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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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सुभरि विभावसिंधु समता स्वभावश्रोत,
वानारसी लाभै ताको प्रमणको मै नहीं। संगी मच्छ सारिखो स्वभावज्ञाता गहि राख्यो,
राख्यो सोई जानै भैया कहवेको है नहीं ॥३३॥ नैननः अगम अगम याही वैननते, .
उलट पलट वहै कालकूट कहरी । मूल विन पाये मूढ कैसें जोग साधि आवै,
सहज समाधिकी अगम गति गहरी ॥ अध्यातम सुन्यो तो पै सरधान है न आवै, .
तौ तौ भैया तैं तो बडी राजनीति चहरी । बानारसीदास ज्ञाता जापै सधै सोई जाने,
उदधि उधानतें अधिक मनलहरी ॥ ३४ ॥ तत्त्व निजकाज कह्यो सत्व परगुण गयो, __ मनकी लहर मानों डसें नाग कारेसे । छिनकमें तपी छिन जपी हैके जापजप,
छिनकमें भोगी छिन जोग परजारेसे ॥ वानारसीदास एतो पूर्वकृत बंध ताके,
औदयिक भाव तेई आपो कर धारेसे। जब लग मत्त तौलों तत्त्वकी पहुंच नाही,
तत्त्व पायें मूढमती लागें मतवारेसे ॥ ३५॥
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