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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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राग उदै जग बंध भयो, सहजै सब लोगन लाज गमाई। सीखविना सब सीखत हैं, विपयानके सेवनकी सुबराई ॥ तापर और रचे रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई। अंध असूझनकी अँखियानमें, मेलत है रज राम दुहाई !
(भूवरशतक) ___ मच है ! जिन महात्माओंके ऐसे विचार थे, उन्हें आप्यात्मिक रचनाके अतिरिक्त केवल शृंगारकी रचना कुछ विशेष शोभा नहीं देती। परमादृष्टिसे शांतरसकी समता श्रृंगाररस नहीं कर सक्ता । क्योंकि शांतरसकी ऊर्च गति है, भंगारकी अधो! परन्तु ऐसा कहनेसे यह नहीं समझना चाहिये कि, इनकी कविता नवरस-रहित और काव्यके किसी अंगसे हीन होगी, नहीं! एक आध्यात्ममें ही नयरसंघटित करके इन्होंने अपने अन्धोंको नयरलयुक्त बनाये हैं । कविवर बनारसीदासजीने अपनी आत्मामें ही न रस घटित किये हैं ! देखिये
गुणविचार शृंगार, वीर उद्दिम उदार रुख । करुणा सम रसरीति, हास हिरदै उछाह सुख ॥ अष्टकरम दलमलन, रुद्र वरतै तिहि थानक । तन विलेच्छ वीभत्स, द्वन्द दुख्दशा भयानक अद्भुत अनंतवल चिंतदन, शांत सहज वैराग ध्रुव ।
नवरस विलास परकाश तब, जब मुबोध बटप्रगट हुवा परवल आमाका यह नवरसयुक्त अपूर्व चितवन विद्वानोंको अभूतपूर्व आनन्दमय कर देता है । पाटकगग इसे एकवार अवश्य ही पाठ करें।
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