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बनारसीविलासः १४३ अथ ध्यानवत्तीसी लिख्यते.
दोहा। ज्ञान स्वरूप अनन्त गुण, निराबाध निरुपाधि ।
अविनाशी आनन्दमय, बन्दहुं ब्रामसमाधि ॥ १ ॥ __ मानु उदय दिनके समय, चन्द्र उदय निशि होत! दोऊं जाके नाम मैं, सो गुरु सदा उदोत ॥ २ ॥
चौपाई । (सोळा माना) चेतहु पाणी सुन गुरुवाणी । अमृतरूप सिद्धांत बखानी। में परगट दोऊ नय समुझावें । मरमी होय मम सो पावें ॥ ३ ॥
चेतन बड अनादि संजोगी । आपहि करता आपहि भोगी। सहज समाव शकति जब जागे । तब निहके मारग लागे । फिरके देहबुद्धि जब होई । नयव्यवहार कहाँ सोई। भेदभाव गुन पंडित वृझै । जाको अगम अगोचर मुझे ॥ ५॥ प्रथमहिं दान शील तर भावै । नय निरचे विवहार लसावे । परगुणत्यागवृद्धि, जब होई । निहचे दान ग्रहाचे सोई॥६॥ चेतन निज स्वभावमहं आवै । तर सो निश्चयगीन बन्दथे । कर्मनिर्जरा होय विशेष । निश्चय लप कहिये इह लेप ॥७॥ विमलरूप चेतन अभ्यास । निश्चयमाव तहां परगा। से अब सदगुरु व्यवहार बनाने । जाफी महिमा सय जगजान ८ मनवचकाय अकति कह दीजे । सो व्यवहारी दान की।
मनदचकाय तजे जब नारी । कहिये सोपील विवहागा SEPTETNEETIRITTETAH
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