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बनारसीविलासः ११३ जे जे पुगलकी दशा, ते निज माने हस । याही भरम विभावसों, बढे फरमको वंश ॥ १८॥ ज्यों ज्यों कर्म विपाकवश, ठाने श्रमकी मौन । त्यो त्यों निज संपति दुरै, जुरे परिग्रह फौज ॥ १५ ॥ ज्यों वानर मदिरा पिये, विच्छू इंकित गात । भूत लगै कौतुक करे, त्यों श्रमको उत्पात ॥ २० ॥ अम संशयको भूलसों, लहै न सहन स्वकीय।। करम रोग समुझ नहीं, यह संसारी जीय ॥ २१ ॥ कर्म रोगके द्वै चरण, विषम दुईकी चाल । एक कंप प्रकृती लिये, एक ऐठि असरात ॥ २२ ॥ कंपरोग है पाप पट, अफर रोग है पुण्य । ज्ञान रूप है आतमा, दुई रोगों शून्य ।। २३ ॥ मूरख मिथ्यावृष्टिसों, निरखै जगकी रोस । डरहिं जीव सब पापसों, करहिं पुण्यकी होंस ॥ २४ ॥ उपने पापविकारसों, भय तापादिक रोग। चिन्ता खेद विया वदै, दुखमाने सबलोग ॥ २५ ॥ उपजै पुण्यविकारसों, विषयरोग विस्तार । भारत रुद्र विधा बहै, मुख मानै संसार ॥ २६ ॥ दोऊ रोग समान है, मूढ न जाने रीति । कंपरोगों भय फरे, अकररोगों प्रीति ॥ २७॥