारी अशेष । निर्द्वन्दी निर्जङ निरवशेष ॥३८॥
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दोहा.
विस्मयधारी बोधमय, विश्वनाथ विश्वेश। बंधविमोचन वनवत, बुधिनायक विबुधेश ॥ ३९ ॥
इति लोकांत नाम चतुर्थ शतक in
छन्दरोडक. महामंत्र मंगलनिधान मलहरन महाजप ।
मोक्षस्वरूपी मुक्तिनाथ मतिमथन महातप ॥ निस्तरङ्ग निःसङ्ग नियमनायक नंदीसुर। ___महादानि महज्ञानि महाविस्तार महागुर ॥ १० ॥ परिपूरण परजायरूप कमलस्य कमलवत ।
गुणनिकेत कमलासमूह धरनीश ध्यानरत ॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
भूविवान भूतेश मारछम भर्म उछेदक 1 सिंहासननायक निराश निरभयपदवेदक ॥ ४१ ॥
शिवकारण शिवकरन भविक बंधव भवनाशन ।
नीरिवंश निःसमर सिद्धिशासन शिवआसन || महाकाजं महाराज मारजित मारविहंडन ।
गुणमय द्रव्यवरूप दशाघर दारिदखंडन ॥ ४२ ॥ जोगी जोग अतीत जगत उद्धरन उजागर ।
जगतबंधु जिनराज शीलसंचय सुखसागर ॥
महाशूर सुखसदन तरनतारन तमनाशन । अगनितनाम अनंतधाम निरमद निश्वासन ॥ ४३ ॥ वारिजवत जलजवत पद्म उपमा पंकजयत ।
महाराम महधाम महायशवंत महासत || निजकृपालु करुणाल बोघनायक विद्यानिधि | प्रशमरूप प्रशमीश परमजोगीश परमविधि ॥ ४४ ॥
वस्तुछन्द.
सुरस्रभोगी रसील समुदायकी चाल ---
शुभकारनशील इह सील राशि संकट निवारन । त्रिगुणातम तपतिहर परमहंसपर पंचवारन || परम पदारथ परमपथ, दुखभंजन दुरलक्ष । तोषी सुखपोषी सुगति, दमी दिगम्बर दक्ष ॥ ४५ ॥
इति महामंत्र नाम पंचम शतक ॥५॥
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बनारसीविलास.
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रोडक छन्द, परमप्रबोध परोक्षरूप, परमादनिकन्दन । ___परमध्यानधर परमसाधु, जगपति जगवंदन ! जिन जिनपति जिनसिंह, जगतमणि बुधकुलनायक । ___ कल्पातीत कुलालरूप, डग्मय गदायक ॥ ४६॥
कोपनिवारणधर्मरूप, गुणराशि रिपुंजय । ___ करुणासदन समाधिरूप, शिवकर शत्रुजय ।। परावर्तरूपी प्रसन्न, आतमप्रमोदमय । _ निजाधीन निर्द्वन्दु, ब्रह्मवेदक व्यतीतमय ॥ १७ ॥ अपुनर्मव जिनदेव सर्वतोभद्र कलिलहर।
धर्माकर ध्यानस्थ धारणाधिपति धीरधर ॥ त्रिपुरगर्म त्रिगुणी त्रिकाल कुशलातपपादप ।
सुखमन्दिर सुखमय अनन्तलोचन अविषादप ॥४८ लोकअग्रवासी त्रिकालसाखी करुणाकर ।
गुणआश्रय गुणधाम गिरापति जगतप्रभाकर ॥ धीरज धौरी धौतफर्म धर्मग धामेश्वर ।
रत्नाकर गुणरत्नराशि रजहर रामेश्वर ।। ४९ ॥ निरलिङ्गी शिवलिङ्गधार बहुतुंड अनानन ।
गुणकदम्ब गुणरसिक रूपगुण अंजिक पानन ॥ निरअंकुश निरधाररूप निजपर परकाशक ||
विगतासव निरवंध वंघहर बंधविनाशक ॥ ५० ॥
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१० चैनग्रन्थरत्नाकरे
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वृहत अन निरंश अंशगुणसिन्धु गुणालय ।
लक्ष्मीपति लीलानिधान वित्तपति विगतालय । चन्द्रवदन गुणसदन चित्रधर्मामुख थानक । ब्रह्माचारी वज्रवीर्य बहुविधि निरचानक ॥ ५१ ॥
दोहा. सुखकदम्ब साधक सरन, सुजन इष्टमुखवास । वोधरूप बहुलातमक, शीतल शीलविलास ।। ५२ ॥ इति श्रीपरमप्रबोधनामक पष्ट शतक ॥६॥
रूप चौपई. * केवलज्ञानी केवलदरसी । सन्यासी संयमी समरसी ॥ * लोकातीत अलोकाचारी | त्रिकालज्ञ धनपति धनधारी ॥५४|
चिन्ताहरण रसायन रूपी । मिथ्यादलन महारसकूपी ॥ निर्वृतिकर्ता मृपापहारी । ध्यानधुरंधर धीरजघारी ॥ ५५ ॥
ध्याननाथ ध्यायक वलवेदी । घटातीत घटहर घटभेदी ॥ १ उदयरूप उद्धत उतसाही। कलुपहरणहर किल्विपदाही ॥५६॥
वीतराग बुद्धीश विपारी । चन्द्रोपम वितन्द्र व्यवहारी ॥ । अगतिरूप गतिरूप विधाता । शिवविलास शुचिमय सुखदाता५७।। परमपवित्र असंख्यप्रदेशी । करुणासिंधु अचिन्त्य अमेपी ॥ जगतसूर निर्मल उपयोगी । भद्ररूप भगवन्त अभोगी।।५८॥ १ 'बुद्धि सुविचारी ऐसा भी पाठ है.
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वनारसीविलास. ११ मानोपम भरता भवनासी । द्वन्दविदारण बोधविलासी ॥ कौतुकनिधि कुशली कल्याणी । गुरू गुसाँई गुणमय ज्ञानी॥५९॥ निरातंक निरवैर निरासी । मेधातीत मोक्षपदवासी ॥ * महाविचित्र महारसभोगी । प्रमभंजन भगवान अरोगी ॥६॥ कल्मपमंजन केवलदाता । धाराधरन धरापति धाना॥ प्रज्ञाधिपति परम चारित्री । परमतत्त्ववित् परमविचित्री ॥६॥ संगातीत संगपरिहारी । एक अनेक अनन्ताचारी ॥ उद्यमरूपी ऊरघगामी । विश्वरूप विजया विश्रामी ॥ १२ ॥
दोहा.
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धर्मविनायक धर्मधुज, धर्मरूप धर्मज्ञ । रत्नगर्भ राधारमण, रसनातीत रसज्ञ || ६३ ॥ इति केवलज्ञानी नामक सप्तम शतक ॥ ७ ॥
रूप चौपई. परमप्रदीप परमपददानी । परमप्रतीति परमरसज्ञानी ॥ * परमज्योति अघहरन अगेही। अजित अखंड अनंग अदेही ६४॥ * अतुल अशेष अरेष अलेपी । अमन अवाच अदेख अभेपी ॥
अकुल अगूढ़ अकाय अकर्मी। गुणधर गुणदायक गुणमम्मी ६५ निस्सहाय निर्मम नीरागी । सुधारूप सुपथग सौभागी ॥ हतकैतवी मुक्तसंतापी । सहजस्वरूपी सबविधि व्यापी ॥६६॥
महाकौतुकी महद विज्ञानी । कपटविदारन करुणादानी ॥ * परदारन परमारथकारी । परमपौरुपी पापप्रहारी ॥ १७ ॥
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१२ जैनग्रन्थरत्नाकरे
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केवलब्रह्म घरमधनधारी । हतविभाव हतदोप हतारी || भविकदिवाकर मुनिमृगराजा । दयासिंधु भवसिंधु जहाजा ॥६॥ शंभु सर्वदर्शी शिवपंथी । निरावाध निःसँग निग्रन्थी॥ यती यंत्रदाहत () हितकारी । महामोहबारन बलधारी॥६९ चितसन्तानी चेतनवंशी । परमाचारी गरमविध्वंसी ॥ सदाचरण खशरण शिवगामी । बहुदेशी अनन्त परिणामी ७० वितथभूमिदारनहलपानी । भ्रमवास्जिवनदहनहिमानी ॥ ४ चारु चिदक्षित द्वन्दातीती । दुर्गरूप दुर्लभ दुर्जीती ॥ ७१ ॥ शुमकारण शुभकर शुभमंत्री । जगतारन ज्योतीश्वर जंत्री ७२ ।
दोहा. जिनपुङ्गव जिनकेहरी, ज्योतिरूप जगदीश । मुक्ति मुकुन्द महेश हर, महदानंद मुनीश || ७३ ॥ इति श्रीपरमप्रदीप नाम अष्टम शतशः ॥ ८ ॥
मंगलकमला. दुरित दलन सुखकन्द । हत भीत अतीत अमन्द ॥ शीलशरणहत कोप | अनमंग अनंग अलोप ॥ ७ ॥ हंसगरम हतमोह । गुणसंचय गुणसन्दोह ॥ सुखसमाज सुख गेह । हतसंकट विगत सनेह ॥ ७५ ।। क्षोभदलन हतशोक । अगणित बल अमलालोक ॥ धृतसुधर्म कृतहोम । सत्तसूर अपूरव सोम ।। ७६ ॥ १ दूसरी पुस्तकमें 'त्रिगुणातम निज सन्दोह' ऐसा पाठ है.
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___ बनारसीविलास.
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हिमवत हतसंताप । व्रजव्यापी विगतालाप ॥ पुण्यस्वरूपी पूत । सुखसिंधु स्वयं संभूत ॥ ७ ॥ समयसारश्रुतिधार । अविकलप अजल्पाचार ॥ शांतिकरन धृतशांति । कलरूप मनोहरकान्ति ॥ ७८ ॥ सिंहासनपर आरूढ़ । असमंजसहरन अमूद ॥ लोकजयी हतलोम । कृतकर्मविजय धृतशोभ ॥ ७९ ॥ मृत्युंजय अनजोग । अनुकम्प अशंक असोग ॥ सुविधिरूप सुमतीश । श्रीमान् मनीषाधीश ॥ ८० ॥ विदित विगत अवगाह । कृतकारज रुपअथाह ॥ वर्द्धमान गुणभान । करुणाघरलीलविधान ॥ ८१ ॥ अक्षयनिधान अगाध । हतकलिल निहतअपराध ॥ साविरूप साधक धनी ) महिमा गुणमेरु महामनी (!) ८२ उतपति वैध्रुववान । त्रिपदी त्रिपुंज त्रिविधान ॥ जगजीत जगदाधार । करुणागृह विपतिविदार ॥ ३ ॥ जगसाक्षी वरवीर । गुणगेह महागंभीर ॥ अभिनंदन अभिराम । परमेयी परमोद्दाम ॥ ८४ ॥
दोहा. सगुण विभूती वैभवी, सेमुधीश संबुद्ध ।। सकल विश्वकर्मा अभव, विश्वविलोचन शुद्ध ॥ ८५ ॥
इति दुरितदलननाम नवम शतक ॥ ९ ॥
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मंगलकमला. शिवनायक शिव एव । प्रवलेश प्रजापति देव ॥ मुदित महोदय मूल । अनुकम्पा सिंधु अकूल ।। ८६ ॥ नौरोपम गर्ने पंक । नीरीहत निर्गत शंक ॥ नित्य निरामय मौन । नीरन्ध निराकुल गान ।। ८७ ॥ परम धर्म रथ सारथी (१)। धृत केवल रूप कृतारथी (1) परम नित्य भंडार । संवरमय संयमधार ॥ ८८ ॥ शुभी सरबगत संत । शुद्धोधन शुद्ध सिद्धत ।। नैयायक नय जान । अविगत अनंत अभिधान
कर्मनिर्जरामूल | अघभंजन मुखद अमूल || । अद्भुत रूप अशेप । अवगमनिधि अवगमभेप ॥ १० ॥
बहुगुण रखकरंड । ब्रह्मांड रमण लंड ॥ वरद बंधु भरतार । महदंग महानेतार ॥ ११ ॥ गतप्रमाद गतपास । नरनाथ निराथ निरास ।। महामंत्र महास्वामि । महदर्थ महागति गामि ॥ ९२ ॥ महानाथ महजान । महपावन महानिधान ॥ गुणागार गुणवास । गुणमेरु गभीर विलास ॥ ९३ ॥ करुणामूल निरंग । महदासन महारसंग ।। लोकवन्धु हरिकेश । महदीश्वर महदादेश ॥ ९४ ॥
१ कंपाप २ महत्+अग ३ महत्+आसन. ४ महत् ईश्वर. ५ मा शहद आदेश.
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महाविभु महधववंत । धरणीधर धरणीकंत ॥ कृपावंत कालिग्राम । कारणमय करत विराम ॥ ९५ ॥ मायावेलि गयन्द । सम्मोहतिमरहरचन्द । कुमति निकन्दन काज । दुखगजमंजन मृगराज ॥२६॥ परमतत्त्वसत संपदा (१) । गुणत्रिकालदर्शीसदा () ॥ कोपदवानलनीर । मदनीरदहरणसमीर ॥ ९७ ॥ भवकांतारकुठार | संशयमृणालअसिधार ॥ लोमाशेखरनिर्घात । विपदानिशिहरणप्रभात ॥ ९८॥
दोहा संवररूपी शिवरमण, श्रीपति शीलनिकाय ।। महादेव मनमथमथन, सुखमय सुखसमुदाय ॥ ९९ ॥ . इति श्रीशिवनायक नाम दवाम शतक ॥ १० ॥
दोहा. इति श्रीसहसअठोतरी, नाम मालिका मूल । अधिक कसर पुनरुक्ति की, कविप्रमादकी भूल ॥१०॥ परमपिंड ब्रझंडमें, लोकशिखर निवसंत । निरखि नृत्य नानारसी, वानारसी नमंत ॥ १०१॥ महिमा ब्रह्मविलासकी, मोपर कही न जाय | यथाशक्ति कछु वरणई, नामकथन गुणगाय ॥ १०२॥ संवत सोलहसो निवे, श्रावण सुदि आदित्य । करनक्षत्र तिथि पंचमी; मगव्यो नाम कवित्त ॥ १०३ ॥
इति भापाजिनसहस्रनाम । SPre
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वर्गीय कविवर वनारसीदासजीकृत भाषासूक्तमुक्तावली.
(सिंदूरप्रकर.) धर्माधिकार ।
शार्दूलविक्रीडित । सिन्दूरप्रकरस्तपः करिशिरकोडे कपायाटवी
दावाचिर्निचयः प्रबोधदिवसपारम्भसूर्योदयः। मुक्तिस्त्रीकुचकुम्भकुङ्कुमरसः श्रेयस्तरोः पल्लवमोल्लासः क्रमयोर्नखातिभरः पार्श्वप्रभोः पातु वः ॥१॥
पट्पद। .शोभित तपगजरान, सीस सिन्दूर पूरछवि । वोदिवस आरंभ, करण कारण उदोत रवि ।। मंगल तरु पल्लव, कषाय कांतार हुताशन ।
बहुगुणरत्ननिधान, मुक्तिकमलाकमलाशन ॥ इहिविधि अनेक उपमा सहित, अरुण चरण संताप हर। जिनराय पार्श्वनखज्योति भर, नमत बनारसि जोर कर ॥१॥
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शार्दूलविक्रीडित। सन्तः सन्तु मम प्रसन्नमनसो वाचां विचारोद्यताः
सूतेऽम्भः कमलानि तत्परिमलं वाता वितन्वन्ति यत् ।। कि वाभ्यर्थनयानया यदि गुणोऽस्त्यासां ततस्ते स्वयं । कर्तारः प्रथने न चेदय यशःप्रत्यर्थिना तेन किम् ॥२॥
दोधकान्तयेसरीछन्द । जैसे कमल सरोवर वासै । परिमल तासु पवन परकाश।
त्यों कवि भापहिं अक्षर जोर। संत सुजस प्रगटहि चहुओर ॥ ॐ जो गुणवन्त रसाल कवि, तो जग महिमा होय । * जो कवि अक्षर गुणरहित, तौ आदरै न कोय ॥ २॥
इन्द्रवजा। त्रिवर्गसंसाधनमन्तरेण पशोरिवायुर्विफलं नरस्य । । तत्रापि धर्म प्रवरं वदन्ति न त विना यद्भवतोऽर्थकामौ ॥
दोधकान्तयेसरीछन्द। सुपुरुष तीन पदारथ साधहिं । धर्म विशेष जान आराधहिं । धरम प्रधान कहै सब कोय । अर्थ काम धर्महितें होय ॥
धर्म करत संसारसुख, धर्म करत निर्वान ।
धर्मपंथसाधनविना, नर तियेच समान ॥ ३ ॥ यः प्राप्य दुष्प्रापमिदं नरत्वं धर्म न यत्नेन करोति मूढः। क्लेशप्रयन्धेन स लब्धमधौ चिन्तामणि पातयति प्रमादात् ॥
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बनारसीविलासः
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कवित्त मात्रिक (३१ मात्रा) पुरुष कोइ धन कारण, हीडत दीयदीप चढ़ यान । * आवत हाथ रतनचिन्तामणि, डारत जलधि जान पापान ॥ तैसे प्रमत भ्रमत भवसागर, पावत नर शरीर परधान । धर्मयत्न नहिं करत 'वनारसि खोवत वादि जनम अज्ञान .
मन्दाकान्ता। स्वर्णस्थाले क्षिपति स रजः पादशौचं विधत्ते । ___ पीयूपणे प्रवरकरिणं वाहयत्यैप्रभारम् । चिन्तारनं चिकिरति कराद्वायसोझायनार्थ यो दुष्पापं गमयति मुधा मर्यजन्म प्रमत्तः ॥ ५॥
मतगयन्द. (सवैया) ज्यों मतिहीन विवेक विना नर, साजि मतङ्गज ईंधन ढोवै ।। कंचन भाजन धूल भरै शठ, मूढ़ सुधारससों पगधोवै ॥ ॐ बाहित काग उड़ावन कारण, डार महामणि मूरख रोवै । त्यों यह दुर्लभ देह बनारसि', पाय अजान अकारथ खोवै५ ।
भादूलविक्रीडित। ते धत्तुरतरं वपन्ति भवने प्रोन्मूल्य कल्पद्रुमं __ चिन्तारतमपास्य काचशकलं स्वीकुर्वते ते जडाः।। विक्रीय द्विरदं गिरीन्द्रसदृशं क्रीणन्ति ते रासभं
ये लब्धं परिहत्य धर्ममधमा धावन्ति भोगांशया ॥
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जैनग्रन्थरताकर
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कवित्त माग्निक (३१ मात्रा) ॐ ज्यों जरमूर उखारि कल्पतरु, वोक्त मूढ़ कनकको खेत।
ज्यों गजराज बेच गिरिवर सम, कूर कुबुद्धि मोल खर लेत॥ जैसे छांडि रतन चिन्तामणि, मूरख काचखंडमन देत। तैसे धर्म विसार 'वनारसि धावत अधम विषयमुखहेत ॥६॥
शिखरिणी। अपार संसारे कथमपि समासाद्य नभवं
न धर्म यः कुर्याद्विषयसुखतृष्णातरलितः। वडन्पारावार प्रवरमपहाय प्रवहणं स मुख्यो मूर्खाणामुपलमुपलब्धुं प्रयतते ॥ ७ ॥
सोरठा। ज्यों जल बूढ़त कोय, वाहन तज पाहन गहै । त्यो नर मूरख होय, धर्म छांडि सेवत विषय ॥ ७ ॥
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द्वार गाथा।
शार्दूलविक्रीडित। भक्तिं तीर्थकरे गुरौ जिनमते संघे च हिंसानृत
स्तेयाब्रह्मपरिग्रहव्युपरमं क्रोधायरीणां जयम् । सौजन्यं गुणिसङ्गमिन्द्रियदमं दानं तपोभावनां ॐ वैराग्यं च कुरुष्व निर्वृतिपदे यद्यस्ति गन्तुं मनः ॥८॥
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१ धतूरा. २ गर्दभ (गया),
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बनारसीविलासः
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पदपद। जिन पूजहु गुरुनमहु, जैनमतवैन बखानहु । संघ भक्ति आदरहु, जीव हिंसा नविधानहु ॥
झूठ अदत्त कुशील, त्याग परिग्रह परमानहु । __ क्रोध मान छल लोम जीत, सज्जनता ठानहु ॥ गुणिसंग करहु इन्द्रिय दमहु, देहु दान तप भावजुत ।। गहि मन विराग इहिविधि चहहु, जो जगमैं जीवनमुकता
पूजाधिकार। पापं लुम्पति दुर्गति दलयति व्यापादयत्यापदं
पुण्यं संचिनुते श्रियं वितनुते पुष्णाति नीरोगताम् । सौभाग्यं विदधाति पल्लवयति प्रीति प्रसूते यशः | स्वर्ग यच्छति निर्वृति च रचयत्सार्हतां निर्मिता ॥९॥
३. मात्रा सवैया छन्द । लोपै दुरित हरै दुख संकट; आपै रोग रहित नितदेह । पुण्य भंडार भरै जश प्रगटै; मुकति पंथसौं करै सनेह ॥ अरचै सुहाग देय शोमा जग; परभव पँहुचावत सुरगेह । कुगति बंध दलमलहि वनारसि; वीतराग पूजा फल येह ॥९॥ स्वर्गस्तस्य गृहाङ्गणं सहचरी साम्राज्यलक्ष्मीः शुभा * सौभाग्यादिगुणावलिविलसति स्वैरं वपुर्वेश्मनि । संसारः सुतरः शिवं करतलकोडे लुठत्यक्षसा
यः श्रद्धाभरभाजनं जिनपतेः पूजां विधत्ते जनः १०
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२२
जैनग्रन्थरत्नाकरे
देवलोक ताको घर आँगन; राजरिद्ध से तलु पाय । ताको तन सौभाग्य आदि गुन; केलि विलास करै नित आय || सोनर त्वरित तैरै भवसागर; निर्मल होय मोक्ष पद पाय । द्रव्य भाव विधि सहित वनारसि; जो जिनवर पूजै मन लाय १०
शिखरिणी । कदाचिन्नातः कुपित इव पश्यत्यभिमुखं विदूरे दारिद्र्यं चकितमिव नश्यत्यनुदिनम् ।
विरक्ता कान्तेव त्यजति कुगतिः सङ्गमुदयो न मुञ्चत्यभ्यर्ण सुहृदिव जिनाच रचयतः ॥ ११ ॥ ज्यौं नर रहे रिसाय कोपकर; त्यों चिन्ताभय विमुख चखान । ज्यौं कायर शंकै रिपु देखत; त्यों दरिद्र भाजै भय मान || ज्यौं कुनार परिहरै खंडपति; त्यौं दुर्गति छंडै पहिचान । हितुज्यौं यिभौ तजै नहिं संगत; सो सब जिनपूजाफल जान ११ शार्दूलविक्रीडित |
यः पुष्पैर्जिनमर्चति स्मितसुरस्त्रीलोचनैः सोऽचर्यते यस्तं वन्दत एकशस्त्रिजगता सोऽहर्निशं वन्द्यते । यस्तं स्तौति परत्र वृत्रदमनस्तोमेन स स्तूयते यस्तं ध्यायति कुप्तकर्मनिधनः स ध्यायते योगिभिः ॥ जो जिनेंद्र पूजै फूलनसों; सुरनैनन पूजा तिस होय । बंदैं भावसहित जो जिनवर; वंदनीक त्रिभुवन मैं सोय ||
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बनारसीविलासः
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जो जिन सुजस करै जन ताकी; महिमा इन्द्र करें सुरलोय । जो जिन ध्यान करतवनारसिध्या मुनि ताके गुण जोया१२॥
गुरु अधिकार।
वंशस्थविलम् । अवद्यमुक्त पथि यः प्रवर्चते प्रवर्तयत्यन्यजनं च निस्पृहः । स सेवितव्यः स्वहितैपिणा गुरुः स्वयं तरंस्तारयितुं क्षमः
परम् ॥ १३॥ अडिल्ल छन्द्र। पापपंथ परिहरहि; घरहिं शुभपंथ पग । पर उपगार निमित्त; बखानहिं मोक्षमग ।। सदा अवंछित चित्त; जु तारन तरन जग । ऐसे गुरुको सेवत; भागहिं करम ठग ॥ १३ ॥
मालिनी। विदलयति कुयोधं वोधयत्यागमार्थ
सुगतिकुगतिमार्गों पुण्यपापे व्यनक्ति । अवगमयति कृत्याकृत्यभेदं गुरुयों भवजलनिधिपोतस्तं विना नास्ति कश्चित् १४
हरिगीतिका रन्द। मिथ्यात दलन सिद्धांत साधक; मुकतिमारग जानिये ।
करनी अकरनी सुगति दुर्गति; पुण्य पाप बानिये ॥ । संसारसागरतरनतारन; गुरु जहाज विशेखिये ।।
जगमाहिं गुरुसम कह बनारसि; और कोड न देखिये ।। १४ ॥
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जैनमन्थरताकर
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शिखरिणी। पिता माता भ्राता प्रियसहचरी सूनुनिवहः
सुहृत्स्वामी माद्यत्करिमटरथाश्वः परिकरः । निमजन्तं जन्तुं नरककुहरे रक्षितुमलं गुरोधर्माधर्मप्रकटनपरात्कोऽपि न परः ॥१५॥
मत्तगयन्द । मात पिता सुत बन्धु सखीजन; मीत हितू मुख कामन पीके । * सेवक साज मतंगज बाज; महादल राज रथी स्थनीके ॥
दुर्गति जाय दुखी विललाय; पर सिर आय अकेलहि जीके । पंथ कुपंथ गुरू समझावत; और सगे सब स्वारथहीके ॥ १५॥
शार्दूलविक्रीडित। किं ध्यानेन भवत्वशेपविपयत्यागैस्तपोभिः कृतं ___ पूर्ण भावनयालमिन्द्रियजयैः पर्याप्तमाप्तागमैः।। किं त्वेकं भवनाशनं कुरु गुरुप्रीत्या गुरोः शासनं सर्वे येन विना विनाथवलवत्स्वार्थाय नालं गुणा
वस्तु इन्द। ध्यान धारन ध्यान धारन विषै सुख त्याग । करुनारस आदरन; भूमि सैन इन्द्री निरोधन ॥ व्रत संजम दान तप; भगति भाव सिद्धंत साधन ॥ ये सब काम न आवहीं; ज्यौं विन नायक सैन । शिवमुख हेतु वनारसी; कर प्रतीत गुरुवैन ॥ १६॥
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बनारसीविलासः
२५
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जिनमताधिकार
शिखरिणी। न देवं नादेवं न शुभगुरुमेनं न कुगुरुं
न धर्म नाधर्म न गुणपरिणद्धं न विगुणम् ।। न कृत्यं नाकृत्यं न हितमहितं नापि निपुणं विलोकन्ते लोका जिनवचनचक्षुचिरहिताः ॥१७॥
___ कुंडलिया छन्। देव मदेव नहीं लौं; सुगुरु कुगुरनहिं सूझ । धर्म अधर्म गनै नहीं; कर्म अकर्म न बूझ ॥ कर्म अकर्म न बूझ; गुण रु औगुण नहिं जानहिं । हित अनहित नहिं सधै; निपुणमूरख नहिं मानहिं ॥ कहत बनारसि ज्ञानदृष्टि नहिं अंध अवेवहिं।। जैनवचनहगहीन; लखै नहिं देव. अदेवहिं ॥ १७ ॥
शार्दूलविक्रीडित । मानुष्यं विफलं वदन्ति हृदयं व्यर्थ वृथा श्रोत्रयो
निर्माणं गुणदोपभेदकलनां तेपामसंभाविनीम् । दुर्वारं नरकान्धकूपपतनं मुक्किं बुधा दुर्लभ ___ सार्वशः समयो दयारसमयो येषां न कर्णातिथिः॥
३१ मात्रा सवैया छन्द । ताको मनुज जनम सब निष्फल मन निष्फल निष्फल जुगकान।। गुण अर दोष विचार भेद विधि; ताहि महा दुर्लभ है ज्ञान ॥
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२६ जैनग्रन्थरलाकरे
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ताको सुगम नरक दुख संकट; अगमपथ पदवी निर्वान । जिनमतवचन दयारसगर्मित; जे न सुनत सिद्धतवखान १८ पीयूपं विपक्जलं ज्वलनवत्तेजस्तमःस्तोमव
मित्रं शात्रववत्नजं भुजगवञ्चिन्तामणि लोष्टवत् ।। ज्योत्स्ना ग्रीष्मजधर्मवत्स मनुते कारुण्यपण्यापणं जैनेन्द्र मतमन्यदर्शनसमं यो दुर्मतिर्मन्यते ॥१९॥
पदपढ़। अमृतको विप कहें; नीरको पावक मानहिं । तेज तिमरसम गिनहिं; मित्रको शत्रु बखानहि ॥
पहुपमाल कहिं नागा रतन पत्थर सम तुहिं । ३ चंद्रकिरण आतप खरूप; इहिं भांत जु भुलहिं ।।
करुणानिधान अमलानगुन; प्रघट बनारसि जैनमत । , परमत समान जो मनधरत; सो अजान मूरख अपत ॥१९॥ धर्म जागरयत्ययं विघटयत्युत्थापयत्युत्पथं
भिन्ते मत्सरमुन्छिनत्ति कुनयं मनाति मिथ्यासतिम् । वैराग्यं वितनोति पुष्यति रुपां मुष्णाति तृष्णां च यतज्जैन मतमर्चति प्रथयति ध्यायत्यधीते कृती ॥२०॥
मरहटा छन्द । ॐ शुभ धर्म विकाशै, पापविनाशै; कुपथउथप्पनहार । २ मिथ्यामतखंडे, कुनयविहँडै; मंडै दया अपार ।।
तृष्णामदमारे, राग विडारै; यह जिनआगमसार । जो पूर्फे ध्यावें, पढ़ें पढाबैं; सो जगमाहिं उदार ॥२०॥
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बनारसीविलासः
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संघ अधिकार । रत्नानामिव रोहणक्षितिधरः खं तारकाणामिव
स्वर्गः कल्पमहील्हामिव सरः पङ्घरहाणामिव । पाथोधिः पयसामिवेन्दुमहसां स्थानं गुणानामसावित्यालोच्य विरच्यतां भगवतः संघस्य पूजाविधिः
३. मात्रा सवैया छन्द । । जैसे नभमंडल तारागण; रोहनशिखर रतनकी खान ।
ज्यों सुरलोक भूरि कलपट्ठम; ज्योंसरवर अंबुज वन जान ज्यों समुद्र पूरन जलमंडित, ज्यों शशिछविसमूह सुखदान । तैसें संघ सकल गुणमन्दिर, सेवहु भावभगति मन आन २१ यः संसारनिरासलालसमतिर्मुक्त्यर्थमुत्तिष्ठते
यंतीर्थ कथयन्ति पावनतया येनास्ति नान्यः समः। ॐ यस्मै स्वर्गपतिनमस्यति सतां यस्माच्छुभं जायते * स्फूर्तिर्यस्य परा वसन्ति च गुणा यस्मिन्स संघोऽयंताम् । जे संसार भोग आशातज, ठानत मुकति पन्थकी दौर। जाकी सेव करत सुख उपजत, तिन समान उत्तम नहिं और इन्द्रादिक जाके पद वंदत, जो जंगम तीरथ शुचि और। जामैं नित निवास गुन मंडन, सो श्रीसंघ जगत शिरमौर ॥२२॥ लक्ष्मीस्तं स्वयमभ्युपैति रभसात्कीर्तिस्तमालिङ्गति
प्रीतिस्तं भजते मतिः प्रयतते तं लब्धमुत्कण्ठया। स्वश्रीस्तं परिरन्धुमिच्छति मुहुर्मुक्तिस्तमालोकते
यः संघ गुणसंघकेलिसदनं श्रेयोरुचिः सेवते ॥२३॥
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२८ जैनग्रन्धरलाकरे ताको आय मिलै सुखसंपति, कीरति रहै तिहूं जग छाय । जिनसों प्रीत बढे ताके घट, दिन दिन धर्मबुद्धि अधिकाय ॥ छिनछिन ताहि लखै शिवसुन्दर, सुरगसंपदा मिलै मुमाय । वानारसि गुनरास संघकी, जो नर भगति करै मनलाय॥२॥ यद्भक्तेः फलमर्हदादिपदवीमुख्य कृपेः सस्यव
चक्रित्वविदशेन्द्रतादि तृणवत्प्रासङ्गिकं गीयते । शक्तिं यन्महिमस्तुतौ न दधते वाचोऽपि वाचस्पतेः
संघः सोऽयहरः पुनातु चरणन्यासैः सतां मन्दिरम् ॥ जाके भगत मुकतिपदपावत, इन्द्रादिक पद गिनत न कोय ।
ज्यों कृषि करत धानफल उपजत, सहज पयार घास भुस होया में जाके गुन जस जपनकारन, सुरगुरु थकित होत मदखोय । सो श्रीसंघ पुनीत वनारसि, दुरित हरन विचरत भविलोय २४ ॥
___ अहिंसा अधिकार । क्रीडाभूः सुकृतस्य दुष्कृतरजःसंहारवाल्या भवो। दन्वन्नौर्व्यसनाग्निमेघपटली संकेतदूती श्रियाम् । निःश्रेणित्रिदिवौकसः प्रियसखी मुक्तेः कुगत्यर्गला सत्त्वेषु क्रियतां कृपैव भवतु क्लेशैरशेपैः परैः ॥ २५ ॥
घनाक्षरी। सुक्रतकी खान इन्द्र पुरीकी नसैनी जान
पापरजखंडनको, पौनरासि पेखिये। भवदुखपावकबुझायवेको मेघ माला, कमला मिलायवेको दूती ज्यों विशेखिये ॥
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बनारसीविलासः
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सुगति वधूसों प्रीत; पालवेकों आलीसम,
कुगतिके द्वार दृढ; आगलसी देखिये ॥ ऐसी दया कीजै चित; तिहूँलोकप्राणीहित, और करतूत काह; लेखे न लेखिये ॥ २५ ॥
शिखरिणी। यदि पावा तोये तरति तरणिर्यधुदद्यते __ प्रतीच्या सप्ताचियदि भजति शैत्यं कथमपि । यदि मापीठं स्यादुपरि सकलस्यापि जगतः
प्रसूते सत्त्वानां वदपि न वधः कापि सुकृतम् ॥
अमानक छन्द ।।
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जो पश्चिम रवि उगै; तिरै पाषान जल । जो उलटै भुवि लोक होय शीतल अनल ॥ जो मेरू डिगमिग; सिद्धि कहहोय मल । तब हू हिंसा करत; न उपजत पुण्यफल ॥ २६ ॥
मालिनी। स कमलवनमझेर्वासरं मास्वदस्ता
दमृतमुरगवत्रात्साधुवादं विवादात् । रुगपगममजीर्णाज्जीवितं कालकूटादभिलपति वधाद्यः प्राणिनां धर्ममिच्छेत् ॥ २७॥
घनाक्षरी छन्द । अगनिमैं जैसें अरविंद न विलोकियत;
सूर अथवत जैसें बासर न मानिये।
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
marnamamarimmar सांपके बदन जैसे अमृत न उपजता
कालकूट खाये जैसे जीवन न जानिये ॥ कलह करत नहिं पाइये सुजस जैसे
बाढ़तरसांस रोग नाश न यखानिये । पाणी वाहिं तैसें; धर्मकी निशानी नाहिं, याहीत वनारसी विवेक मन आनिये ॥ २७ ॥
शार्दूलविक्रीडित । आयुर्दीर्घतरं वपुर्वरतरं गोत्रं गरीयस्तरं
वित्र भूरितरं बलं बहुतरं स्वामित्वमुचैस्तरम् । आरोग्यं विगतान्तरं त्रिजगति श्लाघ्यत्वमल्पेतर संसाराम्बुनिधिं करोति सुतरं चेतः कृपान्तरम्।।
३१ मात्रा सवैया छन्द्र। दीरघ आयु नाम कुल उत्तम गुण संपति आनंद निवास । उन्नति विभव सुगम भवसागर; तीन भवन महिमा परकास ।। मुजवलवंत अनंतरूप छवि; रोगरहित नित भोगविलास ॥ जिनके चित्तदयाल तिन्होंके, सब सुख होंहि वनारसिदास ॥
सत्यवचन अधिकार। विश्वासायतनं विपत्तिदलनं देवैः कृताराधनं
मुक्तः पथ्यदनं जलाग्निशमनं व्याघ्रोरगस्तम्भनम् । श्रेयःसंवननं समृद्धिजननं सौजन्यसंजीवनं 2 'कीर्तेः केलिवनं प्रभावभवनं सत्यं वचः पावनम् २९
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बनारसीविलासः
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पहपद। गुणनिवास विश्वास बास; दारिददुःखखंडन । देवअराधन योग; मुकतिमारग मुखमंडन ॥ सुयशकेलि आराम; धाम सज्जन मनरंजन । नागबाधवशकरन; नीर पावक भयमंजन ॥ महिमा निधान सम्पतिसदन; मंगल मीत पुनीत मग । सुखरासि बनारसि दास भन; सत्यवचन जयवंत जग २९ ।
शिखरिणी। यशो यस्माद्भस्मीभवति वनवहेरिव वनं
निदानां दु:खानां यदवनिलहाणां जलमिव । न यत्र स्थाच्छायातप इव तपासंयमकथा कथंचित्तन्मिथ्यावचनमभिधत्ते न मतिमान् ॥३०॥
३१ मात्रा सवैया छन्द। जो भस्मंत करै निज कीरति; ज्यों वनअग्नि दहै वन सोय।। जाके सग अनेक दुख उपजत; वटै वृक्ष ज्यों सींचत तोय ॥ जामै घरम कथा नहिं सुनियत;ज्यों रवि वीच छोहि नहिं होय।। सोमिथ्यात्व वचन वानारसि; गहत न ताहि विचक्षण कोय ३०
वंशस्थविलम् । असत्यमप्रत्ययमूलकारणं कुचासनासद्म समृद्धिवारणम्। विपन्निदानं परवचनोर्जितं कृतापराधं कृतिभिर्विवर्जितम्
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३२ जैनग्रन्थरत्नाकरे
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रोडक छन्द। कुमति कुरीत निवास; प्रीत परतीत निवारन । रिद्धसिद्धसुखहरन, विपत दारिद दुख कारन ।। परवंचन उतपत्ति; सहन अपराध कुलच्छन । सो यह मिथ्यावचन, नाहिं आदरत विचच्छन ॥३१॥
शार्दूलविक्रीढित ! तस्याग्निर्जलमर्णवः स्थलमरिमित्रं सुराः किङ्कराः
कान्तारं नगरं गिरिहमहिर्माल्यं मृगारिमगः।। पातालं विलमत्रमुत्पलदलं व्यालः शृगालो विपं पीयूपं विपमं समं च वचनं सत्याञ्चितं वक्ति यः ३२
घनाक्षरी। पावकः जल होय; वारिधः थल होय,
शस्त्र कमल होय; ग्राम होय वन । कूप बिवर होय; पर्वततें घर होय, ___ वासवः दास होय; हितू दुरजनतें ॥ सिंघतै कुरंग होय; व्याल स्यालअंग होय,
विष पियूप होय; माला अहिफनतें । विषमतें सम होय; संकट न व्यापै कोय, एते गुन होय सत्य; बादीके दरसलें ॥ ३२ ॥ अदत्तादान अधिकार ।
मालिनी। तममिलषति सिद्धिस्तं वृणीते समृद्धि
स्तमभिसरति कीर्तिमचते तं भवातिः।
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बनारसीविलासः ३३ स्पृहयति सुगतिस्तं नेक्षते दुर्गतिस्तं परिहरति विपत्तं यो न गृहात्यदत्तम् ॥ ३३ ॥
रोडक छन्द्र। ताहि रिद्धि अनुसरै; सिद्धि अभिलाप धरै मन । विपत संगपरिहरै, जगत विस्तरै सुजसधन ।। भवआरति तिहिं तजै, कुगति वंछै न एक छन । सो सुरसम्पति लहै, गहै नहिं जो अदत्त घन ॥ ३३ ॥
शिखरिणी। अदत्तं नादत्ते कृतसुकृतकामः किमपि यः
शुभश्रेणिस्तस्मिन्वसति कलहंसीव कमले। विपत्तस्माद्दरं ब्रजति रजनीवाम्बरमणेविनीतं विद्येव त्रिदिवशिवलक्ष्मीर्मजति तम् ॥३॥
(३१ माना ) सवैया छन्द । ताको मिलै देवपद शिवपद, ज्यों विद्याधन लहै विनीत । तामैं आय रहै शुभ सम्पति, ज्यों कलहंस कमलसों मीत ॥ ताहि विलोक दुरै दुख दारिद, ज्यों रवि आगम रैन विदीत ।। जो अदत्त घन तजत वनारसि, पुण्यवंत सो पुरुष पुनीत३४
शार्दूलविक्रीडित । यन्निवर्तितकीर्तिधर्मनिधनं सर्वागसां साधनं
प्रोन्मीलद्वधवन्धनं विरचितक्लिप्राशयोद्बोधनम् । दौर्गत्यैकनिवन्धनं कृतसुगत्यालेपसंरोधनं
प्रोत्सर्पप्रधनं जिघृक्षति न तद्धीमानदत्तं धनम् ३५ ।
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मरहटा छन्द। जो कीरति गोपहि, धरम विलोपहि, करहि महाअपराध । जो शुभगति तोरहि, दुरगति लोरहि, जोरहि युद्ध उपाध॥ जो संकट आनहि, दुर्गति ठानहि, वधबंधनको गेह । सब औगुण मंडित, गहै न पंडित, सो अदत्तधन येह ॥३५
हरिणी । परजनमनःपीडाक्रीडावनं वधभावना
भवनमवनिव्यापिन्यापल्लताधनमण्डलम् । कुगतिगमने मार्गः स्वर्गापवर्गपुरार्गलं नियतमनुपादेयं स्तेयं नृणां हितकाद्धिणाम् ॥३६ ॥
(३१ माना) सवैया। जो परिजन संताप केलिवन; जो वध बंध कुबुद्धि निवास । जो जग विपतिबेलघनमंडल; जो दुर्गति मारग परफास ॥ जो सुरलोकद्वार दृढ आगल; जो अपहरण मुक्तिसुखवास। सो अदत्तधन तजत साधुजन निजहितहेत वनारसिदास ३६
शीलाधिकार.
शार्दूलविक्रीडित । दत्तस्तेन जगत्यकीर्तिपटहो गोत्रे मपीकूर्चक* श्चारित्रस्य जलालिगुणगणारामस्य दावानलः ।
संकेतः सकलापदां शिवपुरद्वारे कपाटो दृढः ३. शीलं येन निजं विलुप्तमखिलं त्रैलोक्यचिन्तामणिः ३७ FEMA - मर
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बनारसीविलासः
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( ३१ मात्रा ) सवैया |
सो अपयशको ढंक बजावत; लावत कुल कलंक परधान । सो चारितको देत जलांजुलि गुन बनको दावानल दान || सो शिवपन्यकिवार बनावत; आपति विपति मिलनको थान | चिन्तामणि समान जग जो नर; शील रतन निजकरत मलान ३७ मालिनी ।
हरति कुलकलङ्क लुम्पते पापप सुकृतमुपचिनोति श्लाघ्यतामातनोति ।
नमयति सुरवर्ग हन्ति दुर्गापसर्ग
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रचयति शुचि शीलं स्वर्गमोक्षौ सलीलम् ॥ ३८ ॥ रोडक छन्द | कुल कलंक दलमलहि; पापमलपंक पखारहि । दारुन संकट हरहि; जगत महिमा विस्तारहि || मुरग सुकति पढ़ रचहि; सुकृतसंचहि करुणारसि ।
सुरगन बंदहि चरन शीलगुण कहत वनारसि ॥३८॥ शार्दूलविक्रीडित । व्याघ्रव्यालजलानलादिविपदस्तेषां व्रजन्ति सूर्य कल्याणानि समुल्लसन्ति विबुधाः सांनिध्यमध्यासते । कीर्तिः स्फूर्तिमियति यात्युपचयं धर्मः प्रणश्यत्ययं स्वर्निर्वाणसुखानि संनिधते ये शीलमाविभ्रते ॥ ३९ ॥
मत्तगयन्द |
ताहि न वाघ सुजंगमको भय; पानि न वोरै न पावक जालै | ताके समीप रहें सुर किन्नर सो शुभ रीत करै अप टालै ॥.
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३६ जैनग्रन्थरलाकरे तासु विवेक बढे घट अंतर; सो सुरके शिवके मुख माले। ताकि सुकीरति होय तिहूँ जग; जो नर शील अखंडितपाल॥३०॥ तोयत्यग्निरपि नजत्यहिरपि व्याम्रोऽपि सारगति । ___ व्यालोऽप्यश्वति पर्वतोऽप्युपलति क्ष्वेडोऽपि पीयूपति।। विनोऽप्युत्सवति प्रियत्सरिरपि क्रीडातडागत्यपांनाथोऽपि स्वगृहत्यटव्यपि नृणां शीलप्रभावाशवम् ४०
पदपद। अग्नि नीरसम होय; मालसम होय भुजंगम । नाहर मृगसम होय; कुटिल गज होय तुरंगम ।। विष पियूपसम होय; शिखरपापान खंडमित ।
विघन उलट आनंद; होय रिपुपलट होयहित ॥ * लीलातलावसम उदधिजला गृहसमान अटवी विकट ।। इहिविधि अनेक दुख होहिं सुख; शीलवंत नरके निकट ॥४०॥
____ परिग्रहाधिकार | कालुप्यं जनयन् जडस्य रचयन्धर्मद्रुमोन्मूलनं
क्लिन्नन्नीतिकृपाक्षमाकमलिनी लोभाम्बुधिं वर्धयन् । मर्यादातटमुगुजछुभमनोहंसप्रवासं दिशकिनक्लेशकरः परिग्रहनदीपूरः प्रवृद्धिं गतः ॥४१॥
३१ मात्रा सबैया। अंतर मलिन होय निज जीवन; विनसै धर्मतरोवरमूल | किलसै दयानीतिनलिनीवन; धेरै लोभ सागर तनथूल ॥
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उठे बाद मरजाद मिटै सबः सुजन हंस नहिं पावहिं कूल । बद्धत पूर पूरै दुख संकट; यह परिग्रह सरितासम तूल ।।४।।
मालिनी। कलहकलभविन्ध्यः कोपगृध्रश्मशानं
व्यसनभुजगरन्धं द्वेपदस्युमदोषः । सुकतवनदवाग्निर्दिवाम्भोदवायुनयनलिनतुपारोऽत्यर्थमर्थानुरागः ॥ ४२ ॥
मनहरण। कलह गयन्द उपजायवेको विधगिरिः ___ कोप गीधके अधायवेको सुस्मशान है। संकट मुजंगके निवास करवेको विल;
वैरभाव चौरको महानिशा समान है । कोमल सुगुनपनखंडवेको महा पैन ___पुण्यवन दाहवेको दावानल दान है । नीत नय नीरज नसायवेको हिम रासि; ऐसो परिग्रह राग दुखको निधान है ॥ ४२ ॥
शार्दूलविक्रीडित । प्रत्यर्थी प्रशमस्य मित्रमधृतमोहस्य विश्रामभूः ३ पापानां खनिरापदा पदमसध्यानस्य लीलावनम् ।
व्याक्षेपस्य निधिर्मदस्य सचिवः शोकस्य हेतुः कले * केलीवेश्म परिग्रहः परिहतेयोग्यो विविक्तात्मनाम् ४३ ।।
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प्रशमको अहित अधीरजको बाल हितः
महामोहराजाकी प्रसिद्ध राजधानी है। श्रमको निधान दुरध्यानको विलासवन
विपतको थान अभिमानकी निश दुरितको खेत रोग शोग उतपति हेत; ___ कलहनिकेत दुरगतिको निदानी है।
ऐसो परिग्रह भोग सवनको त्याग जोगः । ___ आतम गबेपीलोग याही भांति जानी है ॥ ४३॥ वहिस्तृप्यति नेन्धनैरिह यथा नाम्भोमिरम्मोनिधि* स्तबल्लोभधनो धनैरपि धनैर्जन्तुर्न संतुष्यति । न त्वेवं मनुते विमुच्य विभवं निःशेपमन्यं भवं यात्यात्मा तदहं मुधैव विदधाम्येनांसि भूयांसि किम् ॥
पदपद। ज्यों नहिं अग्नि अघाय; पाय ईंधन अनेक विधि । ज्यों सरिता धन नीर; नृपति नहिं होय नीरनिधि । त्यो असंख धन बढत; मूढ संतोष न मानहिं । पाप करत नहि डरत; बंध कारन मन आनहिं ।। परतछ विलोक जम्मन मरन; अथिर रूप संसारक्रम । समुझे न आप पर ताप गुन; प्रगट बनारसि मोह भ्रम ॥४४॥
क्रोधाधिकार. यो मित्रं मधुनो विकारकरणे संत्राससंपादने
सर्पस्य प्रतिविम्वमझदहने सप्तार्चिषः सोदरः।
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चैतन्यस्य निषूदने विपतरोः सब्रह्मचारी चिरं सक्रोधः कुशलामिलापकुशलैर्निर्मूलमुन्मूल्यताम्॥४५॥
गीताछन्द। जो मुजन चित्त विकार कारन; मनहु मदिरा पान । जो भरम भय चिन्ता बढावत, असित सर्प समान ॥ जो जंतु जीवन हरन विपतला तनदहनदवदान । सो कोपरास विनास भविजन; लहहु शिव सुखथान ॥ १५॥
हारिणी। फलति कलितश्नेय श्रेणीप्रसूनपरम्परः __प्रशमपयसा सितो मुक्ति तपश्चरणद्रुमः। ___ यदि पुनरसौ प्रत्यासत्ति प्रकोपहविर्भुजो भजति लभते भस्मीभावं तदा विफलोदयः ॥४६॥
३. माना सर्वया। जय मुनि कोइ बोय तप तरुवर उपशम जल सींचत चितखेत। उदित जान साखा गुण पल्लय; मंगल पहुप मुकत फलहेत ॥ तब तिहि कोप दवानल उपजत, महामोह दल पवन समेत ।। सो भस्मंत करत छिन अंतर, दाहत विरखसहित मुनिचेत४६॥
___शार्दूलविक्रीढित। संतापं तनुते भिनत्ति विनयं सौहार्दमुत्सादय3 युद्धेगे जनयत्यवधवचनं सूते विनत्ते कलिम्। कीति कृन्तति दुर्मति वितरति व्याहन्ति पुण्योदय
दत्ते यः कुति स हातुमुचितो रोपः सदोपः सताम् ॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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वस्तुलन्द । कलह मंडन मंडन करन उद्वेग । यशखंडन हित हरन, दुःखविलापसंतापसाधन ॥
दुरवैन समुच्चरन, धरम पुण्य मारग विराधन । विनय दमन दुरगति गमन, कुमति रमन गुणलोप।
ये सव लक्षण जान मुनि, तजहि ततक्षण कोप ॥ १७ ॥ यो धर्म दहति द्रुमं दच इयोन्मनाति नीति लता
दन्तीवेन्दुकलां विधुतुद इव क्लिभाति कीर्ति नृणाम् ।। स्वाथै वायुरिवाम्बुदं विघटयत्युल्लासयत्यापदं तृष्णां धर्म इवोचितः कृतकृपालोपः स कोपः कथम् ॥
पदपद् । कोप परम धन दहै, अग्नि जिम विरख बिनासहि । कोप मुजस आवरहि, राहु जिम चंद गरासहि ॥ कोप नीति दलमलहि, नाग जिम लता विहंडहि । कोप काज सब हरहि, पवन जिम जलधर खंडहि ॥ संचरत कोप दुख ऊपजे, वडै नपा जिम धूपमहँ । करुणा विलोप गुण गोप जुत, कोप निषेध मंहत कह ।। ४८ ॥
मानाधिकार.
