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बनारसीविलासः १३. खनै जिन्हादी भूमिनी, कुज्ञान कुदाला । सहज तिन्हादा वहजसों, चित रहे दुदासा ॥ ३ ॥ जिन्हा इक करमदा, दुविधा पद भला । इक्क अनिष्ट असोहणा, इक झाक समझा । तिन्हां इक्क न सूझई, उपदेश अहल्ला । चंककटाछे लोपना, ज्यों चंद गहरा ॥ ४ ॥ जिन्हां चित इतबारसो, गुरुवचन न अल्ला । जिन्हां आगे कथन यो, ज्यों कोदो दरमा ।। बरसे पाहन भुम्मिम, नहिं होय चहा। बोये बीज न ऊप्पड़, जल जाय वहता ॥ ५ ॥ चेतन इस संसारमें, तू सदा इकल्ला । आप रूप पिशाच, है ते अप्पा छल्ला ॥ आपै घुम्यां गिरि पया, किणिदिवा टल्ला । जिन्हसों मिलन विजोग है, तिनसों क्या ताला ॥६॥ इस दुनियादी मोजसों, तू गरबगहल्ला । मया भार सम पुरुष, ज्यों छप्पर विच ब्रह्मा । मुपनैदा सुख मान लें, अपना घर बल्ला । फिरा भरमकी भौरम, तू सहज दिला ॥ ७॥
जोग अडंपर तैं फिया, कर अंबर मद्रा। ___ अंग विभूति लगायके, लीनी मृग छल्ला ॥