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बनारसीविलासः
लंब मझोला ठींगना, गोरा अरु कसा । सो सव नानारूप है, निह पुल्ला ॥ १३ ॥ जो जीरण है झरपड़े, जो होय नवल्ला । जो मुरझावै मुक्कक, फुल्टा अरु फल्ला । जो पानीमें वह चलें, पावनमें बड़ा । सो सव नानारूप हैं, निह पुरला ॥ ११ ॥ एक कर्म दीसै दुधा, ज्यों तुलदा पल्ला । हरुबै तन गुरुवैतसों, अब ऊरय थल्ला ॥ अशुभरूप शुभरूप है, दुहु दिशिनो चल्ला ।। धेरै दुविधि विस्तार जौं, वट विरन्त जरहा ॥ १५॥ पवन परै रे जो उड, माटी विच गया। जो अकाशमें देखिये, चल रूप अचला ॥ पापी पावक पौन भू, चहुंयामै रस्सा । सो सब नाना रूप है, निहर्च पुट्टा ॥१६॥ खिणरोवे खिणमें हंस, जौं मदमतवल्ला । त्यों दुहुँबादी मौजसों, वेहोश सँभल्ला ॥ ईफसवीच विनोद है, इकम खलफल्ला । समदृष्टी सज्जन फेरे, दुईको हलमा ॥ १७ ॥
जाति दुईकी एक नी, मणि पत्थर डाला। ___ जल विचार संकोच नों, काहिए नदि नया ॥