मन्दाक्रान्ता। यसादाविर्भवति विततिर्दुस्तरापन्नदीनां ___ यस्मिन्शिष्टाभिरुचितगुणग्रामनामापि नास्ति ।
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____बनारसीविलासः ४१ wwwwwmmmmmmmmmmmm.wwwmn .vomwwwr. ___ यश्च व्याप्तं वहति वधधीधूम्यया क्रोधदावं तं मानादि परिहर दुरारोहमौचित्यवृत्तेः ॥ ४९ ॥
(मात्रा ३१) सवैया। जाते निकस विपति सरिता सब जगमें फैल रही चहुँ ओर । जाके ढिग गुणग्राम नाम नहिं, माया कुमतिगुफा अति घोर जहबधबुद्धि घूम रेखा सम; उदित कोप दावानल जोर। सो अभिमान पहार पटंतर तजत ताहि सर्वज्ञकिशोर ॥ १९॥
शिखरिणी। शमालानं भञ्जन्धिमलमतिनाडी विषय__किरन्दुर्वाक्पांशुत्करमगणयन्नागमसृणिम् । भ्रमन्ना स्वैरं विनयवनवीथीं विदलयन् जनः कं नानथै जनयति मदान्धो द्विप इव ॥५॥
रोडक छन्द ! भंजहिं उपशम थंमा सुमति जंजीर विहंडहिं । कुवचन रज संग्रहहिं; विनयवनपंकति खंडहिं ।। जगम फिरहिं स्वछन्दः वेद अंकुश नहिं मानहिं । गज ज्यों नर मदअन्ध; सहज सव अनरथ ठानहिं ।।५०॥
शार्दूलविक्रीवित । औचित्याचरणं विलुम्पति पयोवाहं नमस्वानिव __ प्रध्वंसं विनयं नयत्यहिरिव प्राणस्पृशां जीवितम् । कीति कैरविणी मतगज इव प्रोन्मूलयत्यजसा
मानो नीच इवोपकारनिकरं हन्ति त्रिवर्ग नृणाम् ५१/
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करिस्खा छन्द। मान सब उचित आचार भंजन करैः
पवन संचार जिम धन विहंडहि । मान आदर तनय विनय लोपें सफल
मुजग विष भीर जिम मरन मंडहि ॥ मानके उदित जगमाहिं विनसै सुयशः ___ कुपित मातंग जिम कुमुद खंडहि । मानकी रीति विपरीति करतूति जिमः अधमकी प्रीति नर नीत छंडहि ॥ ५१ ॥
वसन्ततिलका। मुष्णाति यः कृतसमस्तसमीहितार्थ
संजीवनं विनयजीवितमङमाजाम् । जात्यादिमानविपनं विपमं विकार त मार्दवामृतरसेन नयस्व शान्तिम् ॥ १२ ॥
__ (मात्रा १५) चौपाई। मान विषम विपतन संचरै। विनय विनाश वाँछितहरै ।। कोमल गुन अम्रत संजोग । विनशै मान विषम विपरोग ॥५२॥
मायाधिकार.
मालिनी। कुशलजननवन्ध्यां सत्यसूर्यास्तसंध्यां
कुगतियुवतिमालां मोहमातङ्गशालाम् ।
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बनारसीविलासः १३ comwww.merammmwww www.me .. शमकमलहिमानी दुर्यशोराजधानी व्यसनशतसहायां दूरतो नुष्ब मायाम् ॥ ५३॥
होडक छन्द। कुशल जननको बाँझ; सत्य रविहरन सांझथिति । कुगति युवति उरमाल; मोह कुंजर निवास छिति ॥ शम वारिज हिमराशिः पाप संताप सहायनि । अयश खानि जग जान; तजहु माया दुख दायनि ॥ ५३॥
उपेन्द्रपन्ना। विधाय मायां विविधैरुपायैः परस्य ये वचनमाचरन्ति । ते वञ्चयन्ति त्रिदिवापवर्गसुखान्महामोहसखाः स्वमेव ५४
वेशरी छन्द। मोह मगन माया मति संचहि । कर उपाय ओरनको वंचहि । अपनी हानि लखें नहिं सोय। सुगति हरै दुर्गति दुख होय५४
शस्त्रविलम्। मायामविश्वासविलासमन्दिरं
दुराशयो यः कुरुते धनाशया। सोऽनर्थसाथै न पतन्तमीक्षते यथा विडालो लगुडं पयः पिचन् ॥ ५५ ॥
पद्धरिछन्द। माया अविश्वास विलास गेह । जो करहि मूह जन धन सनेह ।।। सो कुगति बंध नहि लखै एम। तलगय विलाव पय पियतजेम ५५
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वसन्ततिलका। मुग्धप्रतारणपरायणमुजिबीते ___ यत्पाटवं कपटलम्पटचित्तवृत्तेः। जीर्यत्युपप्लवमवश्यमिहाप्यकृत्वा नापथ्यभोजनमिवामयमायती तत् ॥ ५६ ॥
अमानक छन्द । ज्यों रोगी कर कुपथ; वढावै रोग तन । खादलंपटी भयो; कहै मुझ जनम धन ॥ त्यों कपटी कर कपट; मुगधको धन हरहि । करहि कुगतिको बंध; हरष मनमें धरहि ।। ५६ ॥
लोभाधिकार.
शार्दूलविक्रीदित। यदुर्गामटवीमटन्ति विकटं झामन्ति देशान्तरं
गहन्ते गहनं समुद्रमतनुक्लेशां कृषि कुर्वते । सेवन्ते कृपणं पति गजघटासंघहदुःसंचर सर्पन्ति प्रधनं धनान्धितधियस्तल्लोभविस्फार्जितम् ५७
मनहरण । सह घोर संकट समुद्रकी तरंगनिमः
कप चितभीत पंथ; गाहै वीच वनमैं ।। ठान कृषिकर्म जाम; शर्मको न लेश कहः ___ संकलेशरूप होय; जूझ मरै रनमैं ॥
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तजे निज धामको विधि परदेश धारः
सबै प्रमु ऋषणमलीन है मनमैं । ढोल बन कारज अनारज मनुज सूद,
ऐसी करतूति करैः लोमकी लानमें ॥ ५७ ॥ मूलं मोहविषद्रुमस्य नुकृताम्माराशिकुम्मायकः ।
क्रोधाग्निररणिः प्रतापतरणिपच्छादन तोयदः । क्रीडासदकलेविवकशशिनः स्वर्भानुरापनदी* सिन्धुः कीर्तिलताकलापकलमो लोमः पराभृयवान ८ कि
पूरन प्रताप रवि, रोकको धारावरः
कुति समुन्द्र लोडवेको कुन्भनं है । कोप देव पावक जननको अरणि द्वार, ___ मोह विष मूल्हको; महा दृढ कंद है। परम विवेक निशिमणि ग्रासको राहुः
कीरति लता कलाप दलन गयंद्र है। कलहको केलिभान आपन्द्रा नदीको सिंचः ऐसो लोभ याहूलो विपाक दुख इंद है || ५८ ॥
वसन्ततिला निशेषधर्मवनदाहविजृम्भमाण
दुःखौधभस्मनि विसपंदकीर्तिधूम। चाई धनन्धनसमागमायनाने
लोमानले शलमवा लमते गुणोयः ॥ ५९॥
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४६ जैनग्रन्थरत्नाकरे
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परम धरम वन दहै; दुरित अंबर गति धारहि ।। कुयश धूम उदगरे, भूरि भय भस्म विथारहि || दुख फलंग फुकरे तरल तृष्णा फल काहहि । धन ईंधन आगम; संजोग दिन दिन अति वादहि ॥ लहलहै लोभ पावक प्रबल; पवन मोह उद्धत वहै ।। दज्झहि उदारता आदि बहुः गुण पतंग कँवरा है।।
शादलविक्रीडित । जातः कल्पतरुः पुरः सुरगवी नेपां प्रविष्टा गृह
चिन्तारत्नमुपस्थितं करतले प्राप्तो निधिः संनिधिम् । विश्वं वश्यमवश्यमेव सुलभाः स्वर्गापवर्गनियो ये संतोपमशेपदोपदहनध्वंसाम्बुदं विभ्रते ॥३०॥
(३१ मात्रा) संवया। विलसै कामधेनु ताके घरपूरै कल्पवृक्ष मुखपोप । अखय भंडार भरै चिंतामणि तिनको सुलभ सुरग औ मोष ॥ ते नर खवश करें त्रिभुवनको; तिनसों विमुख रहै दुख दोप * सबै निधान सदा ताके ढिग; जिनके हृदय वसत संतोष ॥६॥
सज्जनाधिकार.
शिखरिणी। वरं क्षिप्तः पाणिः कुपितफणिनो वत्रकुहरे ___ वरं झम्पापातो ज्वलदलनकुण्डे विरचितः । वरं प्रासप्रान्तः सपदि जठरान्तर्विनिहितो
न जन्यं दौर्जन्यं तदपि विपदा सम्म विदुपा॥६॥ जिERY
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वसन्ततिलका |
सौजन्यमेव विघाति यशवयं च
( १६ मान्ना ) चौपाई | बरु अहिवदन हत्थ निज ढारहिं । अगाने कुंडमैं तनपर जाहि दारहिं उदर करहिं विष भक्षन | पै दुष्टता न गहहिं विचक्षन ६१
स्वश्रेयसं च विभवं च भवक्षयं च ।
४७
दौर्जन्यमावहसि यत्कुमते तदर्थम्
धान्येऽनलं क्षिपसि तजलसेकसाध्ये ॥ ६२ ॥
गयन्द (सवैया) ।
ज्यो कृपिकार भयो चितवातुल; सो कृषिकी करनी इम ठाने । बीज बवै न करें जल सिंचन; पावकसों फलको थल भानें ॥ त्यों कुमती निज खारथके हित; दुर्जनभाव हिये महि आन । संपति कारन बंध विदारन; सज्जनता मुखमूल न जाने ॥ ६२ ॥ पृथ्वी ।
वरं विभववन्ध्यता सुजनभावभाजां नृणामसाधुचरितार्जिता न पुनरूर्जिताः संपदः । कृशत्वमपि शोभते सहजमायतौ सुन्दरं
विपाकविरसा न तु श्वयथुसंभवा स्थूलता ॥ ६३ ॥
अभानक छन्द |
वर दरिद्रता होय; करत सज्जन कला । दुराचारसों मिले राज सो नहिं भला ||
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santstakathartatistituttitunitatistitutetothkaistory १८. जैनग्रन्थरत्नाकरे
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ज्यो शरीर कृश सहज; सुशोभा देत है । सूज थूलता वढे; मरनको हेत है ।। ६३ ॥
- शार्दूलविक्रीडित। ॐन ब्रूते परदूपणं परगुणं वक्त्यल्पमप्यन्वहं
संतोपं वहते परद्धिषु परावाधासु धत्ते शुचम् । स्वश्लाघां न करोति नोहति नयं नौचित्समुल्लङ्घयत्युक्तोऽप्यप्रियमक्षमा न रचयत्येतचरित्रं सताम् ॥६॥
पट्पद। नहिं जपै पर दोप; अल्प परगुण बहु मानहि । * हृदय धेरै संतोप; दीन लखि करुणा ठानहि ॥
उचित रीत आदरहि विमल नय नीति न छंडहि । निज सलहन परिहरहि राम रचि विषय विहंडहि ॥
मंडहि न कोप दुर बचन सुनः सहज मधुर धुनि उच्चरहि । ___ कहि कवरपाल जग जाल वसि;ये चरित्र सज्जन करहि।।६४
गुणिसंगाधिकार. धर्म ध्वस्तदयो यशश्युतनयो वित्तं प्रमत्तः पुमा
काव्यं निष्प्रतिभस्तपः शमदमैः शून्योऽल्पमेधः श्रुतम् । वस्त्वालोकमलोचनश्चलमना ध्यानं च वाञ्छत्यसो यः सझं गुणिनां विमुच्य विमतिः कल्याणमाकाङ्क्षति॥
मत्तगयन्द (सवैया )। सो करुणाविन धर्म विचारत; नैन विना लखिवेको उमाहै। सो दुरनीति धरै यश हेतु, सुधी विन आगमको अवगाहै ॥
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बनारसीविलासः wwwermerierwwwwwwwrr... ... * सो हिंयशून्य कवित्त करै समता विन सो तपसों तन दाहे ।। सो थिरता विन ध्यान धेरै शट; जो सत संग तर्ज हित चाह६५ ।।
हरिणी। हरति कुमति भिन्ते मोहं करोति विवेकितां
वितरति रति सूते नीति तनोति विनीवताम् । प्रथयति यशो धत्ते धर्म व्यपोहति दुर्गति जनयति नृणां किं नाभीष्टं गुणोत्तमसंगमः ॥६६॥
घनाक्षरी। कुमति निकंद होय महा मोह मंद होय;
जगमगै सुयश विवेक जगै हियेसों। नीतको दिदाय होय चिनको चढाव होयः ।।
उपजै उछाह ज्यो प्रधान पद लियेसों । । धर्मको प्रकाश होय दुर्गतिको नाश होय . ___ बरत समाधि ज्यों पियूष रस पियेसों। तोप परि पूर होय; दोप दृष्टि दूर होय, एते गुन होहिं सत; संगतके कियेसों ।। ६६ ॥
शार्दूलनिम्नडित । लन्धुं बुद्धिकलापमापदमपाक चिह पथि
प्राप्तुं कीर्तिमसाधुतां विधुवितुं धर्म समासेवितुम् । रोढुं पापचिपाकमाकलयितुं स्वर्गापवर्गनियं
त्वं चित्त समीहसे गुणवता सङ्गं तदङ्गीकुरु ॥६॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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कुंडलिया। 'कारा' ते मारग गहैं, जे गुनिजनसेवंत । ज्ञानकला तिनके जगै, ते पावहिं भव अंत ॥ ते पावहिं भव अंत, शांत रस ते चित धारहि । ते अघ आपद हरहिं, घरमकीरति विस्तारहि ॥ होंहि सहज जे पुरुष, गुनी बारिजके भौंरा । ते सुर संपति लहैं, गहैं ते मारग 'कारा' ।। ६७ ॥
हारिणी । हिमति महिमाम्भोजे चण्डानिलत्युदयाम्बुदे
द्विरदति दयारामे क्षेमक्षमाभूति वज्रति । समिधति कुमत्यग्नौ कन्दत्यनीतिलतासु यः ___किमभिलपतां श्रेयः श्रेयान्स निर्गुणिसंगमः ॥६॥
' षट्पद। जो महिमा गुन हनहि, तुहिन जिम वारिज वारहि । जो प्रताप सहरहि, पवन जिम मेघ विडारहि ॥ जो सम दम दलमलहि, दुरद जिम उपवन खंडहि । जो सुकेम छय करहि, बन जिम शिखर विहंडहि ॥ जो कुमति अग्नि ईधनसरिस, कुनयलता दृढ मूल जग। सो दुष्टसंग दुख पुष्ट कर, तजहिं बिचक्षणता सुमग ॥ ६॥
इन्द्रियाधिकार।
शार्दूलविक्रीडित । आत्मानं कुपथेन निर्गमयितुं यः शूकलाश्वायते
कृत्याकस्यविवेकजीवितहतौ यः कृष्णसर्पयते ।
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वनारसीविलासः
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यः पुण्यद्रुमखण्डखण्डनविधी स्फूर्जत्कुठारायते * तं लुप्तवतमुद्रमिन्द्रियगणं जित्वा शुभंयुभव ॥ ६९
हरिगीतिका । जे जगत जनको कुपंय डारहि, बक्र शिक्षित तुरगसे । जे हरहिं परम विवेक जीवन, काल दारुण उरगसे ॥ जे पुण्यवृक्षकुठार तीखन, गुपति व्रत मुद्रा करें। ते करनमुभट प्रहार मविजन, तब सुमारग पग धेरै ॥ ६९॥
शिखरिणी। प्रतिष्ठां यन्निष्टां नयति नयनिष्ठां विघटय
त्यकृत्येप्वायत्ते मतिमतपसि प्रेम तनुते । विवेकस्योत्सेकं विदलयति दत्ते च विपदं पदं तद्दोपाणां करणनिकुलम्ब कुरु वशे ॥ ७ ॥
बनाक्षरी। ये ही हैं कुगतिके निदानी दुख दोष दानी;
इनहीकी संगतसों संग मार बहिये । इनकी मगनतासों विमोको विनाश होय, ___ इनहीकी प्रीतसों अनीत पन्थ गहिये ॥ ये ही तपभावकों विडारै दुराचार घारे,
इनहीकी तपत विवेक भूमि दहिये । ये ही इन्द्री मुमट इनहिं जीत सोई साधु, _इनको मिलापी सो तो महापापी कहिये ।। ७० ॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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शार्दूलविक्रीडित । वत्तां मौनमगारमुज्झतु विधिप्रागल्भ्यमभ्यस्यता
मस्त्वन्तर्गणमागमश्रममुपादत्ता तपस्तप्यताम् । श्रेयापुञ्जनिकुञ्जभञ्जनमहावा न चेदिन्द्रिय___ वातं जेतुमवैति भस्मनि हुतं जानीतं सर्व ततः ७१
मौनके धेरैया गृह त्यागके करैया विधि,
रीतके सधैया पर निन्दासों अपूठे हैं । विद्याके अभ्यासी गिरिकंदराके वासी शुचि
अंगके अचारी हितकारी वैन छूठे हैं। आगमके पाठी मन लाय महा काठी भारी ; ____ कष्टके सहनहार रामाहुसों रूठे हैं ।
इत्यादिक जीव सब कारज करत रीते; __इन्द्रिनके जीते विना सरवंग झूठे हैं ।। ७१ ॥ धर्मध्वंसधुरीणमनमरसावारीणमापत्प्रथा* लकर्मीणमशर्मनिर्मितिकलापारीणमेकान्ततः। *सर्वानीनमनात्मनीनमनयात्यन्तीनमिष्टे यथा
कामीनं कुपंथाध्वनीनमजयन्नक्षौधमक्षेमभाक् ॥ ७२ ॥ धर्मतरुमंजनको महा मत्त कुंजरसे;
आपदा भंडारके भरनको करोरी हैं।
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१. कुमवेत्सपि पाठः,
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बनारसीविलासः
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सत्यशील रोकवेको पौड़ परदार जैसे
दुर्गतिके मारग चलायवेकों धोरी है । कुमतिके अधिकारी कुनैपथके विहारी; _ भद्रभाव ईधन जरायवेकों होरी है। मृपाके सहाई दुरमावनाके भाई ऐसे विषयाभिलापी जीव अधके अघोरी हैं ॥ ७ ॥
कमलाधिकार। निम्नं गच्छति निम्नगेव नितरां निद्रेव विष्कम्मते १ चैतन्यं मदिरेव पुष्यति मदं धूम्येव धत्तेऽन्धताम् । चापल्यं चपलेच चुम्बति दबञ्चालेय तृष्णां नयत्यल्लासं कुलटाङ्गनेव कमला स्वैरं परिभ्राम्यति ॥७॥
मत्तगयन्द । नीचकी ओर ढरै सरिता जिम, धूम बढ़ावत नींदकी नाई।। चंचलता प्रघटै चपला जिम, अंध करै जिम धूमकी झाई ॥ तेज करै तिसना दब ज्यों मद; ज्यों मद पोषित मूढके ताई। ये करतूति करै कमला जग; डोलत ज्यों कुलटा बिन साई ॥ दायादाः स्पृहयन्ति तस्करगणा मुष्णन्ति भूमीभुजो * गृहन्ति च्छलमाकलय्य हुतभुग्भस्मीकरोति क्षणात् । अम्भः धावयते क्षिती विनिहितं यक्षा हरन्ते हठा
दुर्वृत्तास्तनया नयन्ति निधनं धिग्यवधीनं धनम् ७४
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५४ जैनग्रन्थरनाकरे बंधु विरोध करै निशवासर; दंडनकों नरवै छल जोवै। पावक दाहत नीर बहावत, है गओट निशाचर ढोचे ॥ भूतल रक्षित जक्ष हरै करकै दुरव्रत्ति कुसंतति खोवै। ये उतपात उॐ धनके ढिग; दामधनी कहु क्यों सुख सौवै : नीचस्यापि चिरं चनि रचयन्त्यायान्ति नीति
शोरप्यगुणात्मनोऽपि विद्धत्युच्चैर्गुणोत्कीर्तनम् । निवेदन विदन्ति किंचिदकृतज्ञस्यापि सेवाकमे कष्टं किं न मनस्विनोऽपि मनुजाः कुर्वन्ति वित्तार्थिन।
घनाक्षरी। नीच धनवंत ताहि निरख असीस देयः ___ वह न विलोकै यह चरन गहत है । वह अकृतज्ञ नर यह अज्ञताको घर;
वह मद लीन यह दीनता कहत है। वह चित्त कोप ठानै यह वाको प्रभु मानै
वाके कुवचन सब यह पै सहत है। ऐसी गति धारै न विचारै कछु गुण दोष;
अरथाभिलाषी जीव अरथ चहत है ॥ ७५ ॥ लक्ष्मीः सर्पति नीचमर्णवपयः सङ्गादिवाम्भोजिनीसंसर्गादिव कण्टकाकुलपदा न कापि धत्ते पदम् ।
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१.राजा.
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बनारसीविलासः wwwwwwwwwwwwwwwwwmamiwwwwwwwwwwwww. ... चैतन्यं विपसंनिधेरिव नृणामुक्षालयत्यजसा धर्मस्थाननियोजनेन गुणिभिर्लाह्यं तदस्याः फलम् ७६
नीचहीकी ओरको उमंग चलै कमला सो; ___ पिता सिंधु सलिलखभाव याहि दियो है। रहै न सुथिर है सकंटक चरन याको;
बसी कंजमाहिं कंजकैसो पद कियो है ।। जाको मिले हितसों अचेत कर डारै ताहिक
विषकी बहन तातै विषकैसो हियो है। ऐसी ठगहारी जिन धरमके पंथडारी; करकै सुकृति तिन याको फल लियो है ।। ७६ ॥
दानाधिकार. चारित्रं चिनुते तनोति विनयं ज्ञानं नयत्युन्नति
पुष्णाति प्रशमं तपः प्रवलयत्युल्लासयत्यागमम् । पुण्यं कन्दलयत्यधं दलयति स्वर्ग ददाति क्रमा__ निर्वाणनियमातनोति निहितं पाने पवित्रे धनम् ७७
३१ माना सवैया छंद। चरन अखंड ज्ञान अति उज्जल विनय विवेक प्रशम अमलान। अनघ सुभाव सुकृति गुन संचया उच्च अमरपद बंध विधान आगमगम्य रम्य तपकी रुचि; उद्धत मुकति पंथ सोपान । ये गुण प्रघट होय तिनके घट; जे नर देहिं सुपत्तहिं दान७७
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दारियन तमीक्षते न भजते दौर्भाग्यमालम्बते
नाकीर्तिने पराभवोऽभिलपते न व्याधिरास्कन्दति । में दैन्यं नाद्रियते दुनोति न दरः क्लिन्नन्ति नैवापदः । पाने यो वितरत्यनर्थदलनं दानं निदानं श्रियाम् ॥७॥
पदपद। सो दरिद्र दल मलहि; ताहि दुर्भाग न गंजहि । सो न लहै अपमान; सु तो विपदा भयभंजहि ॥ तिहि न कोइ दुख देहि, तासु तन व्याधि न बद्दइ । ताहि कुयश परहरहि, सुमुख दीनता न कडुइ ॥ । सो लहहि उच्चपदजगत महँ, अघ अनस्थ नासहि सरव । कहै कुंवरपाल सो धन्य नर, जो सुखेत बोवै दरव ॥७॥ लक्ष्मीः कामयते मतिर्मुगयते कीर्तिस्तमालोकते
प्रीतिश्चुम्वति सेवते सुभगता नीरोगतालिङ्गति । श्रेयःसंहतिरभ्युपैति घृणुते स्वर्गोपभोगस्थितिमुक्तिर्वाञ्छति यः प्रयच्छति पुमान्पुण्यार्थमथै निजम्॥
घनाक्षरी। ताहिको सुबुद्धि धरै रमा ताकी चाह कर,
चंदन सरूप हो सुयश ताहि चरचे । सहज सुहाग पावै सुरग समीप आवै,
बार बार मुकति रमनि ताहि अरचै ॥ वाहिके शरीरको अलिंगति अरोगताई, मंगल करै मिताई प्रीत करै परचै ।
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वनारसीविलासः
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जोई नर हो सुचेत चित्त समता समेत, घरमके हेतको सुखेत धन खरचै ॥ ७९ ॥
मन्दाक्रान्ता। तस्यासन्ना रतिरनुचरी कीर्तिरुत्कण्ठिता श्रीः - स्निग्धा बुद्धिः परिचयपरा चक्रवर्तित्वऋद्धिः। पाणी प्राप्ता बिदिवकमला कामुकी मुक्तिसंपद __सप्तक्षेत्र्यां धपति विपुलं वित्तवीजं निजं यः ॥ ८ ॥
पद्मावती। ताकी रति कीरति दासी सम, सहसा राजरिद्धि घर आवै । सुमति सुता उपजै ताके घट, सो मुरलोक संपदा पावै ॥ लाकी दृष्टि लखै शिव मारग, सो निरबंध भावना मावै । जो नर त्याग कपट कुंवरा कह, विधिसों सप्तस्खेत धन वायै ८०
तपप्रभावाधिकार।
शार्दूलविक्रीडित। यत्पूर्वार्जितकर्मशैलकुलिशं यत्कामदावानल
ज्वालाजालजलं यदुप्रकरणग्रामाहिमन्वाक्षरम् ।। यत्प्रत्यूहतमःसमूहदिवसं यल्लब्धिलक्ष्मीलता
मूलं तद्विविधं यथाविधि तपः कुर्वीत वीतस्पृहः ८१
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पपद।
जो पूरव कृत कर्म, पिंड गिरदलन वज्रधर ।।
जो मनमथ व ज्वाल, माल सँग हरन मेवझर ॥ PRATARA
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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____ जो प्रचंड इंद्रिय भुजंग, थंभन सुमंत्र वर ।।
जो विभाव संतम सुपुंज, खंडन प्रभात कर ॥ जो लब्धि वेल उपजंत घट, तामु मूल दृढता सहित ।। सो सुतप अंग बहुविधि दुविधि, करहि विबुधिबंछारहित ८१ यस्माद्विमपरम्परा विघटते दास्यं सुराः कुर्वते ___ कामः शाम्यति दाम्यतीन्द्रियगणः पाल्याणमुत्सर्पति। उन्मीलन्ति महर्द्धयः कलयति ध्वंसं च यः कर्मणां स्वाधीनं निदिवं शिवं च भवति श्लाघ्य तपस्तन्न किम्॥
घनाक्षरी। जाके आदरत महा रिद्धिसों मिलाप होय, ___ मदन अव्याप होय कर्म वन दाहिये । विघन विनास होय गीरवाण दास होय,
ज्ञानको प्रकाश होय भो समुद्र थाहिये ॥ देवपद खेल होय मंगलसों मेल होय,
इन्द्रिनिकी जेल होय मोषपंथ गाहिये। जाकी ऐसी महिमा प्रघट कहै कौरपाल,
तिहुंलोक तिहुंकाल सो तप सराहिये ॥८२॥ कान्तारं न यथेतरो ज्वलयितुं दक्षो दवाग्निं विना
दावाग्निं न यथापरः शमयितुं शको विनाम्भोधरम् । निष्णातः पवनं विना निरसितुं नान्यो यथाम्मोधरं - कर्मोघं तपसा विना किमपरो हन्तुं समर्थस्तथा॥८३॥
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बनारसीविलासः
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मत्तगयन्द । जो वर कानन दाहनकों दवः पावकसों नहिं दूसरो दीसै। जो दवआग बुझै न ततक्षण; जो न अखंडित मेघ वरीसै ॥ जो प्रघटै नहि जौलग मारुत; तौलग घोर घटा नहिं खीसे । त्यों घटमें तपवज्रविना दृढ; कर्मकुलाचल और न पीस ।।८३॥ है.
खग्धरा। संतोपस्थूलमूलः प्रशमपरिकरस्कन्धयन्धप्रपञ्चः
पञ्चाक्षीरोधशाखः स्फुरदमयदलः शीलसंपत्प्रवालः । श्रद्धाम्भःपूरसेकाद्विपुलकुलवलैश्वर्यसौन्दर्यभोगः' स्वर्गादिप्राप्तिपुष्पः शिवपदफलदः स्यातप कल्पवृक्षः ॥
पदपद। सुदृढ मूल संतोष; प्रशम गुन प्रवल पेड ध्रुव । यंचाचार सु शाख; शील संपति प्रवाल हुव ॥ अभय अंग दलपुंज देवपद पहुप सुमंडित ।
सुकृतभाव विस्तार; भार शिव सुफल अखंडित ॥ परतीत पार जल सिंच किय; अति उतंग दिन दिन पुपित ।। जयवंत जगत यह सुतपतरु; मुनि विहंग सेवहिं सुखित ॥ ८ ॥
भावनाधिकार।
शार्दूलविक्रीडित । नीरागे तरुणीकटाक्षितमिव त्यागव्यपंतप्रमोः
सेवाकष्टमिवोपरोपणमिवाम्भोजन्मनामश्मनि ।। १. तपः पादपोऽयमित्यपि पाठः, २. त्यागन्ययन प्रभोः इत्यपि पाठ..
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जैनग्रन्थरताकरे विष्वग्वमिवोपरक्षितितले दानादातपःस्वाध्यायाध्ययनादि निष्फलमनुष्ठानं विना भावनाम्।।
. पभावती छन्द। ज्यों नीराग पुरुपके सनमुखा पुरकामिनि कटाक्ष कर ऊठी। ज्यों धन त्यागरहित प्रभुसेवन; ऊसरमें बरपा जिम छूठी ॥ ज्यों शिलमाहिं कमलको बोवन; पवन पकर जिम बांधिये मूठी ये करतूति होंय जिम निष्फल त्यों विनमावक्रिया सब झूठी ८५ : सर्व शीप्सति पुण्यमीप्सति दयां धित्सत्यधं मित्सति
क्रोधं दित्सति दानशीलतपसां साफल्यमादित्सति । * कल्याणोपचयं चिकीर्पति भवाम्भोधेस्तटं लिप्सते मुक्तिस्त्री परिरिप्सते यदि जनस्तद्भावयेद्भावनाम् ८६
घनाक्षरी। पूरब करम दहै; सरवज्ञ पद लहै; __ गहै पुण्यपंथ फिर पापमैं न आवना । करुनाकी कला जागै कठिन कपाय भागै;
लागै दानशील तप सफल सुहावना ।। पावै भवसिंधु तट खोले मोक्षद्वार पट;
शर्म साध धर्मकी धरामैं करै धावना । एते सब काज करै अलखको अंगधरैः
चेरी चिदानंदकी अकेली एक भावना ।। ८६ ॥
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वनारसीविलासः ६१
पृथ्वी। विवेकचनसारिणी प्रशमशर्मसंजीवनी
भवार्णवमहातरी मदनदावमेघावलीम् । चलाक्षमृगवागुरां गुरुकपायशैलाशनि विमुक्तिपथवेसरी भलत भावनां किं परैः॥ ८७ ॥ प्रशमके पोपवेको अग्रतकी धारासमः
ज्ञानवन सींचवेको नदी नीरमरी है। चंचल करण मृग बांधवेको वागुरासी; ___ कामदावानल नासत्रेको मेघ झरी है ।
प्रवल कपायगिरि भंजवेको वन गदा, __भो समुद्र तारवेको पौदी महा तरी है। मोक्षपन्थ गाहवेकों वेशरी विलायतकी, ऐसी शुद्ध भावना अखंड धार ढरी है ॥ ८७ ॥
शिखरिणी। धनं दत्तं विचं जिनवचनमभ्यस्तमखिलं
क्रियाकाण्डं चण्डं रचितमवनी सुप्तमसकृत् । तपस्तीनं तप्तं चरणमपि चीर्ण चिरतरं न चेचित्ते भावस्तुपवपनवत्सर्वमफलम् ॥ ८८॥
___ अमानक छन्द । गह पुनीत आचार, जिनागम जोवना ।
कर तप संजम दान, भूमि का सोबना ।। १. अश्वतरी अर्थात् सबरी.
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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ए करनी सव निफल, होय विन भावना । ज्यों तुप वोए हाथ, कछू नहिं आवना ॥ ८८ ॥
वैरागाधिकार ।
हारिणी। यदशुभरज-पाथो हप्तेन्द्रियद्विरदाडुशं
कुशलकुसुमोद्यानं माद्यन्मनःकपिङ्गला। विरतिरमणीलीलावेश्म स्मरज्वरभेपर्ज शिवपथरथस्तद्वैराग्यं विमृश्य भवामयः ॥ ८९ ।।
घनाक्षरी। अशुभता धूर हरवेको नीर पूर सम,
विमल विरत कुलवधूको सुहाग है। उदित मदन जुर नाशवेकों जुरांकुश, ___ अक्षगज थमनको अंकुशको दाग है ।। चंचल कुमन कपि रोकवेको लोहफन्द,
कुशल कुसुम उपनायवेको बाग है। सूधा मोक्षमारग चलायवेको नामी रथ, ऐसो हितकारी भयभंजन विराग है ।। ८९ ॥
वसन्ततिलका। चण्डानिलः स्फुरितमन्दचयं दवार्चि
वृक्षवजं तिमिरमण्डलमयिम्बम् । वनं महीध्रनिवहं नयते यथान्तं
वैराग्यमेकमपि कर्म तथा समग्रम् ॥ ९ ॥
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वनारसीविलासः
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अमानक छन्द। ज्यों समीर गंभीर, घनाघन छय करै । वन विदारै शिखर, दिवाकर तम हरै। ज्यों दव पावक पूर, दहै वनकुंजको। त्यों भजे वैराग, करमके पुंजको ॥ ९० ॥
शिखरिणी। नमस्या देवानां चरणवरिवस्था शुभगुरो. __ स्तपस्या निःसीमक्लमपदमुपास्या गुणवताम् । निपद्यारण्ये स्यात्करणद्मविद्या च शिवदा विरागः क्रूरागःक्षपणनिपुणोऽन्तः स्फुरति चेत् ॥
पद्मावती छन्द । कीनी तिन सुदेवकी पूजा, तिन गुरुचरणकमल चित लायो । सो वनवास वस्यो निशवासर, तिन गुनवंत पुरुष यश गायो॥ तिन तप लियो कियो इन्द्री दम, सो पूरन विद्या पढ आयो। * सब अपराध गए ताको तज, जिन वैरागरूप धन पायो||९१॥
शार्दूलविक्रीडित । भोगान्कृष्णभुजङ्गभोगविपमानराज्यं रजःसंनिभं
वन्धून्वन्धनिवन्धनानि विषयमामं विपानोपमम् । भूति भूतिसहोदरां तृणतुलं स्त्रैणं विदित्वा त्यज३ स्तेष्वासक्तिमनाविलो विलभते मुक्ति विरक्तः पुमान् ॥
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घनाक्षरी छन्दा जाको भोग भाव दीसै कारे नागकेसे फन, ___ राजको समाज दीखे जैसो रजकोप है। जाको परवारको वढाव घेराबंध सूझे,
विप सुख सौंजकों विचारै विपपोप है ॥ लसै यों विभूति ज्यों भसमिको विभूति कहै, ___ बनता विलासमैं विलोकै दृढ दोप है। ऐसो जान त्यागै यह महिमा विरागताकी, ताहीको वैराग सही ताके ढिग मोप है ॥ ९ ॥
इति २२ अधिकार समाप्तम् अथ उपदेश गाथा।
उपेन्द्रवन्ना। जिनेन्द्रपूजा गुरुपर्युपास्तिः सत्त्वानुकम्पा शुभपात्रदानम्।। * गुणानुरागः श्रुतिरागमस्य नृजन्मवृक्षस्य फलान्यमृनि ९३
मत्तगयन्द । कै परमेश्वरकी अरचा विधि, सो गुरुकी उपसर्पन कीजे। दीन विलोक दया धरिये चित, प्रासुक दान सुपत्तहिं दीजे ॥ गाहक हो गुनको गहिये, रुचिसौं जिन आगमको रस पीजे । ये करनी करिये ग्रहमैं बस, यो जगमें नरमोफल लीजै ॥१३॥
शिखरिणी। 'त्रिसंध्यं देवार्चा विरचय च यं प्रापय कशः . श्रियः पाने वापं जनय नयमार्ग नय मनः । ..
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बनारसीविलासः
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सरक्रोधाद्यारीन्दलय कलय प्राणिपु दयां जिनो सिद्धान्तं शृणु वृणु जवान्मुक्तिकम
हरिगीता छन्द। जो करै साथ त्रिकाल सुमरण, जास जगयश विस्तर । जो सुन परमानहिं सुरुचिसों, नीत मारग पग धेरै ॥ जो निरख दीन दया प्रभु, कामक्रोधादिक हर। जो सुधन सप्त सुखेत खरचै, ताहि शिवसंपति धेरै ।। २४ ॥
__ भार्दूलविक्रीडित। कृत्वाईत्पदपूजनं यतिजनं नत्वा विदित्वागमं
हित्वा सङ्गमधर्मकर्मश्रियां पात्रेषु इत्या धनम् । गत्वा पद्धतिमुत्तमकमजुषां जित्वान्तरारिवलं स्मृत्वा पञ्चनमस्क्रियां कुरु करकोडस्थमिष्टं सुखम् ॥
वस्तु सन्द। देव पुहिं देव पूजहिं, रचहि गुरु सेव । परमागमरुचि धरहि, तजहि दुष्टसंगत ततक्षण । गुणि संगति आदरहि, करहिं त्याग दुर्भन्न भक्षण ॥ देहिं सुपात्रहिं दान नित, अपें पंचनवकार । ये करनी जे आचरहि, ते पावै भवपार ।। ९५ ॥
हारिणी। * प्रसरति यथा कीर्तिर्दिक्षु क्षपाकरसोदरा* भ्युदयजननी याति स्फीतिं यथा गुणसन्ततिः ।
कलयति प्रथा वृद्धि धर्मः कुकर्महतिक्षमः र कुशलसुलभे न्याय्ये कार्य तथा पधि वर्तनम् ॥ ९६ ॥
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६६ जैनग्रन्थरत्नाकरे
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दोहा छन्द । गुन अरु धर्म सुथिर रहै, यश प्रताप गंभीर । कुशल वृक्ष जिम लह लहै, तिहिं मारग चल बीर ! ॥९॥
शिखरिणी। करे साध्यस्त्यागः शिरसि गुरुपादप्रणमनं
मुखे सत्या वाणी श्रुतमधिगतं च श्रवणयोः । ॐ हृदि स्वच्छा वृत्तिर्विजयि भुजयोः पौरुषमहो विनाप्यैश्वर्येण प्रकृतिमहतां मण्डनमिदम् ॥ ९७ ॥
कवित्त छन्द। वंदन विनय मुकट सिर ऊपर, सुगुरुवचन कुंडल जुगफान । A अंतर शत्रुविजय भुजमंडन, मुफतमाल उर गुन अमलान || ॐ त्याग सहज कर कटक विराजत, शोभित सत्य वचन मुख पान। भूषण तजहिं तऊ तन मंडित, या सन्तपुरुष परधान ॥९७॥ भवारण्यं मुक्त्वा यदि जिगमिपुर्मुक्तिनगरी
तदानीं मा कापीर्विपयविषवृक्षेषु वसतिम् । * यतश्छायाप्येषां प्रथयति महामोहमचिरा
दयं जन्तुर्यस्मात्पमपि न गन्तुं प्रभवति ॥ ९८॥ नोट-नीचे लिखे तीन कवित्तोंके मूल श्लोक नहिं मिले.
घनाक्षरी। गहैं जे सुजन रीत गुणीसों निवा, प्रीत,
सेवा साथै गुरुकी विनैसों कर जोरकैं।
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१ इस मूल श्लोकका भाषानुवाद किसी भी प्रतिमें नहीं है ।
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बनारसीविलासः
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विद्याको विसनघर परतिय संग हर
दुर्जनकी संगतिसो वैठे मुख मोरकै ॥ तजै लोकनिन्ध कान पूजे देव जिनराज,
करें ले करन थिर उमंग वहोर।। तेई जीव सुखी होय तेई मोख मुखी होय,
तेई होहिं परम करम फन्द तोरमैं ॥१॥ परनिन्दा त्याग कर मनमें वैराग धर,
क्रोध मान माया लोम चारों परिहर रे ।। हिरमें तोप गहु समतासों सीरो रहु,
घरमको भेद लहु खेदमें न पर रे ।। करमको वंश खोय मुक्रतिको पन्थ जोय,
सुकृतिको बीनवीय दुर्गतिसों डर रे। . अरे नर ऐसो होहि बार बार कहूं तोहि, नहिं तो सिधार तूं निगोद तेरो घर रे ॥ २ ॥
३. मात्रा सबैमा छन्द । आलश त्याग जाग नर चेतन, बल सँभार मत करहु विलंब इहां न सुख लवलेश जगतमहि, निव विरपमैं लौ न अंव ॥ तात तूं अंतर विपक्ष हर, कर विलक्ष निज अक्षकदंब । गह गुन ज्ञान बैठ चारितरथ, देहु मोप मग सन्मुख बंब ॥३॥
मालिनी। * अमजदशितदेवाचार्यपट्टोदयादि
धुमणिविजयसिंहाचार्यपादारविन्दे । AAAAAAAAEPTETAPRIME
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मधुकरसमता यस्तेन सोमप्रमेण ____व्यरचि मुनिपनेत्रा सूक्तिमुक्तावलीयम् ॥ ९९ ॥
कवित्त छन्द। जैन वंश सर हंस दिगम्बर मुनिपति अजितदेव अति आरज।। ताके पद वादीमदभंजन; प्रघटे विजयसेन आचारज ॥ ताके पट्ट भये सोमप्रभा तिन ये ग्रन्थ कियो हित कारज । जाके पढत सुनत अवधारत, हैं सुपुरुष जे पुरुष अनारज॥९॥
इन्द्रवत्रा। सोमप्रभाचार्यमभा च लोके वस्तु प्रकाशं कुरुते यथाशु । तथायमुञ्चरुपदेशलेशः शुभोत्सवज्ञानगुणांस्तनोति ॥१०॥ भाषाग्रन्थकर्ताकी ओरसे नामादि.
दोहा छंद। नाम सूक्तिमुक्तावली; द्वाविंशति अधिकार । शत श्लोक परमान सव; इति ग्रन्थविस्तार ॥१॥ कुँवरपाल वानारसी; मित्र जुगल इकचित्त ।। तिनहिं ग्रन्थ भाषा कियो; बहुविधि छन्द कवित्त ॥२॥ सोलहसै इक्यानवे; ऋतु ग्रीषम वैशाख ।
सोमवार एकादशी; करनछत्र सित पाख ॥ ३ ॥ इति.श्रीसोमप्रभाचार्यविरचिता सिन्दूरप्रकरापरपर्याया सूचिमुकावली
भाषाछन्दानुवादसहिता समाप्ता।
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१ इस श्लोकका भाषा छंद भी नहिं मिला.
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श्रीः
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अथ ज्ञानवावनी.
