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वनारसीविलासः
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टांव मृगमद मृग नामि पुदगलगुन,
विसतरचो पौनत विशेष ढूंढ वनमें । साहिवके कान मूढ अटत अनेक ठौर,
तनको जो भिन्न माने तो तो तेरे तनमें ॥ कंठमाहिं मणि कोऊ मूरख विसरि गयो,
सो तो उपखानों सांचो भयो दीन जनमें। वानारसीदास जिहँ कालको जगत फिर,
सो तो काज सरै तेरे एक ही वचनमें ॥ ३१ ॥ झुल्यो त निगोड़ कोऊ काल पाय डाँकि आयो,
प्रत्येक शरीर पंच थावरमें तें धरयो। मुनि विकलिंदी इंदी पंच परकार चार,
नरक तिर्यच देव, पुनि पुनि संचरयो । वानारसीदास अब नरमव कर्म मूमि,
गठिमेद कीन्हों मोक्षमारगमें पै घरयो। चेतरे चतुर नर अज हूं तू क्यों न चैतै ? ___ इस अवतार आयो एते घाट उतरयो ॥ ३२ ॥ हुँदै लौण सागरमें नेक ह न दील कर,
क्षारजल वसै वाके क्षारजल पै नहीं। सीतवदासीताहरिकान्तारक्ताश्रोतस्वाद,
स्वादी होय सोई स्वाद कोई काहू दै नहीं ॥
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