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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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जा चुका है, परन्तु मृत्युकालकी एक किंवदन्ती प्रसिद्ध है। कहते है है कि, अन्तकालमें कविवरका कंठ अवरुद्ध हो गया था, रोगके संक्रमणके कारण वे बोल नहीं सक्त थे। और इसलिये अपने अन्त । समयका निश्चयकर ध्यानावस्थित हो रहे थे। लोगोंको विश्वास है
हो गया था कि, ये अब घंटे दो घंटेसे अधिक जीवित नहीं है ते रहेंगे, परन्तु कविवरको ध्यानावस्था जब घंटे दो घंटे पूर्ण
नहीं हुई, तब लोग तरह २ के ख्याल करने लगे । मूर्खलोग कहने लगे कि, इनके प्राण माया और कुटुम्बियोंमें अटक रहे हैं, ॐ जब तक कुटुम्बीजन इनके सम्मुख न होंगे और दौलतको । गठरी इनके समक्ष न होगी, तब तक प्राणविसर्जन न होंगे। इस प्रस्तावमें सबने अनुमति प्रकाश की, किसीने भी विरोध नहीं किया । (मूर्खमंडलको नमस्कार है!) परन्तु लोगोंके इस तरह मूर्खता-पूर्ण विचारोंको कविवर सहन नहीं कर सके । उन्होंने इस लोकमूढ़ताका निवारण करना चाहा, इसलिये एक पट्टिका ॐ और लेखनीके लाने के लिये निकटस्थ लोगोंको इशारा किया।
बड़ी कठिनताके साथ लोगोंने उनके इस संकेतको समझा । जब लेखनी पट्टिका आ गई, तब उन्होंने निम्नलिखित दो छन्द गढकर लिख दिये । इन्हें पढकर लोग अपनी भूलको समझ गये, और * कविवरको कोई परम विद्वान् और धर्मात्मा समझकर वैयावृत्यमें । लवलीन हुए। , शान कुतका हाथ, मारि अरि मोहना।
प्रगट्यो रूप स्वरूप, अनंत सु सोहना ॥ जा परजैको अंतं, सत्यकर मानना। चले बनारसिदास, फेर नहि भावना ॥ .
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