घनाक्षरी। ओंकार शबद विशद याके उभयरूप,
एक आतमीक भाव एक पुद्गलको । शुद्धता स्वभावलिये उठ्यो राय चिदानंद, __ अशुद्ध विभाव लै प्रभाव जड़वलको ॥ त्रिगुण त्रिकाल तातै व्यय ध्रुव उतपात,
ज्ञाताको सुहात वात नहीं लाग खलको । वानारसीदासजूके हृदय ओंकारवास,
जैसो परकाश शशि पक्षके शुकलको ॥१॥ निरमल ज्ञानके प्रकार पंच नरलोक,
तामें श्रुतज्ञान परधान कर पायो है। ताके मूल दोय रूप अक्षर अनक्षरमें,
अनक्षर अन पिंड सैनमें बतायो है ॥ बावन वरण जाके असंख्यात सन्निपात,
तिनिमें नृप ओंकार सज्जनसुहायो है। वानारसी दास अंग द्वादश विचार यामें,
ऐसे ओंकार कंठ पाठ तोहि आयो है ॥२॥ महामंत्र गायत्री के मुख ब्रह्मरूप मंड्यो,
आतम प्रदेश कोई परम प्रकाश है।
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जैनग्रन्थरत्नाकरे mammanmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
तापर अशोक वृक्ष छत्रध्वज चामर सो, ___ पवन अगनि जल से एक वास है। सारीके अकार तामें रुद्र रूप चितवत,
महातम महावृत तामें बहु भास है। ऐसो ओंकारको अमूल चूल मूलरस,
बानारसीदासजूके बदन विलास है ॥३॥ सिद्धरूप शिवरूप भेप अवभेषरूप,
नररूप न्यायरूप विषिरूप बातमा । गुणरूप ज्ञानरूप ज्ञायक गंभीररूप,
भोगरूप मोगीरूप सरस सुहातमा ॥ एकरूप आदिरूप अगम अनादिरूप,
असंख्य अनंतरूप जातिरूप जातमा । वानारसीदास द्रव्यपूजा व्यवहाररूप,
शुद्धता स्वभावरूप यहै शुद्ध आतमा ॥ ४॥ धुंधवाउ हृदै भयो शुद्धता विसरि गयो,
परगुणरंग रह्यो पर ही को रुखिया । निजनिधि निकट विकट भई नैन विन,
क्षणको सुखी तामें क्षणकमें दुखिया ।। समकित जल विना ऋषित अनादि काल,
विषय कषायवहि अरणमें धुखिया। वानारसीदास जिन रीति विपरीति जाके,
मेरे जाने ते तो नर मूढनमें मुखिया ॥ ५॥
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बनारसीविलासः ७६ •rrammmmmmmmmmmimrainionom.rrmer . अनुभवज्ञानते निदान आनमान छूट्यो,
सरधानवान वान छहों द्रव्यकरसे । करम उपाधि रोग लोग जोग भोग राते,
मोगी त्रिया योगी करामातहूको तरसे ॥ दुर्गति विषाद न उछाह सुर भौनवास,
समता मुक्षिति आतमीफ मेघ वरसे। वानारसीदासजके वदन रसन रस,
ऐसे रसरसिया ते अरसको परसें ॥ ६॥ आवरण समल विमल भयो ताके तुले,
मोह आदि हने काहु काल गुनकसिया । लीन भयो लवलागी मगन विभावत्यागी,
ज्योतिके उदोत होत निज गुण पसिया ॥ वानारसीदास निज आतम प्रकाश भये,
आवे ते न नाहिं एक ऐसे वासवसिया।। अरस परस दस आदि ही अनन्त जन्तु,
सुरससवादराचे सोई साँचो रसिया ॥ ७ ॥ इस ही रसके सवादी भये ते तो सुनो,
तीर्थकरचक्रवर्ति शैली अध्यातमकी। वल वासुदेव प्रति वासुदेव विद्याधर,
चारणमनिन्द्र इन्द्र छेदी बुद्धि भ्रमकी ॥ १ खभाव. २ आकर्षण कर
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७२ जैनग्रन्थरलाकरे
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अठ्ठावीस लवधिक विविध सधैया साधु,
सिद्धिगति भये कीन्हीं सुगम अगमकी । वानारसीदास ऐसी अमीकुंडपिंड पायो,
तहांलों पहुंच कालक्रमकी न जमकी ॥ ८॥ इतर निगोदमें विभाव ताके बहुरूप,
तामें हू खभाव ताको एक अंश आवै है। वहै अंश तेजपुंज वादर अगनि जैसे,
एकतै अनेक रस रसना बढ़ावै है ।। आर्गे जोर वढ्यो प्राण चक्षु श्रोत्र नरदेह,
देह देही मिन्न दीखे भिन्नता ही भाव है। वानारसीदास निवज्ञानको प्रकाश भयो,
शुद्धतामें वास किये सिद्धपद पावै है ॥ ९ ॥ उदै भयो भानु कोऊ पंथी उठ्यो पंथकाज,
कहै नैनतेज थोरो दीप कर चहिये । कोऊ कोटीध्वज नृप छत्रछांह पुरतज,
ताहि हौंस भई जाय ग्रामवास रहिये ॥ मंगल प्रचंड तज काहू ऐसी इच्छा भई,
एक खर निज असवारी काज चहिये । बानारसीदास जिनवचन प्रकाश सुन,
और वैन सुन्यो चाहै तासों ऐसी कहिये ॥१०॥
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बनारसीविलासः
७३
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___ ऊंचे वंशकी चढ़ाई प्रीतपनों प्रीतिताई,
___ गुण गरबाई पिहलाई घनो फेर है। वचन विलासको निवास वन सघनाई, ___चतुर नागर नर सुरनको घेर है ।। कीरति सराहको प्रवाह बहै महानदी,
एतो देश उपमा है सबै जग जेर है। हेरि हेरि देख्यो कोऊ और न अनेरो ऐसो,
वानारसीदास वसुधामें गिरि मेर है ॥ ११ ॥ रीति विपरीति रंग राच्यो परगुण रस, _छायो झूठे भ्रम तातें छूटी निधि घरकी । तेरे घर ऋद्धि है अनंत आपरंग आये,
नेकु जो गरूरी फेरे हाय होय हरकी ॥ कायके उपायसेती एती होस पूरै भले.
निजत्रियारूठे वेती होस पूजै नरकी । वानारसीदास कहै मूढको विचार यह,
कोटीध्वज भयो चाहै आस करै परकी ॥ १२ ॥ ऋतु वरसात नदी नाले सर जोरचढे,
वटै नाहिं मरजाद सागरके फैलकी । | नीरके प्रवाह तृण काठबृन्द बहे जात,
चित्रावेल आइ चढ़े नाही काहू गैलकी ॥
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वानारसीदास ऐसे पंचनके परपंच,
रंचक न संच आवै वीर बुद्धि छैलकी । कछु न अनीत न क्यों प्रीति परगुणसेती,
ऐसी रीति विपरीत अध्यातमशैलकी ॥ १३ ॥ लवरूपातीत लागी पुण्यपाप भांति भागी,
सहज स्वभाव मोहसेनाबल भेदकी। ज्ञानकी लबधि पाई आतमलबधि आई,
तेज पुंज कांति जागी उमग अनन्दकी ॥ राहुके विमान बढ़े कला प्रगटत पूर,
होत जगाजोत जैसें पूनमके चंदकी। वानारसीदास ऐसे आठ कर्म भ्रमभेद, __ सकति संभाल देखी राजा चिदानंदकी ॥ १४ ॥ लिखतपढ़त ठाम ठाम लोक लक्षकोटि,
ऐसो पाठ पढ़े कछू ज्ञान हू न बढ़िये । मिथ्यामती पचि पचि शास्त्र के समूह पढ़े,
बंधीकलवाजे पशुचामढोल मढ़िये ॥ दीपक संजोय दीनो चक्षुहीन ताके कर,
विकट पहार वा कबहूं न चढ़िये । बानारसीदास सो तो ज्ञान के प्रकाश भये, लिख्यो कहा पढ़े कछू लख्यो है सो पढ़िये ॥१५॥
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७५
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एक मृतपिण्ड जैसें जलके संयोग छते.
भाजन विशेष कोट क्षणकम खेद है। तैसें कर्मनीरचिदानन्दकी प्रणति दीखे, __ नरनारी नपुंसक त्रिविध सुवेद है ॥ वानारसीदास अब वाको धूप याको तप,
छूटत संयोग ये उपाधिनको छेद है। पुमालके परचै विशेष जीव भेद भये,
पुग्गल प्रसंग विना आतम अभेद है ॥ १६॥ ये ही ज्ञान सबद सुनत सुर ताहि सुन,
पटरस स्वाद माने तू तो ताहि मान रे।। पिंड विरहंडकी खबर खोजै ताहि खोज, __परगुण निज गुण जानै ताहि जान रे ।। विषय कपायके विलास मंडै ताहि छंड,
अमल अखंड ऋद्धि आने ताहि आन रे। बानारसीदास ज्ञाता होय सोई जानै यह,
मेरे मीत ऐसी रीत चित्त सुधिं ठान रे ॥ १७ ॥ उद्यम करत नर स्वारथके काज सब,
स्वारथके उद्यमको है रह्यो बहर सो। स्वारथको भजै निरस्वास्थको तज रखो,
शहरको वन जाने वनको शहर सो॥ १'यूढत' ऐसा भी पार है.
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जैनग्रन्थरत्नाकरे wwwwwww स्वारथ भलो है जो तू स्वारथको पहिचान,
स्वारथ पिछाने विन स्वारथ जहर सो । वानारसीदास ऐसे स्वारथके रंगराचे,
लोकनके स्वारथको लागत कहर सो ॥ १८॥ उलट पलट नट खेलत मिलत लोक,
याके उलटत भव एक तान है रह्यो। अज हूं न ठाम आवै विकथा श्रवण भावै,
महामोह निद्रामें अनादि काल स्वैरह्यो । बानारसीदास जागे जागै तासों बनि आवै,
जिनवर उकति अमृत रस च्वैरह्यो । उलटि जो खेल तो तो ख्याल सो उठाय धरै,
उलटिके खेले विन खोटे ख्याल है रह्यो ॥ १९॥ कौन काल मुगध करत बध दीनपशु,
जागी ना अगमज्योति कैसो जज्ञ करि है। कौन काज सरिता समुद्र सरजल डोहै,
आतम अमल डोयो अजहूं न डरि है । काहे परिणाम संकलेश रूप करै जीव !
पुण्यपाप भेद किये कहुं न उघरि है। बानारसीदास जिन उकति अमृत रस,
सोई ज्ञान सुने तू अनंत भव तरि है ॥ २० ॥
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खेलत अनन्तकाल भये पै न खेद पावे, ___ तीन सौ तेताल राजू मापकी तलको । केई स्वांग धर खेले वरप असंख्य कोटि
केई स्वांग फेर लावै पलक पलकमें ॥ खेले जेते जन्तु ताते खेलने अनन्त गुणे, __वानारसीदास जान ज्योतिकी झलकमें। खेले तें बहुत ख्याल देखे तैं अलप जन्तु,
देखे ते भी खेल बैठे ख्याल है खलकमें ॥२१॥ गुरुमुख तुवक सुबक भरे श्रुत सोर, ___ कालकी लवधि कलचंपी दरम्यानकी । जामकी अगमबुद्धि जोग उपजोग शुद्धि,
रंजकमरथ ज्वाला लागी शुम ध्यानकी ।। इत ज्ञातादल उत मोहसेना आई वन,
वानारसीदास जू कुमक लीजो न्यानकी । जीवे न अवश्य जाके बन्दूककी गोली लागै,
जागै न मिथ्यात जो गोली लागै ज्ञानकी ॥२२॥ घटमें विघट घाट उलट ऊरधबाट,
परगुण साधे ते अनन्त काल तंथको । सुषुमना आदि इला पिंगलाकी सोंज भई,
पटचक्रवेधी गण जीत्यो मनमंधको ।।
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सुलथ्यो है कमल बनारसी विशेष ताको,
सुनिवेकी इच्छा भई जिनमत ग्रन्थको । ऐसे ही जुगति पाय जोगी जोग निधि साथै,
जोगनिधि साधै तो सिधावै सिद्धपंथको ॥ २३ ॥ नीच मतिहीन कहै सो तो न व्है केवलीपैं, ___ कहै कर्महीन सो तो सिद्ध परमितको । धियागारी धरै धिया सारसुत ऐसी धरी,
मेघाके मिलापसों मथन निज चितको । मूरख कहैं ते साधे परम अवधिवार, ___ तहां न विचार कछु हित अनहितको । बानारसीदास तोसो निज ज्ञान गेह आये,
लोगनकी गारी सो सिंगार समकितको ।। २४ ॥ चंचलता बाला वैस भौंरी दै दै भूमि फिरै,
घर तरु भूमि देखै घूमत भरमतें। यों ही पर योगपरणतिसेती परबंध,
औदयिक भाव मूढ़ पावे ना मरमतें ।। निजकृत मानै तातें घटनि विशेष माने,
बढ़े परजाय याही कठिन करमतें । वानारसीदास ऐसे विकल विभाव छूटे,
बुद्धि विसराम पावै स्वभाव धरमतें ॥२५॥
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छत्रधार बैठो घने लोगनकी भीरभार, ___ दीखत स्वरूप सुसनेहिनीसी नारी है। सेना चारि साजिके बिराने देश दोही फेरी,
फेरसार करें मानो चौपर पसारी है ॥ कहत वनारसी बजाय घाँसा वारवार, ___ रागरस राच्यो दिन चारहीकी बारी है। खुल्यो ना खजानो न खजानचीको खोजपायो,
राज खसि जायगो खजाने विन गब्बारी है ।। २६॥ जागो राय चेतन सहज दल जुरि आये,
मुरे कर्मरिपुभाव मनमें उमाहबी। सरहद भई याकी लोकालोक परिमाण,
इन्द्रचन्द्र चितवत चोपकर चाहवी ।। वानारसीदासज्ञाता ज्ञान सेना बनि आई, __आदि छतें अन्त विन ऐसी ही निवाबी । खजानची शुभध्यान ज्ञानको खजानो पूरो,
सूरो आप साहिव मुथिर ऐसी साहिबी ॥ २७ ॥ झाग उठे वामें यामें क्रोधफेनं फैलि रहे,
त्रिवलतरंगरंग दूईनमें आवना । वामें तृणकाठ धनधान्यपरिग्रह यामे,
वामें मलपंक याहि बंधद्रोह भावना ॥
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बानारसीदास वामें आकृति अनेक उठे,
यहां कुलकोड योनि जाति दोष लावना । बह्यो जात जल तामें येते कविभाव उठे, __ आतमा बहिर तामें कहाँते स्वभावना ॥ २८ ॥ निजकाज सवहीको अध्यातम शैली मांझ,
मूढ क्यों न खोज देखै खोज औरवानमें । सदा यह लोकरीति सुनी है वनारसीजू,
वचनप्रशाद नैकु ज्ञानीनके कानमें || चेरी जैसें मलिमलि धोवत बिराने पांव, __ परमनरंजिवेको सांझ ओ विहानमें । निजपांव क्यो न धोवै? कोई सखी ऐसो कहै,
मो सी कोऊ आलसन और न जहानमें ॥ २९॥ टेककरि मूरखबिराने घर टिक रह्यो,
जानै मेरे यही घर मैं भी याही घरको। घर परमारथ न जानै तातें भ्रमधेरो,
ठौर विना और और अधर पधरको ॥ पंचको भखायो कहै परपंच बंचद्रोह,
संग्रह समूह कियो सो तो पिंड परको। बानारसीदास ज्ञातावृन्दमें विचार देख्यो,
परावर्तपूरणी जनम ऐसे नरको ॥ ३० ॥
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वनारसीविलासः
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टांव मृगमद मृग नामि पुदगलगुन,
विसतरचो पौनत विशेष ढूंढ वनमें । साहिवके कान मूढ अटत अनेक ठौर,
तनको जो भिन्न माने तो तो तेरे तनमें ॥ कंठमाहिं मणि कोऊ मूरख विसरि गयो,
सो तो उपखानों सांचो भयो दीन जनमें। वानारसीदास जिहँ कालको जगत फिर,
सो तो काज सरै तेरे एक ही वचनमें ॥ ३१ ॥ झुल्यो त निगोड़ कोऊ काल पाय डाँकि आयो,
प्रत्येक शरीर पंच थावरमें तें धरयो। मुनि विकलिंदी इंदी पंच परकार चार,
नरक तिर्यच देव, पुनि पुनि संचरयो । वानारसीदास अब नरमव कर्म मूमि,
गठिमेद कीन्हों मोक्षमारगमें पै घरयो। चेतरे चतुर नर अज हूं तू क्यों न चैतै ? ___ इस अवतार आयो एते घाट उतरयो ॥ ३२ ॥ हुँदै लौण सागरमें नेक ह न दील कर,
क्षारजल वसै वाके क्षारजल पै नहीं। सीतवदासीताहरिकान्तारक्ताश्रोतस्वाद,
स्वादी होय सोई स्वाद कोई काहू दै नहीं ॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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सुभरि विभावसिंधु समता स्वभावश्रोत,
वानारसी लाभै ताको प्रमणको मै नहीं। संगी मच्छ सारिखो स्वभावज्ञाता गहि राख्यो,
राख्यो सोई जानै भैया कहवेको है नहीं ॥३३॥ नैननः अगम अगम याही वैननते, .
उलट पलट वहै कालकूट कहरी । मूल विन पाये मूढ कैसें जोग साधि आवै,
सहज समाधिकी अगम गति गहरी ॥ अध्यातम सुन्यो तो पै सरधान है न आवै, .
तौ तौ भैया तैं तो बडी राजनीति चहरी । बानारसीदास ज्ञाता जापै सधै सोई जाने,
उदधि उधानतें अधिक मनलहरी ॥ ३४ ॥ तत्त्व निजकाज कह्यो सत्व परगुण गयो, __ मनकी लहर मानों डसें नाग कारेसे । छिनकमें तपी छिन जपी हैके जापजप,
छिनकमें भोगी छिन जोग परजारेसे ॥ वानारसीदास एतो पूर्वकृत बंध ताके,
औदयिक भाव तेई आपो कर धारेसे। जब लग मत्त तौलों तत्त्वकी पहुंच नाही,
तत्त्व पायें मूढमती लागें मतवारेसे ॥ ३५॥
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बनारसीविलासः
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थिर थंभ उपल विपुल ज्योति सरतीर,
सत्ता आये आपनी न कोऊ काके दलको । भासै प्रतिबिम्ब अम्बु वायुसों अनेक फैन, __ धूनतो सो दीख पैन धूजे थंम थलको ।
जाकी दृष्टि पुग्गललों चेतन न भिन्न चिंते, ___ आचरण देखे सरधान न विमलको । वानारसीदास ज्ञान आतम मुथिर गुण,
डोलै परजाय सो विकार कर्मजलको ॥ ३६॥ द्रव्ययकी दोउनकी सरहद्द देहमात्र, __ भावथकी लोकपरिमाण वाकी इधिना । भाव सरहद्द याकी अलोकतें अधिकाई,
ये तो शुभ कालकारी बातें कछू सिधि ना ॥ याके तो अभेद ऋद्धि अमल अखंड पूर,
वाके सेना परदल कष्ट निज रिधि ना। वानारसीदास दोट मीढि देखी दुनियांमें, __ एक दिसि तेरी विधि एक दिसि विधिना ॥३७॥ धर्मदेव नरको वचन जैसो गिरिराज,
मिथ्याती वचन शुद्धारथको परंतरो। पारस पाषाण जैसे जाति एक तो भेद,
मूरख दरश जैसे दरश महतरो॥
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१ महन्तको.
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Hakutulote dintretietectataterte tortor tertenties te toets te maken en kan te 1८४ जैनग्रन्थरत्नाकरे
वानारसीदास कंकसार अन्यसार जैसे, ___ जनमको द्यौस जैसो द्यौस मरणंतरो। अध्यातम शैली अन्य शैलीको विचार तैसो,
ज्ञाताकी सुदृष्टिमाहिं लागै एतो अंतरो ॥ ३८॥ नरभव पाय पाय बहु भूमि धाय धाय,
पर गुण गाय गाय बहु देह धारी है। नरभव पीछे देह नरक अनेक भव,
फिर नर देव नर असंख्यात वारी है। एक देवभव पीछे तिथेच अनंत भव,
वानारसी संसारनिवास दुःखकारी है। क्षायक सुमतिपाय मोह सेना विठुराय,
अब चिदानंदराय शकति सँभारी है ।। ३९ ॥ पामर वरण शूद्र वास तव देह बुद्धि ___ अशुभको काज ताहि तात बड़ी लान है । वैश्यको विचार वाके कछू करतूति फेर,
वैश्य वास वसै तौलों नाहिं जोगराज है ॥ क्षत्री शुद्ध परचंड जैतवार काज जाके,
वानारसीदास ब्रह्म अगम अगाज है। जैसे वास वसै लोय तामें तैसी बुद्धि होय,
जैसी बुद्धि तैसी क्रिया क्रिया तैसो काज है ४०
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बनारसीविलासः mmmmmmmer.rammeromemmmmmmmmmm फटिक पाषाण ताहि मोतीकर मान कोऊ,
धुंधची रकत कहा रतन समान है। हंस वक्र सेत इहां सतको न हेत कमू,
रोरी पीरी भई कहा कंचनके वान है ॥ भेय भगवान के समान को आन भयो,
मुद्राको मंडान कहा मोक्षको उथान है। वानारसीदास ज्ञाता ज्ञानमें विचार देखो,
काय जोग कैसो होउ गुण परधान है ॥ ११ ॥ वेदपाठवाले ब्रह्म कहें पै विचार विना;
शिव कोई भिन्न जान शेव गुणगावहीं।। जैनी पर जतन जतन निजमिन्न जान,
वानारसी कहै चारवाक धुंधघावहीं ॥ बौद्ध कहै बुद्ध रूप काहू एक देशवसै,
न्यायके करनहार करय वतावहीं। छहों दरशनमाहिं छतो आहि छिपि रहो,
छूट न मिथ्यात तातै प्रगट न पावही ॥ ४२ ॥ भेषधर कोटिक नट्यो है लखचौरासीमें,
विना गुल्ज्ञान वरत न विवसाक्में । गुरु भगवान तूही भगवानभ्रान्ति (दै,
प्रान्तिसे सुगुरुभाष जैसे खीर तावमें ॥
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६ जैनग्रन्थरत्नाकरे
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वानारसीदास ज्ञाता भगवानभेद पायो,
भयो है उछाह तेरे वचन कहावमें। भेषधार कहै भैया भेषहीमें भगवान,
भेषमें न भगवान भगवान भावमें ॥ १३ ॥ मोक्ष चलिवेको पंथ भूले पंथ पथिक ज्यों,
पंथबलहीन ताहि मुखरथ सारसी । सहजसमाधि जोग साधिवेको रंगभूमि,
परम अगम पद पढिवेको पारसी ॥ भवसिन्धु तारिवेको शबद धेरै है पोत,
ज्ञानघाट पाये श्रुतलंगर लैझारसी। समकित नैननिको याके बैन अंजनसे, __ आतमा निहारिवेको आरसी बनारसी॥१४॥ जिनवाणी दुग्धमाहिं विजया सुमतिडार,
निजखाद कंदवृन्द चहलपहलमें । विवेक विचार उपचार ए कसंभो कीन्हों,
मिथ्यासोफी मिटि गये ज्ञानकी गहलमें ॥ शीरनी शुकलध्यान अनहद नाद तान,
गान गुणमान करै सुजस सहलमें। वानारसीदास मध्यनायक सभासमूह,
अध्यातमशैली चली मोक्षके महलमें ॥ ४५ ॥ १ मिथ्यात्वरूपी नशे.
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बनारसीविलासः
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रसातल तल पंच गोलक अनन्त जंतुः
तामें दोऊ राशि अन्तरहित खरूप है। कटुक मधुर जौलों अगनित भिन्नताई
चिक्कणताभाव एक जैसे तेलरूप है । जैसे कोऊ जात अंध चौइन्द्री न कहियत,
द्रव्यको विचार मूढभावको निरूप है। वानारसीदास प्रभु वीर जिन ऐसो करो,
आतम अभव्य भैया सोऊ सिद्धरूप है ॥ ४६ ॥ लक्षकोट जोरिजोरि कंचन अचार कियो, ___ करता मैं याको ये तो कर मेरी शोभ को ।
धामधन भरो मेरे और तो न काम कछु, ___सुख विसराम सो न पावें कहूं थोभको ॥ ऐसो वलवंत देख मोह नृप खुशी भयो,
सैनापति थाप्यो जैसे अहंभार मोमको । वानारसीदास ज्ञाता ज्ञानमें विचार देख्यो,
लोगनको लोभ लाग्यो लागे लोग लोभकोट बावनवरण ये ही पढ़त वरण चारि,
काहू पढ़े ज्ञान पढे काहू दुख द्वंदजू । वरण भंडार पंच वरण रतनसार,
भौर ही भंडार भाववरण मुछेदजू॥
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District.ttatuttiterttotastuttakuttattation ३८८ जैनग्रन्थरत्नाकरे
वरणतें भिन्नता सुवरणमें प्रतिभास,
सुगुण सुनत ताहि होत है अनंद जू । वानारसीदास जिनवाणी वरणन कियो,
तेरी वाणी वरणाव करै बड़े बून्द जू ॥ १८ ॥ शकबंधी सांचो शिरीमाल जिनदास सुन्योः
ताके वंश मूलदास विरद बढ़ायो है। ताके वंश क्षितिमें प्रगट भयो खड्गगसेन, __वानारसीदास ताके अवतार आयो है ।। वीहोलिया गोत गर वतन उद्योत भयो,
आगरेनगर ताहि भेटे सुखपायो है। 'वानारसी 'वानारसी' खलक बखान करै,
ताको वंश नाम ठाम गाम गुण गायो है ॥४९॥ खुशी हैके मन्दिर कपूरचन्द साहु वैठे,
बैठे कौरपाल सभा जुरी मनभावनी । वानारसीदासजूके वचनकी बात चली,
याकी कथा ऐसी ज्ञाताज्ञानमनछावनी ॥ गुणवंत पुरुषके गुण कीरतन कीजे,
पीतांवर प्रीति करी सज्जन सुहावनी ।। वही अधिकार आयो ऊंघते विछोना पायो,
हुकम प्रसादतें भयी है ज्ञानवावनी ॥ ५० ॥ सल्ललल्लल्याला
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बनारसीविलासः सोलह सो छियासीये संवत कुंवारमास,
पक्ष उजियारे चन्द्र चढ़वेको चाव है। विदशी दिन आयो शुद्ध, परकाश पायो,
उत्तरा आषाढ़ उडुंगन यहै दाव है। बानारसीदास गुणयोग है शुकलवाना,
पौरिषप्रधान गिरि करण कहाव है। एक तो अरथ शुभ महूरत वरणाव, .
दूसरे अरथ यामें दूजो वरणाव है ॥ ५१ ॥ हेतवंत जेते ताको सहज उदारचित्त, ___ आगे कहाँ एतो वरदान मोहि दीजियो । उत्तम पुरुष शिरीवानारसीदास यश, __पन्नगस्वभाव एक ध्यानसों सुनीजियो ॥ पवनस्वभाव विसतार कीज्यो देशदेश,
अमर स्वभाव निज स्वाद रस पीजियो । वावन कवित्त ये तो मेरी मतिमान भये, हंसके स्वभाव ज्ञाता गुण गहलीजियो ॥ ५२ ॥ इति श्रीवानारसी नामाहित ज्ञानवावनी।
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१ नक्षत्र
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९० जैनग्रन्थरलाकरे
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अथ वेदनिर्णयपंचासिका.
चूडामणि छन्द । जगतविलोचन जगताहत, जगतारण जग जाना ।
बन्दहुं जगचूडामणी, जगनायक परधाना ॥ नमहं ऋपभस्वामीप्रमुख, जिनचौवीस महन्ता । गुरूचरण चितराख मुख, कहूं वेदविरतन्ता ॥ १ ॥
मनहरण । (खड़ीबोली) केवलीकथितवेद अन्तर गुपत भये,
जिनके शवदमें अमृतरस चुवाहै। अव ऋगुवेद यजुर्वेद शाम अथर्वण, __इनहींका परभाव जगतमें हुवा है ॥ कहत वनारसी तथापि मैं कहूंगा कछु,
सही समझेंगे जिनका मिथ्यात मुवा है। मतवारो मूरख न मानै उपदेश जैसे, उलुवा न जाने किसिओर भानु उवा है ॥२॥
दोहा। कहहुं वेदपंचासिका, जिनवानी परमान । नर अजान जाने नहीं, जो जाने सो जान ॥ ३ ॥
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१ अन्य कवियोंने इसे मुक्तामणि लिखा है, १३ और १२ के विश्राम से इसमें २५ मात्रा होती हैं. दोहाके अन्त लघुवर्णको गुरु करदेनेसे यह छन्द बन जाता है.
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बनारसीविलासः wimmmmmmmmmmmmmmmmmmmm..
ब्रह्मानाम युगादिजिन, रूप चतुर्मुख धार । समवसरण मंडानमें, वेद वखान चार ॥ ४ ॥
घनाक्षरी। प्रथम पुनीत प्रथमानुयोगवेद जामें,
त्रेसठशलाका महापुरुषोंकी कथा है। दूजो वेद करणानुयोग बाके गरभमें,
वरनी अनादि लोकालोक थिति जथा है। चरणानुयोग वेद तीसरो प्रगट जामें, ___ मोखपंथकारण आचार सिंधु मथा है। चौथोवेद दरव्यानुयोग जामें दरवके, पटभेद करम उछेद सरवथा है ॥ ५॥
प्रथमवेद यथा:
पट्पद । तीर्थकर चौवीस, काय चौवीस मनुजतन । जिनमाता जिनपिता, सकल व्यालीसआठ गन ।। चक्रवति द्वादश प्रमान, एकादश शंकर । नव प्रतिहर नव वासुदेव, नव राम शुभंकर ।। कुलकर महन्त चवदह पुरुप, नव नारद इत्यादि नर । इनको चरित्र अरु गुणकथन, प्रथमवेद वह भेद घर ॥६॥
द्वितीयवेद यथाःअगम अनंत अलोक, अकृत अनिमित अखंड सभ। असंख्यातपरदेश, पुरुपआकार लोक नम ||
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९२ जैनग्रन्थरत्नाकरे
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__अरघ स्वर्ग अघो पताल, नरलोक मध्यमुव ।
दीप असंख्य उदधि, असंख मंडलाकार ध्रुव ॥ तिस मध्य अढ़ाई दीपलग, पंचमेरु सागर जुगम । यह मनुजक्षेत्र परिमाण छिति, सुरविद्याधरको सुगम ॥ ७॥
मनहरण । सोलह सुरंग नवग्रीव नव नवोत्तर, ___पंच पंचानुत्तर ऊपर सिद्धशिला है। ता ऊपर सिद्धक्षेत्र तहां हैं अनन्तसिद्ध,
एकमें अनेक कोऊ काहूसों न मिला है। अधोलोक पातालकी रचना अनेकविधि,
नीचे सात नरकनिवास बहु विला है। इत्यादि जगतथिति कही दूजेवेद माहिं, सोई जीव मानें जिन मिथ्यात उगिला है ॥ ८॥
तृतीयवेद यथा:मिथ्याकरतूति नाखी सासादन रीति भाखी,
मिश्रगुणथानककी राखी मिश्र करनी । सम्यकवचन सार कह्यो नानापरकार,
श्रावकआचार गुन एकादश घरनी ।। परमादीमुनिकी क्रिया कहीं अनेकरूप,
भारी मुनिराजकी क्रिया प्रमादहरनी। चारितकरण त्रिधा श्रेणिधारा दुविधा है,
एक दोषमुखी एक मोखमुखी वरनी ॥ १०॥ लाल
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बनारसीविलास.
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चौपाई। उपशम क्षिपक यथावत चारित ।
परकृत अनुमोदनकृतकारित ॥ द्विविधि त्रिविधि पनविधि आचारा । तेरह विधि सत्रह परकारा ॥ ११ ॥
दोहा। वरनन संख्य असंख्यविधि, तिनके भेद अनंत । सदाचार गुणकथन यह, वृतियवेद विरतंत ॥ १२ ॥
चतुर्थवेद यथाः-रूपक धनाक्षरी. जीव पुदगल धर्म, अधर्म आकाश काल,
येही छहों दरव, जगतके धरनहार । एक एक दरवमें, अनंत अनंत गुन, ___ अनंत अनंत परजायके करनहार ॥
एक एक दरवमें, शकति अनंत बस, ___ कोऊ न जनम धेरै कोऊ न मरनहार ।
निहचे निवेद कर्मभेद चौथेवेद माहि, ___वखाने सुगुरु मानै मोहको हरनहार ॥ १३ ॥
चौपाई। येही चारवेद जगमाहिं । सर्व अन्थ इनकी परछाहिं ।। 1 ज्यों ज्यों धरम भयो विच्छेद । त्यो त्यो गुप्त भये ये वेद १४
इस छन्दमें बत्तीसवर्ण लघु गुरुके नियमरहित होते हैं, आठ. आठ आठ, आठ मिलाकर एक चरणमें ३३ वर्ण होते हैं अन्तमें नियम लगी होता है.
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
दोहा । द्वादशांगवानी विमल, गर्भित चारों वेद ।
ते किन कीन्हें कव भये, सो सब वरनों भेद ॥ १५ ॥ ॐ युगलधर्म रचना कहों; कुलकर रीति वखान । ऋषभदेव ब्रह्मा कथा, सुनहु भविक धर कान ॥ १६॥
युगलधर्मयथा,-चौपाई। प्रथमहिं जुगलधर्म है जैसा । गुरुपरसाद कहहुँ कछु तैसा ।।। जन्महिं जुगलनारिनर दोऊ । भाई बहिन न मानै कोऊ ॥१७॥
दोहा। सुरसे सीरे सोमसे, बहुरागी बहुमित्र । होहिं एकसे जुगल सब, कौतूहली विचित्र ॥ १८ ॥
मनहरण। सबहीके चित्त अतिसरलस्वभावी नित्त,
सबहीके थिरचित्त कोऊ न सुगुलिया । हिये पुण्यरसपोष सहजसंतोष लिये, __गुननके कोष दुखदोषके उगैलिया ॥ फोऊ नहिं लरै कोऊ काहूको न धन हरै, ___ कोऊ कबई न करै काहूकी चुगलिया । समतासहित संकलेशतारहित सब,
सुखिया सदीव ऐसे जीव हैं जुगलिया ॥१९॥
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१ उतावल. २ उगलनेवाले. वचन करनेवाला. मल्ललल
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बनारसीविलासः xxmmmmmmwwwwwmamarrrrrrrrrrr.
भूपन नवीन वन्त्र मलहीन सत्रहीके,
घर घर निकट कल्पतरूवाटिका! नाहीं रागद्वेषभाव नाहीं बंधको बढ़ाव,
नाहीं रोग ताप न बिलोंके कोऊ नाटिका ।। विविधपरिग्रह सबके घर देखिये पै,
काहूके न पोरि परद्वार न कपाटिका । अलपबहारी सब मृदुतनधारी सत्र, सुंदरअकारी सब ऐसी परिपाटिका ॥ २०॥
दोहा। घर घर नाटक होहिं नित, घर घर गीत संगीत । कवहूं कोउ न देखिये, बदनपीत भयभीत ॥ २१ ॥
मनहरण। जिनके अलप संकलप विकलप दोऊ,
थोरो मुखजलेप अलपअहमेवता । जिनके न कोऊ अरि दीरघ शरीर घरि,
त्रिपतिकी दशा धेरै विपति न येता ॥ जिनके विषै वहाव पल्योपमतीनआव,
सवै नर राव कोऊ काहूको न सेवता । १ मकानका भागेका भाग. २ कियाइ, पाला. मोशन मुन्न. ४ बोलना (मितभाषि). ५ अहंपना. अनुनय करना तीन पत्यती आयु.
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ऐसे भद्रमानुष जुगलअवतारपाय,
करि करि भोग मरि मरि होहिं देवता ॥ २२ ॥ जिनके जनम माहिं मातपिता मर जाहिं,
व्यापै न वियोग दुख शोक नहिं धरना।। अपने अंगूठाको अमृतरसपान कर,
जिनको अपनो तन पर्द्धमान करना । अन्तकाल जिनको असातावेदनी न होय,
छींक आये अथवा जमाई आये मरना। जिनको शरीर खिर जाय ज्यों कपूर उड़े, ऐसो जिनवानीमें जुगलधर्म वरना ॥ २३ ॥
चौपाई। | जुगलधर्म जब लेय मरोरा । बाकी काल रहै कछु थोरा ॥ प्रगटहिं तहां चतुर्दशप्रानी । कुलकर नाम कहा- ज्ञानी ॥२४॥
सव सुजान सवकी गति नीकी । सव शंका मेटहिं सर्वजीकी। - होहिं विछिन्न कल्पतरु ज्योज्यों।कुलकर आगम भाषहिं त्योंत्यो।
दोहा। कयो सबनि भरि मरि जनम, हरि हरि भांति कहाव । धरि धरि तन मरि मरि गये, करि करि पूरण आव ॥२६॥ इहिविधि चवदह मैनु भये, कछु कछु अन्तरकाल । तीन ज्ञान संयुक्त सव, मति श्रति अवधि रसाल ॥२७॥
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१ कुलकर. २ जीवोंकी.
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वनारसीविलासः
पाई। से तेरह मनुके नाव जु आने । नाभिराय चौदहें बनाने ॥ मरुदेवी तिनकी वरनारी । शीलवंत सुंदरि सुकुमारी॥ २८ ॥ ताके गर्भ भये अवतारी । ऋपभदेवजिन समकितयारी । तीनज्ञान संयुक्त मुहाये । अगणित नाम जगतमें गाये ॥२॥
ऋपमदेव कथन:
दोहा।
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ऋपभदेव जे जे दशा, घरी किये जे काम। ते ते पदगर्भित भये, प्रगट जगतमें नाम ॥ ३०॥ जे ब्रह्माके नाम सब, जगतमाहिं विख्यात ।। ते गुणसों करतूतिसों, ऋषभदेवकी बात ॥ ३१ ॥
चापाई। जनमत नाम भयो शुभवेला । आदिपुरुष अवतार अकेला ॥ * मातापिता नाम जब राखा। ऋषभकुमार जगत सब भाखा ३२
नाभि नाम राजाके जाये । नाभिकमलउत्पन्न कहाये ॥ इन्द्र नरेन्द्र करें जब सेवा। तब कहिये देवनको देवा ॥३३॥
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वणव सम्प्रदाय कल्पना की है कि श्रीशगजीने जर पृथिवी राके पेट में रखली, तब प्रधाजीने धवनारे इन्हें इंद्रा वनसके पार से सोतेहुये मिले, तब इनके पेट में सन्देह किया. आगजीने जाने पेटनें । भई घुस जाने दिया और फिर मुह बंदकर निकलने नही दिया, तव प्रयानी , श्रीकृष्णकी नाभिमसे कमल उत्पन्न कर उसी नालने पृयिकाहन निकले तरसे नया नाभिकमलजन्यन्न कहलाये.
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९८ जैनग्रन्थरत्नाकरे . जुगलरीति तज नीति उघरता । ताते हैं ऋष्टिके करता ॥ असिमसिकृषिवाणिजके दाता । ताकारण विधि नाम विधाता क्रियाविशेष रची जग जेती । जगत विरञ्चि कहें प्रभु सेती जुगकी आदि प्रजा जब पाल। तब जग नाम मजापति ऑल ३५,
दोहा। कियो नृत्य काहू समय, नटी अप्सरा वाम । ॐ जगत कहै ब्रह्मा रचो, तिय तिलोत्तमा नाम ॥ ३६॥
चौपाई। गुरुविन भये महामुनि जब हीं । नाम स्वयंभू प्रगटोतवहीं॥ सध्यानारूढ़ परमतप साधे । परमइष्ट कह जगत अराधे ॥३॥ भरतखंडके प्राणी जेते । प्रजा भरतराजाके तेते।
भरतनरेश ऋपभकी साखा । ताते लोक पितामह भाखा ३८ * केवलज्ञानरूप जव होई । तब ब्रह्मा मापै सब कोई ॥ * कंचनगढ़गर्भित जग भासै । नाम हिरण्यगर्भ परकास ॥३९॥
दोहा। कमलासनपर चैठिके । देहिं धर्म उपदेश । चमर छन्न लख जग कहै । कमलाशन लोकेश ॥ ४०॥
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चौपाई।
आतमभूमि रूप दरसावै । तबहिं आत्मभू नाम कहावै ॥ सकलजीवकी रक्षा भाखै । नाम सहस्रपातु जग राखै ॥४१॥.
देते हैं. २ रचो अर्थात् मन्न हुआ.
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बनारसीविलासः
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समवसरनमहिं चौमुखि दीसे । चतुरानन कह जगत अनीस ॥ २ अक्षरविना वेदयुनि भासे । रचना रच गणधर परगास ४२ चारवेद कहिये तब सेती । द्वादशांगकी रचना गती ॥ जवधुनि सुनि अनंतता गहिये। तब प्रमु अनंतातमा कहिये १३:
आदिनाथआदीश्वर जोई । आदि अन्तविन कहिये सोई ॥ * करै जगत इनहींकी पूजा । ये ही ब्रह्म और नहिं दूजा ४४
जवलों जीव मृपामग दौरे । तबलों जाने ब्रह्मा औरै ॥ जब समकित नैननसों सूझ ब्रह्मा ऋषभदेव तव वझै ४५
दोहा। __ आदीश्वर ब्रह्मा भये, किये वेद जिन चार । नामभेद मतभेदसों, बढी जगतमें रार ॥ १६॥
ब्रह्मलोक कथनः-चौपाई। ने और उक्ति मेरे मन आवै । सांचीगत सबनको माये ॥ ब्रह्मा ब्रह्मलोकको वासी । सो वृत्तान्त कहाँ परकासी॥४७॥
कुलिया। 5 ऊपर सब सुरलोकके, ब्रह्मलोक अभिराम ।
सो सरवारयसिद्धि तमु, पंचानुत्तर नाम ।।
पंचानुत्तर नाम, थाम एका अवतारी । 1 तहां पूर्वभव बसे, ऋषमजिन समक्रितधारी ॥
ब्रह्मलोकसों चये, भये ब्रह्मा इहि भूपर । तात लोक कहान, देव ब्रह्मा सब ऊपर ॥ १८ ॥
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जैनग्रन्थरलाकरे
चौपाई। आदीश्वर युगादि शिवगामी । तीनलोकजनअंतरजामी || ऋषभदेव ब्रह्मा जगसाखी । जिन सव जैनधर्मविधि भाखी ४९ . ऋषभदेवके अगनितनाऊ । कहीं कहां लौं पार न पाऊं ॥ वे अगाध मेरी मति हीनी । तातें कथा समापत कीनी ॥५०॥
पदपद। ३ इहिविधि ब्रह्मा भये, ऋषभदेवाधिदेव मुनि ।
रूप चतुर्मुख धारि, करी जिन प्रगट वेदधुनि ॥ तिनके नाम अनंत, ज्ञानगर्भित गुनगूझे ।
मैं तेते वरणये, अरथ जिन जिनके बूझे ॥ में यह शब्दब्रह्मसागर अगम, परमब्रह्म गुणजलसहित । किमि लहै बनारसि पार पद, नर विवेक भुजवलरहित ॥५१॥
इति वेदनिर्णयपंचासिका.
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अथ त्रेशठशलाकापुरुषोंकी नामावली,
वस्तुछन्द |
नमो जिनवर नमो जिनवरदेव चौवीस ।
१०१
नरद्वादश चक्रधर, नव मुकुन्द नव प्रतिनारायण । नव इलधर सकल मिलि, प्रभु त्रेशर शिवपथपरायण ॥ ए महंत त्रिभुवनमुकुट, परमधरमधनधाम । ज्यों ज्यों अनुक्रम अवतरे, त्योंत्यों वरनों नाम ॥ १ ॥
सोरठा । क्रेई तद्भव सिद्ध निकटभव्य केई पुरुष ।
मृपाठि उरविद्ध, लुमति शलाकाघर सकल ॥ २ ॥
वस्तुछन्द
ऋषभजिनवर ऋषभजिनवर भरतचकीश । श्रीअजित जिनेश हुव, सगरचति संभवतीर्थकर । अभिनंदन सुमति जिन, पद्मप्रभ ग्रुपास श्रीशंकर || श्रीचन्द्रमभु सुविध जिन, शीतल जिन श्रेयांश । अभ्वग्रीव प्रतिहर मयो, हलघर विजय सुवंश || ३ || सोरठा ।
हरि त्रिपृष्टि जिन जाय, वासुपूज्य जिन द्वादशम | तारक प्रतिहरि वाय, हलधर अचल द्विपुष्टि हरि ॥ ४ ॥
वस्तुछन्द ।
विमल जिनवर विमल जिनवर मे प्रतिविष्णु ।
५ मेरक.
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jiotstatutatutekotatekstatutiststatekt.kirittent.ties ३१०२ जैनग्रन्थरलाकरे
....... ameerunanam वल धर्म स्वयंभूहरि, जिन अनंत मधु प्रतिदामोदर ।
वल सुप्रभ नाम हुव, पुरुषोत्तम हरि तामु सोदर ॥ __धर्म जिनेश निशुंभ प्रति, नारायण नरभेस। राम सुदर्शन नाम हुव, हरि नरसिंह नरेस ॥ ५॥
सोरा। __ मनाम चक्रेश, चक्री सनतकुमार हुव । चक्री शांति नरेश, भयह शांति जित शांतिकर ॥ ६॥
वस्तुछन्द । कुंथु चक्री Qथु चक्री, कुंथु सर्वज्ञ। अर सार्वभौम हुव, अर जिनेश महलाद प्रतिहरि । चलभद्र सुनंदि हुव, पुंडरीक हरि बंधु तासु घर ॥ सार्वभौम सुभौम हुव, वलि प्रतिहरि अवतार । नन्दिमित्र वलदेव हित, केशव दत्तकुमार ॥ ७ ॥
सोरठा। पदम चक्रि जिन मल्लि, विजयसेन पटखंडजित । मुनिसुव्रत हरि अलि, चक्रवर्ति हरिपेण हुव ॥ ८ ॥
वस्तुछन्द । भयह रावण भयह रावणनाम, प्रतिकृष्ण । रघुनन्दन राम हुव, वासुदेव लक्ष्मण गणिजै । नमि जिनवर नेमि जिन, जरासंध प्रतिहरि भणिजै ॥
धर्मप्रभ. २ मधुकैटभ. ३ सहोदर, भाई (हलधर) ४ मघवा. ३५ देवदत्त. ६ बयसेन.
सलमान
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बनारसीविलासः
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हलधर पदम मुरारि हरि, ब्रह्मदत्त चक्रीस ।. पास जिनेसुर वीर जिन, ये नर तीनंत्रिवीस ॥ ९॥
सोरा। त्रिभुवनमाहिं उदार, त्रेशठ पद उत्कृष्ट जिय । भाविभूत उपचार, वन्दै चरण वनारसी ॥ १० ॥
तीर्थकर नामावली-पट्पद । ऋषभ अजित संभव जिनंद, अभिनंद मुमति घर । श्रीपदमप्रम श्रीमुपास, चन्द्रप्रम जिनवर ।। सुविधिनाय शीतल श्रेयांसमभु वासुपूज्य र । विमल अनन्त सुधर्म शांति जिन कुंथुनाथ अर ॥ प्रभु मल्लिनाथ त्रिभुवनतिलक, मुनिसुव्रत नमि नेमि नर । पारस जिनेश वीरेश पद, नमति बनारसी जोर कर ॥११॥
चक्रवर्तिनाम-दोहा। भरत सगर मधवा सनत, कुँवर शांति कुंथेश । * अर सुभौम पदमारुची, जय हर्षेण ब्रह्मेश ॥ १२ ॥
प्रतिनारायण नाम दोहा । अश्वग्रीव तारक मधू, मेरु निशुंभ प्रहलाद । बलिराजा रावण जरा, सन्ध सुप्रतिहरिवाद ॥ १३ ॥
नारायणनाम-दोहा। त्रिपिप द्विपिष्ट खयंभु पुरुषोत्तम नरसिंहेश ।
पुण्डरीक दत्ताधिपति, लछमण हरिमधुरेश ॥ १४ ॥ मी श्रीकृष्ण (२) २०१०o++३-४३.६ दलदेव, rat
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zameniano wao ___ वलभद्रनाम-दोहा। विजय अचल बल धर्मधर, सुप्रभ सुदर्शन नाम । सुनंदि नंदिमित्रेश रघु, नाथपदम नवराम ॥ १५ ॥
इति श्रीशठिशलाकापुरुषोंकी नामावली.
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___ अथ मार्गणाविधान लिख्यते.
