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20 जैनग्रन्थरत्नाकरे
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बानारसीदास वामें आकृति अनेक उठे,
यहां कुलकोड योनि जाति दोष लावना । बह्यो जात जल तामें येते कविभाव उठे, __ आतमा बहिर तामें कहाँते स्वभावना ॥ २८ ॥ निजकाज सवहीको अध्यातम शैली मांझ,
मूढ क्यों न खोज देखै खोज औरवानमें । सदा यह लोकरीति सुनी है वनारसीजू,
वचनप्रशाद नैकु ज्ञानीनके कानमें || चेरी जैसें मलिमलि धोवत बिराने पांव, __ परमनरंजिवेको सांझ ओ विहानमें । निजपांव क्यो न धोवै? कोई सखी ऐसो कहै,
मो सी कोऊ आलसन और न जहानमें ॥ २९॥ टेककरि मूरखबिराने घर टिक रह्यो,
जानै मेरे यही घर मैं भी याही घरको। घर परमारथ न जानै तातें भ्रमधेरो,
ठौर विना और और अधर पधरको ॥ पंचको भखायो कहै परपंच बंचद्रोह,
संग्रह समूह कियो सो तो पिंड परको। बानारसीदास ज्ञातावृन्दमें विचार देख्यो,
परावर्तपूरणी जनम ऐसे नरको ॥ ३० ॥
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