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जैनग्रन्थरत्नाकरे ।
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राग बिलावल। इहि विधि देव अदेवकी, मुद्रा लखलीजे, * गुन लच्छन पहिचानकै, पद पूजा कीजै ।। टेक॥ ॐ पट भूपन पहरे रहै, प्रतिमा जो कोई ।
सो गृहस्थ मायामयी, मुनिराज न होई ॥२॥ जाके तिय संगति नहीं, नहिं वसन न भूषन । सो छवि है सर्वज्ञकी, निर्मल निरदूपन ॥ ३ ॥ वाम अंग जाके त्रिया, अथवा अरधंगी। . सो तो प्रगट कुदेव है, विषयी रसरंगी ॥१॥ निरद्वंदी निरपरिगृही, जोगासन ध्यानी ।
सो है मूरति सिद्धकी, के फेवलज्ञानी ॥ ५ ॥ __ जो प्रचंड आयुध लिये, कर ऊरध वाह ।
प्रगट विनोदी देवता, मारैगा काहू ॥ ६॥ जो न कछू करनी करै, नहिं आयुध पानी । सो प्रतिमा भगवंतकी, निरवैर निशानी ॥ ७ ॥ जो पशुरूपी पशुमुखी, पशुवाहनधारी । ते सब असुर अबंदनी, निरदय संसारी ॥ ८॥
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: राग विसावल । ऐसे क्यों प्रभु पाइये, सुन मूरख पानी। '
जैसें निरख मरीचिका, मृग मानत पानी । ऐसें ॥ १॥