दोहा। वन्दुहुं देव जुगादिजिन, सुमरि सुगुरु मुखभाख । चवदह मारगणा कहहुं, वरणहुं वासठ साख ॥ १॥
चौपाई। सजम भव्य अहौर काय । दरशेन ज्ञान जोग गति कार्य लेश्या समेकित सैनी वेद । इन्द्रिय सहितचतुदर्शभेद ॥ २ ॥ ए चौदह मारगणा सार ।इनके वासठ भेद उदार ॥ बासठ संसारी जिय भाव । इनहिं उलंधि होय शिवराव ॥३॥ संजम सात भव्य द्वै भाय । द्विविधि अहारी चार कषाय ॥
दर्शन चार आठविधि ज्ञान । जोग तीन गति चारविधान १ ३ पट काया लेश्या घट होय । पट समकित सैनीविधि दोय ॥ वेद तीनविधि इन्द्रिय पंच । सकल ठीक गति वासठ संच ५। इनके नाम मेद विस्तार । वरणहुं जिनवानी अनुसार ।। बासठरूप खांग धर जीव । कर नृत्य जगमाहिं सदीव ॥६॥
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प्रथम असंजम रूप विशेष । देशसंचमी दूजो भेष | तीजो सामायिक मुखधाम । चौथा छेदउथापन नाम ॥ ७॥ पंचम पद परिहारि विशुद्धि । सूक्षम सांपराय पट बुद्धि ॥ जथाख्यात चारित सातमा ! सातों स्वांग धरै आतमा ॥ ८ ॥ भव्य अभव्य स्वांग घर दुधा । कर जीव जग नाटक मुधा ॥ अनहारक आहारी होय । नाचे जीव स्वांग घर दोय ॥९॥ कवहूं क्रोध अगनि लहलहै । कबहूं अष्ट महामद गहै ॥ कवई मायामयी सरूप । कवहूं मगन लोभ रसकूप ॥१०॥ चार कपाय चतुर्विध भेष । घर जिय नाटक कर विशेष ।। कहूं चक्षुदर्शनसों लखै । कहुं अचक्षुदर्शनसों चखे ॥११॥ कहूं अवधि दर्शन सु प्रयुंज । कहूं युकेवलदरशन पुंज ॥ धर दर्शन मारगणा चारि । नाटक नटै जीव संसारि ॥ १२॥ कुमतिज्ञान मिय्यामति लीन । कुश्श्रुति कुआगममें परवीन ॥ , धेरै विभंगा अवधि अबान । मुमति ज्ञान समकित परवान १३ :
सुश्चतिज्ञान परमागम सुणे । अवधि ज्ञान परमारथ मुणे ॥ मनपर्जय जानहिं मनभेद । केवलज्ञान प्रगट सब वेद ॥१४॥
एही आठ ज्ञानके अंग । नचै जीव इनरूप रसंग ॥ * मनोजोगमय होय कदाचि । बोल वचन जोगसो राचि॥१५॥
कायजोगमय मगन स्वकीय । नाचे त्रिविधि जोग धर जीया ॐ सुरगति पाय करै सुखभोग । समसुखदुख नरगति संजोगारा
बहुदुख अल्पमुखी तिरजच । नरक महादुन्न है सुख रच ॥ में चहुंगति जम्मन मरण कलेस । नटें जीव नानारसमेस ॥१॥
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१०६ जैनग्रन्थरत्नाकरे
पृथिवी काय देह जिय धेरै । अपकायिकमय है अवतरै ॥ * अगनिकायमहिं तपत स्वभाय । वायुकायमहिं कहिये वाया॥१८॥ * वनसपती रूपी दुखमूल । लहि त्रसकाय धरै तन थूल ॥
घटकाया षटविधि अवतार । धरि धरि मरै अनन्ती बार १९ । धेरै कृष्णलेश्या परिणाम । नीललेश्यमय आतमराम ॥ फिर धारै लेश्या कापोत । सहज पीतलेश्यामय होत ॥ २० ॥
चेतन पदमलेक्ष्य परिवान । करै शुकललेश्या रसपान ॥ ३ इहिविधि घट लेश्या पद पाय । जगवासी शुभ अशुभ कमाय २१ ॥ उधर मिथ्यात्व झूठ सरदहै । वमि समकित सासादन गहै ॥ | सत्य असत्य मिश्र समकाल । सीधे समकित क्षायक चाल २२ उपसम बोध धरै बहुवार । वेदै वेदकरूप विचार ॥ घर घट समकित स्वांग विधान करै नृत्य जियजान अजान २३ ।। | सैनीरूप असैनीरूप । दुविधिस्वांग जिय धरै अनूपं ॥ पुरुषवेद तृण अगनि उछाह । त्रियवेदी कारीसादाह ॥२४॥ वनदवदाह नपुंसकवेद । नटै जीव घर रूप त्रिभेद ॥ थावरमाहिं इकेन्द्री होय । बस संखादिक इन्द्रिय दोय॥२५॥ पिपीलिकादिक इन्द्री तीनि । चौरिन्द्रिय जिय भ्रमरादीनि ॥ पंचेन्द्री देवादिक देह । सब वासठि मारगणा एह ॥ २६ ॥
जावत जिय मारगणारूप । तावत्काल बसै भवकूप ॥ अजब मारगणा मूल उछेद । तब शिव आपै आप अभेद॥२७॥
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बनारसी विलासः
दोहा।
ये बासठ विधि जीबके, तनसम्बन्धी भाव | तज तनवृद्धि, बनारसी, कीजे मोक्ष उपाव ॥ २८ ॥ इति बासर मार्गणा विधान.
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१०७
अथ कर्म प्रकृतिविधान लिख्यते.
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परमशंकर परमशंकर, परमभगवान
परवा अनादि शिव, अज अनंत गणपति विनायक | परमेश्वर परमगुरु, परमपंथ उपदेशदायक ॥
इत्यादिक बहु नाम घर, जगतबंध जिनराज । जिनके चरण बनारसी, बंदै निजहितकाज ॥ १ ॥ दोहा ।
नमो केबली बचन, नम आतमाराम ।
कहीं कर्मकी प्रकृति सव, भिन्न भिन्न पद नाम ॥ २ ॥ चौपाई. (१५ मात्रा)
एकहि करम आठविधि दीस । प्रकृति एकसी अड़तालीस || तिनके नाम भेद विस्तार | वरणहुं जिनवाणी अनुसार ॥ ३ ॥ प्रथमकर्म ज्ञानावरणीय | जिन सत्र जीव अज्ञानी की ॥ द्वितिय दर्शनावरण पहार । जाकी ओट जलन करता||१|| तीजा कर्म वेदनी जान | तासों निराबाध गुणहान || चौथा महामोह जिन भनै । जो समकित थरु चारित ह || ५ ||
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पंचम आवकरम परधान । हनै शुद्ध अवगाहप्रमान ।। छठा नामकर्म विरतंत । करहि जीवको मूरतिवंत ॥ ६ ॥ गोत्र कर्म सातमों बखान । जासों ऊंच नीच कुल मान ॥ अष्टम अन्तराय विख्यात । करै अनन्तशकतिको घात ॥ ७॥
दोहा। ए ही आठों करममल, इनमें गर्भित जीव । इनहिं त्याग निर्मल भयो, सो शिवरूप सदीव ॥ ८ ॥
चौपाई। कहो कर्मतरु डाल सरीस । प्रकृति एकसो अड़तालीस ॥ मितिज्ञानावरणी जो कर्म । सो आवरि राखै मतिधर्म ॥९॥
श्रतिज्ञानावरणी बल जहां । शुभश्रतज्ञान फरै नहिं तहां ॥ अवधिज्ञानआवरण उदोत। जियको अवधिज्ञान नहिं होत१० मनपरजयआवरण प्रमान । नहिं उपजै मनपर्नय ज्ञान ॥ केवलज्ञानावरणी कूप । तामहिं गर्भित केवलरूप ॥ ११ ॥
वरणी ज्ञानावरणकी, प्रकृति पंचपरकार।
अब दर्शन आवरण तरु, कहहुं तासु नव डार ॥ १२ ॥ चक्षदर्शनावरणी बंध। जो जिय कर होहि सो अंध।
अचखुदर्शनावरण यंधेव । शवद फरस रस गंध न बेच॥१३॥ * अवधिदर्शनावरण उदोत । विमल अवधिदर्शन नहिं होत ॥
केवलदर्शआवरण जहां । केवलदर्शन होय न तहां ॥१४॥ अत्यानगृद्धि निद्राबश परै । सो प्राणी विशेष बलधरै ॥ ३ उठि उठि चलै कहै कछु बात । करै प्रचंड कर्मउतपात॥१५॥ लामा
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बनारसीविलासः १०९ निद्वानिद्रा उदय स्वकीव । पलक उघाट सकै नहिं जीय ॥
प्रचलापचला जावतकाल । चंचल अंग बहै मुख लाल १६ * निद्रा उदय जीव दुख भरे । उठ चालै बैठे गिरि परे ॥ रहै आंख प्रचलासों घुली । आधी मुद्रित आधी खुली १७,
सोवतमाहिं सुरति कछु रहै । वारवार लघु निद्रा गई ॥ - इति दर्शनावरणि नवधार । कहों वेदनी द्वयपरकार ॥ १८॥ ६
दोहा। साता करम उदोतसों, जीव विषयमुख बेद। करम असाताके उदय, जिय वेदै दुख खेद ॥ १९ ॥
चौपाई। अब मोहिनी दुविधिगुरुमनै । इक दरशन इक चारित हुन । दर्शनमोह तीन विधि दीस । चारितमोह विधान पचीस २० प्रथम मिथ्यातमोहकी दौर । जिय सरदहै औरकी और ॥ दूजी मिश्रमोड़की चाल । सत्य असत्य गहें समकाल ॥२१॥ समकितमोह तीसरी दशा । करै मलिन समरितकी रसा अव कपाय सोलहविधि कहाँ। नोकपाय नवविधि सरदहों २२ : प्रथमकपाय कहावै कोप । जाके उदय छिमागुण लोप । द्वितियकपाय मान परचंड । विनय विनाश कर शतखटा२३॥ तीजी मायारूप कपाय । जाके उदय सरलता जाय ॥ लोभकपाय चतुर्थमभेद । जासु उदय संतोष उछेद ॥ २४ ॥
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दोहा। ये ही चारकषाय मल, अनुक्रम सूक्षम थूल । 1. चारों कीजे चौगुने, चन्द्रकला समतूल ॥ २५ ॥
अनन्तानुबंधीय कषाय । जाके उदय न समकित थाय ॥ अपत्याख्यानिया उदोत । पंचमगुणथानक नहिं होत॥२६॥ प्रत्याख्यान कहावै सोय । जहां सर्वसंयम नहिं होय ॥ 1 सो संज्वलन नाम गुरु भने । यथाख्यातचारित जो हनै २७ क्रोध मान माया अरु लोम । चारों चारचारविधि शोभ ॥ ए कषाय सोलह दुखधाम । अब नव नोकपायके नाम ॥२८॥ रागद्वेषकी हांसी जोय । हास्यकषाय कहावै सोय ॥ . सुखमें मगन होय जिय जहां । रतिकषाय रस वरसै तहा२९ ।। जहां जीवको कछु न सुहाय । तहां मानिये अरति कपाय ॥
थरहर कंपै आतमराम । जामहिं सो कपाय भय नाम ॥३०॥ 1 रुदन विलाप वियोग दुख, जहां होय सो सोग। * जहां ग्लानि मन ऊपजै, सो दुर्गछा रोग ॥ ३१ ॥ नगर दाह सम परगट दीस । गुप्त पैजावा अग्नि सरीस ॥ महा कलुषता धरें संदीव । वेद नपुंसकधारी जीव ॥ ३२ ॥
अब वरनों तियवेदकी, रचना सुनि गुरु भाष । कारीसाकीसी अगनि, गर्मित छल अभिलाष ॥ ३३ ॥
LALAMARJAWAHAMARAL
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१ समतुल्य बरावर. २ होय 'गुर्जर'. ३ अवा ईंट व खपरोंका.
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वनारसीविलासः ज्यों भारीसाकी अगनि, धुआँ न परगट होय।। मुलग सुलग अन्तर दह, रहे निरन्तर सोय ॥ ३४ ॥ त्यो वनिताबेदी पुरुष, बोले मोटे बोल । वाहिर सब जग बश कर, भीतर कपटकलोल ॥ ३५ ॥ कपट लटपसों आपको, करै कुगतिके बंध । पाप पंथ उपदेश दे, कर औरको अंध ॥ ३६॥ । आपा हत औरन हत, वनितावेदी सोय । अब लक्षण ताके कहो, पुरुष वेद जो होय ॥ ३७ ॥ ज्यों तृण पूलाकी अगनि, दीखै शिखा उतंग ।।
अल्परूप आलाप घर, अल्पकालमें मंग ॥ ३८ ॥ तसे पुरुषवेद धर जीव । धर्म कर्मम रहे सदीय ॥ महानगन तप संजम माहिं । तन ताचे तनको दुख नाहिं ॥ ३९॥ चित उदार उद्धत परिणाम । पुरुषवेद घर आतमराम ॥ तीन मिथ्यात पचीस कपाय । अट्ठाईस प्रकृति समुदाय ॥ ४० ॥ अब सुन आयु चार परकार । नर पशु देव नरक थिति धार ॥ मानुष आयु उदय नर भोग । लह तिरजंच आयु पशु जोग ॥११॥ * देव आयु सुरवर विन्यात । नरक आयुसो नरक निपात ।।
वरनी आयुक्रर्मकी वान । नामकर्म अब कहीं वसान ॥ ४२ ॥ पिंड प्रकृति चौदह परकार । अट्टाईम अपिंड विस्तार ॥ पिंडभेद पंसद परशन्न । मिलि तिराणवे होहि ममन्न ॥ १३॥
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ते तिराणवै कई वखान । पिंड अपिंड वियालिस जान ॥ प्रथमपिंड प्रकृती गतिनाम । सुर नर पशु नारक दुखधाम ।। ४४, सुरगतिसों सुर गेह, नरशरीर नरगति उदय । पशुगतिसों पशुदेह, नरकवसावै नरक गति ॥ ४५ ॥
चौपाई। चहुंगति आनुपूरबी चार । द्वितिय पिंड प्रकृती अवधार ॥ मरण समय तज देह वकीय । परभव गमन करै जब जीव ॥४६ आनुपूरवी प्रकृति पिरि । भावीगतिमें आने घेरि ।। आनपूरवी होय सहाय । गहै जीव नूतन परजाय ॥ १७ ॥ तृतिय प्रकृति इन्द्रिय अधिकार । इग दुग तिग चदु पंच विचारा ॐ फरसरसन नासा दृग कान । जथाजोग जिय नाम बखाना॥४८॥ ॐ तन इन्द्रिय धारै जो कोय | मुख नासा हग कान न होय ॥
सो एकेन्द्रिय थावर काय। भूजल अगनि वनस्पति वाय ॥४॥ जाके तन रसना द्वय थोक । संख गिडोला जलचर जोक ॥ इत्यादिक जो जंगम जन्त । ते द्वै इंद्री कहै सिद्धन्त ।। ५० ॥
जाके तन मुख नाक हजूर । धुन पिपीलिका कानखजूर ॥ ३ इत्यादिक तेइन्द्रिय जीव । आंख कानसों रहत सदीव ॥ ५१ ॥
जाके तन रसना नाशा आंखि । विच्छु सलभ टीड अलि माखि इत्यादिक जे आतमराम । ते जगमें चौइंद्री नाम ॥ ५२ ॥
देह रसन नासा हग कान । जिनके ते पंचेद्री जान | सुनर नारकी देव तिरजंच । इन चारहुके इन्द्री पंच ।। ५३ ॥
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बनारसीविलासः ११३ चौथी प्रकृति शरीर विचार । औदारिक वैक्रियक अहार ॥
जस कार्माण मिल पंच । औदारिफ मानुप तिरजच ॥ ५ ॥ । वैक्रिय देव नारकी धरै । मुनि तपबल आहारक करे ॥ तैजस कार्माण तन दोय । इनको सदा घर सबकोय ॥ ५५॥ जैसी उदय तथा तिन गही । चौथी पिंड प्रकृति यह कही। अब बंधन संघातन दोय । प्रकृति पंचमी छठवीं सोय ॥५६॥ बंधन उदय काय बंधान । संघातनसों दिढ संधान ॥ दुहुँकी दश्न शाखा द्वय खंध | जथाजोग काया संबंध ।। ५७॥ अब सातमी प्रकृति परसंग । कहाँ तीन तन अंग उपंग ॥ औदारिक वैक्रियक अहार । अंग उपंग तीन तनधार ।। ५८॥
दोहा। सिर नितंब उर पीट करि, जुगल जुगल पद टेक।। शु आठ अंग ये तनविषै, और उमंग अनेक ॥ ५९॥
तैजस कार्माण तन दोय । इनके अंग उपंग न होय ॥ ॐ कहहुं आठमी प्रकृति विचार । षट् संस्थान नए आकार ६०
जो सर्वंग चारु परधान । सो है समचतुरन संठान ।। ऊपर थूल अधोगत छाम । सो निगोधपरिमंडल नाम ॥६॥ हेट थूल ऊपर कृश होय । सातिक नाम कहावें सोय ॥ कूवर सहित वक्र वपु जानु । कुवज अकार नाम है ना।२॥ लघुरूपी लघु अंग विधान ! सो कहिये वामन संटान ॥ जो सर्वग असुंदर मुंड । सो संठान कहावै हुंद ।। ६३ ॥ है
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११४ जैनग्रन्थरनाकरे कही आठमीप्रकृति छभेद । अब नौमी संहनन निवेद ॥ है संहनन हाड़को नाम । सो पविधि श्री तन धाम ||२|| वन कील कीलित संधान । अपरि वन्नपट्ट बंधान ॥
अंतर हाड बज्रमय वान । सो है वन्नवृपमनाराच ॥ ३५ ॥ भी जहँ सब हाइ बनमय जोय । वनमेग्न सो अविचल होय ॥ 5. ऊपर वेढरूप सामान । नाम यज्रनाराच बखान ॥६६॥
वन समान होहिं जहँ हाड | ऊपर बजरहित पट आड || वनरहित कीलीसों विद्ध । सो नाराच नाम परसिद्ध ॥६॥ ॐ जाके हाड़ बज्रमय नाहिं । अर्द्धवेध कीली नसमाहि ॥ 7 ऊपर वेठबंधन नहिं होय । अर्द्धनराच कहावै सोय ॥ ६८॥
जहां न होय वज्रमय हाइ । नहिं पटबंधन कीली गाड ॥ 1 फीली विन दिढ बंधन होय ! नाम कीलिका कहिये सोय६९
जहां हाइसों हाड़ न वंधै । अमिल परस्पर संधि न संधै ॥ ऊपर नसाजाल अरु चाम । सो सेवट संहनन नाम || ७० ये संहनन छविधि वरणई । नवमी प्रकृति समापति भई ॥ दशमी प्रकृति गमन आकाश । ताके दोय भेद परकाश ७१
दोहा। शुभविहाय गतिके उदय, भली चाल जिय धार । अशुभविहाय उदोतसों, ठानै अशुभ विहार ।। ७२ ॥
परिछन्द । अब कहूं ग्यारमी प्रकृतिसंच । जो वरणभेद परकार पंच ॥ । सित अरुणपीत दुति हरित श्याम । ये वर्ण प्रकृतिके पंच नाम ७३
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बनारसीविलासः ५ जो वर्ण प्रकृति जाके उदोत । ताको गरीर तिह वर्ण । ॐ रस नाम प्रकृति वारमी जान। सो पंचभेद विवरण बखान ७४ * का मधुर तिक्त आमल कपाय । रसउदय रसीली होय काय
जाको जो रस प्रकृती उदोत। ताके तन तेसो खाद होत ७५. है तेरही प्रकृति गँधमयी होय । दुर्गध मुगन्ध प्रकार दोय ॥
जो जीव जो प्रकृति कर बंध । तिह उदय तालु तन सोइ गंध७६
अब फरस नाम चौदवीं बानि । तिस कहों आठ शाखा वग्वानि । * चीकनी रुक्ष कोमल कटोर । लघु भारी शीतल तल जोर ॥७७॥
दोहा। प्रकृति चीकनीके उदय, गहै चीकनी देह । रूखी प्रकृति उदोतसों, रुखीकाया गेह ॥ ७८ ॥ कठिन उदयसो कठिन तन, मृदु उदोत मृदु अंग। तपतउदयसों तपततन, शीतउदय शीतंग ॥ ७९ ॥
पद्धरि छंद। जह भारी नाम परकृति उदोत । तहँ भारी तनधर जीव होत ॥ लघुमकृति उदयधर जीव जोय। अति हई काया धेरै सोय८०
ए पिंडप्रकृति दशचार भाखि । इनहींकी पैंसठ फही सास्ति । म अब अठ्ठावीस अपिण्ड ठानि । तिनके गुणरूप कहों वखानि८१ भी जब प्रकृति अगुरुलघु उदय देय। तब जीव अगुरुलघु तन घरेय में उपघात उदय सो अंग व्यापाजासों दुख पावे जीय आप॥८॥
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११६ जैनग्रन्थरलाकरे wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwrom परघात उदयसों होय अंग । जो करे औरको प्राण भंग ॥ उस्सासप्रकृति जब उदय देय । तव प्राणी सास उसास लेय ८३ आतप उदोत तन जथाभान । उद्योत उदय तन शशि समान है बस प्रकृति उदय धर जीव जोय । जंगम शरीरघर चलैसोय ८४ | थावर उदोतघर प्राणधार । लहि थिर शरीर न करै विहार ॥ असूक्षम उदोत लघु देह जास। सो मारै मेरै न और पास ८५/
बादर उदोत तन थूल होय । सवहीके मारे मरै सोय ॥ परजापति प्रकृति उदय करत । जिय पूरी परजापति धरत८६ जो प्रकृति अपोपत धरेय । सो पूरी परजापत न लेय ॥ प्रत्येक प्रकृति जाके उदोत।सो जीव वनस्पति काय होत ॥ ८७॥ जब तुचा काठ फल फूल पात । जहँ बीज सहित लियराशिसाता
जो एक देहमें जीव एक । सो जीवराशिकहिये प्रत्येक ।। ८८ ॥ । प्रत्येक वनसपति द्विविधिजान । सुप्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित बखान॥
जो धारैराशि अनन्तकाय।सो सुप्रतिष्ठित कहिये सुभाय ॥८९॥ १ जामें नहिं होय निगोदधाम । सो अप्रतिष्टित प्रत्येकनाम ॥
अव साधारणवनसपति काय। सो सूच्छम बादर द्विविधि थाय९० ३ सूच्छम निगोद जगमें अमेय । वादर यह दूजा नामधेय ॥
धरि भिन्न भिन्न कार्माण काय। मिलि जीव अनन्त इकत्र आय९१ - संग्रहहि एक नो कर्म देह । तिस कारण नाम निगोद एह ॥
सो पिण्ड निगोद अनन्तरास । जियरूप अनंतानंत भास ॥९॥
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___ बनारसीविलासः ११७ भर रहे लोकनभमें सदीव । ज्यों घामाहिं भर रहे घीव ॥ सूक्षम अरु चादर दोय सास्त्र । पुनि नित्य अनित्य दुमंद भाख ९३ . जो गोलकरूपी पंचधाम । अंडर खंडर इत्यादि नाम ॥ ते सातनरकके हेट जान । पुनि सकललोकनभमें वसान ॥९॥
दोहा। एक निगोद शरीरमें, जीव अनंत अपार । धेरै जन्म सब एकठे, मरहिं एक ही बार ॥ ९५ ॥ मरण अठारह वार कर, जनम अठारह बेव । एक स्वास उस्वासमें, यह निगोदकी टेव ॥ १६ ॥ एक निगोदशरीरम, एते जीव वखान । तीन कालके सिद्ध सब, एक अंश परिमान ॥ ९७ ॥
बढ़े न सिद्ध अनंतता, घटै न राशि निगोद । ___ जैसेके तसे रहे, यह जिनवचनविनोद ॥ २८ ॥
तातें वात निगोदकी, कह कहाँलो कोय । साधारण प्रकृतीउदय, जिय निगोदिया होय ॥ ९९ ॥
यह साधारण प्रकृतिलों, वरणी चौदह साख । * बाकी चौदह जे रहें, ते वरणों मुख भात ॥ १०० ॥
परिछन्द । . थिरप्रकृति उदयथिरता अभंग । अन्चिर उदोतलों अधिर अंग शुभप्रकृतिउदय शुभरीति सर्व । जहँ अशुभउदय तह अनुभव सौभागप्रकृति जाक उदोत । सो प्राणी सबको इष्ट होन। है दुर्भागप्रकृतिके उदय जीव ! सबको अनिष्ट लोग सदीय ।।२।। REETITION
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जहँ सुस्वरप्रकृति उदय वखान। तहँ कंठ कोकिला मधुरवान । जो दुस्वरप्रकृति उदोत धार । ताकी ध्वनि ज्यों गर्दभपुकार ॥३॥ आदेयप्रकृति जाके उदोत । ताको बहु आदर मान होत ॥ जब अनादेयको उदय होय । तव आदर भान करै न कोय ||४||
जसनामउदय जिस जीव पाहिँ। ताकी अस कौरति जगतमाहि॥ * अहँ प्रगट भालमहँ अजसरेख । तहँ अपजस अपकीरति विशेख ५ ।
निर्माणचितेरा उदय आय । सब अंगउपंग रचै बनाय ॥ 1 तीर्थकरनामप्रकृति उदोत । लहि जीव तीर्थकरदेव होत ॥६॥
दोहा। ये तिरानवे और दश, तनसंवन्धी आन । मिलहिं एकसोतीन सब, होहिं नामकी वान ॥ ७ ॥
चौपाई। नामप्रकृति संपूरण भई । पिंड अपिंड कही जो जुई। पिण्डपकृति चौदह बनि रही। तिनकी पैंसठ शाखा कही॥८॥ अठ्ठाइस अपिंड वरनई । ते सव मिलि तिरानवे भई ॥
वरनों गोतकरम सातमा । जासों ऊंच नीच आतमा ॥ ९॥ 3 ऊंचगोत उद्योत प्रवान । होवै जीव उच्चकुलथान ॥
नीचगोत फलसंगति पाय । जीव नीचकुल उपजै आय॥१०॥ ३ गोत्रकर्मकी द्वयप्रकृति, तेह कहीं बखानि ।
अतराय अब पंचविधि, तिनकी कहों कहानि ॥ ११ ॥
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बनारसीविलासः अंतराय अष्टम वटमार । सो है भद पंच परकार ॥ * अन्तराय तरुकी . डार । निहचे एक एक वियहार ॥ १२ ॥ * कहाँ प्रथम निहचकी यात । जान्नु ब्दय आतमगुण धान ॥ परगुन त्याग होहि नहिं जहां । दान अन्तराब कहि तहाँ १३ आतमतत्त्वलामकी हान । लामअन्तराई सो जान ॥ जबलों आतमभोग न होय । भोगअन्तराई है सोय ॥ ११ ॥ बारबार न जगे उपयोग । सो हैं अन्तराय उपभोग ॥ में अष्टकर्मको कर न जुदा । वीरज अन्तरायका उदा ॥ १५ ॥
निहचे कहीं पंच परकार । अब सुन अन्तगय विवहार ।। * छत्तीवस्तु कछु देय न सके । दान अन्तराई बल ढके ॥१६॥
उद्यम करै न संपति होय । लाभ अन्तराई है सोय ॥ विषयमोग सामग्री छती । जीव न भोग कर सके रती ॥१७॥
रोग होय के भोग न जुरै । भोगअन्तरायवल और में एक भोगसामग्री सार । ताको भोग जु वारंवार ॥ १८ ॥ * कीजे सो कहिये उपभोग । ताहू को न जुरे संजोग ॥ ॐ यह उपभोगघातकी कथा । वीरजअन्तराय मुन जथा ॥१॥ शक्ति अनंत जीवकी कही । सो जगमानाहिं दब रही ॥ जगम शक्ति कर्मआधीन ! कवई सबल कबहुं मनहीन ॥२०॥ तनइन्द्रियबल फुरै न जहां । वीरजअन्तराय है, तहां !! ताते जगतदशा परवान । नय राखी भानी भगवान ॥२१॥
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१२० जैनग्रन्थरत्नाकरे
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दोहा । ये वरणी व्यवहार की, अन्तराय विधि पंच ॥ अन्तर वहिर विचारतें, । संशय रहै न रंच ॥ २२ ॥ स्यादवाद जिनके वचन, । जो मानै परमान। सो जाने सव नयदशा, । और न कोऊ जान ॥ २३ ॥ सर्वधातियाकी प्रकृति, । देशघातियावान ॥
बाकी और अघातिया, । ते सब कहों वखान ॥ २४ ॥ । केवलज्ञानावरणी वान । केवलदरशआवरण जान ॥
निद्रा पंच चौकरी तीन । प्रकृती द्वादश लीजे चीन ॥ २५॥ - अनंतबंध अप्रत्याख्यान । प्रत्याखान चौक त्रिक जान ॥ सब मिथ्या मिश्रित मिथ्यात । ए इकचीस प्रकृति सव घात २६
दोहा। सर्वघातियाकी कहीं । विंशति एक वखान । अव वरणों छबीसविधि । देशघातिया वान ॥२७॥
चौपाई। केवलज्ञानावरणी विना । बाकी चार आवरण गिना ।। केवलदरशआवरण छोड़ । वाकी तीनों लीजे जोड़ ॥ २८ ॥ चारभेद संज्वलनकषाय । नवविधि नोकषाय समुदाय ॥ समयप्रकृति मिथ्यात वखान । अन्तरायकी पांचों वाना॥२९॥ ए छब्बीस प्रकृति सब भई । देशघातियाकी वरनई ॥ बाकी रही एकसौ एक । ते सब कही घाति अतिरेक ॥३०॥
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दोहा। द्विविधिगोत्र द्वय वेदनी । आयु चाराविधिजानि ।। मिल तिरानये नाम की एकोत्तरशत वानि ॥ ३१ ॥
चौपाई। जे घातहिं सब आतमदव । ते ही कहीं घातिया सर्व ॥ * जे कछु घात करहिं कछु नाहिं । देशयातिया ते इन माहिं ॥३२॥
जे न करहिं आतमवल घात । ते अपातिया कहीं विख्यात ॥
अब सुन पुण्यपापके भेद । भिन्न भिन्न सब कहो निवेद ३३ * इक सातावेदनी स्वभाव । नरकआयु विन तीनों आव ॥ * ऊंचगोत्र मानुपगति भली । मानुपआनुपूरवी रली ॥ ३४ ॥
सुरगति सुरानुपूरवि जान । जात पँचेन्द्री एक वखान ॥ पंच शरीर पंच संघात । बंधनसहित पंचसंगात ॥ ३५ ॥ * अंग उपंग तीनविधि भास । विंशति वर्ण गंध रस फास ॥ पहिला समचतुरन सँठान ! वनवृपभनाराच बखान ॥ ३६॥ भली चाल आतप उद्योत । पर परघात अगुरुलधु होन ॥ सास उसास प्रतेक प्रवान । त्रस बादर पर्यापन जान ॥३॥ थिर शुभ शुभग मुखर आदेय । जसनिर्माण तीर्थकर धेय ॥ 7 पुण्यप्रकृतिकी अडसट वान ! पापप्रकृति अब यही बयान३८ ॥ सर्वघातियाकी इकवीस | देशपातिवादी छन्नीस ॥ ये सैतालिस प्रकृती कहीं। बाकी और कहाँ जो रहीं ॥३॥
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प्रकृति असाता नीचकुल, नरकआयु गति दोय ।
पशु नारकि इन दुहुनकी, आनुपूर्वी जोय ॥ ४० ॥ चार जाति पंचेन्द्री विना । पंचसंहनन प्रथम न गिना॥ ॐ समचतुरसविन पंचअकार । वर्णादिक विंशति परकार ||११|| * बुरी चाल थावर उपघात । सूक्षम साधारण विख्यात ॥ अनादेय अपर्यापत दशा । दुर्भग दुस्वर अशुभ अपजशा ४२ अथिरसमेत एकसो वान ! ए सब पापप्रकृति परवान ॥ केती बंघ उदय केतीक । तिनकी बात कहों अब टीक||१३॥
दोहा। चारवंध वरणादि, वाकी सोलह नाहि । एक वैधमिथ्यातमें, द्वै गर्भित इसमाहिं ॥ १४ ॥ तनबंधन संघातकी, प्रकृति पंचदश जान । पंच बंध दश बंध विन, ये अठ्ठाइस वान ॥ १५ ॥ अट्ठाइसको बंध नहि, बंध एकसोवीस || इनमें दोय बढाइये, होहिं उदयवावीस ॥ ४६॥
चौपाई। बंध उदय विशेष यह बात । एक मिथ्यात तीन मिथ्यात ॥ एई दोय अधिक परनई । प्रकृति एकसवाविस भई ॥ १७॥ अब विपाक बरनों विधि चार । पुद्गल जीव क्षेत्र भव धार ॥ जे पुद्गलविपाककी वान । ते वासठविधि कहों वखान ॥४८॥
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बनारसीविलासः १२३४ पंच शरीर बंधसंघात । अंग उपंग अठारह बात ॥ छह संहनन छहों संठान । वर्णादिक गुन वीस यस्खान ||४|| थिर उदोत आतप निरमान । अधिर अगुल्लघु अशुभ विधान साधारण प्रतेक उपधात । शुभ परघात लबासट बात ॥५०॥ जीव विपाक अठत्तर गनी । द्विविधि गोत्र द्वयविधि वेदनी ॥ सर्वघात अरु देशविघात । संतालीस प्रकृति बिल्यात ॥११॥ तीर्थकर वादर उम्वास । सूक्षम परजापत परकास || ॐ अपरजापति मुस्वर गेय । दुस्वर अनादेय आदेय ॥ ५२ ॥ जस अपजस बस थावर वान । दुर्भन शुभग चाल द्वयजान इन्द्री जाति पंचविधि गही । गति चारों एती सब फही॥५३॥
दोहा। जीवविपाकीकी कही, प्रकृति अठत्तर टौर ॥ क्षेत्रविपाकी अब कहों, भवविपाकिनी और ॥ ५ ॥ आनुपूरची चार विधि, क्षेत्रविपाकी जान । चार आयुबलकी प्रकृति, मविपाकिया वान ॥ ५५॥ घाति अघाती त्रिविधि कहे, पुण्य पाप द्वय चार । बंध उदय दोऊ कहे, वरने चार विपाक ।। ५६ ॥ अब इन आठों करमकी, थिति जयन्य उतकृष्ट । कही बात संक्षेपसों, सुनों कान दे इष्ट ॥ ५७ ॥
चौपाई। ज्ञानावरणीकी थिति दीस । कोडाकोडीसागरतीस ॥ - यह उत्कृष्टदशा परवान । एकमुहूर्त जघन्य बखान ॥ ५८ ॥
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द्वितिय दर्शनावरणीकर्म । थिति उत्कृष्ट कहों मुन मर्म ॥ कोडाकोडी तीस समुद्र । एकमुहरतकी थिति क्षुद्र ॥ ५९॥ तीजा कर्म वेदनी जान | कोडाकोडीतीस बखान । है यह उत्कृष्ट महाथिति जोय । जघन मुहरतबारह होय ॥३०॥
चौथा महामोह परधान । थिति उत्कृष्ट कही भगवान ॥ सागरसत्तरकोडाकोडि । लघुथिति एकमुहूरत जोडि ॥६॥ पंचम आयु कही जगदीस | उत्कृष्टी सागर ततीस ॥ थिति जघन्य मुमुहरतएक। यो गुरु कही विचार विवेका|६२ छट्टा नामकर्मथिति कहीं। कोडाकोडि वीस सरदहों ॥ सागर यह उत्कृष्टविधान । आठमुहूर्त जघन्य बन्धान ।। ६३॥ गोत्रकर्म सातवां सरीस । उत्कृष्टी थिति सागरवीस ॥
कोडाकोडिकाल परमान । लघुथिति आठ मुहूरतमान ॥ ६॥ * अष्टम अंतराय दुखदानि । उत्कृष्टी थिति कहाँ वखानि ॥ * सागरकोडाकोडी तीस । लघुथिति एकनुहूरत दीस ॥ ६५ ॥
वरनी आठों कर्मकी, । थिति उत्कृष्ट जघन्य ॥ । बाकी मध्यम और थिति, । ते असंख्यधा अन्य ॥६६॥
अब वरनों पल्योपमकाल | तथा सागरोपमकी चाल ॥ कूपभरे जे रोम अपार । ते वरने नाना परकार ॥ ६७ ॥ पल्योपमके भेद अनेक । तातें यहां न वरना एक ॥ जोजन कूप रोमकी बात । कही जैनमतमें विख्यात ॥ ६८॥
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बनारसीविन्यासः -armirrrrrrrrrrr..mamm कूपकथा जैसी कछु कही । सो पल्यापम कहिये नहीं ॥ पयोपम दश कोडाकोड़ि । सब एकत्र क्रीजिये जोदि ॥६॥ एक सागरोपम सो काल ! यह प्रमान जिनमतशी चाल | यह सागरोपमकी कथा । यथा मुनी मैं वरणी तथा ॥ ७० ॥
आठकर्म अठतालसों, प्रकृतिभेद विस्तार । के जानें जिन केवली, के जाने गनपार ॥ १ ॥ अल्पवुद्धि जैसी मुझ पाहि । तसी में वरनी इसमाहि ॥ ।
पंडित गुनी हँसो मत कोय | अल्पमती भाषाकवि होय ॥२॥ 3 कर्मकांड आगम अगम, यथाशक्ति मन आन। भाषा मैं रचना कही, बालयोधमे जान ।। ७३ ॥
कससा-गीताइन्द. यह कर्मप्रकृतिविधान अविचल, नाम ग्रन्थ सुहावना । इसमाहिं गर्मित सुपुतचेतन, गुपत बारह भावना ।। जो जान भेद बखान सरदहि, गद अर्थ विचारसी । सो होय कर्मविनाश निर्मल, शिवसन्ध्य बनारसी ॥ ७ ॥
दोहा। संवत् सत्रहसौ समय, फाल्गुणमान वसन्त । __ऋतु शशिवासर सप्तमी, तब यह नयो सिदंत ।। ७५ ॥
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परमज्योति परमातमा, परमज्ञान परवीन । बंदों परमानंदमय, घट घट अंतरलीन ॥ १ ॥
चौपाई । (१५ मात्रा.) निर्भयकरन परम परधान । भवसमुद्र जलतारण जान ।। शिवमन्दिर अघहरण अनिन्द । वन्दहुं पासचरणअरविन्द ॥२॥ १ कमठमानभंजन वरवीर । गरिमासागर गुणगंभीर ॥
सुरगुरु पार लहें नाहिं जालु । मैं अजान जंपों जस ता॥३॥ प्रभुखरूप अति अगम अथाह ! क्यों हमसे इह होय निवाह ज्यों दिनअंध उलूको पोते । कहि न सके रविकिरनउदोत . मोहहीन जानै मनमाहिं । तोउ न तुमगुण बरणे जाहिं ॥ प्रलयपयोधि करै जल बौन । प्रगटहिं रतन गिनै तिहि कौन५ । तुम असंख्य निर्मलगुणखानि । मैं मतिहीन कहों निजवानि। . ज्यो बालक निज बांह पसार । सागरपरिमित कहै विचार ६ जो जोगीन्द्र करहिं तप खेद । तउ न जानहिं तुमगुणभेद ॥ भगतिभाव मुझ मन अमिलाख ।ज्यों पंखी बोलहिं निज भाख तुम जसमहिमा अगम अपार । नाम एक त्रिभुवन आधार | आवै पवन पद्मसर होयै । ग्रीषमतपत निवारै सोय ॥ ८॥
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बनारसीविलासः १९७१ * तुम आवत भविजन मनमाहिं । मनिबंध शिथिल हो जोटिंग है
ज्यों चंदनतरु बोलहिं मोर । डरहिं भुजङ्ग लगे चहुंओर ॥५॥ तुम निरखतजन दीनदयाल । संकटते छूटहिं ततकाल | ज्यों पशुघेर लेहिं निशिचोर । ते तज भागहिं देखत भोर१० तू भविजन तारक किम होह । ते चित थार तिरहिं ले तोह ॥ है। यह ऐसें करि जान खभाउ । तिर मसक ज्यों गर्भितबाउ १११ जिन सब देव क्रिये वश वाम । तै छिनमें जीत्यो सो काम ॥ ज्यों जल कर अग्निकुलहानि । वड़वानल पावै नो पानिराशा तुम अनन्त गरुवा गुण लिये । क्योंकरभक्ति धन्न निजहिय॥ है लघुरूप तिरहि संसार । यह प्रभुमहिमा अकथ अपार १३ क्रोध निवार कियो मनशांति । कर्म सुभटजीते किहिं भांति ॥
यह पटतर देखहु संसार । नीलवृक्ष ज्यों देहे नुसार ॥१४॥ * मुनिजनहिये कमल निज टोहि । सिद्धरूप समध्यावहिं तोहि कमलकर्णिका विन नहिं और । कमलबीज उपजननी टोर१५
जब तुह ध्यानधरै मुनि कोय । तब विदेह परमातम होय ॥ । जैसे धातु शिलातन त्याग । कनकस्वरूप थवे जब आग १६ जाके मन तुम करहु निवास । विनस जाय क्यों विग्रह तास ॥ ज्यों महन्त विच आवै कोय । विग्रह मूल निवारै सोय ॥१७॥ करहिं विवुध जे आतम ध्यान । तुम प्रभाव होय निदान ॥ है. जैसे नीर सुधा अनुमान । पीवत विष विकारफी हान ॥१८॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
तुम भगवंत विमल गुणलीन । समलरूप मानहिं मतिहीन || ज्यों नीलिया रोग हग गहै । वर्ण विवर्ण संखसौ कहे ||१९|| दोहा |
निकट रहत उपदेश सुनि तरुवर भये अशोक । ज्यों रवि ऊगत जीव सब, प्रगट होत भुविलोक ॥ २० ॥ सुमनदृष्टि जो मुरकरहि, हेठ बीटमुख सोहिं । त्यों तुम सेवत सुमनजन, बंध अधोमुख होहिं ॥ २१ ॥ उपजी तुम हिय उदधि, वाणी सुधा समान । जिहिं पीवत भविजन लहहिं, अजर अमर पदधान||२२|| कहहिं सार तिहुंलोकको, थे सुरचामर दोय । भावसहित जो जिन नमें, तसु गति ऊरध होय ॥ २३ ॥ सिंहासन गिरि मेरु सम, प्रभुधुनि गरजित घोर । श्याम सुतन घनरूप लख, नाचत भविजन मोर ॥ २४ ॥ छवि हत होंहिं अशोकदल, तुमभामंडल देख | वीतरागके निकट रह, रहत न राग विशेख ॥ २५ ॥ शीखि कहै तिहुंलोकको, यह सुरदुंदुभि नाद | शिवपथ सारथिवाह जिन, भजहु तजहु परमाद ॥ २६ ॥ तीन छत्र त्रिभुवन उदित, मुक्तागण छविदेत । त्रिविधिरूप घर मनहुं शशि, सेवत नखतसमेत ॥ २७ ॥ पद्धरिछन्द
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प्रभु तुम शरीर दुति रतन जेम । परताप पुंज जिम शुद्ध हेम || अति धवलसुजस रूपा समान। तिनके गढ़ तीन विराजमान २८
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बनारसीविलासः १९ सेवहिं सुरेन्द्र कर नमित माल। तिन शीसनुकुट तजदेहिं माला तुवचरण लगत लहलहें प्रीतिानहिं रमहि और जन सुमनरीति२९ प्रमुभोग विमुख तन कर्म दाह । जन पार करत भवाल नियाह ज्यों माटीकलश नुपक्क होयाले भार अधोमुख तिरहि तोय ३० तुम महाराज निर्द्धन निराश ।तज विभव विभव सब जगविकास अक्षर स्वभावसेंलिखे न कोय ।महिमा अनन्त भगवंत सोय ३१ : कोप्यो सु कमठ निज वैर देख । तिन करी धूल वर्षा विशेख ॥ प्रभु तुम छाया नहिं भई हीन।सो भयो पापि लंपट मलीन ३२१ गरजंत घोर घन अंधकार।चमकंत विजु जलमुसलधार ।। वरपंत कमठ धरध्यान रुद्र । दुम्तर करत निजभवसमुद्र३३
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मेघमाली मेघमाली आप वल फोरि। भेजे तुरत पिशाचगण, नाथ पास उपसर्ग कारण। अमि जाल झलकंत मुख, धुनि करंत निमि मतवारण ।
कालरूप विकराल तन, मुंडमाल तिह कंठ । है निशंक वह रंकनिज, करै कर्मदृढगंठ ॥ ३४॥
चौपाई। जे तुम चरणकमल तिहुंकाल । सेवहिं तब मायाजंबाल । भाव भगतिमन हरय अपार । धन्य २ जग तिन अवतार ॥३५॥ भवसागरमहं फिरत अनान मैं तुह सुजन्य जुन्यो नहिं कान जो प्रभुनाम मंत्र मन धेरै। तासों विपति मुसंगम डर ॥ ३६॥
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१३० जैनग्रन्थरत्नाकरे
मनवांछित फल जिनपदमाहिं । मैं पूरव भव पूजे नाहिं ॥ माया मगन फिरयो अज्ञान। करहिं रंकजन मुझ अपमान ३७ मोहतिमर छायो दृग मोहि । जन्मान्तर देख्यो नहिं तोहि ॥ तौ दुर्जन मुझ संगति गहैं । मरमछेदके कुवचन कहैं ॥ ३८॥ सन्यो कान जस पजे पाय । नैनन देख्यो रूप अधाय ॥ भक्ति हेतु न भयो चित चाव। दुखदायक किरियाविन भाव ३९ । ॐ महाराज शरणागत पाल । पतितउधारण दीनदयाल ॥
सुमिरण करहुनाय निज शीस । मुझ दुख दूर करहु जगदीश 180 कर्मनिकन्दनमहिमा सार । अशरणशरण सुजश विसतार ।। नहिं सेये प्रभु तुमरे पाय । तो मुझ जन्म अकारथ जाय ॥११॥ सुरगण वन्दित दया निधान । जगतारण जगपति जगजान ॥
दुखसागरतें मोहि निकासि । निर्भयथान देहु सुखराशि ॥ ४२ ॥ ॐ मैं तुम चरणकमल गुन गाय । बहुविधि भक्ति करी मनलाय ।। जन्मजन्म प्रमु पावहुं तोहि । यह सेवा फल दीजे मोहि ॥४३॥
दोधकान्त वेसरीछन्द । पदपद. इहिविधि श्रीभगवंत, सुजश जे भविजन भापहि । ते निज पुण्य भंडार, संच चिरपाप प्रणासहिं ।।
रोमरोम हुलसंति अंग, प्रभु गुणमनध्यावहिं । * स्वर्गसंपदा भुंन, वेग पंचम गति पावहिं ।। । यह कल्याणमन्दिर कियो, कुमुदचन्द्रकी बुद्धि । भाषा कहत वनारसी, कारण समकितशुद्धि ॥ ४ ॥
इति श्रीकल्याणमन्दिरस्तोत्रं.
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बनारसीविलासः
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अथ साधुवन्दना लिख्यते.
