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५४ कविवरवनारसीदासः । म खतंत्रताके कारण वह विजयलाम नहीं कर सकी थी। अब खतं
त्रता गृहजंजालको देखके रफूचक्कर हो गई थी, वेचारी कुसंगतिको सदा साथ रहनेका अवकाश नहीं था। अतएव विद्यादेवी अपना काम कर गई । उसनें कोमल हृदयमें कोमल शान्तिरसका बीज बो दिया। कविवर वनारसीदासजीके पास अब केवल शृंगारसका गुजारा नहीं रहा।
एक दिन संध्याके समय गोमती नदीके पुलपर वनारसीदास अपनी मित्रमंडलीके साथ समीरसेवन कर रहे थे, और सरिताकी तरल-तरंगोको चित्तवृत्तिकी उपमा देते हुए कुछ सोच रहे थे। बगलमें एक सुन्दर पोथी दुव रही थी। मित्रगण भी इस समय
चुपचाप नदीकी शोभा देख रहे थे । कविवर आप ही आप * बडबडाने लगे "लोगोंसे सुना है कि, जो कोई एक बार मी न
बोलता है, वह नरकनिगोदके नाना दुःखाका पात्र होता है। परन्तु न जाने मेरी क्या दशा होगी, जिसने झूठका एक पुंज बनाके पखा है। मैंने इस पोथीमें त्रियोंके कपोलकल्पित नखशिख हायमाय । विभ्रमविलासोंकी रचना की है । हाय! मैंने यह अच्छा नहीं कियामैं तो पापका भागी हो ही चुका, अब परंपरा लोग भी इसे पढकर पापके भागी होंगे। इस उच्चविचारने कविवरके हृदयको डगमगा। दिया । वे आगे और विचार नहीं कर सके, और न किसीकी सम्मतिकी प्रतीक्षा कर सके । तत्क्षण गोमतीके उस अथाह और भीषणवेगयुक्तप्रवाहमें उस रसिकजनोंकी जीवनरूपा स्वकृत नव्यनिर्मित पोथीको डालकर निश्चित हो गये । पोथीके पन्ने अलग २ होकर वहने लगे, और मित्र हाय २ करने लगे, परन्तु फिर क्या होता था? गोमतीकी गोदमेसे पोथी छीन लेनेका किसीने साहस नहीं
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