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बनारसीक्लिासः १९५६
चौपाई। ज्ञानी ज्ञान भेद परकाशै । ध्यानी होय मो ध्यान अभ्यास आर्त रौद्र कुध्यानहिं त्यागे । धर्मशुफलक मारग लागे ॥१०॥ आरत ध्यान चितवन महिये । जाझी संगति दुरगतिलहिये ।। इष्टविजोग विकलता मारी । अरि अनिष्ट संजोग दुलारी ॥२०॥ तनकी व्यथा मगन मन झरे । अग्र शोचकर वांउनि घर ॥ ए आरतके चारों पाये । महा मोहरसों लपटाये ॥ २१॥ अब सुन रौद्र ध्यानकी सैली । जहां पारसी मतिगति मैली ॥ मनउछाहसों जीव विराधे । हिये हर्षधर चोरी साधे ॥ २२॥ विकसित झूटवचन मुखभाव । आनंदितचितविषया रासे ॥ चारों रौद्र ध्यानके पाये । कर्मबन्ध के हेतु बनाये ॥ २३ ॥
दोहा। आरतरौद्र विचारतें, दुखचिन्ता अधिकाय ।। * जैसे चढ़े तरंगिनी, महामेघ जलपाय ॥ २४ ॥
चौपाई। आर्त रौद्र कुध्यान बम्बाने । धर्मध्यान अब सुनहु सयाने ॥ केवल भापित वाणी मान । कर्मनाशको उद्यम ठाने ।। २७॥
पूरचकर्म उदय पहिचाने । पुरुषाफार लोकथिति जान ॥ * चारों धर्म ध्यानके पाये । जे समुझे ते मारग माये ॥ २६॥
अब लुन शुफ ध्यानकी बात । मिटै मोहको मत्ता जाम।। जोग साध सिद्धांत विचारे । आनम गुग परगुप निरपरि २७
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