दोहा। श्रीजिनमापित भारती, सुमरि आन मुखपाठ । कहीं मूल गुण साधुके, परमित विंशतिआठ ॥ १ ॥ पंचमहावत आदरन, समति पंच परकार ।
प्रवल पंच इन्द्रिय विजय, पट अवशिक आचार ॥२॥ * भूमिशयन मंजनतजन, वसनत्याग कचलोच । एकवार लघुअसन थिति असन दंतवन मोच ॥ ३॥
चौपाई। थावर जन्तु पंच परकार । चार भेद जंगम तन धार । जो सब जीवनको रखपाल । सो सुसाधु बन्दहुं तिरकाल |2|
संतत सत्य वचन मुख कहै । अथवा मानविरत पर है। * मृपावाद नहिं बोले रती । सो जिन मारग सांचा जती ॥५॥
कौड़ी आदि रतन परजंत । घटित अयट धनभेद अनंत ॥ भी दत्त अदत्त न फरस जोय । तारण तरण नुनीश्वर सोय ॥६॥
पशु पंखी नर दानव देव । इत्यादिक रमणी रति सेव ॥ भी तबहिं निरन्तर मदन विकार । सो मुनि नमहुँ जगत हिनफार
द्विविधि परिग्रह दशविधि जान । संख असंन्ख अनन्त बन्नान : सकल संगतज होय निराश सो मुनि लेह मोक्ष पदवास ॥ ८ ॥
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Yastatistatutiotatatatatatatatatiststatistatitish ११३२ जैनग्रन्थरलाकरे ॐ अधोदृष्टि मारग अनुसरै । प्राशुक मूमि निरख पग धेरै ॥
सदय हृदय साधै शिव पंथ । सो तपीश निरभय निम्रन्थ ॥ ९ ॥ निरभिमान निरवद्य अदीन । कोमल मधुर दोष दुख हीन ऐसे सुवचन कहै खभाव । सो ऋपिराज नमहुं घरि भाव १० उत्तम कुल श्रावक संचार । तासु गेह प्राशुक आहार ॥ मुंजै दोष छियालिस टाल । सो मुनि वंदौं सुरति संभाला११॥ । उचितवस्तु निजहित परहेत । तथा धर्म उपकरण अचेत ॥ निरख जतनसों गहै जु कोय । सो मुनि नमहुं जोर कर दोय १२ ।
रोगविकृति पूरव आदान । नवदुवार मल अंग उठान | । डारै प्राशुक्र भूमि निहार । सो मुनि नमहुं भगति उरधार १३ कोमल कर्कश हरुव सभार । रुक्ष सचिक्कण तपत तुसार॥ इनको परसन दुख सुखलहें । सो मुनिराज जिनेश्वर कहें॥१४॥
आमल कटुक कषायल मिष्ट | तिक्त क्षार रस इष्ट अनिष्ट ॥ में इनहिं खाद रति अरति नबेव । सो ऋषिराज नमहि तिहँ देव१५ * शुभ सुगंध नाना परकार । दुखदायक दुर्गंध अपार ॥ * नासा विषय गनहिं समतूल। सो मुनि जिनशासनतरुमूल १६
श्यामहरित सित लोहित पीत । वरण विवरण मनोहर भीत ए निरखै तज राग विरोध । सो मुनि करै कर्ममल शोध १७ ॥ शब्द कुशब्दहिं समरस साद। श्रवण सुनत नहिं हरष विषाद ३ युति निंदा दोऊ सम सुणै। सो मुनिराज परम पद मुणै ॥१८॥
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* सामाइक साधै तिहुं काल । मुकति पंथनी और समान ॥
शत्रुमित्रदोकं सम गण । सो मुनिराज करमरिपु इण ॥ १०॥: अर्हत सिद्ध सरि उचझाय । साधु पंच पद परम महाय ॥ इनके चरणनमें मन लाय । तिन मुनिवरके बन्दों पाया॥२०॥ पावन पंचपरम पद इष्ट । जगतमाहिं जान उतकिष्ट । ठाने गुणयुति बारंबार । सो मुनिराज लह भवपार ।। २१॥ ज्ञान क्रिया गुणयारै चित्त । दोप विलोक कर पाछित ॥ नित प्रतिक्रमणक्रियारसलीन । सो सुसाधु संजम परवीन॥२२॥ * श्रीजिनवचन रचन विसतार । द्वादशांग परमागम मार ॥ निजमति मान करै सम्झाउ। सो मुनिवर बंदई घर माउ२३ । काउसग्गमुद्रा पर नित | शुद्धस्वरूप विचारै चित्त ॥ त्यागै त्रिविविजोग ममकार । सो मुनिराज नमो निधार २४ प्राशुक शिला उचित भूखेत । अचल अंग समभाव सचेत पश्चिमरैन अलप निद्राल । सो योगीश्वर व काल ॥ २५॥ धर्मध्यान जुत परम विचित्र । अन्तर वाहिज सहज पवित्र ।। न्हान विलेपन तनै त्रिकाल । बन्दों सो मुनि दीनदयालारमा लोकलाजविगलित भयहीन । विषयवासनारहित नदीन॥ नगन दिगम्बर मुद्राथार । सो मुनिग़ज जगन मुलकातारा सधन केश गर्भित मलकीच । जस असंख्य उतपति तमुवीचा कच हुँचै यह कारण जान । सो मुनि नमहुं जोरजुगपान२८ ।
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छुधा वेदनी उपशम हेत । रस अनरस समभाव समेत ॥ एकबार लघु भोजन करै । सो मुनि मुकति पंथ पगधेरै २९ देह सहारौ साधन मोप । तबलों उचित कायबल पोय ॥ यह विचार थिति लेहिं अहार । सो मुनि परम धरम धनधार३० जहँ जहँ नवदुवारमलपात । तहँ तहँ अमित जीव उतपात ॥ यह लख तजहिं दंतवन काज । सो शिवपथसाधक ऋपिराज३१ /
ये अठ्ठाविस मूल गुण, जो पालहिं निरदोष । सो मुनि कहत वनारसी, पावै अविचल मोय ।। ३२ ॥
इति साधुवन्दना
अथ मोक्षपैडी लिख्यते.
दोहा। इक्क समय रुचिवंतनो, गुरु अक्खै सुनमल्ल । जो तुझ अंदरचेतना, वहै तुसाड़ी अल्ल ॥ १॥ ए जिनवचन सुहावने, सुन चतुर छयल्ला । अक्खै रोचकशिक्खनो, गुरु दीनदयल्ला । इस बुझै वुध लहलहै, नहिं रहै मयल्ला । इसदा मरम न जानई, सो द्विपद वयल्ला ॥२॥ जिसदौ गिरदा पेचसों, हिरदा कलमल्ला । जिसना संसै तिमिरसों, सूझै झलमल्ला ।।
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बनारसीविलासः १३. खनै जिन्हादी भूमिनी, कुज्ञान कुदाला । सहज तिन्हादा वहजसों, चित रहे दुदासा ॥ ३ ॥ जिन्हा इक करमदा, दुविधा पद भला । इक्क अनिष्ट असोहणा, इक झाक समझा । तिन्हां इक्क न सूझई, उपदेश अहल्ला । चंककटाछे लोपना, ज्यों चंद गहरा ॥ ४ ॥ जिन्हां चित इतबारसो, गुरुवचन न अल्ला । जिन्हां आगे कथन यो, ज्यों कोदो दरमा ।। बरसे पाहन भुम्मिम, नहिं होय चहा। बोये बीज न ऊप्पड़, जल जाय वहता ॥ ५ ॥ चेतन इस संसारमें, तू सदा इकल्ला । आप रूप पिशाच, है ते अप्पा छल्ला ॥ आपै घुम्यां गिरि पया, किणिदिवा टल्ला । जिन्हसों मिलन विजोग है, तिनसों क्या ताला ॥६॥ इस दुनियादी मोजसों, तू गरबगहल्ला । मया भार सम पुरुष, ज्यों छप्पर विच ब्रह्मा । मुपनैदा सुख मान लें, अपना घर बल्ला । फिरा भरमकी भौरम, तू सहज दिला ॥ ७॥
जोग अडंपर तैं फिया, कर अंबर मद्रा। ___ अंग विभूति लगायके, लीनी मृग छल्ला ॥
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१३६ जैनग्रन्थरत्नाकरे
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है धनवासी तँ तजा, घरवार महल्ला। अप्पापर न पिछाणियां, सब झूठी गल्ला ॥ ८ ॥ माया मिथ्या अग्रसोच, ये तीनों सल्ला । तिहुं वादी करतूतसों, जियदा उरझल्ला ॥ ज्यों रुधिरादी पुट्टसों, पट दीसै लल्ला । रुधिरानलहि पखालिये, नहिं होय उजल्ला ॥९॥ जब लग तेरी समझमें, होंदी हल चल्ला । सुजश बढ़ाई लामनो, करदा छल बल्ला ॥ तबलग तू स्याणा नहीं, क्या मारइ कल्ला। सोर करंदा पालणे, ज्यों झूलै लल्ला ॥ १० ॥ किण तूं जकरा सांकला, किण पकरा पल्ला । मिदमकरा जौं उरशिया, उर जाल उगल्ला ॥ चेतन जड़ संजोगमैं, त टांका झल्ला। तुही छुड़ावहि आपको, लख रूप इकल्ला ॥ ११ ॥ जो तै दारिद मानिया, है ठल्लमठल्ला । जो तू मानहि संपदा, भरि दामहू गल्ला ॥ जो तू हुवा करंकसा, अरु मोगर मल्ला । सो सब नाना रूप है, नाचै पुद्गल्ला ॥ १२ ॥ जो कुरूप दुरलच्छणा, जो रूप रसल्ला । वै संघा भरि जोवना, बूढा अरु वल्ला ॥
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बनारसीविलासः
लंब मझोला ठींगना, गोरा अरु कसा । सो सव नानारूप है, निह पुल्ला ॥ १३ ॥ जो जीरण है झरपड़े, जो होय नवल्ला । जो मुरझावै मुक्कक, फुल्टा अरु फल्ला । जो पानीमें वह चलें, पावनमें बड़ा । सो सव नानारूप हैं, निह पुरला ॥ ११ ॥ एक कर्म दीसै दुधा, ज्यों तुलदा पल्ला । हरुबै तन गुरुवैतसों, अब ऊरय थल्ला ॥ अशुभरूप शुभरूप है, दुहु दिशिनो चल्ला ।। धेरै दुविधि विस्तार जौं, वट विरन्त जरहा ॥ १५॥ पवन परै रे जो उड, माटी विच गया। जो अकाशमें देखिये, चल रूप अचला ॥ पापी पावक पौन भू, चहुंयामै रस्सा । सो सब नाना रूप है, निहर्च पुट्टा ॥१६॥ खिणरोवे खिणमें हंस, जौं मदमतवल्ला । त्यों दुहुँबादी मौजसों, वेहोश सँभल्ला ॥ ईफसवीच विनोद है, इकम खलफल्ला । समदृष्टी सज्जन फेरे, दुईको हलमा ॥ १७ ॥
जाति दुईकी एक नी, मणि पत्थर डाला। ___ जल विचार संकोच नों, काहिए नदि नया ॥
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उद्धत जलपरवाहमें, जौं भौंर बुलल्ला । त्यों इस कर्म विपाकदे, विच ऊंचा खल्ला ॥ १८ ॥ दुहुंदा अथिर स्वभाव है, नहिं कोई अटल्ला । ऊंच नीच इक सम फरै, कलिकाल पटल्ला ॥ अध ऊरघ ऊरध अधो, थिति उथल पुथल्ला। अरहट हार विहारमें, क्या ऊपर तल्ला ॥ १९॥ पाया देवशरीरज्यों, नलनीर उछला। भव पूरण कर दहि पया, फिर जल ज्यों ढल्ला पुण्य पाप विच खेद है, यह भेद न भल्ला । ज्ञान क्रिया निरदोष है, जहँ मोख महल्ला ॥ २० ॥ वतनु तु साडा मोहमैं, जौं रोह रुहल्ला । थिति प्रवाण तुझ नो भया, गुरुज्ञान दुहल्ला ॥ अब घट अंतर घटगई, भव भीर चुहल्ला । परम चाह परगट भई, शिव राह सहल्ला ॥ २१ ॥ ज्ञान दिवाकर ऊगियो, मति किरण प्रवल्ला । है शत खंड बिहंडिया, भ्रम तिमर पटल्ला ॥ सत्य प्रताप मंजिया, दुर्गती दुहल्ला । अंगि अंगारे दज्झिया, जौं तूल पहल्ला ॥ २२ ॥
दोहा। यह सतगुरुदी देशना, कर आसव दीवाड़ि। __ लद्धी पैड़ि मोखदी, करम कपाट उघाडि ॥ २३ ॥
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बनारसीविलासः १३९ * मव थिति जिनकी घटगई, तिनको यह टपदेश । ___ कहत वनारसिदास यों, मूह न समुझे लेग ॥ २१ ॥
इति श्रीमोईपी. अथ कर्मछत्तीसी लिख्यते.
दोहा। परम निरंजन परमगुरु, परमपुरुष परधान । बन्दहुं परमसमाविगत, मयभंजन भगवान ॥ १॥ जिनवाणी परमाण कर, सुगुरु शीख मन आन । का जीव अरु कर्मको, निर्णय कहाँ बसान ॥२॥ अगम अनंत अलोकनभ, तामें लोक अकाश ।। सदाकाल ताके उदर, जीव अजीव निवास ॥ ३ ॥ जीव द्रव्यको द्वै दशा, संसारी अरु सिद्ध। पंच विकल्पअजीब के, अखय अनादि असिद्ध ॥ ४ ॥ गगन, काल, पुद्गल, घरम, अरु अधर्म अभियान । । अब कछु पुद्गल द्रव्यको, कहीं विशेष विधान ॥ ५ ॥ चरमदृष्टिसों प्रगट है, पुद्गल द्रव्य अनंत । जड़ लक्षण निर्जीव दल, सी मूरतिवंत ॥६॥ जो त्रिभुवन थिति देखिये, थिर जंगम आकार। सो पुट्टल परवानको, है अनादि पितार ॥ ७ ॥
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१११० जैनग्रन्थरताकरे * अब पुगलके वीसगुण, कहों प्रगट समुझाय। ..
गर्मित और अनन्तगुण, अरु अनन्त परजाय ॥ ८ ॥ श्याम पीत उज्ज्वल अरुण, हरित मिश्र बहु भांति ।
विविधवर्ण जो देखिये, सो पुद्गलकी कांति ॥९॥ __ आमल तिक्त कयाय कटु, क्षार मधुर रसभोग।
ए पुद्गलके पांचगुण, घट मानहिं सबलोग ॥ १० ॥ तातो सीरो चीकनो, रुखो नरम कठोर । हलको अरु भारीसहज, आठ फरस गुणजोर ।। ११ ।। जो सुगंध दुर्गधगुण, सो पुद्गलको रूप। अब पुद्गल परजायकी, महिमा कहों अनूप ॥ १२ ॥ शब्द, गंध, सूक्षम, सरल, लम्ब, वक्र, लघु थूल । विठुरन, मिदन, उदोत, तम, इनको पुद्गल मूल ॥ १३ ॥ छाया, आकृति, तेज, दुति, इत्यादिक बहु भेद । . ए पुद्गलपरजाय सब, प्रगटहिं होय उछेद ॥ १४ ॥ केई शुम केई अशुभ, रुचिर, भयानक भेष। . सहज खमाव विभाव गति, अरु सामान्य विशेष ॥ १५॥ गर्मित पुद्गलपिंडमें, अलख अमूरति देव । फिरै सहज भवचक्रमें, यह अनादिकी देव ॥ १६ ॥ पुद्गलकी संगति करै, पुद्गलहीसों प्रीति । पुगलको आपा गणै, यहै भरमकी रीति ॥ १७ ॥
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बनारसीविलासः ११३ जे जे पुगलकी दशा, ते निज माने हस । याही भरम विभावसों, बढे फरमको वंश ॥ १८॥ ज्यों ज्यों कर्म विपाकवश, ठाने श्रमकी मौन । त्यो त्यों निज संपति दुरै, जुरे परिग्रह फौज ॥ १५ ॥ ज्यों वानर मदिरा पिये, विच्छू इंकित गात । भूत लगै कौतुक करे, त्यों श्रमको उत्पात ॥ २० ॥ अम संशयको भूलसों, लहै न सहन स्वकीय।। करम रोग समुझ नहीं, यह संसारी जीय ॥ २१ ॥ कर्म रोगके द्वै चरण, विषम दुईकी चाल । एक कंप प्रकृती लिये, एक ऐठि असरात ॥ २२ ॥ कंपरोग है पाप पट, अफर रोग है पुण्य । ज्ञान रूप है आतमा, दुई रोगों शून्य ।। २३ ॥ मूरख मिथ्यावृष्टिसों, निरखै जगकी रोस । डरहिं जीव सब पापसों, करहिं पुण्यकी होंस ॥ २४ ॥ उपने पापविकारसों, भय तापादिक रोग। चिन्ता खेद विया वदै, दुखमाने सबलोग ॥ २५ ॥ उपजै पुण्यविकारसों, विषयरोग विस्तार । भारत रुद्र विधा बहै, मुख मानै संसार ॥ २६ ॥ दोऊ रोग समान है, मूढ न जाने रीति । कंपरोगों भय फरे, अकररोगों प्रीति ॥ २७॥
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३११२
जैनग्रन्थरत्नाकरे
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भिन्न २ लक्षण लखे, प्रगट दुईकी भांति । एक लिये उद्वेगता, एक लिये उपशांति ॥ २८ ॥ कच्छपकीसी सकुच है, वक्र तुरगकी चाल । अंधकारकोसो समय, कंपरोगके भाल ॥२९॥ बकरकुंदसी उमँग है, जकरबन्दकी चाल । मकरचांदनीसी दिपै, अकररोगके माल ॥ ३० ॥ तमउदोत दोऊ प्रकृति, पुद्गलकी परजाय । भंदज्ञान बिन मूढ़ मन, भटक भटक भरमाय ॥ ३१ ॥ दुहूं रोगको एक पद, दुईसों मोक्ष न होय । बिनाशीक दुईकी दशा, विरला झै कोय |॥ ३२ ॥ कोऊ गिरै पहाड़ चढ़, कोऊ वू कूप । मरण दुहको एक सो, कहिवेको द्वै रूप ॥ ३३ ॥ भववासी दुविधा धेरै, तातै लखै न एक। रूप न जानै जलधिको, कूप कोषको भेक ॥ ३४ ॥ माता दुईकी वेदनी, पिता दुईको मोह । दुहु वेडींसो वंधि रहे, कहवत कंचन लोह ॥ ३५॥ जाति दुईकी एक है, दोय कहै जो कोय । गहै आचरै सरदहै, सुरवल्लभ है सोय ॥ ३६॥ जाके चित जैसी दशा, ताकी तैसी दृष्टि । पंडित भव खंडित करै, मूढ वढावै सृष्टि ।। ३७ ।।
इति कर्म छत्तीसी.
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बनारसीविलासः १४३ अथ ध्यानवत्तीसी लिख्यते.
दोहा। ज्ञान स्वरूप अनन्त गुण, निराबाध निरुपाधि ।
अविनाशी आनन्दमय, बन्दहुं ब्रामसमाधि ॥ १ ॥ __ मानु उदय दिनके समय, चन्द्र उदय निशि होत! दोऊं जाके नाम मैं, सो गुरु सदा उदोत ॥ २ ॥
चौपाई । (सोळा माना) चेतहु पाणी सुन गुरुवाणी । अमृतरूप सिद्धांत बखानी। में परगट दोऊ नय समुझावें । मरमी होय मम सो पावें ॥ ३ ॥
चेतन बड अनादि संजोगी । आपहि करता आपहि भोगी। सहज समाव शकति जब जागे । तब निहके मारग लागे । फिरके देहबुद्धि जब होई । नयव्यवहार कहाँ सोई। भेदभाव गुन पंडित वृझै । जाको अगम अगोचर मुझे ॥ ५॥ प्रथमहिं दान शील तर भावै । नय निरचे विवहार लसावे । परगुणत्यागवृद्धि, जब होई । निहचे दान ग्रहाचे सोई॥६॥ चेतन निज स्वभावमहं आवै । तर सो निश्चयगीन बन्दथे । कर्मनिर्जरा होय विशेष । निश्चय लप कहिये इह लेप ॥७॥ विमलरूप चेतन अभ्यास । निश्चयमाव तहां परगा। से अब सदगुरु व्यवहार बनाने । जाफी महिमा सय जगजान ८ मनवचकाय अकति कह दीजे । सो व्यवहारी दान की।
मनदचकाय तजे जब नारी । कहिये सोपील विवहागा SEPTETNEETIRITTETAH
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१४४ जैनग्रन्थरत्नाकरे
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मनवचकाय कष्ट जब सहिये । तासों विवहारी तप कहिये । मनवचकाय लगनि ठहरावै । सो विवहारी भाव कहावै॥१०॥
दोहा। दान शील तप भावना, चारों सुख दातार । 1 निहचै सो निहचै मिले, विवहारी विवहार ॥ ११ ॥
चौपाई। अब सुन चार ध्यान हितकारी । साधहि मुक्तिपंथ व्यापारी ॥ ३ मुद्रा मूरति छवि चतुराई । कलाभेष बलवेस बढाई ॥ १२॥
फरस बरण रस गंध सुभाखा । इह रूपस्थध्यानकी शाखा ॥ - इनकी संगति मनसा साधै । लगन सीख निज गुण आराधै१३ ॥
रहै मगन सो मूढ कहावै । अलख लखाव विचच्छण पावै ॥ * अर्हत आदि पंच पदलीजे । तिनके गुणको सुमरण कीजे १४ ३ गुणको खोज करत गुण लहिये। परमपदस्थध्यान सो कहिये
चंचलता तज चित्त निरोधे । ज्ञानदृष्टि घटअन्तर शोधै ॥१५॥ मिन्न भिन्न जड़ चेतन जोवै । गुण विलेच्छ गुणमाहिं समोवै।।।
यह पिंडस्थध्यान सुखदाई । कर्मनिरजरा हेत उपाई ॥ १६ ॥ * आप संभार आपसों जोरै । परगुणसों सव नाता तोरै ॥ लगै समाधि ब्रह्ममय होई । रूपातीत कहावै सोई ॥ १७ ॥
दोहा। यह रूपस्थपदस्थविधि, अरु पिंडस्थविचार । ३ रूपातीत वितीत मल, ध्यान चार परकार ॥ १८ ॥
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बनारसीक्लिासः १९५६
चौपाई। ज्ञानी ज्ञान भेद परकाशै । ध्यानी होय मो ध्यान अभ्यास आर्त रौद्र कुध्यानहिं त्यागे । धर्मशुफलक मारग लागे ॥१०॥ आरत ध्यान चितवन महिये । जाझी संगति दुरगतिलहिये ।। इष्टविजोग विकलता मारी । अरि अनिष्ट संजोग दुलारी ॥२०॥ तनकी व्यथा मगन मन झरे । अग्र शोचकर वांउनि घर ॥ ए आरतके चारों पाये । महा मोहरसों लपटाये ॥ २१॥ अब सुन रौद्र ध्यानकी सैली । जहां पारसी मतिगति मैली ॥ मनउछाहसों जीव विराधे । हिये हर्षधर चोरी साधे ॥ २२॥ विकसित झूटवचन मुखभाव । आनंदितचितविषया रासे ॥ चारों रौद्र ध्यानके पाये । कर्मबन्ध के हेतु बनाये ॥ २३ ॥
दोहा। आरतरौद्र विचारतें, दुखचिन्ता अधिकाय ।। * जैसे चढ़े तरंगिनी, महामेघ जलपाय ॥ २४ ॥
चौपाई। आर्त रौद्र कुध्यान बम्बाने । धर्मध्यान अब सुनहु सयाने ॥ केवल भापित वाणी मान । कर्मनाशको उद्यम ठाने ।। २७॥
पूरचकर्म उदय पहिचाने । पुरुषाफार लोकथिति जान ॥ * चारों धर्म ध्यानके पाये । जे समुझे ते मारग माये ॥ २६॥
अब लुन शुफ ध्यानकी बात । मिटै मोहको मत्ता जाम।। जोग साध सिद्धांत विचारे । आनम गुग परगुप निरपरि २७
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उपशम क्षपक श्रेणि आरोहै। पृथक्त वितर्क आदि पद सो हैं। उपशम पंथ चदै नहिं कोई ।क्षपकपंथ निर्मल मन होई॥२८॥ तब मुनि लोकालोकविकासी । रहहिं कर्मकी प्रकृति पचासी ॥ केवल ज्ञान लहै जग पूजा । एक वितर्क नाम पद दूजा ॥२९॥ जिनवर आयु निकट जब आवै। तहां वहत्तर प्रकृति खपावै ॥ सूक्षम चित्त मनोवल छीजा । सूक्ष्म क्रिया नाम पद तीजा३० शक्ति अनंत तहां परकाशै । ततस्मिन तेरह प्रकृति विनाशै ॥ पंच लघूक्षर परमित बेरा।अष्ट कर्मको होय निवेरा ॥ ३१ ॥ चरण चतुर्थ साध शिव पावै । विपरीत क्रिया निवृत्ति कहावै॥ शुक्ल ध्यानके चारों पाये । मुक्तिपंथकारण समुझाये ॥ ३२ ॥
शुक्ल ध्यान औषधि लगे, मिटै करमको रोग। ___ कोइला छोड़े कालिमा, होत अमिसंजोग ॥ ३३ ॥
यह परमारथ पंथ गुन, अगम अनन्त बखान ।। कहत वनारसि अल्पमति, जथासकति परवान ॥ ३४ ॥
इति ध्यानवत्तीसी.
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___अथ अध्यातमवत्तीसी लिख्यते. शुद्ध वचन सदगुरु कहै, केवल भापित अंग।
लोक पुरुषपरिमाण सब, चौदह रज्जु उतंग ॥१॥ __* यह दोहा "ख,, 'ग, प्रतिमें नहीं है.
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बनारसीविलासः ११७, घृतघटपूरित लोकम, धर्म अधर्म अकास।
काल जीव पुद्गल सहित, छहों दर्वको वास ॥ २ ॥ छहों दरव न्यारे सदा, मिले न काहू कोय । __छीर नीर ज्यों मिल रहे, चेतन पुट्ठल दोय ॥ ३ ॥ चेतन पुदल यो मिलें, ज्यों तिहमें खलि नल।
प्रगट एकसे देखिये, यह अनादिको खेल ॥ १ ॥ वह बाके रससों स्मै, वह वासों लपटाय ।
चुम्बक करपै लोहको, लोह लगै तिहँ धाय ॥ ५ ॥ जड़ परगट चेतन गुपत, द्विविधा लबै न कोय। ____ यह दुविधा सोई लखे, जो सुविचक्षण होय ॥ ६ ॥
ज्यों सुवास फल फूलमें, दही दूधमें घीव ! ___ पावक काठ पपाणमें, त्यो शरीरमें जीव ॥ ७ ॥
कर्मवरूपी कर्ममें, घटाकार घटमाहिं । ___ गुणप्रदेश प्रच्छन्न सब, यात परगट नाहि ॥ ८ ॥ सहज शुद्ध चेतन वसे, भावक्रमकी ओट।
द्रव्यकर्म नोकर्मसों, बधी पिंडकी पोट ॥९॥ ज्ञानरूप भगवान शिव, भावरुन चित गर्ने ।
द्रव्यकर्म तनकारमन, यह शरीर नोरम ॥10॥ ज्या कोटीमें धान थो, चमी माहि फनीन ।
चमी धोय कन राषिय, मोटी धाप मीच ॥ ११ ॥
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ముడు जैनग्रन्थरताकरे कोठी सम नोकर्म मल, द्रव्य कर्म ज्यों धान । ___ भावकर्ममल ज्यों चमी, कन समान भगवान ॥१२॥
द्रव्यकर्म नोकर्ममल, दोऊ पुद्गल जाल।। ___ भावकर्म गति ज्ञान मति, द्विविधि ब्रहाकी चाल ॥१३॥ विविधि ब्रह्मकी चालसों, द्विविधि चक्रको फेर !
एक ज्ञानको परिणमन, एक कर्मको घेर ॥ १४ ॥ ज्ञानचक्र अन्तर गुपत, कर्मचक्र प्रत्यक्ष ।
दोऊं चेतनभाव ज्यों, शुरूपक्ष, तमपक्ष ॥ १५ ॥ निज गुण निज परजायमें, ज्ञानचक्रकी भूमि ।। ___ परगुण पर परजायसों, कर्मचक्रकी धूमि ॥ १६ ॥ ज्ञानचक्रकी ढरनिमें, सर्जग भांति सब ठौर ।
कर्मचक्रकी नींदसों, मृषा खमकी दौर ॥ १७ ॥ ज्ञानचक्र ज्यों दरशनी, कर्मचक्र ज्यों अंध ।
ज्ञानचक्रमें निर्जरा, कर्मचक्रमें बंध ॥१८॥ ज्ञानचक्र अनुसरणको, देव धर्म गुरु द्वार ।।
देव धर्म गुरु जो लसे, ते पावें भवपार ॥ १९ ॥ भववासी जानै नहीं, देवधरमगुरुभेद ।
परयो मोहके फन्दमें, करै मोक्षको खेद ॥ २० ॥ उदय सुकर्म कुकर्मके, रुलै चतुर्गति माहिं ।
निरखै वाहिजदृष्टिसों, तह शिवमारग नाहिं ॥ २१॥ १ जागते हुए,
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m बनारसीविनासः ११५ देवधर्म गुरु हैं निकट, मूह न जाने ठोर। __ बँधी दृष्टि मिश्यातमों, लन्च औरकी और ॥ २२ ॥ भेषधारिको गुरु कहै, पुण्यवन्तको देव । ___ धर्म कहै कुल रीतिको, यह कुफर्मकी टेक ॥ २३ ॥ देव निरंजनको कहै, धर्म वचन परवान।
साधु पुरुषको गुरु कहै, यह मुकर्मको ज्ञान ॥ २४ ॥ जाने माने अनुभवै, कर भक्ति मन लाय। ___ परसंगति आस्रव सधै, कर्मबन्ध अधिकाय ॥ २५ ॥ कर्मबंधतें भ्रम बढे, श्रमत लखे न वाट । __ अंघरूप चेतन रहै, विना सुमति उद्घाट ॥ २६ ॥ सहजमोह जब उपशमै, रु, सुगुरु उपदेश ।
तव विभाव भवथिति धेरै, जग ज्ञान गुण लेगारा ज्ञानलेश सो है मुमति, लखै मुकतिकी लीक ।
निरखै अन्तरदृष्टिसों, देव धर्म गुरु ठीक ॥ २८ ॥ ज्यों सुपरीक्षित जौहरी, काच डाल मणि लय ।। ___ त्यों सुबुद्धि मारग गहै, देव धर्म गुर मय ॥ २९ ॥
दर्शन चारित ज्ञान गुण, देव धर्म गुरु शुद्ध । __ परखै आतम संपदा, तजे सनेह विन्द ॥ ३० ॥ अरचे दर्शन देवता, चरचे चारित धर्म।
दिद परचै गुरुज्ञानसों, य. नुमतिको कर्म ॥ ३ ॥
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है १५० जैनग्रन्थरलाकरे
मुमतिकर्मत शिव सथै, और उपाय न कोय । . शिवस्वरूप परकाशसों, आवागमन न होय ॥ ३२ ॥ मुनतिकर्म सम्यक्तसों, देव धर्म गुरु द्वार ! __कहत वनारसि तत्त्व यह, लहि पावें भवपार ॥३३॥
इति श्रीअध्यातनपत्तीसी.
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___ अथ श्री ज्ञानपञ्चीसी लिख्यते.
मुरनर तिर्यग योनिमें, नरक निगोद भवंत । ____ महा मोहकी नींदसों, सोये काल अनंत ॥१॥ जैसे ज्वरके जोरसों, भोजनकी रुचि जाइ ।
तैसे कुकरमके उदय, धर्मवचन न सुहाइ ॥२॥ लगै भूख ज्वरके गये, रुचिसों लेय अहार । ___ अशुभ गये शुभके जगे, जानें धमविचार ॥३॥ से पवन इकोरतें, जलमें छै तरंग।
त्यों मनसा चंचल भई, परिगहके परसंग ॥ ४ ॥ जहां पवन नहिं संचरै, वहां न जल कल्लोल । ___ त्यों सब परिगृह त्यागलों, मनसा होय अडोल ॥५॥ ज्यों काहू विषधर डसै. रुचिसों नीम चवाय ।
त्यों तुम ममतासों मढे, मगन विषयसुख पाय ॥६॥ * यह दोहा ख, ग, प्रतिमें नहीं है.
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बनारसीविलासः
नीम रसन परसे नहीं, निर्विष तन जब होय । ___ मोह घटे ममता मिटै, विषय न वांछ कोय ॥ ७ ॥
ज्यों सछिद्र नौका चढ़े, वूडइ अंघ अदेख । ___ त्यों तुम भवजलमें परे, विन विवेक घर भेख ॥ ८ ॥
जहां अखंडित गुण लगे, खेवट शुद्धविचार । ___ आतम रुचि नौका चढे, पावहु भव जल पार ॥ ९ ॥ ज्यों अंकुश मानै नहीं, महामत्त गजराज ।
त्यों मन तृष्णा, फिरे, गणै न काज अकाज ॥१०॥ ज्यों नर दाव उपावकै, गहि आने गज साधि ।
त्यों या मनवश करनको, निर्मल ध्यान समाधि ॥११॥ तिमिररोगसों नैन ज्यों, लखै औरकी और। ____ त्यों तुम संशयमें परे, मिथ्या मतिकी दौर ॥ १२ ॥ ज्यों औषध अंजन किये, तिमिररोग मिट जाय ।
त्यों सतगुरुउपदेशतें, संशय वेग विलाय ॥ १३ ॥ जैसे सब जादव जरे, द्वारावतिकी आग।
त्यों मायामें तुम परे, कहां बाहुगे भाग ॥ १४ ॥ दीपायनसों ते वचे, जे तपसी निर्गन्ध ।
तज माया समता गहो, यहै मुकतिको पंथ ॥ १५ ॥ ज्यों कुधातुके फेटसों, घटबढ़ कंचनकांति।
पापपुण्य कर त्यों भये, मूढातम बहु भांति ॥ १६ ॥
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| कंचन निज गुण नहिं तजे, वानहीनके होत ।
घटघट अंतर आतमा, सहजस्वभाव उदोत ॥ १७ ॥ पन्ना पीट पकाइये, शुद्ध कनक ज्यों होय ।
सों प्रगटै परमातमा, पुण्यपापमलखोय ॥ १८ ॥ पर्व राहुके ग्रहणसों, सूर सोम छविछीन । ___ संगति पाय कुसाधुकी, सज्जन होहिं मलीन ॥ १९ ॥ निवादिक चन्दन कर, मलयाचलकी वास ।
दुर्जनः सज्जन भये, रहत साधुके पास ॥२०॥ जैसे ताल सदा भरै, जल आवै चहुं ओर ।
तैसें आस्रवद्वारसों, कर्मबंधको जोर ॥ २१ ॥ ज्यों जल आवत मंदिये, सुखै सरवर पानि ।।
तैसें संवरके किये, कर्म निर्जरा जानि ॥ २२ ॥ ज्यों बूटी संजोगते, पारा मूर्छित होय । ___ त्यों पुद्गलसों तुम मिले, आतमशक्ति समोय ॥२३॥
मेल खटाई मांजिये, पारा परगट रूप । ___ शुक्लध्यान अभ्यासतें, दर्शनज्ञान अनूप ।। २४ ॥ कहि उपदेश बनारसी, चेतन अब कछु चेतु । • आप वुझावत आपको, उदय करनके हेतु ॥ २५ ॥
इति श्रीज्ञानपीसी.
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___ बनारसीविलासः १५३ ।
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अथ शिवपच्चीसी लिख्यते.
दोहा। ब्रह्मविलास विकाशधर, चिदानन्द गुणठान ।
बन्दों सिद्धसमाधिमय, शिवस्वरूप भगवान ॥ १॥ मोह महातम नाशिनी, ज्ञान उदधिकी सीव । ___ बन्दों जगतविकाशनी, शिवमहिमा शिवनींव ॥ २॥
चौपाई। शिवस्वरूप भगवान अवाची । शिवमहिमाअनुभवमति सांची शिवमहिमा जाके घट भासी । सो शिवरूप हुवा अविनासी ३ जीव और शिव और न होई । सोई जीववस्तु शिव सोई॥ जीव नाम कहिये व्यवहारी । शिवस्वरूप निहचै गुणधारी ४ करै जीव जब शिवकी पूजा । नामभेदत होय न दूजा ॥ विधि विधानसों पूजा ठाने । तब शिव आप आपको जानै ५ तन मंडप मनसा जहँ वेदी। शुभलेश्या गह सहज सफेदी आतमरुचि कुंडली वखानी । तहां जलहरी गुरुकी वानी ६ भावलिंग सो मूरति थापी । जो उपाधि सो सदा अव्यापी॥ निर्गुणरूप निरंजन देवा । सगुणस्वरूप करै विधिसेवा ॥ ७ ॥ समरस जल अमिषेक करावै। उपशम रसचन्दन घसि लावै ॥ सहजानन्द पुष्प उपजावै । गुणगर्मित जयमाल चढावै ॥८॥
ज्ञानदीपकी शिखा संवारै । स्याद्वाद घंटा झुनकारै ॥ 3 अगम अध्यातम चौंर ढुलावै । क्षायक धूप स्वरूप जगावै ॥९॥
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११५४ जैनग्रन्थरलाकरे निहचै दान अर्यविधि होवै । सहजशील गुण अक्षत दोवै
तप नेवज काढे रस पागै ! विमलभाव फल राम्खड़ आगे १० - जो ऐसी पूजा करै, ध्यानमगन शिवलीन !
शिवस्वरूप जगमें रहै, सो साधक परवीन ॥ ११ ॥ * सो परवीन मुनीश्वर सोई । शिवमुद्रा मंडित जो होई॥
सुरसरिता करुणारसवाणी। युमति गौरि अर्द्धन वखानी॥१२॥ त्रिगुणभेद जहँ नयन विशेखा। विमलभावसमकित शशिलेखा -
सुगुरु शीख सिंगी उर बांधै । नयविवहार बाघम्बर कां ॥१३॥ * कवहूं तन कैलाश फलोलै। कबहुं विवेकवैल चढ़ डोले ॥
रुंडमाल परिणाम त्रिभंगी। मनसा चक्र फिरै सरवंगी ॥१४॥ * शक्ति विभूति अंगछवि छाजै ।तीन गुपति तिरशूल विराजै । ॐ कंठ विभाव विषम विष सोहै। महामोह विपहर नहिं पोहै १५
संजम जटा सहज सुख भोगी। निहचैरूप दिगम्बर जोगी | ॐ ब्रह्म समाथिध्यान गृह साजे । तहां अनाहत डमरू बाजै॥१६॥
पंच भेद शुभज्ञान गुण, पंच बदन परधान ।
ग्यारह प्रतिमा साधतें, ग्यारह रुद्र समान ॥ १७ ॥ मंगल करन मोखपद ज्ञाता। यात शंकर नाम विख्याता ॥ जब मिथ्यामत तिमर विनाशै। अंधकहरण नाम परकाशै १८ ईश महेश अखयनिधिस्वामी। सर्व नाम जग अंतरजामी ॥ त्रिभुवन त्याग रमै शिवठामा। कहिये त्रिपुरहरण तव नामा १९ ,
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बनारसीविलासः १५५ । * अष्टकर्मसों मिडै अकेला । महारुद्र कहिये तिहिं वेला ॥
मनकामना रहै नहिं कोई । कामदहन कहिये तब सोई ॥२०॥ मववासी भवनाम घरावै । महादेव यह उपमा पावै ॥ आदि अन्त कोई नहिं जाने। शंभुनाम सब जगत वखानै२१ मोहहरण हर नाम कहीजे। शिवस्वरूप शिवसाधन कीजे ॥ तज करनी निश्चयों आवै। तव जगभंजन विरद कहावै २२ । विश्वनाथ जगपति जग जाने। मृत्युंजय तम मृत्यु न माने ॥ शुक्ल ध्यान गुण जब आरोहै। नाम कपूरगौर तव सोहै ॥२३॥ इहिविधि जे गुण आदरै, रहै राचि जिहँ ठाव ।
जिहँ जिहँ मारग अनुसरै, ते सव शिवके नाँव ॥२॥ नांव जथामति कल्पना, कहूं प्रगट कहुं गूढ़।
गुणी विचारै वस्तु गुण, नाव विचारै मूढ़ ॥ २५ ॥ मूढ मरम जानै नहीं, करै न शिवसों प्रीति । पंडित लखै वनारसी, शिवमहिमा शिवरीति ॥२६॥
इति शिवपञ्चीसी.
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अथ भवसिन्धुचतुर्दशी लिख्यते. जैसे काहू पुरुषको, पार पहुंचवे काज ।
__मारगमाहि समुद्र तहां, कारणरूप जहाज ॥ १ ॥ । तैसें सम्यकवंतको, और न कछू इलाज ।
भवसमुद्रके तरणको, मन जहानसों काज ॥ २॥ ।
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१५६
जैनमन्थरलाकरे
मनजहाज घटमें प्रगट, भवसमुद्र घटनाहिं । मूरख मर्म न जानहीं, बाहिर खोजन जाहिं ॥ ३ ॥ मूरखहूके घटविषै, जलजहाज अरु पौन ।
गमुद्रित मालीम तह, लखे सँभारे कौन ? ॥ ४ ॥ कर्मसमुद्र विभाव जल, विषयकषाय तरंग |
चडवागनि तृष्णा प्रवल, ममता धुनि सरवंग ॥ ५ ॥ भरमभँवर तामें फिरै, मनजहाज चहुं और ।
गिरै खिरै वृडै तिरै, उदय पचनके जोर ॥ ६ ॥ जब चेतन मालिम जगै, लखै विपाक नजून ।
डारै समता श्रृंखला, थकै मँवरकी घूम ॥ ७ ॥ मालिम सहज समुद्रको, जानै सब विरतंत । शुभोपयोग तह रत्न सम, अशुभ भाव जलजंत ॥८॥ जन्तु देख नहि भय करै, रत्न देख उच्छाह ।
करै गमन शिवदीपको, यह मालिमकी चाह ॥ ९ ॥ दिशि परखै गुणजंत्रसों, फेरै शकति सुखान ।
धरै साथ शिवदीपमुख, वादवान शुभध्यान ॥ १० ॥ चहै शुद्ध उद्धत पवन, गहै क्षिपक दिशिलीक । लहै खबर शिवदीपकी, रहे दृष्टिगत ठीक ॥ ११ ॥ मनजहाज इहिविधि चलै, गेहै सिंधुजलवाट ।
आवै निज संपतिनिकट, पावै केवल घाट ॥ १२ ॥
१ कहै ऐसाभी पाठ हैं.
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बनारसीविलासः
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मालिम उतर जहाजसों, करै दीप को दौर ।
तहां न जल न जहाज गति, नहिं करनी कछु औरा॥१३॥ मालिमकी कालिममिटी, मालिम दीप न दोय । यह भवसिन्धुचतुर्दशी, मुनिचतुर्दशी होय ॥ १४ ॥
इति सिन्धुचतुर्दशी. अथ अध्यातम फाग लिख्यते. अध्यातम विन क्यों पाइये हो, परमपुरुषको रूप। अघट अंग घट मिल रह्यो हो, महिमा अगम अनूप ।।
__ भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥१॥ विषम विरष पूरो भयो हो, आयो सहज वसंत। प्रगटी सुरुचि सुगंधिता हो, मन मधुकर मयमंत ।।
भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ २ ॥ सुमति कोकिला गह गही हो, बही अपूरब वाट। भरम कुहर बादरफटे हो, घट जाडो जड़ ताउ ।।
भला अध्यातमविन क्यों पाइये मायारजनी लघु मई हो, समरस दिवशशिजीत । मोहर्पककी थिति घटी हो, संशय शिशिर व्यतीत ॥
___ भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ ४ ॥ शुम दल पल्लव लहलहे हो, होहिं अशुभ पतझार । मलिन विषय रति मालती हो, विरति वेलिविस्तार ॥
भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ ५ ॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
शशिविवेक निर्मल भयो हो, थिरता अमिय झकोर । फैली शक्ति सुचन्द्रिका हो, प्रमुदित नैन चकोर ॥ भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ ६ ॥ सुरति अग्निज्वाला जगी हो, समकित भानु अमन्द । हृदयकमल विकसित भयो हो, प्रगट सुजश मकरन्द ॥ भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ ७ ॥ दिढ कषाय हिमगिर गले हो, नदी निर्जरा जोर । धार धारणा बहचली हो, शिवसागर मुख ओर || भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ ८ ॥ वितथवात प्रभुता मिटी हो, जग्यो जथारथ काज । जंगल भूमि सुहावनी हो, नृप वसन्तके राज ॥
भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ ९ ॥ भवपरणति चार्चरि भई हो, अष्टकर्म बनजाल || अलख अमूरति आतमा हो, खेलै धर्म धमाल ॥
भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ १० ॥ नयपंकति चाचरि मिलि हो, ज्ञानध्यान डफताल । पिचकारी पद साधना हो, संवर भाव गुलाल ॥
भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ ११ ॥ राग विराम अलापिये हो, भावभगति शुभ तान । रीझ परम रसलीनता हो, दीने दश विधिदान || भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ १२ ॥
१ पृथिवी ऐसा भी पाठ है.
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बनारसीविलासः
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दया मिठाई रसभरी हो, तप मेवा परधान । शील सलिल अति सीयलो हो, संजम नागर पान |
भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ १३ ॥ गुपति अंग परगासिये हो, यह निलजता रीति। अकथ कथा मुखमाखिये हो, यह गारी निरनीति ॥
भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ १४ ॥ उद्धत गुण रशिया मिले हो, अमल विमल रसप्रेम । सुरत तरंगमहँ छकि रहे हो, मनसा वाचा नेम ||
____ भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ १५॥ परम ज्योति परगट भई हो, लगी होलिका आग। आठ काठ सब जरि बुझे हो, गई तताई माग ||
मला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ १६ ॥ प्रकृति पचासी लगि रही हो, भस लेख है सोय । न्हाय धोय उज्ज्वल भये हो, फिर तहँ खेल न कोय ॥
मला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ १७ ॥ सहज शक्ति गुण खेलिये हो, चेत वनारसिदास। सगे सखा ऐसें कहै हो, मिटै मोहदधि फास ॥
भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ १८॥ इति अध्यातमधमार.
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१६० जैनग्रन्थरत्नाकरे ___अथ सोलह तिथि लिख्यते.
चौपाई। अपरिवा प्रथम कला घट जागी । परम प्रतीतिरीति रसपागी ॥ प्रतिपद परम प्रीति उपजावै । वहै प्रतिपदा नाम कहावै ॥२॥
दूज दुईधी दृष्टि पसारै । स्वपरविवेकधारणा धारै ॥ * दर्वित भावित दीसै दोई । द्वय नय मानत द्वितीया होई॥२॥ तीज त्रिकाल त्रिगुण परकासै । त्रिविधिरूप त्रिभुवन आभास तीनों शल्य उपाधि उछेदै । त्रिधा कर्मकी परिणति भेदै ॥३॥ चौथ चतुर्गतिको निरवारै । कर चकचूर चौकरी चारै ॥ चारों वेद समुझि घर आवै । तब सुअनंत चतुष्टय पावै ॥४॥ पांचै पंच सुचारित पालै । पंचज्ञानकी सुरति संभाले ॥ पांचों इन्द्रिय करै निरासा । तव पावै पंचमगति वासा ॥ ५॥ छठ छहकाय खांग धर सोवै ॥ छह रस मगन छ आकृति होवै॥ जब छहदरशनमें न अरूझै । तब छ दर्वसों न्यारो सूझै॥६॥ सातें सातों प्रकृति खिपावै । सप्तमंग नयस मन लावै ॥ अत्याग सात व्यसनविधि बेती । निर्भय रहै सात भयसेती ७ ॐ आ3 आठ महामद भबै । अष्टसिद्धिरतिसों नहिं रंजे ॥
अष्टकर्ममलमूल बहावै । अष्टगुणातम सिद्ध कहावै ॥ ८ ॥ नौमी नवरसमें रस बेवै । तो समकित धर नवपद सवै ॥ करै भक्तिविधि नव परकारा । निरखै नवतत्त्वनसों न्यारा ॥९॥
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बनारसीविलासः
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दशमी दशदिशिसों मन मोरै । दश माणनसों नाता तोरै ॥ * दशविधि दान अभ्यंतर साथै दशलच्छण मुनिधर्म अराधै १० ग्यारस ग्यारह प्रकृति विनाशै ग्यारह प्रतिमापद परकाश ॥ ग्यारह रुद्र कुलिंग वखान (ग्यारह विथा जोग जिन माने ११ वारस बारह विरति बढ़ावै। वारह विधि तपसों तन तावै ॥ वारहभेद भावना मावै। वारह अंग जिनागम गावै ॥ १२ ॥ तेरस तेरह क्रिया संभाले । तेरह विघन कोठिया टालै ॥ तेरविधि संजम अवधारै। तेरह थानक जीव विचारै ॥१३॥ * चौदश चौदह विद्या माने । चौदह गुणथानक पहिचाने ॥ में चौदह मारगना मन आने । चौदहरज्जु लोक परवाने ॥१॥
पन्द्रस पन्द्रह तिथि गनिलीजे। पन्द्रह पात्र परखि घन दीजा पन्द्रह जोगरहित जो धरणी ।सो घट शून्य अमावस वरणी १५ ।। पूनों पूरण ब्रह्मविलासी । पूर गुण पूरण परगासी ॥ पूरण प्रभुता पूरणमासी । कहै साधु तुलसी बनवासी ॥१६॥
इति पोडसतिथिका.
