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१३६ जैनग्रन्थरत्नाकरे
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है धनवासी तँ तजा, घरवार महल्ला। अप्पापर न पिछाणियां, सब झूठी गल्ला ॥ ८ ॥ माया मिथ्या अग्रसोच, ये तीनों सल्ला । तिहुं वादी करतूतसों, जियदा उरझल्ला ॥ ज्यों रुधिरादी पुट्टसों, पट दीसै लल्ला । रुधिरानलहि पखालिये, नहिं होय उजल्ला ॥९॥ जब लग तेरी समझमें, होंदी हल चल्ला । सुजश बढ़ाई लामनो, करदा छल बल्ला ॥ तबलग तू स्याणा नहीं, क्या मारइ कल्ला। सोर करंदा पालणे, ज्यों झूलै लल्ला ॥ १० ॥ किण तूं जकरा सांकला, किण पकरा पल्ला । मिदमकरा जौं उरशिया, उर जाल उगल्ला ॥ चेतन जड़ संजोगमैं, त टांका झल्ला। तुही छुड़ावहि आपको, लख रूप इकल्ला ॥ ११ ॥ जो तै दारिद मानिया, है ठल्लमठल्ला । जो तू मानहि संपदा, भरि दामहू गल्ला ॥ जो तू हुवा करंकसा, अरु मोगर मल्ला । सो सब नाना रूप है, नाचै पुद्गल्ला ॥ १२ ॥ जो कुरूप दुरलच्छणा, जो रूप रसल्ला । वै संघा भरि जोवना, बूढा अरु वल्ला ॥