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spectstakakakakikattteketstaketakikattattattatatatatee ११४६ जैनग्रन्थरलाकरे
उपशम क्षपक श्रेणि आरोहै। पृथक्त वितर्क आदि पद सो हैं। उपशम पंथ चदै नहिं कोई ।क्षपकपंथ निर्मल मन होई॥२८॥ तब मुनि लोकालोकविकासी । रहहिं कर्मकी प्रकृति पचासी ॥ केवल ज्ञान लहै जग पूजा । एक वितर्क नाम पद दूजा ॥२९॥ जिनवर आयु निकट जब आवै। तहां वहत्तर प्रकृति खपावै ॥ सूक्षम चित्त मनोवल छीजा । सूक्ष्म क्रिया नाम पद तीजा३० शक्ति अनंत तहां परकाशै । ततस्मिन तेरह प्रकृति विनाशै ॥ पंच लघूक्षर परमित बेरा।अष्ट कर्मको होय निवेरा ॥ ३१ ॥ चरण चतुर्थ साध शिव पावै । विपरीत क्रिया निवृत्ति कहावै॥ शुक्ल ध्यानके चारों पाये । मुक्तिपंथकारण समुझाये ॥ ३२ ॥
शुक्ल ध्यान औषधि लगे, मिटै करमको रोग। ___ कोइला छोड़े कालिमा, होत अमिसंजोग ॥ ३३ ॥
यह परमारथ पंथ गुन, अगम अनन्त बखान ।। कहत वनारसि अल्पमति, जथासकति परवान ॥ ३४ ॥
इति ध्यानवत्तीसी.
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___अथ अध्यातमवत्तीसी लिख्यते. शुद्ध वचन सदगुरु कहै, केवल भापित अंग।
लोक पुरुषपरिमाण सब, चौदह रज्जु उतंग ॥१॥ __* यह दोहा "ख,, 'ग, प्रतिमें नहीं है.
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