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१११० जैनग्रन्थरताकरे * अब पुगलके वीसगुण, कहों प्रगट समुझाय। ..
गर्मित और अनन्तगुण, अरु अनन्त परजाय ॥ ८ ॥ श्याम पीत उज्ज्वल अरुण, हरित मिश्र बहु भांति ।
विविधवर्ण जो देखिये, सो पुद्गलकी कांति ॥९॥ __ आमल तिक्त कयाय कटु, क्षार मधुर रसभोग।
ए पुद्गलके पांचगुण, घट मानहिं सबलोग ॥ १० ॥ तातो सीरो चीकनो, रुखो नरम कठोर । हलको अरु भारीसहज, आठ फरस गुणजोर ।। ११ ।। जो सुगंध दुर्गधगुण, सो पुद्गलको रूप। अब पुद्गल परजायकी, महिमा कहों अनूप ॥ १२ ॥ शब्द, गंध, सूक्षम, सरल, लम्ब, वक्र, लघु थूल । विठुरन, मिदन, उदोत, तम, इनको पुद्गल मूल ॥ १३ ॥ छाया, आकृति, तेज, दुति, इत्यादिक बहु भेद । . ए पुद्गलपरजाय सब, प्रगटहिं होय उछेद ॥ १४ ॥ केई शुम केई अशुभ, रुचिर, भयानक भेष। . सहज खमाव विभाव गति, अरु सामान्य विशेष ॥ १५॥ गर्मित पुद्गलपिंडमें, अलख अमूरति देव । फिरै सहज भवचक्रमें, यह अनादिकी देव ॥ १६ ॥ पुद्गलकी संगति करै, पुद्गलहीसों प्रीति । पुगलको आपा गणै, यहै भरमकी रीति ॥ १७ ॥
MARATPATRA
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