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१४४ जैनग्रन्थरत्नाकरे
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मनवचकाय कष्ट जब सहिये । तासों विवहारी तप कहिये । मनवचकाय लगनि ठहरावै । सो विवहारी भाव कहावै॥१०॥
दोहा। दान शील तप भावना, चारों सुख दातार । 1 निहचै सो निहचै मिले, विवहारी विवहार ॥ ११ ॥
चौपाई। अब सुन चार ध्यान हितकारी । साधहि मुक्तिपंथ व्यापारी ॥ ३ मुद्रा मूरति छवि चतुराई । कलाभेष बलवेस बढाई ॥ १२॥
फरस बरण रस गंध सुभाखा । इह रूपस्थध्यानकी शाखा ॥ - इनकी संगति मनसा साधै । लगन सीख निज गुण आराधै१३ ॥
रहै मगन सो मूढ कहावै । अलख लखाव विचच्छण पावै ॥ * अर्हत आदि पंच पदलीजे । तिनके गुणको सुमरण कीजे १४ ३ गुणको खोज करत गुण लहिये। परमपदस्थध्यान सो कहिये
चंचलता तज चित्त निरोधे । ज्ञानदृष्टि घटअन्तर शोधै ॥१५॥ मिन्न भिन्न जड़ चेतन जोवै । गुण विलेच्छ गुणमाहिं समोवै।।।
यह पिंडस्थध्यान सुखदाई । कर्मनिरजरा हेत उपाई ॥ १६ ॥ * आप संभार आपसों जोरै । परगुणसों सव नाता तोरै ॥ लगै समाधि ब्रह्ममय होई । रूपातीत कहावै सोई ॥ १७ ॥
दोहा। यह रूपस्थपदस्थविधि, अरु पिंडस्थविचार । ३ रूपातीत वितीत मल, ध्यान चार परकार ॥ १८ ॥
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