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अथ तेरह काठिया लिख्यते. ... जेवटपार वाटमें, करहिं उपद्रव जोर। तिन्हें देश गुजरातमें, कहहि काठियांचोर ॥ १ ॥
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त्यों यह तेरह काठिया, करहिं धर्मकी हानि। तातें कछु इनकी कथा, कहहुं विशेष वखानि ॥ २ ॥ जूआ आलस शोक भय, कुकथा कौतुक कोहैं।
कृपणबुद्धि अज्ञानता, भ्रम निद्रा मंदै मोहैं ॥ ३ ॥ ॐ प्रथम काठिया जुआ जान । जामें पंच वस्तुकी हान।
प्रभुता हटै घटै शुभ कर्म । मिटै सुनश विनशै धनधर्म ॥४॥ द्वितिय काठिया आलसभाव । जासु उदय नाशै विवसाय ॥ बाहिर शिथिल होहिं सब अंग । अंतर धर्मवासना भंग ॥५॥
ठग तीसरो शोक संताप ! जासु उदय जिय करै विलाप ।। 3 सूतक पातक जिहि पर होय । धर्मक्रिया तहँ रहै न कोय।।६।। अभय चतुर्थ काठिया बखान । जाके उदय होय वलहान ॥ * उर कप नहिं फुरै उपाय । तब सुधर्म उद्यम मिट जाय ॥७॥
ठग पंचम कुकथा बकवाद । मिथ्यापाठ तथा ध्वनिनाद | जवलों जीव मगन इसमाहिं । तबलों धर्म वासना नाहिं॥८॥ कौतूहल छडम काठिया । भ्रमविलाससों हरष हिया ॥ मृषा वस्तु निरखै धर ध्यान । विनशि जाय सत्यारथ ज्ञाना। कोप काठिया है सातमा । अनि समान जहां आतमा | * आप न दाह औरको दहै । तहां धर्मरुचि रंच न रहै ॥१०॥
कृपणबुद्धि अष्टम वटपार । जामें प्रगट लोभ अधिकार | लोभ माहिं ममता परकाश । ममता करै धर्मको नाश ॥११॥
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वनारसीविलासः
१६३
नवमा ठगं आज्ञान अगाघ । जासु उदय उपजै अपराध || जो अपराध पाप है सोय | जहां पाप तहां धर्म न होय १२ दशम काठिया भ्रम विच्छेप । भ्रमसों अशुभ करमको लेप || अशुभ कर्म दुरमतिकी खानि । दुरमति करै धर्मकी हानि १३ एकादशम काठिया नींद | नासु उदय जिय वस्तु न वीं ॥ मन बच काय होय जड़रूप । वूड़े धर्म कर्मघनकूप ॥१४॥ उग द्वादशम अष्टमद् भार | जामें अकररोग अधिकार || अकररोग अरु विनयविरोध | जह अविनय तहँ धर्मनिरोध १५ तेरम चरम काठिया मोह | जो विवेकसों करै विछोह || अविवेकी मानुष तिरजंच । धर्मधारणा घरै न रंच ॥ १६ ॥
येही तेरह करम ठग | लेहिं रतन त्रय छीन ॥ यातें संसारी दशा । कहिये तेरह तीन ॥ १७ ॥
इति त्रयोदश काठिया.
अथ अध्यातम गीत लिख्यते.
राग गौरी.
।
मेरा मनका प्यारा जो मिलै । मेरा सहज सनेही जो मिलै ॥टेक॥ अवघि अजोध्या आतम राम । सीता सुमति करै परणांम ॥ मेरा मनका प्यारा जो मिलै, मेरा सहन० ॥ १ ॥ उपज्यो कंत मिलनको चाय । समता सखीसों कहै इसभाव || मेरा मनका प्यारा जो मिलै, मेरा० ॥ २ ॥
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१६४ जैनग्रन्थरत्नाकरे * मै विरहिन पियके आधीन। यो तलफों ज्यों जल बिन मीन ।
___ मेरा मनका प्यारा जो मिलै, मेरा० ॥३॥ बाहिर देखू तो पिय दूर । घट देखे घटमें भर पूर ॥
मेरा० .... ॥ ४॥ घटमहि गुप्त रहै निरधार । वचनअगोचर मनके पार ॥
मेरा० .... ..... ॥५॥ अलख अमूरति वर्णन कोय । कवधों पियको दर्शन होय ॥
मेरा० .... .. ॥६॥ सुगम लुपंथ निकट है ठौर। अंतर आड विरहकी दौर
मेरा० .... .... ॥७॥ जउ देखो पियकी उनहार । तन मन सर्वस डारों बार ॥
मेरा० ... ... ॥ ८॥ होहुं मगन मैं दरशन पाय । ज्यों दरियामें बूंद समाय ॥
. मेरा० ..... ....: ॥ ९॥ - पियको मिलों अपनपो खोय । ओला गल पाणी ज्यों होय ॥ __ मेरा० ..... .... |॥ १० ॥ मैं जग ढूंढ फिरी सब ठोर । पियके पटतर रूप न ओर ॥
.. मेरा० ... ..... ॥ ११ ॥ पिय जगनायक पिय जगसार । पियकी महिमा अगम अपारा। . . . मेरा० ... ... ॥ १२ ॥
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बनारसीविलासः
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अंपिय सुमिरत सव.दुख मिट जाहिं । भोरनिरख ज्यों चोर पलाहिं
. . .. मेरा० ... ... ॥ १३ ॥ भयभंजन पियको गुनवाद । गजगंजन ज्यों केहरिनाद ॥ __ . . . . मेरा० .... ... ॥ १४ ॥
भागइ भरम करत पियध्यान । फटइ तिमिर ज्यों ऊगत मान है * . . . ... मेरा० .... ... ॥ १५॥ दोष दुरइ देखत पिय ओर । नाग डरइ ज्यों बोलत मोर ॥
. .. . मेरा० .... .... ॥ १६ ॥ वसों सदा मैं पियके गाँउ । पियतज और कहां मैं जाँउ ॥
". मेरा० .... ... ॥ १७ ॥ जो पिय जाति जाति मम सोइ । जातहिं जात मिलै सब कोइ ।
. .. मेरा० ..... .... ॥ १८॥ पिय मोरे घट, मैं पियमाहिं । जलतंरग ज्यों द्विविधा नाहि ॥
. मेरा० ..... .... ॥ १९ ॥ पियं मो करता मैं करतूति । पिय ज्ञानी मैं ज्ञानविमूति ॥
मेरा० .... .... ॥२०॥ पिय सुखसागर मैं सुखींव । पिय शिवमन्दिर मैं शिवनीव ॥
मेरा० .... .... ॥ २१ ॥ पिय ब्रह्मा मैं सरखति नाम । पिय माधव मो कमला नाम ॥
मेरा० ... .... || २२ ॥
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१६६ जैनग्रन्थरत्नाकरे पिय शंकर मैं देवि भवानि । पिय जिनवर मैं केवलवानि ॥
मेरा० ... ... ॥ २३ ॥ पिय भोगी मैं भुक्तिविशेष । पिय जोगी मैं मुद्रा भेष ॥
मेरा० ... ... ॥ २४ ॥ पिय मो रसिया मैं रसरीति । पिय व्योहारिया मैं परतीति ।।
मेरा० ... .... ॥ २५॥ जहां पिय साधक तहाँ मैं सिद्ध । जहां पिय ठाकुर तहाँ मैं रिद्धा
मेरा० .... .... ॥ २६ ॥ जहां पिय राजा तहाँ मैं नीति । जहँ पिय जोद्धा तहाँ मैं जीति
मेरा० ... ... ॥ २७ ॥ पिय गुणग्राहक मैं गुणपांति । पिय बहुनायक मैं बहुभांति ॥
मेरा० ... .... ॥२८॥ | जहँ पिय तहँ मैं पियके संग । ज्यों शशि हरिमें ज्योति अभंग ।
___ मेरा० .... .... ॥ २९ ॥ पिय सुमिरन पियको गुणगान । यह परमारथपंथ निदान ॥
मेरा० ... .... ॥ ३०॥ * कहइ व्यवहार बनारसिनाव, चेतन सुमति सटी इकठाँव ॥
मेरा० ... ... ॥३१॥ ' इति चेतनसुमतिगीत.
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बनारसीविलासः १६७ अथ पंचपदविधान लिख्यते.
दोहा. नमो ध्यानघर पंचपद, पंचसु ज्ञान अराधि। पंचमुचरण चितारचित, पंचकरन रिपुसाधि ॥ १ ॥
चौपाई (१५.) बन्दों श्रीअरहंत अधीश । वन्दों स्वयंसिद्ध जगदीश ॥ वन्दों आचारज उवझाय । बन्दों साधुपुरुषके पाय ॥ २ ॥ एई पंच इष्ट आधार । इनमें देव एक गुरु चार ॥ सिद्ध देव परसिद्ध उदार । गुरु अरहतादिक अनगार ॥ ३॥ सिद्ध सोई जस करै न कोइ । भयो कदाच न कवई होइ ॥ अखय अखंडित अविचलधाम । निर्मल निराकार निरनाम ४ अब गुरु कहों चार परकार । परम निधान धरमधनधार ॥ मरमवंत शुभ कर्म सुजान । त्रिभुवनमाहिं पुरुष परधान ॥५॥
प्रथम परमगुरु श्रीअरहंत । द्वितिय परमगुरु सूरि महंत ॥ ॐ तृतिय परमगुरु श्रीउवझाय । चौथे परम सुगुरु मुनिराय || परम ज्ञान दर्शनमंडार । वाणी खिरै परम सुखकार ॥ परम उदारिक तनधारत । परम सुगुरु कहिये अरहंत ॥ ७ ॥ धर्मध्यान धारे उतकिष्ट । भा धर्मदेशना मिष्ट ॥ धर्मनिधान धर्मसों प्रेम । धर्म सुगुरु आचारज एम ॥ ८॥ चौदह पूरव ग्यारह अंग । प. मरम जानै सरवंग ॥ परको मर्म कहैं समुझाय । यातै परम सुगुरु उवझाय ॥ ९॥
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१६८ जैनग्रन्थरत्नाकरे -
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घट आवश्य कर्म नित करें। त्रिविधि कर्मममता परिहरे॥ विपुल करम साधे समकिती । परम सुगुरु सामानिक जती१० पंच सुपद कीलइ चिंतौन । दुरित हरन दुख दारिद दौन ॥ यह जप मुख्य और जप गौन । इस गुण महिमा वरण कौन ११
दोहा।। महामंत्र ये पंचपद, आराधै जो कोय। . कहत वनारसिदास पद, उलट सदाशिव होय ॥१२॥
, इति श्रीपंचपद विधान. ___ अथ सुमतिके देव्यष्टोत्तरशतनाम.
नमौ सिद्धिसाधक पुरुष, नमौ आतमाराम । वरणों देवी सुमतिके, अष्टोत्तरशत नाम ॥ १ ॥
रोडक छन्द । सुमति सबुद्धि सुधी सुबोधनिधिसुता पुनीता । शशिवदनी सेमुपी शिवमती धिपणा सीता ।। सिद्धा संजमवती स्यादवादिनी विनीता । निरदोषा नीरजा निर्मला जगत अतीता ॥
शीलवती शोभावती, शुचिधर्मा रुचिरीति । . शिवा सुभद्रा शंकरी, मेधा दृढ़परतीति ॥ २॥ बह्माणी ब्रह्मजा ब्रह्मरति, ब्रह्मअधीता। पदमा पदमावती वीतरागा गुणगीता ॥
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बनारसीविलासः १६९ ।
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शिवदायिनि शीतला राधिका, रमा अजीता। समता सिद्धेश्वरी सत्यसामा निरनीता ॥
कल्याणी कमला कुशलि, भवमंजनी भवानि ।
लीलावती मनोरमा, आनन्दी सुखवानि ॥ ३ ॥ परमा परमेश्वरी परम पंडिता अनन्ता । असहाया आमोदवती अभया अघहंता ॥ ज्ञानपंती गुणवती गौमती गौरी गंगा। लक्ष्मी विद्याधरी आदि सुंदरी असंगा ॥ .
चन्द्रामा चिन्ताहरणि, चिद्विद्या विद्वेलि ।
चेतनवती निराकुला, शिवमुद्रा शिवकेलि ॥ ४ ॥ चिदवदनी चिप कला वसुमती विचित्रा। अर्धेगी अक्षरा जगतजननी जगमित्रा ॥ अविकारा, चेतना चमत्कारिणी चिदंका । दुर्गा दर्शनवती दुरितहरणी निकलंका ॥
धर्मघरा धीरज धरनि, मोहनाशिनी वाम । जगत विकाशिनि भगवती, भरमभेदनी नाम ॥ ५ ॥
.: धत्तानन्द. निपुणानवनीता, वितथवितीता, सुजसा भवसागरतरणी। भु निगमा निरवानी, दयानिधानी, यह सुबुद्धिदेवी वरणी ॥ ६॥
इति श्रीमुमतिदेविशतक.
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जैनग्रन्थरत्नाकर
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अथ शारदाष्टकं लिख्यते.
वस्तु छन्द नमो केवल नमो केवल रूप भगवान । मुख ओंकारधुनि सुनि अर्थ गणधर विचारै ।। रचि आगम उपदिशै भविक जीव संशय निवारै ॥
सो सत्यारथ शारदा तासु, भक्ति उर आन । छन्द भुजंगप्रयातमें, अष्टक कहीं बखान ॥१॥
भुजंगमयात. जिनादेशजाता जिनेन्द्रा विख्याता।
विशुद्धप्रबुद्धा नमों लोकमाता ॥ दुराचार दुनैहरा शंकरानी।
नमो देविबागेश्वरी जैनवानी ॥२॥ सुधाधर्मसंसाधनी धर्मशाला।
सुधातापनि शनी मेघमाला ॥ महामोहविध्वंसनी मोमदानी।
नमो देवि वागेश्वरी जैनवानी ॥३॥ अक्षवृक्षशाखा व्यतीतामिलाषा।
कथा संस्कृता प्राकृता देशमाषा ॥ चिदानन्द-भूपालकी राजधानी।
नमो देवि वागेश्वरी जैनवानी ॥ ४ ॥
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वनारसीविलासः
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समाधानरूपा अनूपा अछुद्रा।
अनेकान्तघा स्यादवादामुद्रा ॥ त्रिधा सप्तधा द्वादशाझी वखानी।
नमो देवि वागेश्वरी जैनवानी ॥ ५॥ अकोपा अमाना अदभा अलोमा।
श्रुतज्ञानरूपी मतिज्ञानशोभा ॥ महापावनी भावना भव्यमानी।
नमो देवि वागेश्वरी जैनवानी ॥ ६॥ अतीता अजीता सदा निर्विकारा।
विषैवाटिकाखडिनी खनधारा ॥ पुरापापविक्षेपकर्तृ कृपाणी ।
नमो देवि वागेश्वरी जैनवानी ॥ ७॥ अगाधा अवाधा निरंमा निराशा। __ अनन्ता अनादीश्वरी कर्मनाशा ॥ निशंका निरंका चिदंका भवानी।
नमो देवि बागेश्वरी जैनवानी ॥ ८ ॥ अशोका मुदेका विवेका विधानी।
जगजन्तुमिना विचित्रावसानी ॥ समतावलोका निरस्तानिदानी।
नमो देवि वागेश्वरी जैनवानी ॥ ९ ॥
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जैनग्रन्थरताकरे
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वस्तुच्छंद. जैनवाणी जैनवाणी सुनहिं जे जीव । जे आगम रुचिधर जे प्रतीति मन माहिं आनहि । अवधारहिं जे पुरुष समर्थ पद अर्थ जानहि ॥ जे हितहेतु वनारसी, देहिं धर्म उपदेश । ते सब पावहिं परम सुख, तब संसार कलेश ॥ १०॥
इति शारदाष्टक.
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___ अथ नवदुर्गाविधान लिख्यते.
कवित्त. . प्रथमहिं समकितवंत लखि आपापर
परको खरूप त्यागी आप गहलेतु है। बहुरि विलोक साध्यसाधक अवस्था भेद, ___ साधक है सिद्धिपदको सुदृष्टि देतु है ।। अविरतगुणथान आदि छीनमोहअन्त,
नवगुणथान निति साधकको खेतु है ॥ संजम चिहन विना साधक गुपतरूप,
त्यों त्यों परगट ज्यों ज्यों संजम सुचेतु है ॥ १॥ जैसे काहू पुरुषको कारण ऊरध पंथ, ___ कारज खरूपी गढ़ भूमिगिरशृंग है । तैसें साध्यपद देव केवल पुरुष लिंग,
साधक सुमति देवीरूप तियलिंग है।
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बनारसीविलासः
ज्ञानकी अवस्था दोऊ निश्चय न भेद कोऊ, व्यवहार भेद देव देवी यह व्यंग है ।
ऐसो साध्य साधक स्वरूप सूधी मोखपंथ, संतनको सत्यारथ मूढ़नको डिंग है ॥ २ ॥
जाको भौनभवकूप मुकुट विवेकरूप, अनाचार रासभ आरूढदुति गूझी है ।
जाके एक हाथ परमारथ कलश दूजे, हाथ त्याग शकति बोहारी विधि बूझी है । जाके गुणश्रवण विचार यहै वासी भोग,
औपन भगतिरसरागसों अरूझी है || सो है देवी शीतला सुमति सूझे संतनको, दुबुद्धि लोगनको रोगरूप सूझी है ॥ ३ ॥
कृपसों निकस जबभूपर उदोत भई,
तब और ज्योति मुख ऊपर विराजी है । - भुजा भई चौगुणी शकति भई सौगुणी, - लजाय गए औगुणी रजायछिति छाजी है ||
कुंभसों प्रगट्यो नूर, रासभसों भवो सूर,
सूप भयो छत्रसों बुहारी शस्त्र राजी है।
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ऐपन को रंगसो तो कंचनको अंग भयो, छत्रपति नामभयो वासी रीति ताजी है ॥ ४ ॥
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जैनग्रन्थरताकरे
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दोहा। जाके परसत परमसुख, दरसत दुख मिट जाहिं । यहै सुमति देवी प्रगट, नगर कोट घटमाहिं ॥ ५॥
कवित। यहै बंधबंधकस्वरूप मानवंदी भई,
यह है अनंदी चिदानंद अनुसरणी। यह ध्यान अगनि प्रगट भये ज्यालामुखी, ___ यहै चंडी मोह महिषासुर निदरणी ॥
यहै अष्टभुजी अष्टकर्मकी शकति मजे, ___ यहै कालवंचनी उलधै कालकरणी। यहै अबला बली विराजे त्रिभुवन राणी,
यहै देवी सुमति अनेकमांति वरणी ॥ ६ ॥ यहै कामनाशिनी कमिक्षा कलिमें कहावै, ___ यहै ब्रह्मचारिणी कुमारी है अपरनी।
यह है भगौति यहै दुर्गा दुर्गति जाकी, ___ यहै छत्रपती पुण्यपापतापहरनी ॥ यहै रामरमणी सहजरूप सीता सती, __ यहै आदि सुंदरी विवेकसिंहचरनी। यहै जगमाता अनुकंपारूप देखियत,
यहै देवी सुमति अनेकमांति वरनी ॥७॥
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बनारसीविलासः
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यह सरखती हंसवाहिनी प्रगट रूप, __ यह भवमेदिनी मवानी शंमुघरनी। यह ज्ञान लच्छनसों लच्छमी विलोकियत,
यहै गुणरतनभंडार भारभरनी ॥ यहै गंगा त्रिविधि विचारमें त्रिपथ गौनी, __यह मोखसाधनको तीरथकी धरनी। यहै गोपी यहै राधा राधै भगवान मावै,
यह देवी सुमति अनेकभांति वरनी ॥ ८॥ यहै परमेश्वरी परम ऋद्धि सिद्धि साथै, __ यहै जोग माया व्यवहार ढार ढरनी।
यहै पदमावती पदम ज्यों अलेप रहै, __यहै शुद्ध शकति मिथ्यातकी कतरनी ॥ यहै जिनमहिमा बखानी जिनशासनमें,
अहै अखंडित शिवमहिमा अमरनी। यहै रसभोगनी वियोगमें वियोगिनी है, - यहै देवी सुमति अनेकमांतिवरनी ॥९॥ । इति श्रीनवदुर्गा विधान.
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Postatute tutothkatthtakistast.ttatutituttatutotke ११७६ जैनग्रन्थरत्नाकरे ___ अथ नामनिर्णयविधान लिख्यते. .
दोहा। काहू दिन काहू समय, करुणाभाव समेत । सुगुरु नामनिर्णय कहै, भविक जीव हितहेत ॥ १ ॥ जीव द्विविधि संसारमें, अथिररूप थिररूप | अथिर देहधारी अलख, थिर भगवान अनूप ॥ २ ॥
__ कवित्त (३१ वर्ण) जो है अविनाशी वस्तु ताको अविनाशी नाम,
विनाशीक वस्तु जाको नाम विनाशीक है। फूल मरै बास जीव यह भ्रमरूपीवात,..
दोऊ मेरै दोऊ जीवे यह बात ठीक है ॥ अनादि अनंत भगवंतको सुजस नाम, __ भवसिंधु तारण तरण तहकीक है। .. अवतरै मरै भी घरै जे फिर फिर देह, तिनको सुजस नाम अथिर अलीक है ॥ ३ ॥
... दोहा। थिर न रहै नर नाम की, 'जथा कथा जलरेख । एते पर मिथ्यामती, ममता करें विशेख ॥ ४ ॥
वित्त. जगमें मिथ्याती जीव भ्रम करै है सदीव,
अमके प्रवाहमें बहा है आगें बहेगा। नाम राखिवेको महारंभ करै दंभ करै,
यो न जानै दुर्गतिमें दुःख कौन सहेगा ॥
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___वनारसीविलासः १७७ बार वार कहैं मोह भागवंत धनवंत,
मेरा नाव जगतमें सदाकाल रहेगा। याही ममतासों गहि आयो है अनंत नाम, ___ आगे योनियोनिमें अनंत नाम गहेगा ॥ ५ ॥
दोहा। वोल उठे चित चौंकि नर, सुनत नामकी हांक । वहै शब्द सतगुरु कहें, है भ्रमकूप धमांक ॥ ६ ॥
कवित्त। जगतमें एक एक जनके अनेक नाम, ___ एक एक नाम देखिये अनेक जनमें । वा जनम और या जनम और आगे और,
फिरता रहै पै याकी थिरता न तनमें ।। कोई कलपना कर जोई नाम धरै जाको,
सोई जीव सोई नाम मानें तिहूं पनमें । ऐसो विरतंत लख संतसो सुगुरु कहै, तेरो नाम भ्रम तू विचार देख मनमें ॥ ७ ॥
दोहा. नाम अनेक समीप तुव, अंग अंग सब ठौर। , जासों तू अपनो कहै, सो भ्रमरूपी और ॥ ८ ॥
कवित्त।
केश शीस भाल मोह वरुणी पलक नैन,
गोलक कपोल गंड नासा मुख श्रौन है।
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११७८
जैनग्रन्थरनाकरे
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अघर दसन ओंठ रसना मसूदा ताल,
घंटिका चिबुक कंठ कंथा उर भौन है ।। कांख कटि भुजा कर नाभि कुच पीठ पेट,
अंगुली हथेली नख जंघाथल मौन हैं। नितम्ब चरण रोम एते नाम अंगनके, तामें तू विचार नर तेरा नाम कौन है ॥९॥
दोहा। नाम रूप नहिं जीवको, नहिं पुद्गलको पिंड ।
नहिं स्वभाव संजोगको, प्रगट भरमको भिंड ॥ १० ॥ ___ यह सुनामनिर्णयकथा, कही सुगुरु संछेप । जे समुझहिं जे सरदहें, ते नीरस निरलेप ॥ ११ ॥
इति श्रीनामनिर्णयविधान.
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___ अथ नवरत्नकवित्त लिख्यते. धन्वन्तरि छपणक अमेर, घटसर्पर वैताले । वररुचि शंकै बहमिह (र), कालिदास नव लाल ॥ १॥ विमलचित्त जाचक शिथिल, मूढ़ तपस्वी प्रात । कृपणंबुद्धि तियनरपती, ज्ञानवंत नव वात ॥ २ ॥
छप्पय। विमल चित्तकर मित्त, शत्रु छलबल वश किब्जय । प्रभु सेवा वश करिय, लोभवन्तहिं धन दिजय ॥
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. बनारसीविलासः
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युवति प्रेम वश करिय, साधु आदर वश आनिय । __ महाराज गुणकथन, वंधु समरस सनमानिय ॥ * गुरुनमन शीस रससों रसिक, विद्या बल बुधि मन हरिय । हर * मूरख विनोद विकथा वचन, शुम स्वभाव जगवन करिय ॥३ . ॐ जाचक लघुपद लहै, काम आतुर कलंक पद ।
लोभी अपजस लहै, असनलालची व्है गद ॥ उन्नत लहै निपात, दुष्ट परदोष लह तकि।
कुमन विकलता लहै लहै संशय जु रहै चकि ।। अपमान लहै निर्धन पुरुष, ज्वारी वहु संकट सहै। जो कहै सहज करकश वचन, सो जग अप्रियता लहै ॥ ४ ॥
शिथिल मूल दिढ करै, फूल चूरै जलसींचै । ऊरघ डार नवाय, भूमिगत ऊरथ खींचै ।।। ने मलीन मुरझाहिं, टेक दे तिनहिं सुधारइ । कूड़ा कंटक गलित पत्र, बाहिर चुन डारह ॥ लघु वृद्धि करइ भेदै जुगल, वाडि सवारै फल भखै । 'माली समान जो नृप चतुर, सो विलसै संपति अखे ॥ ५॥ मूढ़ मसकती तपी, दुष्ट मानी गृहस्थ नर ।। नरनायक आलसी, विपुल धनवंत कृपण कर ॥ धरमी दुसह स्वभाव, वेद पाठी अघरम रत । पराधीन शुचिवन्त, भूमिपालक निदेशहत ।। रोग.'
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१८० जैनग्रन्थरत्नाकरे ।
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रोगी दरिद्रपीड़ित पुरुष, वृद्ध नारि रसगृद्धचित । एते विडम्ब संसारमें, इन सब कहँ धिक्कार नित ॥ ६ ॥ प्रात धर्म चिन्तवै, सहजहित मंत्र विचारै। चर चलाय चहुं ओर, देशपुर प्रजा सम्हार ।।
राग द्वेष हिय गोप, वचन अम्रत सम वोले। ॐ समय ठौर पहिचान, कठिन कोमल गुण खोले । निज जतन करै संचय रतन, न्यायमित्र अरि सम गर्ने । रणमें निशंक है संचरै, सो नरेन्द्र रिपुदल हनै ॥ ७॥
कृपण बुद्धि यश हनें, कोप दृढ़ प्रीति विछोरै। दम विध्वंसै सत्य, क्षुधा मर्यादा तोरे ॥
कुव्यसन धन छय करै, विपति थिरता पद टारइ। . * मोह मरोरै ज्ञान, विषय शुभ ध्यान विडारइ ॥
अभिमान विछेदै विनय गुण, पिशुनकर्म गुरुता गिलै। कुकलाअभ्यास नासहि सुपथ, दारिदसों आदर टलै ॥ ८ ॥
तियवल योवन समय, साधुवल शिवपथ संवर । नृपबल तेज प्रताप, दुष्टबल वचन अडम्बर । निर्धनवल सुमिलाप, दानिसेवा याचकवल।
वाणिजबल व्यवहार, ज्ञानबल वरविवेकदल ॥ विद्या विनय उदारवल, गुणसमूह प्रभुवल दरव। . परिवार स्वबल सुविचार कर, होहिं एक समता सरव ॥९॥ १. जासूद.
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नरपतिमंडन नीति, पुरुषमंडन मनधीरन । पंडितमंडन विनय, तालसरमंडन नीरज ॥ कुलतियमंडन लान, वचनमंडन प्रसन्नमुख ।
मतिमंडन कवि धर्म, साधुमंडन समाधिसुख ॥ । भुनवलसमर्थ मंडन क्षमा, गृहपति मंडन विपुल धन । मंडन सिद्धान्त रुचि सन्त कहँ, कायामंडन लवन घन ॥१०॥
ज्ञानवन्त हठ गहै, निधन परिवार बढ़ावै । विधवा करै गुमान, धनी सेवक है धावै ॥ वृद्ध न समझै धर्म, नारि भर्ता अपमान ।
पंडित क्रिया विहीन, राय दुर्बुद्धि प्रमानै । कुलवंत पुरुष कुरुविधितजे, बंधु न मानै बंधुहित ।। सन्यासधार बन्न संग्रहै, ए जगमें मूरख विदित ॥ ११ ॥
इति श्रीनवरत्न ऋवित्त.
अथ अष्टप्रकारजिनपूजन लिख्यते.
दोहा। जलधारा चन्दन पुहुपै, अक्षत अरु नैवेद ।
दीप धूप फल अर्धयुत, जिनपूजा वसुमेद ॥ १ ॥ जल-मलिन वस्तु उज्ज्वल करै, यह खभाव जलमाहिं ।
जलसों जिनपद पूजतें, कृतकलङ्क मिट जाहिं ॥ २ ॥ १ लावण्यता. १ पुष्प. ३ किये हुए पाप.
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__wor r.. rmer mimm . .ur चन्दन-तप्तवस्तु शीतल कर, चन्दन शीतल आप। ___चन्दनसों जिन पूजतें, मिटै मोहसंताप ॥३॥ पुष्प-पुष्य चापधर पुप्पशर, धारै मनमथ वीर। - यातें पूजा पुष्पकी, हरे मदनशरपीर ॥ ४ ॥ अक्षत-तन्दुल धवल पवित्र अति, नाम सु अक्षत तास ।
अक्षतस जिन पूजते, अक्षय गुणपरकास ॥ ५॥ नैवेद्य-परम अन्न नैवेद्य विधि, भुधाहरण तन पोय।।
जिनपूजत नैवेद्यसों, मिटहिं क्षुधादिक दोष ॥ ६ ॥ दीपक-आपा पर देख सकल, निशिमें दीपक होत।
दीपकसों जिन पूजतें, निमरीज्ञानउद्योत ॥ ७ ॥ धूप-पावक दहै सुगंधिको, धूप कहावै सोय ।
खेवत धूप जिनेशको, कर्म दहन छल होय ॥ ८॥ फल-जो जैसी करनी करै, सो तैसा फल लेय।
फल पूजा जिनदेवकी, निश्चय शिवफल देय ॥९॥ * अर्घ-यह जिन पूजा अष्टविधि, कीजे कर शुचि अंग। ___ प्रतिपूजा जलधारसों, दीजे अर्थ अभंग ॥ १० ॥
इति अष्टप्रकार जिनपूजन. अथ दशदानविधान लिख्यते. गो सुवर्ण दासी भवन, गज तुरंग परधान ।
कुलकरुन तिल भूमि रथ, ये पुनीत दशदान ॥१॥ । १ धनुष. २ जो कभी क्षय न हो.
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बनारसीविलासः
१८३
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अब इनको विवरण कहूं, भावितरूप वखानि । अलखरीति अनुभवकथा, जो समझे सो दानि ॥ २ ॥
चौपाई। गो कहिये इन्द्री अमिवाना | बछरा उमंग भोग पय पाना । जो इसके रसमाहिं न राचा । सो सबच्छ गोदानी साँचा ॥३॥ कनक सुरंग सु अक्षर वानी। तीनों शब्द सुवर्ण कहानी ॥
ज्यो त्याग तीनहुँकी साता । सो कहिये सुवरणको दाता ॥४॥ ॐ परावीन पररूप गरासी । यो दुर्वृद्धि कहावै दासी ॥
ताकी रीति तलै बब ज्ञाता । तव दासीदातार विख्याता ॥५॥
तनमन्दिर चेतन घरवासी । ज्ञानदृष्टि घट अन्तरभासी || * समझे यह पर है गुण मेरा । मन्दिरवान होहिं विहिं चेरा ॥६॥ ॐ अष्ट महामद धुरके साथी । ए कुकर्म कुदशाके हाथी ॥
इनको त्याग कर जो कोई । गजदातार कहावै सोई ॥ ७॥ मनतुरंग चढ़ ज्ञानी दौरइ । लखै तुरंग औरमैं औरइ ॥ निज हगको निजरूप गहावे । सो तुरंगको दान कहावे ||८|| अविनाशी कुलके गुण गावै । कुल कलित्र सहुद्धि कहावै ॥ बुद्धि अतीत धारणा फैली । वहै कलत्रदानकी सैली ॥ ९॥ ब्रह्मविलास तेल खलि माया । मिश्रपिंड तिल नाम कहाया ॥ पिंडलप गहि द्विविधा मानी । द्विविधा तजै सोइ तिलदानी।।१०111 लो व्यवहार अवस्था होई । अन्तरमि कहावै सोई ॥ तज व्यवहार जो निश्चय माने । भूमिदानकी विधि सो जाने ।
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१८४ जैनग्रन्थरत्वाकरे
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शुकल ध्यान रथ चढे सयाना । मुक्तिपन्थको करै पयाना ॥ रहै अजोग जोगसों बागी । वहै महारथ रथको त्यागी ॥१२॥
ये दशदान जु मैं कहे, सो शिवशासनमूल । ज्ञानवन्त सूक्षम गहै, मूढ़ विचारै थूल ॥ १३ ॥ ये ही हित चित जानको, ये ही अहित अजान । रागरहित विधिसहित हित, अहित आनकी आन ॥१४॥
इति दशदानविधान, अथ दश बोल लिख्यते.
चौपाई. जिनकी मांति कहों समुझाई । जिनपद कहा सुनो रे भाई ॥ धर्म खरूप कहावै ऐसा । सो जिनधर्म वखानौ जैसा ॥ १ आगम कहो जिनागम सांचा । चरणों वचन और जिन वाचा मत भाषहुँ जिनमत समुझावहुं । ये दश बोल जथारथ गाव ॥२
जिन-दोहा। सहज बन्धवंदक रहित, सहित अनन्तचतुष्ट । जोगी जोगअतीत मुनि, सो जिन आतम सुष्ट ॥ ३॥
जिनपद । विधि निषेध जानै नहीं, जहँ अखंड रस पान । विमल अवस्था जो धरै, सो जिनपद परमान ॥ ४ ॥
धर्म। लहिये वस्तु अवस्तुमें, यथा अवस्थित जोय । जो स्वभाव जामै सधै, धर्म कहावै सोय ॥ ५ ॥
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जिनधर्म। पुरुष प्रमाण परंपरा, वचन बीज विस्तार । धेरै अर्थकी अगमता, यह आगमकी ढार ॥ ६ ॥
जिनभागम। जहां द्रव्य पर तत्त्व नव, लोकालोक विचार । विवरण कर अनंत नय, सो जिन आगम सार ॥ ७ ॥
वचन।
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कहुं अक्षर मुद्रा धरै, कई अनक्षर धार। मृषा सत्य अनुमय उमय, बचन चार परकार ॥ ८॥
जिनवचन। जाकी दशा निरक्षरी, महिमा अक्षर रूप । स्यादवादजुत सत्यमय, सो जिनवचन अनूप ॥९॥
मत । थापै निज मतकी क्रिया, निन्दै परमतरीति । कुलाचारसों बधि रहै, यह मतकी परतीति ॥ १० ॥
जिनमत ।
अर्हत् देव सुसाधु गुरु, दया धर्म जहँ होय। केवल भाषित रीति जह, कहिये जिनमत सोय ॥ ११॥
इति दशवोल.
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अथ पहेली लिख्यते.
कहरानामाकी चाल. कुमति सुमति दोऊ अजवनिता, दोडको कन्त अवाची।
वह अजान पति मरम न जाने, यह भरतासो राची ॥१॥ * यह सुबुद्धि आपा परिपूरण, आपापर पहिचाने ।
लख लालनकी चाल चपलता, सौतसाल उर आने ॥ २ ॥ करै विलास हास कौतूहल, अगणित संग सहेली। काहू समय पाय सखियनसों, कहै पुनीत पहेली ॥३॥ मोरे आंगन विरवा उलयो, विना पवन झकुलाई। ऊंचि डाल बड पात सघनवाँ, छाहँ सौतके जाई ॥ ४ ॥ बोलै सखी वात मैं समझी, कहूं अर्थ अव जो है। तोरे घर अन्तरघटनायक, अदभुत विरवा सो है ॥ ५॥ ऊंची डाल चेतना उद्धत, बड़े पात गुण भारी। ममता वात गात नहिं परसै, छकनि छाह छत नारी ॥६॥ उदय स्वभाव पाय पद चंचल, यात इत उत डोले ।
कबहूँ घर कहूं घर बाहिर, सहज सरूप कलोल ॥ ७॥ ___ कबहूं निज संपति आकर्षे, कबहू परसै माया।
जब तनको त्योनार करै तब, परै सौति पर छाया ॥८॥
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१ इसको कवियों ने सार छन्द माना है, नरेन्द्र (जोगीरासा) की राह पर भी यह चलता है.
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तोरे हिये डाह यों आवै, हौं कुलीन वह चेरी । , कहै सखी सुन दीनदयाली; यहै हियाली तेरी ॥९॥
दोहा. हिय आंगनमें प्रेम तरु, सुरति डार गुणपात । मगनरूप है लहलहै, विना द्वन्ददुखवात ॥ १० ॥ भरमभाव ग्रीषम भयो, सरस भूमि चितमाहिं । देश दशा इक सम भई, यहै सौतघर छाहिं ॥ ११ ॥
इति पहेली. अथ प्रश्नोत्तरदोहा लिख्यते. प्रश्न-कौन वस्तु वपु माहिं है, कहाँ आवै कहाँ जाय ।
ज्ञानप्रकाश कहा लखै, कौन ठौर ठहराय ॥ १॥ उत्तर-चिदानंद वपुमाहिं है, मममहिं आवै जाय।
ज्ञान प्रकट आपा लखै, आपमाहिं ठहराय ॥२॥ प्रश्न-जाको खोजत जगतजन, कर कर नानामेप।
ताहि बतावहु, है कहा जाको नाम अलेप ॥ ३॥ उत्तर-जग शोधत कछु औरको, वह तो और न होय ।
वह अलेख निरमेष मुनि, खोजन हारा सोय ॥ ४॥ प्रश्न-उपनै विनसै थिररहै, वह अविनाशी नाम । ___भेदी तुम भारी मला!, मोहि बतावह ठाम ॥ ५ ॥ उत्तर-उपजै विनसै रूप जड़, वह चिद्रूप अखंड । ___जोग जुगति जगमें लसै, वसै पिण्ड ब्रहमंड ॥६॥
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प्रश्न-शब्द अगोचर वस्तु है, कछू कहौं अनुमान । ____ जैसी गुरु आगम कही, तैसी कहौ लुजान ॥ ७॥ उत्तर-शब्द अगोचर कहत है, शब्दमाहिं पुनि सोय।।
स्यादवाद शैली अगम, विरला बुझै कोय ॥ ८ ॥ प्रश्न-वह अरूप है रूपमें, दुरिकै कियो दुराव।
जैसें पावक काठमें, प्रगटे होत लखाव ॥ ९॥ उत्तर-हुतो प्रगट फिर गुपतमय, यह तो ऐसो नाहिं। है अनादि ज्यों खानिमें, कंचन पाहनमाहि ॥१०॥
इति प्रश्नोत्तर दोहा.
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अथ प्रश्नोत्तरमाला लिख्यते. नमत शीस गोबिन्दसों, उद्धव पूछत एम ।। __ कै विधि यम कै विधि नियम, कहो यथावत जेम॥१॥
समता कैसी दम कहा, कहा तितिक्षा भाव ___ धीरज दान जु तप कहा, कहा सुभट विवसाव ॥२॥
कहा सत्यरति है कहा, शौच त्याग धन इष्ट । ___यज्ञ दक्षिणा वलि कहा, कहा दया उतकि
कहा लाभ विद्या कहा, लज्जा लक्ष्मी गूढ । * सुख अरु दुख दोऊ कहा, को पंडित को मूढ ॥४॥
पंथ कुपंथ कहो कहा, वर्ग नरक चिंतौन ।
___ को बंधव अरु गृह कहा, धनी दरिद्री कौन ॥ ५ ॥ WAPMREPPERPEPER
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बनारसीविलासः १८९ । कौन पुरुष कहिये कृपण, को ईश्वर जग माहिं ।
ये सब प्रश्न विचार मन, कही मधुप हरिपाहिँ ॥६॥ नारायण उत्तर कहै, सुन उद्धव मन लाय ।
द्वादश यम द्वादश नियम, कहूं तोहि समुझाय ||७|| दया सत्य थिरता क्षमा, अभय अचौर्य सुमौन । ___ लाज असंग्रह अस्तिमत, संग त्याग तियवौन ॥ ८॥
हरि पूजा संतोष गुरु, भक्ति होम उपकार । ___ जप तप तीरथ द्विविधि शुचि, श्रद्धा अतिथि अहार ।
___सोरठा। कहे भेद चौवीस, मिन्न २ यम नियमके ।
रहे प्रश्न चौवीस, तिनके उत्तर अब सुनहु ॥ १० ॥ ॐ समता ज्ञान सुधारस पीजे । दम इन्द्रिनको निग्रह की ॥ * संकटसहन तितिक्षा वीरज । रसना मदन जीतवो धीरवाशा दान अमय जहँ दंड न दीजे । तप कामनानिरोध कहीजे ॥
अन्तरविजयसूरता सांची । सत्यब्रह्म दर्शन निरवाची ॥१२॥ | रतु अनक्षरी ध्वनि जहँ होई | करम अभाव शौचविध सोई। त्याग परम सन्यास विधाना । परम धरम धन इष्ट निधाना १३ ध्रुव धारणा यज्ञकी करनी । हित उपदेश दक्षिणा वरनी ॥ प्राणायाम वोधवल अक्षा । दया अशेष नन्तुकी रक्षा ॥१४॥ लाभ भावशुभगतिपरकाशा । विद्या सो जु अविद्यानाशा ॥ लाज कुकर्म गिलानि कहावै । लक्ष्मी नाम निराशा पावै १५
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treatok totkotakektakkarkikt.kot.itatatatatay ११९० जैनग्रन्थरत्नाकरे * सुखदुखत्यागबुद्धि सुखरेखा। दुख विपयारस भोगविशेखा ॥
पंडित बंध मोक्ष जो जानै । मूरख देहादिक निज मान ॥१६ मारग श्रीमुख आगम भापा । उतपय कुधी कुमन अभिलापा सुकृतिवासना स्वर्गविलासा । दुरित उछाह नर्क गतिवासा॥१७|| में बंधव हिंतू स्वर्ग सुख दाता । गृह मानुपी शरीर विख्याता ॥ ॐ धनी सो जु गुणरत्नभंडारी। सदा दरिद्री तृप्णाधारी ॥ १८ ॥ * कृपण सो जु विषयारसलोमी। ईश्वर त्रिगुणातीत अछोभी॥ ॐ बहुत कहां लगि कहों विचक्षण। गुण अरु दोष दोहुके लक्षण १९ ।।
दोहा। दृष्टि सुगुन अरु दोपकी, दोष कहावै सोय। गुण अरु दोष जहां नहीं, तहाँ गुन परगट होय ॥२०॥ इति प्रश्नोत्तरमालिका, उद्धवहरिसंवाद । भाषा कहत वनारसी, भानुसुगुरुपरसाद ॥ २१ ॥
इति प्रश्नोत्तरमालिका.
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अथ अवस्थाष्टक लिख्यते.
दोहा। चेतनलक्षण नियतनय, सबै जीव इकसार । __मूढ विचक्षण परमसों, त्रिविधि रूप व्यवहार ॥ १॥ मूढ़ आतमा एक विधि, त्रिविधि विचक्षण जान | द्विविधि भाव परमातमा, पविधि जीव बखान ॥ २॥
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बनारसीविलास
विधि निषेध जाने नहीं, हित अनहित नहिं सूझ ।।
विषयमगन तन लीनता, यहै मूढ़की बूझ ॥३॥ जो जिनभाषित सरदहै, मम संशय सत्र खोय ।
समकितवंत असंजमी, अघम विचक्षण सोय || वैरागी त्यागी दमी, स्वपर विवेकी होय । __देशसंजमी संजमी, मध्यम पंडित दोय ॥ ५ ॥ अप्रमाद गुण थानसों, क्षीणमोहों दौर ।
श्रेणिधारणा जो धेरै, सो पंडित शिरमौर ॥ ६ ॥ जो केवल पढ़ आचर, चढि सयोगिगुणथान ।
सो जंगम परमातमा, भववासी भगवान ॥ ७ ॥ लिहिंपदमें सवपद मगन, ज्यों जलमे जल बुन्द ।
सो अविचल परमातमा, निराकार निरदन्द ॥ ८॥
अति अवस्थाटक,
. अथ षट्दर्शनाष्टक लिख्यते. . शिवमत बौद्ध रु वेदमत, नैयायिक मतदक्ष । मीमांसकमत जैनमत, पटदर्शन परतक्ष ॥ १ ॥
शैवमत । देव रुद्र जोगी युगुरु, आगम शिवमुख भाख । गने कालपरगति घरम, यह शिवमतकी साख ॥२॥
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२१९२
जैनग्रन्थरत्नाकरे
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बौद्धमत । देव बुद्ध गुरु पाधड़ी, जगत वस्तु छिन औष। शून्यवाद आगम भजे, चारवाक मत वौध ॥ ३ ॥
वेदान्तमत्त । देव ब्रह्म अद्वैत जग, गुरु वैरागी भेष। ' वेद ग्रन्थ निश्चय धरम, मत वेदान्तविशेष ॥ ४ ॥
न्यायमत। देव जगतकरता पुरुष, गुरु सन्यासी होय । न्याय ग्रन्थ उद्यम घरम, नैयायिक मत सोय ॥ ५ ॥
मीमासकमत। देव अलख दरवेश गुरु, मार्ने कर्म गिरंथ । धर्म पूर्वकृतफलउदय, यह मीमांसक पंथ ॥ ६॥
जैनमत। देव तीर्थकर गुरु यती, आगम केवलि वैन । धर्म अनन्त नयातमक, जो जानै सो जैन ॥ ७ ॥
ए छहमत छै भेदसों, भये छूट कछु और। १ प्रतिषोडस पाखंडसों, दशा छ्यानवे और ॥ ८॥
___ इति षट्दर्शनाष्टक.
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अथ चातुर्वर्ण लिख्यते.
जो निश्चय मारग गहै, रहै ब्रह्म गुणलीन । ब्रह्मदृष्टि सुख अनुभवै, सो ब्राह्मणः परवीन ॥ १ ॥
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बनारसीविलासः
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जो निश्चय गुण जानक, करै शुद्ध व्यवहार । . जीत सेना मोहकी, सो क्षत्री भुजमार ॥२॥ जो जानै व्यवहार नय, ढ व्यवहारी होय । शुभ करणीसों रम रहै, वैश्य कहावै सोय ॥३॥ जो मिथ्यामत आदरै, रागद्वेषकी खान । विनविवेक करणी करै, शूद्रवर्ण सो जान ॥ १॥ चार भेद करतूतिसों, ऊंच नीच कुलनाम । और वर्णसंकर सबै, जे मिश्रित परिणाम ॥ ५ ॥ . इति चातुर्वण,
अथ अजितनाथजीके छंद. गोयमगणहरपय नमो, सुमरि सुगुरु रविचन्द ।। सरसुति देवि प्रसादलहि, गाऊं अजित जिनन्द ॥ १ ॥
छन्द. श्रीअवघ्यापुर देश सुहायाजी। .
राज तह जितशत्रू रायाजी ॥ राया सुधर्म निधान सुन्दर, देवि विजया तसु धेरै । तसु उदर विजय विमान सुरवर, स्वप्न सूचित अवतरै ॥ तब जन्म उत्सव करहिं वासव, मधर घनि गावहिं सुरी। आनन्द त्रिभुवन जन वनारसि, धन्य श्रीअवघ्यापुरी ॥२॥
महियल राजिउ अजित जिनंदानी। गज वर लच्छन निर्मल चंदानी ॥ ATMA
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१९४ जैनग्रन्थरत्नाकरे चन्दा उदित इक्ष्वाक वंशहि, कुमति तिमर विनासिये । सय साठ चार सुचाप परिमित, देह कंचन भासिये ॥ दिढ़ पालिराज सु गहिय संजम, मुकति पथ रथ साजियो। उत्पन्न केवल सुख वनारसि, अजित महियल राजियो ॥ ३॥ ___गढ़ योजनमहि रचे सुदेवाजी।
अष्ट प्रतीहार करहिं. सु सेवाजी ॥ । सेवहिं अशोक प्रसून वरसत, दिव्यधुनि तहँ गाजहीं।
चामर सिंहासन प्रभामंडल, छत्र तीन विराजहीं ॥ नवदेव दुंदमि सभा वारह, चौतिसौं अतिशय सही। * सुर असुर किन्नरगण बनारसि, रचित गढ़ योजन मही ॥
लक्ष वहन्तरि पूरव आया जी ।
भोग सु जिनवर शिवपद पायाजी ॥ शिवपद विनायक सिद्धि दायक, कर्म महारिपु भंजनो। । वरणे शिषैराबाद मंडन, भविक जनमनरंजनो ॥ 1 सोलैसै सत्तर समय आश्वनि, मास सितपख वारसी। विनवत दुई कर जोर सेवक, सिरीमाल बनारसि ॥ ५ ॥
इति श्रीअजित नाथके छन्द.
