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१०४ कविवरवनारसीदासः । बहुत संतोप हुआ, और पीछे बहुत दिनों तक दोनों सजनोंकी
भेट समय २ पर होती रही। ३ भक्तिविरदावलीकी कविता सुन्दर है, उसकी रचना अनेक
छन्दोंमें है। वो भी रामायणकी कविताका ढंग उसमें नहीं है, इस लिये उक्त किंवदन्तीपर एकाएक विश्वास नहीं हो सकता। ) पाठकोंके जाननेके लिये उसके अन्तिम दो छन्द यहां उद्धृत किये जाते हैं
गीतिका। पदजलज श्री भगवानजूके, वसत है उर माहि । चहुँगतिविहंडन तरनतारन, देख विधन विलाहिं ॥ थकि धरनिपति नहिं पार पावत, नर सु वपुरा कौन ? तिहि लसत करुणाजन-पयोधर, भजहिं भविजन तौन ॥ दुति उदित त्रिभुवन मध्य भूपन, जलधि ज्ञान गभीर। जिहि भाल ऊपर छत्र सोहत, दहन दोष अधीर ।।। जिहि नाथ पारस जुगल पंकज, चित्त चरनन जास। रिधि सिद्धि कमला अजरराजित, भजत तुलसीदास ॥
उक्त विरदावलीमें 'तुलसीदास' इस नामके अतिरिक्त जो कि पांच छह स्थानोंमें आया है, और कोई बात ऐसी नहीं है, जिससे यह निश्चय हो सके कि, यह 'तुलसी' गुसाईंजी ही थे, अथवा कोई अन्य । परन्तु गुसांईजी का होना सर्वथा असंभव भी नहीं कहा जा सकता । क्योंकि उस समयके विद्वानोंमें आजकळकी नाई धर्मद्वेष नहीं था। वे वहे सरलहृदयके भक्त थे।।
७ कविवरका देहोत्सगैकाल अविदित है, यह ऊपर कहा
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