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वनारसीविलासः १९५९ अथ शान्तिनाथजिनस्तुति.
वाक्रीमहम्मद खानके चंदवाकी द्वारा। सहि एरी! दिन आज सुहाया मुझ माया आया नाहिं घरे। सहि एरी ! मन उदधि अनन्दा सुख, कन्दा चन्दा देह घरे ॥ चन्द निवां मेरा वल्लम सोहै, नैन चकोरहिं सुक्खं करै। जगज्योति सुहाई कीरतिछाई, बहु दुख तिमरवितान हरै॥ सहु कालविनानी अप्रतवानी, अरु मृगका लांछन कहिए। * श्रीशान्ति जिनेशनरोत्तमको प्रभु, आज मिला मेरी सहिए!
सहि एरी ! तू परम सथानी, सुरज्ञानी रानी राजत्रिया। सहि एरी! तू अति सुकुमारी, वरन्यारी प्यारी प्राणप्रिया ॥ प्राणप्रिया लखि रूप अचमा, रति रंमा मन लाज रहीं। अकलौत कुरंग कौलं करि केसरि, ये सैरि तोहि न होंहि कहीं॥
अनुराग सुहाग भाग गुन आगरि, नागरि पुन्यहि लहिये। मिलिं या तुझ कन्त नरोत्तमको प्रमु, धन्य सयानी सहिये।२।।
दोहा। विश्वसेन कुलकमलरवि, अचिरा उर अवतार। धनुष सु चालिस कनकतन, बन्दहुं शान्ति कुमार ॥ ३ ॥
त्रिभंगी छन्दः (३०,६,८,६) गजपुर अवतारं, शान्ति कुमार, शिवदातारं, सुखकारं । निरुपम आकार, रुचिराचार, जगदाधारं, जितमार ।
१ सखि | ये, १ कमल, ३ समान, ४ कामदेवके जीतनेवाले. सललल
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कृतअरिसंहारं, महिमापारं, विगतविकार, जगसारं ।
परहितसंसारं, गुणविस्तारं, जगनिस्तारं, शिवधारं ॥ ४ ॥ | सकल सुरेश नरेश अरु, किन्नरेश नागेश । तिनिगणवन्दित चरणजुग, बन्दहुं शान्ति जिनेश ॥ ५॥
श्रीशान्तिजिनेश, जगतमहेशं, विगतकलेशं, भद्रेश। भविकमलदिनेशं, मतिमहिशेशं, मदनमहेशं, परमेशं ॥ जनकुमुदनिशेशं, रुचिरादेशं, धर्मधरेशं, चक्रेशं ।
भवजलपोतेशं महिमनगेशं, निरुपमवेशं, तीर्थेशं ॥ ६॥ करत अमरनरमधुप जसु, वचन सुधारसपान । । | बन्दुहुँ शान्तिजिनेशवर, वदन निशेश समान ॥ ७॥
वररूप अमानं, अरितममानं, निरुपमज्ञानं, गतमानं । गुणनिकरस्थानं, मुक्तिवितानं, लोकनिदान, सघ्यानं भवतारनयानं, कृपानिधान, जगतप्रधान, मतिमान ।
प्रगटितकल्यानं, वरमहिमान, शिवपददानं, मृगजानं ॥८॥ भवसागर भयभीत बहु, भक्तलोकप्रतिपाल । बन्दहुं शान्ति जिनाधिपति, कुगतिलताकरवाल ॥ ९॥ मंजितमवजालं, जितकलिकालं, कीर्तिविशालं, जनपालं। गतिविजितमरालं, अरिकुलकालं, वचनरसालं, वरमालं ॥ मुनिजलजमृणालं, भवभयशालं, शिवउरमालं, सुकुमालं। भवितरुषतमालं, त्रिभुवनपालं, नयनविशालं, गुणमालं ॥१०॥
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बनारसीविलासः
कलश-छप्पय । हीर हिमालय हंस, कुन्द शरदन निशाकर । कीर्तिकान्तिविस्तार, सार गुणगणरत्नाकर ॥ दुःकृति संतति धाम, कामविद्वेषिविदारण | मानमतंगजसिंह, मोहतरुदलन सुवारण ॥ श्रीशान्तिदेव जय जितमदन, वानारसि वन्दत चरण । | भवतापहारिहिमकर वदन, शान्तिदेव जय जितकरण ॥ ११॥
. इति श्रीशान्तिनाथ निनस्तुति.
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अथ नवसेनाविधान लिख्यते.
वेसरी इन्द। प्रथमहिं पत्ति नाम दल लेन । तासों त्रिगुण कहावै सेन ॥ सेन त्रिगुण सेनामुख ठीक । सेनामुखसों त्रिगुण अनीक ॥१॥ कीचे त्रिगुण वाहिनी सोइ । वाहनि त्रिगुण चमूदल होइ ॥ त्रिगुण वरूथनि दल परचंड। तासों त्रिगुण कहावै दंड ॥२॥
दोहा। दंड कटक दशगुण करहु, तब अछौहिणी जान ।। हयगय रथ पायक सहित, ये तब कटक बखान ॥ ३॥
पत्ति। एक मतंगज एक स्थ, तीन तुरंग प्रधान । सुमट पंच पायक सहित, पत्ति कटक परवान ॥ ४ ॥
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जैनग्रन्थरत्नाकर
सेना । चौपाई, नव तुरंग रथ तीन सुभायक । हस्ती तीन पंचदश पायक । वल चतुरंग और नहिं लेन । यह परवान कहावै सेन ॥ ५॥
सेनामुख ।
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सत्ताइस घोड़े नव हाथी । पैंतालिस पायकनर साथी । नवरथ सहित कटक जो होई । दल सेनामुख कहिये सोई ६
अनीकनी। । मत्त मतङ्ग सात अरु बीस । पवन वेग रथ सत्ताईस । अनुग एकसौ पैंतिस ठीक । हय इक्यासी सहित अनीकाखा
वाहिनी ।भाभानक छन्द। इक्यासी गजराज घोरघन गाजने ।
इक्यासी परमान महारथ राजने ॥ तीन अधिक चालीस तुरंगम दोयसो। ____ अनुग चारसौंपंच वाहिनी होय सो ॥ ८॥
___ चमू । गीता छन्द । गज दोयसैतेताल रथवर, दोयसौ तेताल। है सातसो उन्तीस परमित, जातिवन्त रसाल ॥ जह सुमट बारह सौ सुमायक, अधिक दश अरु पंच। सो चमूदल चतुरंग शोमित, सहित नर तिरजंच ॥ ९॥
विरूथिनी। रथ सातसै उनतीस कुंजर, सातसै उनतीस । हय एक विंशति सै सतासी, चपल उन्नत सीस ॥
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वनारसीविलासः १९९
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छत्तीससौ बलवंत पायक, अधिक पैंतालीस। सो है बरूथनि कटक दुर्द्धर, चटक सुन्दर दीस॥ १०॥
दंड-रोला। कुंजर दोय हजार एक सौ असी सात गनि । जेते गन तेते प्रमान स्थराज रहे बनि ॥ नवसौ पैंतिस दशहजार पायक प्रचंड वल। पैंसठसै इकसठ तुरंग यह दंड नाम दल ॥ ११ ॥
अक्षौहिणी-उप्पय। गज इकवीस हजार, आठ सौ सत्तर गज्जहिं । रथ इकबीस हजार, आठ सौ सचर सजहिं ॥
एक लाख अरु नवहजार नर सुभट सुभायक । ॐ तिस ऊपर तीनसौ अधिक पंचास सुपायक ।।
सोहत तुरंग पैंसठ सहस, छसौ अधिक दश और लिय । इहिविधि अभंग चतुरंग दल, अक्षौहिणी प्रमाण किय ॥१२॥
इति नवसेना विधान.
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अथ नाटकसमयसारसिद्धान्तके पाठान्तर कलशोंका भाषानुवाद.
मनहर। प्रथम अज्ञानी जीव कहै मैं सदीव एक,
दूसरों न और मैं ही करता करमको ।
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२००
जैनग्रन्थरत्नाकरे
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अन्तर विवेक आयो आपापर भेद पायो,
भयो बोध गयो मिट भारत भरमको ॥ भासे छह द्रव्यनके गुण परजाय सब,
नाशे दुख लख्यो मुख पूरण परमको । करमको करतार मान्यो पुदगल पिंड, ___ आप करतार भयो आतम घरमको ॥१॥
दोहा। जीव चेतना संजुगत, सदाकाल सब ठौर तातें चेतनभावको, कर्ता जीव न और ॥२॥
गीतिका। ने पूर्वकर्मउदयविषयरस, भोगमगन सदा रहैं। | आगम विषयसुख भोग वांछहिं, ते न पंचमगति लहैं ॥ * जिस हिये केवल वृक्ष अंकुर, शुद्ध अनुभव दीप है।
किरिया सकल तज होहिं समरस, तिनहिं मोक्ष समीप है ॥ ३॥ * कोऊ विचक्षण कहै मो हिय, शुद्ध अनुभव सोहये । मैं भावि नय परिमाण निर्मल, निराशी निरमोहये ॥ समध्यान देवल माहिं केवल देव परगट भासहीं । कर भ्रष्टयोग विभावपरिणति, अष्ट कर्म विनाशहीं ॥ ४॥
' इति नाटक कलश भाषानुवाद..
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बनारसीविलासः
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अथ मिथ्यामतवाणी.
मनहर।' ' नारायण देवको कहें कि परनारी रत, __ब्रह्माको कहैं कि इन कन्या निज वरी है। सिद्धको कहें कि फिर फिर अबतारं धरै,
शंकरको कहें याकी मारी सृष्टि मरी है। अचला कहावै भूमि सो कहें पताल गई, ___ अनन्तं बाराहरूप धरिक उद्धरी हैं। ऐसी मिथ्यामतवानी मूडनके मनमानी,
पापकी कहानी दुखदानी दोषभरी है ॥ १ ॥ संतान उपजै नर देवके संजोगसेती,
कनककी लंका क. अगनिसों जरी हैं। शास्वतो सुमेरु सो उखारि कहें मथ्यो सिन्धु,
इन्द्रको कहत गौतमकी नारि धरी है ॥ भीम डारे हाथी ते अकाशमें फिर सदीव, ___ वायस भुशुंड अविनाशी काया करी है।
ऐसी मिथ्यामतवानी मूढनके मनमानी, ___ पापकी कहानी दुखदानी दोषभरी है ॥ २ ॥ मैलकी बनाई मुद्रा सो कहें गणेश भयो, सरिताको कहैं सूरजसों अवतरी है।
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द्रोपदी सतीको कहें याके पंच भरतार,
कुन्तीहको कहें पांच बार व्यमिधरी है। रामसे विवेकीको कहें मुगध अवतार,
डामको सँवारो सुत नाम कुशहरी है। ऐसी मिथ्यामतवानी मूदुनके मनमानी, __ पापकी कहानी दुखदानी दोपभरी है ॥ ३॥
गाथा। कुगाहगहगहियाणं मूहो जो देइ धम्मउवएसो। सो चम्मासी कुक्कर वयणमि खोइ कप्पूरं ॥ ४ ॥
इति मिथ्यामतवाणी.
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अथ प्रास्ताविक फुटकर कविता लिख्यते.
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मनहर।
पूरब कि पश्चिम हो उत्तर कि दक्षिण हो,
दिशि हो कि विदिश कहा तहां घाइये । पढ़िये पढाइये कि गड़िये गढ़ाइये कि
नाचिये नचाइये कि गाइये गवाइये ।। न्हाये बिन खाइये कि हायकर खाइये कि, ..
खाय कर न्हाइये कि न्हाइये न खाइये। * जोग कीजे भोग कीजे दान दीजे छीन लीने,
जिहि विधि जाने जाहु सो विधि बताइथे ॥१॥
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बनारसीविलासः २०३ दिशि औ विदिशि दोऊ जगतकी भरजाद,
पढ़िये शबद गड़िये नु जड़ साब है। नाचिये सुचित्त चपलाय गाइये सुधुनि,
न्हाइये सुजन शुचि खाइये सुनाव है। परको संबोग सुतो योग विषै स्वाद भोग,
दीने लीने मायासो तो मरमको काज है। इनते अतीत कोऊ चेतनको पुंज तोमें, ___ ताके रूप जानवेको जानवो इलान है ॥ २॥
लोमवन्त मानुष जो औगुण अनन्त तामें, ___ जाके हिये दुष्टता सो पापी परधीन है। जाके मुख सत्यवानी सोई उपको निधानी,
बाकी मनसा पवित्र सो तीरथथान है ।। नामैं सज्जनकी रीति ताकी सवहीसों गीति, ___ जाकी मली महिमा सो आमरणवान है।
जामें है सुविद्या सिद्धि ताही के अटऋद्धि, ___जाको अपजस सो तो मृतक समान है।॥ ३ ॥ कंचनभंडार पाय रंच न मगन हुने, __पाय नवयोवना न हुने जोबनारसी ।
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धपुखको बीचके दो पाद ऐते हैं* ऐसी असियारा कालपंचमके वीचपड़ी,
धारा बिनीकूप वीच पडी इ वनारसी ।
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१२०४ जैनग्रन्थरलाकरे
काल असिघारा जिन जगत बनाए सोई, . ___ कामिनी कनक मुद्रा दुहुँको बनारसी ॥
दोऊ विनाशी सदीव तूहै अविनाशीजीव, __ था जगत कूपवीच ये ही ढोबनारसी। इनको तू संगत्याग कूपों निकसि भाग, __प्राणी मेरे कहे लाग कहत वनारसी ॥ ४ ॥
(पादान्तयमफ). जीवके बधैया वामविद्याके सधैया दावा, ___ नलके दधैया बन आखेटक करमी।
जुआरी लबार परघनके हरनहार, ' . ___ चौरीके करनहार दारीके अशरमी।।
मांसके भलैया सुरापानके चखैया, ___ परवधूके लखैया जिनके हिये न नरमी । रोषके गहैया परदोषके कहैया येते, पापी नर नीच निरदै महा अघरमी ॥ ५॥
सतगयन्द । सम्यक ज्ञान नहीं उर अन्तर, कीरतिकारण भेष बनावें । मौन तो वनवास गहें मुख, मौन रहें तपसों तन जावें ॥ जोग अजोग कछू न विचारत, मूरख लोगनको भरमावें। फैल करें बहु जैन कथा कहि, जैन विना नर जैन कहावें ॥६॥ 9 भाईबंधु दारासुत कुटुंबकें लोक सब, . ॐ इनके ममत्वको तू त्यागरे बनारसी।
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वनारसीविलासः २०५ । धीरज तात क्षमा जननी, परमारथ मीत महारुचि मासी। ज्ञान सुपुत्र सुता करुणा, मति पुत्रवधू समता अतिभासी ॥ उद्यम दास विवेक सहोदर, बुद्धि कलत्र शुभोदय दासी । ॐ भाव कुटुंब सदा जिनके ढिग, यो मुनिको कहिये गृहवासी ||७|
मनहर। मानुष जनम लयो सम्यक दरश गह्यो, ___ अजहूं विष विलास त्याग मन वावरे । संपति विपति आये हरस बिषाद छोड़,
ताही और पीठ ओड़ जैसी बहै वावरे ।। भौथिति निकट आई समता सुथाह पाई, ___ गयो है निघटि जल मिथ्यात डुबावरे । टैगो करम फास छूटैगो जगत बास, केवल उदै समीप आयो परेवा वरे ॥ ८ ॥
(पादान्तयमक) जामें सदा उतपात रोगनसों छीजै गात, ___ कळू न उपाय छिन छिन आयु खपनो। कीचे बहु पाप औ नरक दुख चिन्ता व्याप, __ आपदा कलापमें विलाप ताप तपनो ॥ जामें परिगहको विषाद मिथ्या वकवाद,
विभोग सुखको सबाद जैसो सपनो। ऐसी है जगतवास जैसो चपला विलास, ___तामें तूं मगन भयो त्याग धर्म अपनो ॥ ९॥
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जैनग्रन्थरताकरे
मत्तगयंद । पुण्य संजोग जुरे रथ पायक, माते मतंग तुरंग तबेले । मान विमौ अँग यो सिरमार, कियो क्सितार परिग्रह ले ले। बंध बढ़ाय करी थिति पूरण, अंत चले उठ आप अकेले । हारि हमालकी पोटसी डारिके, और दिवारकी ओट है खेले १ ० .
छप्पय है. धान यान मिष्टान, मोम मादक नवनिजै । ___ लवण हिंगु घृत तैल, वनिजकारण नहिं लिजै ॥
पशुमाड़ा पशुवणिज, शस्त्र विक्रय न करिजै ।
जहां निरन्तर अमि करम, सो वणिज न किज्जै ॥ * मधु नील लाख विप वणिज तज, कूप तलाव न सोखिये। लहिये न धरम गृह वासवस, हिंसक जीव न पोखिये ॥११॥
मुकताको स्वामी चन्द मूंगानाथ महीनन्द __गोमेदक राजा राहु लीलापति शनी है।
केतु लहसुनी सुरपुष्प राग देव गुरु, ___ पन्नाको अधिप वुध शुक्र हीरा धनी है । याही क्रम कीजे घेर दक्षिणावरत फेर, ___ माणिक सुमेरवीच प्रभु दिन मनी है। आठों दल आठ ओर, करणिका मध्य ठोर
कौलकेसे रूप नौ गृही अनूप बनी है ॥ १२ ॥ बालक दशाकी मरजाद दश वरस लों,
वीस लों वदति तीसलों सुछबि रही है ||
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बनारसीविलासः
२०७१ चालीस लो चतुराई पंचास लो थूलताई,
साठ ला लोचनकी दृष्टि लहलही है। सत्तर लो श्रवण असी लो पुरुषत्व निन्या
नवे लग इन्द्रिनकी शकति उमही है। * सौलो चित चेत एक सौ दशोचरलो आयु,
मानुष जनम ताकी पूरीथिति कही है ॥ १३ ॥ चौदह विद्याओंके नाम यथा
छप्पय । ब्रह्मज्ञान चातुरीवान, विद्या ह्य वाहन । परम धरम उपदेश, बाहुवल जल अवगाहन ॥ सिद्ध रसायन करन, साथि सप्तमपुर गाधन ।
बर सांगीत प्रमान, नूस वाजिन वजावन ।। व्याकरण पाठ मुख वेद धुनि, ज्योतिष चक्र विचारचित । वैद्यक विधान परवीनता, इति विद्या दशचार मित ॥ १४॥
छत्तीस पौन (जाति के नाम कवित्त शीसगर दरजी तंबोली रंगवाल ग्याल, ___बढ़ई संगतरास तेली धोबी धुनियाँ ।
कंदोई कहार काछी कुलाल कलाल माली, ___ कुंदीगर कागदी किसान पटवुनियाँ ॥ चितेरा विधेस वारी लखेरा ठठेरा राज,
पटुवा छप्परबंध नाई मारमुनियाँ ।
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२०८ जैनग्रन्थरत्नाकरे सुनार लोहार सिकलीगर हवाईगर, धीवर चमार एही छत्तीस पवुनियाँ ॥ १५ ॥ एक सौ अड़तालीस प्रकृति
वस्तु छन्द सत्ततुहि सततुहि तुरीय गुण थान ।. तह तीन व्युच्छतिभई नवठाण छत्तीस जानहु । दशमें पुनि इक लोभ वारमें सोलह खिपानहु । वहत्तर तेरम नसे, तेरह चौदम एवि।। एम पैड़ि अड़ताल सौ, होय सिद्ध तोडेवि ॥ १६ ॥
छप्पय । ___ एक जान द्वै तोरि, तीन रम चार न भासहु ।
पंच जीत पटराख, सात तज आठ विनाशहु ॥ नव संभारि दश धारि, ग्यारमहिं बारह भावहु ।
तेरह तिर चौदहें चढ़त, पन्द्रह विलगावहु ॥ सोलहन मेटि सत्रह मजहु, अट्ठारह कह करहु छय । ' असम गणि उनीस वीसहिं विरचि, वानारसि आनंद मय १७ ।।
वात्पर्य-दोहा। शुद्ध आतमा एक जिन, राग द्वेष द्वय बंध। । तीन शुद्ध ज्ञानादि गुण, चारों विकथा धंध ॥ १८ ॥ प्रबल पंच इन्द्री सुभट, षट विधि जीवनिकाय । जुआ आदि सात्रों व्यसन, अष्टकर्म समुदाय ॥ १९॥
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___ बनारसीविलासः २०९ । ब्रह्मचर्येकी बाड़ि नव, दश मुनिधर्मविचार ।
ग्यारह प्रतिमा श्रावकी, बारह भावन सार ॥ २० ॥ तेरह थानक जीव के, चौदह गुण ठानाइ।
पन्द्रह जोग शरीरके, सोलह भेद कहाइ ॥ २१ ॥ सत्रह विधि संयम सही, जीव समास उनीस ।। दोष अठारह जान सव, पुगलके गुण वीस ॥ २२ ॥
इति प्रस्ताविक फुटकर कविता।
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अथ गोरखनाथके वचन
चौपाई। जो भग देख भामिनी मानै । लिङ्ग देख जो पुरुष प्रमाने ॥ जो विन चिह नपुंसक जोबा । कह गोरख तीनों घर खोवा ॥१॥ जो घर त्याग कहावे जोगी । घरवासीको कहै जु भोगी। अन्तरमाब न परखै जोई । गोरख बोले मूरख सोई ॥ २॥ ॐ पढ़ ग्रन्थहिं जो ज्ञान बखाने । पवन साध परमारथ मान ।। ॐ परम तत्त्वके होहिं न मरमी १ कह गोरख सो महाअधर्मी ॥३॥ माया जोर कहै मैं ठाकर । माया गये कहावै चाकर। माया त्याग होय जो दानी ! कह गोरख तीनों अज्ञानी || कोमल पिंड कहावै चेला' । कठिन पिंडसों ठेला पेला । ॐ जूना पिंड कहावै बूढा । कह गोरख ए तीनों मूढा ॥ ५॥
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tattost.ttattattutikatturitkuttersthitutntrtation २१० जैनग्रन्थरत्नाकरे
विन परिचय जो वस्तु विचारै ध्यान अग्नि विनतन परजारै ।। ज्ञानमगन विन रहै अबोला। कह गोरख सो बाला भोला ||६ सुनरे बाचा चुनियाँ मुनियाँ । उलट वेधसों उलटी दुनियां । सतगुरु कहै सहजका धंधा । वाद विवाद कर सो अंधा ॥७॥
इति गोरखनाथके वचन.
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अथ वैद्य आदिके भेद.
वैद्यलक्षण. २ कर्म रोगकी प्रकृती पावै । यथायोग्य औषधि फरमावै ।। * उदय नाड़िकाकी गति जानै । सो सुवैद्य मेरे मन मान ॥१॥
ज्योतिपीलक्षण, नवरस रूप गिरह पहिचाने । बारह राशि भावना मानै ॥ से सहन संक्रमण साधै जोई । ज्योतिपराय ज्योतिषी सोई ॥२॥
__ वैष्णवलक्षणदोहा। तिलक तोष माला विरति, मति मुद्रा श्रुति छाप ।। ___इन लक्षणसों वैषणव , समुझे हरि परताप ॥ ३ ॥
जो हरि घटमें हरि लखै, हरि बाना हरि बोइ। न हरि छिन हरि सुमरन करे, विमल वैषणव सोइ ॥४
। मुसलमानलक्षण. - जो मन मूसै आफ्नो, साहिबके रुख होय । १. ज्ञान मुसल्ला गह टिकै, मुसलमान है,सोय ॥ ५ ॥
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बनारसीविलासः
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गहल्वर लक्षण. जो मन लावे मरमसो, परम प्राप्ति कह खोय। .
जह विवेकको वर गयो, गवर कहावै सोय ॥६॥ एक रूप हिन्दू तुरुक, दूजी दशा न कोय । ___ मनकी द्विविधा मानकर, मये एकसों दोय ॥ ७ ॥ दोऊ मुले मरममें, करे बचनकी टेक।
राम राम हिन्दू कहें, तुर्क सलामालेक ॥ ८॥ इनके पुस्तक बांचिये, बेहू पढे कितेव। ___ एक वस्तुके नाम द्रय, वैसे शोभा, जेव, ॥ ९ ॥ तिनको द्विविधा-जे लखें, रंग बिरंगी चाम । _मेरे नैनन देखिये, घट घट अन्तर राम ॥ १० ॥ है गुप्त यह है प्रगट, यह वाहिर यह माहिं।
जब लग यह कछु है रहा, तब लग यह कछु नाहिं११ . ब्रह्मज्ञान आकाशमें, उड़हिं सुमति खग होय । __ यथाशक्ति उद्यम करहिं, पार न पावहिं कोय ॥१२॥ गई वस्तु सोचै नहीं, आगम चिंता नाहिं। ___ वर्तमान वस्तै सदा, सो ज्ञाता जगमाहिं ।। १३ ॥ जो विलसै सुख संपदा, गये नाहि दुख होय ।
जो धरती बहु तृणवती, जरै भगिसों सोय ॥ १४ ॥ घन पाये मन लहलहै, गये करै चित शोक ।
भोजन कर केहरि लखै, वररुचि कैसो बोके ॥ १५॥ सिंह. २ बकरा.
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settetatute tutattattotstartstetrict.ttatstatution २२१२ जैनग्रन्थरत्नाकरे
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माया छाया एक है, घटै बडै छिनमाहिं । इनकी संगति जे लगैं, तिनहिं कहीं मुख नाहिं ।। १६ ॥
जे मायासों राचिके, मनमें राखहिं वोझ । * कै तो तिनसों खर भलो, के जंगलको रोझ ॥ १७ ॥ * इस माया के कारण, जेर कटावहिं सीस ।
ते मूरख क्यों कर सके, हरिभक्तनकी रीस ॥ १८ ॥ लोम मूल सब पापको, दुखको मूल सनेह ।। मूल अनीरण व्याधिको, मरणमूल यह देह ॥ १९ ॥ जैसी मति तैसी दशा, तैसी गति तिह पाहि ।
पशु मूरख भूपर चलहिं, खग पंडित नभमाहिं ॥ २०॥ - सम्यकदृष्टी कुक्रिया, करै न अपने वश्य ।
पूरव कर्म उदोत है, रस दे जाहिं अवश्य ॥ २१ ॥ जो महंत है ज्ञानविन, फिरै फुलाये गाल । आप मत्त और न करै, सो कलिमाहिं कलाल ॥ २२ ॥ ज्यों पावक विन नहिं सरै, करै यदपि पुर दाह। त्यो अपराधी मित्रकी, होय सबनको चाह ॥ २३ ॥ कर्चा जीव सदीव है, करै कर्म स्वयमेव । यह तन कृत्रिम देहरा, तामें चेतन देव ॥ २४ ॥ केवलज्ञानी कर्मको, नहिं का विन प्रेम । देह अकृत्रिम देहरा, देव निरंजन एम ॥ २५॥ .
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बनारसीविलासः २१३ भूमि यान धन धान्य गृह, साजन कुप्य अपार। सयनासन चौपद द्विपद, परिगह दश परकार ॥ २६ ॥ । खान पान परिधान पट, निद्रा मूत्र पुरीस। ये घट कर्म सबहिं करे, राजा रंक सरीस ॥ २७ ॥ उचित वसन सुरुचित असन, सलिल पान सुख सैन । बड़ी नीति लघुनीतिसों, होय सबनको चैनं ॥ २८ ॥
चतुर्दश नियम विगै दरव तंबोल पट, शील सचित्त स्नान । दिशि अहार पान रु पुहुप, समन विलेपन यान ॥२९॥ शीलवन्त मंडै न तन, अघि पद गहै न संत। पिताजात न हनें पिता, सती न माहि कत ॥ ३० ॥ कामी तन मंडन करै, दुष्ट गहै अधिकार । जारजात मारहि पिता, असति हनें भरतार ॥ ३१ ॥ ज्ञानहीन करणी कर, यों निजमन आमोद । ज्यों छेरी निज खुरहितें, छुरी निकास खोद ॥ ३२ ॥ राजऋद्धि सुख भोगवे, ऐसे मूह अजान । महा सन्निपाती करहि, जैसें शरबत पान ॥ ३३ ॥ जहँ आपा तहँ आपदा, जहँ संशय तहँ सोग । सतगुरु विन भागें नहीं, दोऊ जालिम रोग ॥ ३४ ॥
जे आशाके दास ते, पुरुष जगतके दास । __ आशा दासी जास की, जगत दास है तास ॥ ३५ ॥
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संसारी उद्धार तज, धरै रोक पर प्यार । ज्ञानी रोक न आदरै, करै दरव उद्धार ॥ ३६ ॥ कारण कान न जो लखै, मेद अभेद न जान। वस्तुरूप समुझे नहीं, सो मूरख परधान ॥ ३७ ॥ देव धर्म गुरु ग्रन्थ मत, रल जगतमें चार । सांचे लीजे परखिके, झूठे दीजे डार ॥ ३८॥
अठारहदूषणरहित, देव सुगुरु निरग्रंथ । ॐ धर्म दया पूरवअपर, मतअविरोधि सुग्रन्थ ॥ ३९ ॥
मुनिकै वाणी जैनकी, जैन धरै मन ठीक ।
जैनधर्म विन जीवकी, जै न होय तहकीक ॥ १० ॥ 7 उपजै उर सन्तुष्टता, दृग दुष्टता न होय । मिटै मोहमदपुष्टता, सहज सुष्टता सोय ॥४१॥
इति वैद्यलक्षणादि प्रस्ताविक कविता.
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___ अथ परमार्थवचनिका लिख्यते।
एक जीवद्रव्य ताके अनंत गुण अनन्त पर्याय. एक एक गुणके असंख्यात प्रदेश, एक एक प्रदेशनिविषै अनन्त । ॐ कर्मवर्गणा, एक एक कर्मवर्गणाविषै अनन्त अनन्त पुद्गल परमाणु ॐ एक एक पुद्गल परमाणु अनन्त गुण अनंत पर्यायसहित है। विराजमान. यह एक संसारावस्थित जीव पिंडकी अवस्था. याहीभांति अनन्त जीवद्रव्य सपिंडरूप जानने. एकजीव द्रव्य ।
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heatetrtes trintrete tutataterterite meter traitementstortes de tertentu ___ बनारसीविलासः २१५ ॥
wwrammarअनंत अनन्त पुद्गलद्रव्यकरि संयोगित (संयुक्त) मानने । ताको व्यौरौ,
अन्य अन्यरूप जीवद्रव्यकी परनति; अन्य अन्यरूप पुद्गलद्रव्यकी परनति, ताको व्यौरी
एक जीवद्रव्य जा भांतिकी अवस्थालिये नानाकाररूप परिनमैं सो भांति अन्य जीवसों मिले नाहीं । वाकी और मांति । आहीभांति अनंतानंत स्वरूप जीवद्रव्य अनन्तानंत स्वरूप अवस्थालिये वर्तहिं । काहु जीवद्रव्यके परिनाम काहु जीवद्रव्य औरस्सौं मिलइ नाहीं याही भांति एक पुद्गल परवानू एक समयमाहिं जा मांतिकी अवस्था धरै, सो अवस्था अन्य पुद्गल परवानू द्रव्यसौं मिले नाही. ताते पुद्गल (परमाणु ) द्रव्यकी भी अन्य अन्यता जाननी।
अथ जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य एक छेत्रावगाही अनादिकालके, तामैं विशेष इतनौ जु जीवद्रव्य एक, पुद्गलपरवानू । द्रव्य अनंतानंत चलाचलरूप आगमनगमनरूप अनंताकार। परिनमनरूप बंधमुक्तिशक्तिलिये वर्तहिं । 1 अथ जीवद्रव्यकी अनन्त अवस्था तामैं तीन अवस्था ।
मुख्य थापी । एक अशुद्ध अवस्था, एक शुद्धाशुद्धरूप मिश्र अवस्था, एक शुद्ध अवस्था, ए तीन अवस्था संसारी
जीवद्रव्यकी । संसारातीत सिद्ध अनवस्थितरूप कहिये । ॐ अव तीनहूं अवस्थाको विचार--एक अशुद्ध निश्चया
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१२१६ जैनग्रन्थरखाकरे स्मक द्रव्य, एक शुद्धनिश्चयात्मक द्रव्य, एक मिश्रनिश्चयात्मक द्रव्य । अशुद्धनिश्चय द्रव्यकों सहकारी अशुद्ध व्यवहार, मिश्रद्रव्यको सहकारी मिन व्यवहार, शुद्ध द्रव्यको । ॐ सहकारी शुद्धव्यवहार।
अव निश्चय व्यवहार को विवरण लिख्यते । निश्चय तो अभेदरूप द्रव्य, व्यवहार द्रव्यके यथास्थित भाव । परन्तु विशेष इतनौ जु यावत्काल संसारावस्था तावकाल व्यवहार कहिये. सिद्ध व्यवहारातीत कहिये, यात । जु संसार व्यवहार एकरूप दिखायौ. संसारी सो व्यवहारी, व्यवहारी सो संसारी।
अब तीनहूं अवस्थाको विवरण लिख्यते । यावत्काल मिथ्यात्व अवस्था, तावत्काल अशुद्ध निश्चयात्मक द्रव्य अशुद्धव्यवहारी । सम्यग्दृष्टी होत मात्र चतुर्थ । गुणस्थानकस्यौं द्वादशम. गुणस्थानकपर्यन्त मिश्रनिश्चयात्मक द्रव्य मिश्रव्यवहारी । केवलज्ञानी शुद्धनिश्चयात्मक शुद्ध। व्यवहारी।
अब निश्चय तौ द्रव्यको सरूप, व्यवहार संसारा
वस्थित भाव, ताको विवरण कहै हैं,मिथ्यादृष्टी जीव अपनी स्वरूप नाहीं जानतौ तातै परस्वरूपविषै मगन होय करि कार्य मानतु है ता कार्य करती है। छतौ अशुद्धव्यवहारी कहिए । सम्यग्दृष्टी अपनौ स्वरूप परोक्ष प्रमानकरि अनुभवतु है । परसचा परस्वरूपसौं अ
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बनारसीविलासः २ पनौं कार्य नाही मानतौ संतौ जोगद्वारकरि अपने खरूपको । ध्यान विचाररूप क्रिया करतु है, ता कार्य करतौ मिश्र व्यवहारी कहिए. केवलज्ञानी यथाख्यातचारित्रके वलकरि । शुद्धात्मस्वरूपको स्मनशील है तातै शुद्धव्यवहारी कहिए. जोगारूद्ध अवस्था विद्यमान है तातै व्यवहारी नाम कहिए ।।
शुद्धव्यवहारकी सरहद्द त्रयोदशम गुनस्थाकसौं लेइकरि चतुतु देशम गुनस्थानकपर्यंत जाननी । असिद्धत्वपरिणमनत्वात् । व्यबहारः।
अथ तीनहूं व्यवहारको स्वरूप कह है* शुद्ध न्यबहार शुभाशुभाचाररूप, शुद्धाशुद्धव्यवहार शुभोपयोगमिश्रित स्वरूपाचरनरूप, शुद्धव्यवहार शुद्धस्वरूपाचरनरूप। परन्तु विशेष इनको इतनौ जुकोऊ कहै कि-शुद्धस्वरूपाचरणाम तौ सिद्भविष छतौ है. उहां भी व्यवहार संज्ञा कहिए-सो ौं नाही-जाते संसारी अवस्थापर्यन्त व्यवहार कहिए । संसारावस्थाके मिटत व्यवहार भी मिटी कहिए। * इहां यह थापना कीनी है तातै सिद्धव्यवहारातीत कहिए। इति व्यवहारविचार समातः।
अथ आगमभध्यातमको स्वरूप कथ्यते । आगम-वस्तुको जु स्वभाव सो आगम कहिए । आत्माको जु अधिकार सो अध्यातम कहिए । आगम तथा अध्यात्म स्वरूप भाव आत्मद्रव्यके जानने । ते दोऊभाव संसार - वस्थाविषै त्रिकालवर्ती मानने । ताको ब्यौरौ--आगमरूप ।
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ytht.ket.tituttitutatutetertatutattitutetstatuttitun १२१८ जैनग्रन्थरत्नाकरे कर्मपद्धति, अध्यात्मरूप शुद्धचेतनापद्धति । ताको व्यौरीकर्मपद्धति पौद्लीकद्रव्यरूप अथवा भावरूप, द्रव्यरूप पुद्गलपरिणाम, भावरूप पुद्गलाकारआत्माकी अशुद्धपरिणतिरूप पारिणाम-ते दोऊपरिणाम आगमरूप थापे । अब शुद्धचेतनापद्धति शुद्धात्मपरिणाम सो भी द्रव्यरूप अथवा भावरूप । द्रव्यरूप तौ जीवत्वपरिणाम-भावरूप ज्ञानदअर्शन सुखवीर्य आदि अनन्तगुणपरिणाम, ते दोऊ परिणाम अध्यात्मरूप जानने । आगम अध्यात्म दुई पद्धतिविप अनन्तता माननी।
अनन्तता कहा ताको विचार__ अनंतताको स्वरूप दृष्टान्तकरि दिखाइयतु है जैसेवटवृक्षको बीज एक हाथविषै लीजै. ताको विचार दीर्घ दृष्टिसौं कीजै तो वा वटके वीजविषै एक वटको वृक्ष है.. सो वृक्ष जैसो कछु भाविकाल होनहार है तैसो विस्तारलिये विद्यमान वामैं वास्तवरूप छतो है. अनेक शाखा प्रशाखा पत्र पुष्पफलसंयुक्त है फल फलविषै अनेक वीज होंहि । या । शुभांतिकी अवस्था एक वटके बीजविषै विचारिए । भी और है सूक्ष्मदृष्टि दीजै तो जे जे बा वट वृक्षविष वीज हैं ते ते । अंतगर्मित वटवृक्षसंयुक्त होहिं । याहीभांति एकवटविषे अनेक
अनेक बीज, एक एक बीज विषै एक एक वट, ताको विचार है। * कीजै तौ भाविनयप्रवानकरि न वटवृक्षनिकी मर्यादा पाइए।
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न वीजनिकी मर्यादा पाइए । याही भांति अनंतताको स्वरूप जाननौ । ता अनंतताके स्वरूपको केवलज्ञानी पुरुष मी अनन्तही देखे जाणै कहै-अनन्तको ओर अंत है ही नाही जो ज्ञानविपै भासै । तातें अनंतता अनंतहीरूप प्रति ३ भास, या मांति आगम अध्यातमकी अनंतता जाननी. तामैं विशेष इतनौ जु अध्यातमको स्वरूप अनंत आगमको स्वरूप अनंतानंतरूप, यथापना प्रधानकरि अध्यात्म एक द्रव्याश्रित । आगम अनंतानन्त पुद्गलद्रव्याश्रित । इन दुईको स्वरूप सर्वथा प्रकार तौ केवलगोचर, अंशमात्र मतिश्रुतज्ञानग्राह्य
ताः सर्वथाप्रकार आगमी अध्यात्मी तो केवली, अंशमात्र । । मतिश्रुतज्ञानी, ज्ञातादेशमात्र अवधिज्ञानी मनःपर्यय ज्ञानी,
ए तीनों यथावस्थित ज्ञानप्रमाण न्यूनाधिकरूप जानने । मिथ्यादृष्टी जीव न आगमी न अध्यात्मी है । काहेरौं यातें । जु कथन मात्र तौ ग्रंथपाठके बलकरि आगम अध्यातमको स्वरूप उपदेशमात्र कहै परन्तु आगम अध्यातमको स्वरूप सम्यक् प्रकार जानैं नहीं। ता मूढ जीव न आगमी न अध्यात्मी, निर्वेदकत्वात् ।
अब मूढ तथा ज्ञानी जीवको विशेपपणौ और भी सुनो, ३ ज्ञाता तो मोक्षमार्ग साथि जाने. मूढ मोक्षमार्ग न में साधि जानै काहे-या सुनो-मूढ जीव आगमपद्धतिको ।
व्यवहार कहै अध्यात्मपद्धतिको निश्चय कहै तात आगम
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३२२० जैनग्रन्थरत्नाकरे । अंग एकान्तपनौ साधिकै मोक्षमार्ग दिखावै अध्यात्म अगको व्यवहार न जानै यह सूढदृष्टीको खभाव, वाहिं याही भांति सूझै काहेत!-याते-जुआगम अंग वाह्यक्रियारूप प्रत्यक्ष प्रमाण है ताको खरूप साधिवो सुगम । ता बाह्यक्रिया । करतौ संतौ आपकू मूढ जीव मोक्षको अधिकारी मार्ने, अअन्तरगर्मित जो अध्यात्मरूप क्रिया सो अंतरदृष्टिग्राह्य है सो क्रिया मूढजीव न जाने । अन्तरदृष्टिके अभावसौं अन्तर । क्रिया दृष्टिगोचर आवै नाही, तातै मिथ्यादृष्टी जीव मोक्षमार्ग साधिवेको असमर्थ ।
अब सम्यकदृष्टीको विचार सुनौसम्यग्दृष्टी कहा सो सुनो-संशय विमोह विभ्रम ए तीन भाव जामैं नाहीं सो सम्यग्दृष्टी । संशय विमोह विभ्रम कहा। ताको स्वरूप दृष्टान्तकरि दिखायतु है सो सुनो-जैसें च्यार है। 1 पुरुष काहु एकस्थानकविष ठाढ़े । तिन्ह चारिईके आगे एक है सीपको खंड किनही और पुरुषनै आनि दिखायो । प्रत्येक प्रत्येकतें प्रश्न कीनी कि यह कहा है सीप है के रूपौ है. प्रथमही एक पुरुष संशैवालो बोल्यो-कछु सुध नाहीन परत, किधौ सीप . है किधौ रूपो है मोरी दिष्टिविषै याकौ निरधार होत नाहिन । मी दूजो पुरुष विमोहवालो बोल्यो कि-कछू मोहि यह सुधि । नाही कि तुम सीप कौनसौं कहतु है रूपी कौनसौं कहतु है । मेरी दृष्टिविषै कछु आवतु नाही तात हम नाहिन जानत कि
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____बनारसीविलासः २२१ ।
तू कहा कहतु है अथवा चुप है रहै बोले नाही गहलरूपसौं ।।।
भी तीसरो पुरुष विश्रमवालो बोल्यो कि यह तो - ३त्यक्षप्रमान रूपो है याको सीप कौन कहै मेरी दृष्टिविषै तौ । १ सयो सूझनु है तातें सर्वथाप्रकार यह रूपो है १ सौ तीनों पुरुष तौ चा सीपको स्वरूप जान्यौ नाहीं । तातै तीनों मिथ्यावादी । अब चौथी पुरुष बोल्यो कि यह तो प्रत्यक्ष प्रमान । सीपको खंड है यामैं कहा घोरखो,सीप सीप सीप, निरधार सीप याको जु कोई और वस्तु कहै सो प्रत्यक्षपमान प्रामक अथवा ।
अंघ. तैसें सम्यग्दृष्टीकौ स्वपरस्वरूपविधै न संसै न विमोह । सन विक्रम यथार्थ दृष्टि है ता सम्यादृष्टी जीव अन्तरदृष्टि करि का मोक्षपद्धति साथि जाने । बाह्यभाव वानिमितरूप मान, सो निमित्त नानारूप, एक रूप नाही. अन्तरदृष्टिक प्रमान मो* क्षमार्ग साथै. सम्यग्ज्ञान स्वरूपाचरनकी कनिका जागे मोक्षमार्ग सांचौ । मोक्षमार्गको साधियो यहै व्यवहार, शुद्धद्रव्य । प्रक्रियारूप सो निश्चै । पैसें निश्चय व्यहारको स्वरूप सम्यदृष्टी जाने. सूट जीव न जाने न मानै । मूढ जीव बंधपद्धति को साधिकार मोक्ष कहै, सो वात ज्ञाता माने नाहीं । काहेते ।। यात जु बंधके साधते बंध सधै, मोक्ष सथै नाहीं । ज्ञाता। जब कदाचित बंधपद्धति विचारै तब जाने कि या पद्धतिसौं । मेरो द्रव्य अनादिको बन्धरूप चल्यो आयो है-अव या पद्धतिसौं मोह तौरि बहै तौ या पद्धतिको राग पूर्वकी त्यों है ।
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*२२२ जैनग्रन्थरत्नाकरे ॐनर काहे करौ ? । छिन मात्र भी बन्धपद्धतिविपै मगन होय नाहीं सो ज्ञाता अपनो स्वरूप विचारै अनुभवै ध्यावै गावै । श्रवन करै नवधामक्ति तप क्रिया अपने शुद्धस्वरूपके सन्मुख । होइकरि करै । यह ज्ञाताको आचार, याहीको नाम मिश्रव्यवहार ॥ अब हेयज्ञेयउपादेयरूप ज्ञाताकी चालताकोविचारलिख्यते
हेय-त्यागरूप तौ अपने द्रव्यकी अशुद्धता, ज्ञेय-विचाररूप अन्यषद्रव्यको स्वरूप, उपादेय—आचरन रूप अपने द्रव्यकी अशुद्धता, ताको व्यौरी-गुणस्थानक प्रमान हेयज्ञेयउपादेयरूप शक्ति ज्ञाताकी होइ । ज्यों ज्यों ज्ञाताकी हेय है ज्ञेयउपादेयरूप शक्ति वर्द्धमान होय त्यों त्यों गुनस्थानककी बढवारी कही है. गुणस्थानकावान ज्ञान गुणस्थानक प्रमान क्रिया । तामैं विशेष इतनौ जु एक गुणस्थानकवर्ती अनेक जीव होहिं तौ अनेक रूपको ज्ञान कहिए, अनेक रूपकी क्रिया कहिए । भिन्न भिन्नसत्ताके प्रवानकरि एकता मिलै नाहीं । एक एक जीव द्रव्यविषै अन्य अन्य रूप उदी
क भाव होंहि तिन उदीकभावानुसारी ज्ञानकी अन्य अन्यता है १ जाननी । परंतु विशेष इतनौ जु कोऊ जातिको ज्ञान ऐसो न होइ जु परसचावलंवनशीली होइकरि मोक्षमार्ग साक्षात् कहै ।।
काहेत अवस्थाप्रवान परसत्तावलंबक है । ज्ञानको परसमतावलंबी परमार्थता न कहै । जो ज्ञान होय सो स्वसत्तावलंबन है
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बनारसीविलासः २२३ शीली होइ ताको नाउ ज्ञान । ता ज्ञानकी सहकारभूत निमि
तरूप नाना प्रकार के उदीकभाव होंहि । तिन्ह उदीकभावसुनको ज्ञाता तमासगीर । न कर्ता न भोक्का न अवलंची तातें में कोल यों कहै कि या भांतिके उदीकभाव होहि सर्वथा तो फलानो गुनस्थानक कहिये सो झूठो । तिनि द्रव्यको स्वरूप सर्वथा प्रकार जान्यौ नाहीं । काहेत यातें जु और गुनस्थानक । निकी कौन वात चलावै केवलीके भी उदीकभावनिकी नानाम त्वता जाननी । केवलीके मी उदीकभाव एकसे होय नाहीं।।
काह केवलीको दंड कपाटरूप क्रिया उदै होय काहू केवली को । नाहीं । तो केवलीविषै भी उदैकी नानात्वता है तो और गुनस्थान । ककी कौन वात चलावै। तातै उदीक भावनि के भरोसे ज्ञान नाही अज्ञान स्वशक्तिप्रवान है । स्वपरप्रकाशक नानकी शक्ति ज्ञायक ॐ प्रमान ज्ञान स्वरूपाचरनरूप चारित्र यथा अनुभव प्रमान यह
ज्ञाताको सामर्थ्यपनौ। इन बातनको व्यारो कहातांई लिखिये कहां । ॐ ताई कहिए। बचनातीत इन्द्रियातीत ज्ञानातीत, तातै यह विचार बहुत कहा लिखहिं । जो ज्ञाता होगो सो थोरी ही लिख्यो । बहुतकरि समुझेगो को अज्ञानी होयगो सो यह चिठी सुनैगो । सही परन्तु समुझेगा नहीं यह यचनिका यथाका यथा । मुमतिप्रधान केवलिवचनानुसारी है। जो याहिगुणैगो समुझे गो सरदहगो ताहि कल्याणकारी है भाग्यप्रमाण ।
इति परमार्थवश्वनिका.
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१२२४ जैनग्रन्थरलाकरे अथ उपादान निमित्तकी चिट्ठी लिख्यते
प्रथम हि कोई पूछत है कि निमित्त कहा उपादान कहा है। से ताकौ ब्यौरौ-निमित्त तौ संयोगरूप कारण, उपादान बस्तुकी सहन शक्ति ।ताको ब्यौरो-एक द्रव्यार्थिक निमित्त उपादान, एक पर्यायार्थिक निमित्तउपादान, ताको व्यौरो--- ॐ द्रव्यार्थिक निमित्त उपादान गुनभेदकल्पना । पर्यायार्थिक निमित्त उपादान परजोगकल्पना. ताकी चौमंगी. प्रथम ही है गुनभेद कल्पनाकी चौमंगीको विस्तार कहौं सो कैसें,-ऐसेसुनौ—जीबद्रव्य ताके अनन्त गुन, सब गुन असहाय खाधीन सदाकाल । तामैं दोय गुण प्रधान मुख्य थापे, तापर चौ३ भंगीको विचार एक तौ जीवको ज्ञानगुन दूसरो जीवको चारित्रगुन ।
ए दोनौं गुण शुद्धरूप भाव जानने । अशुद्धरूप भी जानने यथायोग्य स्थानक मानने वाको व्यौरो-इन दुई
की गति न्यारी न्यारी, शक्ति न्यारी न्यारी, जाति न्यारी न्यारी, सत्ता न्यारी न्यारी ताको व्यौरौ, ज्ञानगुणकी तौ ॐ ज्ञान अज्ञानरूप गति, स्वपरप्रकाशक शक्ति, ज्ञानरूप ॐ तथा मिथ्यात्वरूप जाति, द्रव्यप्रमाण सत्ता, परंतु एक वि
शेष इतनौ जु ज्ञानरूप जातिको नाश नाही, मिथ्यात्वरूप जातिको नाश, सम्यग्दर्शन उत्पत्ति-पर्यंत,यह तौ ज्ञान गुणको निर्णय भयो । अब चारित्र गुणको ब्यौरौ कहै हैं, संकलेस
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बनारसीविलासः २२५ wwwmaunaananmunonumuwwwwwww.mm विशुद्धरूप गति, थिरता अधिरता शक्ति, मंदी तीव्ररूप * जाति, द्रव्यप्रमाण सत्ता । परंतु एक विशेष जु मंदताकी है स्थिति चतुर्दशम गुणस्थानकपर्यन्त । तीब्रताकी स्थिति पंचमगुणस्थानक पर्यन्त । यह तौ दुहुको गुण मेद न्यारी न्यारी कियौ । अब इनकी व्यवस्था न ज्ञान चारित्रके आधीन न । चारित्र ज्ञानके आधीन । दोऊ असहाय रूप यह तो मर्यादा है। चंध।
अथ चौभंगीको विचार-बानगुन निमित्त
चारित्रगुण उपादान रूप ताको व्यौरीएक तो अशुद्ध निमित्त अशुद्ध उपादान दूसरो अशुद्ध निमित्त शुद्ध उपादान । तीसरो शुद्ध निमित्त अशुद्ध उपा* दान, चौथो शुद्ध निमित्त शुद्ध उपादान, ताको व्यौरीसे सूक्ष्मदृष्टि देइकार एक समयकी अवस्था द्रव्यकी लेनी समुच्चॐ वरूप मिथ्यात्व सम्यक्त्वकी बात नाहीं चलावनी । काह समै ।
जीवकी अवस्था या भांति होतु है जुजानरूप ज्ञान विशुद्ध चारित्र, काहू समै अजानरूप ज्ञान विशुद्ध चारित्र, काहू समै जानरूप ज्ञान संकलेस रूप चारित्र, काहू समै अजानरूप ज्ञान । संकलेस चारित्र, ना समैं अजानरूप गति ज्ञानकी, संकलेसरूप ॐ गति चारित्रकी तासमैं निमित्त उपादान दोऊ अशुद्ध काहसमैं ।
अजानरूप ज्ञान विशुद्ध रूप चारित्र तासमै अशुद्ध निमित्त शुद्ध उपादान । काहू समै जानरूप ज्ञान संकलेसरूप चारित्र तासमें शुद्ध निमित्त अशुद्ध उपादान ! काहूं समैं जानरूप ज्ञान
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विशुद्ध रूप चारित्र तासमैं शुद्ध निमित्त शुद्ध उपादान या मांति अन्य दशाजीवकी सदाकाल अनादिरूप, ताकौ व्यौरी-ज्ञान रूप ज्ञानकी शुद्धता कहिए विशुद्धरूप चारित्रकी शुद्धता कहिए । अज्ञान रूप ज्ञानकी अशुद्धता कहिए संक्लेश रूप चारित्रिकी अशुद्धता कहिये । अव ताको विचार सुनोमिथ्यात्व अवस्था विषे काहू समै जीवको ज्ञान गुण जाण रूप है तब कहा जानतु है ? ऐसौ जानतु है कि लक्ष्मी पुत्र कलत्र इत्यादिक मौसौं न्यारे हैं प्रत्यक्ष प्रमाण । हौं । 1 मरूंगो ए इहां ही रहेंगे सो जान तु है । अथवा ए जाहिंगे, हो रहूंगो, कोई काल इन्हस्यौं मोहि एक दिन विजोग है। ऐसी जानपनौ मिथ्यादृष्टीको होतु है सो तो शुद्धता कहिए. परन्तु सम्यक् शुद्धता नाही गर्भितशुद्धता जब । वस्तुकौ खरूप जानै तब सम्यक् शुद्धता सो ग्रंथिभेद बिना होई नाही परंतु गर्मित शुद्धता सौ भी अकाम निर्जरा है। भवाही जीवको काहू समै ज्ञान गुण अजान रूप है गहलरूप,
ताकरि केवल बंध. है.. याही भांति मिथ्यात्व अवस्था । विषै काहू समै चारित्र गुण विशुद्धरूप है तातें चारित्रावर्ण ।
कर्म मंद है । ता मंदताकरि निर्जरा है ! काहूसमै चारित्र । * गुण संकलेशरूप है तातें केवल तीव्रबंध है । या भांति में करि मिथ्या अवस्थाविषे जासमै जानरूप ज्ञान है और विशुॐ तारूप चारित्र है ता समै निर्जरा है । जा समैं अजानरूप
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बनारसीविलासः २२७ ज्ञान है संकलेश रूप चारित्र है तासमैं बंध है तामैं विशेष इतनौ जु अल्प निर्जरा बहु बंध, ताक् मिथ्यात अवस्थाविषै । केवल बन्ध कह्यो । अल्पकी अपेक्षा. जैसे—काहू पुरुषकों : अनफो थोड़ो टोटौ बहुत सो पुरुष टोटाउ ही कहिए । परंतु ।। बंध निर्जरा विना जीव काहू अवस्थाविषे नाही । दृष्टान्त ऐसोजु विशुद्धताकरि निर्जरा न होती ती एकेन्द्री जीव निगोद अवस्थासौं व्यवहारराशि कौनके बल आवतौ उहां तौ ज्ञान । गुन अजानरूप गहलरूप है अबुद्धरूप है तातें ज्ञानगुनको तौ बल नाहीं । विशुद्धरूप चारित्रके वलकरि जीव व्यवहार राशि चढतु है. जीवद्रव्यविषै कषाइकी मंदता होतु है ताकरि । निर्जरा होतु है। वाही मंदता प्रमान शुद्धता जाननी । अब
और भी विस्तार सुनो- जानपनौ ज्ञानको अरु विशुद्धता चारित्रकी दोऊ मोक्षमार्गानुसारी है तातै दोविषै विशुद्धता माननी । परन्तु विशेष इतनौ जु गर्मित शुद्धता प्रगट शुद्धता नाहीं । इन दुई गुणकी गर्मित शुद्धता जबताई अंथिमेद होय नाहीं तबताई। मोक्षमार्ग न सधै । परन्तु ऊरधताको करहि अवश्य करि ही। ए दोऊ गुणकी गर्मित शुद्धता जब अंथिभेद होइ तब इन दुईकी शिखा फूटै तब दोऊं गुन धारामबाहरूप मोक्षमार्गकौं चलहिं । ज्ञानगुनकी शुद्धताकरि ज्ञान गुण निर्मल होहि । चारित्र गुणकी शुद्धता करि चारित्र गुन निर्मल होइ । वह केवल ज्ञानको अंकूर, वह जथाख्यातचारित्रको अंकूर ।
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
२२८
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इहां कोऊ उटंकना करतु है, कि तुम कह्यो जु ज्ञानको जाणपनौ अरु चारित्रकी विशुद्धता दुहुंस्यों निर्जरा है सु ज्ञानके जाणपनौ सो निर्जरा यह हम मानी । चारित्रकी विशुद्धतासौं निर्जरा कैसें! यह हम नाहीं समुझी-ताको समाधान -
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सुनि भैया ! विशुद्धता थिरतारूप परिणामसों कहिये सो थिरता नथाख्यातको अंश है तातें विशुद्धतामें शुद्धता आई || भी वह उटंकनावारो बोल्यौ -- तुम विशुद्धतासौं निर्जरा कहीं, हम कहतु है कि विशुद्धतासों निर्जरा नाहीं शुभवन्ध हैताकौ सामाधान – कि सुन भैया यह तौ तू सांचो. विशुद्धतासों शुभबन्ध, संक्लेशतासों अशुभबन्ध, यह तो हम भी मानी परन्तु और भेद या है सो सुनि--अशुभपद्धति अधोगतिको परणमन है शुभपद्धति उर्द्धगतिकौ परनमन है तातें अघोरूपसंसार उर्द्धरूप मोक्षस्थान पकरि, शुद्धता बामैं आई मानि मानि या घोखो नाहीं है । विशुद्धता सदा काल मोक्षको मार्ग है परन्तु ग्रन्थभेद विना शुद्धताको जोर चलत नाही ? जैसे कोऊ पुरुष नदी मैं डुबक मारे फिर जब उछलै तब दैवजोगसों ऊपर ता पुरुषकै नौका आय जाय तौ यद्यपि तारू पुरुष
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तथापि कौन भांति निकलै ? वाको जौर चलै नाहिं, बहुतेरा फलचल करै पै कछु बसाइ नांही, तैसें विशुद्धता की भी ऊ र्द्धता जाननी । ता वास्तै गर्भित शुद्धता कही । वह गर्भित शुद्धता ग्रंथिभेद भये मोक्षमार्गको चली । अपने स्वभाव
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बनारसीविलासः २२९ में करि वर्द्धमानरूप मई तव पूर्ण जथाख्यात प्रगट कहायो ।
विशुद्धताकी जु ऊर्द्धता बहै बाकी शुद्धता। ___ और सुनि जहां मोक्षमार्ग साध्यौ तहां कहा कि 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' और यौँ भी कयौ कि ।
ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष ताको विचार-चतुर्थ गुणस्थानकस्यु । लेकरि चतुर्दशम गुणस्थानकपर्यन्त मोक्षमार्ग कयौ ताकौ । व्यौरौ, सम्यक्प ज्ञानधारा विशुद्धरूप चारित्रधारा दोऊ । धारा मोक्षमार्गको चली सु ज्ञानसौं ज्ञानकी शुद्धता क्रियासौं । क्रियाकी शुद्धता । जो विशुद्धतामैं शुद्धता है तो जथाख्यात रूप होत है । जो विशुद्धतामैं ता न होती तो ज्ञान गुन शुद्ध होतो क्रिया अशुद्ध रहती केवली विषै, सो यौं तौ । नहीं वामैं शुद्धता हती ताकरि विशुद्धता भई । इहां कोई कहैगो कि ज्ञानकी शुद्धताकरि क्रिया शुद्ध भई सो यों है नाहीं । कोऊ गुन काहू गुनके सारै नहीं सब असहाय रूप है। और भी सुनि जो क्रियापद्धति सर्वथा अशुद्ध होती तो अशुद्धताकी एती शक्ति नाहीं जु मोक्षमार्गको चलै ताः । विशुद्धतामैं जथाख्यातको अंश है तातै वह अंश क्रम क्रम * पूरण भयौ । ए भइया उटकनावारे--- विशुद्धतामै शुद्धता ॐ मानी कि नाही. जो तो मैं मानी तौ कछु और कहिवेको * कार्य नाहीं । जो तें नाहीं मानी तौ तेरौ द्रव्य याहीभांतिकौ । है परनयौ है हम कहा करि हैं जो मानी तौ स्याबासि । यह से तो द्रव्यार्थिककी चौमंगी पूरन भई। . .
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२३० जैनग्रन्थरत्नाकरे
निमित्त उपादान शुद्ध अशुद्धरूप विचार। अब पर्यायार्थिकफी चौभंगी सुनौ एक तो वक्ता अज्ञानी । श्रोता भी अज्ञानी, सो तौ निमित्त भी अशुद्ध उपादान भी अशुद्ध । दूसरो वक्ता अज्ञानी श्रोता ज्ञानी सो निमित्त अशुद्ध और उपादान शुद्ध । तीसरो वक्ता ज्ञानी श्रोता अई ज्ञानी सो निमित्त शुद्ध उपादान अशुद्ध । चौथो-वक्ता * ज्ञानी श्रोता भी ज्ञानी सो तो निमित्त मी शुद्ध २ उपादान भी शुद्ध । यह पर्यायाधिककी चौभंगी साथी ।
इति निमित्तउपादान शुद्धाशुदलपविचार वनिता.
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* अथ निमित्तउपादानके दोहे लिख्यते ।
दोहा। गुरुउपदेश निमित्त विन, उपादानवलहीन ।
ज्यों नर दूजे पांव विन, चलवेको आधीन ॥ १ ॥ ॐ हौं जान था एक ही, उपादानों कान | थक्कै सहाई पौन विन, पानीमाहि जहाज ॥ २॥
__ दोनों दोहोंका उत्तर, ॐ ज्ञान नैन किरिया चरन, दोऊ शिवमगधार ।
___ उपादान निहचै जहाँ, तह निमित्त व्योहार ॥३॥ ३. उपादान निन गुण जहाँ, तहँ निमित्त पर होय ।
भेद ज्ञान परवान विधि, विरला बुझे कोय ॥ ४ ॥
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बनारसीविलासः २३१॥ - उपादान वल जहँ तहाँ, नहिं निमित्तको दाव।
एक चक्रसौं रथः चलै, रविको यहै खभाव ॥ ५ ॥ * सधै वस्तु असहाय जहँ, तहँ निमित्त है कोन ।
। ज्यों जहान परवाहमें, तिरै सहज विन पौन ॥ ६॥ ॐ उपादान विधि निरवचन, है निमित्त उपदेस। बसै जु जैसे देशमें, करै सु तैसे मेस ॥ ७ ॥
इति निमित्त उपादानके दोहे.
' अथ अध्यातमपदपंक्ति लिख्यते.
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__राग भैरव या चेतनकी सब सुधि गई। .. व्यापन मोहि.विकलता भई, या चेतनकी टेक है.बडरूप अपावन देह।
तासौं राखै परमसनेह, या चेतनकी० ॥ १ ॥ आइ मिले जन स्वास्थबंध । । तिनहिं कुटंब कहै जा बंध ॥
आप अकेला जनमै मरे। — सकल लोककी ममता धरै, या चेतनकी० ॥ २ ॥
इस रागमसे टेक निकाल दी वाले तो खासी १५ मात्राकी चौपाई हो जाती है।
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Prakatatatathakathkartatistattattatrkatinket १२३२ जैनग्रन्थरताकरे
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होत विभूति दानके दिये।
यह परपंच विचारै हिये। भरमत फिरै न पावइ ठौर ।
ठानै मूढ औरकी और, या चेतनकी० ॥ ३ ॥ बंध हेतको करै जुखेद ।
जानै नहीं मोक्षको भेद। मिटै सहज संसार निवास। ___ तब सुख लहै वनारसिदास, या चेतनकी० ॥४॥
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राग रामकलीचेतन तू तिहुकाल अकेला, से नदी नावसंजोग मिलै ज्यो, त्यों कुटंबका मेला, चेतन०॥टेक ॥ ३यह संसार असार रूप सब, ज्यों पटपेखन खेला। सुखसंपति शरीर जलवुदबुद, विनशत नाही बेला, चेतन ॥१॥
मोहमगन आतमगुन भूलत, परी तोहि गलजेला. 3 मैं मैं करत चहूं गति डोलत, बोलत जैसे छेला, चेतन० ॥२॥ ॐ कहत वनारसि मिथ्यामत तज, होय सुगुरुका चेला। 3 तास वचन परतीत आन जिय,होइ सहज सुरझेला, चेतन० ॥३॥
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१वकरीका बचा.
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बनारसीविलासः २३३
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राग रामकली। * मगन लै आराघो साघो! अलख पुरुष प्रभु ऐसा ॥ टेक॥
जहाँ जहाँ जिस रससौं राचे, तहाँ तहाँ तिस भेसा,मगन० ॥१॥ * सहजप्रवान प्रवान रूपमें, संसैमें संसैसा ।
घरै चपलता चपल कहावै, लै विधानमें लै सा, मगन० ॥ २ - उद्यम करत उद्यमी कहिये, उदयसरूप उदै सा।
व्यवहारी व्यवहार करममें, निहमें निहचै सा, मगन० ॥३॥ । पूरण दशा धेरै संपूरण, नय विचारमें तैसा । इंदरवित सदा अखै सुखसागर,भावित उतपति खैसा, मगन०४॥
नाहीं कहत होइ नाही सा, है कहिये तो है सा।
एक अनेक रूप है वरता, कहाँ कहाँ लों कैसा, मगन० ॥५॥ ॐ वह अपार ज्यों रतन अमोलक, बुधि विवेक ज्यों पैसा।
कल्पित वचन विलास वनारसि' वह जैसेका तैसा,मगन०॥६॥
दोहाजिनप्रतिमा जिनसारखी, कही जिनागम माहिं । पै जाके दूषण लगै, बंदनीक सो नाहिं ॥ १ ॥ मेटी मुद्रा अवधिसों, कुमती कियो कुदेव ।
विधन अंग जिनबिंबकी, तजै समकिती सेव ॥२॥ How
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१२३४
जैनग्रन्थरत्नाकरे ।
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राग बिलावल। इहि विधि देव अदेवकी, मुद्रा लखलीजे, * गुन लच्छन पहिचानकै, पद पूजा कीजै ।। टेक॥ ॐ पट भूपन पहरे रहै, प्रतिमा जो कोई ।
सो गृहस्थ मायामयी, मुनिराज न होई ॥२॥ जाके तिय संगति नहीं, नहिं वसन न भूषन । सो छवि है सर्वज्ञकी, निर्मल निरदूपन ॥ ३ ॥ वाम अंग जाके त्रिया, अथवा अरधंगी। . सो तो प्रगट कुदेव है, विषयी रसरंगी ॥१॥ निरद्वंदी निरपरिगृही, जोगासन ध्यानी ।
सो है मूरति सिद्धकी, के फेवलज्ञानी ॥ ५ ॥ __ जो प्रचंड आयुध लिये, कर ऊरध वाह ।
प्रगट विनोदी देवता, मारैगा काहू ॥ ६॥ जो न कछू करनी करै, नहिं आयुध पानी । सो प्रतिमा भगवंतकी, निरवैर निशानी ॥ ७ ॥ जो पशुरूपी पशुमुखी, पशुवाहनधारी । ते सब असुर अबंदनी, निरदय संसारी ॥ ८॥
INTrtetat-kattitutkXXXAttitutetLEE-
EXIXxzettetT3Betituttitutatut.3.3.
: राग विसावल । ऐसे क्यों प्रभु पाइये, सुन मूरख पानी। '
जैसें निरख मरीचिका, मृग मानत पानी । ऐसें ॥ १॥
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बनारसीविलासः
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ज्यों पकवान चुरेलका, विषयारस त्यों ही। ।
ताके लालंच तू फिर, अम भूलत यों ही, ऐसें ॥ २ ॥ , देह अपावन खेटकी, अपनी करि मानी।
भाषा मर्नसा करमकी, तें निजकर जानी । ऐसें ॥ ३॥ नाव कहावति लोककी, सो तौ नहिं भूले। * जाति जगतकी कलपना, तामैं तू झूलै । ऐसें ॥ ४ ॥ माटी भूमि पहारकी, तुह संपत्ति सूझै ।
प्रगट पहेंली मोहकी, तू तऊ न बूझै । ऐसें ॥५॥ 3 ते कबहू निलु गुनविषै, निजदृष्टि न दीनी।
पराधीन परवस्तुसों, अपनायत क्रीनी, ऐसें ॥ ६ ॥ ज्यो मृगताभि सुवास सों, ढूंढत चन दौरे।
त्यों तुझमें तेरा धनी, तू खोजत औरै, ऐसें ॥ ७॥ करता मरता भोगता, घट सो घटमाहीं। * ज्ञान विना सदगुरु विना, तू समुझत नाहीं । ऐसें ॥८॥
राग विलापका ऐसे यो प्रभु पाइये, सुन पंडित पानी।
ज्यों मथि माखन काढिये, दधि मेलि मथानी, ऐसें ॥१॥ १ ज्यो रसलीन रसायनी, रसरीति अराधै। ।
त्यो घटमें परमारथी, परमारथ साथै, ऐसें ॥ २ ॥
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३
२३६ बैनग्रन्थरत्नाकरे । जैसें वैद्य विधा लहै, गुण दोप विचारै।
तैसें पंडित पिंडकी, रचना निरवारै, ऐसे० ॥ ३ ॥ * पिंडस्वरूप अचेत है, प्रभुरूप न कोई।
जानै मानै रमि रहै, घट व्यापक सोई, ऐसें ॥ ४ ॥ चेतन लच्छन है धनी, जड़ लच्छन काया।
चंचल लच्छन चित्त है, प्रम लच्छन माया, ऐसें ॥५॥ 2 लच्छन भेद विलेच्छको, सु विलच्छन वेदै। ना सत्तसरूप हिये धेरै, भ्रमरूप उछदै, ऐसें ॥६॥ ज्यों रजसोथै न्यारिया, धन सौ मनकी लै।
त्यो मुनिकर्म विपाकमें, अपने रस झीलै, ऐसे० ॥ ७ ॥ आप लखै जब आपको, दुविधापद मेटै। सेवक साहिव एक है, तब को क्रिहिं भेटै! ऐसें ॥ ८ ॥
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रोग आसावरी। तू आतम गुन जानि रे जानि,
साधु वचन मनि आनि रे आनि, तू आतम० ॥१॥ भरत चक्रपति पटखंड साधि,
भावना भावति लही समाधि, तू आतम० ॥२॥ प्रसनचंद्ररिषि भयो सरोष, __ मन फेरत फिर पायो मोप, तू आतम० ॥ ३॥
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११५ मात्राकी चौपाई।
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बनारसीविलासः
२३७
रावन समकित भयो उदोत,
तब बांध्यो तीर्थकर गोत, तू आतम० ॥ ४ ॥ सुकल ध्यान धरि गयो सुकुमाल,
पहुँच्यो पंचमगति तिहँ काल, तू आतम० ॥ ५॥ दिढ प्रहारकरि हिंसाचार,
गये मुकति निजगुण अवधार, तू आतम० देखहु परतछ मुंगी ध्यान, ____ करत कीट भयो ताहि समान, तू आतम० ॥ ७ ॥
कहत 'वनारसि वारंवार, ___ और न तोहि छुडावनहार, तू आतम० ॥ ८ ॥
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राग आसावरी। । सेरेमन! कर सदा सन्तोष,
जातें मिटत सब दुखदोष, रे मन० ॥ १ ॥ अबढत परिगृह मोह वाढत, अधिक तृषना होति । बहुत इंधन जरत जैसें, अगनि ऊंची जोति, रे मन ॥ २ ॥ लोभ लालच मूढजनसो, कहत कंचन दान । फिरत आरत नहिं विचारत, घरम धनकी हान, रे मन० ॥३॥ नारकिनके पाइ सेवत, सकुच मानत संक। ज्ञानकरि बूझै 'वनारसि' को नृपति को रंक, रे मन० ॥४॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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राग,बरवा। बालम तुहुँ तन चितवन गागरि फूटि। . अचरा गौ फहराय सरम गै छुटि, बालम ॥ १.॥ हूं तिक रहूं जे सजनी रजनी घोर 1. घर करकेड न बाने चहुदिसि चोर, बा० ॥२॥ पिउ'सुधियावत वनमें पैसिउ पेलि । छाडउ राज डगरिया भयउ अकेलि, वा० ॥ ३ ॥ संबरी सारदसामिनि औ गुरु भान । कछु बलमा परमारथ करों वखान, वा० ॥ ४॥ . काय नगरिया भीतर चेतन भूप। . .. . करम लेप लिपटा बल ज्योति स्वरूप, वा० ॥५॥ दर्शन ज्ञान चरणमय चेतन सोय। पियरा गरुव सचीकन कंचन होय, बा० ॥ ६॥ .
चेतन चित अवधार सुगुरु उपदेश । कछु इक जागलि ज्योति ज्ञान गुन लेस, वा० ॥ ७ ॥ अथिररूप सब देखिसि छिन वैराग । चेतन आपुहि आप वुझावै लाग, बा० ॥ ८॥ . चेतन तुहु जनि सोबहु नींद अघोर। । चार चौर घर मूंसहि सरवस तोर, बा० ॥९॥ चेतन तुई वनसावंज कोलकिरात। .; निसिदिन करै अहेर अचानक घात, या० ॥१०॥
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बनारसीविलासः २३९ । चेतनहो तुहूं चेतह परम पुनीत । तजहु कनक अरु कामिनि होहु नचीत ॥ ११ ॥ परेहु करमवस चेतन ज्यों नटकीस। . कोउ न तोर सहाय छाडि जगदीस ॥ १२ ॥ चेतन बूझि विचार धरहु सन्तोष । राग दोष दुइ बंधन छूटत मोप ।। १३ ॥ मोहजालमें, चेतन सब जग जानि । तुहु कुवाज तुहु वाझहु सात भुलान ॥ १४ ॥ चेतन भयेहु अचेतन संगति पाय । चकमकमें आगी देखी नहिं जाय ॥१५॥ चेतन तुहि लपटात प्रेमरस फांद। जस राखल धन तोपि विमलनिशिचांद ॥ १६ ॥ चेतन तोहि न भूल नरक दुख वास । अगनि थम तरुसरिता करवत पास ॥ १७॥
चेतन जो तुहि तिरजग जोनि फिराउ । · बांध पांच ठग वेग तोर अब दाउ ॥ १८ ॥ 2. देवजोनि सुख चेतन सुरंग बसेर ।
ज्यों विन नीव चौरहर खसत न वेर ॥ १९॥ चेतन नर तन पाय बोध नहिं तोहि । पुनि तुहु का गति होइहि अचरज मोहि ॥ २० ॥ आदि निगोद निकेतन चेतन तोर। भव अनेक फिरि आयेहु कतहु न ओर ॥ २१ ॥
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विषय महारस चेतन विष समतल, ___ छाडहु बेगि विचारि पापतरुमूल ॥ २२ ॥ गरभवास तुहुं चेतन ऊरध पांव,
सो दुख देख विचार धरमचित लाव ॥ २३ ॥ चेतन यह भवसागर धरम जिहाज,
तिह चढ बैठो छोड लोककी लाज ॥ २४ ॥ दह या दुहु अब चेतन होहु उचाट,
कह या जाउ मुकतिपुरि संजम वाट ॥ २५ ॥ उधवागाय सुनायेहु चेतन चेत, ___ कहत बनारसि थान नरोत्तम हेत ॥ २६ ॥
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राग धनाश्री। चेतन उलटी चाल चले, जडसंगततै जड़ता व्यापी निज ॐगुन सकल टले, चेतन० टेक ॥ १ ॥ हितों विरचि
ठगनिसों राचे, मोह पिसाच छले । हँसि हँसि फंद सवारि आपही, मेलत आप गले, चेतन० ॥ २॥ आये निकसि निगोद में सिंधुतें, फिर तिह पंथ टले । कैसे परगट होय आग जो दची पहारतले, चेतन ॥ ३॥ भूले भवभ्रम वीचि वनारसि तुम सुरज्ञान मले । धर शुभध्यान ज्ञाननौका चदि, बैठे ते निकले, चेतन० ॥ ४ ॥
(१२)
पुनः राग धनाश्री। चेतन तोहि न नेक संभार, नख सिखलों दिढबंधन बेढे ।
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वनारसीविलासः २४१ कौन करै निरचार, चेतन० ॥ १॥ जैसे आग पपान काठमें । लखिय न परत लगार । मदिरापान करत मतवारो, ताहि नकळू * विचार, चेतन० ॥ २ ॥ ज्यों गजराज पखार आप तन, आपहि डारत छार । आप हि उगलि पाटको कीरा, तनहिं लपेटत तार, चेतन० ॥ ३ ॥ सहन कबूतर लोटनको सो, खु
लैन पेच अपार । और उपाय न वनै 'वनारसि' सुमरन भॐ जन अघार, चेतन० ॥ ४ ॥
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राग सारंग। * दुविधा कब जै है या मनकी दु० । कव निजनाथ निरंजन
समिरौं, तज सेवा जन जनकी, दुविधा० ॥ १ ॥ कव रुचिसौं पी हगचातक, वृंद अखयपद घनकी । कब शुभध्यान, घरौं समता गहि, करूं न ममता तनकी, दुविधा० ॥ २ ॥ ॐकत्र घट अंतर रहै निरन्तर, दिढता सुगुरु वचनंकी । कब
सुख लहौं भेद परमारथ, मिटै धारना धनकी, दुविधा०॥ ३॥ कब घर छाँड़ होहुं एकाकी, लिये लालसा बनकी । ऐसी दशा होय कब मेरी, हौं वलिवलि वा छनकी, दुविधा० ॥ ४ ॥
(१४)
राग सारंग । हम बैठे अपनी मौनसौं । दिन दशके महिमान जगत जन ३ १ रेशमका कीड़ा गलेके नीचेसे तार निकाल कर उससे अपने
शरीरके चारों ओर कोशा वनाकर आप यन्द हो जाता है ।
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बोलि विगार कौनसौं, हम बैठे ॥ १॥ गये विलाय भरमके बादर, परमारथपथपौनसौं । अव अंतरगति भई हमारी, परचे राधारौनसौं, हम बैठे० ॥ २ ॥ प्रघटी सुधापानकी महिमा, मन नहिं लागै बौनसौं । छिन न सुहायँ और रस फीके, रुचि साहिबके लौनसौं, हम बैठे ॥ ३ ॥ रहे अधाय पाय सुखसंपति को निकसै निज भौनसौं । सहज भाव सदगुॐ रुकी संगति, सुरस आवागौनसौं, हम बैठे० ॥ ४ ॥
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राग सारंग वृंदावनी। * जगतमें सो देवनको देव । जासु चरन परसैं इन्द्रादिक
होय मुकति स्वयमेव, जगतमें० ॥१॥ जो न छुधित न तृपित । अन मयाकुल, इन्द्रीविषय न वेव । जनम न होय जरा नहि
व्यापै, मिटी मरनकी टेव, जगतमें ॥ २ ॥ जाकै नहि विपाद नहिं विस्मय । नहिं आठों अहमेवं । राग विरोध मोह नहिं जाकै, नहिं निद्रा परसेचे, जगतमें० ॥ ३ ॥ नहिं तन रोग न श्रम नहिं चिंता, दोष अठारह भेव । मिटे सहज जाके ता-प्रभुकी, करत 'वनारसि सेव, जगतमें० ॥ ४ ॥
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पुनः राग सारंग वृंदावनी। * विराजै रामायण घटमाहिं । मरमी होय मरम सो जाने, * १ खानुभवरूपी राधारमणसे. १ वमन-छदिः ३ अष्टप्रमाद. १ ४ पसेव-पसीना.
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बनारसीविलासः २४३ । मूरख मानै नाहिं, विराजे रामायण ॥१॥आतम राम ज्ञान
गुन लछमन सीता सुमति समेत । शुभपयोग वानरदल ॐ मंडित, वर विवेक रणखेत, विराजे० ॥ २ ॥ ध्यान धनुप
टंकार शोर सुनि, गई विषयदिति माग । भई भस्म मिथ्यामत लंका उठी धारणा आग, विराजै० ॥ ३ ॥ जरे अज्ञान ।। भाव राक्षसकुल, लरे निकांछित सूर । जूझे रागद्वेष सेनापति संसै गढ चकचूर, विराजे० ॥४॥ विलखत कुंभकरण :
भवविभ्रम, पुलकित मन दरयाव । थकित उदार वीर महि* रावण, सेतुबंध समभाव, विराबै० ॥ ५ ॥ मूर्छित मंदोदरी दुराशां, सजग चरैन हनुमान । घटी चतुर्गति परगति सेना, छुटे छपकगुण वान, विराजे० ॥ ६ ॥ निरखि सकति गुन चक्रमुदर्शन उदय विभीषण दीन । फिरै कबंध मही रावणकी, प्राणभाव शिरहीन, विराजे०
॥ ७ ॥ इह विधि सकल साधुघटअंतर, होय सहज सं*ग्राम, यह विवहारदृष्टि रामायण, केवल निश्चय राम,
विराजै० ॥ ८॥
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भालाप, दोहा। जो दातार दयाल है, देय दीनको भीख । त्यों गुरु कोमल भावसौं, कहै मूढको सीख ॥ १ ॥ १ सूर्पनखा राक्षसी. २ सम्यक्चारित्र,
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२४४ जैनग्रन्थरताकरे
सुगुरु उचारै मूढसौं, चेत चेत चित चेत। समुझ समुझ गुरुको शवद, यह तेरो हित हेत ॥ २॥ शुक्र सारी समुझे शबद, समुझि न भूलहिं रंच। । तू मूरति नारायणी, वे तो खग तिरजंच ॥३॥ होय जोहरी जगतमें, घटकी आखें खोलि। तुला संवार विवेककी, शब्द जवाहिर तोलि ॥ ४॥ शब्द जवाहिर शब्द गुरु, शब्द ब्रह्मको खोज । सब गुण गर्मित शब्दमें, समुझ शब्दकी चोन ॥ ५ ॥ समुझ सकै तो समुझ अब, है दुर्लभ नर देह । फिर यह संगति कव मिल, तू चातक हो मेह ॥ ६ ॥
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राग गौरी। भौंदू भाई ! समुझ शयद यह मेरा, जो तू देखै इन ऑम्बिॐ नसौं तामैं कछू न तेरा, भौंदू० ॥ १॥ ए आँसें प्रमहीसा
उपजी, श्रमहीके रस पागी । जहँ जहँ श्रम तहँ तहँ इनको श्रम, तू इनहीको रागी, भौंदू भाई० ॥२॥ ए आँख दोर रची चामकी, चाम हि चाम विलोवै । ताकी ओट मोह ।। निद्रा जुत, सुपनरूप तू जोवै, भौंदू भाई० ॥ ३ ॥ इन औं ।
खिनको कौन भरोसो, ए विनसें छिन माहीं।है इनको पुदगलसौं । ॐ परचे, तू तो पुगल नाही, भौंदू भाई० ॥ ४ ॥ पराधीन बल इन आंखिनको, विनु परकाश न सूझै । सो परकाश अगनि
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बनारसीविलासः
२१५
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रवि शशिको, तू अपनों कर बूझै, मौदू भाई० ॥ ५ ॥ खुले । पलक ए कछुढ़क देखहिं, मुंदे पलक नहिं सोऊ । कबहू जहि । में होंहि फिर कवई, भ्रामक आँखें दोऊ, भौंदू भाई ० ॥ ६ ॥
जंगमकाय पाय ए प्रगटैं, नहिं श्रावर के साथी । तू तो इन्हें । मान अपने इंग, भयो भीमको हाथी, मौंदू भाई० ॥ ७ ॥ तेरे द्वग मुद्रित घट अंतर, अन्धरूप तू डोले । के तो सहज खुलै वे आंखें, के गुरु संगति खोले, भौंदू भाई! समुझ शबद यह मेरा ॥ ८ ॥
(१९)
राम गौरी। मौंदू भाई ते हिरदै की आखें, जे करपै अपनी सुख । संपति अमकी संपति नारों, मौदू भाई० ॥१॥ जे आंखें । अमृतरस वरखें, परखें केवलिवानी । जिन्ह आँखिन विलोक । 1. परमारत्र, होहिं कृतारथ पानी, मौदू भाई० ॥ २ ॥ जिन आखिनहिं दशा केवलकी, कर्मठेप नहि लागे । जिन आँखिनके प्रगट होत घट, अलख निरंजन जागै, भौंदू भाई० ॥ ३ ॥ जिन आँखिनौ निरखि भेद गुन; ज्ञानी ज्ञान विचारै । जिन आँखिनसौं लखिस्वरूप मुनि, ध्यानधारणा घारै, मौदू माई०
॥ जिन आँखिनके जगे जगतके, लगे काज सब झ2।। जिनसौं गमन होइ शिवसनमुख, विषय विकार अपूढे, मौंदू से भाई० ।। ५ ।। जिन आंखिनमें प्रमा परमकी, परसहाय नहिं ।
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१२४६ जैनग्रन्थरत्नाकरे
लेखै । जे समाधिसौं लखै अखंडित, ढके न पलक निमखे, । ॐ भौंदू भाई ० ॥६॥ जिन आंखिनकी ज्योति प्रगटके, इन आखिनमें भासै । तब इनहूकी मिटै विपमता, समता रस पर गासै, भौंदू माई० ॥ ७॥ जे आंखें पूरनस्वरूप धरि, लोका
लोक लखावै । ए वे यह वह सब विकलप तजि, निरविकल्प है। - पदपावै, भौंदू भाई ० ॥ ८॥
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राग काफी। तू भ्रम भूल ना रे प्रानी, तू० टेक । धर्म विसारि विषयमुख सेवत, वे मति हीन अज्ञानी, तू भ्रम० ॥ १॥ तन धन सुत । जन जीवन जोबन, डाम अनी ज्यों पानी, तू भ्रम० ॥२॥ देख दगा परतच्छ 'वनारसि' ना कर होड़ विरानी, तू म० ॥३॥
(२१)
पुनः राग काफी। चिन्तामन स्वामी सांचा साहिब मेरा, शोक हरै तिहुं लोकको, उठ लीजतु नाम सवेरा, चिन्तामन० ॥ १ ॥ सूरसमान है उदोत है, जग तेज प्रताप घनेरा। देखत मूरत भावसौं, मिट जात मिथ्यात अंधेरा, चिन्तामन स्वामी० ॥ २ ॥ दीनदयाल निसेवारिये,दुख संकट जोनि बसेरा । मोहि अभयपद दीजिये, फिर होय नहीं भवफेरा, चिन्तामन० ॥ ३॥ विंव विराजत आगरे,
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वनारसीविलासः २४७ थिर थान थयो शुमवेरा । ध्यान धरै विनती करै, वानारसि बंदा तेरा, चिन्तामन० ॥ ४ ॥
इति अध्यातमपदपक्ति।
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अथ परमारथहिंडोलना लिख्यते। सहज हिंडना हरख हिडोलना, झुलत चेतनराव । जहाँ धर्म कर्म सँजोग उपजत, रस स्वभाव विभाव ॥ टेक ॥ * जहँ सुमनरूप अनूप मंदिर, सुरुचि भूमि सुरंग।। तहँ ज्ञान दर्शन खंम अविचल, चरन आड अमंग ॥ मरुवा सुगुन परजाय विचरन, मौर विमल विवेक । * व्यवहार निश्चय नय सुदंडी,सुमति पटली एक । सहज० ॥१॥ षट कील जहां पडद्रव्य निर्णय, अभय अंग अडोल । उद्यम उदय मिलि देहिं झोटा, शुभ अशुभ कल्लोल ॥ संवेग संवर निकट सेवक, विरत वीरे देत । आनंदकंद सुछंद साहिब, सुख समाधि समेत, सहजाहिँ ॥ २॥ जहँ खिपक उपशम चमर ढारइ, धर्म ध्यान वजीर । आगम अध्यातम अंगरक्षक, शान्तरस वरवीर ॥ गुनथान विधि दश चार विद्या, शकतिनिधिविस्तार ।। संतोष मित्र खवास धीरज, सुजस खिजमतगार, सहज ॥ ३ ॥ धारना समिता क्षमा करुणा, चारसखि चहुँ ओर । निर्जरा दोऊ चतुरदासी, करहिं खिजमत जोर ॥
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जहँ विनय मिलि सातो सुहागनि, करत धुनि झनकार । ॐ गुरुवचनराग सिद्धान्तधुरपद, ताल अरथ विचार, सहज०||४|| ॐ श्रदहन सांची मेघमाला, दाम गर्जत घोर ।। * उपदेश वर्षा अति मनोहर, भविक चातक मोर ॥ ॐ अनुभूति दामनि दमक दीसै, शील शीत समीर ।। * तप भेद तपत उछेद परगट, भावरंगत चीर, सहज० ॥५॥ कबहूं असंख प्रदेश पूरन, करत वस्तु समाल । कवहूं विचारै कर्म प्रकृती, एकसौ अड़ताल ॥
कवहूं अबंध अदीन अशरन, लखत आपहि आप। * कवहूं निरंजन नाथ मानत, करत सुमरन जाप, सहज०॥६॥
कबहूं गुनी गुन एक जानत, नियत नय निरधार । कवहूं सुकरता करम किरिया, कहत विधि व्यवहार ।। कबहू अनादि अनंत चिंतित, कबहुं करहि उपाधि । कबहूं सु आतम गुणसँभारत, कबहुं सिद्ध समाधि, सहज० ॥७॥ इहिभांति सहज हिंडोल झूलत, करत आतम काज । भवतरनतारन दुखनिवारन, सकल मुनिसिरताज ॥
जो नर विचच्छन सदयलच्छन, करत ज्ञानविलास। भुकरजोर भगति विशेष विधिसौं, नमत काशीदास ॥ ८ ॥
इति परमाथहिंडोलना।
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वनारसीविलासः
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अथ मलार तथा सोरठ राग। देखो माई ! महाविकल संसारी, दुखित अनादि मोहक कारन, राग द्वेप भ्रम मारी, देखो भाई महाविकल संसारी ॥१॥ हिंसारंभ करत सुख समुझै, मृपा वोलि चतुराई । परधन हरत । असमर्थ कहावे, परिग्रह बढत बडाई, देखो माई० ॥ २ ॥ वचन । राख काया दृढ राखें, मिटै न मनचपलाई । यात होत औरकी और, शुभ करनी दुखदाई, देखो भाई० ॥ ३ ॥ जोगासन करि कर्म निरोध, आतम दृष्टि न जाग । कथनी कथत महंत कहावै, ममता मूल न त्यागै, देखो भाई० ॥ ४ ॥आगम वेद सिद्धान्त पाठ सुनि, हिये आठमद आने । जाति लाभ कुल वल तप विद्या, प्रमुता रूप बखान, देखो भाई० ॥ ५ ॥ जडसौं राचि परमपद साथै, आतमशक्ति न सूझै । विना विवेक विचार दरवके, गुण परजाय न झै, देखो० ॥ ६ ॥ जसवाले जस सुनि संतो, तप वाले तन सोएँ । गुनवाले । परगुनको दोपैं, मतवाले मत पोपैं, देखो० ॥ ७ ॥ गुरु ॐ उपदेश सहज उदयागति, मोहविकलता छूटै । कहत वनारसि है करुनारसि, अलख अखय निधि लटै, देखो० ॥८॥
इत्यष्टपदी मल्हार सम्पूर्ण।
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१ सुखदाई ऐसा भी पाठ है ar
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* २५० जैनग्रन्थरताकरे तीननये पद जो हमने संग्रह किये हैं.
नयापद १ ला मूलन, वेटा जायोरे साधो, भूलन० जाने खोजकुटुंब सब खायो रे साघो० मूलन० ॥ टेक ॥ जन्मत माता ममता खाई, मोहलोभ दोइ भाई । कामक्रोध दोइ काका खाये, खाई तृषनादाई, साधो० ॥ १ ॥ पापीपापपरोसी खायो, अशुभकरम दोइ मामा । मान नगरको राजा खायो, फैल परोसनगामा, साधो० ॥ २ ॥ दुरमति दादी ""दादो, मुखदेखत ही मूओ । मंगलाचार वधाये वाजे, जब यो बालक हूओ, साधो० ॥ ३॥ नाम धरचो बालकको सूत्रो, रूप वरन कछु नाहीं । नामघरते पांडे खाये, कहत वनारसि । भाई, साघो० ॥१॥
नयापद २रा
राग जंगला. वा दिनको कर सोचजिय! मनमें | वा दि० टेक।। वनज किया व्यापारी तूने, टांडा लादा भारीरे । ओछी पूंजी
जुआ खेला, आखिर वाजी हारीरे। आखिर बाजी हारी, करले हुचलनेकी तय्यारी । इकदिन डेरा होयगा वनमें, वादिन० ॥१॥
झूठे नैना उलफत वांधी, किसका सोना किसकी चांदी। इकदिन । हे यवन चलेगी आंधी, किसकी वीवी किसकी बांदी, नाहक चित्त लगावै घनमें, वादिनः ॥ २ ॥ मिट्टीसेती मिट्टी मिलियौ,
इस रागके पदक्रमोंको हम समझ नहीं सके। लल्लललललललल
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वनारसीविलासः २५१ ॥ पानीसे पानी । मूरखसेती मूरख मिलियौ,, ज्ञानीसे ज्ञानी ।।
यह मिट्टी है तेरे तनमें, वादिन० ॥ ३ ॥ कहत वनारसि। ॐ सुनि मवि प्राणी, यह पद है निरवानारे । जीवन मरन किया है. सो नाहीं, सिरपर काला निशाना रे । सूझ पडेगी बुढापेपनमें, . वादिन० ॥ ४॥
नयापद ३रा कित गये पंच किसान हमारे । कित० ॥ टेक ॥ बोयो बीज खेत गयो निरफल, भर गये खाद पनारे । कपटी
लोगोंसे सांझाकर, ...हुए आप विचारे ॥ १॥ आप दिवाना है जगह गह बैठो लिखलिख कागद डारे । वाकी निकसी पकरे 1 मुकद्दम, पांचो होगये न्यारे ॥ २ ॥ रुकगयो कंठ शबद नहिं । निकसत, हा हा कर्मसों हारे । वानारसि या नगर न बसिये, चलगये सींचनहारे ॥३॥
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वनारसीविलासके संग्रहकर्ता. नगर आगरेमैं अगरवाल आगरो जो, • गर्ग गोत आगरेमैं नागर नवलसा । संघवी प्रसिद्ध अमैराज राजमान नीके, ___ पंच बाला नलनिमैं भयो है कँवलसा ।। ताके परसिद्ध लघु मोहनदे संघइन । जाके जिनमारग विराजत धवलसा ।
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14.
KAALANA
THDRANI
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
MAHARA...
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ताहीको सपूत जगजीवन सुदिढ जैन,
वानारसी वैन जाके हियेमें सवलसा ॥ १ ॥ समै जोग पाइ जगजीवन विख्यात भयो, __ज्ञानिनकी मंडलीम जिसको विकास है। तिनने विचार कीना नाटक बनारसीका, ___ आपके निहारिवैको आरसी प्रकाश है ॥ और काव्य धनी खरी करी है बनारसीने,
सो भी क्रमसे एकत्र किये ज्ञान भास है। ऐसी जानि एक ठौर, कीनी सब भाषा जोर ___ताको नाम धरयो वो बनारसीविलास है ॥२॥
दोहा। सत्रहसै एकोत्तरै, समय चैत्र सित पाख। द्वितियामें पूरन भई, यह वनारसी भाख ॥३॥ इति श्रीकविवर बनारसीदासकृत बनारसी
विलास समाप्त
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